रविवार, 31 दिसंबर 2023

मेरी चौथी झारखण्ड यात्रा, भाग-3

 

दिव्य रथ से लेकर हवाई सफर का रोमाँच

टाटानगर से पटना, दिव्य रथ बस सेवा

जमशेदपुर में तीन दिवसीय अकादमिक कार्यक्रम को पूरा कर अब घर बापिसी होनी थी। बापिसी में रेल की वजाए बस और फ्लाइट से यात्रा का संयोग बन रहा था। अतः पहले चरण में टाटानगर से पटना दिव्य रथ में सवार होते हैं, जो एक नया अनुभव होने जा रहा था। हालाँकि एक बार अमृतसर से कटरा तक पिछले ही माह ऐसा सफर कर चुका था, लेकिन इस बार सिंगल बर्थ वाली सीट थी। रात को 7 बजे टिकट में चलने का समय था, लेकिन चलते-चलते बस को 8 बज चुके थे। प्रातः छः बजे पहुँचने का अनुमान था। लेकिन बस साढ़े पाँच बजे ही पटना पहुँचा देती है।

रात के अंधेरे में बाहर बहुत अधिक कुछ तो नहीं दिख रहा था, लेकिन रोशनी में जगमगाते शहर के भवन, दुकानें, मॉल्ज आदि के भव्य दर्शन अवश्य रास्ते भर होते रहे। दिव्य रथ की खासियत यह भी थी कि हमें नीचे लेट कर सफर करने का बर्थ मिला था, जिसमें सवारी जब चाहे लेट कर सो सकती थी। हालांकि हम तो अधिकाँश समय बाहर के नजारों को ही निहारते रहे और पिछले तीन-चार दिनों के यादगार अनुभवों व लिए गए शिक्षण की जुगाली करते रहे।



रास्ते में बस ग्यारह बजे के आसपास एक स्थान पर भोजन के लिए रूकती है। भोजन के साथ यहाँ एक नई तरह की व्यवस्था थी। जिसमें परात में सजे सफेद रसगुल्ले और गुलाव जामुन की दुकान थी। रात्रि भोजन के लिए बस यहाँ आधे घण्टे के लिए रुकती है। लेकिन सवारियां सबसे पहले रसगुल्लों व गुलाव जामुन पर ही टूट पड रही थी। इसके दस मिनट बाद यहाँ गर्मागर्म चाय-कॉफी परोसी जा रही थी। ठंडी रात में इनका महत्व भुगतभोगी समझ सकते हैं।

रसगुल्ला, गुलाब-जामुन की विशेष व्यवस्था

प्रातः पटना में पहारी नामक स्थान पर बस रुकती है। यह मेन रोड पर स्थित एक खुला स्टेशन है। पटना का आईएसबीटी यहाँ से 3 किमी अन्दर है। सड़क के किनारे बना लकड़ी-तरपाल आदि का रैनवसेरा सवारियों की एक मात्र शरणस्थली थी। सो हम भी अगली व्यवस्था होने से पूर्व यहीं एक बैंच पर बैठते हैं। यहाँ से गायत्री शक्तिपीठ 6.7 किमी तथा पटना साहिब गुरुद्वारा 4.5 किमी औऱ एयरपोर्ट 15 किमी की दूरी पर था। 

कुल्हड चाय का नया अंदाज

कंकरवाग स्थित गायत्र शक्तिपीठ में रुकने की योजना के अनुरुप ऑटो से वहाँ पहुँचते हैं। मेट्रो का कार्य़ प्रगति पर था, सो ऑटो शॉर्टकट गलियों से गन्तव्य तक पहुँचा देता है। यहाँ का गायत्री शक्तिपीठ युवाओं की रचनात्मक गतिविधियों के लिए खासा प्रसिद्ध है। जिसका जिक्र खान सर कर चुके हैं, हाल ही के कार्यक्रम में अवध औझा सर भी इनके कार्यक्रम में शामिल हो चुके हैं।

गायत्री शक्तिपीठ, कांकरबाग, पटना

26 तारीक की प्रातः एक नए हवाई यात्रा का अनुभव जुड़ने वाला था, जो शायद हवाई यात्रियों के काम आए। स्पाइस जेट से टिकट बुक थी, जिसमें पहली बार हम सफर कर रहे थे। इनके निर्देश के अनुसार, 3 घंटा पहले एयरपोर्ट पर पहुँचना था, सो समय पर सुबह 8 बजे पहुँच जाता हूँ। पता चला कि फ्लाइट 2 घंटे लेट है। एजेंट के माध्यम से बुकिंग के कारण हमें मोबाइल तथा मेल से अपडेट नहीं मिल सके, यह पहला सबक था। अतः जब भी टिकट बुक करें, तो सवारी का मोबाइल नम्बर तथा जीमेल ही दें, ताकि लेट लतीफी के सारे संदेश यात्री तक आते रहें और वह उसी अनुरुप अपनी यात्रा की व्यवस्था को पुनर्निधारित कर सके। एक घंटा इंतजार के बाद 9 बजे अंदर प्रवेश मिलता है।

अपना सामान जमा करने के बाद, अंदर प्रतीक्षालय में पहुँचते हैं। लेकिन अब फ्लाइट 11 की बजाए 1 बजे तक लेट हो चुकी थी। अपने मोबाइल, साथ रखी पुस्तकों तथा वहाँ उपलब्ध समाचार पत्रों के साथ समय का सदुपयोग करता रहा। बीच में मूड बदलने के लिए यहाँ के जल तथा गर्म पेय का भी स्वाद चखते हैं। पानी 70 रुपए का और चाय 160 रुपए की, मसाला डोसा 270 का और ब्रेड पकौड़ा 150 रुपए। ये सस्ते बाले काउंटर के दाम थे। दूसरे में इस पर 50-100 रुपए और जोड़ सकते हैं।

प्रतीक्षालय कक्ष में, पटना हवाई अड्डा

1 घंटे बाद पता चला कि फ्लाइट 2 घंटे औऱ लेट हो चुकी है अर्थात् 3 बजे चलेगी। सवारियों का धैर्य का बाँध टूट रहा था। वहाँ के कर्मचारियों से लेकर अधिकारियों का घेराव होता है, पूछताछ होती है। इस सबके बावजूद फ्लाइट और लेट हो रही थी। अंततः 4 बजे फ्लाइट के चलने का निर्देश मिलता है, जो सबके लिए बड़ी राहत का संदेश था।

इस बीच खाली समय का सदुपयोग करने के लिए लैप्टॉप पर कुछ लेखन कार्य करता हूँ। आखिर 4 बजे फ्लाइट में प्रवेश, साढ़े 4 बजे यात्रा शुरु।

उड़ान के लिए तैयार विमान

स्पाइस जेट को रास्ते में गाली देते हुए लोग इसके सामने खड़े होकर जमकर सेल्फी से लेकर फोटो ले रहे थे, आखिर सवारियों का जड़ प्लेन से क्या शिकायत। शिकायत तो इनका संचालन करने वाले लोगों की लेट-लतीफी तथा लापरवाही से थी। सवारियों के घेराव का दवाव कुछ ऐसा रहा कि 2 घंटे का सफर महज ढेढ़ घंटे में पूरा होता है और 6 बजे दिल्ली हवाइ अड्डे पर विमान उतरता है। 

हवाइ जहाज में सीट इस बार वाईं ओर बीच की मिली थी, बाहर ढलती शाम के साथ आसमां में डूबते सूर्य़ का नजारा विशेष था, जिसकी फोटो खिड़की के साथ बैठे बालक से खिंचवाते रहे।

सूर्यास्त का दिलकश हवाई नजारा

पुरानी हवाई यात्राओं की स्मृतियां झंकृत हो रहीं थी और फ्लाइट की लेट-लतीफी एक दैवीय प्रयोजन का हिस्सा लग रहीं थी। 
हवाई जहाज में यात्री सेवा

उतरने की तैयारी में हवाई यान

दिल्ली पहुँचने से पहले उतरने की तैयारी की घोषणा होती है। आश्चर्य हो रहा था कि एक घंटे में ही हमें यह शुभ सूचना मिल रही थी। दिल्ली राजधानी में प्रवेश का नजारा अद्भुत था। नीचे रोशनी के जममगाते दिए कतारबद्ध जल रहे थे। कहीं चौकोर, तो कहीं षटकोण और कहीं गोल - भिन्न-भिन्न कोणों के जगमगाते डिजायन आकाश से दिख रहे थे। आसमां के सारे तारे जैसे जमीं पर सजकर हमारी फ्लाइट के स्वागत के लिए खड़े प्रतीत हो रहे थे।

मंजिल के समीप हवाई यान


यान से दिल्ली शहर का नजारा

जो भी हो हम शहर के एकदम ऊपर से नीचे उतर रहे थे और कुछ ही मिनटों में एक झटके के साथ विमान हवाई पट्टी पर उतरता है और अपनी गति को नियंत्रित करते हुए कुछ मिनटों के बाद खड़ा हो जाता है। फीडर बस से बाहर उतरकर 7 नबंर काउंटर से अपना बैगेज इकटठा करते हैं। 

एयरपोर्ट के एराइवल गेट पर टेक्सी से लेकर बस आदि की उम्दा सुविधाएं हैं। यहाँ से हर 15 मिनट में विशेष बसें दिल्ली रेलवे स्टेशन तथा आईएसबीटी कश्मीरी गेट के लिए चलती रहती हैं।

अराइवल गेट से  रेल्वे स्टेशन व आईएसबीटी के लिए बस सेवा

हमें याद है पाँच वर्ष पहले ये सुविधा नहीं थी, मेट्रो से होकर जाना पड़ता था, जो काफी मशक्कत भरा काम रहता था। पौन घंटे में हम आईएसबीटी पहुंचते हैं।

यहाँ से हमें सीधा ऋषिकेश-श्रीनगर जा रही बस साढ़े 8 बजे मिल जाती है, साढ़े बारह तक हरिद्वार पहुँचने का अनुमान था। लेकिन रास्ते में कोहरा शुरु हो गया था, जो सारा गणित बिगाड़ देता है। 200 किमी का दो तिहाई सफर कोहरे में पूरा होता है। 

भारी धुंध के बीच दिल्ली से हरिद्वार की ओर 

खतोली में एक छोटा वाहन सड़क से नीचे उतर चुका था। हमारी सीट चालक के पीछे थी। घने कोहरे के बीच जब बस गुजरती तो हमें रह रहकर अंदेशा होता कि बस कहीं खाइ में न लूढक जाए, क्योंकि सड़क तो कहीं दिख ही नहीं रही थी। विजिविलटी कहीं शून्य प्रतीत हो रही थी।

जीरो विजिबिल्टी के बीच चुनौतीभरा सफर

उठ उठकर सड़क को देखता, बीच में सफेद रंग की रेखा सडक का अहसास करवाती। लगता ठीक है, चालक कॉमन सेंस के सहारे चला रहा है। हम अपनी चटांक बुद्धि से तड़का क्यों लगा रहे हैं, ड्राइवर के अनुभव पर विश्वास क्यों नहीं कर लेते। 

इस तरह कब रूढ़की आ गया पता ही नहीं चला, नींद की झपकी खुली तो बस हरिद्वार में प्रवेश हो चुकी थी। हरिद्वार बस स्टैंड की कोई सबारी न होने के कारण बस सीधा हर-की-पौड़ी साइड से होकर शांतिकुंज पहुंचती है और फ्लाइऑवर के पास हमें उतार देती है। रात के अढाई बज चुके थे। धुंध के कारण हम लगभग 2 घंटे लेटे थे। लेकिन सही सलामत घर पहुँचने का संतोष साथ में था।

इस तरह वर्ष 2023 का उत्तरार्ध दस दिन के बस, ट्रेन व हवाई सफर के रोमाँच के बीच गुजरता है। मौसम की मार से लेकर, मानवीय त्रुटि, जनसेवा की लचर व्यवस्था के बीच जीवन का अनुभवजन्य शिक्षण भी चलता रहा। आखिर अनुभव से शिक्षण, यही तो जीवन का सार है। किताबी सबक हम भूल सकते हैं, लेकिन जीवन की पाठशाला में मिले अनुभवजन्य सबक सीधे ह्दय एवं अंतरात्मा के पटल पर अंकित होते हैं। आपस में सांझा करने पर कुछ शायद इन राहों पर चल रहे मुसाफिरों के कुछ काम आए।

युगऋषि परमपूज्य गुरुदेव का संदेश

मेरी चौथी झारखण्ड यात्रा, भाग-2

 

सुवर्णरेखा के संग टाटानगर से राँची का सफर

कुछ घंटे जमशेदपुर में नींद पूरा करके तरोताजा होने के बाद प्रातः 7 बजे हम टाटानगर से राँची की ओर चल पड़ते हैं। यात्रा में एक नया अनुभव जुड़ने वाला था, साथ ही आवश्यक कार्य की पूर्णाहुति भी होने वाली थी। बस स्टैंड तक पहुँचते-पहुँचते राह में जमशेदपुर में टाटा उद्योग का विस्तार देखा और समझ आया कि इसे टाटानगरी क्यों कहते हैं, अगले 3-4 दिनों यहीं प्रवास का संयोग बन रहा था, जिसमें थोड़ा और विस्तार से इसके अवलोकन का संयोग बन रहा था, जिसकी चर्चा एक अलग ब्लॉग में की जाएगी।

बस स्टैंड से हम बस में चढ़ जाते हैं और रास्ते में दायीं ओर एक शांत-स्थिर नदी के किनारे आगे बढ़ते हैं।

सुवर्णरेखा नदी को पार करते हुए, टाटानगर से राँची

देखकर सुखद आश्चर्य़ हो रहा था कि शहर इतनी सुंदर नदी के किनारे बसा है। नदी के साथ शहर के मायने बदल जाते हैं। जिन शहरों में नदी का अभाव रहता है, वहाँ कुछ मौलिक कमी खटकती रहती है, यथा चण्डीगढ़, नोएडा, दिल्ली, शिमला, मसूरी जैसे शहर तमाम खूबियों के वावजूद बिना नदी के कुछ अधूरे से लगते हैं।
सुवर्णरेखा नदी के बारे में स्थानीय लोगों से चर्चा व कुछ सर्च करने पर पता चला की यह नदी 395 किमी लम्बी है, जो राँची के पास छोटा नागपुर क्षेत्र के एक गाँव से निस्सृत होती है और झारखण्ड, पश्चिमी बंगाल औऱ उड़ीसा को पार करती हुई आखिर बंगाल की खाड़ी में गिरती है। इस नदी के रेतीय तटों में स्वर्ण के कण मिलने के कारण इसका नाम स्वर्णरेखा नदी पड़ा। हालाँकि इसके किनारे अत्यधिक खनिजों के उत्खनन तथा शहरी प्रदूषण के कारण इसकी निर्मल धार मैली हो चली है, लेकिन स्वर्ण रेखा के रुप में इसकी पहचान इसको विशिष्ट बनाती है, जिसकी निर्मलता पर ध्यान देने की जनता व सरकारी हर स्तर पर आवश्यकता है।
नीचे के वीडियो में चलती बस से लिए गए दृश्य के संग स्वर्णरेखा नदी की झलक ले सकते हैं -

कुछ मिनट के बाद पुल से इस नदी को पारकर बस शीघ्र ही शहर के बाहर हो जाती है, आगे हरे-भरे पहाड़ों के बीच हम बढ़ रहे थे। बाद में पता चला की यह शांत नदी यहाँ की ऐतिहासिक स्वर्ण रेखा नदी है, जिसमें स्वर्ण की प्रचुरता के कारण इसका यह नाम पड़ा। संभवतः यहाँ के आदिवासी नायक बिरसा मुण्डा को समर्पित चौराहे से हम वांय मुड़ते हैं।


दायां मार्ग संभवतः डिम्णा झील की ओर जा रहा था, जो यहाँ की एक मानव निर्मित झील है और पर्यटन का एक प्रमुख आकर्षण भी, जिसकी चर्चा हम दूसरे ब्लॉग में करेंगे।

अब हम टाटानगर-राँची एक्सप्रेस हाइवे पर आगे बढ़ रहे थे। फोर लेन के स्पाट, सुव्यस्थित एवं सुंदर सड़क पर बस सरपट दौड़ रही थी। स्वर्णरेखा नदी की हल्की झलक बायीं और पुनः राह में मिलती है। फिर संकड़ी पहाड़ियों के बीच बस आगे घाटी में प्रवेश करती है। अब हम कोडरमा वन्य अभयारण्य के बीच से गुजर रहे थे, जिसका प्रवेश द्वारा भी रास्ते में दायीं और दिखा, जो अन्दर 2 किमी दर्शा रहा था। इसमें अन्दर क्या है, यह अगली यात्राओं के लिए छोड़कर हम आगे बढ़ रहे थे।

बीच-बीच में टोल-प्लाजा के दर्शन हो रहे थे, जो नवनिर्मित एक्सप्रेस हाइवे की यादें ताजा कर रहे थे। यही स्थिति हरिद्वार से देहरादून, हरिद्वार से अम्बाला-चण्डीगढ़ एक्सप्रैस वे पर देखने को मिलती है। मालूम हो कि राँची-टाटानगर एक्सप्रेस वे तीन वर्ष पहले ही बनकर तैयार हुआ है। पहले इस रास्ते में 4-5 घंटे लगते थे, आज मात्र 2 घंटे में हमारी यात्रा पूरी हो रही थी। निश्चित रुप से अपने भव्य सड़क निर्माण के लिए सरकार का राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण साधुवाद का पात्र है, जो देशभर में विकास की नई पटकथा लिख रहा है।

रास्ते में जंगल के साथ तलहटी में खेतों से पटी घाटियों के दर्शन होते रहे, जिसमें प्रातः कुछ-कुछ किसान सक्रिय थे, लेकिन दोपहर की बापिसी तक इसमें बच्चों, महिलाओं व युवाओं के समूह भी जुड़ चुके थे, जिनके समूहों में दर्शन हो रहे थे। कुछ खेत में काम कर रहे थे, कुछ भेड़-बकरियों व गाय को चरा रहे थे, कुछ धान की फसल काट रहे थे, तो कहीं-कहीं फसल की थ्रेशिंग हो रही थी, बोरों में धान पैक हो रहा था तथा कहीं-कहीं खेत के किनारे ही बोरियों में धान लोड़ हो रहा था, कुछ सड़कों के किनारे संभवतः आगे मार्केट के लिए बोरियों के ढेर जमा कर रहे थे। पहली यात्रा के दौरान धनवाद-राँची के बीच जितने जल स्रोत मिले थे, इतने तो इस सीजन में इस मार्ग में नहीं दिखे, लेकिन रास्ते में दो मध्यम आकार की नदियों के दर्शन अवश्य हुए।


ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों के दर्शन, बीच-बीच में मन को रोमाँचित करते रहे, सहज ही गृह प्रदेश के गगनचुंबी पहाडों से इनकी तुलना होती रही। नजदीक जाकर इनको देखने का मन था कि इसमें लोग कैसे रहते होंगे। निश्चित रुप से इनमें आदिवासियों की गाँव-बस्तियाँ बसी होंगी, जो इस क्षेत्र में प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। रास्ते में चट्टानी पहाड़ जगह-जगह ध्यान आकर्षित करते रहे।



खनिज भंडार से सम्पन्न झारखण्ड के पहाड़ों में यह कोई नई बात नहीं थी। इनमें कौन से खनिज होंगे, ये तो क्षेत्रीय लोग व विशेषज्ञ ही बेहतर बता सकते हैं। हम तो अनुमान भर ही लगाते रहे।

रास्ते में राँची के समीप (लगभग 30 किमी दूर) नवनिर्मित हनुमानजी व काली माता के मंदिरों का युग्म ध्यान आकर्षित किया, जो सामान्य से हटकर प्रतीत हो रहा था।


बाद में पता चला कि यह घाटी सोशल मीडिया में चर्चा का विषय रहती है, यहाँ टाइम जोन बदल जाता है। कुछ यहाँ भूतों की कहानियां जोड़ते हैं, जहाँ भयंकर दुर्घटनाएं होती रही हैं। वैज्ञानिक का मानना है कि यहाँ संभवतः धातु के पहाडों के कारण कई तरह की अजूबी घटनाएं व दुर्घटनाएं होती होंगी। जो भी हो मंदिर बनने के बाद से मान्यता है कि ऐसी दुर्घटनाओं में कमी आई है।

दो घंटे में हम राँची के समीप पहुँच रहे थे, रास्ते में दशम जल प्रपात का बोर्ड़ मिला। समय अभाव के कारण अभी इसके दर्शन नहीं कर सकते थे, जिसे अगली यात्रा की सूचि में डाल देते हैं। अपने गन्तव्य पर बस से उतरकर ऑटो कर ग्रामीण आंचल में स्थित अकादमिक संस्थान तक पहुँचते हैं। रास्ते में स्थानीय ढावे में पत्ते के ढोने में जलेवी को परोसने का इको-फ्रेंडली अंदाज सराहनीय लगा।


यहाँ के विश्वविद्यालय के नए परिसर को बनते देख प्रसन्नता हुई। नौ वर्ष पूर्व जो विश्वविद्यालय किसी किराए के भवन से चल रहा था, आज वह स्वतंत्र रुपाकार ले रहा था। साथ ही यहाँ एनईपी (नई शिक्षा नीति) को चरणवद्ध रुप से लागू होते देख अच्छा लगा।

बापिसी में रास्ते में चाय-नाश्ते के लिए एक ढावे पर बस रुकती है। बाहर एक क्षेत्रिय महिला ने ताजा सब्जियों व दालों के पैकेटों से भरी दुकान सजा रखी थी, जिसमें क्षेत्रीय उत्पादों का बहुत सुंदर प्रदर्शन किया हुआ था।


यहीं पर एक क्षेत्रीय परिजन से चर्चा करने पर पता चला कि यहाँ इस समय धान की फसल तैयार हो चुकी है व इसकी खेती हो रही है। थोड़ी ही दूरी पर एक नदी भी यहाँ बहती है। फलों का चलन यहाँ कम दिखा, सब्जियों का उत्पादन आवश्यकता के अनुरुप होता है। शहर की आवश्यकता को पूरा करने के हिसाब से शहरों के बास के गाँव में अधिकाँशतः सब्जि उत्पादन होता है।


बापिसी में रांची से लेकर टाटानगर को दायीं ओऱ से देखने का मौका मिला, जिसमें सुंदर पहाड़ों, छोटी-बड़ी घाटियों, खेल-खलिहानों व गाँवों के सुन्दर नजारों को देखता रहा और यथासंभव मोबाइल से कैप्चर करता रहा। 

रास्ते में क्षेत्रीय परिजन, स्कूल के छात्र-छात्राएं बसों में चढ़ रहे थे। एक सज्जन टाटानगर आ रहे थे, इनसे चर्चा के साथ यहाँ की मोटी-मोटी जानकारियां मिलती रहीं और हम अपनी जिज्ञासाऔं को शांत करते रहे।

इस राह के प्राकृतिक सौंदर्य से जुड़ी सुखद स्मृतियों गहरे अंकित हो रही थीं। हालाँकि सरकारी या प्राइवेट बाहनों में सफर की अपनी सीमा रहती है, इनमें बैठे आप एक सीमा तक ही अपनी खिड़की की साइड से ही नजारों को देख सकते हैं या कैप्चर कर सकते हैं। अपने स्वतंत्र वाहन में रास्ते का अलग आनन्द रहता है, जिसमें आप दृश्यों का पूरा अवलोकन कर सकते हैं तथा जहाँ आवश्यकता हो वहाँ रुककर मनभावन दृश्यों के फोटो या विडियोज बना सकते हैं।


मेरी चौथी झारखण्ड यात्रा, भाग-1


हरिद्वार से टाटानगर (जमशेदपुर) की रेल यात्रा

हरिद्वार रेल्वे स्टेशन, 17 दिसम्बर, 2023

नौ वर्ष वाद मेरी यह चौथी झारखण्ड यात्रा थी, 2014 में संयोगवश प्रारम्भ यात्रा अभियान की पूर्णाहुति जैसी और एक नए अभियान के शुभारम्भ जैसी। यहाँ हमारे अंतिम शोध छात्र की पीएचडी उपाधि पूर्ण हो रही थी। जीवन की विषम परिस्थितियों के साथ कोविड की दुश्वारियों को पार करते हुए तमाम विघ्न-बाधाओं के बावजूद कार्य पूर्ण हो रहा था, यह दर्शाते हुए कि जिसके भाग्य में जो वदा होता है, वह उसको मिलकर रहता है। हालाँकि इसमें व्यक्ति का श्रम, लग्न, त्याग और अपनों के सहयोग की अपनी भूमिका रहती है। बस व्यक्ति हिम्मत न हारे, आशा का दामन न छोड़े और अपने लक्षिय ध्येय की खातिर अनवरत प्रय़ास करता रहे, जो मंजिल देर-सबेर मिलकर ही रहती है।

इस बार धनवाद-रांची की वजाए पहले टाटानगर - जमशेदपुर जाने का संयोग बन रहा था। इसलिए पहली बार कलिंगा उत्कल एक्सप्रेस रेल से जा रहा था, जो सीधा हरिद्वार से होकर जमशेदपुर-टाटानगर पहुंचती है और इसका अंतिम पड़ाव रहता है उड़ीसा प्रांत का प्रख्यात तीर्थ स्थल श्री जगन्नाथधाम पूरी। दस दिवसीय यह यात्रा कई मायनों में यादगार रही। रेल से लेकर बस तथा हवाई सफर के रोमाँच के बीच अनुभव की कमी तथा कुछ लापरवाही के चलते छोटी-छोटी चूकें कड़क सवक देती गई और अनुभव से शिक्षण का क्रम भी यात्रा के समानान्तर चलता रहा। फिर कुछ देव निर्धारित जीवन के संयोग, जिनके साथ ईश्वर हर जीवात्मा की विकास यात्रा को अपने ढंग से पूर्णता के मुकाम की ओर गतिशील करता है। अगले 4-5 ब्लॉगज की सीरिज में इन्हीं जीवन यात्रा के अनुभवों को साझा करने का प्रयास रहेगा, जो शायद पाठकों के लिए कभी कुछ काम आएं। 

इस यात्रा का शुभारम्भ ही अद्भुत रहा, रेल अपने प्रारम्भिक पड़ाव योग-नगरी ऋषिकेश से ही पूरा तीन घंटा लेट थी। यात्रा के प्रारम्भ में ही ऐसी लेट-लतीफी का यह हमारा पहला अनुभव था, कि ऐसा भी हो सकता है। आगे से फिर घर से ही रेल के स्टेटस का अपडेट लेकर चला जाए, जिससे रेल्वे स्टेशन पर मौसम की विषमता के बीच अनावश्यक तप न करना पड़े। हालाँकि आज के अनुभव का अपना कड़क मजा रहा। आधा समय तो स्टेशन के प्रतीक्षालय कक्ष में इंतजार करते बीते, एक चौथाई समय स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर टहलते हुए और शेष चौथाई समय ट्रेन की आने की घोषणा के चलते ट्रेन के इंतजार में टकटकी लगाए हुए। सूर्योदय से पहले की ठण्डी में हाथ जैसे जम रहे थे, गंगाजी से बह रहे ठंडी हवा के तीखे झौंके सीधे टोपी के आर-पार हो रहे थे। क्योंकि हमारे इंतजार का स्थल स्टेशन के थोड़ा बाहर पड़ रहा था, रेल की सेकण्ड लास्ट बोगी में हमें चढ़ना था। लेकिन यात्रा के उत्साह की ऊर्जा इंतजार की वाध्यता और शीतल हवा के तीखे झौंको पर भारी पड़ रही थी।

दिसम्बर की सर्दी के बीच सफर का रोमाँच 

फिर शरीर को गर्म रखने के लिए प्लेटफॉर्म पर लगे स्टाल पर बीच-बीच में गर्म पेय का सहारा लेते रहे, जिससे कड़क ठंड के बीच कुछ राहत अवश्य महसूस होती रही। जिस रेल से 6.55 पर प्रातः हरिद्वार से कूच करना था, वो आखिर पौने 10 बजे पहुँचती है और दस मिनट के विराम के बाद लगभग 10 बजे चल पड़ती है। इस तरह पूरा 3 घण्टा लेट। 2 बजे के आसपास गाजियावाद और पौने 3 बजे निजामुद्दीन से होती हुई, मथुरा को पार कर सवा छः बजे आगरा पहुँचती है। रेल साढ़े तीन घंटा लेट हो चुकी थी। ग्वालियर पहुँचते-पहुँचते रेल लगभग 4 घंटा लेट थी। रात को पौने 9 बजे यहाँ पहुंचती है। साइड अपर बर्थ में सीट होने के कारण नीचे उतर कर बाहर देखने की अधिक गुंजाइश नहीं थी और मनःस्थिति भी एकांतिक चिंतन-मनन तथा अध्ययन के साथ विश्राम करते हुए सफर की थी। रास्ते में साथ लिए ब्रेड तथा जैम के साथ गर्म पेय का मिश्रण रात्रि आहार बनता है। रात को रेल थोड़ा गति पकड़ती है। प्रातः दिन खुलते-खुलते साढ़े 6 बजे हम वीरसिंहपुर पहुंच चुके थे। रेल अब 2 घंटे लेट थी। अपने बर्थ में ही बैठे-लेटे भाव सुमिरन के साथ मानसिक ध्यान-पूजा आदि का क्रम चलता रहा।

सुबह 9 बजे के आस-पास पेंद्रा रोड़ पर रेल रुकती है। यहाँ छुट्टियों में घर गई विभाग की एक छात्रा से मुलाकात होती है, जो हमारे लिए नाश्ते की व्यवस्था कर रखी थी। 

पेंद्रा रोड़ स्टेशन का दृश्य

बिलासपुर आते-आते रेल 3 घंटे लेट हो चुकी थी और 11 बजे के आसपास यहाँ पहुंचते हैं, जहाँ विश्वविद्यालय के योगा में दीक्षित पुराने छात्रों से मुलाकात होती है, जो सफर के लिए लंच की व्यवस्था कर बैठे थे। हालाँकि हम स्वभाववश ऐसी सेवा लेने से संकोच करते हैं, लेकिन संयोग से घटी ये अप्रत्याशित मुलाकातें विश्वविद्यालय परिवार के आत्मीय विस्तार से गाढ़ा परिचय करवा रही थी और इनका भावनात्मक स्पर्श अंतःकरण को कहीं गहरे स्पर्श कर रहा था। 

रात को राउरकेला पहुँचते – पहुंचते रेल पाँच घंटा लेट हो चुकी थी और रात के आठ बज चुके थे। शाम छः बजे जमशेदपुर पहुंचने वाली रेल रात 12 बजे पहुँचती है और रेल 6 घण्टे लेट हो चुकी थी। इस तरह रेल की लेट-लतीफी का यह हमारा पहला अनुभव था। स्टेशन पर मार्ग में आतिथ्य के सुत्रधार डॉ. दीपकजी हमारा इंतजार कर रहे थे, जिन्होंने रात्रि विश्राम की व्यवस्था घर पर कर रखी थी। 

रेल में हमारी सीट साइड अपर बर्थ की थी, सो हमें किसी तरह की दिक्कत नहीं हुई। रेल के लम्बे सफर में यह सीट हमारे अनुभव में सबसे विश्रामदायी रहती है। एक बैग को पैर की और रखे, तो दूसरे को साइड में टांगे आराम से कभी लेटे, तो कभी उठकर पढते-लिखते व चिंतन-मनन करते बिताते रहे। बीच-बीच में अधिक बोअर होते तो गर्म पेय की चुस्कियों के साथ मूड बदलते। केविन में बैठे परिवार की बातें, छोटे बच्चों की आपसी नोक-झौंक भरी शरारतें, बड़ों से खाने-पीने की उनकी तमाम तरह की फरमाइशें रास्ते भर केविन में घर-परिवार जैसा माहौल बनाऐ रखीं। 

एक नन्हें शिशु की चपलता भरी तोतली बातें विशेषरुप से आकर्षित कर रही थीं। छोटे बालक से भावनात्मक तार जुड़ रहे थे, लेकिन बहुत घुलने-मिलने से बचते रहे। क्योंकि सफर कुछ घंटों का साथ का था, फिर रास्ते में अलग होना था। परिवार पुरी धाम जा रहा था। ऐसे में अस्तित्व के सुत्रधार भगवान जगन्ननाथ को सुमरण करते हुए तटस्थ भाव से वाल गोपाल की भोली चपलता को निहारते रहे। लगा प्रभु ही आखिर हर जीवात्मा के स्वामी, परमपिता हैं, और उनकी लीला वही जाने। आज इस नन्हें बालक के माध्यम से प्रभु एक ओर हमारे सफर को आनन्ददायी बना रहे हैं और साथ ही जीवन के किन्हीं गहनतम भावनात्मक तारों को भी झंकृत कर रहे थे। 

पास के केविन में एक बाबाजी का कथा-प्रवचन भी इस यात्रा की विशेषता रही, जो पहली वार घटित होता देख रहा था। केविन की सवारियाँ भी सतसंग का पूरा आनन्द ले रही थी और बाबाजी की बातों के साथ हामी भरती हुई, इनके समर्थन में अपनी दो बातें जोड़ती हुई ज्ञान-गंगोत्री में डुबकी लगा रहीं थी। काफी देर यह सतसंग चलता रहा। हालांकि छोटा बालक बोअर हो रहा था, जब उसके धैर्य का बाँध टूट गया तो वह रोने व चिल्लाने तक लगा था। हमारा बाबाजी से विनम्र निवेदन था कि सत्संग को बालक के स्तर पर क्यों नहीं ले आते, बाल-गोपाल की लीला-कथाओं के साथ इसका मन क्यों नहीं बहलाते। खेैर, रेल में ऐसे सत्संग का माहौल हमारे लिए एक नया अनुभव था। इसके साथ रेल की लेट-लतीफी का मलाल जाता रहा। साथ ही बीच-बीच में नीचले बर्थ में आकर बाहर निहारते तो हरियाली की चादर औढे खेत खलिहान व जंगल के दृश्य मन को तरोताजा करते।

हरियाली की चादर औढे खेत-खलिहान व जंगल का बाहरी दृश्य

अगले दिन इसी रेल से आ रहा विश्वविद्यालय के छात्रों का दल, जिसे शाम 6 बजे टाटानगर पहुँचना था, वो ब्रह्ममुहूर्त में सवा 3 बजे प्रातः पहुचता है। अर्थात आज रेल पूरा 9 घंटा लेट थी। थोड़ा बहुत कोहरे का भी असर रहा होगा, लेकिन पता चला कि यह रेल ऐसी लेट-लतीफी के लिए कुख्यात है, जो प्रायः सवारियों के लिए परेशानी का सबब बनती है। विशेषकर जब किसी को आपात में जल्दी पहुँचना हो, या आगे की यात्रा इससे जुड़ी हुई हो, तो ऐसी लेत-लतीफी घातक एवं अक्षम्य श्रेणी की चूक में गिनी जा सकती है। रेल मंत्रालय को इस ओर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है।

रास्ता भर मसाले वाली इलायची व अदरक चाय तथा कॉफी ही गर्म पेय में मिलती रही। पहले दिन सर्विस चुस्त-दुरुस्त रही, दिन भर पेंट्री सेवाकर्मियों के केविन में यदा-कदा चक्कर लगते रहे। कितनी बार भोजन और नाश्ते के वारे में पूछते रहे। लेकिन दूसरे दिन सर्विस ढीली पड़ गई थी, दिन में 12-1 बजे तक पानी की बातल तक नसीव नहीं हो पायी थी। मसाला चाय से तंग आ चुकी सवारियों के लिए स्टेशन पर केतली में ताजा चाय और लेमन टी की व्यवस्था स्वागत योग्य अनुभव था। स्वाभाविक रुप में स्वारियां दिन भर टाइमपास के लिए कुछ न कुछ चुगती रहती हैं। ऐसे में लंच या डिन्नर में हल्का भोजन अपेक्षित रहता है। लेकिन रेल में पूरी थाली से कम कोई दूसरी व्यवस्था नहीं दिखी, जिसमें लगा सुधार की जरुरत है। हल्का आहार लेने के इच्छुक सवारियों के लिए हाल्फ प्लेट जैसी व्यवस्था रेल विभाग कर सकता है।

टाटानगर पहुँचकर संक्षिप्त विश्राम कर हम, प्रातः अगले गन्तव्य की ओर बढ़ते हैं, जो था यहाँ से 132 किमी की दूरी पर स्थित झारखण्ड की राजधानी रांची का एक अकादमिक संस्थान। पिछली तीन झारखण्ड यात्राओं में हम अधिकाँशतः धनवाद से होकर राँची आए थे और इस बार टाटानगर से राँची की ओर जाने का संयोग बन रहा था। सुवर्णानदी के किनारे टाटानगर-राँची एक्सप्रेैस मार्ग पर हमारी पहली यात्रा होने वाली थी। नए रुट पर सफर की उत्सुक्तता और रोमाँच का भाव स्वाभाविक था, जिसका यात्रा विवरण आप अगली पोस्ट में पढ़ सकते हैं। सुवर्णरेखा के संग टाटानगर से राँची का सफर

जुबिली पार्क, टाटानगर, जमशेदपुर, झारखण्ड, भारत

जब आया बुलावा माता वैष्णों देवी का, भाग-1


स्वर्णमंदिर से होकर भगवती माँ के द्वार तक

लम्बे समय के बाद चिरप्रतिशित शैक्षणिक भ्रमण का संयोग बन रहा था। ऐसे लग रहा था कि जैसे माता का बुलावा आखिर आ ही गया। क्योंकि दो-तीन वार पहले पूरी योजना के वावजूद यहाँ नहीं जा पाए थे। इस बार भी एक तिथि निर्धारित होने के बावजूद एक बार फिर स्थगित करना पड़ा, क्योंकि किसान आंदोलन के कारण इन तिथियों में पंजाब बंद का ऐलान हुआ और बस तथा रेल यातायात बाधित हो गए थे।

आखिर जैसे हमारे पुण्य उदय हो गए थे और रास्ता खुल गया। रात को शिक्षक और विद्यार्थियों का पूरा दल हरिद्वार से वैष्णुदेवी एक्सप्रैस में चढता है, पहला पड़ाव स्वर्णमंदिर अमृतसर था। यहां पर माथा टेकने और तन-मन से शुद्ध होकर माता के दरवार की यात्रा से बेहतर क्या हो सकता था। हरिद्वार से अमृतसर का रात का सफर सोते-सोते बीत गया। प्रातः अमृतसर पहुँचते हैं।


अमृतसर के ऐतिहासिक रेल्वे स्टेशन के बाहर से स्वर्णमंदिर के लिए बस में बैठते हैं, जो गुरुद्वारे के बाहर कुछ दूरी पर छोड़ती है। परिसर की ओर पैदल मार्ग की भव्यता देखते ही बन रही थी। पहले तंग गलियों से होकर गुजरना पड़ता था, लगा हाल ही में इस मार्ग का पुनर्निमाण हुआ है। गुरुद्वारे के बाहर स्नानगृह में यात्रियों के फ्रेश होने की उम्दा व्यवस्था है, जहाँ सभी तरोताजा होकर क्लॉक रुप में सामान जमा करते हैं और फिर मंदिर में दर्शन के लिए आगे बढ़ते हैं।  

स्वर्ण मंदिर के दिव्य दर्शन

मुख्य द्वार से प्रवेश करते ही पावन सरोवर और स्वर्ण मंदिर की पहली झलक के साथ दिव्य भावों की झंकार होती है। पावन सरोवर में आचमन के साथ तन-मन व अन्तःकरण की शुद्धि करते हुए, तीर्थ चेतना का भाव सुमरण करते हुए आगे बढ़ते है। हाथ जोड़े श्रद्धालुओं की अनुशासित भीड़, वातावरण में शब्द-कीर्तन की मधुर संगीतमय ध्वनि दर्शनार्थियों को रुहानी भाव के सागर में गोते लगाने के लिए प्रेरित करती है। भाव समाधि की इस अवस्था की अनुभूति वर्णनातीत है। इसे तो वस अनुभव किया जा सकता है, जिया जा सकता है।

परिक्रमा एवं भाव सुमरण के बाद यहाँ के यादगार पलों को केप्चर करने के लिए सेल्फी एवं फोटो का क्रम चलता है। हम इससे निवृत होकर परिक्रमा पथ के एक कौने में बैठ ध्यान सुमरण में मग्न होते हैं। किसी दर्शनार्थी का सर कहकर संबोधन हमें चौंकाता है, कोई हमारी कुशल-क्षेम पूछता प्रतीत होता है। ये सज्जन शिमला यूनिवर्सिटी के पूर्व छात्र सिमरनजीत सिंह निकले, जिनसे मिलकर अतीव प्रसन्नता हुई। वो सपरिवार यहाँ दर्शन के लिए आए थे। किन्हीं पलों में हुई प्रगाढ मुलाकातें कैसे समय के धुंधलके में ढकी होने के वावजूद आज तरोताजा हो रहीं थी। इसके बाद पूरा दल एकत्र होकर लंगर छकता है, जहां का अनुशासन, भक्ति और सेवा का भाव सदा ही आह्लादित करता है।

जलियाँवाला बाग दर्शन

इसके बाद गुरुद्वारा के बाहर जलियाँबाला बाग का दर्शन करते हैं, जो यहाँ से मुश्किल से 200 मीटर दूर होगा। अंग्रेजी जनरल डायर की क्रूरता की कहानियाँ यहाँ दिवारों में गोली को निशांनों से लेकर कुँए में देखी जा सकती है, जिसमें भीड़ जान बचाने के लिए कूद पड़ी थी। इतिहास के इस काले अध्याय को स्मरण कर ह्दय व्यथित रहोता है, आक्रोश जगाता है। और स्वतंत्रता संग्राम में पूर्वजों के त्याग-बलिदान और खूनी संघर्ष की याद दिलाता है। जिस स्वतंत्रता की हवा में आज हम सांस ले रहे हैं, यह किस कीमत पर हमें मिली है। काश, हम इसकी कीमत को याद रखते।

अमृतसर से बाघा बोर्डर की ओर -

अमृतसर की ही छात्रा से पूछने पर कि अमृतसर की खास डिश क्या है, तो जबाव लस्सी मिला। यहीं की गलियों में एक लस्सी की दुकान पर, इसका आनन्द लिया और फिर अगले पड़ाव बाघा बोर्डर की ओऱ ऑटो टैक्सी में चल दिए। ऑटो टैक्सी स्टैंड पर छोड़ दिया और हम पैदल 2 किमी चलते हैं। रास्ते में मूँछों वाले फौजी भाई के साथ एक यादगार फोटो लेते हैं। और अंत में बोर्डर पर बने स्टेडियम नुमा भवन में अंदर प्रवेश करते हैं, जहाँ आमने-सामने भारी भीड़ थी और बोर्डर के दूसरी ओर पाकिस्तान की जनता व सैनिक मौजूद थे।

इस ओर तथा उस ओर भीड़ ही भीड़ थी, लेकिन फौजियों के ड्रिल व देशभक्ति के गीतों के साथ झूमती भीड़ का दृश्य एक अलग ही दृश्य था, जिसे हम जीवन में पहली बार अनुभव कर रहे थे। जोशिले नारों के बीच जनता का जोश देखते ही बन रहा था। बीच गलियारे में देश भक्ति के गीतों पर कन्याओं व महिलाओं को झिरकने व झूमने का विशेष आमंत्रण मिल रहा था। देश भक्ति के गीतों के संग इनकी सामूहिक थिरकन समां बांध रही थी। फिर बीएसएफ की स्पेशल पलटन के स्त्री व पुरुष फौजियों का एक-एक कर ड्रिल होता है। इनके शौर्य, पराक्रम, अनुशासन व जीवट की झलक इनकी पैरेड व ड्रिल में स्पष्ट थी, जिसका संचार सीधे दर्शकों के अंतःकरण में हो रहा था। इसी के साथ भारत-पाकिस्तान सीमा पर झंडों का अवरोहण होता है। पाकिस्तान की ओर सैनिकों व जनता की भीड़ कम ही थी। पलड़ा इधर भारी दिख रहा था।

बापिसी में ग्रुप फोटो के साथ सेल्फी लेते हैं। आकर्षण रहता है गगनचुंबी तिरंगे और अशोक स्तम्भ का। ऑटो से पुनः स्वर्णमंदिर के बाहर उतरते हैं, लंगर छकते हैं और स्वर्ण मंदिर को प्रणाम कर बुक की गई बस से कटरा के लिए प्रस्थान करते हैं।

अमृतसर से कटरा की बस यात्रा

अमृतसर से हम रात को 10 बजे बस में चल पड़े। यह एक ऐसी बस में यात्रा का पहला अनुभव था, जिसमें कोई सीट नहीं थी। ऊपर-नीचे, आगे-पीछे केविन बने थे, जिसमें नीचे गद्दे बिछे थे अर्थात पालथी मारकर या लेटकर सफर की व्यवस्था थी। कुल मिलाकर रात के हिसाब से सोने के लिए माकूल व्यवस्था थी। हर केबिन में दो लोग रुक सकते थे। हम भी सोते हुए सफर पूरा किए। नई रुट पर सफर के रोमाँच के चलते नींद नहीं आ रही थी, बाहर पर्दे से झांककर देखते रहते कि कहाँ से गुजर रहे हैं। रास्ते में पठानकोट, जम्मु जैसे स्टेशन आने हैं, इसका अनुमान था, पहली बार यहाँ से गुजरते हुए, इनको एक नजर देखने की उत्सुक्तता थी।

इसी बीच बस रास्ते में 15-20 मिनट रुकी। अधिकाँश सवारियाँ घोड़े बेचकर सो रही थी। हमारे सहित कुछ एक लोग ही बाहर निकले, फ्रेश हुए व चाय की चुस्की के साथ तरोताजा हुए। आगे रास्ते में कुछ-कुछ पहाड़ दिखने शुरु हो गए थे। बीच में नींद का गहरा झौंका आ गया और जब नींद खुली तो स्वयं को जम्मु से गुजरते पाया। बाहर सुंदर नक्काशी, हरी-भरी लताओं से सज्जा बस स्टेशन तथा रोशनी की जगमगाहट के बीच बस को गुजरते पाया। फिर नींद का झौंका आया और जब आँख खुली तो बाहर ऊंचे-ऊँचे पहाड़ों की गोद में बस को झूमते पाया। पहाड़ों के शिखर व गोदी में टिमटिमाटी रोशनियाँ, बलखाते मोड़, दूर रोशनियों से जगमाते गाँव व कस्वे मंजिल के करीब पहुंचने का गाढ़ा अहासस दिला रहे थे।

रास्ते में ही भौर हो चुकी है, हमारी बस का गन्तव्य कटरा आने वाला था। लो ठीक छः बजे हमारी बस स्टेशन पर खड़ी हो गई। 

बाहर निकलते ही चारों ओर गगनचुम्बी पहाड़, इनमें माता वैष्णुदेवी की ओर बढते राह का दृश्य हमें रोमाँचित कर रहा था, जिसे आज कुछ घंटों बाद हमें तय करना था। पहाड़ों को काटकर बनाए गई सड़कें, टीनशैड़ से ढ़के मार्ग, बीच में मुख्य पड़ावों के दिग्दर्शन। इस रुट पर पहली तीर्थ यात्रा कर चुके विभाग के युवा शोधार्थी एवं शिक्षक रजत हमें दूर से ही मार्ग के पड़ावों का विहंगावलोकन करबा रहे थे।

बस स्टैंड से समान उतरता है, मौसम में ठंड का अहसास हो रहा था, जो हरिद्वार से अधिक कड़क था। सभी लोगों के गर्म कपड़ों की उचित व्यवस्था थी, सो कोई परेशानी की बात नहीं थी। सभी एक भिन्न परिवेश में, एक नए देश में स्वयं को पाकर रोमाँचित थे। आगे की यात्रा के लिए तैयार थे। किसी होटल या धर्मशाला में फ्रेश होने से लेकर सामान रखना था, ताकि फ्रेश होकर आवश्यक सामान के साथ आगे की यात्रा पर कूच किया जा सके। बस स्टैंड के पास ही एक होटल की व्यवस्था हो जाती है, सभी फ्रेश होते हैं, कुछ विश्राम करते हैं और फिर बाहर एक ढावे में नाश्ता कर माता बैष्णुदेवी के धाम की ओर चल पड़ते हैं।

होटल से ही एक बैन में बारी-बारी 8-10 लोगों की टुकड़ियों में हम कटरा के बाजार को पार करते हुए बैरी के पेड़ के पास उतरते हैं। ग्रुप फोटो खेंच, माता के जयकारे के साथ आगे बढ़ते हैं। यहाँ से मुख्य द्वार 3 किमी के लगभग था। रास्ते में ही एक बुढ़ी अम्मा से 20 रुपए में एक लाठी खरीदते हैं, जिसका पहाड़ी सफर में विशेष सहारा व योगदान रहता है। सभी लोग मुख्य द्वार में इकटठे हो जाते हैं। ऑनलाइन बुकिंग के कारण सभी निश्चिंत थे कि यहाँ से अब सीधे आगे की यात्रा करेंगे। लेकिन पता चला कि ऑनलाइन बुकिंग स्वीकार्य नहीं है, पिछले महीनों विवाद व तोड़फोड़ के कारण इस व्यवस्था को निरस्त किया गया था। कटरा में बस स्टैंड के आसपास दो स्थानों पर ऑफलाइन बुकिंग की व्यवस्था है। लगा अभी माता रानी परीक्षा ले रही हैं, पूरा दल बापिस 3 किमी आटो में बैठकर बुकिंग स्थल पर पहुँचता है, लाइन में लगकर टिकट लेता है औऱ फिर मुख्य द्वार पर पहुँचता है। और माता के जयकारे के साथ उत्साह से लबरेज मंजिल की ओर आगे बढ़ता है। 

आगे की यात्रा के लिए पढ़ें - बाणगंगा से माता वैष्णों देवी तक का सफर, भाग-2

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