शुक्रवार, 29 नवंबर 2019

आस्था संकट एवं समाधान की राह

 अध्यात्म शरणं गच्छामि

आस्था जीवन की आध्यात्मिक संभावनाओं से उत्पन्न विश्वास का नाम है, जो अपने से श्रेष्ठ एवं विराट सत्ता से जुड़ने पर पैदा होता है। इसे अस्तित्व का गहनतम एवं उच्चतम आयाम कह सकते हैं, जहां से जीवन के स्थूल एवं सूक्ष्म आयाम निर्धारित, प्रभावित एवं प्रेरित होते हैं। जीवन का उत्कर्ष और विकास आस्था क्षेत्र के सतत सिंचन एवं पोषण से संभव होता है। यदि आस्था पक्ष सुदृढ़ हो तो व्यक्ति जीवन की चुनौतियों का हंसते हुए सामना करता है, प्रतिकूल परिस्थितियों के साथ बखूबी निपट लेता है। सारी सृष्टि को ईश्वर की क्रीड़ा-भूमि मानते हुए वह एक खिलाड़ी की भांति विचरण करता है। लेकिन आस्था पक्ष दुर्बल हो, तो जीवन बोझिल हो जाता है, इसकी दिशाएं धूमिल हो जाती हैं, इसमें विसंगतियां शुरू हो जाती हैं और जीवन अंतहीन संकटों व समस्याओं से आक्रांत हो जाता है।

आज हम आस्था संकट के ऐसे ही विषम दौर से गुजर रहे हैं, जहां एक ओर विज्ञान ने हमें चमत्कारी शक्तियों व सुख-सुविधाओं से लैस कर दिया है, वहीं दूसरी ओर हम अपनी आस्था के स्रोत से विलग हो चले हैं। ऐसे में जीवन का अर्थ भौतिक विकास, भोग-विलास, सुख-साधन एवं सांसारिक चमक-दमक तक सीमित हो चला है, जिसके लिए व्यक्ति कोई भी कीमत चुकाने व नैतिक रूप में गिरने को तैयार रहता है। परिणामस्वरूप जीवन के बुनियादी सिद्धांतों की चूलें हिल रही हैं और इन पर टिके रहने वाली सुख-शांति, सुकून एवं निश्चिंतता के भाव दूभर हो चले हैं। आस्था स्रोत से कटा जीवन जहां भार स्वरूप हो चला है, वहीं अपने समाज-संस्कृति व परिवेश रूपी जड़ों से कटने के दुष्परिणाम नाना प्रकार के संकटों के रूप में मानवीय अस्तित्व को चुनौती दे रहे हैं।
आस्था संकट के कारण व्यक्ति का प्रकृति के प्रति श्रद्धा एवं सम्मान का भाव लुप्त होता जा रहा है, वह इसे भोग्य वस्तु मानता है, जिसके दोहन एवं शोषण से वह कोई गुरेज नहीं करता। ऐसे में पृथ्वी, जल, वायु, आकाश जैसे जीवन के आधारभूत तत्व दूषित हो रहे हैं। इससे उपजे पर्यावरण संकट एवं कुपित प्रकृति की मार से मानवीय अस्तित्व खतरे में पड़ रहा है। आस्था की जड़ें सूखने से जहां जीवन अर्थहीन हो रहा है, वहीं परिवार में तनाव, कलह एवं बिखराव का माहौल है। सामाजिक ताना-बाना विखंडन की ओर बढ़ रहा है। पूरा विश्व आस्था के अभाव में अंतहीन कलह, संघर्षों के कुचक्र में उलझा हुआ है।

व्यक्ति एवं समाज को आस्था की डोर से जोड़ने वाला धर्म तत्व आज स्वयं विकृति का शिकार हो चला है। धर्म को जीवन के शाश्वत विधान की बजाय संप्रदाय के संकीर्ण दायरे से जोड़कर देखा जाने लगा है, जो महज कर्मकांड तक सीमित होकर आत्माहीन स्थिति में दम तोड़ रहे हैं। इनसे उपजी विकृत आस्था व्यक्ति को एक बेहतर इंसान बनाने की बजाय अंधविश्वासी, कट्टर, असहिष्णु एवं हिंसक बना रही है। ऐसी विकृत आस्था के चलते व्यक्ति ईश्वर को भी मूढ़, खुशामद प्रिय मान बैठा है, जिसको वह बिना तप-त्याग एवं पुण्य के कुछ भेंट-भोग चढ़ाकर, चापलूसी के सहारे प्रसन्न करने की चेष्टा करते देखा जा सकता है।
धर्म के नाम पर ऐसी विकृत आस्था के दिन वास्तव में अब लदते दिख रहे हैं। व्यक्तिगत एवं सामाजिक स्तर पर ठोस सुख-शांति एवं प्रगति को तलाशती मानवीय चेतना, धर्म के विकृत स्वरूप से असंतुष्ट होकर इसके आध्यात्मिक पक्ष की ओर उन्मुख हो चुकी है। आश्चर्य नहीं कि आज अध्यात्म सबसे लोकप्रिय विषयों में शुमार है, जिसकी ओर जागरूक लोगों का रुझान तेजी से बढ़ रहा है। इसे अस्तित्व के संकट से गुजर रही मानवता की, जीवन के सही अर्थ की खोज में आस्था के स्रोत से जुड़ने की खोजी यात्रा कह सकते हैं।
इसे व्यक्ति के अपनी आस्था के मूल धर्म के आध्यात्मिक स्वरूप से जुड़ने की व्यग्र चेष्टा के रूप में देखा जा सकता है, जहां हर धर्म अपने शुरुआती दौर में अपने विशुद्धतम रूप में मानवमात्र के कल्याण के लिए प्रकट हुआ था। आज की पढ़ी-लिखी, प्रबुद्ध पीढ़ी धर्म एवं अध्यात्म के व्यावहारिक, वैज्ञानिक एवं प्रगतिशील स्वरूप को जानना चाहती है, जो व्यक्ति को खोया हुआ सुकून दे सके और आपसी प्रेम, सद्भाव एवं शांति के साथ समाज में बेहतर माहौल दे सके।

यही आस्था उसे उस काल-कोठरी से बाहर निकाल पाएगी, जहां उसका दम घुट रहा है, जहां उसे अंधेरे में कुछ सूझ नहीं रहा। जहां वह अंधेरे में अज्ञात भय एवं असुरक्षा के भाव से आक्रांत है। जहां जीवन की उच्चतर संभावनाएं दम तोड़ रही हैं, जीवन के श्रेष्ठ मूल्य एवं पारमार्थिक भाव गौण हो चुके हैं, जीवन नारकीय यंत्रणा में झुलस रहा है। चेतना के संकट से गुजर रहे इस विषम काल में आवश्यकता आस्था के दीपक को जलाने की है, सुप्त मानवीय चेतना एवं दैवीय संभावना को जगाने की है। हर जाग्रत नागरिक एवं भावनाशील व्यक्ति अपनी ईमानदार एवं साहसिक कोशिश के आधार पर इस दिशा में अपना योगदान दे सकता है। (दैनिक ट्रिब्यून, 24नवम्बर,2019 को प्रकाशित)

बुधवार, 20 नवंबर 2019

गीता का सार्वभौमिक-सार्वकालिक संदेश



संतप्त ह्दय को आश्वस्त करता गीता का शाश्वत-कालजयी संदेश


 गीता वेदों का निचोड़ एवं उपनिषदों का सार है। श्रीकृष्ण रुपी ग्वाल उपनिषद रुपी गाय को दुहकर अर्जुन रुपी बछड़े को इसका दुग्धामृत पिलाते हैं, जो हर काल के मनुष्यमात्र के लिए संजीवनी स्वरुप है। हर युग में हर स्वभाव के सुपात्र व्यक्ति के लिए उपयुक्त ज्ञान एवं संदेश इसमें निहित है।
इस रुप में गीता देश ही नहीं पूरे विश्वमानवता के लिए भारतभूमि का एक वरदान है। यह भगवान श्रीकृष्ण के श्रीमुख से निस्सृत कालजयी ज्ञान का अक्षय निर्झर है, जिसने हर युग में इंसान को जीवन जीने की राह दिखाई है। भारत ही नहीं विश्व के हर कौने से प्रबुद्धजनों, विचारकों एवं ज्ञान पिपासुओं ने इसका पान किया और मुक्त कंठ से प्रशंसा की।


भारतीय सांस्कृतिक नवजागरण के अगुआ स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में, वेदों पर गीता से बेहतर टीका नहीं लिखी गयी है और न ही संभव है।..गीता में उपलब्ध श्रीकृष्ण भगवान की शिक्षाएं भव्यतम हैं, जिन्हें विश्व ने जाना है। रामकृष्ण परमहंस गीता को अपना सतत सहचर बनाने की सलाह देते थे। महर्षि अरविंद के शब्दों में, गीता मानव जाति के लिए आध्यात्मिक सृजन का सबसे महान सुसमाचार है।  यह देश की प्रमुख राष्ट्रीय विरासत और भविष्य की आशा है। मदन मोहन मालवीय के मत में, पूरे विश्व साहित्य में गीता के समान कोई ग्रंथ नहीं, जो न केवल हिंदुओं के लिए बल्कि पूरी मानवता के लिए धर्म-अध्यात्म का खजाना है। राष्ट्रपिता गाँधीजी के मत में, गीता न केवल मेरी बाईबिल या कुरान है, बल्कि यह तो इनसे भी बढ़कर मेरी माँ के समान है। जब भी मैं कठिनाई या दुविधा में होता हूँ, तो मैं इसके आँचल की शरण में शाँति पाता हूँ। गीता की कर्मयोग के आधार पर व्याख्या करने वाले तिलकजी के शब्दों में, गीता अपने प्राचीन पावन ग्रंथों में सबसे उत्कृष्ट एवं पावन नगीना है।



इसी तरह विदेशी विचारकों के गीता के प्रति श्रद्धास्पद भाव इसके शाश्वत एवं सार्वभौम स्वरुप को पुष्ट करते हैं। वीसवीं सदी के महान वैज्ञानिक आइंस्टीन के विचार में, जब मैं गीता पढ़ता हूँ और विचार करता हूँ कि भगवान ने सृष्टि कैसे रची, तो सबकुछ अनावश्यक सा प्रतीत होता है। अमेरिकी उपन्यासकार क्रिस्टोफर आइशरवुड़ के अनुसार, गीता महज उपदेश नहीं है, बल्कि एक दर्शनिक ग्रँथ है। प्रख्यात लेखक एवं दार्शनिक एल्डस हक्सले के मत में, गीता संभवतः शाश्वत दर्शन का सबसे व्यवस्थित आध्यात्मिक कथन है। 


फारसी विद्वान, विल्हेम वॉन हमबोल्ट के लिए गीता विश्व में उपलब्ध सबसे गहन एवं उदात्त चीज है। अमेरिकी विचार हेनरी डेविड थोरो के शब्दों में, प्रातः मैं अपनी बुद्धि को गीता के अतिविशाल एवं विराट दर्शन में स्नान कराता हूँ, इसकी तुलना में आज का जगत एवं साहित्य बौना एवं तुच्छ प्रतीत होता है। प्रख्यात केनेडियन लेखिका एल एडम बैक के विचार में, भगवान के गीत या आकाशीय गीत के रुप में प्रख्यात गीता सानन्त आत्मा की अनन्त आत्मा की ओर उच्चतम उड़ान की एक दुर्लभतम उपलब्धि का प्रतिनिधित्व करती हैं।
इस तरह गीता एक सार्वभौमिक ग्रँथ है, जिसका संदेश शाश्वत एवं सर्वकालिक है और इसने हर युग के इंसान के प्रेरित एवं प्रभावित किया है।
भारतीय वांड्गमय में दर्जनों गीता ग्रंथ हैं, जिनका संदेश  प्रायः शांत-एकांत पलों में प्रकट हुआ। जबकि श्रीकृष्ण के श्रीमुख से निस्सृत श्रीमद्भगवद्गीता एक मात्र उपदेश है जो युद्ध के मैदान के बीच दिया गया। यही इसकी विशेषता है, जो इसे जीवन के रणक्षेत्र के बीच भी प्रासांगिक बनाती है।
भारतीय अध्यात्म का इसमें निचोड़ समाया है। आश्चर्य नहीं कि गीता का महत्व सामान्य पलों में अनुभव नहीं होता, ये तो विषाद के विशिष्ट पलों का ज्ञान अमृत है, जिसे विषाद-संताप से तप्त इंसान ही गहनता में समझ सकता है और इन पलों में यह संजीवनी का काम करता है।

गीता की शुरुआत अर्जुन के विषाद के साथ होती है, जिसमें वह किंकर्तव्यविमूढ़ अवस्था में युद्ध न लड़ने की वकालत करते हैं। इस अवस्था से उबारने के लिए श्रीकृष्ण क्रमिक रुप में अर्जुन को जाग्रत करते हैं। सबसे पहले वे विषादग्रस्त अर्जुन को स्व के अजर, अनित्य, अविनाशी आत्म स्वरुप का बोध कराते हैं, और अपने स्वधर्म के अनुरुप रणक्षेत्र में जूझने की बात करते हैं। और जीवन में समत्व, कर्मकौशल एवं स्थितप्रज्ञता के आदर्श का प्रतिपादित करते हैं। 


जीवन की आध्यात्मिक समझ एक महत्वपूर्ण तत्व है, जिसकी पृष्ठभूमि में फिर भगवान श्रीकृष्ण निष्काम कर्म के रुप में कर्मयोग का विधान समझाते हैं।
 हमारे प्रायः हर कर्म आशा-अपेक्षा एवं स्वार्थ-अहं के दायरे में होते हैं, जो अपने फल के साथ चिंता, उद्गिनता व संताप भी साथ लाते हैं। ऐसे सकाम कर्मों की सीमा व निष्काम कर्म का व्यवहारिक महत्व श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं। अहं-स्वार्थ के दायरे से बाहर निकलकर किया गया यज्ञमय कर्म गीता का महत्वपूर्ण संदेश है, जो हमें विराट से जोड़ता है। निष्काम कर्म के साथ चित्त शुद्धि का आध्यात्मिक उद्देश्य सिद्ध होता है, भाव शुद्धि होती है और भक्ति भाव का उदय एवं विकास होता है। 
     ज्ञान एवं कर्मयोग के साथ श्री कृष्ण भक्ति के महत्व को समझाते हैं। अपनी दिव्य विभूतियों से परिचित करवाते हैं और क्रमशः अपने विराट स्वरुप के दर्शन के साथ अर्जुन को समर्पण भाव की ओर ले जाते हैं। ईश्वर के सनातन अंश के रुप में अर्जुन का आत्मबोध और ईश्वर के विराट स्वरुप के दर्शन के साथ अर्जुन का मोहभंग होता है।
भक्ति भाव का जागरण होता है और इसी के साथ वे सुमरण के साथ धर्मयुद्ध के भाव को ह्दयंगम करते हैं। नष्टो मोहः स्मृतिलब्धा....करिष्ये वचनं त्व के साथ अर्जुन रणक्षेत्र में क्षात्रधर्म का पालन करने के लिए कटिबध हो जाते हैं।


इसी के साथ चंचल मन के निग्रह के लिए गीता में ध्यान योग, राज योग का भी प्रतिपादन है। कैसे व कहाँ ध्यान करना चाहिए, विस्तार से वर्णित है। और मन की स्थिरता के लिए संतुलित जीवनचर्या का प्रतिपादन है। सबका निचोड़ जीवन के समत्व(समत्व योग उच्यते) के रुप में है। जीवन की हर परिस्थिति में बिना संतुलन खोए, द्वन्दों के बीच समभाव, यह गीता की आधारभूत शिक्षा है। इसके साथ कर्मकुशलता (योगः कर्मशु कौशलं) के रुप में गीता व्यवहारिक शिक्षा का प्रतिपादन करती है। 



जीवन के रणक्षेत्र से पलायन नहीं, वीरतापूर्वक इसकी चुनौतियों का सामना और सत्य के पक्ष में धर्मयुद्ध, गीता में निहित शाश्वत-सर्वकालिक संदेश है, जो इसे सदैव प्रासांगिक बनाता है। गीता के अनुसार, पापी से पापी व्यक्ति को भी चिंता करने की जरुरत नहीं, यदि वह प्रभु की शरण में आता है, तो वह शीघ्र ही धर्मात्मा बन जाता है, परमात्मा स्वयं उसका योग-क्षेम वहन करते हैं, उसका उद्धार सुनिश्चित है, परमात्मा का भक्त कभी नष्ट नहीं होता। भगवान श्रीकृष्ण के श्रीमुख से ऐसे वचन संतप्त ह्दय को आश्वस्त करते हैं। (दैनिक ट्रिब्यून, 18 दिसम्बर,2018 को प्रकाशित)


रविवार, 27 अक्टूबर 2019

यात्रा वृतांत – पराशर झील, मण्डी,हि.प्र. की हमारी पहली यात्रा, भाग-3


धुंध के बीच लुकाछिपी करती पराशर झील 


पिछली पोस्ट में हम पराशर झील के किनारे मंदिर परिसर तक पहुँच चुके थे, लेकिन पूरी यात्रा घनी धुंध के बीच रही। लेकिन अब धुंध थोड़ा सा छंट रही थी। झील का किनारा दिख रहा था और इसमें तैरता टापू भी। झील के चारों ओर तार का बाढ़ा लगा हुआ था, जिसके अंदर प्रवेश करना मना है। बाढ़े के पास बुर्ज के साथ अलग-अलग रंग के झंड़े लगे हैं, जो यात्रियों को धुंध में परिक्रमा पथ का दिशा बोध कराते हैं। मंदिर की ओर सटी झील में छोटी मछलियों की अठखेलियाँ स्पष्ट दिख रही थी।


हम जुता स्टैंड में जुता उतारकर परिसर की एक दुकान से प्रसाद लेते हैं व मंदिर में प्रवेश करते हैं। ऋषि पराशर की प्रतिमा के सामने माथा टेककर पूजारीजी से प्रसाद लेकर प्राँगण के मध्यम में बने स्थान पर धूप-अग्रबती जलाते हैं और कुछ पल ध्यान के बाद फिर कुछ पारिवारिक फोटो लेते हैं और इसके बाद पूजारीजी से बात करते हैं। तीर्थ स्थल से जुड़ी कुछ रोचक जानकारियाँ बटोरते हैं व कुछ शंकाओं का समाधान करते हैं।
पूजारीजी के अनुसार, इस मंदिर का निर्माण तो लगभग 500 साल पहले एक छः माह के बालक ने एक ही पेड़ से किया था। हालाँकि झील का निर्माण पाण्डवों में महाबली भीम ने किया था, अपनी कोहनी से पहाड़ में गडढा को बनाकर। इसी झील के किनारे ऋषि पराशर ने घोर तप किया था, जिसके कारण यहाँ का नाम पराशर झील पड़ा।


मालूम हो कि ऋषि पराशर ऋषि वशिष्ठ के पौत्र माने जाते हैं व महर्षि व्यास के पिता। इस तरह पाण्डव इनकी दो पीढ़ी बाद के वंशज हैं। फिर ऋषि पराशर ने यहाँ तप कब व कैसे किया। प्रश्न के समाधान में हमें लगा कि द्वापर युग में व्यक्ति की आयु सैंकड़ों-हजारों वर्ष होती थी। ऐसे में हो सकता है कि पराशर ऋषि में अपने जीवन के उत्तरार्ध में यहाँ तप किया हो। दूसरा ऋषि पराशर के तप की चर्चा यमुना नदि के तट पर भी आती है, यहाँ तक कि दक्षिण भारत में उनका वर्णन आता है। फिर कुल्लू घाटी में ही महर्षि व्यास एवं वशिष्ट के विशिष्ट मंदिर व तपःस्थलियाँ क्रमशः व्यासकुण्ड एवं वशिष्ठ गाँव में प्रचलित हैं। मानाली में हडिम्बा मंदिर एवं घटोत्कच का वर्णन आता है। पाण्डवों से जुड़े तमाम स्थल यथा - पाण्डु रोपा, पाण्डु चूली, अर्जुन गुफा आदि स्थान यहाँ प्रचलित हैं।
मंदिर जहाँ पैगोड़ा शैली में बना है, जिसकी दो मंजिलें हैं, वहीं मंदिर परिसर में पहाड़ी शैली में लकड़ी के बने सुंदर भवन यू आकार में शोभायमान हैं। सफाई की यहाँ विशेष व्यवस्था दिखी। पुजारीजी के अनुसार यहाँ कमरे आसानी से सस्ते दामों में मिल जाते हैं, हालाँकि भीड़ रहने पर समय पर बुकिंग करनी पड़ती है।

यहाँ दर्शन के बाद हम झील की परिक्रमा करने के लिए बाहर निलकते हैं। बाहर धुंध पूरी तरह छंट चुकी थी। पूरी झील का एकदम स्पष्ट विहंगम दृश्य देखने लायक था। हम इसके चारों ओर मखमली घास पर बने परिक्रमा पथ पर आगे बढ़ रहे थे। इस समय यहां परिक्रमा पथ की ढलान पर लम्बी घास के साथ जैसे फूलों के गलीचे बिछे थे। 

मुश्किल से पाँच मिनट में ही पहाड़ की चोटी से बादल उमड़ना शुरु हो गए थे। अगले पाँच मिनट में पूरी झील इसके आगोश में आ चुकी थी। हम पुनः धुंध के बीच गुजर रहे थे, इसकी जलकणों को हम अनुभव कर रहे थे। जैसे हल्का सा अभिसिंचन शुरु हो चुका था, जिसे हम शुभ संकेत मान रहे थे। तैरता हुआ टापू हमारे सामने था, धुँध के बीच हम इसको नजदीक से देख पा रहे थे।


पूजारी जी के अनुसार इस छोर पर यह टापू पिछले तीन माह से टिका है। झील का 10 फीसदी यह भूभाग झील में एक छोर से दूसरे छोर तक तैरता रहता है। हालांकि यह गति धीमी होती है, लेकिन पूजारीजी एक ही दिन में इसको ईधर-उधर चलता देख चुके हैं।

अगले पाँच मिनट में बारिश कुछ तेज हो गयी थी। झील व घाटी पूरी तरह से धुँध में ढक चुकी थी। हम हल्का भीगते हुए पुनः मंदिर परिसर तक पहुँचते हैं, व इसके एक कौने में शरण लेते हैं। अब तो बारिश और तेज हो गयी थी, अगले 10-15 मिनट तक बरसने के बाद बारिश थमी व इसके साथ धुँध भी। 


इसके साथ ही हम बापिस अपने वाहन की ओर चल पड़ते हैं। ऊपर टीले तक हम धीरे-धीरे पक्की सड़क के साथ चलते रहे और झील व मंदिर का नजारा भी कैप्चर करते रहे। अब बादलों के झुंड नीचली पहाडियों से होकर आ रहे थे। मंदिर परिसर पुनः इसके आगोश में आ चुका था व झील को ढकते हुए घाटी के पार हमको छुता हुआ पहाड़ी के पार जा चुका था। जिस धुँध के बीच हम मंदिर घाटी में प्रवेश किए थे, बिल्कुल बैसी ही धुंध के बीच हम इसके बाहर निकल रहे थे।

पिछले आधे-पौन घंटे में हम हर तरह का नजारा परिसर झील व मंदिर के चारों ओर देख चुके थे। ऋषि परिशर की तपःस्थली का प्रताप हमारे जैसे जिज्ञासु के लिए प्रत्यक्ष था व हमारी आस्था इस तीर्थस्थल की दैवीय शक्ति के प्रति प्रगाढ़ हो चुकी थी, जहाँ प्रकृति ने कुछ ही पलों में हमें इसके सारे रंग दिखाकर सुरक्षित यात्रा को पूरा कर दिया था।



पहाड़ी के टॉप से हम मोटर मार्ग तक फिर पक्की पगडंडी के सहारे आ रहे थे, सड़क लगभग सीधी, हल्की उतराई लिए हुए धुंध से ढकी थी। अपनी गाड़ी के पास पहुँचकर हम अपना चाय-नाश्ता करते हैं। वुग्याल में चादर बिछाकर नाश्ता करने, लेटने, विश्राम व ध्यान के मंसूबे हमारे आज अधूरे रह गए थे। बाहर हल्का अभिसिंचन जारी था। नाश्ता करने के बाद हम बापिस गन्तव्य की ओर कूच करते हैं।
पुनः वुग्याल के बीच होकर नीचे ट्रीलाईन में प्रवेश करते हैं।

बीच में गुज्जरों की छानकियों (कच्चे घर) के दर्शन हुए, जिसकी छत्त को मिट्टी व देवदार के पत्तों से ढककर बनाया जाता है। भैंसों की चरते हुए पाया। रास्ते भर डायवर्जन प्वाइंट शेगली का साइनबोर्ड हर किमी पर मिला, जो यहाँ से 23 किमी था। इस तरह क्रमशः संख्या कम होती गयी व हम नीचे बागी से होकर मुख्यमार्ग में पहुंच चुके थे। वहाँ से दायीं ओर मुड़कर बजौरा-कुल्लू मार्ग की ओर चल देते हैं।


अब यात्रा चढाईदार थी, अगले आधे घंटे पहाड़ी टॉप कांडी तक के थे। घने देवदार-बुराँस के जंगले के बीच यहाँ पहुँचे, फिर अगली उतराई क्रमशः ऐसी ही राह पर अगले आधे घंटे की रही, जब तक कि हम बजौरा नहीं पहुँचते। अगले पौन घंटे में हम घर पहुँच चुके थे। 


इस सफर का एक सबक रहा कि, इस सीजन में यात्रा के दौरान एक छत्ता या वाटरप्रूफ विंडचीटर अवश्य रखें, जो बरसात के असर के खलल को कम करेगा। अपने थर्मस में चाय-काफी या होट-ड्रिंक की व्यवस्था अति उत्तम रहती है। यदि घर का ही नाश्ता पानी हो तो इससे बेहतर कुछ भी नहीं। बाकि हमारे अनुभव में पराशर झील एक प्रत्यक्ष तीर्थ है, आप जिस भी भाव से जाएंगे, उसका प्रत्युत्तर अवश्य मिलेगा।
 
यदि इस यात्रा के पिछले भाग न पढ़े हों, तो नीचे दिए लिंक्स पर पढ़ सकते हैं - 
 


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प्रबुद्ध शिक्षक, जाग्रत आचार्य

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