शुक्रवार, 13 नवंबर 2020

ब्लॉगिंग की प्रारम्भिक चुनौतियाँ

 कुछ इस तरह करें इनको पार

यदि आपका ब्लॉग शुरु हो चुका है, तो इसके लिए आपको बधाई। अब अगले कुछ माह आप इसके सबसे महत्वपूर्ण एवं कठिन चरण से होकर गुजरने वाले हैं, जो यह तय करेगा कि आपका ब्लॉग अंजाम की ओर बढ़ेगा या फिर रास्ते में ही कहीं खो जाएगा। क्योंकि ब्लॉगिंग में प्रवेश करने वाले व्यक्तियों में 10 फीसदी व्यक्ति ही अपने ब्लॉग को आगे जारी रख पाते हैं। बाकि 90 प्रतिशत ब्लॉगिंग को रास्ते में ही छोड़ देते हैं।

आप भी यदि अपने ब्लॉग को अंजाम तक पहुँचाना चाहते हैं, एक सफल ब्लॉगर के रुप में उभरना चाहते हैं, तो यहाँ शेयर किए जा रहे अनुभूत नुस्खे आपके काम आएंगे, ऐसा हमारा विश्वास है।

1.      नियमितता बनाएं रखें, नागा न करें जीवन के हर क्षेत्र की तरह ब्लॉगिंग भी नियमितता की माँग करती है। एक नियमित अन्तराल में अपना ब्लॉग लिखें व पोस्ट करते रहें। माह में 2-3 पोस्ट का औसत कोई कठिन टार्गेट नहीं है। लेकिन कोई भी माह नागा न हो, आपातकाल में भी न्यूनतम 1 पोस्ट तो किसी तरह से डालें ही। यह न्यूनतम है। यह हमारी तरह स्वान्तः सुखाय ब्लॉगर का औसत है, यदि आप प्रोफेशनल ब्लॉगर के रुप में आगे विकसित होना चाहते हैं, तो आप सप्ताह में दो-तीन पोस्ट की ओर बढ़ सकते हैं।

2.      अपने पैशन अर्थात् जुनून को करें शेयर जिस विषय के बारे में आप गहरा लगाव रखते हैं, जिसके बारे में आपका पर्याप्त अनुभव है या जिस पर आपको लगता है कि आप आधिकारिक रुप से कुछ कह सकते हैं, उसे ब्लॉग पोस्ट के रुप में तैयार करें। जितना आप विषय को एन्जॉयाय करेंगे, पाठक भी उस अनुभव का हिस्सा बन पाएंगे। यदि आप अनमने मन से मात्र अपना बुद्धि का उपयोग कर, ईधर-उधर से कंटेंट जुटाकर, बिना अनुभव किए विषय को लिखते हैं, तो यह पाठक की बुद्धि तक ही पहुँच पाएगा, उसके दिल को नहीं छू पाएगा।

3.      अपने नीच् (niche) की न करें अधिक चिंता यदि आपके ब्लॉग का केंद्रिय विषय (नीच्) अभी यदि स्पष्ट नहीं है तो चिंता न करें। जिस विषय पर आपका कुछ अधिकार है, जिसके बारे में आपके पास कुछ परिपक्व राय है, जो आपके पैशन से जुड़ा है, उस पर लिखते जाएं, शेयर करते जाएं। पाठक क्या पढ़ना पसन्द करते हैं, आपकी किस पोस्ट पर पाठकों का कैसा रिस्पोंस आता है, कुछ माह बाद यह स्पष्ट होने लगेगा। और आपका ब्लॉग नीच् (niche) भी स्पष्ट होता जाएगा। ब्लॉगिंग के शुरुआती दौर में इसकी अधिक चिंता न करें, समय के साथ इसकी स्पष्टता उभरती जाती है। यह एक क्रमिक प्रक्रिया है, जो समय के साथ निखरती है।

4.      कुछ भी लिखने की गलती न करें ब्लॉग में लेखों की संख्या को पूरा करने के लिए कुछ भी लिखकर पोस्ट करने की गलती न करें। क्वांटिटी से अधिक क्वालिटी पर ध्यान दें। ऐसा लिखें जिसे आप स्वयं पढना चाहें, जिसको बाद में पढ़ने पर आपको आनन्द आए, जिसको पढ़ने पर आपकी समस्याओं के समाधान मिले। हर विषय पर सैंकड़ों नहीं हजारों ब्लॉगर्ज रोज लिख रहे हैं, पाठक आपका ही क्यों पढ़ें, विचार करें। आपके ब्लॉग में पाठकों की किन्हीं जिज्ञासाओं के समाधान हो, किन्हीं प्रश्नों के जबाब हों, उनके ह्दय के सूखे पड़े कौने के लिए कुछ रोचक-रोमाँचक अनुभवों का साजो-सम्मान हो, तो आपके ब्लॉग की सार्थकता है। यदि विषय को आप अपने दिलो-दिमाग से लिखते हैं, तो उस पर आपके व्यक्तित्व की मौलिक छाप अवश्य पढ़ेगी और पाठक सामग्री की ताजगी अवश्य अनुभव करेंगे।

5.      कॉपी पेस्ट से बचें आजकल इंटरनेट आने से हर तरह का मैटर आसानी से उपलब्ध रहता है। अपने आलस-प्रमाद में विद्यार्थी परीक्षा में कॉपी-पेस्ट का पर्याप्त सहारा लेते हैं। ब्लॉगिंग में यह गलती न करें। एक तो गूगल गुरु इसको जाँचने में देर नहीं करता, जिससे आपके ब्लॉग की पर्फोमेंस आगे चलकर प्रभावित हो सकती है। आप कॉपी राइट या प्लैगरिज्म के कानूनी पचड़े में भी पड़ सकते हैं। साथ ही पाठक के बीच भी अपनी प्रामाणिकता खो बैठेंगे। यदि कहीं थोड़ी बहुत नकल करनी भी पड़े, तो अक्ल के साथ काम करें। आपके ब्लॉग का मैटर जितना मौलिक हो, ऑरिजनल हो, आपके व्यक्तित्व की खुशबू लिए हो, उतना ही बेहतर रहेगा।

6.      उचित फोटो को जोड़ें आपके विषय से जुड़े उपयुक्त फोटो का उपयोग करें, विशेषरुप से यात्रा वृतांत से जुड़े लेखन में, जहाँ चित्रों का बहुत महत्व रहता है। जो बात आप शब्दों में कह रहे होते हैं, उसमें रही सही कसर फोटो पूरा कर लेते हैं और आपकी ब्लॉग पोस्ट पाठकों को एक बेहरतीन अनुभव देती है। फोटो के चयन के संदर्भ में भी कॉपी-पेस्ट से बचें। यथासम्भव अपनी मौलिक फोटो का ही प्रयोग करें। फोटो को उचित कैप्शन के साथ प्रयोग करें।

7. पर्फेक्ट समय का न करें इंतजार – हर माह न्यूनतम संख्या में ब्लॉग पोस्ट करने के लिए आपको मेहनत करनी होगी, लेखन का एक दैनिक या साप्ताहिक शेड्यूल बनाना पड़ेगा और अंत में समय पर प्रकाशित करना होगा। इसमें अंतहीन बिलम्ब नहीं हो सकता, कि अभी पोस्ट पर्फेक्ट नहीं है, लोग क्या सोचेंगे आदि। इसकी अधिक परवाह किए बिना इतना ध्यान दें, कि आपकी पोस्ट न्यूतम मापदण्ड पूरा कर रही है। यदि थोड़ी बहुत कसर रह भी गई तो आप इसे बाद में भी रिवाइज कर सकते हैं। पोस्ट के संदर्भ में नियमितता का अपना महत्व है। हर माह बिना किसी नागा किए न्यूनतम ब्लॉग तैयार करना तथा पोस्ट करना अपने ब्लॉग की सफलता के संदर्भ में एक अलिखित करार है, जिसे आपको पूरा करना है।

8. उचित प्लेटफार्म पर करें शेयर, यदि आप ब्लॉग तैयार कर इसे पाठकों के बीच शेयर नहीं करेंगे, तो आपके लिखे पर पाठकों की क्या प्रतिक्रिया आती है, वे इसे कितना पढ़ते हैं, इनका रिस्पोंस जानना भी महत्वपूर्ण होता है। इसके लिए सोशल मीडिया के तमाम प्लेटफॉर्म का उपयोग कर सकते हैं, जहाँ आपकी कुछ उपस्थिति दर्ज हो। एक तो इससे आपके ब्लॉग तक ट्रैफिक आएगा, और पाठकों की पसन्द, नापसन्द आदि के आधार पर फिर अपने लिखे में और क्या सुधार करना है, यह भी पता चलेगा। हर चीज पाठकों को पसन्द ही आए, यह जरुरी नहीं। आपने अपना वेस्ट उड़ेल दिया, इतना ही काफी है। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि उचित समय पर उत्कृष्टता के कदरदान मिल ही जाते हैं।

9. असफलता के लिए भी रहें तैयार, हमेशा आपके लिखे के लिए रिस्पोंस अनुकूल एवं उत्साहबर्धक ही रहे, जरुरी नहीं। कई पोस्ट में हो सकता है, कोई रिस्पोंस ही न मिले और ऐसे में आपको स्वयं पर ही संशय होने लगे कि ब्लॉगिंग मेरे वश की बात नहीं। इतनी सारी पोस्ट डाली, लेकिन कोई उत्साहबर्धक रिस्पोंस ही नहीं आ रहा। ऐसे उपेक्षा एवं रिजेक्शन के अनुभवों से हर ब्लॉगर्ज को दो चार होना पड़ता है। लेकिन यही आपके जुनून के लिए, पैशन के लिए मसाला भी है। अपने लिखे पर बारीकि से निरीक्षण करें, कहाँ कमी रह रही है, उसको समझें व सुधार करें। इसमें अनुभवीं लोगों का मार्गदर्शन भी ले सकते हैं। यदि आपके पैशन, जुनून में दम है तो हर असफलता से सीख लेते हुए इन्हें सफलता की सीढ़ी बना सकते हैं।

10. कैसे लिखें – यदि आप अभी नौसिखिया लेखक हैं, विचार भाव का समन्दर अंदर लहलहा रहा है, लेकिन इसको शब्द नहीं दे पा रहे। लिखने बैठते हैं, तो एक भी शब्द झर नहीं पाता, झरता भी है तो बेतरतीव रहता है। एक फ्लो में सधा हुआ लेखन नहीं बन पड़ रहा। यदि आप ऐसी कुछ दुबिधा के बीच लिख नहीं पा रहे और लेखन की शुरुआती बारीकियों से परिचित होना चाहते हैं, तो शुरुआती लेखन कला पर हमारी ब्लॉग पोस्ट (लेखन की शुरुआत करें कुछ ऐसे) पढ़ सकते हैं, जिसमें स्टेप वाइज कैसे आगे बढ़ें, इस पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है।

यदि आप इन बातों का ध्यान रखते हैं, तो कोई कारण नहीं कि अगले कुछ माह में ब्लॉगिंग आपके जीवन का हिस्सा बन जाएगी और तब तक आपका गूगल एडसेंस भी एक्टिवेट हो चुका होगा। साथ ही ब्लॉगिंग की बारीकियां आपको अपने अनुभव से समझ आ रही होंगी और आप ब्लॉगिंग की प्रारम्भिक चुनौतियों को पार करते हुए ब्लॉगिंग की अगली कक्षा के लिए तैयार हो चुके होंगे।

यदि आपका ब्लॉग अभी तक नहीं बना है और आप अपना ब्लॉग बनाना चाहते हैं, तो आप पढ़ सकते हैं, ब्लॉगिंग की शुरुआत करें कुछ ऐसे।

रविवार, 25 अक्टूबर 2020

यात्रा वृतांत – हमारी पहली त्रिलोकनाथ यात्रा, भाग-2

 लाहौल घाटी के विहंगम दर्शन

लाहौल घाटी, अक्टूवर 2020 का नजारा

अगले दिन केलाँग से लोकल बस में त्रिलोकनाथ धाम की यात्रा करते हैं, जो यहाँ से 45 किमी की दूरी पर दक्षिण की ओर स्थित है। रास्ते में तांदी के संगम को दायीं ओर से पार करते हैं, जहाँ चंद्रा और भागा नदियाँ मिलकर चंद्रभागा नदी के रुप में आगे बढ़ती हैं, जो आगे चलकर चनाव नदी कहलाती है। यहाँ  रास्ते में ठोलंग, शांशां आदि स्टेशन पड़ते हैं। मालूम हो कि ठोलंग ऐसा गाँव है जहाँ हर घर से अफसर, डॉक्टर और आईएएस अधिकारी मिलेंगे और यहाँ पर सबसे अधिक आईएएस अफसर होने का रिकॉर्ड है। 

लाहौल घाटी का एक गाँव

इनके आगे एक स्थान पर बस से उतर कर पुल से चंद्रभागा नदी (चनाव) को पार करते हैं। साथ में उस पार गाँव के लोकल लोग भी हमारे साथ थे। चंद्रभागा का पुल पार कर गाँव से होकर गुजरते हैं, इनके खेतों में एक विशेष प्रकार की फूल वाली लताओं से खेतों को भरा पाते हैं। पता करने पर इनका नाम हॉफ्स निकला, जो खेतों व गाँव के सौंदर्य़ में चार चाँद लगा रही थी। इनसे बेहतरीन किस्म की वीयर तैयार की जाती है और किसानों को इस फसल के अच्छे दाम भी मिलते हैं।

लगभग आधा घण्टा बाद हम त्रिलोकीनाथ मंदिर पहुँचते हैं। अपना बाहन होता तो सीधा मंदिर परिसर तक आ सकते थे, लेकिन रास्ते के खेत-खलिहान व गाँव के नजारों से वंचित रह जाते। मंदिर बौद्ध-हिंदु परम्परा का मिश्रण लगा, जो है तो शिव को समर्पित लेकिन इसके बाहर कालचक्र लगे हैं, जिनकी ओम मणि पद्मेहुम का मंत्र बोलते हुए और कालचक्र को हाथ से घुमाते हुए परिक्रमा लगाई जाती है। 

त्रिलोकनाथ परिसर में दर्शनार्थियों की कतार

संभवतः यह विश्व का एकमात्र मंदिर है, जहाँ दो धर्मों के लोग एक ही ईष्ट की पूजा अपनी श्रद्धानुसार करते हैं। हिंदु धर्म वाले यहाँ शिव की उपासना करते हैं, तो बौद्ध आर्य अवलोकितेश्वर के रुप में पूजा करते हैं। लोकमान्यता में इस मंदिर को कैलास और मानसरोवर के बाद सबसे पवित्र तीर्थ माना जाता है। हिंदु धर्म के लोगों का मानना है कि इस मंदिर का निर्माण पाण्डवों ने किया था, वहीं बौद्ध धर्माबलम्बियों का मानना है कि पद्मसम्भव यहाँ 8वीं शताब्दी में आए थे और यहाँ पूजा किए थे।

यहाँ से हम आगे बढ़ते हुए दूसरी ओर से नीचे उतरते हैं, और उस पार उदयपुर शहर की ओर बढ़ते हैं, जो त्रिलोकनाथ से 9 किमी की दूरी पर स्थित है। 

लाहौल घाटी का विहंगम दृश्य

ढलानदार खेतों से होकर हम ऩीचे उतर रहे थे। हॉप्स की लताओं से भरे खेत बहुत सुंदर लग रहे थे। खेतों के बीच मेंढ़ से बनी राह से पानी की धाराएं मधुर स्वर में कलकल निनाद करते हुए बह रही थी। इसकी मेढ़ पर खड़े विलो के हरे-भरे पेड़ दिन की गर्मीं के बीच शीतल अहसास दिला रहे थे। इनको पार करते हुए हम नीचे भागा नदी तक पहुँचते हैं और पुल को पार कर मुख्य मार्ग से उदयपुर की ओर बढ़ते हैं। रास्तेभर हमें कोई बस नहीं मिल पायी और हम लगभग 4-5 किमी उदयपुर तक नदी के किनारे पैदल ही चलते रहे। रास्ते भर देवदार के पेड़ और चारों ओर की हरियाली कुछ राहत देती रही।

उदयपुर पहुँचकर भगवती मृकुला देवी के दर्शन करते हैं, जिसके मंदिर का अपना इतिहास है। इन्हें दुर्गा माता का अवतार माना जाता है और इसे चम्बा के राजा उदयसिंह द्वारा निर्मित किया गया था। मान्यता है कि मंदिर 6000 साल पुराना है, जिसे स्वयं विश्वकर्मा ने बनाया था, लेकिन बाद में समय-समय पर इसका जीर्णोद्धार होता रहा। 

मृकुला माता, उदयपुर

इसके अंदर लकड़ी की सुन्दर नक्काशी की गई है, जिसमें महाभारत, रामायण और सनातन धर्म की पौराणिक कथाओं को उकेरा गया है। मान्यता है कि दुर्गा माता ने यहीं पर महिषासुर का बध किया था।

उदयपुर कैंपिंग साईट के रुप में भी लोकप्रिय है। लाहौल के रेगिस्तानी पहाड़ों के उल्ट इस ओर की हरियाली व प्राकृतिक सौंदर्य यात्रियों को इसके लिए प्रेरित करता है। उदयपुर से हम बस में चढ़कर केलाँग तक आते हैं, जो यहाँ से 53 किमी की दूरी पर स्थित है। रास्ते में कई गाँव पार किए और कुछ नदी के उस पार दिखे। सेब की खेती का चलन भी इस क्षेत्र में दिखा। मालूम हो कि पहले जहाँ लाहौल में मात्र आलू उगाया जाता था, जो अपनी बेहतरीन गुणवत्ता के कारण निर्यात होता रहा है। 

कैलांग-उदयपुर के बीच राह में

फिर यहाँ आलू के साथ मटर व अन्य इग्जोटिक सब्जियाँ उगाई जाती हैं। इसके बाद हॉफ्स की बेलों का चलन शुरु होता है। अब यहाँ सेब की उमदा फसल भी तैयार हो रही है, जो देर अक्टूबर या नवम्बर के शुरुआत में तैयार होती है और जब शिमला-कुल्लू का सेब मार्केट में खत्म हो जाता है, तब यह तैयार होता है। साइज छोटा किंतु स्वाद में मीठा और रसीला होता है। इसकी सेल्फ लाइफ भी अच्छी होती है, जिस कारण यह देर तक टिकता है।

कैलाँग में घर आकर हम भोजन ग्रहण करते हैं और पिताजी से लाहौल घाटी की कुछ विशेषताओं से परिचित होते हैं। यहाँ के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में लामा का उँचा स्थान रहता है और हर घर से एक संतान का लामा बनना अच्छा माना जाता है। सर्दियों में यहाँ जनजीवन घरों की चार दिवारी में सिमट जाता है, खाने पीने की व्यवस्था पहले से की जाती है। आलू से लेकर अनाज सब्जी व सुखा माँस सुरक्षित और संरक्षित रखे जाते हैं। यहाँ पर दोंग्मों में दूध, घी और नमक को मंथकर विशिष्ट नमकीन चाय तैयार की जाती है। इसके साथ सत्तु को खाने का चलन है, जो एक पौष्टिक एवं स्वादिष्ट स्वल्पाहार रहता है।

विलो के पतझड़ी वृक्षों के संग

अब यहाँ के अधिकाँश लोग कुल्लू मानाली के इलाकों में बस चुके हैं। यहाँ के लोगों को बहुत मेहनती माना जाता है। इनके श्रम के साथ ट्राइबल एरिया का दर्जा मिला होने के कारण यहाँ के लोग सामाजिक-आर्थिक रुप से विकास की मुख्यधारा में शामिल हो चुके हैं तथा सुदृढ़ स्थिति की ओर बढ़ रहे हैं।

हमारा कैलांग प्रवास का समय पूरा हो रहा था, अंतिम दिन हमारा सफर कैलाँग से जिस्पा, दारचा व इसके आगे के एक गाँव तक का रहा, जिस मार्ग का वर्णन पर्वतारोहण के लिए यहाँ से गुजरे लेख (मानाली से जिंगजिंगवार घाटी का रोमाँचक सफर) में कर चुके हैं। मालूम हो कि दारचा (11020 फीट) लाहौल घाटी में मानाली-लेह सड़क पर अंतिम मानवीय बस्ती है। इस यात्रा का उद्देश्य पर्वतारोहण के दिनों की यादों को ताजा करना था। अपनी सहधर्मिणी को हम अपनी रोमाँचक यात्रा के रुट को बताते रहे और पुरानी यादों को ताजा कर बापसी की बस से केलाँग आए। और अगले दिन यहाँ की रोमाँचक यादों को समेटते हुए कैलाँग बस से 116 किमी का सफर तय करते हुए बापिस मानाली पहुँचे। फ्लाईट से यह दूरी महज 40 किमी पड़ती है, क्योंकि इसमें सीधे पहाड़ को पार कर रास्ता आता है। बस से लगभग 6-7 घण्टे लगते हैं। 

चंद्रभागा नदी (चनाव) केसंग

अटल टनल बनने से अब यह यात्रा महज 4 घण्टे में पूरा हो रही है, साथ ही अब सालभर इस घाटी का सम्पर्क बाहर की दुनियाँ के साथ संभव हो चुका है, जो पहले साल के छः माह बाहरी दुनियाँ से कटी रहती थी। इसके साथ बर्फ के बीच यहाँ पर्यटन एवं रोमाँच की असीम संभावनाएं इंतजार कर रही हैं, वहीं घाटी की आर्थिक स्थिति एवं विकास में भी नए अध्याय जुड़ने तय है। पर्य़टकों की भीड़ के बीच यहाँ के नाजुक परिस्थितिकी तंत्र एवं प्रकृति-पर्यावरण तथा लोकजीवन पर क्या प्रभाव पडेंगे, यह विचारणीय है, साथ ही कुछ चिंता का भी विषय है।

लाहौल का एक गाँव

यात्रा का पहला भाग यदि न पढ़ा हो तो नीचे दिए लिंक पर पढ़ सकते हैं –

लाहौल घाटी के बाबा त्रिलोकनाथ, हमारी पहलीयात्रा, भाग-1

लाहौल घाटी में पर्वतारोहण के अनुभवों को नीचे दिए लिंक्स पर पढ़ सकते हैं –

लाहौल घाटी में पर्वतारोहण के रोमाँचक अनुभव, भाग-2

लाहौल घाटी में पर्वतारोहण के रोमाँचक अनुभव, भाग-3

सोमवार, 19 अक्टूबर 2020

यात्रा वृतांत – हमारी पहली त्रिलोकनाथ यात्रा, भाग-1

 लाहौल के ह्दय क्षेत्र कैलांग की ओर

मनाली के आगे रोहतांग पास की ओर

रोहताँग के पार – बहुत सुना था, लाहुल-स्पीति के बारे में बड़े-बुजुर्गों से किवदंतियों के रुप में बचपन से। तीन-चार वर्ष पहले बेसिक कोर्स के दौरान यहाँ से होकर गुजरे भी थे, लेकिन वह परिचय यहाँ के मात्र पहाड़ों, नदियों, हिमानियों, सरोवरों तथा शिखरों से था। यहाँ के लोकजीवन, संस्कृति-समाज तथा अध्यात्म से परिचय न के बराबर था, जिसे इस बार थोड़ा नजदीक से समझने-जानने का अबसर था। इस बार केलाँग में रुकने व आस-पास के क्षेत्रों को एक्सप्लोअर करने का संयोग बन रहा था। पिताजी कैलांग में बागवानी विभाग के अधिकारी पद पर कार्यरत थे। साथ ही हमारी नयी-नयी शादी हुई थी, जीवन संगिनी संग इस क्षेत्र में यात्रा का प्लान बन चुका था, जिसका विशेष आकर्षण था त्रिलोकीनाथ धाम की तीर्थयात्रा, जिसके रोचक संस्मरण बचपन से घर के बुजुर्गों से सुनते आए थे। यात्रा कई मायनों में याद्गार रही, जिसके कुछ दृष्टाँत आज भी रोंगटे खड़ा कर देते हैं और रोमाँच पैदा करते हैं।

मालूम हो कि लाहौल एक ऐसा क्षेत्र है, जो प्रायः नवम्बर से अप्रैल तक लगभग छः माह पूरी दुनियाँ से कट जाता है। सर्दियों में यहाँ का तापमान 15 से 20 डिग्री सेल्सियस माइन्स तक गिर जाता है। मई से अक्टूबर तक ही यहाँ फसलें होती हैं, जो साल में एक बार होती हैं। बाकि समय बर्फ के कारण यहाँ कुछ उगा पाना संभव नहीं होता। देखने वालों का तो यहाँ तक कहना है कि उन्होंने यहाँ साल के हर महीने बर्फ को गिरते हुए देखा है। पिछले ही वर्ष भारी बर्फवारी के कारण सेब से लदे वृक्षों को खासा नुकसान उठाना पड़ा था।

बेमौसमी बर्फवारी से क्षतिग्रस्त सेब की फसल

हिमालय के इस अद्भुत क्षेत्र की वादियों और इलाकों को देखने का संयोग बन रहा था। अपने घर से पहले हम मानाली बस स्टैंड पहुँचते हैं और फिर केलाँग डिपो की बस में चढ़ते हैं। बस का आकार सामान्य बस से थोड़ा छोटा था, जो शायद संकरी व विकट सड़क के हिसाब से निर्धारित था। मढ़ी, रोहताँग से होकर हमारा सफर उस पार दूसरी घाटी में प्रवेश करता है। रास्ते भर के दृश्य बैसे ही थे, जैसे पिछली पर्वतारोहण की ब्लॉग पोस्ट में वर्णित हो चुके हैं।

रोहतांग पास की राह में निर्मल झरने का रुप लिए हिमनद

रोहताँग को पार कर हम खोखसर पहुँचते हैं। रास्ता सदा की तरह जहाँ-तहाँ तेज बहाव बाले नालों से होकर गुजर रहा था और रास्ते की टेढ़ी-मेड़ी, टूटी-फूटी सडकों में हिचकौले खाते हुए बढ़ना एक अलग ही अनुभव था। सामने दूर लाहौल-स्पिति की बर्फ से ढकी चोटियाँ और पास में रेगिस्तानी पहाड़ दूसरे लोक में पहुँचने का अहसास दिला रहे थे तथा नीचे तंग घाटी के बीच चंद्रा नदी एक पतली रेखा के रुप में दिख रही थी। खोखसर से थोड़ा आगे ग्लेशियर गिरने के कारण पूरा रास्ता ब्लॉक था। बर्फ काटकर सड़क बनायी जा रही थी। लगभग दो घण्टे के इंतजार के बाद बस आगे बढ़ी। बस से सारी सबारियाँ उतार दी गयीं थी। हमारे सहित कुछ ही सबारियाँ बैठी थीं। बस जिस स्पीड़ के साथ बर्फ की दिबारों के बीच, पानी व कीचड़ से भरी कच्ची सड़क पर हवाई गति से दौड़ रही थी, उसके कारण बस बुरी तरह से हिचकोले खाते हुए, दायें-बाँये झूलते हुए आगे बढ़ रही थी। कहीं-कहीं सवारियों के सिर ऊपर छत तक लगने की स्थिति आ रही थी और मुँह से चीखें निकल रही थी। लग रहा था कि बस अब पलट गयी या तब। लेकिन ड्राइवर साहब अपने पूरे कौशल के साथ गाड़ी को पार निकाल लेते हैं, तब जाकर सब राहत भरी सांस लेते हैं। आगे रास्ते में सीसू, गोंधला, ताँदी आदि स्थल पड़े। रास्ता खराब होने के कारण केलाँग पहुँचते पहुँचते हमें रात हो चुकी थी।

लाहौल घाटी का एक गाँव

पिताजी का क्वार्टर बस स्टैंड के एकदम ऊपर लगभग आधा किमी की दूरी पर था। पहले कभी न आने के कारण रास्ते से भिज्ञ भी नहीं थे। फोन नेटवर्क उन दिनों यहाँ काम नहीं कर रहे थे, इस कारण पिताजी को भी मालूम नहीं था कि हम केलाँग पहुँच चुके हैं। बस स्टैंड की दुकान पर बैठी आची (महिला का सम्मानपूर्ण बहन सरीखा लोक्ल संबोधन) से पूछा तो वह पिताजी का पता जानती थी। उसके मार्गदर्शन में हम सीधा उपर नाक की सीध में दौड़ लगाते हैं। घुप्प अंधेरे में रोशनी के लिए लकड़ी के डण्डे के आगे बोरी व इसमें मिट्टी का तेल लगाकर मशाल बनाई जाती है और हम दोनों एक साँस में ऊपर तक दौड़े, इस सोच के साथ कि कहीं मशाल बीच रास्ते में बुझ जाए। सीधी खड़ी चढाई में हमारी साँस बुरी तरह से फूल गयी थी, लग रहा था कहीं छाती फट न जाए। जब हमारी यह हालत थी तो सहधर्मिणी का तो इससे भी बुरा हाल था। रात के अंधेरे में भय के चलते हमारी मैराथन स्प्रिंट हमें ऊपर घर तक पहुँचा चुकी थी।

बहाँ बाहर निकले किसी पड़ोसी से पिताजी के कमरे का पता चलता है और हम नॉक कर कमरे में प्रवेश करते हैं और अपनी कथा व्यथा सुनाते हैं। यहाँ पर भोजन तैयार होता है। पिताजी का फेवरेट जाटू का चाबल, राजमाँ और देशी घी। रास्ते की थकान के चलते नींद जल्द ही आ गई थी। सुबह उठते हैं, तो सामने के दिलकश नजारे हमारा स्वागत कर रहे थे।

कैलांग से कार्दांग गोम्पा के विहंगम दर्शन

एक दम सामने भागा नदी के उस पार हरियाली के बीच पहाड़ की गोद में कार्दांग गोंपा अपनी विशिष्ट उपस्थिति दर्शा रही था और पधारने का आमन्त्रण दे रहा था।

उसके पीछे दूर वायीं ओर लेडी ऑफ कैलाँग अपना पावन दर्शन दे रही थीं, समुद्रतल से 19800 फीट की ऊँचाई पर स्थित यह चोटी वर्षभर बर्फ से ढकी रहती है। पीठ पर बोझा लादे हुए महिला की आकृति लिए इस चोटी को अंग्रेजों ने यह नाम दिया था। घर के पीछे ही लगभग 2 किमी उपर शाशूर गोम्पा स्थित था।

शाशूर गोम्पा, लाहौल

जिसे हम पिताजी के साथ देखते हैं। यह बुद्ध धर्म के द्रुग्पा संप्रदाय का 16वीं शताब्दी में बनाया गया गोंपा है। सुंदर हरे और नीले चीड़ के वृक्षों से घिरे इस गोम्पा को इसके उत्कृष्ट बास्तुशिल्प और शिक्षा केंद्र के रुप में जाना जाता है।

इसके बाद हम कार्दांग गोम्पा की सैर करते हैं। पहले नीचे केलाँग शहर में उतरते हैं, भागा नदी के ऊपर पुल को पार करते हैं और कार्दांग गाँव से होते हुए लगभग 11000 फीट की ऊँचाई पर स्थित कार्दांग गोम्पा पहुँचते हैं, जिसे 12वीं शताब्दी में बनाया गया माना जाता है, जो बौद्ध संस्कृति का एक महत्वपूर्ण केंद्र है। यह अपने मनमोहक वास्तुशिल्प, धार्मिक महत्व, भिति चित्र, थांग्का, चित्रकला और यंत्रों के लिए विख्यात है। यहाँ के हेड़ लामा से भेंट करते हैं, जिनका पिताजी से परिचय था। यहाँ वो घी वाली चाय के साथ नाश्ता कराते हैं। इसी बीच गाँव की महिलाएं अपने साथ भेंट चढ़ाती हैं। ऐसा लगा स्थानीय लोग खाने पीने का सामान गोंपा में चढ़ाते हैं, जिसको लामा बड़ी उदारतापूर्वक आगंतुकों के बीच बाँटते हैं।

कार्दांग गोम्पा, लाहौल

यहाँ बाहर आँगन में हरियाली के बीच मठ का शाँत एकाँत वातावरण ध्यान साधना के लिए आदर्श प्रतीत हो रहा था और यहाँ से सामने केलाँग और घाटी पर्वतों का विहगंम दृश्य देखते ही बन रहा था।

यहाँ से बापसी में पिताजी के उद्यान विभाग को देखते हैं, पास की डिस्ट्रिक्ट लाइब्रेरी में पुस्तकों का अध्ययन-अवलोकन करते हैं। और फिर शाम होते होते अपने पिताजी के क्वार्टर तक पैदल यात्रा करते हैं। रास्ते से यहाँ के खेतों की फार्म फ्रेश पत्तागोभी खरीदते हैं, जो स्वाद में कच्ची ही पर्याप्त स्वादिष्ट लग रही थी। आज काफी थक चुके थे, भोजनोपरान्त सो जाते हैं, अगले दिन की यात्रा तैयारियों के साथ, जिसमें हम लाहौल घाटी के ऐतिहासिक शिव व शक्ति मंदिर बाबा त्रिलोकनाथ और मृकुला माता के दर्शन करने वाले थे। (शेष, जारी...)

यात्रा का अगला भाग, नीचे दिए लिंक पर पढ़ सकते हैं –

लाहौल घाटी के बाबा त्रिलोकनाथ, हमारी पहलीयात्रा,भाग-2

 

चंद्रभागा (चनाव) नदी एवं लाहौल घाटी

चुनींदी पोस्ट

प्रबुद्ध शिक्षक, जाग्रत आचार्य

            लोकतंत्र के सजग प्रहरी – भविष्य की आस सुनहरी    आज हम ऐसे विषम दौर से गुजर रहे हैं, जब लोकतंत्र के सभी स्तम्...