बुधवार, 25 नवंबर 2020

कुम्भनगरी हरिद्वार - कुछ दर्शनीय स्थल

हिमालय के द्वार पर बसी धर्मनगरी - हरिद्वार 

धर्मनगरी के नाम से प्रख्यात हरिद्वार में शायद ही किसी व्यक्ति का वास्ता न पड़ता हो। 6 और 12 साल के अंतराल में महाकुंभ का आयोजन इसकी एक विशेषता है। फिर जीवन के अंतिम पड़ाव के बाद शरीर के अवसान की पूर्णाहुति अस्थि विसर्जन और श्राद्ध-तर्पण आदि के रुप में प्रायः हरिद्वार तीर्थ में ही सम्पन्न होती है। हिमालय में स्थित चारों धामों की यात्रा यहीं से आगे बढ़ती है, जिस कारण इसे हरद्वार या हरिद्वार के नाम से जाना जाता है। निसंदेह रुप में भारतीय संस्कृति व इसके इतिहास की चिरन्तन धारा को समेटे यहाँ के तीर्थ स्थल स्वयं में अनुपम हैं, जिनकी विहंगम यात्रा यहाँ की जा रही है।

इनमें निसंदेह रुप में कनखल सबसे प्राचीन और पौराणिक स्थल है, जहाँ माता सती ने अपने पिता दक्षप्रजापति द्वारा अपने पति शिव के अपमान होने पर हवन कुण्ड में स्वयं को आहुत किया था और फिर शिव के गणों एवं वीरभद्र ने यज्ञ को ध्वंस कर दक्ष प्रजापति का सर कलम कर दिया था और फिर भगवान शिव ने इनके धड़ पर बकरे का सर लगा दिया था। सती माता के जले शरीर को कंधे पर लिए शिव विक्षिप्तावस्था में ताण्डव नर्तन करते हुए पृथ्वी में विचरण करते हैं, चारों ओर प्रलय की स्थिति आ जाती है। तब विष्णु भगवान सुदर्शन चक्र से सत्ती के शरीर को कई खण्डों में अलग करते हैं। जहाँ माता सती के ये अंग गिरते हैं, इन्हें शक्तिपीठ का दर्जा दिया गया। भारतीय परम्परा में ऐसे 51 या 52 शक्तिपीठों की मान्यता है। कनखल दक्षप्रजापति मंदिर गंगाजी की धारा के किनारे शक्तिपीठों के आदि उद्भव स्रोत के रुप में हमें पौराणिक इतिहास का स्मरण कराते हैं, जो हरिद्वार बस स्टैंड से लगभग 4 किमी की दूरी पर स्थित हैं।

कनखल में ही रामकृष्ण मिशन सेवाश्रम पधारने योग्य स्थल है, जिसे स्वामी विवेकानन्द एवं अनके गुरु भाईयों ने साधु, अनाथ एवं गरीब जनता की सेवा-सुश्रुणा के लिए एक आश्रम और चिकित्सालय स्थापित किया था। आज यहाँ पूरा हॉस्पिटल है और साथ ही एक समृद्ध पुस्तकालय के साथ रामकृष्ण आश्रम का मंदिर एवं मठ भी। इससे जुड़े कई रोचक एवं रोमाँचक संस्मरणों को विवेकानन्द साहित्य में पढ़ा जा सकता है। कनखल में ही माँ आनन्दमयी का आश्रम भी स्थित है। माँ आनन्दमयी बंगाल में पैदा हुई एक महान संत थी, जो योग विभूतियों से सम्पन्न थी। देश भर में कई स्थानों पर इनके मंदिर हैं, लेकिन कनखल, हरिद्वार में इनकी समाधि है, जो श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र है।

 इसके आगे सिंहद्वार से नीचे हरिद्वार-दिल्ली मार्ग पर गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय पड़ता है, जिसको आर्यसमाज के महान संत एवं सुधारक स्वामी श्रद्धानन्दजी ने स्थापित किया था। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान तथा बाद में यह विश्वविद्यालय मूर्धन्य साहित्यकारों, पत्रकारों, विचारकों, शिक्षाविदों एवं समाजसेवियों को तैयार करने की उर्बर भूमि रहा है। इसके आगे बहादरावाद सड़क पर गंगनहर के किनारे नवोदित उत्तराखण्ड संस्कृत विश्वविद्यालय स्थापित है, जो संस्कृत एवं आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के अध्ययन, अध्यापन एवं शोध पर केंद्रित है।

सिंहद्वार के पास गंगनहर के उस पार श्रीअरविंद आश्रम स्थित है। यह इतने शाँत एकांत स्थल पर है कि बाहर सड़क के कोलाहल के बीच इसका अंदाजा नहीं लगता, जहाँ इसका छोटा सा पुस्तक विक्रय स्टाल लगा हुआ है। लेकिन अन्दर एक भव्य, बहुत ही सुंदर आश्रम है, जहाँ आश्रम के साधकों के सान्निध्य में बेहतरीन आध्यात्मिक सत्संग एवं मार्गदर्शन पाया जा सकता है।

यही मार्ग उत्तर की ओर सीधा बस स्टैंड तथा रेल्वे स्टेशन की ओर आता है, दोनों लगभग आमने-सामने पास-पास स्थित हैं। यहाँ से उत्तर की ओर 3 किमी की दूरी पर हर-की-पौड़ी पड़ती है, जहाँ तक ऑटो-रिक्शा से आया जा सकता है। यही श्राद्ध-तर्पण, अस्थि विसर्जन का मुख्य स्थल है। मान्यता है कि यहीं पर समुद्र मंथन के बाद अमृत की बूँदे छलकी थीं, जिसके आधार पर यहाँ क्रमशः छः और बारह वर्ष के अन्तराल में अर्ध-कुम्भ और महाकुम्भ का आयोजन किया जाता है। वर्ष 2021 में यहाँ महाकुम्भ का आयोजन प्रस्तावित है। इसके घाट का निर्माण सर्वप्रथम 57 ईसा पूर्व सम्राट विक्रमादित्य द्वारा अपने भाई भर्तृहरि की याद में किया गया माना जाता है, जिन्होंने यहाँ गंगा तट पर जीवन का उत्तरार्ध ध्यान-साधना में बिताया था।

हरकी पौड़ी की सांयकालीन गंगा आरती सुप्रसिद्ध है। शाम को सन्ध्या वेला के समय घंटे, घडियाल और शंख ध्वनियों के बीच प्रज्जवलित दीपों से सजे थालों की श्रृंखला दर्शनीय रहती है। इस भक्तिमय दृश्य के साक्षी बनने व इसमें भाग लेने के लिए नित्यप्रति श्रद्धालुओं की भीड़ लगी रहती है। हरिद्वार पधारा शायद ही कोई दर्शनार्थी इसके दर्शनलाभ से वंचित रहता हो।

हर-की-पौड़ी के आसपास खाने पीने के कुछ बेहतरीन ठिकाने हैं, जिनका जिक्र करना उचित होगा। हर-की-पौड़ी के पास ही मोहन पूरी बाले की दुकान है, जो गर्मागर्म हल्वा, पूरी, कचौड़ी आदि के लिए प्रख्यात है। इसके अंदर मोती बाजार में प्रकाश लोक नाम से लाजवाब लस्सी की दुकान है, जिसका गर्मी के मौसम में विशेष रुप से लुत्फ उठाया जा सकता है। बस स्टैंड के पास त्रिमूर्ति के अंदर गली में गुजराती ढावा भी उल्लेखनीय है, जिसमें महज 50 रुपए में 15-20 व्यंजनों के साथ स्वादिष्ट एवं पौष्टिक गुजराती थाली परोसी जाती है। इसके आस-पास मोतीबाजार में तमाम दुकानें हैं, जहाँ से घर के लिए रुद्राक्ष, शंख, कंठी, मालाएं जैसी धार्मिक बस्तुएं प्रतीक एवं उपहार स्वरुप खरीदी जा सकती हैं।

हर-की-पौड़ी के दोनों और 2-3 किमी के फासले पर दो पहाड़ियाँ हैं, बीच में गंगाजी बहती हैं। दायीं ओर की पहाड़ी पर मनसा देवी का मंदिर है तो वायीं ओर की पहाड़ी पर चण्डी देवी का। दोनों मंदिरों तक उड़न खटोलों की सुविधा है। चण्डी देवी के प्रवेश द्वारा पर महाकाली का सिद्धपीठ है, जिसकी स्थापना महान तंत्र सम्राट कामराज महाराज ने की थी। इसी के आगे चण्डीघाट बना है, जो संभवतः हरिद्वार के भव्यतम घाटों में से एक है। यहीं पर कुष्ठाश्रम है, जो निष्काम सेवा का एक विरल उदाहरण है।

दोनों के मध्य पुलिस चौकी के पास मायादेवी का मंदिर है, जो यहाँ की अधिष्ठात्री देवी मानी जाती हैं, इन्हीं के नाम से हरिद्वार का एक नाम मायापुरी भी है। इसकी गणना 52 शक्तिपीठों में भी होती है। मान्यता है कि सती माता का ह्दय एवं नाभी स्थल यहाँ गिरा था। यहीं से थोड़ी दूरी पर ललिताराव पुल के आगे शिवालिक बाईपास के दायीं ओर बिल्केश्वर महादेव एवं गौरी कुण्ड पड़ते हैं। मान्यता है कि माँ पार्वती ने इसी स्थल पर बेल के पत्ते खाकर शिव की आराधना की थी और गौरी कुण्ड में वे स्नान किया करती थीं। यहीं से होकर शिवालिक पहाड़ियाँ आगे बढ़ती हैं।

यहाँ से उत्तर दिशा में सप्तसरोवर क्षेत्र के पास भारतमाता का सात मंजिला मंदिर है, जिसे स्वामी सत्यामित्रानन्दजी ने स्थापित किया था। इसमें भारत भर के हर प्राँत की संस्कृति, मातृशक्तियों, संतों-सुधारकों-यौद्धाओं, देवी-देवताओं की भव्य मूर्तियों एवं प्रस्तुतिओं को अलग-अलग मंजिलों में देखा जा सकता है। संक्षेप में भारतभूमि की युग-युगीन आध्यात्मिक-सांस्कृतिक परम्परा के दिग्दर्शन यहाँ किए जा सकते हैं। इसकी सातवीं मंजिल से गंगाजी की धाराओं के विहंगम दर्शन किए जा सकते हैं, जो हरिद्वार में अन्यत्र दुर्लभ हैं।

इसके पास ही ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान है, जहाँ आद्यशक्ति गायत्री की 24 शक्तिधाराओं के भव्य मंदिर है, साथ ही विज्ञान और अध्यात्म का समन्वय करती प्रयोगशाला एवं पुस्तकालय है।


यहाँ से थोड़ी आगे अजरअँध आश्रम पड़ता है, जिसमें अंधें बच्चों की निशुल्क शिक्षा व्यवस्था है। इसके थोड़ी आगे गोस्वामी गणेशदत्तजी द्वारा स्थापित सप्तसरोवर आश्रम और संस्कृत विद्यालय है। सप्तसरोवर क्षेत्र के वारे में मान्यता है कि जब गंगा मैया हिमालय से मैदानों की ओर प्रवाहित हो रही थी, तो इस क्षेत्र में सप्तऋषि तप कर रहे थे। इनकी तपस्या में विघ्न न पड़े, इसलिए गंगा मैया यहाँ सात भागों में विभक्त हुईं थी। इसके थोड़ी आगे शांतिकुंज आश्रम आता है, जिसे विश्वामित्र की तपःस्थली पर स्थापित माना जाता है। पं. श्रीरामशर्मा आचार्य द्वारा 1970 में गायत्री तीर्थ के रुप में स्थापित इस आश्रम में गायत्री-यज्ञ, संस्कार के अतिरिक्त कई तरह की रचनात्मक गतिविधियाँ संचालित की जाती हैं।

यहाँ नौ दिन के साधना सत्र चलते हैं, कोई भी गायत्री साधक इनमें शामिल हो सकता है। इसी तरह एक मासीय युग शिल्पी सत्र तथा तीन माह के परिव्राजक प्रशिक्षण सत्र चलते हैं। नैष्ठिक साधकों के लिए पाँच दिवसीय अंतःऊर्जा सत्र भी चलते हैं। यहाँ युगऋषि द्वारा 1926 से प्रज्जवलित अखण्ड दीपक के दर्शन किए जा सकते हैं। यहाँ देवात्मा हिमालय मंदिर भी है। 


आगंतुकों के लिए लंगर जैसी निःशुल्क भोजन की व्यवस्था है। ऋषि परम्परा पर आधारित सप्तऋषि मंदिर एवं प्रदर्शनी भी है, जहाँ शांतिकुंज एवं युग निर्माण आंदोलन से सम्बन्धित गतिविधियों की जानकारी पाई जा सकती है। गेट नं. 4 से प्रवेश करते ही गाईड विभाग से सहज मार्गदर्शक उपलब्ध रहता है। श्राद्ध तर्पण, संस्कार और आदर्श विवाह संस्कार यहाँ की अन्य निःशुल्क सेवाएं हैं। यहाँ के बुक स्टॉल पर आचार्यजी द्वारा लिखित 3200 से अधिक पुस्तकों तथा अखण्ड ज्योति पत्रिका को अपनी रुचि एवं आवश्यकतानुसार खरीदा जा सकता है। साथ ही विभिन्न जड़ी-बूटियाँ व इनके उत्पाद भी यहाँ उपलब्ध रहते हैं।

इसी के सामने दक्षिण भारतीय शैली में निर्मित ब्यास मंदिर है, तो गंगाजी के किनारे बने घाट नं. 20 के तट तक फैला है। यहाँ से नीचे गंगाजी के किनारे घाट नम्बर एक तक घाटों की श्रृंखला फैली है। ये घाट गंगाजी के किनारे बने तटबंधों पर स्थित हैं। गंगाजी का जल बरसात में बाढ़ के कारण उफनने पर किसी तरह की त्रास्दी का कारण न बने, इसके लिए गंगाजी के किनारे हर-की-पौड़ी तक तटबंध बने हुए हैं। इस बाँध पर लोगों को सुबह-शाम भ्रमण करते देखा जा सकता है और शाम को घाट के किनारे साधक यहाँ स्नान-ध्यान करते हैं। यहाँ के सात्विक, शाँत, एकाँत एवं आध्यात्मिक ऊर्जा से चार्ज वातावरण से आगंतुक लाभान्वित होते हैं।

गंगाजी के उस पार प्राकृतिक रुप से टापू बने हुए हैं, जहाँ घने जंगल हैं। 


पहले यहाँ साधु-सन्यासी लोग कुटिया बनाकर रहते थे, लेकिन अब वन विभाग के नियमानुसार यहाँ किसी तरह का निर्माण अबैध ठहराया गया है, अतः यहाँ कोई स्थायी निवास नहीं है। लेकिन यात्रीगण गंगाजी की धाराओं को पार कर वहाँ पिकनिक मना सकते हैं, कुछ पल गंभीर चिंतन-मनन व ध्यान के बिता सकते हैं।

 कुम्भ के दौरान ये टापू आबाद रहते हैं, जब इसमें संत महात्मा अपनी शिष्य एवं भक्त मण्डली के साथ यहाँ डेरा जमा कर महीनों रहते हैं।

शांतिकुंज के आगे हरिद्वार के उत्तरी छोर पर है देवसंस्कृति विश्वविद्यालय, जो 2002 में स्थापित हुआ था। युगऋषि पं. श्रीराम शर्मा आचार्य के विजन पर आधारित यह विश्वविद्यालय शिक्षा के साथ विद्या के लिए समर्पित है। 


यहाँ पर मूल्य आधारित शिक्षा के अभिनव प्रयोग चल रहे हैं। छात्रों को स्वाबलम्बी बनाने के लिए तकनीकी कौशल एवं बौद्धिक ज्ञान देने के साथ ही जीवन जीने की विद्या का भी कुशल प्रशिक्षण दिया जाता है, जिससे वे जीवन के हर क्षेत्र में एक जिम्मेदार नागरिक के रुप में समाज, राष्ट्र एवं विश्वमानव के कुछ काम आ सकें। संक्षेप में यहाँ उच्च शिक्षा के साथ संस्कार की उत्तम व्यवस्था है।

हरिद्वार के उत्तर में जहाँ देवसंस्कृति विश्वविद्यालय है तो दक्षिण में बाहरी छोर पर पातंजलि योग पीठ एवं विश्वविद्यालय, जिन्हें योगगुरु बाबा रामदेव के अभिनव प्रयोगों के लिए जाना जाता है। योग को टीवी माध्यम से घर-घर पहुँचाने में इनका योगदान स्तुत्य रहा है। आचार्य बालकृष्ण के साथ मिलकर इनका आयुर्वेद एवं दैनन्दिन उपयोग के देशी उत्पादों को घर-घर पहुँचाना एक बड़ा योगदान है। इनके साथ योग आयुर्वेद के क्षेत्र में हो रहे शोध अनुसन्धान, बच्चों के लिए वैदिक शिक्षा पर आधारित गुरुकुलम् की अभिनव पहल आदि के दर्शन यहाँ किए जा सकते हैं।

 उत्तरी छोर के उस पार रायवाला क्षेत्र में तथा हरिपुर कलाँ के आगे नदी के पार गंगा के निकट एक अद्भुत आश्रम है ऑरोवैली, जिसका शांति व अध्यात्म की तलाश में भटक रहे अभीप्सु एक बार अवश्य अवलोकन कर सकते हैं। हालाँकि यहाँ तक पहुँचने का कोई बोर्ड या विज्ञापन कहीं नहीं मिलेगा, लेकिन किसी को साथ लेकर एक बार इसके परिसर में जीवंत नीरव-शांति को अनुभव किया जा सकता है। स्वामी ब्रह्मदेव 1985 से यहाँ एक तरह से धुनी रमाकर बैठे हैं। श्रीअरविंद एवं श्रीमाँ की अध्यात्म विद्या के आधार पर यहाँ आश्रम की गतिविधियों को देखा जा सकता है। यहाँ बहुत समृद्ध पुस्तकालय है, ध्यान कक्ष है, भोजनालय है, एक गौशाला है, स्कूली बच्चों के लिए स्कूल है। साथ ही एक सर्वधर्म समभाव एवं विश्व एकता को लेकर विश्व मंदिर है। पूरा आश्रम आम के बाग तथा हरियाली से आच्छादित है। अभीप्सु यहाँ स्वामीजी के सान्निध्य में सत्संग लाभ ले सकते हैं।

इस तरह हरिद्वार में एक-दो दिन के प्रवास में 


इन स्थलों के दर्शन किए जा सकते हैं। अपनी आध्यात्मिक सांस्कृतिक विरासत से परिचय के साथ अध्यात्म लाभ लेते हुए कुछ पल शांति, सुकून एवं आत्म-चिंतन मनन के बिताए जा सकते हैं। बस या आटो को किराए पर लेकर आसानी से ये दर्शन लाभ लिए जा सकते हैं। इसके अतिरिक्त और भी तमाम मंदिर, आश्रम एवं शिक्षा केंद्र यहाँ स्थित हैं, जिनका जिक्र यहाँ नहीं हो पाया है।
 

शुक्रवार, 13 नवंबर 2020

ब्लॉगिंग की प्रारम्भिक चुनौतियाँ

 कुछ इस तरह करें इनको पार

यदि आपका ब्लॉग शुरु हो चुका है, तो इसके लिए आपको बधाई। अब अगले कुछ माह आप इसके सबसे महत्वपूर्ण एवं कठिन चरण से होकर गुजरने वाले हैं, जो यह तय करेगा कि आपका ब्लॉग अंजाम की ओर बढ़ेगा या फिर रास्ते में ही कहीं खो जाएगा। क्योंकि ब्लॉगिंग में प्रवेश करने वाले व्यक्तियों में 10 फीसदी व्यक्ति ही अपने ब्लॉग को आगे जारी रख पाते हैं। बाकि 90 प्रतिशत ब्लॉगिंग को रास्ते में ही छोड़ देते हैं।

आप भी यदि अपने ब्लॉग को अंजाम तक पहुँचाना चाहते हैं, एक सफल ब्लॉगर के रुप में उभरना चाहते हैं, तो यहाँ शेयर किए जा रहे अनुभूत नुस्खे आपके काम आएंगे, ऐसा हमारा विश्वास है।

1.      नियमितता बनाएं रखें, नागा न करें जीवन के हर क्षेत्र की तरह ब्लॉगिंग भी नियमितता की माँग करती है। एक नियमित अन्तराल में अपना ब्लॉग लिखें व पोस्ट करते रहें। माह में 2-3 पोस्ट का औसत कोई कठिन टार्गेट नहीं है। लेकिन कोई भी माह नागा न हो, आपातकाल में भी न्यूनतम 1 पोस्ट तो किसी तरह से डालें ही। यह न्यूनतम है। यह हमारी तरह स्वान्तः सुखाय ब्लॉगर का औसत है, यदि आप प्रोफेशनल ब्लॉगर के रुप में आगे विकसित होना चाहते हैं, तो आप सप्ताह में दो-तीन पोस्ट की ओर बढ़ सकते हैं।

2.      अपने पैशन अर्थात् जुनून को करें शेयर जिस विषय के बारे में आप गहरा लगाव रखते हैं, जिसके बारे में आपका पर्याप्त अनुभव है या जिस पर आपको लगता है कि आप आधिकारिक रुप से कुछ कह सकते हैं, उसे ब्लॉग पोस्ट के रुप में तैयार करें। जितना आप विषय को एन्जॉयाय करेंगे, पाठक भी उस अनुभव का हिस्सा बन पाएंगे। यदि आप अनमने मन से मात्र अपना बुद्धि का उपयोग कर, ईधर-उधर से कंटेंट जुटाकर, बिना अनुभव किए विषय को लिखते हैं, तो यह पाठक की बुद्धि तक ही पहुँच पाएगा, उसके दिल को नहीं छू पाएगा।

3.      अपने नीच् (niche) की न करें अधिक चिंता यदि आपके ब्लॉग का केंद्रिय विषय (नीच्) अभी यदि स्पष्ट नहीं है तो चिंता न करें। जिस विषय पर आपका कुछ अधिकार है, जिसके बारे में आपके पास कुछ परिपक्व राय है, जो आपके पैशन से जुड़ा है, उस पर लिखते जाएं, शेयर करते जाएं। पाठक क्या पढ़ना पसन्द करते हैं, आपकी किस पोस्ट पर पाठकों का कैसा रिस्पोंस आता है, कुछ माह बाद यह स्पष्ट होने लगेगा। और आपका ब्लॉग नीच् (niche) भी स्पष्ट होता जाएगा। ब्लॉगिंग के शुरुआती दौर में इसकी अधिक चिंता न करें, समय के साथ इसकी स्पष्टता उभरती जाती है। यह एक क्रमिक प्रक्रिया है, जो समय के साथ निखरती है।

4.      कुछ भी लिखने की गलती न करें ब्लॉग में लेखों की संख्या को पूरा करने के लिए कुछ भी लिखकर पोस्ट करने की गलती न करें। क्वांटिटी से अधिक क्वालिटी पर ध्यान दें। ऐसा लिखें जिसे आप स्वयं पढना चाहें, जिसको बाद में पढ़ने पर आपको आनन्द आए, जिसको पढ़ने पर आपकी समस्याओं के समाधान मिले। हर विषय पर सैंकड़ों नहीं हजारों ब्लॉगर्ज रोज लिख रहे हैं, पाठक आपका ही क्यों पढ़ें, विचार करें। आपके ब्लॉग में पाठकों की किन्हीं जिज्ञासाओं के समाधान हो, किन्हीं प्रश्नों के जबाब हों, उनके ह्दय के सूखे पड़े कौने के लिए कुछ रोचक-रोमाँचक अनुभवों का साजो-सम्मान हो, तो आपके ब्लॉग की सार्थकता है। यदि विषय को आप अपने दिलो-दिमाग से लिखते हैं, तो उस पर आपके व्यक्तित्व की मौलिक छाप अवश्य पढ़ेगी और पाठक सामग्री की ताजगी अवश्य अनुभव करेंगे।

5.      कॉपी पेस्ट से बचें आजकल इंटरनेट आने से हर तरह का मैटर आसानी से उपलब्ध रहता है। अपने आलस-प्रमाद में विद्यार्थी परीक्षा में कॉपी-पेस्ट का पर्याप्त सहारा लेते हैं। ब्लॉगिंग में यह गलती न करें। एक तो गूगल गुरु इसको जाँचने में देर नहीं करता, जिससे आपके ब्लॉग की पर्फोमेंस आगे चलकर प्रभावित हो सकती है। आप कॉपी राइट या प्लैगरिज्म के कानूनी पचड़े में भी पड़ सकते हैं। साथ ही पाठक के बीच भी अपनी प्रामाणिकता खो बैठेंगे। यदि कहीं थोड़ी बहुत नकल करनी भी पड़े, तो अक्ल के साथ काम करें। आपके ब्लॉग का मैटर जितना मौलिक हो, ऑरिजनल हो, आपके व्यक्तित्व की खुशबू लिए हो, उतना ही बेहतर रहेगा।

6.      उचित फोटो को जोड़ें आपके विषय से जुड़े उपयुक्त फोटो का उपयोग करें, विशेषरुप से यात्रा वृतांत से जुड़े लेखन में, जहाँ चित्रों का बहुत महत्व रहता है। जो बात आप शब्दों में कह रहे होते हैं, उसमें रही सही कसर फोटो पूरा कर लेते हैं और आपकी ब्लॉग पोस्ट पाठकों को एक बेहरतीन अनुभव देती है। फोटो के चयन के संदर्भ में भी कॉपी-पेस्ट से बचें। यथासम्भव अपनी मौलिक फोटो का ही प्रयोग करें। फोटो को उचित कैप्शन के साथ प्रयोग करें।

7. पर्फेक्ट समय का न करें इंतजार – हर माह न्यूनतम संख्या में ब्लॉग पोस्ट करने के लिए आपको मेहनत करनी होगी, लेखन का एक दैनिक या साप्ताहिक शेड्यूल बनाना पड़ेगा और अंत में समय पर प्रकाशित करना होगा। इसमें अंतहीन बिलम्ब नहीं हो सकता, कि अभी पोस्ट पर्फेक्ट नहीं है, लोग क्या सोचेंगे आदि। इसकी अधिक परवाह किए बिना इतना ध्यान दें, कि आपकी पोस्ट न्यूतम मापदण्ड पूरा कर रही है। यदि थोड़ी बहुत कसर रह भी गई तो आप इसे बाद में भी रिवाइज कर सकते हैं। पोस्ट के संदर्भ में नियमितता का अपना महत्व है। हर माह बिना किसी नागा किए न्यूनतम ब्लॉग तैयार करना तथा पोस्ट करना अपने ब्लॉग की सफलता के संदर्भ में एक अलिखित करार है, जिसे आपको पूरा करना है।

8. उचित प्लेटफार्म पर करें शेयर, यदि आप ब्लॉग तैयार कर इसे पाठकों के बीच शेयर नहीं करेंगे, तो आपके लिखे पर पाठकों की क्या प्रतिक्रिया आती है, वे इसे कितना पढ़ते हैं, इनका रिस्पोंस जानना भी महत्वपूर्ण होता है। इसके लिए सोशल मीडिया के तमाम प्लेटफॉर्म का उपयोग कर सकते हैं, जहाँ आपकी कुछ उपस्थिति दर्ज हो। एक तो इससे आपके ब्लॉग तक ट्रैफिक आएगा, और पाठकों की पसन्द, नापसन्द आदि के आधार पर फिर अपने लिखे में और क्या सुधार करना है, यह भी पता चलेगा। हर चीज पाठकों को पसन्द ही आए, यह जरुरी नहीं। आपने अपना वेस्ट उड़ेल दिया, इतना ही काफी है। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि उचित समय पर उत्कृष्टता के कदरदान मिल ही जाते हैं।

9. असफलता के लिए भी रहें तैयार, हमेशा आपके लिखे के लिए रिस्पोंस अनुकूल एवं उत्साहबर्धक ही रहे, जरुरी नहीं। कई पोस्ट में हो सकता है, कोई रिस्पोंस ही न मिले और ऐसे में आपको स्वयं पर ही संशय होने लगे कि ब्लॉगिंग मेरे वश की बात नहीं। इतनी सारी पोस्ट डाली, लेकिन कोई उत्साहबर्धक रिस्पोंस ही नहीं आ रहा। ऐसे उपेक्षा एवं रिजेक्शन के अनुभवों से हर ब्लॉगर्ज को दो चार होना पड़ता है। लेकिन यही आपके जुनून के लिए, पैशन के लिए मसाला भी है। अपने लिखे पर बारीकि से निरीक्षण करें, कहाँ कमी रह रही है, उसको समझें व सुधार करें। इसमें अनुभवीं लोगों का मार्गदर्शन भी ले सकते हैं। यदि आपके पैशन, जुनून में दम है तो हर असफलता से सीख लेते हुए इन्हें सफलता की सीढ़ी बना सकते हैं।

10. कैसे लिखें – यदि आप अभी नौसिखिया लेखक हैं, विचार भाव का समन्दर अंदर लहलहा रहा है, लेकिन इसको शब्द नहीं दे पा रहे। लिखने बैठते हैं, तो एक भी शब्द झर नहीं पाता, झरता भी है तो बेतरतीव रहता है। एक फ्लो में सधा हुआ लेखन नहीं बन पड़ रहा। यदि आप ऐसी कुछ दुबिधा के बीच लिख नहीं पा रहे और लेखन की शुरुआती बारीकियों से परिचित होना चाहते हैं, तो शुरुआती लेखन कला पर हमारी ब्लॉग पोस्ट (लेखन की शुरुआत करें कुछ ऐसे) पढ़ सकते हैं, जिसमें स्टेप वाइज कैसे आगे बढ़ें, इस पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है।

यदि आप इन बातों का ध्यान रखते हैं, तो कोई कारण नहीं कि अगले कुछ माह में ब्लॉगिंग आपके जीवन का हिस्सा बन जाएगी और तब तक आपका गूगल एडसेंस भी एक्टिवेट हो चुका होगा। साथ ही ब्लॉगिंग की बारीकियां आपको अपने अनुभव से समझ आ रही होंगी और आप ब्लॉगिंग की प्रारम्भिक चुनौतियों को पार करते हुए ब्लॉगिंग की अगली कक्षा के लिए तैयार हो चुके होंगे।

यदि आपका ब्लॉग अभी तक नहीं बना है और आप अपना ब्लॉग बनाना चाहते हैं, तो आप पढ़ सकते हैं, ब्लॉगिंग की शुरुआत करें कुछ ऐसे।

रविवार, 25 अक्टूबर 2020

यात्रा वृतांत – हमारी पहली त्रिलोकनाथ यात्रा, भाग-2

 लाहौल घाटी के विहंगम दर्शन

लाहौल घाटी, अक्टूवर 2020 का नजारा

अगले दिन केलाँग से लोकल बस में त्रिलोकनाथ धाम की यात्रा करते हैं, जो यहाँ से 45 किमी की दूरी पर दक्षिण की ओर स्थित है। रास्ते में तांदी के संगम को दायीं ओर से पार करते हैं, जहाँ चंद्रा और भागा नदियाँ मिलकर चंद्रभागा नदी के रुप में आगे बढ़ती हैं, जो आगे चलकर चनाव नदी कहलाती है। यहाँ  रास्ते में ठोलंग, शांशां आदि स्टेशन पड़ते हैं। मालूम हो कि ठोलंग ऐसा गाँव है जहाँ हर घर से अफसर, डॉक्टर और आईएएस अधिकारी मिलेंगे और यहाँ पर सबसे अधिक आईएएस अफसर होने का रिकॉर्ड है। 

लाहौल घाटी का एक गाँव

इनके आगे एक स्थान पर बस से उतर कर पुल से चंद्रभागा नदी (चनाव) को पार करते हैं। साथ में उस पार गाँव के लोकल लोग भी हमारे साथ थे। चंद्रभागा का पुल पार कर गाँव से होकर गुजरते हैं, इनके खेतों में एक विशेष प्रकार की फूल वाली लताओं से खेतों को भरा पाते हैं। पता करने पर इनका नाम हॉफ्स निकला, जो खेतों व गाँव के सौंदर्य़ में चार चाँद लगा रही थी। इनसे बेहतरीन किस्म की वीयर तैयार की जाती है और किसानों को इस फसल के अच्छे दाम भी मिलते हैं।

लगभग आधा घण्टा बाद हम त्रिलोकीनाथ मंदिर पहुँचते हैं। अपना बाहन होता तो सीधा मंदिर परिसर तक आ सकते थे, लेकिन रास्ते के खेत-खलिहान व गाँव के नजारों से वंचित रह जाते। मंदिर बौद्ध-हिंदु परम्परा का मिश्रण लगा, जो है तो शिव को समर्पित लेकिन इसके बाहर कालचक्र लगे हैं, जिनकी ओम मणि पद्मेहुम का मंत्र बोलते हुए और कालचक्र को हाथ से घुमाते हुए परिक्रमा लगाई जाती है। 

त्रिलोकनाथ परिसर में दर्शनार्थियों की कतार

संभवतः यह विश्व का एकमात्र मंदिर है, जहाँ दो धर्मों के लोग एक ही ईष्ट की पूजा अपनी श्रद्धानुसार करते हैं। हिंदु धर्म वाले यहाँ शिव की उपासना करते हैं, तो बौद्ध आर्य अवलोकितेश्वर के रुप में पूजा करते हैं। लोकमान्यता में इस मंदिर को कैलास और मानसरोवर के बाद सबसे पवित्र तीर्थ माना जाता है। हिंदु धर्म के लोगों का मानना है कि इस मंदिर का निर्माण पाण्डवों ने किया था, वहीं बौद्ध धर्माबलम्बियों का मानना है कि पद्मसम्भव यहाँ 8वीं शताब्दी में आए थे और यहाँ पूजा किए थे।

यहाँ से हम आगे बढ़ते हुए दूसरी ओर से नीचे उतरते हैं, और उस पार उदयपुर शहर की ओर बढ़ते हैं, जो त्रिलोकनाथ से 9 किमी की दूरी पर स्थित है। 

लाहौल घाटी का विहंगम दृश्य

ढलानदार खेतों से होकर हम ऩीचे उतर रहे थे। हॉप्स की लताओं से भरे खेत बहुत सुंदर लग रहे थे। खेतों के बीच मेंढ़ से बनी राह से पानी की धाराएं मधुर स्वर में कलकल निनाद करते हुए बह रही थी। इसकी मेढ़ पर खड़े विलो के हरे-भरे पेड़ दिन की गर्मीं के बीच शीतल अहसास दिला रहे थे। इनको पार करते हुए हम नीचे भागा नदी तक पहुँचते हैं और पुल को पार कर मुख्य मार्ग से उदयपुर की ओर बढ़ते हैं। रास्तेभर हमें कोई बस नहीं मिल पायी और हम लगभग 4-5 किमी उदयपुर तक नदी के किनारे पैदल ही चलते रहे। रास्ते भर देवदार के पेड़ और चारों ओर की हरियाली कुछ राहत देती रही।

उदयपुर पहुँचकर भगवती मृकुला देवी के दर्शन करते हैं, जिसके मंदिर का अपना इतिहास है। इन्हें दुर्गा माता का अवतार माना जाता है और इसे चम्बा के राजा उदयसिंह द्वारा निर्मित किया गया था। मान्यता है कि मंदिर 6000 साल पुराना है, जिसे स्वयं विश्वकर्मा ने बनाया था, लेकिन बाद में समय-समय पर इसका जीर्णोद्धार होता रहा। 

मृकुला माता, उदयपुर

इसके अंदर लकड़ी की सुन्दर नक्काशी की गई है, जिसमें महाभारत, रामायण और सनातन धर्म की पौराणिक कथाओं को उकेरा गया है। मान्यता है कि दुर्गा माता ने यहीं पर महिषासुर का बध किया था।

उदयपुर कैंपिंग साईट के रुप में भी लोकप्रिय है। लाहौल के रेगिस्तानी पहाड़ों के उल्ट इस ओर की हरियाली व प्राकृतिक सौंदर्य यात्रियों को इसके लिए प्रेरित करता है। उदयपुर से हम बस में चढ़कर केलाँग तक आते हैं, जो यहाँ से 53 किमी की दूरी पर स्थित है। रास्ते में कई गाँव पार किए और कुछ नदी के उस पार दिखे। सेब की खेती का चलन भी इस क्षेत्र में दिखा। मालूम हो कि पहले जहाँ लाहौल में मात्र आलू उगाया जाता था, जो अपनी बेहतरीन गुणवत्ता के कारण निर्यात होता रहा है। 

कैलांग-उदयपुर के बीच राह में

फिर यहाँ आलू के साथ मटर व अन्य इग्जोटिक सब्जियाँ उगाई जाती हैं। इसके बाद हॉफ्स की बेलों का चलन शुरु होता है। अब यहाँ सेब की उमदा फसल भी तैयार हो रही है, जो देर अक्टूबर या नवम्बर के शुरुआत में तैयार होती है और जब शिमला-कुल्लू का सेब मार्केट में खत्म हो जाता है, तब यह तैयार होता है। साइज छोटा किंतु स्वाद में मीठा और रसीला होता है। इसकी सेल्फ लाइफ भी अच्छी होती है, जिस कारण यह देर तक टिकता है।

कैलाँग में घर आकर हम भोजन ग्रहण करते हैं और पिताजी से लाहौल घाटी की कुछ विशेषताओं से परिचित होते हैं। यहाँ के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में लामा का उँचा स्थान रहता है और हर घर से एक संतान का लामा बनना अच्छा माना जाता है। सर्दियों में यहाँ जनजीवन घरों की चार दिवारी में सिमट जाता है, खाने पीने की व्यवस्था पहले से की जाती है। आलू से लेकर अनाज सब्जी व सुखा माँस सुरक्षित और संरक्षित रखे जाते हैं। यहाँ पर दोंग्मों में दूध, घी और नमक को मंथकर विशिष्ट नमकीन चाय तैयार की जाती है। इसके साथ सत्तु को खाने का चलन है, जो एक पौष्टिक एवं स्वादिष्ट स्वल्पाहार रहता है।

विलो के पतझड़ी वृक्षों के संग

अब यहाँ के अधिकाँश लोग कुल्लू मानाली के इलाकों में बस चुके हैं। यहाँ के लोगों को बहुत मेहनती माना जाता है। इनके श्रम के साथ ट्राइबल एरिया का दर्जा मिला होने के कारण यहाँ के लोग सामाजिक-आर्थिक रुप से विकास की मुख्यधारा में शामिल हो चुके हैं तथा सुदृढ़ स्थिति की ओर बढ़ रहे हैं।

हमारा कैलांग प्रवास का समय पूरा हो रहा था, अंतिम दिन हमारा सफर कैलाँग से जिस्पा, दारचा व इसके आगे के एक गाँव तक का रहा, जिस मार्ग का वर्णन पर्वतारोहण के लिए यहाँ से गुजरे लेख (मानाली से जिंगजिंगवार घाटी का रोमाँचक सफर) में कर चुके हैं। मालूम हो कि दारचा (11020 फीट) लाहौल घाटी में मानाली-लेह सड़क पर अंतिम मानवीय बस्ती है। इस यात्रा का उद्देश्य पर्वतारोहण के दिनों की यादों को ताजा करना था। अपनी सहधर्मिणी को हम अपनी रोमाँचक यात्रा के रुट को बताते रहे और पुरानी यादों को ताजा कर बापसी की बस से केलाँग आए। और अगले दिन यहाँ की रोमाँचक यादों को समेटते हुए कैलाँग बस से 116 किमी का सफर तय करते हुए बापिस मानाली पहुँचे। फ्लाईट से यह दूरी महज 40 किमी पड़ती है, क्योंकि इसमें सीधे पहाड़ को पार कर रास्ता आता है। बस से लगभग 6-7 घण्टे लगते हैं। 

चंद्रभागा नदी (चनाव) केसंग

अटल टनल बनने से अब यह यात्रा महज 4 घण्टे में पूरा हो रही है, साथ ही अब सालभर इस घाटी का सम्पर्क बाहर की दुनियाँ के साथ संभव हो चुका है, जो पहले साल के छः माह बाहरी दुनियाँ से कटी रहती थी। इसके साथ बर्फ के बीच यहाँ पर्यटन एवं रोमाँच की असीम संभावनाएं इंतजार कर रही हैं, वहीं घाटी की आर्थिक स्थिति एवं विकास में भी नए अध्याय जुड़ने तय है। पर्य़टकों की भीड़ के बीच यहाँ के नाजुक परिस्थितिकी तंत्र एवं प्रकृति-पर्यावरण तथा लोकजीवन पर क्या प्रभाव पडेंगे, यह विचारणीय है, साथ ही कुछ चिंता का भी विषय है।

लाहौल का एक गाँव

यात्रा का पहला भाग यदि न पढ़ा हो तो नीचे दिए लिंक पर पढ़ सकते हैं –

लाहौल घाटी के बाबा त्रिलोकनाथ, हमारी पहलीयात्रा, भाग-1

लाहौल घाटी में पर्वतारोहण के अनुभवों को नीचे दिए लिंक्स पर पढ़ सकते हैं –

लाहौल घाटी में पर्वतारोहण के रोमाँचक अनुभव, भाग-2

लाहौल घाटी में पर्वतारोहण के रोमाँचक अनुभव, भाग-3

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