मंगलवार, 20 नवंबर 2018

यात्रा वृतांत - सुरकुंडा देवी का यादगर सफर, भाग-2

गढ़वाल हिमालय की सबसे मनोरम राहों में एक

हिमालय के आलौकिक वैभव की पहली झलक
चम्बा को पार करते ही हम आराकोट स्थान पर पहुंचे, जहाँ से हिमाच्छादित हिमालय की ध्वल श्रृंखलाओं के प्रत्यक्ष दर्शन करते ही काफिले के हर सदस्य के मुंह से आह-वाह के स्वर निकल रहे थे। चलती बस से सभी इसको मंत्र मुग्ध भाव से निहार रहे थे। थोड़ी ही देर में हिमालय की ध्वल पर्वत श्रृंखलाएं दृष्टि से औझल हो चुकी थी। अब हम पहाड़ी के वायीं ओर से आगे बढ़ रहे थे। ऐसे में नीचे दक्षिण में देहरादून की ओर की पहाड़ियों व घाटियों के दर्शन हो रहे थे।

यहाँ सीढ़ीनुमा खेत प्रचुर मात्रा में दिखे, जो देखने में बहुत सुंदर लग रहे थे। पहाड़ी यात्रा के दौरान ये खेत निश्चित रुप में पथिकों का ध्यान आकर्षित करते हैं और सफर का एक सुखद अहसास रहते हैं। रास्ते में हम चुपडियाल नामक हिल स्टेशन को पार करते हुए आगे बढ़े। सड़क के साथ सटे सीढ़ीदार खेतों में सरसों, पालक, राई, मटर, गोभी आदि की सब्जियों को प्रचुर मात्रा में उगे देखा। लगा यह क्षेत्र कैश क्रॉप्स के मामले में जागरुक है।

और कहीं-कहीं सेब के पेड़ भी दिखना शुरु हो चुके थे। पहाड़ियों पर देवदार के पेड़ आम होते जा रहे थे। वास्तव में हम हिमालय की ऊँचाईयों में लगभग 7000 फीट की ऊँचाई पर थे, लग रहा था कि जैसे हम हिमालय की गोद में सफर कर रहे हैं और रास्ते के प्रति पनप चुका आत्मीय लगाव क्रमशः प्रगाढ़ होता जा रहा था।

घर-आंगन में फूलों की क्यारियाँ और सूखे घास के टुहके -
   रास्ते में प्रवाहमान लोकजीवन हो हम उत्सुक भाव से देख व समझ रहे थे तथा इसके सुपरिचित पहलुओं से अपने सहचरों को अवगत करा रहे थे। घर आंगन में गेंदे के फूलों के लाल-पीले झुरमुट छोटे एवं भव्य पहाड़ी घरों की शोभा में चार-चाँद लगा रहे थे। साथ ही सूखी घास के ढेर, जिनको हमारे क्षेत्र में टुहका कहते हैं, कतारों में शोभायमान खड़े थे और कहीं-कहीं तो ये दो-चार नहीं दर्जनों की संख्या में एक साथ पंक्तिबद्ध खड़े थे। सर्दी में जब हरा चारा नाम मात्र का रह जाता है और चारों ओर बर्फ गिरी होती है, तो पहाड़ी क्षेत्रों में गाय-बैल एवं भेड़-बकरियों के लिए यही सूखा चारा काम आता है। यहाँ अधिकाँश टुहके जमीं पर खड़े दिखे, हालाँकि कई इलाकों में इन्हें पेड़ के ऊपर भी जमाया जाता है।


      रास्ते भर पाजा या पइंया के फूलों से लदे वृक्षों के दर्शन स्थान-स्थान होते रहे। यह एक अद्भुत फूलों वाला पौधा है, जो सर्दी में तब खिलता है, जब पतझड़ का मौसम शुरु हो चुका होता है, बाकि पौधों के फूल तो दूर, फल तक झर चुके होते हैं और पत्ते झरने की प्रक्रिया में होते हैं। इसके फूल मधुमक्खियों के लिए पराग का समृद्ध स्रोत होते हैं, जिसके चलते सर्दियों में भी क्वालिटी शहद का निर्माण संभव होता है। पूजा में भी इन फूलों का उपयोग किया जाता है। इसकी पौध पर ग्राफ्टिंग कर चैरी के बेहतरीन पौधों को तैयार किया जाता है। शायद इन सब गुणों के कारण पाँजा के पौधे को कल्पवृक्ष भी कहा जाता है।
कुछ ही मिनटों में हम एक ऐसे बिंदु पर थे, जो पहाड़ी की धार (रिज) के ठीक बीच में था, जहाँ से हम पहा़ड़ के दोनों ओर के नजारे देख सकते थे, विशेषरुप में हिमालय की ध्वलश्रृंखलाएं अपने पूरे श्बाब के साथ घाटियों के उस पार सुदूर प्रत्यक्ष खड़ी थी। यह कानाताल का ठांगधार इलाका था। यहाँ बस को खड़ा कर काफिला बाहर उतरा। 
सड़क के किनारे एक छत्त पर उतर कर हिमालय की बेकग्राउंड में ग्रुप फोटो हुई और इसके बाद हम पास के पहाड़ी ढाबे पर चाय की चुस्की व स्थानीय लोगों से यहाँ की जानकारी बटोरने के उद्देश्य से लकड़ी की बेंच पर बैठ गए। काफिला हिमालय की गोद में फोटो खेंचने व सेल्फी लेने में मश्गूल था, तो हम चाय का इंतजार कर रहे थे। ड्राइवर हमारे साथ था।

ड्राईवर से सामने दिख रही हिमालय की चोटियों के बारे में पूछा, तो जबाब मिला कि सामने खड़ी सबसे ऊँची चोटी माउंट एवरेस्ट है। सुनकर हम थोड़ा चौंके कि ये क्या जबाब मिल रहा है। हम कुछ कहते, इससे पहले ही चाय बना रहे ढावेदार ने तुरंत करेक्ट करते हुए कहा कि एवरेस्ट तो नेपाल में है। फिर हमने समझाया की गढ़वाल की सबसे ऊँची चोटी नन्दा देवी हैं, और ये कंचनजंगा के बाद भारत की दूसरी सबसे ऊँची चोटी है। सामने की विभिन्न पर्वत श्रृंखलाओं के सही-सही नाम क्या हैं, यह प्रश्न यहाँ अनुत्तरित रहा, लगा शायद आगे किसी जानकार से इसका समाधान मिले।
यहाँ चाय-बिस्कुट के रिफ्रेशमेंट के बाद, स्थानीय गिफ्ट के रुप में दुकान पर रखे चीनी राई की भाजी और लोकल सेब को खरीदा, जिनकी विशेषता इनका नेचुरल व ऑर्गेनिक होना था। सेब मध्यम आकार के थे, देखने में सुंदर लग रहे थे, लाल-पीला रंग लिये सेब स्वाद में एक खास तरह की मिठास लिए थे। समय कम था, नहीं तो यहाँ के सेब के बागों को एक्सप्लोअऱ करने का मन था। काफिला भी पास पहुँच चुका था, कुछ और लोगों ने यहाँ के स्मृति प्रसाद के रुप में सेब व चीनी राई की भाजी लिए।

अब हम सुरकुंडा से महज 10-15 किमी दूर थे। सामने पहाड की चोटी पर सुरकुंडा देवी की सबसे ऊँची चोटी हमारी आज की मंजिल का प्रत्यक्ष बोध करा रही थी। रास्ते भर पहाड़ों के बीच इसका लुकाछुपी का खेल चलता रहा और इसको बीच-बीच में निहारते हुए सफर मंजिल की ओर बढ़ रहा था। सड़क के किनारे देवदार के वृक्षों की संख्या व घनत्व भी बढ़ रहा था। इस रास्ते में ढलानदार खेतों में सेब के छोटे-छोटे बाग भी प्रचुर मात्रा में मिले। इस राह के एक नए आकर्षण थे - पिकनिक स्पॉट्स, जो रास्ते में प्रचुर संख्या में मिले।

इनमें तम्बुओं की कतारें सीढ़ीनुमा खेतों में सजी थी। देवदार के एक पेड़ से दूसरे पेड़ में और खाई के पार रसियों के पुल बने थे, जिन पर पैदल चलकर पार किया जा सकता है। इस तरह के एडवेंचर क्रीडाओं के तमाम सरंजाम यहाँ किए गए दिखे। पता चला कि कुछ फीस के साथ यहाँ रुकने, ट्रैकिंग व नाइट हाल्ट की व्यवस्था रहती है। इस दौरान स्थानीय गाँव, घाटियों, झरनों, तालों व पहाड़ियों के दर्शन भी कराए जाते हैं। कानाताल का नाम ऐसे ही किन्हीं ताल के नाम पर पड़ा समझ आया, हालाँकि यह ताल कहाँ है, किस अवस्था में है, यह सब जानना शेष था।

इस तरह हम सुरकुंडा माता के काफी नजदीक आ चुके थे। राह में मुख्य सड़क के ऊपर पहाड़ी के चरण से चोटी तक जाने का पैदल मार्ग दिखा, जो कठिन व लम्बा लगा। संभवतः लोकल ग्रामवासी या ट्रेैक्कर इसका प्रयोग करते होंगे। हमें तो आगे कद्दुखाल से महज 3 किमी ट्रेक करते हुए ऊपर चढ़ना था। सो हम उस ओर देवदार के घने जंगलों से होकर बस में आगे बढ़ रहे थे। यह रास्ता बहुत ही शांत-एकांत, सुंदर एवं मनोरम लग रहा था।
कुछ किमी के बाद हम देवदार के सघन आच्छादन को पार कर बाहर निकल चुके थे और कद्दुखाल से महज 1-2 किमी पहले थे, यहाँ से एक मार्ग नीचे देहरादून, राजपुर की ओर जाता है। पता चला कि यह यहां का गुप्त मार्ग है, जिसमें कम ही लोग सफर करते हैं। लेकिन यह रास्ता हमें बहुत ही सुंदर, सुरम्य, शांत एवं घुमने योग्य लगा।

कुछ ही देर में हम कद्दुखाल पहुँच चुके थे, जो बस से हमारा अंतिम स्टेशन था। बस से उतर कर बाहर सड़क पर निकले, तो ऊपर शिखर पर सुरकुंडा देवी के भव्य दर्शन हो रहे थे। अभी हम 8000 फीट की ऊँचाई पर खड़े थे, जहां से हमें 10,000 फीट की ऊँचाई तक 3 किमी की चढ़ाई चढ़नी थी। सो पूरा काफिला प्रवेश गेट पर ग्रुप फोटो के बाद माता के जयकारे के साथ आगे बढता है। 

अपनी उम्र और स्टेमिना के हिसाब से हम सबसे पीछ चल रहे थे, ताकि सबको बटोर कर मंदिर तक पहुँचा सकें। नौसिखियों की टीम के साथ यात्रा में प्रायः हमारी स्ट्रेजी यही रहती है। जब पूरी टीम मंदिर तक पहुँचे, तभी हमारा अभियान सफल माना जाएगा, बाकि रास्ते से भी हमें बापिस आना पड़े, तो कोई गम नहीं, आखिर माता की गोद में तो हम पहुँच ही चुके हैं। 

चम्बा से यहाँ तक के रास्ते और पीछे ऋषिकेश से चम्बा तक के रास्ते के बीच एक मौलिक अंतर नजर आया, जो एक शोध प्रश्न की तरह मन में कौंधता रहा। इस राह में बहते पानी का नितांत अभाव खला। कहीं कोई झरना, नाला या समृद्ध जल स्रोत नहीं दिखा। शायद इसका एक कारण सड़क का चोटी के आसपास होना था, जिस कारण कैचमेंट एरिया बहुत ही स्वल्प था। खैर इसका सांगोपांग जबाब तो इस क्षेत्र के किन्हीं विशेषज्ञों से ही मिलेगा, जिसका इंतजार रहेगा, क्योंकि इस संदर्भ में हमारी जिज्ञासा अभी शांत नहीं हुई है। (जारी...शेष अगली पोस्ट में-गढ़वाल हिमालय के सबसे ऊँचे शक्तिपीठ के दिव्य प्राँगण में)

शुक्रवार, 16 नवंबर 2018

य़ात्रा वृतांत - सुरकुंडा देवी का वह यादगर सफर, भाग-1

गढ़वाल हिमालय की गोद में सफर का रोमाँच
 
गढ़वाल हिमालय - एक विहंगम दृष्टि

जनरल इलेक्टिव के पाठ्यक्रम में यात्रा वृताँत के तहत विद्यार्थियों के साथ जिस तरह से अचानक शैक्षणिक भ्रमण का प्लान बना, लगा कि जैसे माता का बुलावा आ गया। 28 अक्टूबर की सुबह 25 छात्र-छात्राओं और शिक्षकों का दल देवसंस्कृति विवि से प्रातः 8:20 बजे रवाना हुआ। इस टूर के प्रति सबकी उत्सुकता एवं उत्साह का भाव चेहरे पर स्पष्ट झलक रहा था। टूर की विशेषता थी ऋषिकेश-चम्बा से होकर सुरकुंडा की यात्रा, जिसे हम पहली बार कर रहे थे। अतः एक नए मार्ग पर यात्रा के रोमाँच व जिज्ञासा भरे उत्साह के साथ सफर शुरु होता है। काफिले के सभी सदस्य इस रुट पर पहली बार सफर कर रहे थे और संभवतः अधिकाँश तो पहली बार पहाड़ों की यात्रा कर रहे थे, वह भी हिमालय की गोद में।
ऋषिकेश - गढ़वाल हिमालय की प्रवेश द्वार

लगभग आधा घंटे में हम ऋषिकेश पहुंच चुके थे, इसके पुल को पार करते ही सामने खड़े, आसमान की ऊँचाईयों को छूते गढ़वाल हिमालय के उत्तुंग शिखर जैसे हाथ पसारकर हमारा स्वागत कर रहे थे। इनके सबसे ऊंचे शिखर पर माता कुंजा देवी का शक्तिपीठ स्थित है, जिसके दूरदर्शन ऋषिकेश से सहज रुप में किए जा सकते हैं। आपकी जानकारी के लिए बता दें कि गढ़वाल के तीन शिखरों पर तीन प्रमुख शक्तिपीठ स्थापित हैं, जिन्हें दिव्य शक्ति त्रिकोण भी कह सकते हैं। जो हैं क्रमशः कुंजादेवी, चंद्रबदनी और सुरकुंडा। आज का हमारा सफर कुंजादेवी के चरणों से होकर सुरकुंडा देवी तक का था।
प्राचीन सिद्धपीठ माँ भद्रकाली मंदिर

ऋषिकेश पुल को पार करते ही प्राचीन काली मंदिर से होकर वाईं ओर का रास्ता नरेंद्रनगर-चम्बा की ओर मुड़ता है, जबकि दाईं ओर का रास्ता देवप्रयाग के लिए जाता है। यहीं से चढ़ाई भी शुरु हो जाती है। पूरा मार्ग हरे-भरे वृक्षों से घिरा है, जिनको निहारते हुए प्रकृति की गोद में सफर का एक अलग ही आनन्द रहता है। बीच-बीच में टेकोमा के पीले फूलों से लदी झाड़ियों को देखकर सुखद आश्चर्य हुआ। जैसे-जैसे बस पहाड़ों का आरोहण कर रही थी, नीचे घाटी का दृश्य क्रमशः निखर रहा था। एक प्वाइंट पर आकर ऋषिकेश का विहंगम दृश्य देखते ही बन रहा था। 
ऋषिकेश शहर का विहंगम दृश्य

सफर के इन खुबसूरत नजारों के साथ सफर का रफ-टफ दौर भी शुरु हो चुका था।  ऑल वेदर रोड़ का कार्य निर्माणाधीन होने के चलते शुरुआती सफर हिचकोले खाते हुए आगे बढ़ा, जो अगले लगभग दो घंटे तक हमारा साथ छोड़ने वाला नहीं था। बरसात में पहाड़ियों को काटकर बही मिट्टी ड्राइविंग रुट को चुनौतीपूर्ण बना चुकी थी। हालाँकि ड्राइवर पहाडी रास्तों से परिचित था और अपने पूरे ड्राइविंग कौशल के साथ सफर को आरामदायक बनाने की कोशिश कर रहा था। संयोग से हमारी बस के सारथी गंगोत्री क्षेत्र के थे व इनका सहयोगपूर्ण रवैया व शांत स्वभाव हमारे सफर का एक सुखद अहसास रहा।
नरेंद्रनगर कस्बे का विहंगम दृश्य
ठीक एक घंटे बाद 9:20 पर हम नरेंद्रनगर कस्बे से गुजर रहे थे। मालूम हो कि यह गढ़वाल के राजा का निवास स्थान रहा है, जिनका पुश्तैनी महल आज फाइव स्टार होटल आनन्दा रिजॉर्ट के रुप में यहाँ कुछ दूरी पर विराजमान है। देश की फिल्मी एवं उद्योगजगत की हस्तियों व राजनेताओं का यह छुट्टियां बिताने की लोकप्रिय ठिकाना रहता है। इसी वर्ष विराट-अनुष्का, अमिताभ बच्चन परिवार, अंंवानी परिवार आदि यहाँ पधार चुके हैं।
हिंडोलखाल - सिद्धपीठ माता कुंजादेवी का प्रस्थान बिंदु
 
थोड़ी ही देर में हम कुंजापूरी माता के चरणों से गुजर रहे थे। नेशनल हाईवे-94 से महज 3 किमी की दूरी पर, शिखर पर भगवती का सुंदर मंदिर विराजमान है। अभी समय अभाव के कारण हम माथा नवाते हुए सफर पर आगे बढ़े। बापसी में यदि शाम न हुई तो इसका दर्शन करेंगे, यह तय हुआ। 
शिखर पर सिद्धपीठ माता कुंजादेवी को निहारता पथिक

पिछले आधे घंटे के मार्ग में, रास्ते में जगह-जगह सड़कों के किनारे रिस रही नमी, पानी के नल्के व प्राकृतिक जल स्रोत हमें रोचक लगे। इसका कारण आप समझ सकते हैं, ऊपर बांज के घने जंगल पहाड़ियों पर लगे हैं, जिनकी जड़ों में पानी को रोकने व छोड़ने की विशेषता के कारण यह संभव हो पा रहा है। बांज के साथ दूसरे हरे-भरे पेड़ भी प्रचुरता में इन जंगलों में लगे हैं। हालांकि, मानवीय हस्तक्षेप के चलते क्रमशः इनका सफाया हो रहा है, जो चिंता का विषय है और आगे चलकर यह इस क्षेत्र में जल संकट का कारण बने, तो कोई आश्चर्य नहीं होगा।

पहाड़ी गाँवों का रोमाँचित करता दृश्य

कुंजापूरी से आगे का सफर हमारे लिए व्यैक्तिगत रुप से भी विशेष था। क्योंकि कुंजापूरी तक तो हम कईयों वार आ चुके हैं, लेकिन यहाँ के आगे के रुट से हम अनभिज्ञ प्रायः थे। इस रास्ते के नक्शे को क्लीयर करने की चिर जिज्ञासा आज पूरा हो रही थी। सो आज दिन के ऊजाले में होशोहबाश में इस रुट को देखने, समझने, निहारने व अनुभव करने की पूरी तत्परता के साथ आगे बढ़ रहे थे। संयोग से बस की केबिन में सीट मिलने के कारण रास्ते का सांगोपांग दर्शन आज हमारे हिस्से में था। कुंजापुरी से लगभग आधा घंटे बाद हम आगराखाल के पहाड़ी स्टेशन पर थे। यहाँ बस चाय-नाश्ता के लिए रुकी। 
आगराखाल - चाय नाश्ते की व्यवस्था

यहाँ के अन्नपूर्णा ढाबे में हम चाय के साथ हल्का नाश्ता लिए। अधिकाँश विद्यार्थी फोटोज व सेल्फीज में ही मश्गूल थे। शायद कुछ तो पहली बार पहाड़ों को इतना नजदीक से देख रहे थे। इनका उत्साह देखते ही बन रहा था। यहाँ 10-15 मिनट्स में फ्रेश होने के बाद काफिला ठीक 1020 पर आगे बढ़ता है। आगे का रास्ता पहाड़ियों की गोद में कुछ उतराई भरा था। आल वेदर रोड़ के निर्माण के चलते बीच-बीच में ट्रेपिक जाम का सामना करना पड़ा। लेकिन सामने गगनचुम्बी पहाड़ों के नजारे मन को सुकून दे रहे थे। रास्ते में चट्टानों को काटकर जिस तरह से सड़कें बनी हैं व बन रही हैं, देखकर लगा कि इंसानी जीवट भी क्या चीज है, उसके लिए क्या असंभव है। वह ठान ले तो क्या नहीं कर सकता।
जोरों शोरों से चल रहा आल वेदर रोड़ का कार्य

रास्ते में गाँव-कस्वों को यथासंभव नोट करने की कवायद चलती रही, जिनका बाद में यात्रा वृतांत में प्रयोग कर सकें। अब हम फकोट गाँव से गुजर रहे थे। संभवतः हिमाच्छादित हिमालय की पहली झलक हमें इस मार्ग में मिल चुकी थी। इस राह में भी जल स्रोत्रों की प्रचुरता हमें सुखद अहसास देती रही। यहाँ की विशेषता व अंतर यह दिखा कि यहाँ सड़क के किनारे जल-संचयन के टैंक बने मिले, जिनसे पाईप के माध्यम से आगे गांवों में पानी सप्लाई हो रहा है।
पहाड़ी जल स्रोत का एक सुंदर दृश्य

आगे हम जाजल क्षेत्र में प्रवेश कर चुके थे, जहाँ रास्ते में हमें पानी का दनदनाता हुआ नाला बहता मिला। थोड़ी ही देर में उस नदी को पार कर रहे थे, जो हमें पहाड़ों में दूर से घाटी के बीचों-बीच बहती दिख रही थी। बाद में पता चला कि यह हेंवल नदी है। इस पर बने पुल को पार करते ही हम एक संकरी सी किंतु सुंदर घाटी में प्रवेश कर चुके थे।
हेंम्बल नदी को पार करते हुए

रास्ते में हमें सेलुपानी, आमसेरा, नागनी जैसे पहाड़ी स्टेशन मिले, जहाँ नदी के किनारे धान की खेती दिखी, सरसों के लहलहाते खेत मिले। कुछ-कुछ सब्जियों के उत्पादन के चलन की झलक मिली। इसी रास्ते में जड़धारी गाँव के दर्शन हुए। संभवतः यह इस रुट का सबसे सुंदर प्वाइंट लगा, जहाँ से सुंदर घाटी सामने दूर तक फैली मिली। बीच में इसके ऊर्बर खेत और इनमें लहलहाती खेती, सब सफर को खुशनुमा अहसास दे रहे थे। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के नाम पर इस गाँव का नाम पड़ा समझ में आया। यहाँ से चम्बा मात्र 8 किमी है, जो इस मार्ग का एक मुख्य शहर है। और यह शहर पहाड़ी पर बसा हुआ है।
घाटी में बसे एक सुंदर गाँव का मनोरम दृश्य

यहाँ तक का रास्ता चढ़ाई भरा रहा, जो काफी सुंदर व रोमाँचक लगा। रास्ते भर दूर हरे-भरे और सुंदर पहाड़ों के सौंदर्य को निहारते हुए यहाँ के टेढ़े मेढ़े रास्ते से सफर आगे बढ़ता रहा। नकदी फसलों से कुछ-कुछ प्रयोग रास्ते के खेतों में दिखे। 
पहाड़ी पर बसे चम्बा शहर की ओर बढ़ता सफर

रास्ते में ही चम्बा शहर का विहंगम नजारा सामने प्रकट हुआ, थोड़ी ही देर में हम शहर में प्रवेश कर चुके थे। चम्बा शहर के बीचों-बीच चौराहे से दाईं ओर का रास्ता टिहरी शहर की ओर जाता है तथा वांयां सुरकुंडा-मसूरी की ओर। इसकी तंग और भीड़भरी गलियों को पार करते हुए हम सुरकुंडा की ओर बढ़ रहे थे।
चम्बा शहर, फलों से सजी एक दुकान

रास्ते में अराकोट स्थान से हमें चलती बस से विराट हिमालय श्रृंखला की पहली झलक मिली। निसंदेह हिमाच्छादित हिमालय के दर्शन सभी के लिए एक आलौकिक अनुभव था। जिस गंगा की गोद, हिमालय की छाया का ध्यान देसंविवि में नित्य होता रहता है, उसकी प्रत्यक्ष झलक निसंदेह रुप में ध्यान की गहराईयों में उतरने का अनुभव दे रही थी। आगे राह में बाँज और देवदार के वृक्षों के दर्शन हिमालय की ऊँचाईयों में प्रवेश का गाढ़ा अहसास दिला रहे थे, जहाँ बर्फवारी सर्दी के मौसम का नित्य सच रहता है। चलती बस में ठंडी हवा के साथ हिमालयन टच के तीखे किंतु सुखद झौंके हमें हिमालय की वादियों में अपनी मंजिल के समीप होने सुखद अहसास दिला रहे थे। (जारी,.......शेष अगली पोस्ट में - गढ़वाल हिमालय की सबसे मनोरम राहों में एक (चम्बा से कद्दुखाल, सुरकुण्डा))
 
राह में मनोरम हिमालयन वादियों का मनमोहक दृश्य

शुक्रवार, 26 अक्टूबर 2018

यात्रा वृतांत - जब आया बुलावा बाबा नीलकंठ महादेव का, भाग-2


पर्वत की गोद में बाबा का कृपा प्रसाद
नीलकंठ घाटी में प्रवेश घुमावदार सड़कों से होते हुए कुछ ही मिनटों में हम नीलकंठ क्षेत्र में प्रवेश कर चुके थे, उस पार पहाड़ी की गोद में सीढीनुमा खेतों के दर्शन हो रहे थे, जिसके किनारे पहाड़ी गाँव बसे हैं। चावल की खेती इनमें पकती तैयार दिख रही थी।
रास्ते में ही सड़क के किनारे नए-नए मंदिर खड़े हो गए हैं, जहाँ द्वादश ज्योतिर्लिंग की स्थापना की गई है। साथ ही बड़े-बड़े होटेल रुपाकार ले रहे हैं। तमाम दुकानें सजी हैं, जहाँ एक मुखी से लेकर तमाम मुखी रुद्राक्षों की बिक्री गारंटी के साथ होने के बोर्ड लगे हैं।
धर्म का भी अपना बाजार है, रोजगार है, यहाँ इसके दर्शन किए जा सकते हैं। रास्ते में इसी की आड़ में भिखारियों को भी अपना धंधा करते देखा जा सकता है, ताजुक तो तब होता है जब हट्टे-कट्टे बाबाजी को आसन जनाकर श्रद्धालुओं की श्रद्धा एवं भय का दोहन करते देखा जाता है।
नीलकंठ महादेव, झरना, संगम – 
इन सबको नजरंदाज करते हुए हम अपने चित्त को समेटे नीलकंठ मंदिर की ओर बढ़ रहे थे। स्वागत द्वार में लटकी घंटी की गुंजार के साथ हमने तीर्थ परिसर में प्रवेश की हाजरी लगाई। 
दर्शन लाईन में लगकर बाबा के दर्शन किए, गंगाजल-बेलपत्री आदि से स्वयं-भू लिंग का अभिषेक किए, सदियों से जलरही धुनी से बाबा का भस्मप्रसाद-आशीर्वाद ग्रहण कर बाहर निकले। नीचे झरना पूरे बेग में बह रहा था। इस समय यहाँ का पानी निर्मल-स्वच्छ दिख रहा था।
ज्ञातव्य हो कि नीलकंठ तीर्थ विष्णूकूट, ब्रह्मकूट और मणिकूट पहाड़ियों की गोद में, इनसे निस्सृत हो रही पंकजा और मधुमति नदियों के संगम तट पर बसा है। गर्मी में प्रायः इनमें से एक ही धारा झरने के रुप में बहती है, दूसरी धारा नाम मात्र की रहती है, लेकिन इस समय दोनों धाराएं अपने पूरे वेग के साथ कलकल निनाद करती हुई संगम पर मिल रही थी। 
पौराणिक मान्यता के अनुसार देव व दानवों द्वारा समुद्र मंथन में निकले चौदह रत्नों में से एक कालकूट विष का विषपान भगवान शिव द्वारा किया गया तथा इसकी ज्वलंता को शांत करने के लिए वे इस संगम के समीप पंचपणी नामक वृक्ष के नीचे समाधिस्थ होकर साठ हजार वर्षों तक तप किए तथा कैलाश लौटने से पूर्व भगवान शिव द्वारा कंठ के रुप में जनकल्याणार्थ शिवलिंग स्थापित किया।
चिंता का विषय -
नदी के चारों ओर गंदगी का आलम चिंता का विषय है। हालांकि बरसात में प्रकृति इसको काफी हद तक साफ कर देती है, लेकिन वाकि समय यहाँ नाले के चारों ओर फैली गंदगी व बदबू गहरे कचोटती है। इस विषय पर समाधान चर्चा करते हुए पिछली वार यहाँ के स्वामीजी से विस्तार में चर्चा हुई थी, लेकिन समाधान की वजाए एक दूसरे पर दोषारोपण और असहयोग की बातें अधिक दिखी। लगा स्वच्छता अभियान के नाम पर एक विशिष्ट सफाई अभियान आस्थावानों के स्तर पर किए जाने की यहाँ जरुरत है। फिर, जितना चढ़ावा रोज आ रहा है, इसके एक अंश में पूरे तीर्थ क्षेत्र की स्वच्छता की व्यवस्था की जा सकती है। इसमें श्रद्धालुओं, दर्शनार्थियों, दुकानदारों, गांव वासियों, प्रशासन एवं जनप्रतिनिधियों की भी जिम्मेदारी है कि इस पावन तीर्थ स्थल को साफ-सुथरा रखने में अपने-अपने स्तर का नैष्ठिक सहयोग दें।
पहाड़ी पर माँ भुवनेश्वरी की ओर नीलकंठ महादेव के दर्शन के बाद कुछ यादगार ग्रुप फोटो के बाद हम भुवनेश्वरी मंदिर की ओर कूच किए, जो यहाँ से लगभग 2 किमी दूर पहाड़ी पर स्थित है। यहाँ पैदल चलकर पहुँचा जा सकता है। लेकिन वाहन से भी पहाड़ी की वायीं और से परिक्रमा करते हुए मुख्य मोटर रोड़ से कच्ची सड़क है। इसके अंतिम छोर से महज 400 मीटर की दूरी पर पहाड़ी की चोटी पर माता का मंदिर स्थित है। 
मान्यता है कि जब भगवान शिव कालकूट विष के शमन हेतु नीचे घाटी में समाधिस्थ थे, तो माता पार्वती यहाँ पहाड़ी पर विराजमान थी, नीचे बाऊड़ी(पहाड़ी जल स्रोत) से जल भरकर लाती थी। शीतल एवं निर्मल जल की यह बाऊड़ी खेत में पीपल के पेड़ के नीचे रास्ते में मौजूद है।

गंगा दर्शन ढाबा यहाँ से आगे कच्ची सड़क से उतरते हुए पहाड़ी खेत, बिखरे हुए मकानों से होकर कुछ उतराई लिए हुए पैदल मार्ग आगे बढ़ता है। घरों के साथ यहाँ अमरुद, गलगला(पहाड़ी नींबू),चकोतरा, केला जैसे फलदार पौधे लगे हैं। खेतों में बाजरा, काऊँणी, कोदा आदि की फसलों को पकते देखा।
हालाँकि नयी पीढ़ी इन फसलों की बुआई में कोई विशेष रुचि नहीं लेती, लेकिन वैज्ञानिकों के अनुसार, पौष्टिकता एवं पर्यावरण की दृष्टि से इनका महत्व स्पष्ट है। यहाँ इन फसलों को खेतों में पकते देखकर सुखद आश्चर्य हुआ। सरकार भी आज इनकी पारम्परिक खेती को प्रोत्साहन दे रही है, जो एक अच्छी खबर है।

रास्ते में यहाँ की साफ आवो-हवा और नीरव शांति मन को गहरे छू जाती है। लगता है कि इस शांत प्रदेश में रहने वाले कितने सौभाग्यशाली हैं। यहां के रास्ते में चट्टियों से उतरते हुए थोड़ी दूर में गंगाजी का विहंगम दृश्य़ सामने दिखता है।
यहाँ के गंगा दर्शन ढावे में चाय-नाश्ता एवं भोजन की उचित व्यवस्था है, यात्री चाहें तो यहां के हवादार कमरों में रात्रि विश्राम भी कर सकते हैं। यहाँ से नीचे ऋषिकेश से हरिद्वार पर्यन्त घाटी मैदान का विहंगम दृश्य देखने लायक रहता है। सूर्यास्त के साथ तो यह नजारा ओर भी सुंदर लग रहा था। यहाँ प्लाऊ का ऑर्डर देकर हम अगले गंतव्य झिलमिल गुफा की ओर बढ़ चले।
झिलमिल गुफा रास्ता कुछ उतराई लिए, तो आगे कुछ चढ़ाई लिए हुए और फिर समतल आगे बढ़ता है। पहाड़ी की छाया में होने के कारण रास्ते में ठंडक का ठीकठाक अहसास हो रहा था। घाटी के उस पार पीछे की ओर पहाड़ी पर भुवनेश्वरी मंदिर, दूसरी ओर उस पार पहाड़ी की चोटी पर कोई दूसरा मंदिर, सामने देवली इंटर कॉलेज और वहाँ तक का पैदल मार्ग, सब यहाँ से दिखते हैं।

इस एकांतिक मार्ग की नीरवता के बीच झींगुरों की अलमस्त तान को पूरे श्बाब पर सुना जा सकता है। रास्ते में नवनिर्मित हनुमान मंदिर पार करते ही हम झिलमिल गुफा के द्वार पर थे।
आज पहली बार यहां कुछ अलग ही नजारा दिख रहा था। दो अजनवियों ने द्वार पर ही काफिले को रोक लिया और एक ओर बैठने का ईशारा किया। अंदर देखा तो धुनी के चारों ओर यहाँ के प्रधान बाबाजी का साक्षात्कार चल रहा था। कोई हिंदी में बातकर किसी विदेशी भाषा में दूसरों को सुना रहा था। वीडियो कैमरे से शूटिंग चल रही थी। बाद में पता चला की स्पैन के नेशनल टीवी चैनल के लिए एक डॉक्यूमेंट्र्री शूट हो रही है।

गजब का संयोग रहा कि कुछ ही देर में हम भी टीम सहित साक्षात्कार का हिस्सा बन जाते हैं। यहाँ के बाबाजी हमारे परिचित हैं, जब भी आते हैं, तो उनसे चाय पर कुछ चर्चा जरुरत होती है। बाबाजी भी मस्त मौला औघड़ इंसान हैं। बाबाजी के स्नेहिल निमंत्रण पर हम टीम सहित चर्चा में शामिल हो गए। उनके कार्यक्रम को गायत्री महामंत्र एवं महामृत्यंजय मंत्र के साथ आगे बढ़ाकर पूर्णाहुति की ओर ले गए। इस रुप में लगा कि बाबा का आज का बुलावा अनायास ही नहीं था। हमारे हिस्से में तीर्थाटन के साथ मीडिया के कुछ नायाब अनुभव भी झोली में बटोरने का इंतजाम हो रखा था। जीवन में दैवीय संयोगों की सृष्टि और यात्रा के दौरान तमाम घटनाओं की परफेक्ट टाइमिंग, सब कहाँ से कैसे निर्धारित होती हैं, इन प्रश्नों का गहराई से अहसास हो रहा था।

बापसी का सफर - इसके बाद हम गुफा में गुरु गोरखनाथजी के दर्शन कर बापस आ गए। अंधेरा शुरु हो चुका था। गंगा दर्शन ढावे पर गर्मागर्म प्लाऊ तैयार था। भोजन-प्रसाद ग्रहण कर, यहाँ ये आठ साल पहले के पैदल रोमाँचक सफर को याद करते हुए हम बापस अपने वाहन तक पहुँचे और ढलती शाम के साथ ऋषिकेश होते हुए देसंविवि परिसर पहुँचे।
रास्ते में गंगाजी पुल पार करते सघन अंधेरा छा चुका था, रास्ते में घुप अंधेरे के बीच तपोवन लक्ष्मणझूला शहर की टिमटिमाती रोशनी सफर में एक नया आयाम जोड़ रही थी। 
आठ साल ठीक इसी दिन अमावस्य के दिन सम्पन्न यात्रा कई मायनों में विलक्ष्ण रही,  और इस धाम की विल्क्षण लीला का गहरा अहसास करा रही थी।
आठ साल पूर्व के कंपा देने वाले अनुभव आज के ठीक आठ वर्ष पूर्व इसी ग्रुप के सदस्यों के साथ हम गंगादर्शन ढावे से नीचे बैराज तक बापसी की पैदल यात्रा किए थे। रास्ते की दुश्वारियों से बेखवर, काफिला लगभग 4-5 बजे के बीच नीचे उतरा था। रास्ते में ही साढ़े छः बजे तक अंधेरा हो चुका था। पिछले बरसाती मौसम की मार स्पष्ट थी, जिसके चलते पैदल रास्ता बह चुका था। 
सो हम नाले के साथ नीचे उतर रहे थे। टीम के कुछ सदस्य पहाड़ी रास्ते में उतरने के अनुभवी न होने के कारण बीच-बीच में कद्दु की तरह पानी व पत्थरों पर गिरने की उक्ति चरितार्थ कर रहे थे। अंधेरे में मोबाईल और कैमरे की बैट्रियाँ एक-एक कर जबाव दे रही थी। रास्ते में हाथियों की चिंघाड़ तो कहीं पक्षियों की विचित्र आबाजें और कहीं खुंखार जानवरों की भयावह दहाड़, सब मिलकर हम सबका दिल दहला रही थीं। अनहोनी की आशंका से दिल काँप रहा था। उस पर रास्ता खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था। इस तरह लगभग दो घंटे की भटकन के बाद हम जंगल से बाहर निकले थे। आज रोंगटे खड़ा करने वाले सफर के अनुभव सफर की आठवीं वर्षगाँट में पुनः ताजा हो गए थे व रास्ते में चर्चा का विषय बने रहे।

चुनींदी पोस्ट

प्रबुद्ध शिक्षक, जाग्रत आचार्य

            लोकतंत्र के सजग प्रहरी – भविष्य की आस सुनहरी    आज हम ऐसे विषम दौर से गुजर रहे हैं, जब लोकतंत्र के सभी स्तम्...