रविवार, 24 मार्च 2024

एक सफल सार्थक विद्यार्थी जीवन के व्यवहारिक सुत्र-2

 

एकाग्रता एवं स्मरण शक्ति बढ़ाने के व्यवहारिक सुत्र

एकाग्रता एवं स्मरण शक्ति विद्यार्थी जीवन के आधारभूत घटक हैं। नए ज्ञान के अर्जन व इसे याद रखने के फलस्वरुप ही एक विद्यार्थी जीवन सफल होता है और सार्थकता की ओर बढ़ता है। और दोनों का आपस में अभिन्न सम्बन्ध है। यदि मन की एकाग्रता अच्छी है, तो विषय गहरे अंकित हो जाता है और उसको याद करना सरल हो जाता है।

और इन दोनों का सम्बन्ध रुचि से है। यदि हमारी किसी विषय में रुचि है तो मन सहज रुप से एकाग्र हो जाता है और उससे जुड़े तथ्य व आंकड़े आदि आसानी से याद हो जाते हैं। एक क्रिकेट प्रेमी विद्यार्थी अपने प्रिय खिलाड़ी के सारे रिकॉर्ड उंगली पर याद रखता है औऱ घंटों उसे खेलते हुए देख सकता है, कभी बोअर नहीं होता। लेकिन यदि उसे इतिहास की तिथियों को या गणित के सुत्रों को याद करने को कहें, तो उसे मुश्किल पड़ता है। कारण रुचि की अभाव रहता है।

अतः यहाँ अविभावकों और माता-पिता का भी कर्तव्य बनता है कि बच्चों पर अपनी रुचि, महत्वकाँक्षा को न थोंपें। उन्हें अपनी रुचि के अनुसार विषय को चुनने की आजादी दें। अपनी अधूरी इच्छाओं, कामनाओं, महत्वाकाँक्षाओं का बोझ बच्चों पर लादने पर वे विषय को तो ले लेते हैं, लेकिन आगे उनके लिए बोझ बनना शुरु हो जाता है। रुचि के अभाव में मन एकाग्र नहीं होता, कुछ समझ नहीं आता, कुछ याद नहीं रहता और एक बोझिल जीवन जीने के लिए अभिशप्त होते हैं। जो जीवन में बड़ी दुर्घटना का कारण बन सकता है।

नई शिक्षा नीति में इस समस्या के निदान का प्रय़ास किया गया है, जहाँ बच्चे अपनी रुचि के अनुरुप विषयों का चयन कर सकते हैं। और यदि विद्यार्थी जीवन में वाइ चान्स भी किसी विषय में प्रवेश हो गया हो तो चिंता की जरुरत नहीं, चान्स से भी चुआइस को खोजा जा सकता है। हर विषय में इतनी शाखाएं रहती हैं कि विद्यार्थी थोड़ा बड़ों के मार्गदर्शन व थोड़ा होमवर्क करके अपनी रुचि का विषय खोज सकता है।

रुचि के साथ पढ़े गए विषय की जीवन में उपयोगिता को समझें। शिक्षकों का भी कर्तव्य बनता है कि उसका प्रेक्टिकल हिस्सा भी कराएं, ताकि टॉपिक बच्चों के मस्तिष्क में, समझ में गहरे अंकित हो जाए। और यदि किसी कारण विषय में रुचि न हो, तो उसके महत्व, उपयोगिता एवं लाभ को समझते हुए रुचि पैदा की जा सकती है।

एकाग्रता एवं स्मृति का मुख्य आधार रहता है शांत, स्थिर और प्रसन्न चित् की अवस्था। अतः ऐसे आहार, विहार, विचार एवं व्यवहार से बचें जो चित्त को अशाँत, उत्तेजित एवं दुःखी-उदास करते हों। कुल मिलाकर एक अनुशासित जीवन शैली को अपनाने की आवश्यकता रहती है। इस संदर्भ में मोबाइल से सावधान रहें, जिसका उपयोग अनुशासित न होने पर यह विद्यार्थी के अधिकाँश समय, ऊर्जा और एकाग्रता को भंग कर सकता है। अतः मोबाइल के उपयोग में अपने विवेक और इच्छा शक्ति का प्रयोग करें तथा इसकी माया को हावी न होने दें, जिससे नित्य निर्धारित लक्ष्य की स्मृति बनी रहेगी तथा मन भी एकाग्र रहेगा।

कहने की आवश्यकता नहीं कि आहार हल्का रखें, मिताहारी बनें। ठुस-ठुस कर खाने से बचें, ऐसे भोजन से बचें, जो तन-मन को उत्तेजित करता हो। ऐसे ही टॉक्सिक संग-साथ से दूर रहें, जो विचार व भावों को दूषित करते हों, मन के फोक्स को कमजोर करते हों। रात को समय पर बिस्तर पर जाएं, तभी सुबह समय पर उठ सकेंगे। और भरपूर नींद संभव होगी, जो स्मरण शक्ति व एकाग्रता का एक महत्वपूर्ण आधार रहती है। आधी अधूरी नींद में मन उचटा रहता है, एकाग्र नहीं हो पाता, यादाश्त भी बुरी तरह से प्रभावित होती है।

अपने विचारों को भी सकारात्मक बनाए रखें। इसके लिए श्रेष्ठ विचारों में रमण करें। प्रेरक साहित्य का स्वाध्याय करें। इसके साथ स्नान के बाद नित्य कुछ जप-ध्यान व पाठ आदि की न्यूनतन आध्यात्मिक व्यवस्था रखें। प्रातः स्वच्छ वायु में भ्रमण मस्तिष्क को सक्रिय करता है, उपरोक्त दोनों क्षमताओं को सशक्त करता है। इसके साथ रोज कुछ व्यायाम या खेल में भाग लें। आखिर स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन वास करता है।

अपने कार्य स्थल व टेवल को साफ-सुथरा व सुव्यवस्थित रखें। कमरे में पर्याप्त हवा, धूप आदि की व्यवस्था हो। काम करते समय टेवल खाली हो, जो कार्य करना हो, वही सामने रहे। वाकि कार्य क्षेत्र को अपनी रुचि के अनुरुप अनुकूल बनाया जा सकता है।

टाइम टेबल बनाकर पढ़ने से भी पढाई अधिक प्रभावी ढंग से संभव होती है और अधिकाँश विषय कवर हो जाते हैं और एक साथ कई काम करने के मल्टिटास्किंग की समस्या से भी बच जाते हैं, जिसके कारण एकाग्रता और स्मरण शक्ति दोनों प्रभावित होते हैं। निर्धारित समय के बाद कुछ मिनट का ब्रेक ले सकते हैं। बौद्धिक श्रम से थकने पर कुछ शारीरिक श्रम वाले काम निपटा सकते हैं। कमरे में या वाहर प्रकृति में घूम टहल सकते हैं। जल या कुछ हेल्दी ड्रिंक ले सकते हैं।

इसके साथ ब्राह्मी, शंखपुष्पी, बच जैसे मस्तिष्क को पुष्ट करने वाली जड़ी-बुटियों का सेवन किया जा सकता है, जो स्मरण शक्ति व एकाग्रता में सहायक होते हैं। अखरोट व वादाम की गिरियाँ भिगों कर लेने पर टॉनिक का काम करती हैं।

इन सर्वसामान्य सुत्रों का ध्यान रखते हुए, एकाग्र चित्त के साथ पढते हुए, विषय को ह्दयंगम कर सकते हैं, लम्बे समय तक याद रख सकते हैं और परीक्षा में अच्छे अंकों को सुनिश्चित करते हुए एक सफल-सार्थक विद्यार्थी जीवन जी सकते हैं।

रविवार, 3 मार्च 2024

एक सफल-सार्थक विद्यार्थी जीवन के व्यवहारिक सुत्र, भाग-1

विद्यार्थी जीवन के महत्व की समझ

विद्यार्थी जीवन किसी भी व्यक्ति के जीवन का स्वर्ण काल होता है, जिसकी यादें जीवन भर गुदगुदाती रहती हैं, सुखद अहसासों के सागर में डूबने इतराने का कारण रहती हैं। साथ ही यह समय जीवन का निर्णायक दौर भी होता है। यदि सही संगत व मार्गदर्शन मिला तो जीवन संवर जाता है, भविष्य उज्जवल की दिशाधारा तय हो जाती है और यह मानव जीवन धन्य हो जाता है। अन्यथा यदि संग-साथ गलत रहा, सही मार्गदर्शन का अभाव रहा और विद्यार्थी जीवन के प्रति लापरवाही बरती गई तो यही जीवन नरक तुल्य बन जाता है, जिसके दंश से जीवन भर व्यक्ति उबर नहीं पाता। पग-पग पर इसके खामियाजे को भोगने के लिए व्यक्ति विवश-वाध्य महसूस करता है।

लेकिन बीत गया समय फिर बापिस नहीं आता। एक पश्चाताप के अतिरिक्त हाथ में कुछ नहीं बचता। विद्यार्थी जीवन की लापरवाहियों का दंश व्यक्ति स्वयं ही नहीं झेलता, पूरा परिवार, समाज, राष्ट्र एवं विश्व तथा मानवता इसको भुगतने के लिए अभिशप्त होती है। दुःखी, हैरान-परेशान, अशांत-क्लांत, बेरोजगार, आशंकित-आतंकित, आत्म-विश्वास से हीन पीढ़ी इसका दुष्परिणाम। जो अपने पतन की पराकाष्ठा में भ्रष्टाचार एवं अपराधों में लिप्त व्यक्तियों-नागरिकों की आत्मघाती पीढ़ी का कारण बन जाती है।

विद्या के अर्जन के लिए समर्पित व्यक्ति, दो प्रयोजन को पूरा करता है – 1. उन क्षमताओं-योगयताओं का अर्जन करता है, उस ज्ञान को प्राप्त करता है, जिससे अपने पैरों पर खड़ा हो सके। अर्थात किसी नौकरी के माध्यम से अपनी रोजगार को सुनिश्चित करता है। यदि नौकरी नहीं मिलती तो अपने कौशल व समझदारी के आधार पर स्वालबम्बी जीवन जीता है। 2. उन जीवन-कौशल की क्षमताओं का विकास करता है, जिनसे जीवन सफलता के साथ सार्थकता की अनुभूति लिए हो। युगऋषि के शब्दों में शिक्षा के साथ विद्या का अर्जन करता है। जीवन जीने की कला को सीखता है।

इसके लिए विद्यार्थी कैरियर गोल के साथ जीवन लक्ष्य की भी समझ को विकसित करता है। जिसमें अपने व परिवार के कल्याण के साथ समाज राष्ट्र एवं विश्व के कल्याण का भी भाव निहित हो। इसके लिए विद्यार्थी निम्न चरणों का चिंतन-मनन करते हुए अपने जीवन में अपना सकता है –

1.      अपनी रुचि, क्षमता एवं योग्यता के अनुरुप कोर्स का चयन, कैरियर गोल का निर्धारण।

2.      कक्षा में नियमितता, जो पढ़ाया गया, उसका घर आकर अध्ययन व नोट्स तैयार करना।

3.      अगले दिन प्रातः रिवीजन, जो समझ न आए, उसको क्लास में शिक्षक से पूछना व स्पष्ट करना।

4.   नित्य पुस्तकालय में कुछ समय बिताना, नोट्स को समृद्ध करना। यदि रोज कुछ छूट जाए तो, सप्ताह अंत व छुट्टियों में उसे पूरा करना।

5.      अपनी पढ़ाई के प्रति ईमानदार, एकनिष्ठ, लक्ष्य केंद्रित, फोक्सड जीवन। अर्जुन की तरह लक्ष्य केंद्रित।

6.      राग-रंग, फैशनवाजी, दुर्व्यसनों से दूर रहना। बिगड़ैल विद्यार्थियों के कुसंग से सावधान, सुरक्षित दूरी।  बुरी संगत से अकेला भला।

7.     अपने विषय से अपडेटिड, नित्य अखबार, मैगजीन व इंटरनेट के माध्यम से विषय की नवीनतम जानकारियों से रुबरु रहना। उसे भी नोट्स में जोड़ते जाना।

8.      अपनी पढ़ाई के साथ, कुछ समय सतसंग, स्वाध्याय व प्रेरक पुस्तकों के लिए भी।

9.      नित्य न्यूनतम जप-ध्यान (उपासना, प्रार्थना, पूजा) आदि का क्रम, प्रातः स्नान के बाद, उसी के साथ स्वाध्याय।

10.   रात को सोने से पहले दिन भर की समीक्षा, एक डायरी में लेखा जोखा।

11.   समय सारिणी बनाकर अध्ययन, जिससे पढ़ाई के हगर विषय कवर हों, साथ ही व्यक्तित्व का समग्र विकास सुनिश्चित हो।

12.   पढ़ाई, खेल-कूद-व्यायाम-शारीरिक श्रम, स्वाध्याय-पूजा-ध्यान, स्वस्थ मनोरंजन।

नित्य आत्म-निरीक्षण, आत्म-समीक्षा, आत्म-सुधार, आत्म-निर्माण।

13.   एक अनुशासित, संयमित जीवन शैली (आहार-विहार-विचार-व्यवहार) का पालन।

14.   संवेदनशील व्यवहार, जरुरतमंदो की सहायता, वाणी का संयम। विनम्र-शालीन व्यवहार।

15.   श्रमशीलता (अथक श्रम), स्वच्छता-सुव्यवस्था, मितव्ययिता (सादा जीवन उच्च विचार), शालीनता, सहकारिता जैसे सद्गुणों का अभ्यास।

16.   ईमानदारी-समझदारी-जिम्मेदारी-बहादुरी जैसे सद्गुणों का अभ्यास

17.   मोबाइल की माया से सावधान। इसके लिए समय निर्धारित। अपनी पढ़ाई में इसका अधिकतम उपयोग। मोटिवेशनल कंटेट।

18.   इसके साथ आएगा जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण, आशावादी रुख एव आत्म-विश्वास। साथ ही एक सफल विद्यार्ती जीवन सुनिश्चित होगा, जो सार्थकता की अनुभूति से सरोवार होगा।


सोमवार, 26 फ़रवरी 2024

जब आया बुलावा माता वैष्णों देवी का, भाग-3,

 

यादगार सवक से भरा सफर बापिसी का

प्रातः जागरण के बाद फ्रेश होते हैं, नीचे स्नान घर के पास ही शिव गुफा बनी है। उसमें दर्शन करते हैं। इसका इतिहास पढ़ते हैं। कल्पना उठती है कि काश ऐसे स्थान पर साधना का मौका मिलता। गुफा की लोकेशन चट्टान के नीचे, नाले के संग एकांत स्थान पर है, जहाँ आस-पास पानी लगातार झर रहा था। एकांतिक ध्यान साधना के लिए आदर्श स्थल प्रतीत हो रहा था।

मौसम में ठंडक के चलते सुबह की चाय ना ना करते 3 बार हो जाती है, वह भी खाली पेट। इसका खामियाजा आगे भुगतने वाला था, जिसका अंदेशा ठंड में नहीं हो पाया था। जिस हॉल में रुके थे, वहाँ से नीचे घाटी का नजारा दर्शनीय था। कुछ यादगार क्लिप्स के साथ यहाँ से चल पड़ते हैं।

कतार में पूरा दल तीन किमी हल्की व खड़ी चढ़ाई के साथ बाबा भैरों के द्वार में लगभग एक घंटे में पहुंचता है। हालाँकि वहाँ पहुंचने की उड़न खटोले से भी व्यवस्था थी, लेकिन इसकी 1-2 किमी लम्बी लाइन देखकर लगा की पैदल ही इसके पहले पहुँच जाएंगे। रास्ते में जहाँ भक्तों की किलोमीटर लम्बी कतारें दर्शन के लिए लगी थी, वहीं दूसरी कतार उड़न खटोले के लिए। हमारा पूरा दल कतार बद्ध होकर धीरे-धीरे हल्की चढ़ाई को पार करता है। बीच में उड़न खटोले बिल्कुल पास से सर के ऊपर से गुजर रहे थे।

इस मार्ग में भी कुछ शॉर्ट कट सीढ़ियों के बने हैं, इनको पार करते हुए आगे बढ़ते हैं। रास्ते में एक-दो स्थान पर कुछ विश्राम करते हैं। कुछ दल के सदस्यों को भूख सताना शुर कर चुकी थी, वे कुछ चुगने के लिए निकालते हैं। पास में बैठे बंदर बीच में कूद पड़ते हैं। पहली वार बंदरों का दर्शन कर रहे सदस्य भय से चीख-पुकार कर ईधर उधर भागते हैं। जबकि ऐसे में बिना डरे, शांत-स्थित व मजबूती से रहो, तो बंदर बॉडी लैंग्वेज समझ कर चुपचाप गुजर जाते हैं। उनकी नजर खाने के समान पर होती है, किसी को काटने या परेशान करने पर नहीं। भयवश ही वे हमला कर सकते हैं। वाकि बंदर घुड़की तो मश्हूर है ही। इनका मनोविज्ञान समझने वाले इनसे शांति से निपट लेते हैं। लेकिन हमारे ग्रुप में नौसिखिए यात्रियों के लिए यह शायद पहला सबक था।  

भैरों मंदिर पहुँच कर हम लाइन में लगते हैं, दर्शन करते हैं और नीचे छत को ऊपर के समतल मैदान पर धूप का आनन्द लेते हैं। भौरों मंदिर का अपना इतिहास है। माना जाता है कि जब माता वैष्णु देवी ने भैरों का बध किया था तो उनका सर धड़ से अलग होकर यहाँ पहाड़ी पर गिरा था। माता ने उन्हें आशीर्वाद दिया था कि जो भी मेरे दर्शन करने आएगा, वह तेरे भी दर्शन करेगा और तभी उसकी यात्रा पूर्ण मानी जाएगा। इसलिए वैष्णों माता आया हर भक्त यहाँ दर्शन जरुर करता है।

यहाँ से नीचे व चारों ओर का विहंगम दृश्य देखते ही बन रहा था। यहाँ पर फोटो व सेल्फी प्रेमियों का तांता लगा हुआ था। साथ ही यहाँ की खिली हुई धूप भी ठंड से बहुत राहत दे रही थी। कुछ समय यहाँ से नीचे के नजारों का विहंगावलोकन करते हैं, यहाँ से नीचे हेलीपैड का नजारा स्पष्ट था और इसमें उतरते और यहाँ से उड़ान भरे हेलीकॉप्टरों का नजारां एक नया अनुभव दे रहा था।

यहाँ से फिर बापिसी के रास्ते में आगे बढते हैं, जो आगे अधकुमारी की ओर से जाता है। रास्ते में साँझी छत पहला मुख्य पड़ाव था, जहाँ चाय-नाश्ता आदि की व्यवस्था रहती है। इस रास्ते में जंगली मुर्गों के झुंड के दर्शन हुए, जो सड़क के एकदम साथ लगभग 100 मीटर तक सटे जंगल में शौर करते हुए गुजर रहे थे। थोड़ी दूर पर एक बांज के पेड़ पर ध्यानस्थ लंगूर को देख बहुत अच्छा लगा, कि कितनी शान के साथ सारे जहाँ का सुख-सुकून बटोरे, ये लंगूर महाराज अपने साम्राज्य में ध्यानस्थ होकर बैठे हैं।

थोड़ी देर में नीचे उतरते हुए हम सांझी छत पहुंचते हैं। यहाँ समूह फोटो होता है। पीछे से उड़ान भरते हेलीकॉप्टर ठीक हमारे सर से होकर जुगरते प्रतीत हो रहे थे। इसके बाद सरांय बोर्ड की ओऱ से लगाए गए भंडारे में हलुआ, चना और चाय का नाशता करते हैं। यहीं से टीम आगे-पीछे होना शुरु हो गई थी, जो अपने-अपने समूह बनाकर अधकुमारी की ओर दल बढ़ रहे थे।

इसी के साथ हमारी तवीयत बिगड़ना शुरु हो चुकी थी। सुबह खाली पेट तीन बार चाय और दस बजे नाश्ता, यह रुटीन भारी पड़ रहा था। लगा भैरों बाबा के यहाँ सुवह का नाश्ता किए होते तो पेट में बन रहा एसिड शांत होता और यह नौवत नहीं आती। इस रुट पर यात्रा करने वालों को यही सलाह है कि सुबह का नाश्ता स्किप न करें। चाय के साथ कुछ खाने का सामान अवश्य रखें।

कई शोर्टकट सीढ़ियों को पार करते हुए हम अधकुमारी की ओर बढ़ रहे थे। सीधे नीचे उतराई में पैरों पर ठीक-ठाक दवाव पड़ रहा था। कहीं-कहीं सीढ़ियों का सहारा लेकर उतर रहे थे और जहाँ पैर जबाव दे जाते, वहाँ कुछ देर विश्राम करते। बिगड़ती तवीयत के साथ कुछ थकान के साथ हालात वदतर हो रहे थे। अधकुमारी पहुँच चुके थे। यहाँ अन्दर देखने का अधिक समय नहीं था। इसे अगली यात्रा के लिए छोड़कर आते बढ़ते हैं। मान्यता है कि यहीं पर माता वैष्णु देवी ने एक गुफा में रहकर साधना की थी।

आगे की यात्रा हम सीढ़ियों के सहारे पुरा करते हैं। पैर जबाव दे रहे थे। बुजुर्गों व बच्चों के इस राह पर चढ़ते-उतरते देखकर जोश आ रहा था। लेकिन अपनी स्थिति देखते हुए अंतिम दो किमी खच्चर का सहारा लेना पड़ा। यह भी कम झकझोरने वाला अनुभव नहीं था। खच्चर पर बिठाकर मालिक टिकट कटाने जाता है। टीन बाली छत पर बंदरों की उछलकूद से घबराया खच्चर विदक जाता है। लगा हम अब गिरे कि तब। किसी तरह से आकर मालिक संभालता है। चोटिल दुर्घटना होने से टली और लगा हमारा कोई प्रबल प्रारब्ध कट रहा था।

हम खच्चर के सहारे बाणगंगा के किनारे टीन शैड में अड्डे पर उतरते हैं। यहाँ बाकि सहयात्रियों का इंतजार करते हैं। लगा कि वे पीछे से आ रहे होंगे, जबकि वे शॉर्टकट से नीचे उतरकर हमसे आगे पहुंच चुके थे। इस बीच हम अपना विश्लेषण करते रहे। हेमकुण्ड की गलती आज पुनः कर बैठे थे, ऑवर काँफिडेंस में सुबह खान-पान की लापरवाही हुई थी, जो भारी पड़ गई थी।

हम धीरे-धीरे आगे बढ़ते हैं। आगे से सौरभजी हमें खोजते हुए आ रहे थे। मिलकर बहुत राहत मिलती है। फिर हमलोग ऑटो-टेक्सी से कटरा रेल्वे स्टेशन पर पहुँचते हैं। पहले होटल पहुँची टीम सामान लेकर पहुँच रही थी। यहाँ फ्रेश होकर हेमकुंट एक्सप्रेस ट्रेन में बापिसी का सफर करते हैं। शाम को साढ़े चार बजे चलती है, हरिद्वार सुबह 7 बजे पहुँचा देती है।

माता वैष्णु देवी के इस तीर्थाटन के साथ लगा जैसे दिल के तार इस स्थल से जुड़ चुके हैं, अगली बार और होशोहवास व तैयारी के साथ यहाँ का तीर्थाटन करेंगे। कुछ दिन रुककर यहाँ विचरण करेंगे और पूरा आध्यात्मिक लाभ लेते हुए इस पावन तीर्थ का वास करेंगे।

भाग -1 के लिए पढ़ें, जब आया बुलावा माता वैष्णों देवी का।

यात्रा वृतांत - हमारी पहली वैष्णों देवी यात्रा, भाग-2


बाणगंगा से माता वैष्णों देवी का सफर

मुख्य द्वार से प्रवेश के बाद दो-तीन किमी के बाद बाणगंगा पहला मुख्य पड़ाव है। यहाँ तक बाणगंगा के किनारे पैदल मार्ग पर बने टीनशैड़ के नीचे से सफर आगे बढ़ता है। यहीं पर खच्चर व अन्य यात्रा सेवाएं (बच्चों के लिए पिट्ठू, बुजुर्गों के लिए पालकी आदि) उपलब्ध रहती हैं, जो पैदल चलने में असक्षम लोगों के लिए उचित दाम पर उपलब्ध रहती हैं। रास्ते में ढोल ढमाके के साथ यात्रियों का स्वागत होता है, जो हर एक-आध किमी पर रास्ते में देखने को मिलता है। नाचने के शौकीन यात्रियों को इनके संग थिरकते देखा जा सकता है। जो भी हो यह प्रयोग यात्रा में एक नया रस घोलता है व थकान को कुछ कम तो करता ही है। कुछ दान-दक्षिणा भी श्रद्धालुओं से इन वादकों को मिल जाती है।

बाणगंगा के वारे में मान्यता है कि माता वैष्णों ने यहीं पर बाल धोए थे व स्नान किया था। अमूनन हर नैष्ठिक तीर्थयात्री इस पावन नदी में स्नान करके, तरोताजा होकर आगे बढ़ता है। लेकिन सबके लिए यह संभव नहीं होता।

हम पहली बार इस मार्ग पर थे। हमारे मार्गदर्शक रजत-सौरभजी यहाँ पहले आ चुके हैं। हम उनके निर्देशन में आगे बढ़ रहे थे। वे पहले पड़ाव में बाणगंगा के ऊपर सामान्य मार्ग से न होकर सीधे सीढ़ी मार्ग से चढ़ाते हैं। एक ही बार में लगभग 450 से अधिक सीढ़ियाँ। चढ़ते-चढ़ते थोड़ी देर में सांस फूलने लगती है, ऊपर से दिन की धूप सीधे सर पर बरस सही थी, सीमेंटेड सीढ़ियों के रास्ते में छाया की सुविधा न के बरावर थी। आधी चढ़ाई तक चढ़ते-2 फेफड़ों पर जोर बढ़ गया था, लग रहा था कहीं फट न जाएं। इस विकट अनुभव के बीच कुछ पल विश्राम के राहत अवश्य दे रहे थे, वदन पसीने ते तर-वतर हो रहा था, दिल की धड़कने अपने चरम पर थीं। किसी तरह इन सीढ़ियों को पार कर मुख्य मार्ग पर आते हैं।

इस प्रारम्भिक कवायद का लाभ यह रहा कि अब आगे की चढ़ाई हमारे लिए अधिक कठिन प्रतीत नहीं हो रही थी। हालाँकि आगे सीढ़ियों बाले शॉर्टकट के प्रयोग से बचते रहे, और हल्की ढलाने वाले खच्चर मार्ग से ही टीन शेड के नीचे चलते रहे। हालांकि दूसरे दिन बापिसी में इन सीढियों के शॉर्टकट्स का हम सबने भरपूर उपयोग किया

इस राह पर पहला पड़ाव था चरणपादुका। माना जाता है कि यहाँ माता वैष्णु के चरणों के चिन्ह हैं, जहाँ उन्होंने एक पैर पर खड़े होकर तप किया था।

मार्ग में बाँस के झुरमुटों के दर्शन प्रारम्भ हो चुके थे। नीचे घाटी का नजारा भी रोमाँचित कर रहा था। हम क्रमशः ऊंचाइयों की ओर बढ़े रहे थे। छोटी पहाडियां व गाँव नीचे छुटते जा रहे थे।

रास्ते में जहां थक जाते, कुछ पल विश्राम करते, और कुछ भूख-प्यास का अधिक अहसास होता तो पानी पी लेते और कुछ चुग लेते। अधिक प्यास थकान लगने पर पसीने से हो रहे साल्ट की कमी को पूरा करने के लिए नींबूज का सहारा लेते। हम पहली बार नींबूज का स्वाद चख रहे थे व इसके मूरीद हो चुके थे। मूड़ बदलने के लिए चाय का उपयोग एक आध जगह करते हैं। रास्ते में यह डायलॉग सहज ही फूट रहा था कि नींबूज का कोई जबाब नहीं, पानी का कोई विकल्प नहीं और सही समय पर मिली चाय की तृप्ति का भी कोई जबाब नहीं।

अब हम लगभग आधा रास्ता पार कर चुके थे। यहाँ से रास्ता दो हिस्सों में बंटता है। एक अधकुमारी की ओर से होकर जाता है, तो दूसरा हिमकोटी मार्ग की ओर से। हम हिमकोटी का ही चयन करते हैं, क्योंकि यह कम चढ़ाई वाला मार्ग है। अधकुमारी में आगे खड़ी चढ़ाई पड़ती है, जिसे हम बापिसी के लिए रखते हैं।

हिमकोटी से बाहनों की सुविधा भी थी, लेकिन हम पैदल ही चलते हैं। इस रास्ते में लगा पहाड़ों से पत्थरों के गिरने की खतरा अधिक रहता है, सो बीच-बीच में इनको रोकने के विशेष प्रयास किए गए थे। रास्ते में बंदरों के दर्शन भी बहुतायत में शुरु हो गए थे। खाने की बस्तु को देखकर यात्रियों के बीच छीना-झपटी के नजारे भी देखने को मिलते रहे।

आगे एक बेहतरीन रिफ्रेशिंग प्वाइंट पर रुकते हैं, चाय-नाशता करते हैं और बैट्री रिचार्ज कर आगे बढ़ते हैं। यहाँ से हेलिकॉप्टरों का नजारा भी देखने लायक था। नीचे घाटी के खुले आसमां से चिडियों के समान दिखते इन हेलिकॉप्टरों की आवाज पास आने पर और तेज हो जाती और हमारे पास से ऊपर पहाड़ों से होकर पार हो रहे थे। पता चला थोड़ी ही दूरी पर हवाई अड्डा है। हर पांच-दस मिनट में इनके आने-जाने का सिलसिला चल रहा था।

आगे मार्ग में बढ़ते-बढ़ते दोपहर ढल चुकी थी, पश्चिम की ओर सूर्यास्त का अद्भुत नजारा देखने लायक था, जिसे हर यात्री केप्चर कर रहा था। हम भी इसका लोभ संवरण नहीं कर पा रहे थे और कुछ बेहतरीन यादगार तस्वीरें मोबाइल में कैप्चर करते हैं।

हम मंजिल के समीप बढ़ रहे थे और साथ ही शाम का धुंधलका भी छा रहा था और धीरे-धीरे रात का अंधेरा साया अपने पांव पसार रहा था। मंजिल के समीप पहुंचने की खुशी के चलते थकान कम हो गई थी, हालांकि ठंड का अहसास तीखा हो रहा था। लो ये क्या, माता वैष्णो देवी के द्वार महज आधा किमी, इसके भव्य परिसर के दूरदर्शन यहीं से हो रहे थे। झिलमिलाती सफेद रोशनीं से पूरा तीर्थ स्थल जगमगा रहा था।

कुछ ही मिनटों में तीर्थ परिकर में जयकारों के साथ प्रवेश होता है, शुरु में ही लाइन में लगकर प्रसाद, क्लावा आदि खरीदते हैं। रिजर्व किए हॉल में पहुंचकर ऑनलाइन प्रसारित हो रही आरती एवं सतसंग में भाग लेते हैं। आज के सतसंग में हमारे सकल समाधान हो रहे थे। चित्त के गहनतम व जटिल प्रश्नों के एक-एक कर उत्तर मिल रहे थे। ऐसा लग रहा था कि माता का वुलावा कितने सटीक समय पर आया है। लगा जैसे अंतर्यामी, त्रिकालदर्शी भगवती अपनी संतानों का सदा हित चाहती है, उसका सही समय भी वही जानती हैं। उसके भक्तों, बच्चों के लिए क्या उचित है, उसकी यथासमय व्यवस्था करती है।

इसके उपरान्त रात्रि को ही गुफा दर्शन करते हैं। लाइन में लगते हैं। दर्शन अलौकिक अनुभव रहा। माता का द्वार स्वप्नलोक जैसा लग रहा था। पहाडी की गोद में सुरंग से प्रवेश करते हुए गुफा में स्थित तीन पिंडियों के रुप में माता रानी के विग्रह के दर्शन करते हैं। बापिसी में जलधार के अमृत तुल्य जल का पान करते हैं, जिसके साथ प्यास मिटती है और गहरी तृप्ति का अहसास होता है।

नीचे उतर कर पास की कैंटीन में रात का भोजन करते हैं और फिर अपने हॉल में विश्राम करते हैं। इसके आगे लिए पढ़ें - यादगार सवकों से भरा सफर बापिसी का

रविवार, 31 दिसंबर 2023

मेरी चौथी झारखण्ड यात्रा, भाग-3

 

दिव्य रथ से लेकर हवाई सफर का रोमाँच

टाटानगर से पटना, दिव्य रथ बस सेवा

जमशेदपुर में तीन दिवसीय अकादमिक कार्यक्रम को पूरा कर अब घर बापिसी होनी थी। बापिसी में रेल की वजाए बस और फ्लाइट से यात्रा का संयोग बन रहा था। अतः पहले चरण में टाटानगर से पटना दिव्य रथ में सवार होते हैं, जो एक नया अनुभव होने जा रहा था। हालाँकि एक बार अमृतसर से कटरा तक पिछले ही माह ऐसा सफर कर चुका था, लेकिन इस बार सिंगल बर्थ वाली सीट थी। रात को 7 बजे टिकट में चलने का समय था, लेकिन चलते-चलते बस को 8 बज चुके थे। प्रातः छः बजे पहुँचने का अनुमान था। लेकिन बस साढ़े पाँच बजे ही पटना पहुँचा देती है।

रात के अंधेरे में बाहर बहुत अधिक कुछ तो नहीं दिख रहा था, लेकिन रोशनी में जगमगाते शहर के भवन, दुकानें, मॉल्ज आदि के भव्य दर्शन अवश्य रास्ते भर होते रहे। दिव्य रथ की खासियत यह भी थी कि हमें नीचे लेट कर सफर करने का बर्थ मिला था, जिसमें सवारी जब चाहे लेट कर सो सकती थी। हालांकि हम तो अधिकाँश समय बाहर के नजारों को ही निहारते रहे और पिछले तीन-चार दिनों के यादगार अनुभवों व लिए गए शिक्षण की जुगाली करते रहे।



रास्ते में बस ग्यारह बजे के आसपास एक स्थान पर भोजन के लिए रूकती है। भोजन के साथ यहाँ एक नई तरह की व्यवस्था थी। जिसमें परात में सजे सफेद रसगुल्ले और गुलाव जामुन की दुकान थी। रात्रि भोजन के लिए बस यहाँ आधे घण्टे के लिए रुकती है। लेकिन सवारियां सबसे पहले रसगुल्लों व गुलाव जामुन पर ही टूट पड रही थी। इसके दस मिनट बाद यहाँ गर्मागर्म चाय-कॉफी परोसी जा रही थी। ठंडी रात में इनका महत्व भुगतभोगी समझ सकते हैं।

रसगुल्ला, गुलाब-जामुन की विशेष व्यवस्था

प्रातः पटना में पहारी नामक स्थान पर बस रुकती है। यह मेन रोड पर स्थित एक खुला स्टेशन है। पटना का आईएसबीटी यहाँ से 3 किमी अन्दर है। सड़क के किनारे बना लकड़ी-तरपाल आदि का रैनवसेरा सवारियों की एक मात्र शरणस्थली थी। सो हम भी अगली व्यवस्था होने से पूर्व यहीं एक बैंच पर बैठते हैं। यहाँ से गायत्री शक्तिपीठ 6.7 किमी तथा पटना साहिब गुरुद्वारा 4.5 किमी औऱ एयरपोर्ट 15 किमी की दूरी पर था। 

कुल्हड चाय का नया अंदाज

कंकरवाग स्थित गायत्र शक्तिपीठ में रुकने की योजना के अनुरुप ऑटो से वहाँ पहुँचते हैं। मेट्रो का कार्य़ प्रगति पर था, सो ऑटो शॉर्टकट गलियों से गन्तव्य तक पहुँचा देता है। यहाँ का गायत्री शक्तिपीठ युवाओं की रचनात्मक गतिविधियों के लिए खासा प्रसिद्ध है। जिसका जिक्र खान सर कर चुके हैं, हाल ही के कार्यक्रम में अवध औझा सर भी इनके कार्यक्रम में शामिल हो चुके हैं।

गायत्री शक्तिपीठ, कांकरबाग, पटना

26 तारीक की प्रातः एक नए हवाई यात्रा का अनुभव जुड़ने वाला था, जो शायद हवाई यात्रियों के काम आए। स्पाइस जेट से टिकट बुक थी, जिसमें पहली बार हम सफर कर रहे थे। इनके निर्देश के अनुसार, 3 घंटा पहले एयरपोर्ट पर पहुँचना था, सो समय पर सुबह 8 बजे पहुँच जाता हूँ। पता चला कि फ्लाइट 2 घंटे लेट है। एजेंट के माध्यम से बुकिंग के कारण हमें मोबाइल तथा मेल से अपडेट नहीं मिल सके, यह पहला सबक था। अतः जब भी टिकट बुक करें, तो सवारी का मोबाइल नम्बर तथा जीमेल ही दें, ताकि लेट लतीफी के सारे संदेश यात्री तक आते रहें और वह उसी अनुरुप अपनी यात्रा की व्यवस्था को पुनर्निधारित कर सके। एक घंटा इंतजार के बाद 9 बजे अंदर प्रवेश मिलता है।

अपना सामान जमा करने के बाद, अंदर प्रतीक्षालय में पहुँचते हैं। लेकिन अब फ्लाइट 11 की बजाए 1 बजे तक लेट हो चुकी थी। अपने मोबाइल, साथ रखी पुस्तकों तथा वहाँ उपलब्ध समाचार पत्रों के साथ समय का सदुपयोग करता रहा। बीच में मूड बदलने के लिए यहाँ के जल तथा गर्म पेय का भी स्वाद चखते हैं। पानी 70 रुपए का और चाय 160 रुपए की, मसाला डोसा 270 का और ब्रेड पकौड़ा 150 रुपए। ये सस्ते बाले काउंटर के दाम थे। दूसरे में इस पर 50-100 रुपए और जोड़ सकते हैं।

प्रतीक्षालय कक्ष में, पटना हवाई अड्डा

1 घंटे बाद पता चला कि फ्लाइट 2 घंटे औऱ लेट हो चुकी है अर्थात् 3 बजे चलेगी। सवारियों का धैर्य का बाँध टूट रहा था। वहाँ के कर्मचारियों से लेकर अधिकारियों का घेराव होता है, पूछताछ होती है। इस सबके बावजूद फ्लाइट और लेट हो रही थी। अंततः 4 बजे फ्लाइट के चलने का निर्देश मिलता है, जो सबके लिए बड़ी राहत का संदेश था।

इस बीच खाली समय का सदुपयोग करने के लिए लैप्टॉप पर कुछ लेखन कार्य करता हूँ। आखिर 4 बजे फ्लाइट में प्रवेश, साढ़े 4 बजे यात्रा शुरु।

उड़ान के लिए तैयार विमान

स्पाइस जेट को रास्ते में गाली देते हुए लोग इसके सामने खड़े होकर जमकर सेल्फी से लेकर फोटो ले रहे थे, आखिर सवारियों का जड़ प्लेन से क्या शिकायत। शिकायत तो इनका संचालन करने वाले लोगों की लेट-लतीफी तथा लापरवाही से थी। सवारियों के घेराव का दवाव कुछ ऐसा रहा कि 2 घंटे का सफर महज ढेढ़ घंटे में पूरा होता है और 6 बजे दिल्ली हवाइ अड्डे पर विमान उतरता है। 

हवाइ जहाज में सीट इस बार वाईं ओर बीच की मिली थी, बाहर ढलती शाम के साथ आसमां में डूबते सूर्य़ का नजारा विशेष था, जिसकी फोटो खिड़की के साथ बैठे बालक से खिंचवाते रहे।

सूर्यास्त का दिलकश हवाई नजारा

पुरानी हवाई यात्राओं की स्मृतियां झंकृत हो रहीं थी और फ्लाइट की लेट-लतीफी एक दैवीय प्रयोजन का हिस्सा लग रहीं थी। 
हवाई जहाज में यात्री सेवा

उतरने की तैयारी में हवाई यान

दिल्ली पहुँचने से पहले उतरने की तैयारी की घोषणा होती है। आश्चर्य हो रहा था कि एक घंटे में ही हमें यह शुभ सूचना मिल रही थी। दिल्ली राजधानी में प्रवेश का नजारा अद्भुत था। नीचे रोशनी के जममगाते दिए कतारबद्ध जल रहे थे। कहीं चौकोर, तो कहीं षटकोण और कहीं गोल - भिन्न-भिन्न कोणों के जगमगाते डिजायन आकाश से दिख रहे थे। आसमां के सारे तारे जैसे जमीं पर सजकर हमारी फ्लाइट के स्वागत के लिए खड़े प्रतीत हो रहे थे।

मंजिल के समीप हवाई यान


यान से दिल्ली शहर का नजारा

जो भी हो हम शहर के एकदम ऊपर से नीचे उतर रहे थे और कुछ ही मिनटों में एक झटके के साथ विमान हवाई पट्टी पर उतरता है और अपनी गति को नियंत्रित करते हुए कुछ मिनटों के बाद खड़ा हो जाता है। फीडर बस से बाहर उतरकर 7 नबंर काउंटर से अपना बैगेज इकटठा करते हैं। 

एयरपोर्ट के एराइवल गेट पर टेक्सी से लेकर बस आदि की उम्दा सुविधाएं हैं। यहाँ से हर 15 मिनट में विशेष बसें दिल्ली रेलवे स्टेशन तथा आईएसबीटी कश्मीरी गेट के लिए चलती रहती हैं।

अराइवल गेट से  रेल्वे स्टेशन व आईएसबीटी के लिए बस सेवा

हमें याद है पाँच वर्ष पहले ये सुविधा नहीं थी, मेट्रो से होकर जाना पड़ता था, जो काफी मशक्कत भरा काम रहता था। पौन घंटे में हम आईएसबीटी पहुंचते हैं।

यहाँ से हमें सीधा ऋषिकेश-श्रीनगर जा रही बस साढ़े 8 बजे मिल जाती है, साढ़े बारह तक हरिद्वार पहुँचने का अनुमान था। लेकिन रास्ते में कोहरा शुरु हो गया था, जो सारा गणित बिगाड़ देता है। 200 किमी का दो तिहाई सफर कोहरे में पूरा होता है। 

भारी धुंध के बीच दिल्ली से हरिद्वार की ओर 

खतोली में एक छोटा वाहन सड़क से नीचे उतर चुका था। हमारी सीट चालक के पीछे थी। घने कोहरे के बीच जब बस गुजरती तो हमें रह रहकर अंदेशा होता कि बस कहीं खाइ में न लूढक जाए, क्योंकि सड़क तो कहीं दिख ही नहीं रही थी। विजिविलटी कहीं शून्य प्रतीत हो रही थी।

जीरो विजिबिल्टी के बीच चुनौतीभरा सफर

उठ उठकर सड़क को देखता, बीच में सफेद रंग की रेखा सडक का अहसास करवाती। लगता ठीक है, चालक कॉमन सेंस के सहारे चला रहा है। हम अपनी चटांक बुद्धि से तड़का क्यों लगा रहे हैं, ड्राइवर के अनुभव पर विश्वास क्यों नहीं कर लेते। 

इस तरह कब रूढ़की आ गया पता ही नहीं चला, नींद की झपकी खुली तो बस हरिद्वार में प्रवेश हो चुकी थी। हरिद्वार बस स्टैंड की कोई सबारी न होने के कारण बस सीधा हर-की-पौड़ी साइड से होकर शांतिकुंज पहुंचती है और फ्लाइऑवर के पास हमें उतार देती है। रात के अढाई बज चुके थे। धुंध के कारण हम लगभग 2 घंटे लेटे थे। लेकिन सही सलामत घर पहुँचने का संतोष साथ में था।

इस तरह वर्ष 2023 का उत्तरार्ध दस दिन के बस, ट्रेन व हवाई सफर के रोमाँच के बीच गुजरता है। मौसम की मार से लेकर, मानवीय त्रुटि, जनसेवा की लचर व्यवस्था के बीच जीवन का अनुभवजन्य शिक्षण भी चलता रहा। आखिर अनुभव से शिक्षण, यही तो जीवन का सार है। किताबी सबक हम भूल सकते हैं, लेकिन जीवन की पाठशाला में मिले अनुभवजन्य सबक सीधे ह्दय एवं अंतरात्मा के पटल पर अंकित होते हैं। आपस में सांझा करने पर कुछ शायद इन राहों पर चल रहे मुसाफिरों के कुछ काम आए।

युगऋषि परमपूज्य गुरुदेव का संदेश

मेरी चौथी झारखण्ड यात्रा, भाग-2

 

सुवर्णरेखा के संग टाटानगर से राँची का सफर

कुछ घंटे जमशेदपुर में नींद पूरा करके तरोताजा होने के बाद प्रातः 7 बजे हम टाटानगर से राँची की ओर चल पड़ते हैं। यात्रा में एक नया अनुभव जुड़ने वाला था, साथ ही आवश्यक कार्य की पूर्णाहुति भी होने वाली थी। बस स्टैंड तक पहुँचते-पहुँचते राह में जमशेदपुर में टाटा उद्योग का विस्तार देखा और समझ आया कि इसे टाटानगरी क्यों कहते हैं, अगले 3-4 दिनों यहीं प्रवास का संयोग बन रहा था, जिसमें थोड़ा और विस्तार से इसके अवलोकन का संयोग बन रहा था, जिसकी चर्चा एक अलग ब्लॉग में की जाएगी।

बस स्टैंड से हम बस में चढ़ जाते हैं और रास्ते में दायीं ओर एक शांत-स्थिर नदी के किनारे आगे बढ़ते हैं।

सुवर्णरेखा नदी को पार करते हुए, टाटानगर से राँची

देखकर सुखद आश्चर्य़ हो रहा था कि शहर इतनी सुंदर नदी के किनारे बसा है। नदी के साथ शहर के मायने बदल जाते हैं। जिन शहरों में नदी का अभाव रहता है, वहाँ कुछ मौलिक कमी खटकती रहती है, यथा चण्डीगढ़, नोएडा, दिल्ली, शिमला, मसूरी जैसे शहर तमाम खूबियों के वावजूद बिना नदी के कुछ अधूरे से लगते हैं।
सुवर्णरेखा नदी के बारे में स्थानीय लोगों से चर्चा व कुछ सर्च करने पर पता चला की यह नदी 395 किमी लम्बी है, जो राँची के पास छोटा नागपुर क्षेत्र के एक गाँव से निस्सृत होती है और झारखण्ड, पश्चिमी बंगाल औऱ उड़ीसा को पार करती हुई आखिर बंगाल की खाड़ी में गिरती है। इस नदी के रेतीय तटों में स्वर्ण के कण मिलने के कारण इसका नाम स्वर्णरेखा नदी पड़ा। हालाँकि इसके किनारे अत्यधिक खनिजों के उत्खनन तथा शहरी प्रदूषण के कारण इसकी निर्मल धार मैली हो चली है, लेकिन स्वर्ण रेखा के रुप में इसकी पहचान इसको विशिष्ट बनाती है, जिसकी निर्मलता पर ध्यान देने की जनता व सरकारी हर स्तर पर आवश्यकता है।
नीचे के वीडियो में चलती बस से लिए गए दृश्य के संग स्वर्णरेखा नदी की झलक ले सकते हैं -

कुछ मिनट के बाद पुल से इस नदी को पारकर बस शीघ्र ही शहर के बाहर हो जाती है, आगे हरे-भरे पहाड़ों के बीच हम बढ़ रहे थे। बाद में पता चला की यह शांत नदी यहाँ की ऐतिहासिक स्वर्ण रेखा नदी है, जिसमें स्वर्ण की प्रचुरता के कारण इसका यह नाम पड़ा। संभवतः यहाँ के आदिवासी नायक बिरसा मुण्डा को समर्पित चौराहे से हम वांय मुड़ते हैं।


दायां मार्ग संभवतः डिम्णा झील की ओर जा रहा था, जो यहाँ की एक मानव निर्मित झील है और पर्यटन का एक प्रमुख आकर्षण भी, जिसकी चर्चा हम दूसरे ब्लॉग में करेंगे।

अब हम टाटानगर-राँची एक्सप्रेस हाइवे पर आगे बढ़ रहे थे। फोर लेन के स्पाट, सुव्यस्थित एवं सुंदर सड़क पर बस सरपट दौड़ रही थी। स्वर्णरेखा नदी की हल्की झलक बायीं और पुनः राह में मिलती है। फिर संकड़ी पहाड़ियों के बीच बस आगे घाटी में प्रवेश करती है। अब हम कोडरमा वन्य अभयारण्य के बीच से गुजर रहे थे, जिसका प्रवेश द्वारा भी रास्ते में दायीं और दिखा, जो अन्दर 2 किमी दर्शा रहा था। इसमें अन्दर क्या है, यह अगली यात्राओं के लिए छोड़कर हम आगे बढ़ रहे थे।

बीच-बीच में टोल-प्लाजा के दर्शन हो रहे थे, जो नवनिर्मित एक्सप्रेस हाइवे की यादें ताजा कर रहे थे। यही स्थिति हरिद्वार से देहरादून, हरिद्वार से अम्बाला-चण्डीगढ़ एक्सप्रैस वे पर देखने को मिलती है। मालूम हो कि राँची-टाटानगर एक्सप्रेस वे तीन वर्ष पहले ही बनकर तैयार हुआ है। पहले इस रास्ते में 4-5 घंटे लगते थे, आज मात्र 2 घंटे में हमारी यात्रा पूरी हो रही थी। निश्चित रुप से अपने भव्य सड़क निर्माण के लिए सरकार का राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण साधुवाद का पात्र है, जो देशभर में विकास की नई पटकथा लिख रहा है।

रास्ते में जंगल के साथ तलहटी में खेतों से पटी घाटियों के दर्शन होते रहे, जिसमें प्रातः कुछ-कुछ किसान सक्रिय थे, लेकिन दोपहर की बापिसी तक इसमें बच्चों, महिलाओं व युवाओं के समूह भी जुड़ चुके थे, जिनके समूहों में दर्शन हो रहे थे। कुछ खेत में काम कर रहे थे, कुछ भेड़-बकरियों व गाय को चरा रहे थे, कुछ धान की फसल काट रहे थे, तो कहीं-कहीं फसल की थ्रेशिंग हो रही थी, बोरों में धान पैक हो रहा था तथा कहीं-कहीं खेत के किनारे ही बोरियों में धान लोड़ हो रहा था, कुछ सड़कों के किनारे संभवतः आगे मार्केट के लिए बोरियों के ढेर जमा कर रहे थे। पहली यात्रा के दौरान धनवाद-राँची के बीच जितने जल स्रोत मिले थे, इतने तो इस सीजन में इस मार्ग में नहीं दिखे, लेकिन रास्ते में दो मध्यम आकार की नदियों के दर्शन अवश्य हुए।


ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों के दर्शन, बीच-बीच में मन को रोमाँचित करते रहे, सहज ही गृह प्रदेश के गगनचुंबी पहाडों से इनकी तुलना होती रही। नजदीक जाकर इनको देखने का मन था कि इसमें लोग कैसे रहते होंगे। निश्चित रुप से इनमें आदिवासियों की गाँव-बस्तियाँ बसी होंगी, जो इस क्षेत्र में प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। रास्ते में चट्टानी पहाड़ जगह-जगह ध्यान आकर्षित करते रहे।



खनिज भंडार से सम्पन्न झारखण्ड के पहाड़ों में यह कोई नई बात नहीं थी। इनमें कौन से खनिज होंगे, ये तो क्षेत्रीय लोग व विशेषज्ञ ही बेहतर बता सकते हैं। हम तो अनुमान भर ही लगाते रहे।

रास्ते में राँची के समीप (लगभग 30 किमी दूर) नवनिर्मित हनुमानजी व काली माता के मंदिरों का युग्म ध्यान आकर्षित किया, जो सामान्य से हटकर प्रतीत हो रहा था।


बाद में पता चला कि यह घाटी सोशल मीडिया में चर्चा का विषय रहती है, यहाँ टाइम जोन बदल जाता है। कुछ यहाँ भूतों की कहानियां जोड़ते हैं, जहाँ भयंकर दुर्घटनाएं होती रही हैं। वैज्ञानिक का मानना है कि यहाँ संभवतः धातु के पहाडों के कारण कई तरह की अजूबी घटनाएं व दुर्घटनाएं होती होंगी। जो भी हो मंदिर बनने के बाद से मान्यता है कि ऐसी दुर्घटनाओं में कमी आई है।

दो घंटे में हम राँची के समीप पहुँच रहे थे, रास्ते में दशम जल प्रपात का बोर्ड़ मिला। समय अभाव के कारण अभी इसके दर्शन नहीं कर सकते थे, जिसे अगली यात्रा की सूचि में डाल देते हैं। अपने गन्तव्य पर बस से उतरकर ऑटो कर ग्रामीण आंचल में स्थित अकादमिक संस्थान तक पहुँचते हैं। रास्ते में स्थानीय ढावे में पत्ते के ढोने में जलेवी को परोसने का इको-फ्रेंडली अंदाज सराहनीय लगा।


यहाँ के विश्वविद्यालय के नए परिसर को बनते देख प्रसन्नता हुई। नौ वर्ष पूर्व जो विश्वविद्यालय किसी किराए के भवन से चल रहा था, आज वह स्वतंत्र रुपाकार ले रहा था। साथ ही यहाँ एनईपी (नई शिक्षा नीति) को चरणवद्ध रुप से लागू होते देख अच्छा लगा।

बापिसी में रास्ते में चाय-नाश्ते के लिए एक ढावे पर बस रुकती है। बाहर एक क्षेत्रिय महिला ने ताजा सब्जियों व दालों के पैकेटों से भरी दुकान सजा रखी थी, जिसमें क्षेत्रीय उत्पादों का बहुत सुंदर प्रदर्शन किया हुआ था।


यहीं पर एक क्षेत्रीय परिजन से चर्चा करने पर पता चला कि यहाँ इस समय धान की फसल तैयार हो चुकी है व इसकी खेती हो रही है। थोड़ी ही दूरी पर एक नदी भी यहाँ बहती है। फलों का चलन यहाँ कम दिखा, सब्जियों का उत्पादन आवश्यकता के अनुरुप होता है। शहर की आवश्यकता को पूरा करने के हिसाब से शहरों के बास के गाँव में अधिकाँशतः सब्जि उत्पादन होता है।


बापिसी में रांची से लेकर टाटानगर को दायीं ओऱ से देखने का मौका मिला, जिसमें सुंदर पहाड़ों, छोटी-बड़ी घाटियों, खेल-खलिहानों व गाँवों के सुन्दर नजारों को देखता रहा और यथासंभव मोबाइल से कैप्चर करता रहा। 

रास्ते में क्षेत्रीय परिजन, स्कूल के छात्र-छात्राएं बसों में चढ़ रहे थे। एक सज्जन टाटानगर आ रहे थे, इनसे चर्चा के साथ यहाँ की मोटी-मोटी जानकारियां मिलती रहीं और हम अपनी जिज्ञासाऔं को शांत करते रहे।

इस राह के प्राकृतिक सौंदर्य से जुड़ी सुखद स्मृतियों गहरे अंकित हो रही थीं। हालाँकि सरकारी या प्राइवेट बाहनों में सफर की अपनी सीमा रहती है, इनमें बैठे आप एक सीमा तक ही अपनी खिड़की की साइड से ही नजारों को देख सकते हैं या कैप्चर कर सकते हैं। अपने स्वतंत्र वाहन में रास्ते का अलग आनन्द रहता है, जिसमें आप दृश्यों का पूरा अवलोकन कर सकते हैं तथा जहाँ आवश्यकता हो वहाँ रुककर मनभावन दृश्यों के फोटो या विडियोज बना सकते हैं।


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