शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2025

मेरी पहली काश्मीर यात्रा, भाग -1


हरिद्वार से जम्मु - रामवन

आज संयोग बन रहा था काश्मीर की चिरप्रतिक्षित यात्रा का, एक अकादमिक कार्यशाला के वहाने। काश्मीर यूनिवर्स्टी, श्रीनगर में 15 फरवरी, 2025 के दिन आयोजित इस कार्यशाला (SWAYAM OUTREACH WORKSHOP) के लिए 13 फरवरी की शाम हरिद्वार से निकल पड़ता हूँ। यात्रा का हवाई विकल्प भी था, लेकिन इच्छा थी जम्मू से काश्मीर तक सड़क यात्रा के माध्यम से पूरे रूट के भूगोल, राह के मुख्य पड़ावों, प्राकृतिक सौंदर्य, आकर्षणों व विशेषताओं को देखने समझने व निहारने की। साथ ही राह में लोकजीवन को भी चलती-फिरती नज़र में अनुभव करना चाहता था।

सो हरिद्वार से हेमकुण्ट एक्सप्रैस के डिब्बे में बैठ जाता हूँ, लोअर वर्थ की निर्धारित सीट पर। शाम को ठीक 6.30 बजे ट्रेन चल पड़ती है। चलते ही सभी सवारियाँ अपने-अपने बर्थ को खोल कर लेट जाते हैं। हम भी लेटे-लेटे अपने सफर को पूरा करते हैं। रास्ते में रुढ़की के पास टीटी आकर कुशल-क्षेम पूछते हुए आगे बढ़ते हैं। रास्ते में ट्रेन में उपलब्ध डिन्नर लेते हैं। सीट पर आढ़े-तिरछे बैठे ही भोजन ग्रहण करते हैं। फिर करवटें बदलते हुए किसी तरह से रात गुजारते हैं। लगा कि अपनी उम्र के हिसाब से अब लोअर बर्थ में रात के सफर का समय चूकता जा रहा है।

सुबह साढ़े पाँच बजे ट्रेन जम्मु पहुँचती है। रास्ते में सवारियाँ अपने-अपने स्टेशनों पर उतरती चढ़ती गईं। लुधियाना के आसपास फिर टीटी साहब के दर्शन होते हैं, जो नई सवारियों का ही हालचाल पूछ आगे बढ़ते हैं। बाहर झांकने का अधिक मतलब नहीं था, क्योंकि अंधेरे में बाहर के नजारे सब एक जैसे लग रहे थे।

लगभग 12 घंटे की यात्रा के बाद सुबह पाँच बजे हम जम्मु स्टेशन पर उतरते हैं।


ट्रेन आगे कटरा तक जा रही थी, जिसमें माता वैष्णों देवी के दर्शनार्थी बैठे हुए थे। स्टेशन पर वेटिंग रूम की खोज में पूरे स्टेशन की पूरी परिक्रमा कर डालते हैं। स्टेशन के सामने के उत्तरी छोर तक पहुँचते हैं, जो जनरल वेटिंग रुम था। फिर पूछने पर पता चलता है कि एसी वेटिंग रुम नीचे दक्षिण में सबसे निचले छोर पर है, जहाँ से आगे बढ़ते हुए हम पुल से उतरकर सामने से गुजरे थे।

वेटिंग रुम में फ्रेश होकर, चाय-बिस्कुट के साथ थोड़ी गर्माहट पाते हैं। और थोड़ा देर बैठे-बैठे ध्यान करते हुए ट्रेन सफर की अकड़न-जकड़न से भी निजात पा लेते हैं और रिचार्च होकर पौने सात बजे बाहर बस-स्टैंड की ओर बढ़ते हैं, जो स्टेशन के बाहर मात्र 200-300 मीटर की दूरी पर सामने हैं। यहीं से जम्मु काश्मीर रोडबेज ट्रांस्पोर्ट कॉरपोरेशन (JKRTC) की बसे चलती हैं।

बस सामने खड़ी थी, रेडबस एप्प से बुक की हुई सीट में जाकर बैठते हैं। सामने आगे एक बुजुर्ग बस में बैठे थे और सवारियाँ एक-एक कर चढ़ रही थीं। हमारे आगे-पीछे व बग्ल में राजस्थान के कुछ युवा बस में चढ़ते हैं, जिनमें अधिकाँश पहली बार वहाँ जा रहे थे। आगे व सबसे पीछे एक-दो काश्मीरी भाई लोग तथा एक सरदार माँ-बेटा बैठते हैं। बुजुर्ग की कन्डक्टर से बहस होती है, जो सुबह साढ़े पाँच बजे से अगली सीट का चयन कर बैठे थे। जबकि यह सीट ऑनलाइट बुकिंग हो चुकी थी।

बस के बग्ल में दूसरी ऐसी ही बस खड़ी थी, जिसमें समानान्तर सवारियाँ भरी जा रही थी। नई सवारियों को उसमें भरा जा रहा था। इस तरह हमें समझ आया कि ऑनलाइन बुकिंग के बाद जो सीटें बचती हैं, उनमें ऑफलाइन सवारियों को सीट मिलती हैं, जिनकी बुकिंग वहीं सामने काउंटर पर हो जाती है तथा इनका किराया भी कुछ कम रहता है।

जम्मु से रामनगर तक का सफर

ठीक 8 बजे हमारी बस चल पड़ती है। ड्राइवर काफी माहिर लग रहा था और गाड़ी को पूरे कंट्रोल में तेजी से दौड़ा रहा था। ये हर पहाड़ी इलाकों में यात्रा का अनुभव रहता है, जहाँ के लोक्ल चालक यहाँ की सर्पिली राहों पर आए-दिन चलते रहते हैं और अचेतन मन में इनको रास्ते के हर मोड़, उतार-चढ़ाव व बारीकियां फिट रहती हैं।

शहर को पार करते हुए जम्मु शहर के मुख्य भवन व लैंडमार्क ध्यान आकर्षित करते रहे। रास्ते में एक नदी को पार किए, पानी काफी कम था और गंदला भी। नदी से अधिक नाले की तरह लग रही थी, उसके पुल को पार कर आगे बढ़ते हैं। वाइं और बैठे होने के कारण दाईँ ओर के नजारे आंशिक रुप से ही दिख रहे थे। लेकिन इतने में ही रास्ते का मोटा-मोटा अंदाज हो रहा था। हाँ हमारी विडियो केप्चरिंग इसके कारण एक तरफा ही अधिक हो पा रही थी। योजना थी कि बापिसी में दूसरी ओर बैठकर रही सही कसर पूरी कर लेंगे।

रास्ते में ही वाईं ओर आईआईटी जम्मु के दर्शन होते हैं, आगे नदी के किनारे पहाड़ी के संग बसे जम्मु शहर का घाटी नुमा लैंडस्केप भी दिख रहा था। इसी राह में आगे जंगल के बीच सुनसान जगह टीले पर आईआईएम, जम्मु के भव्य भवन के दर्शन होते हैं।


इसी के साथ हम शहर के बाहर निकल चुके थे और आगे कटरा की ओर बढ़ रहे थे, जो संभवतः यहाँ से लगभग 30 किमी आगे रहा होगा।

अब हमारी बस पहाडियों की गोद में सर्पदार सड़क के साथ झूमती हुई सरपट आगे बढ़ रही थी। फोरलेन सड़क पर सफर काफी खुशनुमा लग रहा था, रास्ते में कहीं हरे-भरे, तो कही चट्टानी पहाड़ों व वादियों के दर्शन हो रहे थे। इसी क्रम में हम पहली सुरगं पार करते हैं। आगे हमारे रास्ते में कटरा का कस्बा पड़ा। दूर से ही पहाड़ों पर माता वैष्णो देवी के मार्ग की जिगजैग सड़कें व सफेद रंग के भवन दिख रहे थे।


माता को अपना भाव निवेदन करते हुए हम आगे बढ़ते हैं औऱ सहज ही याद आ रहे थे, पिछले ही वर्ष अक्टूबर माह में अपनी पहली माता वैष्णो देवी की यात्रा के यादगार पल।

अगले लगभग 50-70 किमी हम नदी के किनारे घाटी के बीच सपाट सड़कों पर झूमती हुई गाड़ी में बैठे बाहर की वादियों, गाँव-कसवों व प्राकृतिक नजारों को देखते रहे। सुदूर पहाड़ियों के शिखर पर हरे जंगलों व विरल गाँव-घरों को निहारते हुए सफर का आनन्द लेते रहे। रास्ते में खाने-पीने व
ठहरने की रंग-बिरंगी दुकानों व होटल की कतारे ध्यान आकर्षित कर रही थीं। लगा कि इस रुट पर पर्यटकों की भीड़ के कारण लोगों के लिए रोजगार के ये एक महत्वपूर्ण साधन रहते होंगे।

खेती-बाड़ी व बागवानी की गुंजाइश यहाँ की पहाड़ी ढलानों पर बहुत अधिक नहीं दिख रही थी। रास्ते में चिनैनी (Chenani) स्थान पर नाश्ते के लिए हमारी गाड़ी रुकती है। नाश्ते में आलू-पराँठा व राजमाह की दाल परोसी गई और साथ में प्रयोग के तहत नमकीन चाय ली।


थाली के आकार के एक परौंठे से पेट भर गया औऱ साथ में नमकीन चाय हमारे लिए नया अनुभव था। बाहर उस पार घाटी के पीछे बर्फ से ढकी चोटियाँ रोमाँच का भाव पैदा कर रही थीं, लेकिन इनके बारे में अधिक जानकारी देने वाला कोई जानकार नहीं दिखा।

यहाँ नाश्ते के बाद गाड़ी चल पड़ती है औऱ एक टनल के पार दूसरी घाटी में प्रवेश का अहसास होता है। साथ ही पता चला कि इस टनल के कारण अब रास्ता लगभग 50 किमी कम हो गया है, नहीं तो ऊपर पहाड़ी मार्ग से पटनी टॉप पार करते हुए यहाँ पहुंचना होता था। यह कुछ ऐसे ही लगा जैसे कुल्लू-मानाली में रोहतांग पास की चढ़ाई को पार करने की बजाए अटल टनल बनने से अब हम सीधे लाहौल घाटी में प्रवेश कर जाते हैं। वहाँ भी दो-तीन घंटे की बचत होती है औऱ यहाँ भी लगा कि इस टनल बनने से दो-तीन घंटों की बचत हुई होगी।

नई घाटी में दाईं ओर नीले रंग की नदी के किनारे हम आगे बढ़ रहे थे, जिसके विहंगम दर्शन आगे पुल पार करते हुए होते हैं।


यह चनाव नदी है, जो हिमाचल प्रदेश के लाहौल-घाटी में चंद्र-भागा नदी के रुप में बहती है, तांदी स्थान पर चनाव का नाम लेती है और फिर उदयपुर से होती हुई, चम्बा व फिर जम्मु-काश्मीर में प्रवेश करती है। ग्लेशियर हिमखंडों के पिघलने से निकले इसके निर्मल जल की झलक इसके नील वर्णीं स्वरुप से स्पष्ट हो रही थी, जो आँखों को ठंड़क और चित्त को शीतलता का सुकून भरा अहसास दिला रही थी।

पुल पार कर अब नदी हमारे बाइं ओर से बह रही थी। नदी के उस पार एक सुंदर सी बसावट दिखी, इसे एक बड़ा सा कस्वा कह सकते हैं, जिसका नाम रामबन पता चला, इसका विहंगम दृश्य इस साइड से देखते ही बन रहा था।  अगले कुछ मिनट हम इस कस्वे के समानान्तर सफर करते रहे और इसके पीछे की पहाड़िंयों, विरल वादियों, खेत व वगानों के मनभावन दृश्यों को यथासंभव केप्चर करते रहे। रास्ते में ही एक खुला बस स्टैंड दिखा, जहाँ से एक सड़क दायीं ओर गाँव की ओर जा रही थी। पता चला कि यह सब रामबन ही चल रहा था।

यह रोचक जानकारी भी पता चली कि रामबन जम्मु से काश्मीर यात्रा का मध्य बिंदु है। यहाँ तक लगभग 150 किमी का सफर पूरा कर चुके थे और आगे श्रीनगर तक 150 किमी का सफर तय करना शेष था। हालाँकि रास्ते में कई सुरंग बनने से अब यह दूरी कम हो रही है।

शुक्रवार, 31 जनवरी 2025

धर्म-अध्यात्म का मर्म बोध


एक सच्चे धार्मिक-आध्यात्मिक व्यक्ति की पहचान

धर्म अध्यात्म इतने प्रचलित शब्द हैं, कि भारत भूमि में क्या बच्चा, क्या बुढ़ा, क्या युवा, क्या महिला – सब इनको जानते हैं। जानते ही नहीं, किसी न किसी रुप में इन्हें अपने जीवन में जीने का प्रयास भी कर रहे होते हैं। लेकिन इस सबके बावजूद इनके बारे में भ्रम का कुहासा भी कम सघन नहीं है और धर्म-अध्यात्म के नाम पर नाना प्रकार के चित्र-विचित्र एवं हास्यास्पद कृत्यों को चारों ओर घटित होते देखा जा सकता है। सस्ते में बहुत कुछ लूटने-बटोरने के शार्टकट रास्तों को अपनाते लोगों को देखा जा सकता है।

आश्चर्य़ नहीं कि धर्म-अध्यात्म की समझ के अभाव में, अधिकाँश लोग सच्चे धार्मिक व आध्यात्मिक व्यक्ति की पहचान में प्रायः चूक कर बैठते हैं। बाहरी बेश-भूषा, रुप-रंग आदि को मानक मानते हुए लोग प्रभावित हो जाते हैं। इससे भी आगे किसी हठयोगी, कर्मकाण्डी, चमत्कार दिखाने वाले तांत्रिक-मांत्रिक को देखकर तो नतमस्तक ही हो बैठते हैं, जैसे धर्म-अध्यात्म का सार तत्व इनकी बाजीगरी में छिपा हुआ हो।

लेकिन धर्म-अध्यात्म की डगर थोड़ी विचित्र है, रहस्यमयी है, निराली है। जिसको इसमें गहरे उतरे बिना, इसके मर्म को जीवन में धारण किए बाना, अस्तित्व की पहेली को सुलझाने की ईमानदार कवायद के बिना समझ पाना थोड़ा कठिन है। क्योंकि धर्म-अध्यात्म बाहरी कर्मकाण्ड, वेशभूषा, हठयोग व प्रदर्शन से अधिक एक सूक्ष्म तत्व है, जिसे बाहरी स्वरुप देखकर नहीं पहचाना जा सकता।

यह सच है कि जनसाधारण के लिए धर्म के गर्भ से ही अध्यात्म का उद्भव होता है। जैसे बच्चों की स्कूली पढ़ाई कखग से शुरु होती है, जहाँ क से कबूतर, ख खरगोश के बालबोध के साथ अक्षरज्ञान करवाते हुए आगे की शिक्षा दी जाती है। ऐसे ही अध्यात्म की गुह्यता में प्रवेश करने के लिए धर्म के कर्मकाण्डों, पूजा-पाठ व स्थूल उपकरणों का सहारा लिया जाता है। इसके लिए बाहरी वस्त्र, वेश व प्रतीकात्मक उपचारों को भी धारण करना पड़ सकता है।

लेकिन यह प्राथमिक पाठशाला भर है। धार्मिक क्रियाक्लाप के साथ, स्वाध्याय-सतसंग का सहारा लेते हुए, व्यक्ति आस्तिकता के भाव को धारण करते हुए अध्यात्म की ओर प्रवृत्त होता है। मैं भी ईश्वर अंश अविनाशी हूँ, अमृतपुत्र हूँ और जीवन का सार तत्व अपने ही अंदर है और सारा संसार अंतर्निहित दिव्यता का ही विस्तार है, ऐसी जीवन दृष्टि के साथ अध्यात्म में प्रवेश पात्रता विकसित करते हुए साधक अस्तित्व की पहेली के समाधान के लिए गहराई में उतर पड़ता है।

व्यवहारिक रुप में धर्म और अध्यात्म की कसौटी मन की शांति, स्थिरता, प्रसन्नता और सुकून से है। एक कर्मयोगी अपने कर्तव्य कर्म को करते हुए इन्हें उपलब्ध हो सकता है, जिसको सामान्य सी सांसारिक वेशभूषा में जीवनयापन करते हुए देखने पर पहचानने में भूल हो सकती है। हो सकता है कि वह धार्मिक कर्मकाण्ड में अधिक विश्वास न रखता हो, न ही भक्ति के लिए उसके पास अधिक समय हो, न ही किसी योगी की तरह लम्बे ध्यान में बैठता हो। लेकिन अपने कर्तव्य कर्म को ही भगवान मानते हुए चेतना की उच्च अवस्था की अग्रसर हो रहा हो।

आश्चर्य़ नहीं की ऐसे कर्म में प्रवृत जुलाहा कबीर हो सकते हैं, मोची का काम करते हुए संत रविदास हो सकते हैं। कसाई धर्म निभाते हुए सदना संत हो सकते हैं। सामान्य से गृहस्थ नाग महाशय ईश्वरकोटी आत्मा हो सकते हैं। खेत में हल जोतता किसान, रेल्वे में नौकरी करते युक्तेश्वरगिरि महायोगी हो सकते हैं। ऐसे ही पुराणों में वर्णित एक सामान्य सी गृहिणि, पतिव्रता स्त्री आध्यात्मिक चेतना के शिखर पर जी रही हो सकती है। ऐसे अनगिन उदाहदरण हैं, जो धर्म-अध्यात्म की प्रचलित कसौटी के स्थूल मानदंडों  पर खरा नहीं उतरते, लेकिन धर्म-अध्यात्म की कसौटी पर सौ टक्का खरा उतरते हैं।

इसी तरह रामकृष्ण परमहंस, महर्षि रमण, तैलंग स्वामी, देवरहा बाबा को बाहर से देखने पर पहली बारगी कौन उनके सिद्धत्व को पहचान पाता है। इनका सामान्य से भी अतिसामान्य एवं साधारण स्वरुप किसी को भी भ्रमित करता है। लेकिन पारखी लोग इनका सतसंग कर तर जाते हैं और कितनों को तरने का मार्ग दिखा जाते हैं।

इस युग में साधारण सी हवाई चप्पल के साथ खादी का धोती-कुर्ता पहने एक सामान्य से गृहस्थ को देखकर कौन अनुमान लगा सकता था कि कोई गायत्री का सिद्ध साधक, सम्पूर्ण आर्षवांड्मय का युगानुकूल भाष्य कर 3200 पुस्तकों का रचियेता, जीवन के हर विषय पर अपनी कलम चलाने वाला युग व्यास, युग की हर समस्या के समाधान प्रस्तुत करने वाले युगऋषि पं.श्रीराम शर्मा आचार्य 21वीं सदी उज्जवल भविष्य और युग परिर्वतन का युगांतरीय कार्य कर इस धराधाम से चले जाते हैं, जिनकी धर्म-अध्यात्म की युगानुकूल वैज्ञानिक एवं व्यवहारिक व्याख्या आज भी लाखों-करोड़ों परिजनों का मार्गदर्शन कर रही है।

उनके द्वारा बताई गई धर्म-अध्यात्म की एक ही कसौटी रही, जो है व्यक्ति के सद्गुण। व्यक्ति कितना ईमानदार है, जिम्मेदार है ये उसकी व्यवहारिक कसौटियाँ हैं। उसके लिए अपना कर्तव्य धर्म पहली पूजा है, इसके बाद ही पूजा पाठ का कर्मकाण्ड उसके लिए मायने रखता है। अपार धैर्य, सहिष्णुता, उदारता और सद्भाव उसके अन्य गुण हैं। लेकिन इसका अर्थ ये भी नहीं कि वह असुरता, अधर्म को मूकदर्शक बनकर देखता रहे। इसलिए समझदारी और बहादुरी उसके अभिन्न गुण हैं। इनके साथ श्रमशीलता, मितव्ययिता, सुव्यवस्था, शालीनता, सहकारिता जैसे व्यवहारिक गुण य़ुगऋषि द्वारा परिभाषित हैं।

एक सच्चा धार्मिक एवं आध्यात्मिक व्यक्ति जीवन के अंदर और बाहर, अपने घर-परिवार, परिवेश और समाज में, राष्ट्र एवं विश्व में सत्यता, संवेदना, इंसानियत से युक्त धर्म की स्थापना का माध्यम बनता है, युग परिर्वतन के लिए उद्यत महाकाल की चेतना का संवाहक होता है।


शनिवार, 7 दिसंबर 2024

मेरी पहली गंगोत्री धाम यात्रा, भाग-5

मुखबा गाँव के दर्शन और घर बापिसी

रोज रात को और सुबह होटल की वाल्कनी से भगीरथी नदी के पार मुखबा गाँव  की टिमटिमाती रोशनी ध्यान आकर्षित करती रही। अपने गृह प्रदेश में ठीक कुछ ऐसा ही दृश्य घर के सामने गाँव पेश करता। बैसे ही गगनचूम्बी पर्वतों की गोद में बसे यह गाँव दिखता। लेकिन शैक्षणिक भ्रमण के व्यस्त कार्य़क्रम के चलते मुखबा गाँव छूटता दिख रहा था, लगा कि अगली बार ही यहाँ के दर्शन संभव होंगे।

टूर के अंतिम दिन प्रातः 6 बजे हरिद्वार के लिए कूच करना था, सो पिछली रात को नौ बजे ही निद्रा देवी की गोद में सो गए थे और प्रातः स्नान-ध्यान के पश्चात पौने छः बजे ही नीचे बस की ओर निकल देते हैं। लेकिन दल के सदस्यों की तैयारी देखकर लगा कि आधा-पौन घंटा अभी इनको तैयार होने में लगेगा, तब तक हम कल्प-केदार मंदिर के समीप स्थित तपोवनी माता की तपःस्थली के दर्शन कर आते हैं। यह मंदिर तो हमें नहीं मिला, लेकिन भटकते-भटकते 10 मिनट में नीचे भगीरथी पुल तक पहुँच गए।

राह में सेब से लदे बगीचों के सुंदर नजारों को यथासंभव मोबाईल में कैप्चर करते रहे और पुल से भगीरथी का दृश्य देखते ही बन रहा था। इसको पार कर एक स्थान पर आसन जमाकर धराली साइड के दृश्य का अवलोकन करते हैं। यहाँ से सामने गाँव, पहाड़ और पीछे हिमशिखर का दृश्य देखते ही बन रहा था और उत्तर की ओर मार्कण्डेय ऋषि का मंदिर, भगीरथी नदी का विस्तार, देवदार के जंगल और पीछे गंगोत्री साइड की चोटियाँ – ध्यान के लिए एक आदर्श लोकेशन प्रतीत हो रही थी। कुछ मिनट सड़क किनारे चबूतरे पर यहाँ पालथी मार कर इसी दृश्य में खोए रहे।

स्थानीय लोगों से पता चला कि यहाँ से मुखबा मंदिर महज 1 किमी सीधी चढ़ाई के बाद पड़ता है, सो दल के शेष सदस्यों को फोन से बुलाकर वहाँ दर्शन की योजना बनती है। लगा कि दो दिन से चल रही ह्दय की उहापोह और गंगा मैया की कृपा के चलते संयोग घटित हो रहा था और जैसे बुलावा आ गया है।

कुछ ही मिनट में दल यहाँ पहुंचता है और मुख्य द्वार से प्रवेश करते हुए खेत-बगीचों के बीच ऊपर चढ़ते हैं। रास्ते में नए दर्शकों को राजमाँ, बागुकोशा, खुमानी, गोल्डन व रॉयल एप्पल, अखरोट आदि के वृक्षों, फलों व खेती से परिचय करवाते हैं। साथ ही जंगली पालक, बिच्छु बूटी व अन्य स्थानीय जंगली जड़ी बूटियों की भी जानकारी देते हैं।

आधे-पौन घंटे में हम सीधी चढ़ाई पार करते हुए ऊपर मोटर मार्ग तक पहुँच गए थे, जहाँ से बाईं ओर आगे का रास्ता हर्षिल की ओर जा रहा था। हम यहाँ से दाईं ओर ऊपर चढ़ते हैं और सौ मीटर ऊपर मंदिर परिसर में प्रवेश करते हैं।

मुखबा के मंदिर को मुखीमठ बोलते हैं, जो गंगाजी का शीतकालीन आवास है, जहाँ नबम्वर से अप्रैल तक छः माह इनका वास रहता है औऱ फिर गंगोत्री धाम के कपाट खुलने पर इनका प्रस्थान होता है और गंगोत्री में विधिवत पूजा शुरु होती है।

इस शांत एकांत गाँव में स्थित मंदिर का स्थापत्य देखते ही बनता है। लकड़ी के मंदिर में बहुत सुंदर नक्काशी हुई है। संयोग से पुरोहित जी मंदिर में हाजिर होते हैं, इसके बाद ये मार्कण्डेय ऋषि के मंदिर में प्रस्थान करने वाले थे। लगा हमारी टाइमिंग गंगा मैया ने निर्धारित कर रखी थी। विधिवत पूजन के बाद पंडित जी से यहाँ का संक्षिप्त व सारगर्भित परिचय प्राप्त होता है।

दर्शन के बाद मंदिर प्रांगण में सामूहिक फोटोग्राफी होती है। मंदिर के ठीक सामने दूसरी पहाड़ी से झांकते हिमाच्छादित श्रीखण्ड शिखर के दर्शन देखते ही बन रहे थे। नीचे उतरते हुए सामने धराली साइड के दर्शन करते रहे। उगते हुए सूरज की रोशनी में घाटी जगमगा रही थी। बापिसी में पेड़ से गिरे सेब, बागूकोश आदि फलों को प्रसाद रुप में एकत्र करते हैं। और आधे घंटे में धराली पहुँचते हैं।

समूह का एक दल जो छूट गया था, उसे भी दर्शन के लिए भेजते हैं। और धराली में बाजिव दाम पर यहाँ से सेब खरीदते हैं। यहाँ की एक दुकान में परांठा चाय का नाश्ता होता है। कस्बा कहें या गाँव, धरारी मार्केट का शांत माहौल भीड-भाड से भरे हिल स्टेशन के अशांत वातावरण के एकदम विपरीत शांति-सुकून भरा लग रहा था, यहाँ का जीवन ठहरा हुआ सा दिखा। जीवन जैसे प्रकृति की गति से धीरे-धीरे अनन्त धैर्य के साथ प्रवाहमान है।

इसी बीच समय निकाल कर हम यहाँ माँ सुभद्रा (तपावनी माता) की तपःस्थली के भी दर्शन किए, जो कल्प-केदार होटल के एकदम पास में निकला, जिसकी खोज में सुबह हम भगीरथी नदी तक पहुँच गए थे। यहाँ उनके शिष्य बाबा कालू से मुलाकात हुई, इस तपःस्थली के बारे में अपनी जिज्ञासाओं का समाधान पाया। कालू बाबाजी इस समय मंदिर की देखभाल कर रहे हैं और नैष्ठिक तीर्थयात्रियों के लिए अखण्ड भण्डारे व ठहरने की व्यवस्था देखते हैं।

अब तक पूरा दल बस में बैठ चुका था। और हमारी बापिसी का सफर आगे बढ़ता है। रास्ते में हर्षिल के दर्शन होते हैं, बगोरी गाँव को दूर से विदा करते हैं। और रास्ते में जो रुट तीन दिन पहले आते समय अंधेरे में कवर किए थे, उसे दिन के उजाले में देखने की तमन्ना पूरी होती है। इसी क्रम में झाला से लेकर सुक्खु टॉप तक पहुँचते हैं।

रास्ते भर सड़क के दोनों ओऱ सेब से लदे बगान, देवदार के जंगल, छोटे-छोटे कस्बे, होटल, होम-स्टे और सेब की पैकिंग के दृश्य। पहले ऊपर चढाई, फिर सीधे आगे दो-तीन किमी लम्बा मार्ग औऱ फिर सुक्खु टॉप से नीचे की जिगजैग उतराई। रास्ते भर छोड़े बड़े झरने व नालों के दर्शन होते रहे। उस पार बर्फ से ढके पहाड़ों से नीचे दनदनाते नाले भी दर्शनीय रहे। जिनको देखकर सहज ही परमपूज्य गुरुदेव की पुस्तक सुनसान के सहचर पुस्तक के संस्मरण याद आ रहे थे।

सुक्खु टॉप से नीचे घाटी में पहुँचने पर वायीं ओर गर्जन-तर्जन करती रौद्र रुप लिए भगीरथी के संग आगे बढ़ते हैं तथा पुल पार कर लेफ्ट बैंक में गंगनानी के दर्शन और राइट बैंक में भटवारी, गंगोरी और फिर वाईपास से होते हुए उत्तरकाशी पहुँचते हैं। रास्ते में दिन के ऊजाले में उत्तरकाशी शहर के दर्शन होते हैं और भूस्खलन के कारण समाचार में अक्सर सुर्खी बनते वर्णावत पर्वत को भी देखते हैं। यहाँ एक मैदान में भोजन के लिए गाड़ी रुकती है।

पहले हम पास ही स्थिति भगवान विश्वनाथ के दर्शन करते हैं। इसके भव्य परिसर में दिव्य दर्शन का लाभ लेकर इससे जुड़े इतिहास, पौराणिक मान्यताओं एवं भविष्य कथन को पढ़कर अविभूत होते हैं, हालाँकि आज का दर्शन परिचयात्मक भर था। अगली बार अधिक समय लेकर उत्तरकाशी को एक्सप्लोअर करेंगे, ऐसा भाव प्रवल हो रहा था।

पेट पूजा कर पूरा दल बस में चढ़ता है और कमान्द से होकर चम्बा से पहले उस ठिकाने पर रुकता है, जहाँ जाते समय हम लोग रुके थे। यहाँ चाय-नाश्ता कर रोचार्ज होते हैं और किबी के पैकेट खरीदते हैं।

बापिसी में चम्बा पार करते-करते अंधेरा हो चुका था और आल बेदर रोड़ के संग सरपट दौड़ती हुई गाड़ी आगराखाल को पार करते हुए नरेंद्रनगर और फिर ऋषिकेश पहुँचती है तथा अगले आधा घंटे में 9 बजे तक देवसंस्कृति विश्वविद्यालय के प्रांगण में पहुंचते हैं।

इस तरह गंगा मैया की कृपा से तीन दिन में सम्पन्न गंगोत्री धाम की यह सकुशल यात्रा एक अमिट छाप छोड़ जाती है, जिसमें कई प्रश्नों के उत्तर मिले, कई जिज्ञासाओं को शाँत किया और जिज्ञासाओं की कुछ नई कौंपलें भी फूंटी, जो अगली यात्राओं के लिए प्रेरक ईँधन का काम करती रहेंगी।

शनिवार, 30 नवंबर 2024

मेरी पहली गंगोत्री धाम यात्रा, भाग-4

 

उत्तराखण्ड का स्विटजरलैंड हर्षिल और बगोरी गाँव


गंगोत्री धाम से आने के बाद हम सभी कल्प-केदार होटल में विश्राम करते हैं और फ्रेश होकर दोपहर बाद हर्षिल के लिए निकल पड़ते हैं। इस रास्ते में झरने व नाले बहुतायत में मिले। कारण पीछे चोटियों में ग्लेशियर की मौजूदगी, जो पिघल कर इस क्षेत्र को जलराशि की प्रचुरता का वरदान दे जाती हैं। इस क्षेत्र के प्राकृतिक सौंदर्य में इनका अपना महत्व है और सेब की उत्कृष्ट फसल का भी यह एक कारण है।

दो-तीन किमी बाद बस मुख्य मार्ग से दायीं ओर मुडती है, एक बड़ा सा सुसज्जित प्रवेश द्वार आपका स्वागत करता है। लगा कि हम कुछ दूर तक किसी मिलिट्री क्षेत्र से गुजर रहे हैं। इसके बाद भगीरथी नदी पर बने एक पुल को पार कर हम हर्षिल कस्बे में प्रवेश करते हैं, जो 9006 फीट (2745 मीटर) ऊँचाई पर बसा हिल स्टेशन है। हर्षिल मार्केट में पर्यटकों की वहुतायत के चलते ट्रैफिक से गाडी को निकालने में थोड़ा समय लगा।

यहाँ के छोटे-छोटे पहाड़ी घर व होटल यहाँ की पहचान करवा रहे थे। मार्केट की अगली साइड पार्किंग में गाड़ी को खड़ा कह हम पैदल चलते हैं। मोड के बाद एक पुलिया पर चढ़ते हैं। दायीं ओर से एक सड़क मुखबा गाँव (गंगा मैया का शीतकालीन आवास) की ओर जा रही थी। ऊपर पुल पर तेज हवा वह रही थी। पहाड़ी नाला कहें या छोटी नदी में जल बहुत तेज गति से बह रहा था। पुल पर फोटोशूट करने वालों का तांता लगा हुआ था, हर कोई गगनचूंबी देवदार, संग बह रहे झरनों व पहाड़ों की पृष्ठभूमि के सुंदर दश्य को कैप्चर करना चाह रहा था। मालूम पड़ा कि राम तेरी गंगा मैली फिल्म की शूटिंग यहीं की लोकेशन्ज में हुई थी।

इस पुल से आगे दायीं ओर ऊंचे-ऊंचे पहाड़ के साथ हम आगे बढ़ रहे थे। कुछ दुकानें, कुछ होटल व बगीचे पार करते हुए रास्ते में वाइं ओर लक्ष्मी नारायण मंदिर का बोर्ड मिला, जिसे हम बापिसी के लिए छोड़ देते हैं। रास्ते में ही दायीं और एक मैदान में बिल्सन की कोठी मिली, जिसे अब एक होटल में कन्वर्ट किया गया है। माना जाता है कि हर्षिल को हिल स्टेशन का रुप देने में इन ब्रिटिश सैन्य अधिकारी का विशेष योगदान रहा है। कुछ इन्हें नायक तो कुछ खलनायक का दर्जा देते हैं।

थोड़ी देर बाद दुबारा एक पुल आता है, जिसके नीचे से बहुत तीव्र वेग से एक नदी का निर्मल जल बह रहा था, लगा पीछे किसी घाटी से यह नदी आ रही है। यहाँ पर भी पुल के ऊपर लोगों को फोटोशूट में मश्गूल देखा। हमारे दल के युवा फनकार भी इसमें शामिल हो जाते हैं। यहाँ से पार होते ही हम थोड़ी ढलान के साथ नीचे उतर रहे थे। नीचे खुली घाटी से तेज हवा जैसे हमारी गति को थाम रही थी।

और एक बड़े गेट के साथ बगोरी गाँव में प्रवेश होता है, जिसमें यहाँ का संक्षिप्त परिचय, इतिहास व विशेषताएं लिखी थीं। प्रवेश करते ही दाइँ ओर इनके कुलदेवी-देवता के मंदिर दिखे। और आगे सड़क के दोनों ओर घर में ही दुकानें सजी दिखीं। कुछ ने घरों को होम स्टे के रुप में सुसज्जित कर रखा था औऱ कुछ ने होटल के रुप में।

घर आँगन रंग-बिरंगे फूलों से सज्जे थे। छोटे-छोटे लकड़ी के पारम्परिक घर बहुतायत में दिखे, कुछ एक ही सीमेंट लेंटर के दिखे। घर के बाहर काली व सफेद ऊन को सुखाते देखा। कुछ बुजुर्ग इनको कात रहे थे, तो कुछ इन से बुनाई कर रहे थे। इनकी दुकानों पर इनसे तैयार स्वाटर, टोपे, मफलर, जुराबें, गलब्ज आदि बिक्री के लिए रखे गए थे। अधिकाँश पुरुष व महिलाएं इन उत्पादों को तैयार करने में व्यस्त दिखे।

कुल मिलाकर गाँव के मेहनतकश लोगों को स्वरोजगार के संसाधनों को तैयार करते देखा। जो हर ठंडे इलाके के लोगों की फितरत रहती है। ठंड में एक तो यह सक्रियता कुछ गर्माहट देती है और कुटीर उद्योग के ये छोटे-बड़े प्रयोग रोजगार एवं आर्थिक स्बाबलम्वन का साधन बनते हैं।

घरों के बाहर सेब की पेटियाँ भी बिक्री के लिए दिखीं, जो घर के साथ जुड़े बगीचों से तोड़े गए थे। बगीचों में जाकर फार्म फ्रेश सेवों की भी व्यवस्था थी। कुछ केफिटेरिया भी सेब के बगीचों में सजे दिख रहे थे।

गंगोत्री की राह का यह क्षेत्र सेब के साथ राजमाह की फसल के लिए प्रख्यात है। यहाँ भी गाँव के घर आंगनों व खेतों में राजमाह की फसल को पकते व सूखते देखा। जो ऑर्गेनिक होने के कारण स्वाद व पौष्टिकता के हिसाब से लाजबाव माने जाते हैं।

रास्ते में गाय बैल व बछड़े मिले, जो काफी छोटे आकार के थे। मानकर चल रहे थे कि इनका दूध बहुत पौष्टिक, सात्विक व स्वादिष्ट होगा, जैसा कि इस क्षेत्र में विचरण किए कई साधकों व योगियों से सुन रखा है।

गाँव में छोटा सा बौद्ध गोंपा भी मिला, जो आजक रविवार के चलते बंद था। गांव के छोर पर पहुँचकर हम बाहर एक मैदान में पहुँच जाते हैं, जहाँ नीचे मैदान के पार तट पर भगीरथी नदी बह रही थी। सभी यहाँ के किनारे कुछ यादगार पल बिताते हैं।

छात्र-छात्राएं अपने मन माफिक फोटो खींचते हैं, क्योंकि पृष्ठभूमि में घाटी व पर्वतों का विहंगम दृश्य देखते ही बन रहा था। चारों और उत्तर औऱ दक्षिण में आसमान छूते बर्फीले शिखर दिख रहे थे और सामने गंगोत्री से हर्षिल की ओर जा रहा मोटर मार्ग। सामने ही देवदार के जंगल के बीच सेब से लदे बगीचे व स्थानीय ग्रामीण परिवेश भी मन को मोहित कर रहा था।

इस पृष्ठभूमि में ग्रुप फोटो भी होता है। और छात्र-छात्राओं के साथ यहाँ के विकास पत्रकारिता से जुड़े प्रश्नों व मुद्दों पर भी कुछ चर्चा होती है।

बापिसी में एक होम स्टे में नूडल व चाय का आनन्द लेते हैं और यहाँ की भाव भरी मेहमानवाजी (हॉस्पिटेलिटी) को अनुभव करते हैं। समूह के कुछ छात्र-छात्राएं इनके किचन में हाथ बंटाते हैं। स्वभाव से यहाँ के लोग ईमानदार, मेहनतकश और भावनाशील लगे।

बापिसी में सड़क मार्ग से लगभग 200 मीटर नीचे लक्ष्मी नारायण मंदिर के दर्शन करते हैं औऱ साथ ही थोड़ी दूरी पर बहती भगीरथी मैया को भी प्रणाम कर आते हैं। ध्यान साधना के लिए यहाँ का एकांतिक वातावरण आदर्श लगा, जिसका वर्णन हम यू-ट्यूब में भी किसी बाबाजी के वीडियों में कभी देख चुके थे।

इस तरह हमारी आज की हर्षिल का विहंगावलोकन करती संक्षिप्त यात्रा पूरी होती है। तीन-चार घंटों में ही उत्तरकाशी से 78 किमी और गंगोत्री धाम से 26 किमी दूर हर्षिल की वादियाँ जेहन में एक अमिट छाप छोड़ जाती हैं। यहाँ भगीरथी और जालंधरी नदीं के संगम पर बसे उस घाटी में प्राकृतिक सौंदर्य़, आध्यात्मिक प्रवाह, शाँति एवं रोमाँच का अद्भूत स्पर्श मिलता है।

बस तक पहुँचते-पहुंचते अंधेरा हो चुका था और सभी बस में बैठकर बापिस धराली आते हैं। और रात्रि भोजन के बाद 9 बजे तक कल की तैयारी के साथ निद्रा देवी की गोद में चले जाते हैं, क्योंकि कल सुबह 6 बजे बापिस हरिद्वार के लिए कूच करना था।

मेरी पहली गंगोत्री धाम यात्रा, भाग-3


गंगोत्री धाम के दिव्य लोक में


यात्रा का दूसरा दिन हमारे गंगोत्री दर्शन के लिए समर्पित था। सो सुबह जल्दी ही धराली से निकल पड़ते हैं, जो गंगोत्री से 20 किमी की दूरी पर पड़ता है। भौर में जब हम बाहर निकलते हैं, तो उत्तर दिशा में गंगोत्री की ओर हिमशिखरों मध्य टिमटिमाते तारों से सजे नीले आकाश में बीचों-बीच स्थित अर्दचंद्र की शोभा देखते ही बन रही थी। लग रहा था कि वे ध्यानस्थ भगवान शिव के सर पर सुशोभित हों। गंगोत्री धाम की यात्रा व दर्शन का उत्साह सबके चेहरे पर स्पष्ट था, जिनमें अधिकाँश वहाँ पहली वार पधार रहे थे।

धराली से गंगोत्री की 20 किमी की यात्रा देवदार के घने जंगलों के बीच होती है। शुरु में वायीं ओर साथ में भगीरथी नदी प्रवाहमान थी। चौड़ी घाटी क्रमिक रुप से संकरी हो रही थी। रास्ते भर देवदार के जंगल और भगीरथी नदी के विस्तार को निहारते हुए यहाँ की सुंदर वादियों के बीच एक नई घाटी में प्रवेश होता है। गगनचुम्बी चट्टानी पहाड़ दोनों ओर एक दम पास दिख रहे थे।

पुल को पार कर अब भगीरथी हमारे दायीं ओर थी और चट्टानी रास्ते से चढ़ाई पार करते हुए कुछ ही पलों में हम भैरों घाटी पहुँचते हैं, जहाँ पर गहरी घाटी में एक नदी नेलाँग की ओर से आती है और यहाँ की चट्टानी दिवारों के संग गार्दांग गली का प्राचीन ट्रैकिंग रुट प्रख्यात है। बापिसी में इसके दर्शन की योजना थी। भैरों घाटी के पुल को पार हम गंगोत्री धाम की ओर बढ़ते हैं। राह में हिमाच्छादित शिवलिंग पर्वत के दर्शन प्रारम्भ हो गए थे।

देवदार से अटे गगनचुंबी पहाड़ दोनों ओर जैसे हमारा स्वागत कर रहे थे। रास्ते में आईटीवीपी कैंप से गुजरते हैं। पहाड़ों से गिरी चट्टानों के बीच बसा यह कैंप इन ऊंचाईयों के चट्टानी सत्य का दिग्दर्शन करा रहे थे, जहाँ जीवन कितना रिस्क से भरा हो सकता है। रास्ते भर तीखे मोड़ और देवदार के जंगल एक नए प्रदेश एवं परिवेश में प्रवेश का सुखद अहसास जगा रहे थे, साथ ही राह में आंख मिचौली करते हिमाच्छादित शिवलिंग पर्वत गंगोत्री धाम के समीप होने का तीखा अहसास दिला रहे थे और मन में गंगोत्री धाम के पहले दर्शन-दीदार के जिज्ञासा और रोमाँच से भरे भाव हिलोरें मार रहे थे।

राह में ही भैरों मंदिर आता है, जहाँ से आगे सड़क मार्ग वायीं ओर से नेलांग की ओर जाता है, जिसे चीन की सीमा से अटा अंतिम स्टेशन माना जाता है, जो यहाँ से 22 किमी था। लो, कुछ ही मिनट में हम गंगोत्री में प्रवेश करते हैं, गाडियों का जमघट और पर्यटकों की भीड़ इसका अहसास दिला रही थी। हमारी गाड़ी भी बाहर सड़क के किनारे निर्देशित स्थान पर पार्क होती है।

सड़क के साथ पहाड़ों को छूते चट्टानी शिखर भय मिश्रित श्रद्धा का भाव जगा रहे थे। मन में एक ही प्रश्न कौंध रहा था कि इन चट्टानी पहाड़ों से चट्टान टूटकर नीचे आती होंगी, तो क्या होता होगा। बाद में लोगों से बातचीत करने पर समाधान मिला कि ये चट्टानें स्थिर हैं, आए दिन गिरने की कोई ऐसी घटना यहाँ नहीं होती।

लगभग 2 किमी पैदल यात्रा, जिसमें गंगोत्री धाम की मार्केट, आश्रम, होटल, होम-स्टे आदि के दर्शन करते हुए अंततः एक बड़ा सा द्वार पार करते हुए गंगोत्री मंदिर में प्रवेश होता है। यहाँ के दिव्य प्रांगण में जुत्ते उतार कर दर्शनार्थियों की पंक्ति में खड़ा होकर मंदिर में गंगा मैया के दर्शन करते हैं। और बाहर निकल कल समूह फोटो लेते हैं।

गंगोत्री मंदिर की लोकेशन स्वयं में अद्भुत है, चारों और गंगनचुम्बी चट्टानी पहाड़ों के बीच में स्थित धाम, एक नए लोक में विचरण का दिव्य अहसास दिला रहा था। लग रहा था कि हम एकदम नए संसार में पहुँच गए हैं। यहाँ से प्रसाद ग्रहण कर नीचे स्नान घाट पहुँचते हैं। भगीरथी नदी के ग्लेशियर से निकले बर्फीले जल से आचमन कर अपने पात्र में गंगाजल भरते हैं। बापिसी में भगीरथी शिला के दर्शन करते हैं, जहाँ भगीरथ ने भगीरथी तप कर गंगा अवतरण को संभव किया था और सगरसुतों के उद्धार के साथ जगत के कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया था।

परमपूज्य गुरुदेव युगऋषि पं. श्रीराम शर्मा आचार्य़जी के हिमालय प्रवास के दौरान गंगोत्री धाम में रुकने व आगे तपोवन में साधना करने के प्रसंगों को यहाँ प्रत्यक्ष देखने का मन था। तीर्थ की सूक्ष्म चेतना ने जैसा इसका भी इंतजाम कर रखा था। यहाँ के साठ वर्षीय कुलपुरोहित से अचानक परिचय होता है औऱ वे आचार्यजी से जुड़े रोचक प्रसंगों का भाव भरा वर्णन करते हैं। और भगीरथी के उस पार सामने के आश्रमों - ईशावास्य, कृष्णानन्द आश्रम, तपोवन आश्रम आदि से भी परिचय करवाते हैं, जहाँ गुरुदेव का प्रवास रहा।

परिसर में ही जाह्नवी माता के दर्शन होते हैं, लगा कि जैसे गंगा मैया के ही मूर्तिमान अंश से मुलाकात हो रही है। इन्हीं के सान्निध्य में यहाँ कृष्णानन्द आश्रम के वयोवृद्ध शिष्य स्वामी जी के दर्शन होते हैं, जो अपने आश्रम में आने का नेह भरा आमंत्रण दे जाते हैं। इस तरह मंदिर से नीचे उतरते हुए एक पुलिया को पार कर हम कृष्णानन्द आश्रम पहुँचते हैं। रास्ते में पुल से शिवलिंग एवं भागीरथी पर्वत के दिव्य दर्शन होते हैं। कृष्णानन्द आश्रम में गुरुदेव की साधना स्थली गुफा के दर्शन करते हैं। बाबाजी का स्वागत सत्कार और भक्ति भाव हम सबको भाव विभोर करता है। उनके द्वारा खिलाए गए छेने के रस्गुल्ले और सुर्ख लाल सेब यदा रहेंगे।

फिर जाह्नवी माता के आश्रम में पधार कर यहां के दिव्य भाव को ग्रहण करते हैं। माताजी पिछले तीन दशकों से साधनारत हैं और तपोवन में भी प्रवास कर चुकी हैं। यहाँ देवस्थापना कर हम, ब्रह्मकल का प्रसाद लेकर बापिस आते हैं। समय कम होने के कारण तपोवन आश्रम, सूर्य कुण्ड व अन्य स्थानों के दर्शन नहीं कर पाते और इनको अगले विजिट के लिए छोड़कर पुलिया को पार कर नीचे उतरते हैं।

बापिसी में एक आश्रम के भंडारे में भोजन-प्रसाद का संयोग बनता है। यहाँ अध्यात्मिक कंटेट को प्रसारित करने वाले यू-ट्यूबर युवा सन्यासी स्वामी अद्वैतानन्दजी से भेट होती है। संवाद के कुछ संक्षिप्त और यादगार पल इनके साथ बिताते हैं और बापिस गाड़ी तक आते हैं।

राह में चार शाखा वाले देवदार के वृक्ष के सामने सेल्फी लेते हैं। यह वृक्ष हमें जीवन के चार पुरुषार्थ – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का मूर्तिमान प्रतीक लग रहा था, जो गंगोत्री धाम पधार रहे जागरुक तीर्थ यात्रियों को सतत एक मूक संदेश दे रहा हो।

दिन में सीधी धूप औऱ लगातार पिछले 3-4 घंटों से चलते रहने के कारण काफी गर्मी का अहसास हो रहा था, साथ ही भोजन उपरान्त की सुस्ती भी छा रही थी। अतः बापिसी में कार्दांग गली का प्लान छोड़ देते हैं, क्योंकि वहाँ सीधे धूप पड़ रही थी और नीचे सीधे खाई में नदी बहती हैं। किसी तरह का रिस्क लेने की स्थिति में नहीं थे और न ही समूह की मनःस्थिति अभी इसको कवर करने की थी और इसे भी अगली यात्रा के लिए छोड़ आते हैं।

पाठकों को बता दें कि यह भारत तिब्बत के बीच व्यापार का पुरातन रुट था, जब किसी तरह की सड़क व्यवस्था नहीं थी। आज तो नेलाँग तक सड़क मार्ग बन चुका है, जो उत्तराखण्ड का इस इलाके का अंतिम गाँव है। 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद वहाँ के लोग हर्षिल में बगोरी गाँव में विस्थापित होकर रह रहे हैं। आज शाम हो हम वहीं पधारने जा रहे थे।

बस से हम बापिस धराली पहुँचते हैं औऱ होटल में कुछ देर रुककर तरोताजा होते हैं और दोपहर वाद आज के गन्तव्य हर्षिल और बगोरी गाँव के लिए निकल पड़ते हैं। (जारी, भाग-4)

गुरुवार, 31 अक्टूबर 2024

मेरी पहली गंगोत्री धाम यात्रा, भाग-2

उत्तरकाशी से हर्षिल - धराली


उत्तरकाशी से गंगोरी को पार करते हुए हम मनेरी से होकर गुजरते हैं, जहाँ भगीरथी पर विद्युत परियोजना के कारण ठहरी हुई जलराशि के दर्शन होते हैं।

02:00 PM, CHECK POST

मनेरी को पार करते हुए हम भटवारी पहुँचते हैं, जहाँ एक स्थान पर गाड़ी नीचे मैदान में रुकती है, कई टैंट लगे थे। वहाँ गंगोत्री के लिए पंजीयन होता है। जितना देर पंजीयन की औपचारिकता पूरी होती रही, हम नीचे भगीरथी नदी के दर्शन करते हैं। यह समीप से गंगा मैया के पहले दर्शन थे।

02:38 PM, MANERY WATERFALL

आगे मनेरी बांध के झरने के दर्शन करते हुए आगे बढ़ते हैं, जो एक वृहद जलराशि के रुप में एक सुरंग से नदी के तट पर गिरता है, जिसे शायद ही ऐसा कोई राही हो, जो दिल थामकर न निहारता हो।

आगे रास्ते भर स्थान-स्थान पर पानी के झरनों की भरमार दिखी। हर मोड़ पर इनके दर्शन होते रहे, जो उत्तरकाशी से पूर्व के मार्ग के एकदम विपरीत अनुभव था।

रास्ते में ही दयारा वुग्याल के लिए वायीं ओर से लिंक रोड़ जाता दिखा।

04:00 PM, TEA BREAK

इस घाटी के अंतिम स्टेशन में गाड़ी रुकती है, जहाँ कुछ चाय-नाश्ते व फल-सब्जी की दुकानें सजी थी। चाय नाश्ते के साथ काफिला रिफ्रेश होता है। यहाँ पालतु पहाड़ी गाय व बछ़डों के दर्शन होते हैं, जो आकार में काफी छोटे थे। ये यात्रियों से सहज ही घुलमुल जाते हैं। कारण, यात्री इन्हें श्रद्धावश कुछ खिलाते रहते हैं। हमने भी साथ लाई पुड़ियाँ खिलाई और इनके साथ फोटो खिंची।

चाय-नाश्ते के साथ तरोताजा होकर हम आगे के लिए कूच करते हैं। रास्ते की आवोहवा में हिमालयन टच के साथ एक नया सुकून व शांति का अहसास शुरु हो चुका था। यहाँ से पुल पार कर हम अब भगीरथी के वाएं तट के संग संकरी घाटी में आगे बढ़ रहे थे। कुछ ही देर में आता है इस रुट का महत्वपूर्ण तीर्थस्थल गंगनानी, जो तप्तकुंडों के लिए प्रख्यात है।

05:00 – 05:30 PM, GANGNANI

माना जाता है कि यहाँ भगवान व्यास के पिता ऋषि पराशर ने तप किया था। यहां पुरुषों व महिलाओं के लिए अलग-अलग कुंड बने हुए हैं। बाहर खुले में वाईं ओर झर रहे झरनों में भी स्नान किया जा सकता है। यहाँ के गर्म कुँडों में स्नान कर हम सभी तरोताजा होते हैं और पितृपक्ष होने के कारण अपने पितरों का सुमरन करते हुए उनके कल्याण के लिए भाव निवेदन और प्रार्थना करते हैं।

यहाँ से सफर संकरी घाटी से होते हुए मंजिल की ओर बढता है। रास्ते में हर मोड़ पर खड़ी चट्टानें और मोड खतरनाक अहसास दिला रहे थे। लग रहा था कि कुशल चालक ही इस राह पर वाहन को चला सकते हैं। उस पार ऊंचे पहाड़ों की गोद में विरल गाँव के दृश्य देखकर आश्चर्य एवं रोमाँच होता रहा कि लोग इन ऊंचाइयों व निर्जन क्षेत्र में किन मजबूरियों या प्रेरणा के वश बसे होंगे।

06:00 PM

लेफ्ट बैंक के छोर पर एक पुल पार होता है, जिसके नीचे भगीरथी नदी गर्जन-तर्जन करती हुई बह रही थी। और पुल के पार झरने की कई धाराओँ में जलराशि झर रही थी, जहाँ फोटो खींचने के लिए लोगों की भीड़ लगी थी।

इसके आगे चट्टानों के बीच रास्ता बढ़ रहा था और वायीं और गगनचुम्बी चट्टानी पहाड़ों के संग हम आगे बढ़ रहे थे। यहीं मैदान में एक स्थान पर भेड़-बकरियों के झुंड के साथ गड़रिए रात्रि विश्राम के लिए अपना ठिकाना तैयार कर रहे थे।

6:15 – 6:30 PM

शाम का धुंधलका धीरे-धीरे हॉवी हो रहा था। भगीरथी नदी दायीं ओर अपने रौद्र रुप में ढलान के संग नीचे मैदानों की ओर बढ़ रही थीं। अपने मायके को छोड़कर मैदानों की ओर उसके उतरने का उत्साह देखते ही बन रहा था।

आगे रास्ते में अंधेरा शुरु हो चुका था। बस अब जिग्जैग सड़क के साथ ऊपर चढ़ रही थी। बाद में पता चला कि हम सुखू टॉप की ओर बढ़ रहे थे। मार्ग में सेब से लदे वृक्षों के दर्शन शुरु हो गए थे, जो पहली बार पहाड़ों में सफर कर रहे विद्यार्थी और शिक्षकों के लिए एक सुखद अहसास था। रास्ते भर सड़क के ऊपर और नीचे सेब के बगीचों के दर्शन होते रहे। लगा कि दिन के उजाले में इनके दर्शन होते, तो कितना अच्छा रहता। हम काफी ऊंचाई पर सफर कर रहे थे, नीचे घाटी में वस्तियों की टिमटिमाती रोशनी इसका अहसास दिला रही थी। बस आगे चलकर फिर नीचे उतरती दिखी। 

07:00 PM

हम अब नीचे उतर रहे थे और रोशनी से जगमग बस्ती को पार करते हैं। और भगीरथी के ऊपर एक पुल को पार कर फिर लेफ्ट बैंक के साथ आगे बढ़ते हैं। पता चला कि हम हर्षिल घाटी में प्रवेश कर चुके हैं। रास्ते में बस की रोशनी में देवदार के वृहद पेड़ों के दर्शन होते रहे और अंधेरे में भी इनको यथासंभव कैप्चर करने के प्रयास चलते रहे। अब हम आज के गन्तव्य के मात्र 2-3 किमी दूर थे। रास्ते में दनदनाते नाले व झरने बहुतायत में मिलते रहे। मंजिल के समीप पहुँचने का सुकून व उत्साह भी हिलोरें मार रहा था। वाइं और भगीरथी समीप ही विस्तार लिए बहती दिख रही थीं, जो पिछली संकरी घाटी के अनुभव के विपरीत खुली घाटी में पहुँचने का एक नया अहसास था।

08:00 PM

लो हम धराली में प्रवेश कर चुके थे और कुछ ही पलों में अपने होटल कल्प-केदार के सामने हमारी बस खड़ी होती है।

इस तरह लगभग 14 घंटे के सफर के बाद हम अपनी मंजिल पर पहुंचते हैं। मालूम हो कि धराली इस घाटी के 8 गावों में एक प्रमुख गाँव है, जो पौराणिक कल्प-केदार मंदिर के लिए प्रख्यात है, जो गंगोत्री से 20 किमी पहले पड़ता है। गौमुख के आगे तपोवन में रिकार्ड समय तक रहने वाली सुभद्रा माता की मुख्य तपःस्थली भी यहीं धराली में स्थित है। अपने सेब के बगानों के लिए धराली प्रख्यात है और इसके ठीक सामने भगीरथी नदी के उस पार मुख्वा गांव पड़ता है, जो गंगा मैया का शीतकालीन आवास है।

कमरों की व्यवस्था व भोजन आदि के साथ रात के दस बज जाते हैं। सफर में पहने हुए कपड़े कम प्रतीत हो रहे थे, क्योंकि यहाँ तापमान 12-14 डिग्री सेंटिग्रेट था, जो रात को 3-4 डिग्री तक तेजी से गिरने वाला था। रात को ही समीपस्थ कल्प-केदार मंदिर में भी माथा टेक आते हैं, जो एक सुंदर, स्वच्छ व भव्य कत्यूरी शैली में बना प्राचीन मंदिर है। इसे केदारनाथ मंदिर का ही समकालीन माना जाता है और पांडवों से जुड़ा हुआ है। दल के होटल में व्यवस्थित होने के बाद हम कमरे में प्रवेश करते हैं।

कमरा होटल की तीसरी मंजिल पर था, जहां की वाल्कनी से बाहर सेबों से लदा बगीचा प्रत्यक्ष था और सामने मुख्वा गाँव की टिमटिमाटी रोशनी से सजा आलौकिक दृश्य। चारों और गंगनचूंबी हिमालय के दर्शन आह्लादित कर रहे थे औऱ भगीरथी नदी की कलकल निनाद करती मधुर ध्वनि गृहप्रदेश की व्यास नदी की याद दिला रही थी। अगले दिनों इन सबका दीदार किया जाना था। इसी भाव के साथ कंबल व रजाई में प्रवेश कर, स्वयं को गरमाते हुए निद्रा देवी की गोद में प्रवेश करते हैं। (भाग-3, जारी)

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