रविवार, 7 अप्रैल 2024

दैनिक जीवन में अध्यात्म, भाग-2

 

धर्म, अध्यात्म एवं अध्यात्म के सोपान

धर्म बनाम् अध्यात्म

धर्म शब्द आज बदनाम हो चला है। धर्म के नाम पर यदा-कदा उठने वाले क्लह-कलेश, वाद-विवाद, दंगे-फसाद, हिंसा एवं आतंकी घटनाओं ने इस पावन शब्द के प्रति प्रबुद्ध ह्दय में एक अज्ञात सा भय, संशय एवं वितृष्णा का भाव पैदा कर दिया है, जबकि धर्म का मूल भाव बहुत पावन एवं उदात्त है।

व्यापक अर्थों में धर्म का अर्थ धारण करने योग्य उन गुणों से है, जो व्यक्ति को उसके स्वभाव के अनुरुप उसके सर्वाँगीण विकास का मार्ग प्रशस्त करते हैं और उसे पूर्णता की ओर ले जाते हैं। भारत के पहले परमाणु विज्ञानी एवं वैशेषिक दर्शन के जनक महर्षि कणाद के शब्दों मेंयतो अभ्युदय निःश्रेयस सिद्धिः सः धर्म, अर्थात् जिससे लौकिक उत्कर्ष तथा मोक्ष की प्राप्ति होती है, उसे धर्म कहते हैं। भारतीय संस्कृति में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के रुप में इसकी यही अवधारणा प्रस्तुत है। जीवन को पूर्णता तक पहुँचाने वाले चार पुरुषार्थों में इसे प्रमुख स्थान प्राप्त है। युगऋषि पं.श्रीराम शर्मा के शब्दों में, बिना धर्म के नीतिमत्ता व संवेदना को विकसित किए बिना वह अर्थोपार्जन व उसका सुनियोजन नहीं कर सकता, न ही परिष्कृत काम सुख की सिद्धि ही कर सकता है।

आचार्य मनु ने धर्म के दस लक्षण गिनाए हैं धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय निग्रह, धी, विद्या, सत्यम और अक्रोध। सामयिक संदर्भ में पं.श्री रामशर्मा आचार्य धर्म के दस लक्षण इस तरह से बताते हैं सत्य, विवेक, संयम, कर्तव्य परायणता, अनुशासन, आदर्शनिष्ठा-व्रतशीलता, स्नेह-सौजन्य, पराक्रम-पुरुषार्थ, सहकारिता और परमार्थ-उदारता।

एन्साइक्लोपीडिया ऑफ रिलीजन के अनुसार रिलीजन का अर्थ चरम अनुभूति से है। धर्म की इस चरम उपलब्धि तक पहुँचने के विविध मार्ग के अनुरुप हिंदु, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, जैन, बौद्ध, पारसी जैसे धर्मों के विविध रुप  सामने आते हैं। धर्म की प्रमुख विशेषताएँ व संरचना के अनिवार्य अंग अवयव हैं परम्परा (Traditionalism)मिथक एवं प्रतीक (Myth & Symbol)मुक्ति की अवधारणा (concept of salvation)पवित्र तीर्थ स्थल एव वस्तुएं (Sacred places and objects), कर्मकाण्ड(Sacred actions (Rituals))धर्मग्रंथ (Sacred writings)धर्म समुदाय (Sacred community)और धार्मिक अनुभूतियाँ (Sacred experience).

आचार्य श्रीराम शर्मा के शब्दों में धर्म को संक्षेप में तीन अंगों में समेटा जा सकता है नीति शास्त्र, आस्तिकता प्रधान दर्शन और अध्यात्म। इनमें दर्शन पक्ष उस धर्म के अनुसार इस जगत, परमसत्ता, मनुष्य जीवन के स्वरुप, लक्ष्य आदि पर विचार करता है। नीति शास्त्र उस लक्ष्य की ओर बढ़ने के नीति-नियम, विधि-निषेध आदि का मार्गदर्शन करता है। और कर्मकाण्ड पक्ष पूजा-पाठ एवं साधना पद्वति आदि का निर्धारण करता है।

देश, काल, परिस्थिति के अनुरुप हर धर्म के आचार शास्त्र, कर्मकाण्ड एवं विश्वास के रुप में वाह्य भिन्नता हो सकती है। लेकिन अंततः सभी धर्म एक ही सत्य की ओर ले जाते हैं। अपने वाहरी स्वरुप के प्रति दुराग्रह ही धर्म के नाम पर तमाम तरह के विवादों का कारण बनते हैं। इसी कारण डॉ. एस. राधाकृष्णन के शब्दों में, सैदाँतिक तौर पर सार्वभौम दृष्टि का प्रतिपादन करते हुए भी व्यवहारिक रुप से धर्मों में सार्वभौम दृष्टि का अभाव रहता है। यद्यपि वे कहते हैं कि सब मनुष्य चाहे वे किसी भी जाति, संप्रदाय, मत, रंग के हों, भगवान की नजर में एक समान हैं। लेकिन कई धर्म संस्थाएं अपने मत-विश्वास को लेकर कट्टर, असहिष्णु व उग्र हो जाती हैं। ऐसे में धर्म राष्ट्र-राज्य की तरह व्यवहार करने लगता है।

वास्तव में धर्म का अनुभूतिपरक उच्चतर स्वरुप अध्यात्म के क्षेत्र में आता है। धर्म और अध्यात्म के इस अनन्य सम्बन्ध को स्पष्ट करते हुए पं.श्री रामशर्मा आचार्य धर्म के तीन अंग बताते हैं धार्मिकता, आस्तिकता और आध्यात्मिकता। धार्मिकता अर्थात् नीति नियम और कर्मकाण्ड, जिसका निष्ठा पूर्वक अभ्यास करते हुए व्यक्ति आस्तिकता अर्थात् अपनी दैवीय प्रकृति एवं असीम संभावनाओं के बोध को पाता है। इसी के साथ वह आध्यात्मिकता के क्षेत्र में प्रवेश करता है और अपनी निम्न प्रकृति के क्रमिक रुपांतरण को साधता है। व्यवहारिक रुप में धार्मिकता का अर्थ कर्तव्यपरायण्ता हैआस्तिकता का अर्थ ईश्वरी सत्ता पर विश्वास है, जो कि नैतिकता का मेरुदंड है और आध्यात्मिकता का अर्थ आत्म-विश्वास, आत्म-निष्ठा और आत्म-विस्तार से है।

इस तरह धर्म का जो परिष्कृत रुप या चरम स्वरुप है वह अध्यात्म है। प्रायः अध्यात्म का उभार धर्म के गर्भ से ही होता रहा है। लेकिन धर्म के स्वतंत्र भी अध्यात्म का विकास हो सकता है। बिना किसी संस्थागत धर्म के किसी मत, विश्वास एवं मार्ग का अनुकरण किए भी व्यक्ति अपनी अंतःप्रेरणा, विवेक एवं प्रयोगधर्मिता के आधार पर अपने आत्मिक विकास को सुनिश्चित कर सकता है। अतः अध्यात्म का विकास धर्म के अंदर या बाहर कहीं भी हो सकता है।

अध्यात्म पथ के अनिवार्य सोपान

जीवन जिज्ञासा, आंतरिक खोज, आत्मानुसंधान – अपनी खोज में निकला पथिक जाने अनजाने में अध्यात्म पथ का राही होता है। यह जिज्ञासा जीवन के किसी न किसी मोड़ पर जोर अवश्य पकड़ती है। कुछ जन्मजात यह अभीप्सा लिए होते हैं। किंतु अधिकाँश जीवन के टेड़े-मेड़े रास्ते में राह की ठोकरें खाने के बाद, बाह्य जीवन के मायावी रुप से मोहभंग होते ही या जीवन के विषम प्रहार के साथ सचेत हो जाते हैं और जीवन के वास्तविक सत्य की खोज में जीवन के स्रोत्र की ओर मुड़ जाते हैं। जीवन के नश्वर स्वरुप का बोध एवं जीवन में सच्चे सुख व शांति की खोज व्यक्ति को देर सबेर अध्यात्म मार्ग पर आरुढ़ कर देती है। जीवन की वर्तमान स्थिति से गहन असंतुष्टी का भाव और मुमुक्षुत्व, अध्यात्म जीवन का प्रारम्भिक सोपान है। इसी के साथ साधक किसी आध्यात्मिक महापुरुष के संसर्ग में आता है, स्वाध्याय-सतसंग के साथ अगले सोपान की ओऱ बढ़ता है।

स्वाध्याय-सतसंग – आध्यात्मिक आदर्श एवं महापुरुषों का संग-साथ अध्यात्म का महत्वपूर्ण सोपान है। इसके साथ आत्मचिंतन की प्रक्रिया आगे बढ़ती है, जीवन का गहनतम स्तर पर निरीक्षण-परीक्षण का दौर प्रारम्भ होता है। साथ ही आंतरिक संघर्ष के पलों में इनसे आवश्यक प्रेरणा एवं मार्गदर्शन पाता है। खाली समय में उच्च आदर्श एवं सद्विचारों में निमग्न रहता है और आध्यात्मिक ग्रंथों एवं सत्साहित्य का अध्ययन जीवन का अभिन्न अंग होता है। इस प्रकार सद्विचारों का महायज्ञ साधक के चितकुण्ड में सदा ही चलता रहता है, जो क्रमशः आध्यात्मिक जीवन दृष्टि के रुप में विकसित होता है। 

आध्यात्मिक जीवन दृष्टि – इसी के साथ अपनी खोज की प्रक्रिया प्रगाढ़ रुप लेती है और जीवन के प्रति एक नई अंतर्दृष्टि का विकास होता है। इस सानन्त वजूद में अनन्त की खोज आगे बढ़ती है। शरीर व मन से बने स्वार्थ-अहं केंद्रित सीमित जीवन के परे एक विराट अस्तित्व का महत्व समझ आता है। अब समाधान की तलाश अपने अंदर होती है। किसी से अधिक आशा अपेक्षा नहीं रहती। पथिक का एकला यात्रा पर विश्वास प्रगाढ़ रहता है। वह यथासंभव दूसरों की मदद करता है और समस्याओं से भरे संसार में समाधान का एक हिस्सा बनकर जीने का प्रयास करता है और अपनी जीवन शैली पर विशेष रुप से कार्य करता है। 

आध्यात्मिक जीवन शैली – आध्यात्मिक जीवन दृष्टि का स्वाभाविक परिणाम होता है आध्यात्मिक जीवन शैली, जो संयमित एवं अनुशासित दिनचर्या का पर्याय है। शील-सदाचारपूर्ण व्यवहार इसके अनिवार्य आधार हैं। अपनी मेहनत की ईमानदार कमाई इसका स्वाभाविक अंग है। इसके तहत वह शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक सभी पहलुओं के सम्यक विकास के प्रति जागरुक रहता है और एक कर्तव्यपरायण जीवन जीता है। 

कर्तव्य परायण जीवन – आध्यात्मिक जीवन कर्तव्यपरायण होता है। अपने कर्तव्य के प्रति सजग एवं कर्मठ। श्रमशील जीवन अध्यात्मिक जीवन की निशानी है। घर परिवार हों या संसार व्यापार, अपने कर्तव्यों का होशोहवास में बिना किसी अधिक राग-द्वेष, आशा-अपेक्षा या आसक्ति के निर्वाह करता है। जीवन के निर्धारित रणक्षेत्र में एक यौद्धा की भांति अपनी भूमिका निभाता है और धर्म मार्ग पर आरुढ़ रहता है। अपने कर्तव्यकर्मों से पलायन, आलसी-विलासी जीवन से अध्यात्म का दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं होता। 

आदर्शनिष्ठ, आत्म-परायण जीवन – अपने परमलक्ष्य की ओर बढ़ रहे आध्यात्मिक जिज्ञासु का जीवन आदर्श के प्रति समर्पित होता है। आदर्श एक व्यक्ति भी हो सकता है, कोई विचार या भाव भी। आदर्श के उच्चतम मानदण्डों की कसौटी पर खुद के चिंतन-व्यवहार को सतत कसते हुए, पथिक अपनी महायात्रा पर अग्रसर रहता है। अपने मन एवं विचारों को उच्चतम भावों में निमग्न रखते हुए आत्म-चिंतन एवं ध्यान परायण जीवन को जीता है। 

आत्म चिंतन ध्यान परायण जीवन – निसंदेह अपने आत्म स्वरुप का चिंतन, जीवन लक्ष्य पर विचार, आदर्श का सुमरण-वरण इसके अनिवार्य सोपान हैं। इसके लिए अभीप्सु ध्यान के लिए कुछ समय अवश्य निकालता है। अपने अचेतन मन को सचेतन करने की प्रक्रिया को अपने ढंग से अंजाम देता है। आत्म-तत्व का चिंतन उसे परम-तत्व की ओर प्रवृत करता है और ईश्वरीय आस्था जीवन का सबल आधार बनती है। 

आत्म-श्रद्धा, ईश्वर-विश्वास –अपनी आत्म-सत्ता पर श्रद्धा जहाँ एक छोर होता है, वहीं ईश्वरीय-आस्था इसका दूसरा छोर। अध्यात्मवादी अपनी आध्यात्मिक नियति पर दृढ़ विश्वास रखता है और अपने पुरुषार्थ के बल पर, अपने सत्कर्मों के आधार पर अपने मनवाँछित भाग्य निर्माण का प्रयास करता है। साथ ही वह ईश्वरीय न्याय व्यवस्था को मानता है। दूसरे जो भी व्यवहार करें, अपने स्तर को गिरने नहीं देता। व्यक्तित्व की न्यूनतम गरिमा एवं गुरुता सदैव बनाए रखता है। अपनी पूरी जिम्मेदारी आप लेता है, अंदर ईमान तथा उपर भगवान को साथ जीवन के रणक्षेत्र में प्रवृत रहता है।  

प्रार्थना – प्रार्थना आध्यात्मिक जीवन का महत्वपूर्ण अंग है। अध्यात्मपरायण व्यक्ति अपनी औकात, अपनी मानवीय सीमाओं को जानता है, इससे ऊपर उठने के लिए, इनको पार करने के लिए ईश्वरीय अबलम्बन में संकोच नहीं करता। वह प्रार्थना की अमोघ शक्ति को जानता है और अपनी ईमानदार कोशिश के बाद भी जो कसर रह जाती है उसे प्रार्थना के बल पर पूरी करते का प्रयास करता है।  

निष्काम सेवा – सेवा अध्यात्म पथ का एक महत्वपूर्ण सोपान है। सेवा को आत्मकल्याण का एक सशक्त माध्यम मानता है। जिस आत्म-तत्व की खोज अपने अंदर करता है, वही तत्व बाहर पूरी सृष्टि में निहारने का प्रयास करते हुए यथासंभव सबके साथ सद्भावपूर्ण बर्ताव करता है। अपनी क्षमता एवं योग्यतानुरुप जरुरतमंद, दुखी-पीड़ित इंसान एवं प्राणियों की सेवा सत्कार के लिए सचेष्ट रहता है और निष्काम सेवा को अध्यात्म पथ का महत्वपूर्ण सोपान मानता है। 

सृजनधर्मी सकारात्मक जीवन- अध्यात्म से उपजा आस्तिकता का भाव व्यक्ति में अपने अस्तित्व के प्रति आशा का भाव जगाता है, अध्यात्म से उपजी कर्तव्यपरायणता उसे सृजनपथ पर आरुढ़ करती है और अपने स्रोत की ओर बढ़ता उसका हर ढग उसे सकारात्मक उत्साह से भरता है। अतः अध्यात्म नेगेटिविटी को जीवन में प्रश्रय नहीं देता। वह जिस भी क्षेत्र में काम करता है, एक सकारात्मक परिवर्तन के संवाहक के रुप में अपनी अकिंचन सी ही सही किंतु निर्णायक भूमिका निभाता है। हमेशा सकारात्मकता एवं सृजन के प्रति समर्पित जीवन आध्यात्मिकता का परिचय, पहचान है।

शनिवार, 6 अप्रैल 2024

दैनिक जीवन में अध्यात्म, भाग-1

                                                       अध्यात्म - अर्थ, आवश्यकता एवं महत्व 

                                                 अध्यात्म क्या है? – अर्थ एवं परिभाषा

अध्यात्म की आवश्यकता – मनोवैज्ञानिक, व्यवहारिक

अध्यात्म का महत्व – वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक, वैश्विक

अध्यात्म क्या है? -

अध्यात्म एक बहुत व्यापक शब्द है, जिसको परिभाषित करना सरल नहीं। व्यक्ति की सोचमनःस्थिति एवं चेतना की अवस्था के अनुरुप इसके कई मायने हो सकते हैं। शाब्दिक रुप में अध्यात्म्, अधिः एवं आत्मन् शब्दों से मिलकर बना हुआ हैजिसका अर्थ हुआ आत्मा की ओर मुड़ना एवं इसका अध्ययन। श्रीमद्भगवद्गीता में स्वभावो अध्यात्म उच्यते अर्थात अध्यात्म को स्वभाव के रुप में परिभाषित किया गया है। अब स्व की धारणा व्यक्ति की चेतना की अवस्था पर निर्भर करती हैजिसका चरम है आत्मभाव। अध्यात्म के अंग्रेजी पर्याय स्प्रिचुअलिटी में SPIRIT शब्द व्यक्तित्व की पावन व अनश्वर सत्ता का द्योतक है। इनसाइक्लोपीडिया ऑफ रिलीजन एण्ड एथिक्स के अनुसारअध्यात्म व्यक्ति का गहनतम केन्द्र और परमसत्य का अनुभव है। (The deepest center of the person and experience of the ultimate reality)

इस तरह अध्यात्म को अपने स्व काअपने अस्तित्व का अनुभव एवं इसका अध्ययन कह सकते हैंजिसके दायरे में अपना समग्र व्यक्तित्व एवं जीवन आता है। हालाँकि व्यक्तित्व का अध्ययन तो मनोविज्ञान भी करता हैलेकिन इसका दायरा व्यवहार के साथ चेतन और अचेतन मन तक सीमित है। युगऋषि आचार्य पं.श्री रामशर्मा के शब्दों में अध्यात्म विशुद्ध रुप से मनःशास्त्र हैउच्चतर मनोविज्ञान (higher psychology) है। इसके चेतनअचेतन और अतिचेतन तीन स्तर आते हैं। व्यवहार और बुद्धि सचेतन हैं। आदतें अचेतन और उत्कृष्टताआदर्शवादितादिव्यता अतिचेतनता के प्रतीक हैं।  आचार्यजी के अनुसार, व्यवहारिक रुप में अध्यात्म का अर्थ ईश्वर के प्रति विश्वासश्रेष्ठताआदर्शों की पराकाष्ठा है।

 स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में, मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी विशेषता है कि वह अपने वास्तविक रुप में आत्म-तत्व है। वस्तुतः स्वामी विवेकानन्द धर्म के सार रुप में अध्यात्म की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि एक विज्ञान के रुप में स्वयं का अध्ययन, अनुसंधान मानवीय मन के लिए संभावित सबसे महान एवं स्वस्थ कसरत है। अनन्त की खोजअनन्त को सानन्त बनाने का संघर्षइंद्रियों की सीमाओं के पार जाने का प्रयास, जड़ पदार्थ पर चेतन आत्मतत्व की विजय और व्यक्ति की आध्यात्मिक प्रकृति का प्राकट्यदिन और रात अनन्त को जीवन का अंग बनाने की अंतहीन चेष्टायह संघर्ष स्वयं में सबसे गौरवमयी एवं अनुपम संघर्ष है।

स्वामीजी के शब्दों में अध्यात्म एक पावन सत्ता हैजो व्यक्ति को जीवन के गहनतम तत्व से संपर्क में लाता है और आत्यांतिक सत्य से जोड़ता है। यह जीवन के सर्वोच्च आदर्श की खोज है। यह मनुष्य में अंतर्निहित दिव्यता का प्रकटीकरण एवं अभिव्यक्ति है। यह पुस्तकोंकर्मकाण्डों या बौद्धिक बहस का विषय नहींयह तो वह स्वयं होना व बनना है, प्रत्यक्ष अनुभूति करना हैन कि विश्वास मात्र। यह स्व की आत्मतत्व के रुप में अनुभूति है। वास्तविक धर्म(अध्यात्म) की शुरुआत वहाँ से होती हैजहाँ से इस तुच्छ संसार का समाप्न होता है। इस तरह स्वामी विवेकानन्द के शब्दों मेंहर आत्मा मूलतः दिव्य है। लक्ष्य आंतरिक एवं वाह्य प्रकृति पर काबू पाते हुए इस दिव्यता को अभिव्यक्त करना है। वे कहते हैं कि इसे कर्म द्वारा करो या पूजा द्वारा या मानसिक निग्रह द्वारा या दर्शन द्वाराइनमें से किसी एक विधि द्वारा या सबको मिलाकर और सारी सीमाओं के पार मुक्त हो जाओ। यही धर्म का सार है, अध्यात्म तत्व है। सिद्धान्त या रीतियाँ या कर्मकाण्ड या पुस्तकें या मंदिर या अन्य प्रतीक तो मात्र इसके बाहरी विस्तार भर हैं।

स्वामी विवेकानन्द के गुरु श्रीरामकृष्ण परमहंस कहा करते थे कि इस संसार में आए हो तो पहला कर्तव्य ईश्वरीय अनुभूति है, अध्यात्म लाभ है, बाकि सब चीजें खुद व खुद जुड़ती जाएंगी। अध्यात्म का मूल उद्देश्य व्यक्ति के जीवन में शांति लाना है। मरने के बाद नहींइसी जीवन में प्रसन्नता व शांति को प्राप्त करना है। महर्षि अरविंद के शब्दों में  मनुष्य अपनी उच्चतमविशालतम और पूर्णतम सत्ता को पाने का प्रयत्न करता है और जिस क्षण वह उसके साथ जरा भी सम्पर्क प्राप्त कर लेता है उसके अन्दर की वह सत्ता विश्वगत भव्यशुभ एवं सौन्दर्य़ की किसी महान् आत्मा और सत्ता के साथ एकाकार होते दिखाई देती है। इस आत्मा एवं सत्ता को ही हम भगवान का नाम देते हैं।

इस तरह अध्यात्म को किसी एक परिभाषा में बाँधना कठिन है। इसको उतने ही विविध रुपों में परिभाषित एवं प्रतिपादित किया जा सकता हैजितना की जीवन की विविधता है। यदि मूल्यों की दृष्टि से विचार करना होतो अध्यात्म चेतना के परिष्कार का विज्ञान विधान है। कोई भी विधि जिससे मानवीय व्यक्तित्व गरिमापूर्ण बनेउसके चिंतनचरित्र एवं व्यवहार का परिमार्जन होउसमें पवित्रतासंयमसहिष्णुता, उदारतासेवा जैसे सद्गुणों का विकास होवह अध्यात्म है।

एक गुह्यवादी की भाषा में, अध्यात्म अपनी खोज में निकल पड़े मुसाफिर की राह एवं मंजिल है। जब लक्ष्य अपनी चेतना का स्रोत समझ आ जाए तो अपने उत्स, केंद्र की यात्रा है अध्यात्म। थोड़ा एडवेंचर के भाव से कहें तो यह अपनी चेतना के शिखर का आरोहण है। अध्यात्म स्वयं को समग्र रुप से जानने की प्रक्रिया है। विज्ञजनों की बात मानें तो यह जीवन पहेली की मास्टर-की (Master key) है। आश्चर्य़ नहीं कि सभी विचारकों-दार्शनिकों-मनीषियों ने चाहे वे पूर्व के रहे हों या पश्चिम केजीवन के निचोड़ रुप में एक ही बात कही – आत्मानम् विद् (स्वयं को जानो)नो दाईसेल्फ (Know thyself), अर्थात पहलेस्वयं को जानोअपने वास्तविक स्वरुप को पहचानो। और यह स्वयं को जाननासमस्त ज्ञान का आधार है।

वस्तुतः अध्यात्म स्वयं से वृहतर एवं विराट सत्ता (ईश्वरब्रह्मविराट ब्रह्माण्ड-सृष्टिशाश्वत नियमपरमसत्य) से जुड़ने की प्रक्रिया है और जीवन में सार्थकता की खोज है। यह एक तरह का सार्वभौम अनुभव हैजो हम सबको किसी न किसी स्तर पर स्पर्श करता है। इस तरह अध्यात्म जीवन में एक गहरे अर्थ की खोज है। जब हम आध्यात्मिक रुप में सबल होते हैंतो न केवल उच्चतर सत्य या सत्ता से बेहतर जुड़ाव अनुभव करते हैंबल्कि अपने परिवेश एवं चारों ओर से भी जुड़े होते हैं।

 इस तरह अध्यात्म आत्मानुसंधान का पथ हैएक अंतर्यात्रा है। अध्यात्म उस आस्था का नाम है जो जीवन का केंद्र अपने अंदर मानती है और जीवन की हर समस्या का समाधान अपने अस्तित्व के केंद्र में खोजते का प्रयास करती है तथा अंदर-बाहर के सामंजस्य के साथ अपने परम लक्ष्य की ओर बढ़ती है।

अध्यात्म की आवश्यकता -

मनोवैज्ञानिक मैस्लोव के अनुसारअध्यात्म व्यक्ति की उच्चतर आवश्यकता (मेटा नीड) है। जब व्यक्ति की शारीरिकभौतिकपारिवारिक, सामाजिक जरुरतें पूरी हो जाती हैंतो उसकी आध्यात्मिक जरुरत शुरु होती है। अर्थात् भौतिक उपलब्धियों के बावजूद जो खालीस्थान या शून्यता रहती हैजो अधूरापन कचोटता हैजो अशांति बेचैन करती हैअध्यात्म उसको भरता हैउसका उपचार करता हैउसको पूर्णता देता है। और ऐसा हो भी क्यों नहींआखिर सत्यज्ञान और आनन्द स्वरुप आत्म-सत्ता ही तो उसका वास्तविक स्वरुप है।

Hierrachy of Needs

 यदि बात भौतिक बुलन्दी की ही करें जो चारों ओर एक नजर डालने पर स्पष्ट हो जाता है कि अध्यात्म कालजयी सफलता का आधार है। हम अपने क्षेत्र के चुड़ाँत सफल व्यक्ति ही क्यों न बन जाएंयदि इनके साथ भी हमारी आंतरिक शाँतिस्थिरतासंतुलन बरकरार है तो मानकर चल सकते हैं कि हम अध्यात्म तत्व में जी रहे हैं। अन्यथा इन बैसाखियों के हटते हीसेवानिवृत होते ही जीवन नीरसबोझिल एवं सूनेपन से आक्रांत हो जाता है। स्पष्टतयः अध्यात्म के अभाव में जीवन की सफलतासारी बुलंदियाँ अधूरी ही रह जाती हैं।

 यहीं से अध्यात्म का महत्व स्पष्ट हो जाता है और इसका एक नया अर्थ पैदा होता है। अध्यात्म एक आंतरिक तत्व हैआत्मिक संपदा हैजो हमें सुखशांतिशक्तिआनन्द का आधार अपने अंदर से ही उपलब्ध कराता है। बाहरी अबलम्बन के हटनेछूटनेटूटने के बावजूद हमारी आंतरिक स्थिरता एवं संतुलन का स्रोत बना रहता है और तमाम अभाव-विषमताओं के बीच भी व्यक्ति अपनी मस्ती एवं आनन्द के साथ जीने में सक्षम होता है। अर्थात् अध्यात्म अंतहीन सृजन का आधार हैआगार हैजिसमें जीवन की हर परिस्थितिहर मनःस्थिति सृजन की संभावनाओं से युक्त रहती है।

 अध्यात्म हमारा वास्तविक स्वभाव, अकारण आनन्द की अवस्था है। मन की शांत, स्थिर, एकाग्र एवं प्रसन्न अवस्था का नाम है। जिन क्षणों में हम इस अवस्था में होते हैं, जाने-अनजाने में हम अध्यात्म तत्व में जी रहे होते। इस अवस्था को सचेतन रुप से प्राप्त करने तथा इसको बनाए रखने का विज्ञान विधान अध्यात्म है। भारतीय परम्परा में योग साधना के विविध तौर-तरीके इसी के लिए ऋषिओं द्वारा खोजे गएजैसे - कर्म योगभक्ति योगज्ञानयोग, राजयोगमंत्रयोगतंत्रयोगहठयोग, नाद योग आदि।

अध्यात्म की आवश्कता कब अनुभव 

 जब सबकुछ अनुकूल होता हैतो प्रायः अध्यात्म की आवश्यकता अनुभव नहीं होतीउन पलों में व्यक्ति अध्यात्म तत्व को भूला बैठा होता है। कहावत प्रसिद्ध है कि दुःख में सुमिरन सब करेसुख में करे न कोएजो सुख में सुमिरन करेतो दुख काहे को होए। (बाबा कबीर)

जीवन के गहरे दुःखझटकेसंघातिक प्रहार, असह्य वियोग-विछोहगहन विषाद आदि के बाद व्यक्ति में अध्यात्म के प्रति भाव जागता है। जैसे  कुरुक्षेत्र की रणभूमि में अर्जुन। वहाँ भगवान श्रीकृष्ण के सान्निध्य में विषाद के गर्भ से योग का जन्म होता है। प्रायः किसी प्रियजन के विछोह होने पर शमशान से होकर आने पर शमशान वैराग्य हावी रहता हैसंसार की निस्सारतः अनुभव होती है और व्यक्ति अध्यात्म की ओर उन्मुख होता है। हालाँकि यह बात दूसरी है कि यह भाव कितनी देर व्यक्ति के अंदर बना रहता है। 

सुख-भोग से मोहभंग की स्थिति में भी विरक्ति की स्थिति आती है और व्यक्ति सच्चे आनन्द एवं शांति की तलाश में अध्यात्म पथ का पथिक बन जाता है। जैसे – भगवान बुद्धमहावीरराजा भर्तृहरि आदि। सहज जिज्ञासाप्रायः पूर्वजन्म के कारणजीवन के परमसत्य की खोज का भाव जगे रहता है। जैसे आदि शंकराचार्यस्वामी विवेकानन्दआचार्य श्रीराम शर्मा आदिजहाँ बचपन से ही ईश्वर और जीवन के परमसत्य की खोज चलती रही। गीता में आर्त, अर्थार्थी, जिज्ञासु और ज्ञानी के रुप में अध्यात्म की ओर उन्मुख व्यक्तियों की बात कही गई है।

अध्यात्म का महत्व -

अध्यात्म के अर्थ एवं आवश्यकता की चर्चा के साथ यह स्पष्ट हो जाता है कि अस्तित्व का केंद्रीय तत्व होने के कारण जीवन के हर क्षेत्र में इसका महत्व है। संक्षेप में बिंदुवार इनका वर्णन आगे किया जा रहा है -

·        जीवन की समग्र समझ - जितना हम स्वयं को जानने लगते हैंउतना ही हमारी मानव प्रकृति की समझ बढ़ती है। व्यक्तित्व की समग्र समझ के साथ जीवन की जटिलताओं का निपटारा उतनी ही गहनता एवं प्रभावी ढंग से संभव बनता है।

·        देह-मन से परे आत्म तत्वदिव्य तत्व के रुप में व्यक्तित्व की अनश्वर सत्ता की समझ आती है जीवन के चेतनअचेतन के पार इसके अतिचेतन स्वरुप का बोध होता है।

 ·        एकतरफा भौतिक विकास का संतुलक  अध्यात्म एकतरफे भौतिक विकास को संतुलन देता है। आज की भौतिक प्रगति की अँधी दौड़ से उपजी विषमता व असंतुलन का परिणाम आत्मघाती-सर्वनाशी संकट हैजिसका जड़ मूल से समाधान अध्यात्म में निहित है।

·        सांसारिक उपलब्धियों के साथ आंतरिक शांति-संतुलन का आधार तैयार होता है। गृहस्थ और समाज-संसार में रहते हुए भी अध्यात्म को कैसे धारण किया जा सकता हैमार्ग प्रशस्त होता हैजिसको युगऋषि आचार्य़ श्रीरामशर्मा ने व्यवहारिक अध्यात्म का नाम दिया।

 ·        अपने भाग्य विधाता होने का भाव  अध्यात्म जीवन की समग्र समझ देता है। व्यक्तित्व की सूक्ष्म जटिलताओं से रुबरु कराता है, जीवन की समस्याओं  चुनौतियों का समाधान अपने अंदर खोजता है तथा इन पर नियंत्रण का कौशल सिखाता है और क्रमशः खुद पर न्यूनतम नियंत्रण एवं शासन का मार्ग प्रशस्त करता है कि हम अपने भाग्य के विधाता आप हैं।

 ·        द्वन्दों से पार जाने की शक्ति व सूझ  अध्यात्म जीवन की अनिश्चितता के बीच एक निश्चिंतता का भाव देता है। जीवन में सुख-दुखमान-अपमानलाभ-हानि जैसे द्वन्दों के बीच सम रहने और विषमताओं को पार करने की सूझ एवं शक्ति देता है। जीवन के तनावअवसाद और विषाद से उबरने की क्षमता देता है। अध्यात्म घोर निराशा के बीच भी आशा का संचार करता है।

 ·        खुद से रुबरु करविराट से जोड़े  खुद को जानने की प्रक्रिया से शुरु अध्यात्म व्यक्ति को अंतर्रात्मा से जोड़ता है और एक जाग्रत विवेक तथा संवेदी ह्दय के साथ व्यक्ति परिवारसमाज एवं विश्व से जुड़ता है और विराट का एक संवेदी घटक बनकर जीता है।

·        व्यक्ति स्वयं को जितना जानता है, जितने गहरे उतरता हैउतना ही विराट से जुड़ता जाता है।

 ·        विश्वसनीयता एवं प्रामाणिकता का आधार  अध्यात्म विवेक को जाग्रत करता हैजो सहज स्फूर्त नैतिकता एवं आत्म-अनुशासन को संभव बनाता है और व्यक्ति जीवन मूल्यों के स्रोत से जुड़ता है।

·        अध्यात्म क्रमिक रुप से व्यक्तित्व के बिखराव को रोकता है, पर्सनल इंटिग्रेशन को अंजाम देता है। व्यक्ति में सद्गुणों का विकास होता है, चरित्र का गठन होता है तथा व्यक्तित्व में एक विश्वसनीयता एवं प्रमाणिकता जन्म लेती है।

    ·        व्यक्तित्व की चरम संभावनाओं को साकार करे – मानसिक स्थिरता, एकाग्रता के साथ प्रतिभा (creativityका प्रस्फुटन होता है।

·        अंतर्निहित दिव्य क्षमताओं एवं शक्तियों के जागरण-विकास के साथ व्यक्तित्व की चरम सम्भावनाएं क्रमिक रुप में साकार होती हैं। आज हम जिन महापुरुषोंमहामानवों एवं देव मानवों को आदर्श के रुप में देखते हैंवे किसी न किसी रुप में इसी विकास का परिणाम थे।

     अन्य महत्व 

      जीवन में एक अर्थ, सार्थकता एवं परिपूर्णता का बोध दे।

      समग्र जीवन दृष्टि के साथ मानव प्रकृति की गहरी समझ देजो व्यक्ति को व्यवहार कुशलता का अवदान दे।

      गहन अंतर्दृष्टि एवं अपनी जिम्मेदारी का भाव विकसित होता है। अपने स्वधर्म का बोध होता हैऔर कर्तव्य परायण जीवन सुनिश्चित होता है।

      जीवन के प्रति एक सकारात्मक एवं आशावादी रुख पनपता है।

     पारिवारिक में संस्कार का वीजोरोपण होता है और युगऋषि के शब्दों में परिवार नर-रत्नों की खदान बनते हैं।

      समाज में पावन भावों एवं सकारात्मक विचारों का संचार होता है। वर्तमान वैचारिक प्रदूषण भरे इस युग में इसका महत्व समझा जा सकता है।

      विश्व शांति एवं सौहार्द्रय का ठोस आधार होता है। धर्मोंसंस्कृतियों एवं राष्ट्रों के आपसी टकराहट भरे युग में आंतर्सांस्कृतिक संचार का एक संवाद सेतु तैयार होता है।

 जरा सोचेंविचारें! !

 यदि आप पूरे लेख से गुजर गए हैंतो थोड़ा आत्म-निरीक्षण करते हुए विचार करें -

      आपके लिए अध्यात्म क्या अर्थ रखता है?

      आप अध्यात्म को कितना महत्वपूर्ण मानते हैं?

      अध्यात्म की आवश्यकता आप कब अनुभव करते हैं?

      नित्य अपने आत्मिक विकास के लिए कितना समय देते हैं?

      आध्यात्मिक विकास के लिए आपका न्यूनतम कार्यक्रम क्या है?

      जीवन में अध्यात्म  हो तोक्या होगा?


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