गुरुवार, 30 दिसंबर 2021

मेरा गाँव मेरा देश - मधुमक्खी पालन

 हिमालय की वादियों में मधुमक्खी पालन

बर्फ में हिमालयन बी फार्म मोहिला का विहंगम नजारा

शहद के साथ बचपन की कितनी सारी यादें जुड़ी हुई हैं। घर की छत्त पर प्राय़ः दक्षिण या उत्तर दिशा में मधुमक्खी के दीवाल के साथ जड़े छत्त लगे होते थे, जिन्हें क्षेत्रीय भाषा में म़ड्ड़ाम कह कर पुकारते हैं। साल भर में एक बार हमारे बड़े-बुजुर्ग इनसे शहद निकालते। धुँआँ देकर मधुमक्खियों को कुछ देर के लिए बाहर निकाला जाता और इनके छत्तों के बीच शुद्ध शहद से जड़े छत्ते को काटकर अलग किया जाता।

इसको ऐसे ही टुकड़े में खाने का लुत्फ लेते और शेष का कपड़छान कर अलग कर लेते। कभी कभार खाने के लिए इस शहद का उपयोग होता, अधिकाँशतः औषधी के लिए इसको सुरक्षित रखते। या फिर शास्त्र के रुप में इसे पूजा कार्यों के लिए संरक्षित रखा जाता। ऐसे नानीजी के खजाने में कईयों साल पुराने शहद से भरे वर्तन सुरक्षित मिलते। मालूम हो कि शहद एक ऐसा विरल उत्पाद है, जो कभी खराब नहीं होता।

हिमालयन बी फार्म में उपलब्ध शुद्ध देशी शहद
 

अब हालाँकि पारम्परिक रुप में शहद के ये तौर-तरीके पीछे छुटते जा रहे हैं। एक तो फल व सब्जियों में बहुतायत में उपयोग किए जाने वाले रसायन व कीटनाशकों के कारण मधुमक्खियाँ खुलकर परागण नहीं कर पाती, अधिकाँश तो विलुप्त हो चली हैं। इस कारण हिमालयन मधुमक्खियों का शहद अब पहाड़ों में तराई के इलाकों की वजाए अधिक ऊँचाईयों तक सीमित हो चला है, जहाँ अभी भी जंगली फूल व बनौषधियाँ प्रचूर मात्रा में उपलब्ध रहती हैं, जो खिलने पर मधुमक्खियों के लिए परागण का आहार उपलब्ध कराते हैं।

मधुमक्खी पालन का नया चलन – हालाँकि अब बक्सों में शहद की मधुमक्खियों के पालन का चलन चल पड़ा है, जो पारम्परिक तरीके से एक प्रकार से थोड़ा अधिक वैज्ञानिक और व्यवहारिक लगता है, जिसमें मधुमक्खियों के छत्तों को कम से कम छेड़खान के साथ इससे अधिक शहद प्राप्त किया जा सकता है।

फ्रेमयुक्त बक्से में मधुमक्खी का आवास

वर्ष 2021 का नवम्बर माह और आज हमारी यात्रा का संयोग बन रहा था, ऐसे ही एक हनी कीपर, श्री लाल सिंह ठाकुर के हिमालयन बी फार्म में, जहाँ वे सेब के बगान के बीच पिछले 15-16 बर्षों से मधुमक्खी पालने के अपने शौक को अंजाम दे रहे हैं। इनके बगीचे में फैले 150 के करीब बक्सों में ये हर सीजन का शहद तैयार करते हैं। ये इनके मधुमक्खी पालन के शौक के साथ इनके लिए रोजगार का भी एक सशक्त साधन बन चुके हैं और ये इच्छुक किसानों को इसका प्रशिक्षण भी देते हैं और अपने यू-ट्यूब चैनल हिमालयन बीज (Himalayan Bees) के माध्यम से अपना अनुभव साझा करते रहते हैं, जिससे जुड़कर आप मधुमक्खी पालने की बारीकियाँ सीख सकते हैं। 

नवम्बर माह में Himalayan Bees फार्म, Mohila

नग्गर से होकर यहाँ जाने के लिए पहले पतलीकुहल पहुँचना पड़ता है, जो कुल्लू-मानाली राइट-बैंक का मध्य बिंदु है। यहाँ तक का दूसरा रास्ता कुल्लू की ओर से कटराईं होकर पतलीकुल पहुँचता है। मानाली से भी सीधे पतलीकुहल पहुँचा जा सकता है।

पतलीकुहल से आगे बड़ाग्राँ-पनगाँ लिंक रोड़ के साथ यहाँ तक पहुँचा जा सकता है।

नग्गर से पतलीकुहल की ओर, ब्यास नदी को पार करते हुए

बड़ाग्राँ इस रुट का पहला बड़ा गाँव पड़ता है, इसके आगे आता है पनगाँ गोम्पा। यहां सड़क के नीचे रंग-बिरंगे कपड़ों की झालरें इसका परिचय देती हैं।  इसके आगे सड़क पर बढ़ते हुए समानान्तर उस पार लेफ्ट बैंक में अप्पर बैली का विहंगम दृश्य दर्शनीय रहता है। यहीं से सामने नगर के पीछे चंद्रखणीं पास की बर्फ से ढ़की चौटियों के दर्शन किए जा सकते हैं। और पास में सडक के साथ पहाड़ों पर पहाड़ी घर व गाँव के नजारें बहुत सुन्दर लगते हैं।

उस पार लेफ्ट बैंक नग्गर साईड, चंद्रखणी पास में बर्फ ढके पहाड़
थोड़ी आगे एक डायवर्जन आता है, जहाँ वायीं ओर से सड़क आगे शेगली की ओर जाती है, जो स्वयं में एक लोकप्रिय टूरिस्ट डेस्टिनेशन है, जबकि सीधे आगे सड़क पनगां की ओर जाती है। सड़क के दोनों ओर सेब के बाग स्वागत करते हैं, हालाँकि नवम्बर में इनमें फलों का तुड़ान हो चुका था।

पहाड़ी झरने रास्ते में अपने गर्जन-तर्जन भरे कलकल निनाद के साथ एक बहुत सुखद अहसास दिलाते हैं। साथ ही इस ऊँचाई पर वहने पाली ठण्डी आवोहवा आपको हिमालय की वादियों में विचरण की सघन अनुभूति देती है। थोड़ी ही देर में पनगाँ गाँव आता है, इसको पार करते ही हम अपने गन्तव्य मोहिला गाँव पहुँच चुके थे, जहाँ सेब के बागान में मधुमक्खी के बक्से सजे थे, जहाँ श्री लाल सिंह ठाकुर मधुपालन के अपने शौक को सेब की बगीचे में अंजाम दे रहे हैं।

हिमालयन बीज फार्म, मोहिला

मधुमक्खियाँ इनमें छेद से होकर अंदर-बाहर निकल रहीं थी। कुछ इसके चारों ओर मंडरा रहीं थी। इनकी चाल, इनके बोल व इनकी कार्यशैली तो येही जाने, हम तो बस इनकी मधुर गुंजार को सुन रहे थे, इनकी मस्त चाल को देख रहे थे, जो सब मिलकर इनकी अनवरत सक्रियता व अथक श्रम की बानगी पेश कर रही थी, जिसका मधुर फल शहद के रुप में बक्सों के अंदर छत्तों में तैयार हो रहा था।एक बक्से में औसतन सात फ्रेम जड़े थे, जिनमें मधुमक्खियाँ छत्ता बनाकर शहब इकट्ठा कर रही थीं। जिस फ्रेम में शहद पूरी तरह से भर जाता है, उस को अलग कर एख सेंट्रिफ्यूगल मशीन में फिट कर फिर शहद निकाला जाता है और शहद निकालने के बाद फ्रेम को पुनः बक्से में फिट किया जाता है, जहाँ फिर मधुमक्खियाँ अपना काम शुरु करती हैं।

लकड़ी के घर के बाहर सक्रिय हिमालयन मधुमक्खियाँ

मालूम हो कि एक छत्ते में एक रानी मक्खी होती है। रानी मक्खी का कार्य छत्तों में अण्डे देना होता है। इसके सहयोग के लिए कुछ नर होते हैं, जिन्हें निखट्टू कहा जाता है, क्योंकि प्रजनन के अतिरिक्त इनका कोई कार्य नहीं होता और इसके तुरन्त बाद इनका जीवन समाप्त हो जाता है। इनके साथ मुख्य कार्य श्रमिक मधुमक्खियों का होता है, जो फूलों से परागण लाकर छत्तों में एकत्रित करती हैं व शहद तैयार करती हैं। ये मादा मधुमक्खियाँ होती हैं, जिनमें डंक मारने की क्षमता होती है, लेकिन दुःखद बात यह है कि डंक मारने के बाद इनके प्राण पखेरु उड़ जाते हैं।

हिमालय बी फार्म से सामने लेफ्ट बैंक का खूबसूरत नजारा

कुल्लू-मानाली घाटी के बीच राइट बैंक में मोहिला स्थित इस बी-फार्म में एक प्रगतिशील किसान श्री लाल सिंह ठाकुर के इन प्रयोग को देखकर बहुत कुछ जानने सीखने को मिला। पारम्परिक तरीके से, छत्त पर मड्डाम लगाकर मधुमक्खी पालन या जंगल से इनको छत्तों को निचोड़कर शहद निकालने के तौर-तरीकों से यहाँ चल रहा प्रयोग हमे अधिक व्यवहारिक व मानवीय लगा। साथ ही ग्रामीण परिवेश में स्वाबलम्बन का एक पुख्ता आधार दिखा।

यह सही है कि मधुमक्खी पालन में हम उनके मेहनत का मीठा फल शहद इस मेहनतकश नन्हें जीव से लेते हैं, लेकिन इनको रहने के लिए आवास की भी व्यवस्था करते हैं, सर्दियों में इनके लिए भोजन से लेकर आश्रय की व्यवस्था करते हैं। 

बर्फ की मौसम में बी फार्म

इस तरह मिलजुल कर एक दूसरे के पूरक बनकर काम करते हैं। पूरी संजीदगी व संवदेनशीलता के साथ मधुपालन के पेशे को अपनाया जाए, तो यह सभी के लिए हर दृष्टि से एक उपयोगी कार्य रहता है। यहाँ हमें कुछ ऐसा ही प्रयोग देखने के मिला।

इस सबके साथ यहाँ से सामने चारों ओर घाटी का नजारा लाजबाब लगा। सामने लेफ्ट बैंक के गाँव, खेतों की सेरियाँ, इसके महत्वपूर्ण गाँव-कस्वों तथा पहाड़ों के दर्शन मोहित करने वाले हैं। यहाँ से ऊपर जगतसुख से लेकर नीचे नगर साईड और सामने हरिपुर व सोयल गाँव का नजारा प्रत्यक्ष दिखा। इनके पीछे देवदार से ढके पर्वत व इनके भी पीछे बर्फ से ढके पहाड़ यहाँ की भव्यता को चार चाँद लगाते हैं। नीचे ब्यास नदी के भी हल्के से दर्शन यहाँ से होते हैं। इस सबके साथ सेब के बगीचे में बी-फार्म की लोकेशन व आसपास का व्यू स्वयं में बहुत ही मनोरम व बैजोड़ अनुभव रहा। आप चाहें तो इस सबकी एक झलक नीचे दिए वीडियो में भी पा सकते हैं। 

बर्फ में बी फार्म का नजारा दिलकश रहता है। हालाँकि ठण्ड में मधुमक्खियों की गतिविधियाँ सीमित हो जाती हैं, क्योंकि इस समय फूलों के रुप में आवश्यक आहार इन्हें उपलब्ध नहीं होता। इसके लिए इनके लिए अतिरिक्त आहार की व्यवस्था की जाती है, हालाँकि इनके छत्त में पहले से ही संचित मधु इस समय काम आता है।

धूप के बीच पिघलती बर्फ के बीच हिमालयन बीज फार्म का नजारा


सोमवार, 29 नवंबर 2021

हरिद्वार दर्शन - गंगा तट पर घाट-घाट का पानी

 

घाट 1 से 20 तक गंगा मैया के संग

गंगा तीरे, उत्तरीय हरिद्वार

हर-की-पौड़ी के आगे स्वामी सर्वानंद घाट के पुल को पार करते ही, हरिद्वार-ऋषिकेश हाईवे से दायीं ओर का लिंक रोड़ घाट न. 1 की ओर जाता है। पीपल के बड़े से पेड़ के नीचे शिव मंदिर और फिर आम, आँबला व अन्य पेड़ों के समूहों का हरा-भरा झुरमुट। इसके आगे नीचे गंगा नदी का विस्तार, जो नीचे भीमगौड़ा बैराज तक, तो सामने राजाजी नेशनल पार्क तक फैला है। गंगाजी यहाँ एक दम शांत दिखती हैं, गहराई भी काफी रहती है और जल भी निर्मल। लगता है जैसे पहाड़ों की उछल-कूद के बाद गंगा मैया कुछ पल विश्राम के, विश्राँति भरी चैन के यहाँ बिता रही हैं – आगे तो फिर एक ओर हर-की-पौड़ी, गंग नहर और दूसरी ओर मैदानों के शहरों व महानगरों का नरक...।

यहीं से गंगाजी की एक धारा थोड़ा आगे दायीं ओर मोडी गई है, जो खड़खड़ी शमशान घाट से होकर हर-की-पौड़ी की ओर बढ़ती हैं।

यह घाट नम्बर-1 2010 के पिछले महाकुंभ मेले में ही तैयार हुआ है, जहाँ रात व दिन को बाबाओँ व साधुओं के जमावड़े को विश्राम करते देखा जा सकता है। और यह घाट पुण्य स्नान के लिए आए तीर्थयात्री व पर्यटकों के बीच खासा लोकप्रिय है। बाँध के दूसरी ओर पार्किंग की सुविधा है, जहाँ वाहन खड़ा कर पूरा दलवल यहाँ स्नान कर सकता है। विशेष अवसरों पर तो यहाँ सामूहिक हवन व पूजा आदि भी होते देखे जा सकते हैं। साथ में गाय-बछड़ों के झुण्ड आदि भी यहाँ सहज रुप में चरते व भ्रमण करते मिलेंगे।

घाट न.1 से जब आगे बढ़ते हैं, तो बीच में थोड़ी दूरी पर 2,3,4,5,6,7,8,9 घाट पड़ते हैं। जो सार्वजनिक न होकर थोड़े अलग-थलग हैं। यहाँ प्रायः शात एकांत स्थल की तलाश में घूम रहे यात्री, साधु व स्थानीय लोग जाते हैं, गंगाजी का सान्निध्य लाभ लेते हैं और ध्यान के कुछ पल बिताते हैं। घाट नं 6,7 से नील धारा की ओर से बहकर आती गंगाजी की वृहद निर्मल धारा के भव्य दर्शन होते हैं, जहाँ गंगाजी बहुत सुंदर नजारा पेश करती हैं। वसन्त के मौसम में यहाँ विदेशों से आए माइग्रेटरी पक्षियों के झुण्डों को जल क्रीड़ा करते देखा जा सकता है। इनके झुण्डों का नजारा वेहदर खूवसूरत व दर्शनीय रहता है।

गंगा तीरे, उत्तरीय हरिद्वार
 

घाट 10 – बाबाओं की जल समाधि के लिए बना है, जिसमें अब जन-जागरुकता एवं पर्यावरणीय संवेदना के चलते धीरे-धीरे यह चलन कम हो रहा है। यहाँ से सामने नीलधारा का दृश्य प्रत्यक्ष रहता है और इसके ऊपर घाट 11 – 12 पड़ते हैं, जहाँ साधु-बाबाओं की कुटियाएं सजी हैं। बंधे के पार भूमा निकेतन आश्रम है, जिसके संरक्षण में घाट के मार्ग में बनी कुटियानुमा विश्राम स्थल व नदी के तट पर कलात्मक दृश्यों का अवलोकन किया जा सकता है। यहाँ भी शाम को दर्शनार्थियों की काफी भीड़ रहती है। इसके आगे घाट 13 निर्जन स्थान पर पड़ता है। बहुत कम ही लोग यहाँ तक आ पाते हैं।

फिर घाट 14 – धर्मगंगा घाट के रुप से जाना जाता है, जो तीर्थयात्रिंयों के बीच खासा लोकप्रिय है। यहाँ की एक विशेषता है सामने आ रही गंगा की निर्मल धार, जिसका नजारा देखने लायक रहता है व इसमें पक्षियों का क्रीडा क्लोल बहुत सुंदर नजारा पेश करता है। यह लोकेशन फोटोग्राफी के लिए भी बहुत उपयुक्त रहती है। आश्चर्य नहीं कि दिनभर यहाँ यात्रियों का जमावड़ा लगा रहता है, जिसमें जल का स्तर स्वल्प होने के कारण यह गंगा स्नान के लिए सर्वथा उचित रहता है। पानी का जल स्तर बढ़ने पर यहाँ स्नान के दौरान सावधानी अपेक्षित रहती है। इसमें  परमार्थ आश्रम द्वारा संचालित इस घाट में शाम को गंगा आरती होती है, जिसमें पर्याप्त लोगों की भीड़ रहती है।

घाट 15 – संत पथिक घाट के रुप में जाना जाता है। इसके मार्ग में संत पथिक की समाधि मंदिर है। यह भी साधु भक्तों व साधकों के लिए विश्राम व ध्यान का लोकप्रिय ठिकाना है। भारतमाता मंदिर और शांतिकुंज का ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान भी इसी की सीध में पड़ता है। इसी के आगे है घाट 16, जो बालाजी घाट के नाम से जाना जाता है। इसमें हनुमानजी एवं शिवपरिवार के विग्रह गंगा स्नान के लिए आए दर्शनार्थियों के लिए वंदनीय रहते हैं। यहाँ भी शाम को लोगों को ध्यान विश्राम से लेकर स्नान करते देखा जा सकता है। यहाँ भी गाय-बछडों व पक्षियों का जमावड़ा देखा जा सकता है, जिन्हें श्रद्धालु कुछ न कुछ खिलाते रहते हैं।

इसके आगे आता है, घाट 17 – पाण्डव घाट, जहाँ पंचमुखी हनुमानजी एवं सप्तऋषियों की प्रतिमाएं स्थापित है। पाण्डवों के स्वर्गारोहण के भी यहाँ पार्क में विग्रह स्थापित हैं। इसे सप्तसरोवर घाट के नाम से भी जाना जाता है। यह भी दर्शनार्थियों के बीच लोकप्रिय घाट है, जिसमें आरती पूजा से लेकर धार्मिक कार्यक्रम पास के शिवमंदिर में चलते रहते हैं। यहाँ के प्रशिक्षित पुजारी से विधि विधान से पूजापाठ व कर्मकाण्ड की सेवा उपलब्ध रहती है।

इसके आगे घाट 18 – गंगा कुटीर घाट है, इसके सामने का विहंगम दृश्य देखते ही बनता है। यह स्नान-विश्राम का एक लोकप्रिय स्थल है। इसके आगे आता है घाट 19 - विरला घाट। जिसके सामने थोड़ी आगे गंगाजी की धारा में लोगों को खेलते देखा जा सकता है और यहीं से वे उस पार टापूओं में भी आगे बढ़ते हैं। और अंत में इसके आगे आता है, घाट 20 जिसे व्यास मंदिर घाट के नाम से जाना जाता है। दक्षिण भारत की शैली में बने व्यास मंदिर का निकास यहाँ होता है। इसके किनारे गंगाजी की पतली धारा बहती है, जिसमें यात्रियों को पूजा पाठ से लेकर स्नान करने की सुविधा है। घाट की कुर्सियों व बेंचों पर बैठकर सामने के टापू का सुन्दर नजारा निहारा जा सकता है। दूर पहाड़ व इनकी गोद में बसे गाँवों का विहंगम दर्शन भी यहाँ सुलभ रहता है।

इस तरह गंगा किनारे 1 से लेकर 20 नम्बर तक के घाट यात्रियों, तीर्थयात्रियों, पर्यटकों व स्थानीय नागरिकों के दैनिक जीवन का अहं हिस्सा हैं। सुबह-शाम इनके किनारे बनें बाँध पर टहलने का आनन्द लिया जा सकता है और इनके किनारे गंगातट पर कुछ पल ध्यान, आत्म चिंतन व मनन के बिताए जा सकते हैं। प्रकृति की मनोरम गोद में बसे ये घाट व इनके किनारे बाँध का रुट भ्रमण के लिए आदर्श है। इन घाटों के किनारे गंगाजी के सात्विक प्रवाह के साथ दिव्य वातावरण में कुछ पल बिताकर पुण्य लाभ से लेकर आत्म-शांति सहज रुप में पायी जा सकती है।

गंगा किनारे बाँध के ऊपर भ्रमण-टहल पथ, उत्तरी हरिद्वार

सोमवार, 22 नवंबर 2021

यात्रा लेखन के मूलभूत तत्व

 


यात्रा लेखन में इन बातों का रहे ध्यान

यात्रा वृतांत क्या है, यात्रा के रोचक, रोमाँचक एवं ज्ञानबर्धक अनुभवों का सांगोपांग वर्णन।

जो आपने अनुभव किया, उसको पाठकों के साथ साझा करने का उत्कट भाव, ताकि वे भी कुछ बैसा ही आनन्द ले सकें। साथ ही कुछ ऐसी मूलभूत जानकारियाँ पा सके, जो उनकी यात्रा को सरल व सुखद बनाए।

यात्रा वृतांत के तत्व निम्नलिखित तत्व एक यात्रा लेखन को प्रभावशाली बनाते हैं -

1. भाव-प्रवण्ता - जितना आप उस स्थल व यात्रा को फील कर पाएंगे, उसी अनुपात में आप उसे शब्दों में संप्रेषित कर पाएंगे। आपके उत्साह, उत्सुकतता, रोमाँच, आनन्द, विस्मय आदि के भाव आपके लेखन के माध्यम से पाठकों तक संचारित होंगे। इस तरह घुमक्कड़ी का जुनून Wander lust, Passion for travel, यात्रा लेखन में ईंधन का काम करते हैं। किसी ने सही ही कहा है कि यात्रा लेखन is All about the experience writer has during the journey and Sharing your joy. 

2. रोचकता Interesting, entertaining – जो पाठकों को रुचिकर लगे, जिससे पाठकों का मनोरंजन हो, ऐसे तथ्यों, जानकारियों तथा अनुभवों का प्रस्तुतिकरण, जिनको पाठक रुचि के साथ पढ़ते हुए उसका हिस्सा बनकर यात्रा का आनन्द ले सकें।

3. रोमाँचकता elements of Adventure – यात्रा में रुचि के साथ रहस्य व रोमाँच के पहलु व तथ्य भी पाठकों को बाँधे रखते हैं। यात्रा के बीच की चुनौतियाँ, इनका साहस व दृढ़ता के साथ सामना व पार करने के साहसिक किस्से पाठकों को रोमाँचक लगते हैं व पढ़ते-पढ़ते उनके अनुभव का हिस्सा बनते हैं।

4. ज्ञानबर्धक, Informative, adding value to reader life, useful info - यात्रा वृतांत पाठकों के ज्ञान का बर्धन करते हैं, अतः यहाँ पर रिसर्च का महत्व स्पष्ट हो जाता है, जिसे एक यात्रा लेखक यात्रा से पहले, इसके बाद और यात्रा के साथ अपने ढंग से अंजाम देता है। किसी स्थान से जुड़े नए ऐतिहासिक, पौराणिक, भौगोलिक व अन्य जानकारियाँ निसंदेह रुप में वृतांत को ज्ञानबर्धक बनाती हैं व पाठकों के ज्ञान भण्डार में इजाफा करती हैं।

5. खोजी दृष्टि - अमुक स्थल, घटना, परिवेश में क्या कुछ छिपा है, आप अपनी खोजी दृष्टि के आधार पर उभार सकते हैं, प्रकट कर सकते हैं। यह पाठकों के लिए ज्ञानबर्धक अनुभव सावित होता है। ऐसे में यहाँ पर एक खोजी पत्रकार की निहारती दृष्टि महत्वपूर्ण हो जाती है। साथ ही जीवन के प्रति आपकी दृष्टि जितनी व्यापक होगी, यात्रा लेखन का विस्तार भी उतना ही व्यापकता को समेटे होगा।

6. सामयिकता - सामयिक संदर्भ में यात्रा की उपयोगिता को उभारा जा सकता है, यदि आप देश - दुनियाँ और जमाने की समकालीन घटनाओं से वास्ता रखते हों और उस स्थान विशेष से जुडी घटनाओं के प्रति अपडेट हों। इसके साथ आप वहाँ के सामान्य ज्ञान के साथ तात्कालिक घटनाओं को अपने यात्रा वृतांत से जोड़ पाएंगे तथा यात्रा वृतांत जानकारियों की दृष्टि से उतना ही पठनीय बनेगा।

7. चित्रात्मकता – यह यात्रा वृतांत का एक महत्वपूर्ण तत्व है, कि एक लेखक परिवेश को कितनी जीवंतता के साथ शब्दों के माध्यम से उकेर पाता है। यात्रा का जीवंत चित्रण महत्वपूर्ण रहता है, जिसमें आप दृश्य को बताने की वजाए दिखाते हैं, इसके विस्तार एवं बारीकियों को उभारते हुए। वाकि जो आप नही कह पा रहे हों, वह एक सटीक फोटो के माध्यम से स्पष्ट हो जाता है।

8. भाषायी सरलता-तरलता - भाषा की सरलता लेख को ग्राह्य बनाती है, पठनीय बनाती है, जिसको पाठक का दिलो-दिमाग आसानी से ह्दयंगम कर सके। यही पाठक को शुरु से लेकर अन्त तक बाँधे रखती है और एक प्रभावशाली यात्रा लेखन को संभव बनाती है। वास्तव में यह भावों से जुड़ा मामला है। भाव जितना गहरे होंगे, शब्द उतने ही सरल होंगे व लेखन में एक प्रवाह होगा।

9. मौलिक प्रस्तुतीकरण – हर सृजन की तरह यात्रा लेखन में भी लेखक के व्यक्तित्व की छाप होती है, जो ईमानदारी व संवेदनशीलता के साथ यात्रा से जुड़े अपने अनुभवों को साँझा करते-करते स्वतः ही प्रस्फुटित होती है। आप किसी भी विशिष्ट कोण से यात्रा वृतांत को उठा सकते हैं, बस ध्यान पाठकों का हित साधन रहे, अनुभवों की सत्यं-शिवं एवं सुन्दरं अभिव्यक्ति रहे।

10. यात्रा से जुड़ा दार्शनिक एवं आध्यात्मिक आयाम अर्थात् जीवन संदेश का तत्व – यात्रा से जुडे कई पहलु ऐसे होते हैं, जिनमें गहरे जीवन संदेश छिपे होते हैं, जीवन के दार्शनिक आयाम प्रकट होते हैं व आध्यात्मिक अनुभव लिए होते हैं। इनके साथ पाठकों को सामान्य से दृश्यों व घटनाक्रम में देखने का एक नया नजरिया मिलता है, जीवन के प्रति एक गहरी समझ विकसित होती है। इन्हें यथासम्भव अपनी समझ के आधार पर उभारा जा सकता है, प्रकट किया जा सकता है।

11. समाधान परक दृष्टि – यात्रा में कई तरह के समस्या प्रधान पहलुओं से रुबरु होना पड़ता है। इनको संतुलित व सकारात्मक ढंग से प्रस्तुत करना ही यात्रा लेखन का कौशल है। यहाँ पर, समाधान का हिस्सा बनें, समस्या का नहीं, एक प्रेरक पथ-प्रदर्शक वाक्य हो सकता है। अतः समस्या पर चर्चा करते हुए, इसके संभावित समाधान को प्रस्तुत कर सकते हैं। तथ्य कितने ही कटु हों, इनके प्रति ईमानदार किंतु संवेदनशील प्रस्तुतीकरण महत्वपूर्ण हो जाता है। इसके लिए क्षेत्रीय परिजनों के साक्षात्कार या संवाद के आधार पर पुष्ट तथ्यों को जोड़ा जा सकता है।

12. इसके साथ ही यात्रा वृतांत की लेखन शैली एक महत्वपूर्ण तत्व है, जो समय के साथ विकसित होती है। और यह हर व्यक्ति की उसके स्वभाव, प्रकृति एवं पृष्ठभूमि के अनुरुप विशिष्ट होती है, भिन्न होती है व उसके व्यक्तित्व की छाप लिए होती है। और यही क्रमशः उसका अपना एक अलग लेखन का अंदाज व शैली भी बन जाती है।

उपरोक्त तत्वों को ध्यान में रखते हुए यदि यात्रा लेखन होता है तो कोई कारण नहीं आपका यात्रा वृतांत रोचक, ज्ञानबर्धक एवं रोमाँचक न होगा, जो पाठकों के जीवन में कुछ सकारात्मक मूल्य जोड़ रहा होगा।

हिंदी में यात्रा लेखन की परम्परा एवं इसका महत्व

यात्रा वृतांत का इतिहास एव हिंदी में यात्रा लेखन


घुमक्कडी इंसानी फितरत, जन्मजात प्रवृति है और जिज्ञासा उसका नैसर्गिक स्वभाव। दोनों का जब मिलन हो जाता है, तो एक घुम्मकड, खोजी यात्री, अन्वेषक, यायावर, एक्सप्लोअरर जन्म लेता है।

आदि काल से देश व दुनियाँ के हर कौने में ऐसे लोग हुए, जिन्होंने विश्व के चप्प-चप्पे को छान मारा। शायद ही धरती पर कोई क्षेत्र ऐसा हो, जो उसके लिए अगम्य रहा हो। सागर की अतल गहराई, वीहड़ वनों के अगम्य क्षेत्र, रेगिस्तान के विषम विस्तार और बर्फीले प्रदेशों की दुर्गम वादियाँ और देश-दुनियाँ का कोई क्षेत्र उसकी पहुँच से दूर नहीं रहा।

इन स्थलों के प्राकृतिक सौंदर्य, भौगोलिक विशेषता, सामाजिक ताना-बाना, सांस्कृतिक-आध्यात्मिक विरासत का अनुभव और इनके सांगोपांग वर्णन के साथ यात्रा साहित्य का विपुल सृजन होता है, जिसके साथ पाठकों का ज्ञानबर्धन तथा मनोरंजन तो होता ही है, साथ में शिक्षण का उद्देश्य भी पूरा होता है। इसके साथ ही मानवीय समाज, संभ्यता एवं संस्कृति की विकास यात्रा भी आगे बढ़ती रहती है।

कुछ परिभाषाएं, टिप्पणियाँ –

जब उत्साह एवं उल्लास के भाव से यात्रा, सौंदर्यबोध की दृष्टि से प्रकृति-परिवेश को निहारते व हद्यंगम करते हैं, एक जिज्ञासु की दृष्टि से समाज का अवलोकन और उसकी मुक्तभाव से अभिव्यक्ति, उसे यात्रा साहित्य या यात्रा वृतांत का सृजन होता हैं।

यायावरी या घुमक्कड़ी एक प्रकार का नशा, जिसके चलते वह अधिक समय तक टिक कर बैठ नहीं सकता।

 'जिसने एक बार घुमक्कड़-धर्म अपना लिया, उसे फिर पेंशन कहाँ, उसे फिर विश्राम कहाँ? - किन्नर देश में राहुल सांकृत्यायन   

अज्ञेयजी लिखते हैं - 'यायावर को भटकते चालीस बरस हो गए, किंतु इस बीच न तो वह अपने पैरों तले घास जमने दे सका है, न ठाठ जमा सका है, न क्षितिज को कुछ निकट ला सका है।' ऐसे घुमक्कड़ सृजनशीलों की कलम से यात्रा-साहित्य सहज रुप में नाना रुपों में प्रवाहित होता है, जैसे हिमशिखरों से बहती नाना प्रकार की हिमधाराएं।

सार रुप में, सरल शब्दों में, यात्रा वृतांत को यात्रा के रोचक, रोमाँचक और ज्ञानबर्धक अनुभवों का सांगोपांग वर्णन कह सकते हैं। जो आपने अनुभव किया, उसको पाठकों के साथ साझा करने का उत्कट भाव, ताकि वे भी कुछ बैसा ही आनन्द ले सकें। साथ में कुछ ऐसी मूलभूत और नयी जानकारियाँ पा सकें, जो उनकी यात्रा को सरल व सुखद बना सके।

यात्रा साहित्य के प्रकार

चार प्रमुख प्रवृत्तियाँ  

1.वर्णनात्मक अथवा परिचयात्मक, जैसे - राहुल सांकृत्यायन   

2.सामाजिक-स्थिति का प्रस्तुतीकरण, जैसे - डॉ.सत्यनारायण सिन्हा 'आवारे यूरोप की यात्रा'   

3.वैयक्तिक प्रतिक्रिया को व्यक्त करनेवाली, जैसे - मोहन राकेश का 'आखिरी चट्टान तक

4.साहित्यिक, इसे लेखन की सर्वश्रेष्ठ पद्धति कह सकतके हैं, जैसे - अज्ञेय के यात्रा-वृतांत

इसके साथ पाँचवी प्रवृति को जोड़ सकते हैं, जो है –

5. आध्यात्मिक, जैसे आचार्य पं श्रीराम शर्मा आचार्य की रचना – सुनसान के सहचर

नामवर सिंह ने यात्रा साहित्य को देसी और मार्गी दो भागों में बांट दिया है।

देसी यात्रा वृतांत की शुरुआत हिंदी लेखन में भारतेंदु से होती हुई नागार्जुन तक आती है। तथा मार्गी परम्परा की शुरुआत अज्ञेय ने की। बाद में इसी परम्परा में मोहन राकेश, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना और निर्मल वर्मा आते हैं।

यात्रा लेखन की परम्परा एवं विकास यात्रा -

पौराणिक यात्रा विवरण -

रामायण में राम सहित लक्ष्मण, सीता की वनवास यात्राएं, भाई भरत का राम से मिलन व

हरण हुई सीता माता की खोज की यात्राओं का विवरण, जिसमें हनुमान, विभीषण सहित वानर सेना के खोजी वृतांत मिलते हैं

महाभारत में पांडवों के वन गमन से लेकर अज्ञात वास के समय की यात्राओं का विशद विवरण, जिनके अवशेष आज भी पूरे भारत भर में व अन्यत्र मिलते हैं।

कालान्तर में कालिदास एवं वाणभट्ट के संस्कृत साहित्य में यात्रा विवरण मिलते हैं, हालाँकि ये प्रकृति प्रधान विवरण रहे हैं।

ऐतिहासिक यात्रा विवरण –

विदेशी यात्रियों एवं इतिहासकारों में अलबरूनी, इब्नबतूता, अमीर खुसरो, हेनसांग, फाह्यान, मर्कोपोलो, सेल्यूकस निकेटर आदि उल्लेखनीय हैं, जिनके यात्रा विवरणों में हमें मौर्य काल, गुप्तकाल, मुगल काल, अंगेजी शासन के समय की की सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक, आर्थिक, भौगोलिक जानकारियाँ मिलती हैं।

हिंदी साहित्य में यात्रा वृतांत की विधिवत शुरुआत – भारतेंदु-युग (19वीं सदी का उत्तरार्द्ध) से मानी जा सकती है। जिसमें वे कविवचन सुधा पत्रिका में हरिद्वार, लखनऊ, जबलपुर, सरयूपार, वैद्यनाथ, जनकपुर आदि की यात्रा पर खड़ी बोली में यात्रा वृतांत लिखते हैं। इसके बाद स्वतंत्रतापूर्व काल में जयशंकर प्रसाद युग में यात्रा वृतांतों में नए आयाम जुड़ते हैं। 

इस दौरान घुम्मकड़ी के लिए समर्पित पं. राहुल सांकृत्यायन अपनी देश-विदेश के एक छोर से दूसरे छोर एवं आर-पार की साहसिक यात्राएं करते हैं। जिनमें उल्लेखनीय रचनाएं रहीं - मेरी तिब्बत यात्रा’, ‘मेरी लद्दाख यात्रा’, ‘किन्नर देश में’, ‘रूस में 25 मास’, ‘तिब्बत में सवा वर्ष’, ‘मेरी यूरोप यात्रा’, ‘यात्रा के पन्ने’, ‘जापान, ईरान, एशिया के दुर्गम खंडों मेंआदि। 1948 में वे घुम्मकड़ी के लिए मार्गदर्शनक घुम्मकड़ शास्त्रग्रन्थ की रचना करते हैं। वास्रातव में राहुल सांकृत्यायनजी को यात्रा साहित्य का शिरोमणि कहें, तो अतिश्योक्ति नहीं होगी।

राहुल सांकृत्यायन के बाद अज्ञेयजी यात्रा वृतांत को नए साहित्यिक मुकाम तक पहुँचाते हैं। वे इसे यात्रा संस्मरण कहना अधिक पसंद करते थे। इनके उल्लेखनीय यात्रा संस्मरण रहे भारत भ्रमण को लेकर अरे यायावर रहेगा याद’ (1953) और विदेशी यात्राओं को लेकर एक बूँद सहसा उछली’ (1960)। उनका मानना था कि यात्राएँ न केवल बाहर की जाती हैं बल्कि वे हमारे अंदर की ओर भी की जाती हैं। 

इस क्रम में, उल्लेखनीय यात्रा वृतांत, युगऋषि पं. श्रीरामशर्मा आचार्य की कृति सुनसान के सहचर है, जो हिंदी यात्रा लेखन की परम्परा में एक नया आयाम जोड़ती है। (इनके विराट व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व की एक झलक-झांकी इस लेख में पढ़ सकते हैं - वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं.श्रीराम शर्मा आचार्य)

1961 में सम्पन्न हिमालय यात्रा का जीवंत चित्रण इसमें मिलता है, जिसमें प्रकृति के विराट सौंदर्य के साथ उद्दात जीवन दर्शन पग-पग पर पाठकों को आलोकित करता है। बाहर के साथ अन्दर की यात्रा का सुन्दर, विलक्षण एवं प्रेरक प्रस्तुतीकरण इसमें मिलता है।

इसके साथ आज़ादी के बाद हिंदी साहित्य में उल्लेखनीय यात्रा-साहित्य का सृजन होता है, जिसमें मोहन राकेश तथा निर्मल वर्मा जैसे रचनाकार नए आयाम जोड़ते हैं। 

 ...................................................................................................................................यात्रा लेखन के महत्व -

यात्रा लेखन के लाभ अनगिन हैं, जिनको एक सुधी लेखक वखूबी अनुभव कर सकता है।

1 यात्रा लेखन जहाँ लेखक के लिए और गहराई में यात्रा को अनुभव का माध्यम बनता है। और वह यात्राओं को एक अलग ही अंदाज में देखता है, जिसके साथ पाठकों की जिज्ञासा शाँत होती हैं, उनके ज्ञान का विस्तार होता हैदिलो-दिमाग के कपाट खुलते हैं। इसके साथ यात्रा लेखक एक अधिक जिम्मेदार, ज्ञानवान, संवेदनशील, काँफिडेंट, मजबूत और संजीदा इंसान बनता है।

 2 ऐतिहासिक डॉक्यूमेंटेशन, यदि होशोहवास एवं गहरी जिज्ञासा भरी दृष्टि के साथ यात्रा की जाए, तो सहज रुप में आपका यात्रा लेखन ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक धरोहर का हिस्सा बनने वाला है। यात्रा लेखन एक अज्ञात क्षेत्र की विशेषताओं को जिज्ञासु पाठकों के साथ साझा कर उनके अनुभव का हिस्सा बनाता है, उनको यात्रा के लिए प्रेरित करता है। जाने-अनजाने में यात्रा लेखक एक इतिहास लिख रहा होता है, by Exploring the unexplored.   लेकिन इसके लिए न्यूनतम बौद्धिक ईमानदारी, सकारात्मक भाव एवं संवेदनशीलता अभीष्ट रहती है, जिसमें वर्णित तथ्य प्रामाणिकता की कसौटी पर खरे उतरते हों, तथा जिनसे व्यापक स्तर पर पाठकों का हित सधता हो।

3 एक सांस्कृतिक सेतु, यात्रा लेखन सांस्कृतिक पर्यटन का प्रसार करता है, हर देश, समाज व सस्कृति के श्रेष्ठ तत्वों को उजागर करते हुए, आपसी संवाद की पृष्ठभूमि तैयार कर रहा होता है। और अंतर्सांस्कृतिक संचार को संभव बनाता है, पुष्ट करता है। इस तरह यात्रा साहित्य सहज रुप में मानवीय सम्बन्धों को सशक्त करता है। लेकिन इसके लिए यात्रा लेखक में हर संस्कृति की श्रेष्ठ एवं आध्यात्मिक परम्पराओं व जीवन दर्शन की कुछ समझ अपेक्षित रहती है।

सृजन का आनन्द - यात्रा लेखन के साथ सृजन का आनन्द लेखक को सहज रुप में मिलता है, जो उसके मानसिक स्वास्थ्य एवं प्रसन्नता का सशक्त आधार बनता है। यात्रा के जिस एडवेंचर व आनन्द को यात्रा लेखक ने यात्रा के दौरान अनुभव किया था, बैसे ही यात्रा लेखन के साथ सृजनात्मक एडवेंचर का आनन्द उसके हिस्से में आता है।  

 5 दूसरों के काम आने की संतुष्टि का भाव - दूसरों के कुछ काम आने वाली जानकारियों के साझा करने के साथ एक संतुष्टि का भाव लेखक अनुभव करता है। यात्रा लेखन में जिस अथक श्रम व तप-त्याग के साथ लेखक जुटता है, उसके आधार पर दूसरों के जीवन में कुछ गुणवत्ता या वेल्यू जुड़ने पर वह संतुष्ठि के रुप में अपना पुरस्कार पा जाता है। 

6 एक आध्यात्मिक अनुभवयात्रा लेखन लेखक को अपने गहनतर सत्य से जोड़ता है, पाठकों से कन्नेकट करता है। इस प्रक्रिया में वह जीवन के प्रवाह से जुड़ता है, जो उसके लिए तरोताजा करने वाला एक आध्यात्मिक अनुभव जैसा होता है।

 स्वरोजगार का आर्थिक आधार - यदि यात्रा लेखन में पकड़ बनना शुरु हो गई, तो व्यक्ति अपना ब्लॉग तैयार कर सकता है, इसके साथ स्वतंत्र लेखक के रुप में अखबारों व पत्रिकाओं में यात्रा लेख प्रकाशित कर सकता है। और समय के साथ अपनी यात्रा पुस्तक प्रकाशित कर सकता है तथा इस विधा में दूसरों को प्रशिक्षण भी दे सकता है।

यात्रा लेखन से जुड़ी उपरोक्त विशेषताएं व्यक्ति की जीवन यात्रा में सार्थकता का नया अहसास दिलाती हैं और नए सृजन के लिए प्रेरित करती रहती हैं।

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