सोमवार, 3 मार्च 2025

मेरी पहली काश्मीर यात्रा, भाग -2

 

रामबन से श्रीनगर

रामबन पार करते ही हम अब एक नए परिवेश में प्रवेश करते हैं, जो तंग घाटी, आसमान छूते पहाड़, गहरी खाइयों व चट्टानी मार्ग से होकर गुजरता है। रास्ते में कई सुरंगें मिली और कुछ में अभी जोरों-शोरों से काम चल रहा था। सड़क के नीचे खाई बहुत गहरी थी, सामने पहाड़ भी सीधे खड़े थे, जिनमें दुर्गम ऊँचाईयों में घर-गाँव बसे दिखे। अधिकाँश सड़क मार्ग से जुड़े लगे। यहाँ रह रहे लोगों के सौभाग्य, शांति-सुकून के साथ कठिनाईयों व मजबूरियों पर राह में मिश्रित भाव-चिंतन चलता रहा।

आगे खाई कम गहरी होती गई और सामने के गाँव-घर तथा वसावट पास से दिख रहे थे। राह में अखरोट के सूखे वृक्षों के दर्शन शुरु हो चुके थे। घरों के आसपास खेतों व बंजर भूमि में अखरोट के वृक्ष वहुतायत में दिखते रहे। इस मौसम में वृक्ष बिना पत्तियों के ठूंठ लग रहे थे, लेकिन आ रहे मौसम में पत्तियों व फल लगने पर निश्चित ही ये वृक्ष यहाँ की सौंदर्य वृद्धि करते होंगे। हम तो इतनी संख्या में अखरोट के ठूंठ पेड़ देखकर ही रोमाँचित हो रहे थे, क्योंकि इनके साथ हमारे पहाड़ी गृह प्रदेश की यादें ताजा हो रही थीं, जहाँ मेड़ पर खेत में एक-दो पेड़ रहते हैं, जिनसे घर की आवश्यकता भर की पूर्ति होती है। अखरोट की व्यवसायिक खेती का चलन अभी वहाँ नहीं है।

राह में सीआरपीएफ के जवान मुस्तैदी से मोर्चा संभाले दिखे। सड़क के किनारे नद-नालों के ऊपर बन रहे फ्लाई-ऑवर भी एक नया प्रयोग लगे, जो भूस्खलन की स्थिति में यातायात को निर्बाध बनाए रखने में उपयोगी रहते होंगे। अधिकांश अभी निर्माणाधीन थे। घाटी के बाहर निकलने पर ही एक तैयार फलाईऑवर मिला, जिसको पार करते ही हमारा काश्मीर घाटी की सुंदर वादियों में प्रवेश होता है।

इससे पूर्व रास्ते में तमाम छोटी-बड़ी घाटियाँ दिखीं, जहाँ से कोई छोटी नदी व नाले नीचे मुख्य नदी में बह रहे थे। पीछे हर घाटी में पर्वत शिखरों से लेकर बीच इनकी गोदी व सड़क के किनारे गाँव व घर आवाद मिले। तंग घाटी को पार कर अब हम खुली घाटी में आ गए थे।

साथ ही सड़क के आस-पास की आवादी भी सघन हो रही थी। काश्मीर घाटी के दीदार का रोमाँच भी गति पकड़ रहा था। बस में वांईं ओर के दृश्य ही कैप्चर कर पा रहा था, आगे व दाईं ओर के दृश्यों को आंशिक रुप से ही कवर कर पा रहा था। सुंदर प्राकृतिक परिवेश में एक नई घाटी में आगे बढ़ते हुए रास्ते में एक टनल आती है, जो संभवतः काफी लम्बी निकली।

हम वनिहाल में थे, वाईं ओर वनिहाल रेल्वे स्टेशन की भव्य उपस्थिति दिख रही थी, जिसके सामने आसमान छूता तिरंगा हवा में लहरा रहा था।


मालूम हो कि बनिहाल से श्रीनगर तक नियमित रुप से रेल चलती है, यात्रा चाहें तो इस रुट का भी आनन्द उठा सकते हैं।

गाड़ी सरपट घाटी में आगे बढ़ रही थी, शीघ्र ही हमें वाईँ ओर बर्फ से ढके पर्वत श्रृंखला के दर्शन अपने वाईं ओर होते हैं, जिनमें बर्फ की भरपूर मात्रा में देखकर हम आश्चर्यचकित और रोमाँचित होते हैं। हमें अनुमान नहीं था कि हमें रास्ते में ही इतनी वर्फ देखने को मिलेगी।


सांसे थामकर हम इन्हें निहारते रहे व यथासंभव मोबाइल में कैप्चर करते रहे। ये कौन सी पर्वतश्रृंखला है, कोई वहाँ बताने वाला नहीं था।

रास्ते में काजीकुंड स्थान पर गाड़ी लंच के लिए रुकती है। आज शुक्रवार का दिन था, जुम्मे की नमाज़ थी, हमारे चालक सवारियों से कहकर इसमें भाग लेने के लिए जाते हैं। सो कुछ समय मिलता है और हम भी ढावा मालिक से कुछ संवाद करते हैं। पता चलता है कि यहाँ सर्दियों में 4-6 फीट बर्फ गिरती है, जबकि श्रीनगर साइड कम बर्फ पड़ती है। हमारे लिए यह एक नई जानकारी थी।

चालक के आते ही बस चल पड़ती है। आगे घाटी का विस्तार और बढ़ रहा था। हिमाचल में सुंदरनगर से मंडी के बीच की वल्ह घाटी जैसा कुछ नजारा था। लेकिन यहाँ लैंडस्केप कुछ अलग था।


खेतों का विस्तार पंजाब-हरियाण के मैदानी इलाकों जैसे लग रहा था, जिसमें पोपलर की कतारवद्ध खेती बीच-बीच में दिखती गई। कई चोकोर खिड़कियों से जड़े यहाँ के घरों का विशिष्ट बनाव यहाँ की विशिष्ट पहचान लग रही थी।

खेतों में कुछ उग रहा था, क्या था, कोई बताने वाला नहीं था। अनुमान था कि मटर व आलू आदि की सब्जियाँ होगीं। साथ ही केसर का भी अनुमान लगा, क्योंकि बीच में हम पंपोर क्षेत्र से गुजरे, जो केसर के लिए विश्वभर में जाना जाता है।

काश्मीर सेब के लिए भी प्रख्यात है। भारत में अधिकाँश सेब काश्मीर में पैदा होता है। इनके बगानों को देखने की इच्छा बहुत थी, लेकिन निराशा ही हाथ लगी। बाद में पीछे बैठे काश्मीरी भाई से पता चला कि सेब इस रुट पर कम दिखेगा, इसके बगीचे आपको अन्दर जा कर मिलेंगे। पता चला कि शोपियां, पुलवामा, सोपोर, अनन्तनाग और श्रीनगर जिले के ग्रामीण आंचल में सेब की उम्मदा खेती होती है। रास्ते में एक दो बगीचे ही अपवाद रुप में दिखे।

रास्ते में घर की छतों पर सड़क के किनारे बहुतायत में बैट्स के बल्लों के ढेर सूखते दिखे। बैट्स का विज्ञापन करती दुकानें भी रास्ते भर दिखती रहीं। लगा कि यहाँ क्रिकेट बेटस का निर्माण एक उद्योग के रुप में विकसित है, जो काश्मीरी विल्लो लकड़ी से बनता है।

अब हम श्रीनगर के समीप पहुँच रहे थे। रास्ते में एक नदी के दर्शन होते हैं, जिस पर कुछ नावें चल रही थीं व अधिकाँश किनारे पर लगी थीं।


पता चला कि यही जेहलम नदी है, जिसे श्रीनगर की जीवन-रेखा कहा जाता है। वेरीनाग स्थान इसका उद्गम स्थल है औऱ यह बुलर लेकर से होते हुए श्रीनगर को पार करते हुए यहाँ पहुँचती है।

खेत, गाँव, कस्वों व झेलम नदी को पार करते हुए हम अन्ततः श्रीनगर में प्रवेश करते हैं। पहाड़ों की गोद में बसे इस शहर को हम पहली बार नज़दीक से देख रहे थे।


यहाँ के कई लैंडमार्ग भवन रास्ते में दिखते रहे। झेलम नदी भी लुकाछिपी करती रही, कई बार इसके रास्ते में दर्शन होते रहे। सामने ऊँचे पहाड़ से घिरा श्रीनगर हमारे सामने प्रत्यक्ष था। आखिर आठ घंटे के सफर के बाद हम दोपहर चार बजे टीआरसी बस-स्टैंड पर थे।

यहाँ से हमारा गन्तव्य 10-12 किमी दूर था। ऑटो-टेक्सी में बैठकर यहाँ पहुंचते हैं। मार्ग डल झील के बीच से होकर गुजर रहा था। चालक हमें रास्ते में झील के किनारों से परिचित कराता हुआ मंजिल तक पहुँचाता है। रास्ते में काफी भीड़ थी। पता चला कि आज हजरतबल की दरगाह में जुम्मा की नमाज़ के कारण यह भीड़ थी। इस दरगाह को मुस्लिम आवादी का एक पावनतम तीर्थ स्थल माना जाता है। 

आधा घंटे में हम निशांत बाग स्थित ट्राइडन होटल में थे। स्वागत कक्ष में हमारा भाव भरा स्वागत होता है। कमरे में सामान छोड़ हम तरोताजा होते हैं और काश्मीरी कहबे के साथ सफर के अनुभवों को याद कर, इनकी जुगाली करते हुए विश्राम करते हैं। विश्वास नहीं हो रहा था कि हमारी पहली कश्मीर यात्रा सम्पन्न हो रही है औऱ हम डल झील के समीप पर्वत शिखरों से घिरे एक होटल के कमरे में बैठे विश्राम कर रहे हैं।

शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2025

मेरी पहली काश्मीर यात्रा, भाग -1


हरिद्वार से जम्मु - रामवन

आज संयोग बन रहा था काश्मीर की चिरप्रतिक्षित यात्रा का, एक अकादमिक कार्यशाला के वहाने। काश्मीर यूनिवर्स्टी, श्रीनगर में 15 फरवरी, 2025 के दिन आयोजित इस कार्यशाला (SWAYAM OUTREACH WORKSHOP) के लिए 13 फरवरी की शाम हरिद्वार से निकल पड़ता हूँ। यात्रा का हवाई विकल्प भी था, लेकिन इच्छा थी जम्मू से काश्मीर तक सड़क यात्रा के माध्यम से पूरे रूट के भूगोल, राह के मुख्य पड़ावों, प्राकृतिक सौंदर्य, आकर्षणों व विशेषताओं को देखने समझने व निहारने की। साथ ही राह में लोकजीवन को भी चलती-फिरती नज़र में अनुभव करना चाहता था।

सो हरिद्वार से हेमकुण्ट एक्सप्रैस के डिब्बे में बैठ जाता हूँ, लोअर वर्थ की निर्धारित सीट पर। शाम को ठीक 6.30 बजे ट्रेन चल पड़ती है। चलते ही सभी सवारियाँ अपने-अपने बर्थ को खोल कर लेट जाते हैं। हम भी लेटे-लेटे अपने सफर को पूरा करते हैं। रास्ते में रुढ़की के पास टीटी आकर कुशल-क्षेम पूछते हुए आगे बढ़ते हैं। रास्ते में ट्रेन में उपलब्ध डिन्नर लेते हैं। सीट पर आढ़े-तिरछे बैठे ही भोजन ग्रहण करते हैं। फिर करवटें बदलते हुए किसी तरह से रात गुजारते हैं। लगा कि अपनी उम्र के हिसाब से अब लोअर बर्थ में रात के सफर का समय चूकता जा रहा है।

सुबह साढ़े पाँच बजे ट्रेन जम्मु पहुँचती है। रास्ते में सवारियाँ अपने-अपने स्टेशनों पर उतरती चढ़ती गईं। लुधियाना के आसपास फिर टीटी साहब के दर्शन होते हैं, जो नई सवारियों का ही हालचाल पूछ आगे बढ़ते हैं। बाहर झांकने का अधिक मतलब नहीं था, क्योंकि अंधेरे में बाहर के नजारे सब एक जैसे लग रहे थे।

लगभग 12 घंटे की यात्रा के बाद सुबह पाँच बजे हम जम्मु स्टेशन पर उतरते हैं।


ट्रेन आगे कटरा तक जा रही थी, जिसमें माता वैष्णों देवी के दर्शनार्थी बैठे हुए थे। स्टेशन पर वेटिंग रूम की खोज में पूरे स्टेशन की पूरी परिक्रमा कर डालते हैं। स्टेशन के सामने के उत्तरी छोर तक पहुँचते हैं, जो जनरल वेटिंग रुम था। फिर पूछने पर पता चलता है कि एसी वेटिंग रुम नीचे दक्षिण में सबसे निचले छोर पर है, जहाँ से आगे बढ़ते हुए हम पुल से उतरकर सामने से गुजरे थे।

वेटिंग रुम में फ्रेश होकर, चाय-बिस्कुट के साथ थोड़ी गर्माहट पाते हैं। और थोड़ा देर बैठे-बैठे ध्यान करते हुए ट्रेन सफर की अकड़न-जकड़न से भी निजात पा लेते हैं और रिचार्च होकर पौने सात बजे बाहर बस-स्टैंड की ओर बढ़ते हैं, जो स्टेशन के बाहर मात्र 200-300 मीटर की दूरी पर सामने हैं। यहीं से जम्मु काश्मीर रोडबेज ट्रांस्पोर्ट कॉरपोरेशन (JKRTC) की बसे चलती हैं।

बस सामने खड़ी थी, रेडबस एप्प से बुक की हुई सीट में जाकर बैठते हैं। सामने आगे एक बुजुर्ग बस में बैठे थे और सवारियाँ एक-एक कर चढ़ रही थीं। हमारे आगे-पीछे व बग्ल में राजस्थान के कुछ युवा बस में चढ़ते हैं, जिनमें अधिकाँश पहली बार वहाँ जा रहे थे। आगे व सबसे पीछे एक-दो काश्मीरी भाई लोग तथा एक सरदार माँ-बेटा बैठते हैं। बुजुर्ग की कन्डक्टर से बहस होती है, जो सुबह साढ़े पाँच बजे से अगली सीट का चयन कर बैठे थे। जबकि यह सीट ऑनलाइट बुकिंग हो चुकी थी।

बस के बग्ल में दूसरी ऐसी ही बस खड़ी थी, जिसमें समानान्तर सवारियाँ भरी जा रही थी। नई सवारियों को उसमें भरा जा रहा था। इस तरह हमें समझ आया कि ऑनलाइन बुकिंग के बाद जो सीटें बचती हैं, उनमें ऑफलाइन सवारियों को सीट मिलती हैं, जिनकी बुकिंग वहीं सामने काउंटर पर हो जाती है तथा इनका किराया भी कुछ कम रहता है।

जम्मु से रामनगर तक का सफर

ठीक 8 बजे हमारी बस चल पड़ती है। ड्राइवर काफी माहिर लग रहा था और गाड़ी को पूरे कंट्रोल में तेजी से दौड़ा रहा था। ये हर पहाड़ी इलाकों में यात्रा का अनुभव रहता है, जहाँ के लोक्ल चालक यहाँ की सर्पिली राहों पर आए-दिन चलते रहते हैं और अचेतन मन में इनको रास्ते के हर मोड़, उतार-चढ़ाव व बारीकियां फिट रहती हैं।

शहर को पार करते हुए जम्मु शहर के मुख्य भवन व लैंडमार्क ध्यान आकर्षित करते रहे। रास्ते में एक नदी को पार किए, पानी काफी कम था और गंदला भी। नदी से अधिक नाले की तरह लग रही थी, उसके पुल को पार कर आगे बढ़ते हैं। वाइं और बैठे होने के कारण दाईँ ओर के नजारे आंशिक रुप से ही दिख रहे थे। लेकिन इतने में ही रास्ते का मोटा-मोटा अंदाज हो रहा था। हाँ हमारी विडियो केप्चरिंग इसके कारण एक तरफा ही अधिक हो पा रही थी। योजना थी कि बापिसी में दूसरी ओर बैठकर रही सही कसर पूरी कर लेंगे।

रास्ते में ही वाईं ओर आईआईटी जम्मु के दर्शन होते हैं, आगे नदी के किनारे पहाड़ी के संग बसे जम्मु शहर का घाटी नुमा लैंडस्केप भी दिख रहा था। इसी राह में आगे जंगल के बीच सुनसान जगह टीले पर आईआईएम, जम्मु के भव्य भवन के दर्शन होते हैं।


इसी के साथ हम शहर के बाहर निकल चुके थे और आगे कटरा की ओर बढ़ रहे थे, जो संभवतः यहाँ से लगभग 30 किमी आगे रहा होगा।

अब हमारी बस पहाडियों की गोद में सर्पदार सड़क के साथ झूमती हुई सरपट आगे बढ़ रही थी। फोरलेन सड़क पर सफर काफी खुशनुमा लग रहा था, रास्ते में कहीं हरे-भरे, तो कही चट्टानी पहाड़ों व वादियों के दर्शन हो रहे थे। इसी क्रम में हम पहली सुरगं पार करते हैं। आगे हमारे रास्ते में कटरा का कस्बा पड़ा। दूर से ही पहाड़ों पर माता वैष्णो देवी के मार्ग की जिगजैग सड़कें व सफेद रंग के भवन दिख रहे थे।


माता को अपना भाव निवेदन करते हुए हम आगे बढ़ते हैं औऱ सहज ही याद आ रहे थे, पिछले ही वर्ष अक्टूबर माह में अपनी पहली माता वैष्णो देवी की यात्रा के यादगार पल।

अगले लगभग 50-70 किमी हम नदी के किनारे घाटी के बीच सपाट सड़कों पर झूमती हुई गाड़ी में बैठे बाहर की वादियों, गाँव-कसवों व प्राकृतिक नजारों को देखते रहे। सुदूर पहाड़ियों के शिखर पर हरे जंगलों व विरल गाँव-घरों को निहारते हुए सफर का आनन्द लेते रहे। रास्ते में खाने-पीने व
ठहरने की रंग-बिरंगी दुकानों व होटल की कतारे ध्यान आकर्षित कर रही थीं। लगा कि इस रुट पर पर्यटकों की भीड़ के कारण लोगों के लिए रोजगार के ये एक महत्वपूर्ण साधन रहते होंगे।

खेती-बाड़ी व बागवानी की गुंजाइश यहाँ की पहाड़ी ढलानों पर बहुत अधिक नहीं दिख रही थी। रास्ते में चिनैनी (Chenani) स्थान पर नाश्ते के लिए हमारी गाड़ी रुकती है। नाश्ते में आलू-पराँठा व राजमाह की दाल परोसी गई और साथ में प्रयोग के तहत नमकीन चाय ली।


थाली के आकार के एक परौंठे से पेट भर गया औऱ साथ में नमकीन चाय हमारे लिए नया अनुभव था। बाहर उस पार घाटी के पीछे बर्फ से ढकी चोटियाँ रोमाँच का भाव पैदा कर रही थीं, लेकिन इनके बारे में अधिक जानकारी देने वाला कोई जानकार नहीं दिखा।

यहाँ नाश्ते के बाद गाड़ी चल पड़ती है औऱ एक टनल के पार दूसरी घाटी में प्रवेश का अहसास होता है। साथ ही पता चला कि इस टनल के कारण अब रास्ता लगभग 50 किमी कम हो गया है, नहीं तो ऊपर पहाड़ी मार्ग से पटनी टॉप पार करते हुए यहाँ पहुंचना होता था। यह कुछ ऐसे ही लगा जैसे कुल्लू-मानाली में रोहतांग पास की चढ़ाई को पार करने की बजाए अटल टनल बनने से अब हम सीधे लाहौल घाटी में प्रवेश कर जाते हैं। वहाँ भी दो-तीन घंटे की बचत होती है औऱ यहाँ भी लगा कि इस टनल बनने से दो-तीन घंटों की बचत हुई होगी।

नई घाटी में दाईं ओर नीले रंग की नदी के किनारे हम आगे बढ़ रहे थे, जिसके विहंगम दर्शन आगे पुल पार करते हुए होते हैं।


यह चनाव नदी है, जो हिमाचल प्रदेश के लाहौल-घाटी में चंद्र-भागा नदी के रुप में बहती है, तांदी स्थान पर चनाव का नाम लेती है और फिर उदयपुर से होती हुई, चम्बा व फिर जम्मु-काश्मीर में प्रवेश करती है। ग्लेशियर हिमखंडों के पिघलने से निकले इसके निर्मल जल की झलक इसके नील वर्णीं स्वरुप से स्पष्ट हो रही थी, जो आँखों को ठंड़क और चित्त को शीतलता का सुकून भरा अहसास दिला रही थी।

पुल पार कर अब नदी हमारे बाइं ओर से बह रही थी। नदी के उस पार एक सुंदर सी बसावट दिखी, इसे एक बड़ा सा कस्वा कह सकते हैं, जिसका नाम रामबन पता चला, इसका विहंगम दृश्य इस साइड से देखते ही बन रहा था।  अगले कुछ मिनट हम इस कस्वे के समानान्तर सफर करते रहे और इसके पीछे की पहाड़िंयों, विरल वादियों, खेत व वगानों के मनभावन दृश्यों को यथासंभव केप्चर करते रहे। रास्ते में ही एक खुला बस स्टैंड दिखा, जहाँ से एक सड़क दायीं ओर गाँव की ओर जा रही थी। पता चला कि यह सब रामबन ही चल रहा था।

यह रोचक जानकारी भी पता चली कि रामबन जम्मु से काश्मीर यात्रा का मध्य बिंदु है। यहाँ तक लगभग 150 किमी का सफर पूरा कर चुके थे और आगे श्रीनगर तक 150 किमी का सफर तय करना शेष था। हालाँकि रास्ते में कई सुरंग बनने से अब यह दूरी कम हो रही है।

शुक्रवार, 31 जनवरी 2025

धर्म-अध्यात्म का मर्म बोध


एक सच्चे धार्मिक-आध्यात्मिक व्यक्ति की पहचान

धर्म अध्यात्म इतने प्रचलित शब्द हैं, कि भारत भूमि में क्या बच्चा, क्या बुढ़ा, क्या युवा, क्या महिला – सब इनको जानते हैं। जानते ही नहीं, किसी न किसी रुप में इन्हें अपने जीवन में जीने का प्रयास भी कर रहे होते हैं। लेकिन इस सबके बावजूद इनके बारे में भ्रम का कुहासा भी कम सघन नहीं है और धर्म-अध्यात्म के नाम पर नाना प्रकार के चित्र-विचित्र एवं हास्यास्पद कृत्यों को चारों ओर घटित होते देखा जा सकता है। सस्ते में बहुत कुछ लूटने-बटोरने के शार्टकट रास्तों को अपनाते लोगों को देखा जा सकता है।

आश्चर्य़ नहीं कि धर्म-अध्यात्म की समझ के अभाव में, अधिकाँश लोग सच्चे धार्मिक व आध्यात्मिक व्यक्ति की पहचान में प्रायः चूक कर बैठते हैं। बाहरी बेश-भूषा, रुप-रंग आदि को मानक मानते हुए लोग प्रभावित हो जाते हैं। इससे भी आगे किसी हठयोगी, कर्मकाण्डी, चमत्कार दिखाने वाले तांत्रिक-मांत्रिक को देखकर तो नतमस्तक ही हो बैठते हैं, जैसे धर्म-अध्यात्म का सार तत्व इनकी बाजीगरी में छिपा हुआ हो।

लेकिन धर्म-अध्यात्म की डगर थोड़ी विचित्र है, रहस्यमयी है, निराली है। जिसको इसमें गहरे उतरे बिना, इसके मर्म को जीवन में धारण किए बाना, अस्तित्व की पहेली को सुलझाने की ईमानदार कवायद के बिना समझ पाना थोड़ा कठिन है। क्योंकि धर्म-अध्यात्म बाहरी कर्मकाण्ड, वेशभूषा, हठयोग व प्रदर्शन से अधिक एक सूक्ष्म तत्व है, जिसे बाहरी स्वरुप देखकर नहीं पहचाना जा सकता।

यह सच है कि जनसाधारण के लिए धर्म के गर्भ से ही अध्यात्म का उद्भव होता है। जैसे बच्चों की स्कूली पढ़ाई कखग से शुरु होती है, जहाँ क से कबूतर, ख खरगोश के बालबोध के साथ अक्षरज्ञान करवाते हुए आगे की शिक्षा दी जाती है। ऐसे ही अध्यात्म की गुह्यता में प्रवेश करने के लिए धर्म के कर्मकाण्डों, पूजा-पाठ व स्थूल उपकरणों का सहारा लिया जाता है। इसके लिए बाहरी वस्त्र, वेश व प्रतीकात्मक उपचारों को भी धारण करना पड़ सकता है।

लेकिन यह प्राथमिक पाठशाला भर है। धार्मिक क्रियाक्लाप के साथ, स्वाध्याय-सतसंग का सहारा लेते हुए, व्यक्ति आस्तिकता के भाव को धारण करते हुए अध्यात्म की ओर प्रवृत्त होता है। मैं भी ईश्वर अंश अविनाशी हूँ, अमृतपुत्र हूँ और जीवन का सार तत्व अपने ही अंदर है और सारा संसार अंतर्निहित दिव्यता का ही विस्तार है, ऐसी जीवन दृष्टि के साथ अध्यात्म में प्रवेश पात्रता विकसित करते हुए साधक अस्तित्व की पहेली के समाधान के लिए गहराई में उतर पड़ता है।

व्यवहारिक रुप में धर्म और अध्यात्म की कसौटी मन की शांति, स्थिरता, प्रसन्नता और सुकून से है। एक कर्मयोगी अपने कर्तव्य कर्म को करते हुए इन्हें उपलब्ध हो सकता है, जिसको सामान्य सी सांसारिक वेशभूषा में जीवनयापन करते हुए देखने पर पहचानने में भूल हो सकती है। हो सकता है कि वह धार्मिक कर्मकाण्ड में अधिक विश्वास न रखता हो, न ही भक्ति के लिए उसके पास अधिक समय हो, न ही किसी योगी की तरह लम्बे ध्यान में बैठता हो। लेकिन अपने कर्तव्य कर्म को ही भगवान मानते हुए चेतना की उच्च अवस्था की अग्रसर हो रहा हो।

आश्चर्य़ नहीं की ऐसे कर्म में प्रवृत जुलाहा कबीर हो सकते हैं, मोची का काम करते हुए संत रविदास हो सकते हैं। कसाई धर्म निभाते हुए सदना संत हो सकते हैं। सामान्य से गृहस्थ नाग महाशय ईश्वरकोटी आत्मा हो सकते हैं। खेत में हल जोतता किसान, रेल्वे में नौकरी करते युक्तेश्वरगिरि महायोगी हो सकते हैं। ऐसे ही पुराणों में वर्णित एक सामान्य सी गृहिणि, पतिव्रता स्त्री आध्यात्मिक चेतना के शिखर पर जी रही हो सकती है। ऐसे अनगिन उदाहदरण हैं, जो धर्म-अध्यात्म की प्रचलित कसौटी के स्थूल मानदंडों  पर खरा नहीं उतरते, लेकिन धर्म-अध्यात्म की कसौटी पर सौ टक्का खरा उतरते हैं।

इसी तरह रामकृष्ण परमहंस, महर्षि रमण, तैलंग स्वामी, देवरहा बाबा को बाहर से देखने पर पहली बारगी कौन उनके सिद्धत्व को पहचान पाता है। इनका सामान्य से भी अतिसामान्य एवं साधारण स्वरुप किसी को भी भ्रमित करता है। लेकिन पारखी लोग इनका सतसंग कर तर जाते हैं और कितनों को तरने का मार्ग दिखा जाते हैं।

इस युग में साधारण सी हवाई चप्पल के साथ खादी का धोती-कुर्ता पहने एक सामान्य से गृहस्थ को देखकर कौन अनुमान लगा सकता था कि कोई गायत्री का सिद्ध साधक, सम्पूर्ण आर्षवांड्मय का युगानुकूल भाष्य कर 3200 पुस्तकों का रचियेता, जीवन के हर विषय पर अपनी कलम चलाने वाला युग व्यास, युग की हर समस्या के समाधान प्रस्तुत करने वाले युगऋषि पं.श्रीराम शर्मा आचार्य 21वीं सदी उज्जवल भविष्य और युग परिर्वतन का युगांतरीय कार्य कर इस धराधाम से चले जाते हैं, जिनकी धर्म-अध्यात्म की युगानुकूल वैज्ञानिक एवं व्यवहारिक व्याख्या आज भी लाखों-करोड़ों परिजनों का मार्गदर्शन कर रही है।

उनके द्वारा बताई गई धर्म-अध्यात्म की एक ही कसौटी रही, जो है व्यक्ति के सद्गुण। व्यक्ति कितना ईमानदार है, जिम्मेदार है ये उसकी व्यवहारिक कसौटियाँ हैं। उसके लिए अपना कर्तव्य धर्म पहली पूजा है, इसके बाद ही पूजा पाठ का कर्मकाण्ड उसके लिए मायने रखता है। अपार धैर्य, सहिष्णुता, उदारता और सद्भाव उसके अन्य गुण हैं। लेकिन इसका अर्थ ये भी नहीं कि वह असुरता, अधर्म को मूकदर्शक बनकर देखता रहे। इसलिए समझदारी और बहादुरी उसके अभिन्न गुण हैं। इनके साथ श्रमशीलता, मितव्ययिता, सुव्यवस्था, शालीनता, सहकारिता जैसे व्यवहारिक गुण य़ुगऋषि द्वारा परिभाषित हैं।

एक सच्चा धार्मिक एवं आध्यात्मिक व्यक्ति जीवन के अंदर और बाहर, अपने घर-परिवार, परिवेश और समाज में, राष्ट्र एवं विश्व में सत्यता, संवेदना, इंसानियत से युक्त धर्म की स्थापना का माध्यम बनता है, युग परिर्वतन के लिए उद्यत महाकाल की चेतना का संवाहक होता है।


शनिवार, 7 दिसंबर 2024

मेरी पहली गंगोत्री धाम यात्रा, भाग-5

मुखबा गाँव के दर्शन और घर बापिसी

रोज रात को और सुबह होटल की वाल्कनी से भगीरथी नदी के पार मुखबा गाँव  की टिमटिमाती रोशनी ध्यान आकर्षित करती रही। अपने गृह प्रदेश में ठीक कुछ ऐसा ही दृश्य घर के सामने गाँव पेश करता। बैसे ही गगनचूम्बी पर्वतों की गोद में बसे यह गाँव दिखता। लेकिन शैक्षणिक भ्रमण के व्यस्त कार्य़क्रम के चलते मुखबा गाँव छूटता दिख रहा था, लगा कि अगली बार ही यहाँ के दर्शन संभव होंगे।

टूर के अंतिम दिन प्रातः 6 बजे हरिद्वार के लिए कूच करना था, सो पिछली रात को नौ बजे ही निद्रा देवी की गोद में सो गए थे और प्रातः स्नान-ध्यान के पश्चात पौने छः बजे ही नीचे बस की ओर निकल देते हैं। लेकिन दल के सदस्यों की तैयारी देखकर लगा कि आधा-पौन घंटा अभी इनको तैयार होने में लगेगा, तब तक हम कल्प-केदार मंदिर के समीप स्थित तपोवनी माता की तपःस्थली के दर्शन कर आते हैं। यह मंदिर तो हमें नहीं मिला, लेकिन भटकते-भटकते 10 मिनट में नीचे भगीरथी पुल तक पहुँच गए।

राह में सेब से लदे बगीचों के सुंदर नजारों को यथासंभव मोबाईल में कैप्चर करते रहे और पुल से भगीरथी का दृश्य देखते ही बन रहा था। इसको पार कर एक स्थान पर आसन जमाकर धराली साइड के दृश्य का अवलोकन करते हैं। यहाँ से सामने गाँव, पहाड़ और पीछे हिमशिखर का दृश्य देखते ही बन रहा था और उत्तर की ओर मार्कण्डेय ऋषि का मंदिर, भगीरथी नदी का विस्तार, देवदार के जंगल और पीछे गंगोत्री साइड की चोटियाँ – ध्यान के लिए एक आदर्श लोकेशन प्रतीत हो रही थी। कुछ मिनट सड़क किनारे चबूतरे पर यहाँ पालथी मार कर इसी दृश्य में खोए रहे।

स्थानीय लोगों से पता चला कि यहाँ से मुखबा मंदिर महज 1 किमी सीधी चढ़ाई के बाद पड़ता है, सो दल के शेष सदस्यों को फोन से बुलाकर वहाँ दर्शन की योजना बनती है। लगा कि दो दिन से चल रही ह्दय की उहापोह और गंगा मैया की कृपा के चलते संयोग घटित हो रहा था और जैसे बुलावा आ गया है।

कुछ ही मिनट में दल यहाँ पहुंचता है और मुख्य द्वार से प्रवेश करते हुए खेत-बगीचों के बीच ऊपर चढ़ते हैं। रास्ते में नए दर्शकों को राजमाँ, बागुकोशा, खुमानी, गोल्डन व रॉयल एप्पल, अखरोट आदि के वृक्षों, फलों व खेती से परिचय करवाते हैं। साथ ही जंगली पालक, बिच्छु बूटी व अन्य स्थानीय जंगली जड़ी बूटियों की भी जानकारी देते हैं।

आधे-पौन घंटे में हम सीधी चढ़ाई पार करते हुए ऊपर मोटर मार्ग तक पहुँच गए थे, जहाँ से बाईं ओर आगे का रास्ता हर्षिल की ओर जा रहा था। हम यहाँ से दाईं ओर ऊपर चढ़ते हैं और सौ मीटर ऊपर मंदिर परिसर में प्रवेश करते हैं।

मुखबा के मंदिर को मुखीमठ बोलते हैं, जो गंगाजी का शीतकालीन आवास है, जहाँ नबम्वर से अप्रैल तक छः माह इनका वास रहता है औऱ फिर गंगोत्री धाम के कपाट खुलने पर इनका प्रस्थान होता है और गंगोत्री में विधिवत पूजा शुरु होती है।

इस शांत एकांत गाँव में स्थित मंदिर का स्थापत्य देखते ही बनता है। लकड़ी के मंदिर में बहुत सुंदर नक्काशी हुई है। संयोग से पुरोहित जी मंदिर में हाजिर होते हैं, इसके बाद ये मार्कण्डेय ऋषि के मंदिर में प्रस्थान करने वाले थे। लगा हमारी टाइमिंग गंगा मैया ने निर्धारित कर रखी थी। विधिवत पूजन के बाद पंडित जी से यहाँ का संक्षिप्त व सारगर्भित परिचय प्राप्त होता है।

दर्शन के बाद मंदिर प्रांगण में सामूहिक फोटोग्राफी होती है। मंदिर के ठीक सामने दूसरी पहाड़ी से झांकते हिमाच्छादित श्रीखण्ड शिखर के दर्शन देखते ही बन रहे थे। नीचे उतरते हुए सामने धराली साइड के दर्शन करते रहे। उगते हुए सूरज की रोशनी में घाटी जगमगा रही थी। बापिसी में पेड़ से गिरे सेब, बागूकोश आदि फलों को प्रसाद रुप में एकत्र करते हैं। और आधे घंटे में धराली पहुँचते हैं।

समूह का एक दल जो छूट गया था, उसे भी दर्शन के लिए भेजते हैं। और धराली में बाजिव दाम पर यहाँ से सेब खरीदते हैं। यहाँ की एक दुकान में परांठा चाय का नाश्ता होता है। कस्बा कहें या गाँव, धरारी मार्केट का शांत माहौल भीड-भाड से भरे हिल स्टेशन के अशांत वातावरण के एकदम विपरीत शांति-सुकून भरा लग रहा था, यहाँ का जीवन ठहरा हुआ सा दिखा। जीवन जैसे प्रकृति की गति से धीरे-धीरे अनन्त धैर्य के साथ प्रवाहमान है।

इसी बीच समय निकाल कर हम यहाँ माँ सुभद्रा (तपावनी माता) की तपःस्थली के भी दर्शन किए, जो कल्प-केदार होटल के एकदम पास में निकला, जिसकी खोज में सुबह हम भगीरथी नदी तक पहुँच गए थे। यहाँ उनके शिष्य बाबा कालू से मुलाकात हुई, इस तपःस्थली के बारे में अपनी जिज्ञासाओं का समाधान पाया। कालू बाबाजी इस समय मंदिर की देखभाल कर रहे हैं और नैष्ठिक तीर्थयात्रियों के लिए अखण्ड भण्डारे व ठहरने की व्यवस्था देखते हैं।

अब तक पूरा दल बस में बैठ चुका था। और हमारी बापिसी का सफर आगे बढ़ता है। रास्ते में हर्षिल के दर्शन होते हैं, बगोरी गाँव को दूर से विदा करते हैं। और रास्ते में जो रुट तीन दिन पहले आते समय अंधेरे में कवर किए थे, उसे दिन के उजाले में देखने की तमन्ना पूरी होती है। इसी क्रम में झाला से लेकर सुक्खु टॉप तक पहुँचते हैं।

रास्ते भर सड़क के दोनों ओऱ सेब से लदे बगान, देवदार के जंगल, छोटे-छोटे कस्बे, होटल, होम-स्टे और सेब की पैकिंग के दृश्य। पहले ऊपर चढाई, फिर सीधे आगे दो-तीन किमी लम्बा मार्ग औऱ फिर सुक्खु टॉप से नीचे की जिगजैग उतराई। रास्ते भर छोड़े बड़े झरने व नालों के दर्शन होते रहे। उस पार बर्फ से ढके पहाड़ों से नीचे दनदनाते नाले भी दर्शनीय रहे। जिनको देखकर सहज ही परमपूज्य गुरुदेव की पुस्तक सुनसान के सहचर पुस्तक के संस्मरण याद आ रहे थे।

सुक्खु टॉप से नीचे घाटी में पहुँचने पर वायीं ओर गर्जन-तर्जन करती रौद्र रुप लिए भगीरथी के संग आगे बढ़ते हैं तथा पुल पार कर लेफ्ट बैंक में गंगनानी के दर्शन और राइट बैंक में भटवारी, गंगोरी और फिर वाईपास से होते हुए उत्तरकाशी पहुँचते हैं। रास्ते में दिन के ऊजाले में उत्तरकाशी शहर के दर्शन होते हैं और भूस्खलन के कारण समाचार में अक्सर सुर्खी बनते वर्णावत पर्वत को भी देखते हैं। यहाँ एक मैदान में भोजन के लिए गाड़ी रुकती है।

पहले हम पास ही स्थिति भगवान विश्वनाथ के दर्शन करते हैं। इसके भव्य परिसर में दिव्य दर्शन का लाभ लेकर इससे जुड़े इतिहास, पौराणिक मान्यताओं एवं भविष्य कथन को पढ़कर अविभूत होते हैं, हालाँकि आज का दर्शन परिचयात्मक भर था। अगली बार अधिक समय लेकर उत्तरकाशी को एक्सप्लोअर करेंगे, ऐसा भाव प्रवल हो रहा था।

पेट पूजा कर पूरा दल बस में चढ़ता है और कमान्द से होकर चम्बा से पहले उस ठिकाने पर रुकता है, जहाँ जाते समय हम लोग रुके थे। यहाँ चाय-नाश्ता कर रोचार्ज होते हैं और किबी के पैकेट खरीदते हैं।

बापिसी में चम्बा पार करते-करते अंधेरा हो चुका था और आल बेदर रोड़ के संग सरपट दौड़ती हुई गाड़ी आगराखाल को पार करते हुए नरेंद्रनगर और फिर ऋषिकेश पहुँचती है तथा अगले आधा घंटे में 9 बजे तक देवसंस्कृति विश्वविद्यालय के प्रांगण में पहुंचते हैं।

इस तरह गंगा मैया की कृपा से तीन दिन में सम्पन्न गंगोत्री धाम की यह सकुशल यात्रा एक अमिट छाप छोड़ जाती है, जिसमें कई प्रश्नों के उत्तर मिले, कई जिज्ञासाओं को शाँत किया और जिज्ञासाओं की कुछ नई कौंपलें भी फूंटी, जो अगली यात्राओं के लिए प्रेरक ईँधन का काम करती रहेंगी।

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