बुधवार, 31 जुलाई 2024

कल्कि – कालजयी पात्रों के साथ रोमाँच के शिखर छूती एक फिल्म

तमाम रिकॉर्ड ध्वस्त करती 2024 की सबसे सफल फिल्म


महाभारत की पृष्ठभूमि में बनी कल्कि फिल्म कई मायनों में सनातन धर्मावलम्बियों के लिए एक दर्शनीय फिल्म है। कुरुक्षेत्र के मैदान में श्रीकृष्ण - चिरंजीवी अश्वत्थामा से शुरु, बनारस-शांभाला के मध्य युद्ध के बीच कल्कि अवतार के जन्म की ओर बढ़ती यह फिल्म अभी अधूरी है, इसका पहला हिस्सा ही तैयार है। इसमें लार्जर देन लाइफ पात्रों के साथ, मंझे हुए कलाकारों का वेजोड़ अभिनय, कथानक की रोचकता तथा थ्री-डी एफेक्ट के साथ दृश्यों की जीवंतता दर्शकों को बाँधे रखती है और एक दूसरे ही भाव लोक में विचरण की अनुभूति देती है।

फिल्म 600 करोड़ के बजट के साथ अब तक की सबसे मंहगी भारतीय फिल्म है। 27 जुलाई 2024 को रिलीज यह फिल्म अब तक तमाम रिकॉर्ड ध्वस्त करते हुए पाँचवें सप्ताह में प्रवेश कर चुकी है। फिल्म 2024 की सबसे अधिक कमाई करने वाली फिल्म बन चुकी है और अपनी पर्फोमेंस के आधार पर बाहूबली और आरआरआर जैसी बहुचर्चित फिल्मों को भी पीछे छोड़ती दिख रही है।

दिग्गज अभिनेता अमिताभ बच्चन फिल्म के मुख्य पात्र अश्वत्थामा की भूमिका में हैं। प्रभास ने भैरवा का रोल किया है, जो अन्त में कर्ण का प्रतिरुप निकलते हैं। दीपिका पादुकोण कल्कि को गर्भ में धारण किए माँ सुमति की भूमिका में हैं। साथ ही दिशा पटानी भैरवा के साथ संक्षिप्त भूमिका में है। कमल हसन खलनायक यास्किन की भूमिका में हैं, जिनका रोबोटिक प्रारुप इन्हें अलग ही स्वरुप देता है, जिसमें अन्त तक अभिनेता की पहचान दर्शकों को समझ नहीं आती।

फिल्म साई-फाई श्रेणी की है, जो नाम के अनुरुप 2898 ईसवी की है अर्थात आज से लगभग पौने नो सौ वर्ष बाद के कालखण्ड की, जब गंगानदी में पानी सूख चुका होगा। हरियाली नाम मात्र की शेष बची है। विज्ञान एवं तकनीकी अपने चरम पर है। फिल्म अंतिम महाविनाश के बाद बचे शहर बनारस की पृष्ठभूमि में फिल्मांकित है, जिसमें रह रहे लोगों के घर किसी दूसरे ग्रह के दृश्य लगते हैं, जहाँ जीवन प्रयोगशाला में अधिक चलता दिखता है।

फिल्म का खलनायक यास्किन शहर के विशिष्ट स्थल कॉम्पलेक्स से शासन करता है, जो शहर के ऊपर स्थित उल्टे पिरामिड की तरह दिखने वाला विशाल ढांचा है, जिसका सुरक्षा घेरा व इसके कमांडर मानस तथा सैनिक किसी तिल्सिमी दुनियाँ का आभास देते हैं। भविष्यवाणी है कि कल्कि का अवतार होने वाला है, जिसके खतरे से बचने के लिए यास्किन ने पूरा सुरक्षा घेरा तैयार कर रखा है। शहर के लोगों में कॉम्पलेक्स में प्रवेश की होड़ लगी रहती है, जो आसानी से उपलब्ध नहीं होता।


शहर की उर्बर महिलाओं को जबरन कांपलेक्स की प्रयोगशाला में ले जाया जाता है, जहाँ उन्हें कृत्रिम रुप से गर्भारण किया जाता है तथा इनके भ्रूणों के सीरम से 200 वर्षीय यास्किन के जीवन को बढ़ाने का प्रयोग चलता है। ऐसी गर्भवती महिलाओं में दीपिका पादूकोण भी एक पात्र हैं, जिसे प्रोजेक्ट-K की SUM-80 सदस्या नाम दिया गया है।

फिल्म की शुरुआत महाभारत के कुरुक्षेत्र मैदान से होती है, जहाँ अश्वत्थामा उत्तरा के अजन्मे बच्चे को मारने के लिए ब्रह्मास्त्र के दुरुपयोग की धृष्टता के चलते श्रीकृष्ण के सामने अपराधी की मुद्रा में खड़े हैं। अश्वत्थामा के माथे पर सजी मणि छीन ली जाती है और उन्हें हजारों वर्षों धरती पर भटकने का शाप मिलता है, साथ ही एक सुखद आश्वासन भी कि प्रायश्चित के चरम पर कलियुग के अंत में भगवान विष्णु स्वयं कल्कि भगवान के रुप में अवतार लेंगे, तो उनकी रक्षा का गुरुत्तर दायित्व अश्वत्थामा का होगा। इसी के साथ अश्वत्थामा का उद्धार होगा।

इस एक मकसद के साथ लहुलुहान, गलित देह एवं जर्जर रुह के साथ अश्वत्थामा कलियुग में जीने के लिए अभिशप्त हैं। बनारस की किन्हीं गुफाओं के तल में एक शिवालय में वे अपना प्रायश्चित काल परा कर रहे हैं।

आगे फिल्म शाम्भाला से बनारस की यात्रा पर निकले रक्षकों के एक बाहन के साथ आगे बढ़ती है, जहाँ सूखे रेतीले मार्ग के साथ ये रक्षक शहर में प्रवेश होते हैं। यास्किन के पहरेदार नए आगंतुकों पर तीखी नजर रखे हुए हैं। शाम्भाला से आए इस दल में लड़के के रुप में प्रच्छन्न युवा लड़की राया शाम्भाला के अन्य रक्षकों की सहायता से बाल-बाल बच जाती हैं। राया एक गुफा में शरण पाती है, जहाँ उसकी मुलाकात अश्वत्थामा से होती है।

फिल्म में चर्चित रहस्यमयी शाम्भाला ग्राम में मरियम नाम की माता रहती हैं, जिनके साथ पूरा कुनवा फलफूल रहा है, वहाँ सीधे प्रवेश संभव नहीं। यह एक अलौकिक एवं विशिष्ट स्थान प्रतीत होता है। कल्कि का जन्म इसी ग्राम में होना है, जिसे माता जानती हैं। उनके रक्षक सैनिक बनारस में खलनायक यास्किन के यहाँ छुप कर माता सुमति की खोज में गए हैं, जो यहाँ SUM-80 सदस्या के रुप में वंदी हैं।

प्रभास के साथ दिशा पटानी का रोल संक्षिप्त है। रेगिस्तानी शहर में कुछ पल इनके साथ सागर की लहरों संग हरियाली एवं सुंदर घाटी के दर्शन के साथ दर्शकों को थोड़ा राहत देते हैं। प्रभास यहाँ भैरवा के रुप में विंदास एवं कुछ अवारा जीवन जी रहे होते हैं, लेकिन ये विशेष शक्तियों से युक्त पात्र दिखते है। उसके घर के मालिक के संग मजाकिया व्यवहार विनोद का पुट लगाते हैं। प्रभास के डायलोग भी उसी श्रेणी के हैं। लेकिन साथ ही वह एक जांबाज यौद्धा भी हैं।

खलनायक यास्किन रहस्यमयी चैंबर में रहते हैं। पूरे रोविटिक यंत्र इसके शरीर में लगे हुए हैं। यास्किन के कमांडर व रक्षक बड़ी संजीदगी के साथ इनकी व कॉम्पलेक्स की देखभाल व रक्षा कर रहे हैं।

काम्पलेक्स में वंदी गर्भवती महिलाओं का कृत्रिम गर्भाधान होता है और उनके भ्रूण की जांच होती रहती है। इसी क्रम में दीपिका पादुकोण के रुप में SUM-80 का टेस्ट होता है। सभी 120 दिन से अधिक नहीं टिक पाती, जबकि SUM-80 का गर्भ 150 दिन पार कर जाता है। संभाला से आई महिला रक्षक उसे सुरक्षित बाहर निकालने का प्रयास करती है। हालाँकि उसके गर्भ के रज की एक बूंद यास्किन के हाथ लग जाती है।

शम्भाला से छद्मरुप में आयी रक्षक कन्या बचने के संघर्ष में नीचे गहरी अंधेरी गुफा में गिर जाती है, जहाँ शिवलिंग होता है। चारों ओर ध्यान करती प्रतिमाएं, इन्हीं के बीच में अश्वत्थामा गहन ध्यान से जागते हैं। खलनायक के सिपाही वहाँ तक पहुँचते हैं, तो अश्वत्थामा पुरातन वेश में उनको बुरी तरह से पटकते हैं और इनकी कन्या रक्षक से दोस्ती हो जाती है और वह इन्हें अपना शिक्षक – टीचर मानती है।

अश्वत्थामा को आभास होता है कि कल्कि गर्भ में आ चुके हैं और इनकी रक्षा का चिरप्रतिक्षित समय आ गया है और उनमें एक नई चैतन्यता का संचार होता है। यास्किन की पूरी सेना से वे अकेले ही भिड़ जाते हैं। इनको हराकर आगे बढते हैं। भैरवा कांपलेक्स में प्रवेश के प्रलोभन में अपनी एआई कार बुज्जी के साथ अश्वत्थामा का पीछा करते हैं, इसी क्रम में भैरवा से भी युद्ध होता है। बराबर की टक्कर रहती है।

शाम्भाला से आए रक्षक SUM-80 को वाहन में बिठाकर संभाला की ओर कूच करते हैं और इसे (कल्कि की माँ) सुमति नाम देते हैं। जब यास्क को पता चलता है तो वह अपने कमांडों के साथ प्रभास को पीछे लगा देता है। रास्ते में भारी युद्ध होता है। युद्ध का लोमहर्षक दृश्य रोवोटिक युद्ध जैसा लगता है। युद्ध की लुका-छिपी के साथ ही सुमति का शाम्भाला में प्रवेश होता है।

शाम्भाला के अलौकिक दरवार में सर्वधर्म समन्वय का प्रयास दिखता है। इसके पात्र मरियम, एंड्रयूज से लेकर दक्षिण भारतीय, बौद्ध, गौरे विदेशी इसमें दिखते हैं। हर रंग व वर्ग का प्रतिनिधित्व यहाँ के निवासियों में दिखता है।

माँ सुमति के शम्भाला में प्रवेश करते ही चिरप्रतीक्षित झमाझम बारिश होती है और सूखा पड़ा जीवन वृक्ष खिल उठता है। जिसे सभी शुभ संकेत मानते हैं। पूरे शम्भाला में उत्सव का माहौल में डूब जाता है।

उधर भैरवा का शाम्भाला में प्रवेश होता है। काम्पलेक्स में प्रवेश के प्रलोभन के साथ मानस के साथ उसका सौदा हुआ होता है कि वह SUM-80 को पकड़ कर लाए। भैरवा अश्वत्थामा का वेश धारण कर SUM-80 (सुमति) की खोज करता है और उसे शाम्भाला से भागने के लिए तैयार करता है, जब असली अश्वत्थामा से सामना होता है। दोनों के बीच घनघोर युद्ध होता है, जिसके बीच यास्किन के कमांडर मानस का सेना सहित प्रवेश होता है। शाम्भाला को जैसे चारों ओर से घेर लिया जाता है और भयंकर युद्ध में परिसर की दिवारें व भवन धड़ाशयी होते हैं।

मरियम सुमति को सुरक्षित स्थान पर छुपाने का प्रयास करती है, लेकिन युद्ध में मरियम मारी जाती है। मानस अश्वत्थामा को भी जंजीरों में जकड़ लेता है। इसी क्रम में छड़ी बेहोश भैरवा के हाथ में गिर जाती है, और वह जीवंत हो उठता है। पता चलता है कि वह कर्ण का विजय धनुष था और भैरवा कर्ण का पुनर्जन्म है। इसी के साथ भैरवा में अलौकिक परिवर्तन होता है। इस नई शक्ति के साथ भैरवा मानस को मार देता है और पूरी सेना को हरा देता है।

भैरवा को इस जीवन के स्वधर्म का बोध होता है और अब वह अश्वत्थामा के साथ मिलकर माँ सुमति की रक्षा करते हैं।

उधर काम्पलेक्स में सुमति के भ्रूण से निकाली गई सीरम की बूंद से यास्किन पुनः अजन्में कल्कि और विष्णु की शक्ति को आंशिक रुप से पाकर युवा हो जाते हैं, नया शरीर पाते हैं। उनकी रोबोटिक सीमाएं समाप्त हो जाती हैं और अर्जुन का गांडीव उठाकर दुनियां को आकार देने की प्रतिज्ञा के साथ सुमति व उसके बच्चे को पकड़ने की प्रतिज्ञा लेते हैं। और इस तरह अगले युद्ध की पृष्ठभूमि तैयार होती है और इसके साथ फिल्म का अंत होता है। इस रुप में दर्शकों को कल्कि के शेष भाग-2 का वेसब्री से इंतजार रहेगा।

फिल्म को देखकर एक बात सुनिश्चित है कि इसे देख सनातम धर्म के दर्शक अपने धार्मिक ग्रंथों को ओर गहराई से पढ़ने के लिए प्रेरित होंगे।

फिल्म निर्माताओं में चिंरजीवी पात्रों पर फिल्म निर्माण की होड़ शुरु होगी। कोई आश्चर्य नहीं कि अगले 2-4 वर्षों में ऐसी अनेकों फिल्में देखने को मिले।

इस फिल्म का थ्री-डी में देखने का अलग ही अनुभव है, अतः इसका पूरा आनन्द लेने के लिए इसे फिल्म थियेटर में ही देखें। लैप्टॉप पर इसके साथ न्याय नहीं हो सकता।

ऐसी फिल्में दक्षिण भारत में ही संभव प्रतीत होती हैं, जहाँ के लोग व फिल्मनिर्माता अपनी सांस्कृतिक जड़ों से गहराई से जुड़े हुए हैं। मसाला एवं कॉपी-पेस्ट फिल्मों के लिए कुख्यात बालीवुड़ सिनेमा से ऐसी फिल्मों की आशा नहीं की जा सकती। फिल्म के पटकथा लेखक एवं निर्देशक नाग आश्विन एवं उनकी पूरी टीम इस कालजयी फिल्म बनाने के लिए साधुवाद के पात्र हैं।

कल्कि जैसी फिल्मों के साथ नई पीढ़ी अपनी संस्कृति के कालयजी पात्रों व भारत के इतिहास बोध तथा इसके शाश्वत जीवन दर्शन से रुबरु हो रही है। संभवतः यही इस तरह की फिल्मों की सबसे बड़ी उपलब्धि है।

सोमवार, 1 जुलाई 2024

2024 की गर्मी की मार के बीच के कुछ सवक

 

गर्मी की मार, राहत की बौछार और उभरता जीवन दर्शन

इस वार गर्मी की जो मार पड़ी है, वह लम्बे समय तक याद रहेगी। मार्च से शुरु, अप्रैल में सारे रिकॉर्ड तोड़ते हुए, मई में अपने चरम को छूती हुई, जून में हीट वेव के रुप में देश के एक बढ़े हिस्से को एक धधकती भट्टी में तपाती हुई, वर्ष 2024 की गर्मी इतिहास के पन्नों में दर्ज हो चुकी है और साथ ही गहरा संदेश भी दे गई है। यदि मानव चेतता है, तो उसे आगे ऐसे गर्मी की नरकाग्नि में नहीं झुलसना पड़ेगा, लेकिन मानव की फितरत है कि इतनी आसानी से सुधरने वाला नहीं। अपने सुख-भोग और सुविधाओं में कटौती करने के लिए शायद ही वह राजी हो।

हर वर्ष पर्यावरण संतुलन, जलवायु परिवर्तन पर विश्व स्तर पर बड़े-बड़े आयोजन होते रहते हैं, लेकिन नतीजे वही ढाक के तीन पात। कोई भी विकसित राष्ट्र अपने ग्रीनहाउस व कार्वन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन को कम करने वाला नहीं। गर्मी में चौबीसों घंटों ऐसी की भी सुविधा चाहिए और तापमान भी नियंत्रण में रहे, ये कैसे संभव है। थोड़ा सा गर्मी को बर्दाश्त करते हुए, प्राकृतिक जीवन शैली को अपनाने के लिए कितने बड़े देश तैयार हैं। देशों की बातें छोड़ें, हम अपने देश, समाज, पड़ोस, घर की ही बात कर लें। आइने में तस्वीर साफ है। कोई इतनी आसानी से सुधरने के लिए तैयार नहीं है। कोविड काल जैसा एक झटका ही उसे थोड़ी देर के लिए होश में ला सकता है। लेकिन फिर स्थिति सामान्य होने पर वह सबकुछ भूल जाता है। यही इंसानी फितरत है, जो किसी बड़े व स्थायी बदलाव व सुधार के प्रति सहजता से तैयार नहीं हो पाती।

हालांकि प्रकृति अपने ढंग से काम करती है, वह इसमें विद्यमान ईश्वर के ईशारों पर चलती है। वह जब चाहे एक झटके में इंसान की अकल को ठिकाने लगा सकती है। फिर युगपरिवर्तन की बागड़ोर काल के भी काल स्वयं महाकाल के हाथों में हो, तो फिर अधिक सोचने व चिंता की जरुरत नहीं। वह उचित समय पर अपना हस्तक्षेप अवश्य करेगा। हम तो अपने हिस्से का काम ईमानदारी से करते रहें, अपने कर्तव्य का निर्वाह जिम्मेदारी से करते रहें, इतना ही काफी है। और इससे अधिक एक व्यक्ति कर भी क्या सकता है। अपनी जड़ता व ढर्रे में चलने के लिए अभ्यस्त समूह के साथ माथा फोड़ने में बहुत समझदारी भी तो नहीं लगती।

लेकिन जो ग्रहणशील हैं, समझदार हैं, संवेदशनशील हैं, अस्तित्व के सत्य को जानने व इसे परिवर्तित करने के लिए सचेष्ट हैं, उनसे तो बात की ही जा सकती है। इस बार की गर्मी के सवक सामूहिक रुप में स्पष्ट थे, व्यैक्तिक रुप में भी कई चीजें समझ में आई, जिन्हें यहाँ साझा कर रहे हैं, हो सकता है कि आप भी इनसे बहुत कुछ समहत हों, तथा इसी दिशा में कुछ एक्टिविज्म की सोच रहे हों।

गर्मी बढ़ती गई, हम भी इसको सहते गए। टॉफ फ्लोर में कमरा होने के नाते तपती छत व दिवारों के साथ कमरा भी तपता रहा और अपने चरम पर हमें याद है, जब हीट वेव अपने चरम पर थी, रात को 2 बजे जब नींद खुलती तो पंखे गर्म हवा ही फैंक रहे थे, चादर गर्म थी, विस्तर पसीने से भीगा हुआ। किसी तरह रातें कटती रहीं। फिर शरीर की एक आदत है कि इसे जिन हालातों में छोड़ दें, तो वह स्वयं को ढाल लेता है। मन ने जब स्वीकार कर लिया की इस गर्मी में रहना है, तो शरीर भी ढल जाता है। जब दिन में अपने कार्यस्थल तक तपती धूप में चलते, तो श्रीमाँ की एक बात याद आती। सूर्य़ का एक भौतिक स्वरुप है तो दूसरा आध्यात्मिक। इसके आध्यात्मिक स्वरुप का भाव-चिंतन करते हुए सोच रही कि इसके ताप के साथ तन-मन की हर परत के कषाय-कल्मष गल रहे हैं। ऐसा करने पर राह में दिन का सूर्य का ताप अनुकूल प्रतीत होता। लगा कि सूर्य के साथ एक आत्मिक रिश्ता जोड़कर इसे भी तप-साधना का हिस्सा बना सकते हैं। फिर याद आती साधु-बाबाओँ की, जो तपती भरी दोपहरी में भी चारों ओर कंडों-उपलों में आग लगाकर इसके बीच आसन जमाकर पंचाग्नि तप करते हैं। याद आती कुछ साधकों की जो धधकती आग पर चलने के करतव दिखाते। संभवतः एक विशिष्ट मनःस्थिति में यह सब कुछ संभव होता है।

याद आता रहा युगऋषि परमपूज्य गुरुदेव आचार्यश्री का तपस्वी व्यक्तित्व, जो सबसे ऊपरी मंजिल में कमरा होते हुए भी गर्मियों में भी अपने लिए पंखें का उपयोग नहीं करते थे, जब मेहमान आते, तो उनका पंखा चलता। बिना पंखें के गर्मी में भी उनकी तप साधना, अध्ययन लेखन व सृजन साधना निर्बाध रुप में चलती रहती।

लेकिन परिस्थितियों की मार के आगे सामान्य मन के प्रयास शिथिल पड़ जाते हैं। इसी बीच कार्यस्थल पर अनिवार्य सामूहिक कार्य से घंटों ऐसी में बैठना पड़ा, जो सुविधा से अधिक कष्टकर प्रतीत होता रहा। और तीन-चार दिन, दिन भर ऐसी में घंटों बैठने की मजबूरी और शेष समय तथा रात भर कमरे में तपती छत के नीचे की आँच। दोनों का विरोधाभासी स्वरुप तन-मन पर प्रतिकूल असर डालता प्रतीत हुआ। लगा कि ऐसी में रहना बहुत समझदारी वाला काम नहीं।

जब बाहर का तापमान 40, 42, 45 डिग्री सेल्सियस चल रहा हो तो ऐसी के 18, 16 या 20-24 डिग्री सेल्सियस की ठंड में रहना कितना उचित है, ये विचार करने योग्य है। शायद ही इस पर कोई अधिक विचार करता हो। क्योंकि इस ऐसी में भी जब पूरी स्पीड में पंखे चलते दिखते हैं, तो यह सोच ओर पुष्ट हो जाती है। अंदर बाहर के तापमान में 20 से लेकर 30 डिग्री का अंतर, तन-मन की प्रतिरोधक क्षमता पर कितना असर डालता होता, सोचने की बात है। हमारे विचार में यह गैप जितना कम हो, उतना ही श्रेष्ठ है। 

हमारा स्पष्ट विचार है कि ऐसी जैसी सुविधाओं का गर्मी के मौसम में इतना ही मसकद हो सकता है कि व्यक्ति का मस्तिष्क सामान्य ढंग से काम करता रहे। परिवेश व कमरे का तापमान इतना रहे कि दिमाग सामान्य ढंग से काम करता रहे। अत्य़धिक कष्ट होने पर थोड़ी देर के लिए मौसम के हिसाव से सर्दी के विकल्प तलाशे जा सकते हैं, लेकिन इसे बिना सोचे समझे ढोना, अति तक ले जाना और जीवनशैली का अंग बनाना, तन-मन की प्रतिरोधक क्षमता को क्षीण करना है, अपनी जीवट की जड़ों पर प्रहार करने जैसा है, जो किसी भी रुप में समझदारी भरा काम नहीं।

गर्मी की लहर के चरम पर जून के तीसरे सप्ताह में प्री मौनसून वारिश की बौछारों के साथ हीट वेब की झुलसन से कुछ राहत मिली। ऐसे लगा कि जनता की सम्वेत पुकार पर ईश्वर कृपा बादलों से बारिश की बूंदों के रुप में बरस कर सबको आशीर्वाद दे रही हो। इस बारिश की टाइम्गिं भी कुछ ऐसी थी, कि एक विशिष्ट कार्य पूरा होते ही, जैसे इसकी पूर्णाहुति के रुप में राहत की बौछार हुई। जो भी हो, हर सृजन साधक अनुभव करता है कि तप के चरम पर ही ईश्वर कृपा वरसती है। जीवन के इस दर्शन को अस्तित्व के गंभीर द्वन्दों के बीच अनुभव किया जा सकता है।

जीवन के उतार चढ़ाव, गर्मी-सर्दी, सुख-दुःख, मान-अपमान, जय-पराजय, जीवन-मरण के बीच भी जो धैर्यवान हैं, सहिष्णु हैं, सत्यनिष्ठ हैं, धर्मपरायण हैं, ईश्वरनिष्ठ हैं - वे इस सत्य को बखूवी जानते हैं। तप के चरम पर दैवीय कृपा अजस्र रुपों में बरसती है और सत्पात्र को निहाल कर देती है। आखिर हर घटना, हर संयोग-वियोग के पीछे ईश्वरी इच्छा काम कर रही होती है, और साथ ही समानान्तर अपने कर्मों का हिसाव-किताव चल रहा होता है। लेकिन जो भी होता है, अच्छे के लिए हो रहा होता है। धीर-वीर इसके मर्म को समझते हैं और हर द्वन्दात्मक अनुभव के बीच निखरते हुए, उनके कदम जीवन के केंद्र की ओर, इसके मर्म के समीप पहुँच रहे होते हैं।

गुरुवार, 9 मई 2024

भाव यात्रा - गिरमल देवता संग तीर्थ यात्रा का यादगार रोमाँचक सफर, भाग-3

मलाणा से घर बापसी वाया दोहरा नाला

देवभूमि कुल्लू घाटी का पावन क्षेत्र

दिन 6 – मलाणा गाँव से दोहरा नाला

दिन 7 – दोहरा नाला से नरेंइंडी

दिन 8 – नरेंइंडी से बनोगी एवं घर

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दिन 6 – मलाणा गाँव से दोहरा नाला 

ट्रेकिंग के रोमाँच का शिखर

तीर्थ यात्रियों की अग्नि परीक्षा लेता यात्रा का सबसे रफ-टफ एवं खतरनाक रुट

सबसे खतरनाक रुट पर सफर के रोमाँच का शिखर आज जैसे इंतजार कर रहा था। अगले 2 दिन सबसे रोमाँचक औऱ यादगार यात्रा का हिस्सा बनने वाले थे। एक तरफ आधे सफर को तय करने का संतोष व रोमाँच अंदर हिलोरें मार रहा था, तो दूसरी ओर आगे का विकट मार्ग जैसे इस उत्साह की अग्नि परीक्षा लेने के सारे सरंजाम जुटाकर बैठा था।

देव-काफिला मलाणा से प्रातः 6.40 पर कूच करता है, 15-20 मिनट में मलाना गाँव पार होते ही धार के उस पार से दूर भेलंग गाँव की हल्की सी झलक मिलना शुरु होती है, जहाँ मलाना वासियों के शॉर्न अर्थात शीतकालीन आवास व खेत हैं। गाँव के दो हिस्से हैं - अपर भेलंग और लोअर भेलंग।

कुछ देर चलने के बाद रास्ते में खूबसूरत झरने के दर्शन होते हैं, जिसमें ऊपर पावन चंद्रखणी पास के बर्फ से पिघलकर बह रहा शीतल व निर्मल जल झर रहा था। झरने का शोर करता दिव्य निनाद व इसकी शीतल फुआरें यात्रियों को तरोताजा करने वाला सुखद अहसास दे रहे थे।

पहाड़ी झरने का खूवसूरत दृश्य

रास्ते में भेड़-बकरियों के साथ मवेशियों के दर्शन होते हैं और पीठ पर लकड़ी के भारी स्लीपर को ढो रहे श्रमिक। इनके दर्शन कर इस शांत, एकांत एवं दिव्य क्षेत्र में जीवन के कठोर सत्य के दिग्दर्शन हो रहे थे। इसमें मुख्य था कि यह क्षेत्र सबके लिए संभव नहीं, क्योंकि यहाँ विचरण के लिए न्यूनतम फिटनेस व टफनेस का होना आवश्यक है। स्वयं के साथ 15-20 किलो बजन उठाकर चलने की क्षमता होनी जरुरी है, क्योंकि यहाँ यातायात के कोई साधन नहीं हैं, न ही कोई ढुलाई की सुविधा, जो अमूनन पर्वतीय तीर्थस्थलों पर देखी जाती है। दूसरा, बिना किसी गैजेट, इंटरनेट एवं मोबाइल कनेक्टिविटि के भी जीवन का आनन्द लेने की मानसिक मजबूती। निसंदेह रुप में प्रकृति एवं रोमाँचप्रेमी घुमक्कड़ इन शर्तों को सहज रुप में पूरा करते हैं व इसी के बीच जीवन की सार्थकता और मसकद को खोजते हैं व पाते हैं।

देव काफिला भी आज की तय मंजिल की ओर बढ़ रहा था। रात को हल्की बर्फवारी हुई थी, जिसके निशान रास्ते में जमीं बर्फ की हल्की परत के रुप में मिल रहे थे। काफिला पहले अपर भेलंग गाँव से गुजरता है, यहां लकड़ी से बने पुराने पारंपरिक घर इधर-उधर बिखरे थे।

पहाड़ की गोद में बसे भेलंग गांव का दृश्य
गांव से नीचे उतरते हुए लोअर भेलंग गाँव को पार करते है। गाँव में खेत फसल के लिए तैयार दिख रहे थे, जिसमें महिलाएं व बच्चे काम करते हुए दिख रहे थे, कुछ काम के बाद चट्टानों पर विश्राम कर रहे थे व देव-काफिले को कौतूहक भरी दृष्टि से निहार रहे थे। यहाँ कुछ महिलाएं दोनों हाथों में किल्णीं (छोटी कुदाली) लेकर खुदाई करती हुईं दिखीं, जो स्वयं में एक विरल दृश्य था।
खेत में काम के बाद चट्टान पर विश्राम करती महिलाएं-बच्चे

लोअर भेलंग से सीधे नीचे उतरते हुए नाला क्रोस करते हैं और फिर सीधी चढ़ाई के संग काफिला आगे बढ़ता है। बता दें कि सभी लोग जूता पहनकर ट्रेकिंग कर रहे थे लेकिन गुर व पूजारी पुला (धान की घास के बने पारंपरिक जुत्ते, जिन्हें शुद्ध माना जाता है) पहनकर आगे बढ़ रहे थे। दल लगभग 10 बजे आगम डूगा पहुँचता है, जो चरावाहों के रुकने का एक बेहतरीन मैदानी सा स्थान है, जो खोरशु (हिमालय की ऊंचाई में ओक (बांज) प्रजाति का एक सदावहार वृक्ष) के जंगल से घिरा हुआ स्थान है।


यहाँ से चंद्रखणी साइड की बर्फिली धार स्पष्ट दिख रही थी। यहीं पर भोजन-विश्राम होता है और इसके बाद दोपहर डेढ़ बजे काफिला आगम-डूगा से आगे बाबा ताड़ी की चढ़ाई को चढ़ाई को पार करता है।

यहाँ की खड़ी चढ़ाई को पार करते हुए लगभग अगले आधा घण्टा धार के साथ आगे बढ़ते हुए फिर इस यात्रा का सबसे कठिन रुट सामने था। रास्ते में थकने पर काफिला कुछ देर विश्राम कर दम भरता व आगे के लिए तैयार होता है।

विहड़ वन के बीच मार्ग में दम भरते काफिले के सदस्य

आगे डेंजर जोन की खड़ी चढ़ाई में काफिले की अग्नि परीक्षा शुरु होती है, जहाँ एक किमी को पार करने में लगभग डेढ़ घंटे लग जाते हैं। आग लगने के कारण मार्ग में पकड़ने के लिए झाड़ियां तक गायब थी। किसी तरह कुल्हाड़ी तथा किल्हणी (छोटी कुदाली) से जमीं खोदकर खड़ी चढाई में स्टेप्स बनाए जाते हैं।
मार्ग का सबसे कठिन ट्रैक

पीठ पर 10, 15 से 25 किलो का बोझा लादे हर व्यक्ति दैवी संरक्षण के भरोसे अपना पूरा साहस बटोरते हुए आगे बढ़ रहा था। खतरे का आलम यह था कि एक भी कदम किसी का स्लिप हो गया, तो समझो गया सीधा नीचे खाई में। दिल को धामे, फूलती सांस, धड़कते दिल के साथ चढ़ाई पार होती है। यहां की खड़ी चढ़ाई के नीचे की खाई के उस पार जरी साइड का ब्लाधि नाला पड़़ता है और इस ओर दोहरा नाला, जो आज का अगला पड़ाव था।

इस खाई को पार करते हुए पथिक की सारी हंसी-मजाक गायव हो चुके थे, सारा ध्यान अगले कदम पर था। जीवन-मृत्यु के बीच झूलते इन पलों में घर परिवार संसार के सकल विचार गायब हो चुके थे। सिर्फ मंजिल सामने थी और दृष्टि अपने अगले कदम पर केंदित। काफिला सीधे लक्ष्य की ओर बढ़ रहा था। देखा जाए तो जीवन में भी येही पल सबसे वहुमूल्य होते हैं, जब व्यक्ति का पूरा ध्यान लक्ष्य केंद्रित होता है, जब सारे डिस्ट्रेक्शन्ज विलुप्त हो जाते हैं। येही एकांतिक पल जीवन में लक्ष्य सिद्धि को संभव बनाते हैं।

इस टफ रुट की खड़ी चढ़ाई का आरोहण कर काफिला दोहरानाला टॉप पहुँचता है, शाम के पाँच बज रहे थे। यहाँ जमीं बर्फ के साथ स्वागत होता है।

दोहरा नाला टॉप से बर्फ के बीच नीचे  उतरने की तैयारी में काफिला

इसी बर्फिले रास्ते के संग अगले आधा घंटा काफिला नीचे उतरता है।

बर्फ ले बीच दोहरा नाला की ओर आगे बढ़ता देव-काफिला

चारों ओर बर्फ ही बर्फ थी। इसी बर्फ पर चलते हुए काफिला आगे बढ़ रहा था।

बर्फिली राहों में झाड़ियों के बीच आगे बढ़ते हुए देवकाफिला 

एक तरफ शरगढ़ की झाडियाँ और दूसरी ओर खोरशु के पेड़ों के बीच बर्फ के ऊपर सब नीचे उतर रहरे थे। आधे घंटे वाद शाम 5.30 बजे दोहरा नाला पर आकर काफिला रुकता है, जो चंद्रखणी की ओर के उम्बला रुआड़ तथा दोहरानाला टॉप से आ रहे दो नालों का संगम स्थल है। इसीलिए इसे दोहरा नाला कहा जाता है औऱ यही आगे चलकर नीचे काईस नाला का रुप लेता है।


यहाँ बर्फ के ग्लेशियर के बीच बहते नाले का निर्मल जल अपने शोर करते कलकल निनाद के साथ एक ताजगी भरा अहसास दिला रहा था। लगा जैसे कि आज तक की पिछली तपस्या का फल यहाँ मिल रहा हो। कुछ इसके आपपास तो कुछ इससे ऊपर प्राकृतिक रुआड़ (गुफाओं) में रात के रुकने के तम्बू गाड़ लेते हैं।

यहाँ खाना बनाना सबसे कठिन था, बर्फिली हवा और गीली लकड़ियाँ। काफी मशक्कत करनी पड़ रही थी आग जलाने व खाना बनाने में यहाँ। औऱ यहाँ सबसे अधिक ठँड भी थी। तापमान माइनस में था। सुबह जब उठे तो जुत्ते तक जम चुके थे। बाहर पूरा पाला पड़ा हुआ था। आज की रात अब तक की सबसे ठंडी रात रही।

रास्ते भर बर्फ ही बर्फ और मार्गानुसंधान

यहाँ आस-पास चट्टानी पहाड़ों में प्राकृतिक रुप से बने कई रुआड़ (गुफाएं) थे जिनमें बारिश-बर्फवारी के बीच गड़रिये व प्रकृतिप्रेमी ट्रैक्कर रुकते हैं। सुबह 6.30 बजे देव काफिला यहाँ से आगे के लिए कूच करता है।

दिन 7 – दोहरा नाला से नरेंइंडी

दोहरा नाला से आगे कहीं चढ़ाई, तो कहीं उतराई भरी राह को पार करते हुए डेढ़ घंटे में काफिला भूचकरी टॉप पहुंचता है। पूरा सफर बर्फ के ऊपर पूरा होता है। रास्ते भर औसतन दो-अढाई फीट बर्फ थी। रास्ते में कुछ रुआड़ (प्राकृतिक गुफा) से भी दर्शन होते हैं। रिज पर कभी ऊपर, तो कभी नीचे आगे बढ़ते हुए एक घंटे के सफर के बाद फुटासोर पहुँचते हैं। जहाँ बर्फ की सफेद चादर ओढ़े बुग्याल की स्लोप्स (ढलानें) देव काफिले का जैसे विशिष्ट स्वागत कर रही थीं। फुटासोर पहुँचते ही अपने घर पहुँचने का अहसास होता है, क्योंकि यहाँ तक अक्सर विशिष्ट अवसरों पर किसी बहाने आना-जाना होता रहता है।

तीर्थयात्रा के सबसे रोमाँचक एवं दिव्य अनुभव, देवकृपा से कम नहीं

फूटासोर का काईस की भगवती दशमी वारदा के साथ विशेष सम्बन्ध माना जाता है। खोरसू के जंगल यहाँ वहुतायत में हैं, रखाल के पेड़ भी यहाँ मिलते हैं। गाँव वासियों के लिए यह एक पावन स्थल है। वास्तव में बिजली महादेव से लेकर चंद्रखणी पर्यन्त सारा मार्ग देव शक्तियों का पावन स्थल माना जाता है और क्षेत्रीय परिजन तथा फुआल (चरावाहे) श्रद्धा भाव के साथ इस रुट पर विचरण करते हैं और देवशक्तियों के आह्वाह्न, सूक्ष्म संरक्षण एवं दैवीय मार्गदर्शन में ही उनके हर कृत्य सम्पन्न होते हैं।

इस रुट पर खोरशु के जंगल को पार करते हुए दुआरू नामक संकरे मार्ग को पार करते हुए काफिला एक घंटे बाद उब्लदा नामक स्थान पर जल स्रोत के पास रुकता है। यहाँ पर भूमिगत जल उबलते हुए जमीं से बाहर निकलता है, इसलिए इसका नाम उब्लदा रखा गया है।

उब्लदा में निर्मल एवं शीतल जल का प्राकृतिक स्रोत

रास्ते में वर्णित दुआरु नामक स्थान पर दोनों ओर की चट्टानों पर भेड़ु के सींग के निशान हैं, जिसकी अपनी कहानी है, जिसकी किसी अन्य प्रसंग में चर्चा की जाएगी। उब्लदा में सुबह का भोजन तैयार होता है।

जंगल में प्रज्जवलित अगिन के संग तैयार हो रहा भोजन

जब पहुँचे तो मौसम साफ था। भोजन करते-करते बर्फवारी शुरु होती है और बर्फवारी के बीच ही काफिला आगे बढ़ता है और अगले एक डेढ़ घंटे का सफर तय करता है।

बर्फवारी के बीच आगे का सफर

गंगनचूंबी देवदार व रई-तोस के वृक्षों के बीच सफर तय होता है, रास्ते के विकट मार्ग को पार कर अपने गृह प्रदेश में पहुँचने का संतोष गाढ़ा हो रहा था, जो सबके चेहरे पर स्पष्ट था। रेउंश से होते हुए देव-काफिला सीधी उतराई के संग नरेइंडी पहुंचता है। रेऊंश की झाडियाँ बहुतायत में होने के कारण स्थान का नाम रेउंश रखा गया है, जहाँ वन विभाग का गेस्ट हाउस है। यहाँ से कुल्लू घाटी व शहर की ओर का विहंगम दृश्य देखते ही बनता है। कुल्लु के ढालपुर मैदान की ओर से भी इस स्थान के दर्शन किए जा सकते हैं।

नीचे मार्ग में मातन छेत अर्थात खेत आते हैं। ऊँचाई पर सेब का अंतिम बगीचा यहाँ पर मौजूद है, जो इस समय फ्लावरिंग स्टेज में था। इस समय नीचे सेऊबाग गाँव में सेब के फल चैरी व पीनट साइज ले चुके थे, लेकिन उँचाई में यहाँ अभी सेब में फूल खिले थे। ऊंचाई के साथ सेब की फ्लावरिंग का पैटर्न यहाँ से गुजरते हुए स्पष्ट हो रहा था। आश्चर्य नहीं कि पहाड़ों के अधिक ऊंचाई वाले क्षेत्रों में सेब देर से तैयार होता है, जो सितम्बर-अक्टूबर तक चलता रहता है। जबकि नीचले इलाकों में सेब जुलाई-अगस्त में तैयार हो जाता है। 

यहाँ से पार होते हुए नीचे देवदार के वृक्षों के नीचे देवस्थल नरेंइंडी के निर्जन वन में रात्रि का ठिकाना बनता है।

दिन 8 – नरेंइंडी से बनोगी एवं घर बापसी

नरेंइंडी में प्रातः हवन यज्ञ व कन्या पूजन के साथ भोजन तैयार होता है। फिर दोपहर से शाम तक आस-पास व दूर-दराज से देवता के दर्शन एवं हारियानों के स्वागत के लिए आए श्रद्धालुओं का भोजन-भंडारा होता है। शाम को सब नरेइंडी से नीचे बनोगी गाँव में गिरमल देवता के मंदिर में पहुँचते हैं। देवता को भंडार में स्थापित किया जाता है और फिर देवता से विदाई लेते हुए सभी हारियान अपने-अपने घरों को कूच करते हैं।

गिरमल देवता संग 8 दिन के सफर के बाद सभी बिल्कुल फ्रेश अनुभव कर रहे थे। पैर में किसी तरह की जकड़न (ऊरा) के निशान नहीं थे, न ही किसी तरह की कोई थकान। बस रास्ते की खट्टी-मीठी यादों का रोमाँच उमड़ते-घुमड़ते हुए चिदाकाश को पुलकित कर रहा था, रोमाँचित कर रहा था। विश्वास नहीं हो रहा था कि हम इतना लम्बा व कठिन सफर पैदल पार कर सकुशल आ गए हैं, जिसके बारे में कभी अपने बुजुर्गों से सुनकर मात्र कल्पना भर कर रोमाँचित होते थे। और आज ये सब अपने अनुभव का हिस्सा बन चुका था।

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रास्ते के पेड़-पौधे व वनस्पति -

रास्ते में खोरश (खरशू) के पेड़ बहुतायत में मिलते हैं और रई तोश के भी, जो देवदार से भी ऊंचाई पर उगते हैं। और भुचकरी के पास भोजपत्र के वृक्ष। खोरशु के वृक्षों सहित रई-तोस आदि से मेंहदी झरती है, जिसे लोग इकट्ठा कर व्यापार भी करते हैं, जो ठीक-ठाक दामों में बिकती है। यहाँ की चट्टानों में भी यह मेंहदी उगती है। 

बुराँश के फुल भी कई रंगत में रास्ते भर मिलते गए, लाल से लेकर गुलावी तक। रसोल साइड लाल बुरांश बहुतायत में मिले। जबकि भुचकरि साइड अधिक ऊँचाई में गुलाबी अधिक थे। रखाल जैसा दुर्लभ एवं वेशकीमती पेड़ भी रास्ते में मिला (वोटेनिक्ल नाम केक्टस वटाटा), जिससे केंसर की औषधी तैयार की जाती है। रास्ते में गुच्छी (मौरेन मशरुम) से लेकर लिंगड़ी के दर्शन हुए और जंगली फूल भी वुग्यालों में खिलना शुरु हो चुके थे। जंगल में भेडों व मवेशियों के संग विचरण करने वाले फुआल तथा ग्वाले प्रकृति के उन उपहारों का विषम परिस्थितियों में अपने सरवाइवल के लिए बखुवी इस्तेमाल करते हैं।

एक कतार में मंजिल की ओर बढ़ता देव-काफिला

बारिश और जुत्ते

ऐसे सफर में छाते का उपयोग किसी ने अपवाद रुप में ही किया होगा। प्लास्टिक की चादरें व शीटों से काम चलाया गया। अनुभव रहा कि अधिक बारिश में रेन कोट भी अच्छी क्वालिटी का न हो तो काम नहीं आता, अतः ऐसे में अच्छी प्लास्टिक शीट या पालिथीन पेपर से बना रेन कोट ही उचित रहता है। आग जलाने व भोजन पकाने के लिए 80 से 90 फीसदी चूल्हे लकड़ी के थे, जिसमें बिरोजा लगी प्राकृतिक शौली की विशेष भूमिका रहती थी। 2-4 स्टोव तथा कुछ पेट्रोमेक्स के चुल्हे ही साथ में थे।

लकड़ी की आगे के चुल्हे में भोजन को पकाने की तैयारी

इतने लम्बे सफर को पूरा करने के लिए ट्रेकिंग शूज कुछ ही लोगों के पास थे, अधिकाँश 250 से 400 रुपए की रेंज के रबड के जुत्तों को पहन कर पूरा सफर तय किए। कुछ तो इन जुत्तों में भी गर्मी अनुभव कर रहे थे व चप्पल से भी काम चलाते रहे। आयु की बात करें, तो देव काफिले में 16-17 वर्ष के किशोर से लेकर 72 वर्ष के बुजुर्ग (पीणी के पुजारी) तक साथ में थे, जो पूरी यात्रा को सकुशल सम्पन्न किए।

इस यात्रा में कुछ एक तरफा मणिकर्ण तक पैदल यात्रा किए, फिर बस से बापिस आए। कुछ मणिकर्ण तक बस में गए और फिर वहाँ से पहाड़ लांघते हुए यहाँ तक आए पैदल आए। कुल मिलाकर कुछ अपवादों को छोड़कर हर परिवार से एक सदस्य इस देव स्नान यत्रा में शामिल रहा।

कितने पुरखों-पीढियों का साक्षी रहा होगा यह विराट वृक्ष

कुल मिलाकर 25 वर्षों के अन्तराल में गिरमल देवता के संग सम्पन्न यह यात्रा एक ऐतिहिसिक यात्रा रही। हल्की बारिश से लेकर बर्फ का अभिसिंचन जहाँ पग-पग पर देवसानिध्य एवं ईश्वरकृपा का अनुभव देते रहे। वहीं भारी बारिश से लेकर राह के विकट मंजर जैसे देव काफिले की आस्था की परीक्षा के साथ देवसंरक्षण के भाव को पुष्ट करते रहे। भय मिश्रित श्रद्धा एवं रोमाँच के बीच न जाने कितने जन्मों के कर्म-प्रारब्ध राह में झरे होंगे। हर सफल परीक्षा के बाद सुंदर दृश्य से लेकर उचित विश्राम एवं सुखद अहसास के पुरस्कार भी तीर्थयात्रियों की झोलियों में रह-रहकर झरते रहे।

इस तरह यात्रा में भागीदार हर व्यक्ति सौभाग्यशाली थे, जो इस रोमाँचक यात्रा से जुड़े दिव्य अनुभवों को बटोरते गए और आगे अपने घर-परिवार में बच्चों, महिलाओं व न जा पाए अन्य परिजनों को कथा-किवदंतियों के रुप में सुनाते रहेंगे। हम भी कभी इस यात्रा को सम्पन्न किए नानू-मामू साहब से सुनकर रोमाँचित होते थे और आज स्वयं इसका हिस्सा बनकर, अपनी भाव यात्रा के अनुभवों को लोकहित में शेयर कर रहे हैं। इंटरनेट और सोशल मीडिया जैसे आधुनिक माध्यमों ने इसे सबके लिए सुलभ कर लिया है, जो विज्ञान व टेक्नोलॉजी का एक अनुपम वरदान है, इसकी जितनी तारीफ की जाए कम है।(समाप्त)

तीर्थ यात्रा का सबसे रोमाँचक एवं यादगार पड़ाव - देवकृपा से स्मृति के दुर्लभ पल कैमरे में केप्चर हो सके हैं

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