अध्यात्म - अर्थ, आवश्यकता एवं महत्व
अध्यात्म क्या है? – अर्थ एवं परिभाषा
अध्यात्म की आवश्यकता – मनोवैज्ञानिक, व्यवहारिक
अध्यात्म का महत्व – वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक, वैश्विक
अध्यात्म क्या है? -
अध्यात्म एक बहुत व्यापक शब्द है, जिसको परिभाषित करना सरल नहीं। व्यक्ति की सोच, मनःस्थिति एवं चेतना की अवस्था के अनुरुप इसके कई मायने हो सकते हैं। शाब्दिक रुप में अध्यात्म्, अधिः एवं आत्मन् शब्दों से मिलकर बना हुआ है, जिसका अर्थ हुआ आत्मा की ओर मुड़ना एवं इसका अध्ययन। श्रीमद्भगवद्गीता में स्वभावो अध्यात्म उच्यते अर्थात अध्यात्म को स्वभाव के रुप में परिभाषित किया गया है। अब स्व की धारणा व्यक्ति की चेतना की अवस्था पर निर्भर करती है, जिसका चरम है आत्मभाव। अध्यात्म के अंग्रेजी पर्याय स्प्रिचुअलिटी में SPIRIT शब्द व्यक्तित्व की पावन व अनश्वर सत्ता का द्योतक है। इनसाइक्लोपीडिया ऑफ रिलीजन एण्ड एथिक्स के अनुसार, अध्यात्म व्यक्ति का गहनतम केन्द्र और परमसत्य का अनुभव है। (The deepest center of the person and experience of the ultimate reality)
इस तरह अध्यात्म को अपने स्व का, अपने अस्तित्व का अनुभव एवं इसका अध्ययन कह सकते हैं, जिसके दायरे में अपना समग्र व्यक्तित्व एवं जीवन आता है। हालाँकि व्यक्तित्व का अध्ययन तो मनोविज्ञान भी करता है, लेकिन इसका दायरा व्यवहार के साथ चेतन और अचेतन मन तक सीमित है। युगऋषि आचार्य पं.श्री रामशर्मा के शब्दों में अध्यात्म विशुद्ध रुप से मनःशास्त्र है, उच्चतर मनोविज्ञान (higher psychology) है। इसके चेतन, अचेतन और अतिचेतन तीन स्तर आते हैं। व्यवहार और बुद्धि सचेतन हैं। आदतें अचेतन और उत्कृष्टता, आदर्शवादिता, दिव्यता अतिचेतनता के प्रतीक हैं। आचार्यजी के अनुसार, व्यवहारिक रुप में अध्यात्म का अर्थ ईश्वर के प्रति विश्वास, श्रेष्ठता, आदर्शों की पराकाष्ठा है।
स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में, मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी विशेषता है कि वह अपने वास्तविक रुप में आत्म-तत्व है। वस्तुतः स्वामी विवेकानन्द धर्म के सार रुप में अध्यात्म की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि एक विज्ञान के रुप में स्वयं का अध्ययन, अनुसंधान मानवीय मन के लिए संभावित सबसे महान एवं स्वस्थ कसरत है। अनन्त की खोज, अनन्त को सानन्त बनाने का संघर्ष, इंद्रियों की सीमाओं के पार जाने का प्रयास, जड़ पदार्थ पर चेतन आत्मतत्व की विजय और व्यक्ति की आध्यात्मिक प्रकृति का प्राकट्य, दिन और रात अनन्त को जीवन का अंग बनाने की अंतहीन चेष्टा, यह संघर्ष स्वयं में सबसे गौरवमयी एवं अनुपम संघर्ष है।
स्वामीजी के शब्दों में अध्यात्म एक पावन सत्ता है, जो व्यक्ति को जीवन के गहनतम तत्व से संपर्क में लाता है और आत्यांतिक सत्य से जोड़ता है। यह जीवन के सर्वोच्च आदर्श की खोज है। यह मनुष्य में अंतर्निहित दिव्यता का प्रकटीकरण एवं अभिव्यक्ति है। यह पुस्तकों, कर्मकाण्डों या बौद्धिक बहस का विषय नहीं, यह तो वह स्वयं होना व बनना है, प्रत्यक्ष अनुभूति करना है, न कि विश्वास मात्र। यह स्व की आत्मतत्व के रुप में अनुभूति है। वास्तविक धर्म(अध्यात्म) की शुरुआत वहाँ से होती है, जहाँ से इस तुच्छ संसार का समाप्न होता है। इस तरह स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में, हर आत्मा मूलतः दिव्य है। लक्ष्य आंतरिक एवं वाह्य प्रकृति पर काबू पाते हुए इस दिव्यता को अभिव्यक्त करना है। वे कहते हैं कि इसे कर्म द्वारा करो या पूजा द्वारा या मानसिक निग्रह द्वारा या दर्शन द्वारा, इनमें से किसी एक विधि द्वारा या सबको मिलाकर और सारी सीमाओं के पार मुक्त हो जाओ। यही धर्म का सार है, अध्यात्म तत्व है। सिद्धान्त या रीतियाँ या कर्मकाण्ड या पुस्तकें या मंदिर या अन्य प्रतीक तो मात्र इसके बाहरी विस्तार भर हैं।
स्वामी विवेकानन्द के गुरु श्रीरामकृष्ण परमहंस कहा करते थे कि इस संसार में आए हो तो पहला कर्तव्य ईश्वरीय अनुभूति है, अध्यात्म लाभ है, बाकि सब चीजें खुद व खुद जुड़ती जाएंगी। अध्यात्म का मूल उद्देश्य व्यक्ति के जीवन में शांति लाना है। मरने के बाद नहीं, इसी जीवन में प्रसन्नता व शांति को प्राप्त करना है। महर्षि अरविंद के शब्दों में – मनुष्य अपनी उच्चतम, विशालतम और पूर्णतम सत्ता को पाने का प्रयत्न करता है और जिस क्षण वह उसके साथ जरा भी सम्पर्क प्राप्त कर लेता है उसके अन्दर की वह सत्ता विश्वगत भव्य, शुभ एवं सौन्दर्य़ की किसी महान् आत्मा और सत्ता के साथ एकाकार होते दिखाई देती है। इस आत्मा एवं सत्ता को ही हम भगवान का नाम देते हैं।
इस तरह अध्यात्म को किसी एक परिभाषा में बाँधना कठिन है। इसको उतने ही विविध रुपों में परिभाषित एवं प्रतिपादित किया जा सकता है, जितना की जीवन की विविधता है। यदि मूल्यों की दृष्टि से विचार करना हो, तो अध्यात्म चेतना के परिष्कार का विज्ञान विधान है। कोई भी विधि जिससे मानवीय व्यक्तित्व गरिमापूर्ण बने, उसके चिंतन, चरित्र एवं व्यवहार का परिमार्जन हो, उसमें पवित्रता, संयम, सहिष्णुता, उदारता, सेवा जैसे सद्गुणों का विकास हो, वह अध्यात्म है।
एक गुह्यवादी की भाषा में, अध्यात्म अपनी खोज में निकल पड़े मुसाफिर की राह एवं मंजिल है। जब लक्ष्य अपनी चेतना का स्रोत समझ आ जाए तो अपने उत्स, केंद्र की यात्रा है अध्यात्म। थोड़ा एडवेंचर के भाव से कहें तो यह अपनी चेतना के शिखर का आरोहण है। अध्यात्म स्वयं को समग्र रुप से जानने की प्रक्रिया है। विज्ञजनों की बात मानें तो यह जीवन पहेली की मास्टर-की (Master key) है। आश्चर्य़ नहीं कि सभी विचारकों-दार्शनिकों-मनीषियों ने चाहे वे पूर्व के रहे हों या पश्चिम के, जीवन के निचोड़ रुप में एक ही बात कही – आत्मानम् विद् (स्वयं को जानो), नो दाईसेल्फ (Know thyself), अर्थात पहले, स्वयं को जानो, अपने वास्तविक स्वरुप को पहचानो। और यह स्वयं को जानना, समस्त ज्ञान का आधार है।
वस्तुतः अध्यात्म स्वयं से वृहतर एवं विराट सत्ता (ईश्वर, ब्रह्म, विराट ब्रह्माण्ड-सृष्टि, शाश्वत नियम, परमसत्य) से जुड़ने की प्रक्रिया है और जीवन में सार्थकता की खोज है। यह एक तरह का सार्वभौम अनुभव है, जो हम सबको किसी न किसी स्तर पर स्पर्श करता है। इस तरह अध्यात्म जीवन में एक गहरे अर्थ की खोज है। जब हम आध्यात्मिक रुप में सबल होते हैं, तो न केवल उच्चतर सत्य या सत्ता से बेहतर जुड़ाव अनुभव करते हैं, बल्कि अपने परिवेश एवं चारों ओर से भी जुड़े होते हैं।
इस तरह अध्यात्म आत्मानुसंधान का पथ है, एक अंतर्यात्रा है। अध्यात्म उस आस्था का नाम है जो जीवन का केंद्र अपने अंदर मानती है और जीवन की हर समस्या का समाधान अपने अस्तित्व के केंद्र में खोजते का प्रयास करती है तथा अंदर-बाहर के सामंजस्य के साथ अपने परम लक्ष्य की ओर बढ़ती है।
अध्यात्म की आवश्यकता -
मनोवैज्ञानिक मैस्लोव के अनुसार, अध्यात्म व्यक्ति की उच्चतर आवश्यकता (मेटा नीड) है। जब व्यक्ति की शारीरिक, भौतिक, पारिवारिक, सामाजिक जरुरतें पूरी हो जाती हैं, तो उसकी आध्यात्मिक जरुरत शुरु होती है। अर्थात् भौतिक उपलब्धियों के बावजूद जो खालीस्थान या शून्यता रहती है, जो अधूरापन कचोटता है, जो अशांति बेचैन करती है, अध्यात्म उसको भरता है, उसका उपचार करता है, उसको पूर्णता देता है। और ऐसा हो भी क्यों नहीं, आखिर सत्य, ज्ञान और आनन्द स्वरुप आत्म-सत्ता ही तो उसका वास्तविक स्वरुप है।
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Hierrachy of Needs |
यदि बात भौतिक बुलन्दी की ही करें जो चारों ओर एक नजर डालने पर स्पष्ट हो जाता है कि अध्यात्म कालजयी सफलता का आधार है। हम अपने क्षेत्र के चुड़ाँत सफल व्यक्ति ही क्यों न बन जाएं, यदि इनके साथ भी हमारी आंतरिक शाँति, स्थिरता, संतुलन बरकरार है तो मानकर चल सकते हैं कि हम अध्यात्म तत्व में जी रहे हैं। अन्यथा इन बैसाखियों के हटते ही, सेवानिवृत होते ही जीवन नीरस, बोझिल एवं सूनेपन से आक्रांत हो जाता है। स्पष्टतयः अध्यात्म के अभाव में जीवन की सफलता, सारी बुलंदियाँ अधूरी ही रह जाती हैं।
यहीं से अध्यात्म का महत्व स्पष्ट हो जाता है और इसका एक नया अर्थ पैदा होता है। अध्यात्म एक आंतरिक तत्व है, आत्मिक संपदा है, जो हमें सुख, शांति, शक्ति, आनन्द का आधार अपने अंदर से ही उपलब्ध कराता है। बाहरी अबलम्बन के हटने, छूटने, टूटने के बावजूद हमारी आंतरिक स्थिरता एवं संतुलन का स्रोत बना रहता है और तमाम अभाव-विषमताओं के बीच भी व्यक्ति अपनी मस्ती एवं आनन्द के साथ जीने में सक्षम होता है। अर्थात् अध्यात्म अंतहीन सृजन का आधार है, आगार है, जिसमें जीवन की हर परिस्थिति, हर मनःस्थिति सृजन की संभावनाओं से युक्त रहती है।
अध्यात्म हमारा वास्तविक स्वभाव, अकारण आनन्द की अवस्था है। मन की शांत, स्थिर, एकाग्र एवं प्रसन्न अवस्था का नाम है। जिन क्षणों में हम इस अवस्था में होते हैं, जाने-अनजाने में हम अध्यात्म तत्व में जी रहे होते। इस अवस्था को सचेतन रुप से प्राप्त करने तथा इसको बनाए रखने का विज्ञान विधान अध्यात्म है। भारतीय परम्परा में योग साधना के विविध तौर-तरीके इसी के लिए ऋषिओं द्वारा खोजे गए, जैसे - कर्म योग, भक्ति योग, ज्ञानयोग, राजयोग, मंत्रयोग, तंत्रयोग, हठयोग, नाद योग आदि।
अध्यात्म की आवश्कता कब अनुभव –
जब सबकुछ अनुकूल होता है, तो प्रायः अध्यात्म की आवश्यकता अनुभव नहीं होती, उन पलों में व्यक्ति अध्यात्म तत्व को भूला बैठा होता है। कहावत प्रसिद्ध है कि दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोए, जो सुख में सुमिरन करे, तो दुख काहे को होए। (बाबा कबीर)
जीवन के गहरे दुःख, झटके, संघातिक प्रहार, असह्य वियोग-विछोह, गहन विषाद आदि के बाद व्यक्ति में अध्यात्म के प्रति भाव जागता है। जैसे – कुरुक्षेत्र की रणभूमि में अर्जुन। वहाँ भगवान श्रीकृष्ण के सान्निध्य में विषाद के गर्भ से योग का जन्म होता है। प्रायः किसी प्रियजन के विछोह होने पर शमशान से होकर आने पर शमशान वैराग्य हावी रहता है, संसार की निस्सारतः अनुभव होती है और व्यक्ति अध्यात्म की ओर उन्मुख होता है। हालाँकि यह बात दूसरी है कि यह भाव कितनी देर व्यक्ति के अंदर बना रहता है।
सुख-भोग से मोहभंग की स्थिति में भी विरक्ति की स्थिति आती है और व्यक्ति सच्चे आनन्द एवं शांति की तलाश में अध्यात्म पथ का पथिक बन जाता है। जैसे – भगवान बुद्ध, महावीर, राजा भर्तृहरि आदि। सहज जिज्ञासा, प्रायः पूर्वजन्म के कारण, जीवन के परमसत्य की खोज का भाव जगे रहता है। जैसे आदि शंकराचार्य, स्वामी विवेकानन्द, आचार्य श्रीराम शर्मा आदि, जहाँ बचपन से ही ईश्वर और जीवन के परमसत्य की खोज चलती रही। गीता में आर्त, अर्थार्थी, जिज्ञासु और ज्ञानी के रुप में अध्यात्म की ओर उन्मुख व्यक्तियों की बात कही गई है।
अध्यात्म का महत्व -
अध्यात्म के अर्थ एवं आवश्यकता की चर्चा के साथ यह स्पष्ट हो जाता है कि अस्तित्व का केंद्रीय तत्व होने के कारण जीवन के हर क्षेत्र में इसका महत्व है। संक्षेप में बिंदुवार इनका वर्णन आगे किया जा रहा है -
· जीवन की समग्र समझ - जितना हम स्वयं को जानने लगते हैं, उतना ही हमारी मानव प्रकृति की समझ बढ़ती है। व्यक्तित्व की समग्र समझ के साथ जीवन की जटिलताओं का निपटारा उतनी ही गहनता एवं प्रभावी ढंग से संभव बनता है।
· देह-मन से परे आत्म तत्व, दिव्य तत्व के रुप में व्यक्तित्व की अनश्वर सत्ता की समझ आती है। जीवन के चेतन, अचेतन के पार इसके अतिचेतन स्वरुप का बोध होता है।।
· एकतरफा भौतिक विकास का संतुलक – अध्यात्म एकतरफे भौतिक विकास को संतुलन देता है। आज की भौतिक प्रगति की अँधी दौड़ से उपजी विषमता व असंतुलन का परिणाम आत्मघाती-सर्वनाशी संकट है, जिसका जड़ मूल से समाधान अध्यात्म में निहित है।
· सांसारिक उपलब्धियों के साथ आंतरिक शांति-संतुलन का आधार तैयार होता है। गृहस्थ और समाज-संसार में रहते हुए भी अध्यात्म को कैसे धारण किया जा सकता है, मार्ग प्रशस्त होता है, जिसको युगऋषि आचार्य़ श्रीरामशर्मा ने व्यवहारिक अध्यात्म का नाम दिया।
· अपने भाग्य विधाता होने का भाव – अध्यात्म जीवन की समग्र समझ देता है। व्यक्तित्व की सूक्ष्म जटिलताओं से रुबरु कराता है, जीवन की समस्याओं व चुनौतियों का समाधान अपने अंदर खोजता है तथा इन पर नियंत्रण का कौशल सिखाता है और क्रमशः खुद पर न्यूनतम नियंत्रण एवं शासन का मार्ग प्रशस्त करता है कि हम अपने भाग्य के विधाता आप हैं।
· द्वन्दों से पार जाने की शक्ति व सूझ – अध्यात्म जीवन की अनिश्चितता के बीच एक निश्चिंतता का भाव देता है। जीवन में सुख-दुख, मान-अपमान, लाभ-हानि जैसे द्वन्दों के बीच सम रहने और विषमताओं को पार करने की सूझ एवं शक्ति देता है। जीवन के तनाव, अवसाद और विषाद से उबरने की क्षमता देता है। अध्यात्म घोर निराशा के बीच भी आशा का संचार करता है।
· खुद से रुबरु कर, विराट से जोड़े – खुद को जानने की प्रक्रिया से शुरु अध्यात्म व्यक्ति को अंतर्रात्मा से जोड़ता है और एक जाग्रत विवेक तथा संवेदी ह्दय के साथ व्यक्ति परिवार, समाज एवं विश्व से जुड़ता है और विराट का एक संवेदी घटक बनकर जीता है।
· व्यक्ति स्वयं को जितना जानता है, जितने गहरे उतरता है, उतना ही विराट से जुड़ता जाता है।
· विश्वसनीयता एवं प्रामाणिकता का आधार – अध्यात्म विवेक को जाग्रत करता है, जो सहज स्फूर्त नैतिकता एवं आत्म-अनुशासन को संभव बनाता है और व्यक्ति जीवन मूल्यों के स्रोत से जुड़ता है।
· अध्यात्म क्रमिक रुप से व्यक्तित्व के बिखराव को रोकता है, पर्सनल इंटिग्रेशन को अंजाम देता है। व्यक्ति में सद्गुणों का विकास होता है, चरित्र का गठन होता है तथा व्यक्तित्व में एक विश्वसनीयता एवं प्रमाणिकता जन्म लेती है।
· व्यक्तित्व की चरम संभावनाओं को साकार करे – मानसिक स्थिरता, एकाग्रता के साथ प्रतिभा (creativity) का प्रस्फुटन होता है।
· अंतर्निहित दिव्य क्षमताओं एवं शक्तियों के जागरण-विकास के साथ व्यक्तित्व की चरम सम्भावनाएं क्रमिक रुप में साकार होती हैं। आज हम जिन महापुरुषों, महामानवों एवं देव मानवों को आदर्श के रुप में देखते हैं, वे किसी न किसी रुप में इसी विकास का परिणाम थे।
अन्य महत्व –
• जीवन में एक अर्थ, सार्थकता एवं परिपूर्णता का बोध दे।
• समग्र जीवन दृष्टि के साथ मानव प्रकृति की गहरी समझ दे, जो व्यक्ति को व्यवहार कुशलता का अवदान दे।
• गहन अंतर्दृष्टि एवं अपनी जिम्मेदारी का भाव विकसित होता है। अपने स्वधर्म का बोध होता है, और कर्तव्य परायण जीवन सुनिश्चित होता है।
• जीवन के प्रति एक सकारात्मक एवं आशावादी रुख पनपता है।
• पारिवारिक में संस्कार का वीजोरोपण होता है और युगऋषि के शब्दों में परिवार नर-रत्नों की खदान बनते हैं।
• समाज में पावन भावों एवं सकारात्मक विचारों का संचार होता है। वर्तमान वैचारिक प्रदूषण भरे इस युग में इसका महत्व समझा जा सकता है।
• विश्व शांति एवं सौहार्द्रय का ठोस आधार होता है। धर्मों, संस्कृतियों एवं राष्ट्रों के आपसी टकराहट भरे युग में आंतर्सांस्कृतिक संचार का एक संवाद सेतु तैयार होता है।
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यदि आप पूरे लेख से गुजर गए हैं, तो थोड़ा आत्म-निरीक्षण करते हुए विचार करें -
• आपके लिए अध्यात्म क्या अर्थ रखता है?
• आप अध्यात्म को कितना महत्वपूर्ण मानते हैं?
• अध्यात्म की आवश्यकता आप कब अनुभव करते हैं?
• नित्य अपने आत्मिक विकास के लिए कितना समय देते हैं?
• आध्यात्मिक विकास के लिए आपका न्यूनतम कार्यक्रम क्या है?
• जीवन में अध्यात्म न हो तो, क्या होगा?