मानाली से जिंगजिंगवार घाटी का रोमाँचक सफर
पिछली ब्लॉग पोस्ट में पर्वतारोहण संस्थान में बिताए पहले नौ दिनों का वर्णन किया था, जिसमें रॉक क्लाइंबिंग, रिवर क्रॉसिंग, बुश क्राफ्ट जैसी आधारभूत तकनीकों का प्रशिण दिया गया। अब हम अगले पड़ाव के लिए तैयार थे। हिमाचल परिवहन निगम की 2 बसों में सबके सामान की पेकिंग हो जाती है और यात्रा रोहतांग पास के उस पार लाहौल घाटी में स्थित बेस कैंप जिस्पा की ओर बढ़ती है, जहाँ भागा नदी के किनारे पर्वरोहण संस्थान का स्थानीय केंद्र स्थापित है।
मानाली से रोहताँग पास तक इस यात्रा का पहला चरण
मान सकते हैं, जब बस पहले पलचान तक बाहंग, नेहरुकुण्ड जैसे स्थलों से होकर ब्यास
नदी के किनारे सीधा आगे बढ़ती है। सामने सफेद दिवार की तरह खड़ी पीर-पंजाल की
हिमाच्छादित पर्वत श्रृंखलाएं ध्यान को आकर्षित किए रहती हैं। पलचान से चढ़ाई शुरु
होती है, जो लगभग 13000 हजार फीट पर स्थित रोहताँग पास तक क्रमशः बढ़ती जाती है।
इसके रास्ते में कोठी, गुलाबा फोरेस्ट, मढी आदि स्थल आते हैं। कोठी अंतिम मानव
बस्ती है, जहाँ से देवदार के घने जंगल शुरु होते हैं। ब्यास नदी की धार नीचे गहरी
खाई में अपनी मौन एवं गुमनाम यात्रा करती प्रतीत होती है। रास्ते के समानान्तर
आसमान छूते पहाड़ नजर आते हैं, जिनमें बर्फ से पिघल कर झरते झरने रास्ते भर
रोमाँचित करते रहते हैं। थोडी देर में गुलाबा फोरेस्ट आता है, इसके बाद देवदार के
वृक्ष विरल होते जाते हैं और मात्र भोज के पेड़ आस-पास या दूर पहाड़ों में दिखते
हैं।
इसके बाद मढ़ी बस स्टॉप आता है, जहाँ कुछ दुकानें चाय-नाश्ता व भोजन के लिए खड़ी हैं। इसके रास्ते में ऊँचाईयों से गिर रहा राहला फाल सभी को ध्यान आकर्षित करता है। मढ़ी पहुँचने पर यात्री प्रायः चाय-नाश्ता करते हैं और ड्राइवर भी अगली कठिन यात्रा के लिए रिचार्ज होते हैं। यहाँ पर गर्मियों में पैरा-गलाइडिंग का भी आनन्द लिया जा सकता है। यहां पर पास की चोटी से नीचे घाटी और दूर बर्फ से ढके पर्वतों को बहुत ही सुंदर नजारा लिया जा सकता है।
मढ़ी से रोहताँग पास तक रास्ता बिना किसी स्टॉप के रहता है। बीच में बायीं ओर ग्लेशियर से पिघलकर निकल रहे जल प्रपात के दर्शन किए जा सकते हैं और समय हो तो ऊपर ग्लेशियर के बीच झरते इसके जल का अवलोकन भी किया जा सकता है। इस रास्ते में किसी तरह के पेड़ के दर्शन तो दूर झाड़ियाँ तक विरल हो जाती हैं। हाँ उस पार जंगलों में भोज के कुछ जंगल अवश्य दिखते हैं और ग्लेशियर से झरते झरने खूबसूरत नजारा पेश करते हैं। बादलों से ढके हिमशिखर भी लुभावने लगते हैं। इस तरह सफर आखिर रोहताँग पास पहुँचता है।
इसे ब्यास नदी के स्रोत के रुप में माना जाता है, हालाँकि एक मान्यता के अनुसार सोलाँग घाटी के आगे ब्यास कुण्ड को ब्यास नदी का उद्गम माना जाता है। हालांकि दोनों जल स्रोतों से निस्सृत धाराओं का संगम नीचे पलचान स्थल पर होता है, जहाँ से ब्यास नदी का समग्र रुप आगे बढ़ता है। रोहताँग दर्रे पर अमूनन साल भर बर्फ रहती है। प्रायः अक्टूबर-नवम्बर से मई-जून तक भारी बर्फ के कारण दर्रा बन्द रहता है, जिस कारण लाहौल-स्पिति घाटी 6-7 महीने प्रदेश के बाकि हिस्से से कटी रहती है। लेकिन हाल ही में सोलाँग घाटी के आगे पहाड़ के नीचे से अटल सुरंग बनने से अब बारह महीने रास्ता खुलने की संभावना साकार हो रही है।
रोहताँग पास में कई फुट ऊँची बर्फ की दिबार के बीच से होकर हमारी बसें पार करती हैं, रास्ते में तो मढ़ी के थोड़ा आगे बस की छत पर पैक कुछ बैग व इनमें लगी आइस-एक्स बर्फ की दिबार में उलझ गयी थीं, जिस कारण बस को बैक कर फिर सफर आगे बढ़ा था। रोहताँग के पार होते ही हम एक दूसरे लोक में पहुँच गए ऐसा अनुभव होता है। सामने बर्फ से ढकी पहाड़ियां, दूर-दूर तक फैले बंजर रेगिस्तान और घाटियों के दर्शन होते हैं। रास्ते भर सड़क में बर्फ से पिघल कर बहती जल राशि से बने उग्र नालों व झरनों के बीच सफर आगे बढ़ता रहा और नीचे घाटी में खोखसर नाम के स्थान पर बस जल-पान के लिए रुकती है। रास्ते भर हिमाचल परिवहन के कुशल चालकों के हुनर को आश्चर्य के साथ निहारते रहे, जब लग रहा था कि बस पानी के तेज बहाव में अब लुढ़क गयी कि तब।
खोखसर से चंद्रा नदी को पार कर हम उसके दायीं ओर से आगे बढ़ते हैं, जबकि इसके बिपरीत मार्ग पीछे स्पीति घाटी की ओर जाता है। आगे रास्ते में पागल नाला को पार कर, सीसू से होते हुए तांदी पहुँचते हैं, जो चंद्रा और भागा नदियों का संगम है। इसके पार वायीं सड़क उदयपुर और त्रिलोकनाथ मंदिर की ओर जाती है, जबकि हम इसके उलट, दायीं और से भागा नदी के किनारे केलाँग की ओर बढ़ते हैं, जो लाहौल-स्पिति जिला का मुख्यालय है। यहाँ सामने की घाटी में कार्दंग गोम्पा अपना ध्यान आकर्षित करता है, साथ ही दूर सामने लेडी ऑफ केलांग का नजारा दर्शनीय रहता है, जिनका अवलोकन आगे कुछ समय तक मार्ग में होता रहा।
इसी राह पर बढ़ते हुए कुछ मिनटों में हम जिस्पा सेंटर पहुँच चुके थे, शाम हो रही थी। यह मानाली स्थित पर्वरोहण संस्थान का रीजनल सेंटर है। यहीं रात के रुकने की व्यवस्था होती है। सुबह जब उठते हैं तो सामने के चट्टानी पहाड़, ग्लेशियर नदी का हाड जमाता पानी, इसके किनारे के रंग बिरंगें पत्थर, आज भी स्मृतियों में ताजा हैं और इसके साथ शांत-एकाँत स्थल पर एक विरल से रोमाँच की दिव्य अनुभूति होती है, जिसे शब्दों में वर्णन करना कठिन है। लगा था कि हम जैसे स्वप्न लोक में विचरण कर रहे हैं और एक नयी दुनियाँ में पहुँच चुके थे।
दिन में नाश्ता करने के बाद यहीं पास की चट्टानी फिल्ड में रोक क्लाइंविगिं का अभ्यास होता है। बर्फीली भागा नदी में रिवर क्रासिंग करते हैं, जब नदी के पार होते ही पैर जैसे नीले और सुन्न से पड़ गए थे। और फिर भोजन-विश्राम के बाद अगले पडाव पटसेउ की ओर कूच करते हैं। रास्ते में दार्चा कस्बा पार करते हैं और फिर चढ़ाई के साथ आगे बढ़ते हुए एक नयी घाटी में प्रवेश होता है।
कभी शॉर्टकट पगडंडियों से तो कभी मुख्य मार्ग से होते हुए हमारा रास्ता आगे बढ़ता है, पीठ में रक्सेक टाँगे हम लोगों की एक्लेमेटाइजेशन वाल्क चल रही थी। धीरे-धीरे ऊँचाईयों के कम ऑक्सीजन बाले दवाव के साथ रहने का अभ्यास हो रहा था। लगभग दो घण्टे बाद हम पटसेऊ पहुँच चुके थे, जहाँ सामने पहाड़ की गोद में हमारा तम्बू गढ़ता है और रात को रुकने का अस्थायी शिविर तैयार होता है। यहाँ पीछे छायादार स्थान पर पहाड़ के नीचे जमीं बर्फ को देखकर इस पर चलने का लोभ संवरण नहीं कर पाए और इस पर कुछ चहल कदमी करते हैं। रात भर यहाँ रुककर हम अगली सुबह अपने बेस केंप जिंगजिंगवार पहुँचते हैं।
यही अब हमारा अगले दो सप्ताह का ठिकाना था, यहीं पर सामने की बर्फीली बादियों में बर्फ और आइस पर चलने का अभ्यास होना था और इसके आगे अंत में पीक क्लाइम्ब अर्थात् एक शिखर का आरोहण, पर्वतारोहण। इसकी रोमाँचक यात्रा अगले ब्लॉग - पीक क्लाइंबिंग या शिखर के आरोहण में पढ़ सकते हैं।