रविवार, 19 अगस्त 2018

नया भारत उठेगा फिर...


तिरंगे का पैगाम
हर कोई चाहता है जीवन में,

सफलता, उपलब्धि, बुलन्द पहचान संग,

सुख-शांति, खुशी, सुकून अपार,

बस प्रश्न एक ही, कितना हम कीमत चुकाने हैं तैयार।



यही बात सच है अपने देश की, राष्ट्र की, मातृभूमि की,

चाहे इसे कोई इंडिया कहे या भारत, अधिक फर्क नहीं पड़ता,

लेकिन इतना सुनिश्चित, नहीं यह महज माटी का टुकड़ा,
इसकी बुलंदी माँगे कीमत अपनी, कितना हम चुकाने को तैयार।
 
 
जीवंत सत्ता है इसकी, कालजयी है इसका व्यक्तित्व-इतिहास,
गौरवपूर्ण रहा है अतीत इसका, शाश्वत-सनातन जिसकी पहचान,
काल के अनगिन थपेड़ों में भी नहीं मिट सकी है हस्ती जिसकी,
इसको समझे, अनुभव किए बिना, अधूरे रहेंगे खाली अरमान।

 
बस, ज़रा निहार लें तिरंगे को, थोड़ा उतर कर गहराईयों में एक बार,
 छिपे हैं जहाँ राज सारे, स्पष्ट है जिनका पैगाम,
 हरा रंग है प्रतीक शांति का, प्रगति का, खुशहाली का,
सफेद और केसरिया हैं जिसके आधार।

 
केसरिया रंग प्रतीक त्याग-बलिदान का,
जज्बा कुछ कर गुजरने का, सत्य के लिए जीने-मरने का,
श्रम श्वेद से सींचित करने का माटी को,
जरुरत पड़ी तो निभाने का, बड़े से बड़ा आत्म-बलिदान।
 
 
सफेद रंग पावन प्रतीक राष्ट्र भक्ति, देश सेवा का, 
अशोक चक्र, ह्दय में श्रद्धा प्रवाहित अविराम,
नहीं अधिक आशा अपेक्षा किसी से,
प्रचण्ड पुरुषार्थ संग कर्तव्य निष्ठा जिसकी बुलंद पहचान।
 
 
राष्ट्र का नवनिर्माण होगा, नया भारत उठेगा फिर,
सुनें समझें बस तिरंगे का पैगाम,
धारण कर संदेश इसका शाश्वत, बस, प्रश्न एक ही,
कितना हम सुधरने, कीमत चुकाने को हैं तैयार।

बुधवार, 15 अगस्त 2018

On this Day of Freedom


Patriotism
 
India is not just a piece of land,
It is a living Existence to me,
India is my beloved Motherland,
I am proud of its glorious past,
Bow in awe & great admiration to the,
Great sacrifices of its patriotic sons & daughters,
That we are breathing today in the air of Freedom.
But worried about its present,
When human being is no more humane,
Sometimes he stoops even to lower levels,
Where even animals don’t dare,
He then acts like a demon, asur or pisaach,
But all are not that bad, incorrigible or dead asleep.
Hope lies in the hands of its true sons & daughters,
Who are awake, aware and prepared,
 To do something for the Motherland,
Make sacrifice small or big to the Mother India,
To whom he/she owe this body, Mind & Soul.
I wish and pray,
This fire of Patriotism sparks in every heart,
And every Soul contribute something Solid to the glory of this Motherland
If we dare & live the Truth India live, if we compromise our Mother will suffer. 

सोमवार, 30 जुलाई 2018

मेरा गाँव, मेरा देश - यादें बरसात की।


सावन का महीना - शिव के संग प्रकृति की रौद्र स्मृतियां

बरसात का मौसम हर वर्ष एक वरदान की तरह धरती पर आता है, जब मई-जून की अंगार बरसाती गर्मी के बाद आकाश में बादल मंडराते हैं। प्यासी धरती की पुकार जैसे प्रकृति-परमेश्वर सुनते हैं, झमाझम बारिश होती है। तृषित धरती, प्यासे प्राणियों की प्यास शांत होती है। बारिश की बौछारों की आवाज, हल्की बारिश की संगीतमयी थाप के साथ सकल सृष्टि जैसे दिव्य सुरों में सज जाती है।
इन सबके साथ घर से दूर, पहाड़ों में बिताए बचपन की यादें बरबस ताजा होती हैं, बादलों की तरह चिदाकाश पर उमड़ती-घुमड़ती हैं और झमाझम बरस कर अंतःकरण में एक सुकूनभरा, रामाँचक एवं रुहानी सा भाव जगा जाती हैं, जिसको शब्दों में बाँधना कठिन है।
वरसात का यह मौसम हर वर्ष गर्मी और सर्दी के बीच की संधि वेला के रुप में आता है। प्रकृति ताप के हिसाब से न अधिक गर्म होती है न अधिक सर्द। पहाड़ों पर मंडराते आवारा बादल के टुकड़ों को देख मन भी उनके साथ घाटी की उड़ान भरने लगता है। पूरी घाटी कभी-कभी इनके आगोश में ढक-ढंप जाती है, तो कभी इक्का-दुक्के बादल के फाए घाटी में इधर-उधर मंडराते एक अलग ही दुनियाँ का नजारा पेश करते।

विशेषकर दर्शनीय रहता है हवा के साथ तैरता धुंध का नजारा, जो पूरी घाटी में छाकर घर-घाटी, पर्वत, शिखर व समस्त प्राणियों को छूकर गुजर रहा होता है। ऐसे में बादलों के आगोश में जिन पथिकों को पहाड़ियों की गोद में विचरण का दुर्लभ अवसर मिलता है, उनके भावों की अनुभूति वर्णन करना कठिन है, जिसे महज अनुभव ही किया जा सकता है। पहाड़ी घर की छत या बाल्कनी में बैठकर घाटी के आर-पार बादलों के बदलते रुप-रंग, चाल-ढाल को निहारना जैसे प्रकृति के वृहद कैन्वस में कई पात्र, भाव व घटनाओं के साथ पर्दे के पीछे उस महाकलाकार की अवर्णनीय लीला का प्रत्यक्ष दर्शन करने जैसा होता है।

सबसे सुखद रहता मधुर थाप के साथ बारिश का बरसना। इसके साथ छत पर, बाहर वृक्षों की पत्तियों पर, जमीं पर, मैदान पर और सकल पृथ्वी के आवरण पर एक नूतन संगीत गूँजता। बाहर निकलने पर जिसके अभिसिंचन का भाव चित्त को पावन कर देता। लगता जैसे प्रकृति की अजस्र कृपा पानी की असंख्य बूदों के साथ धरती सहित पथिक पर बरस रही हैं और इसके साथ स्थूल, सूक्ष्म व कारण शरीर एक नयी चैतन्यता के साथ तरंगित हो रहे हैं। खासकर धरती की गर्भ में बोए बीजों, अंकुरित हो रही फसलों व वृक्षों में पनप रहे फलों के लिए यह बारिश अमृत सा फलदायी होती, किसान को जिसका बेसब्री से इंतजार रहता।


लेकिन प्रकृति के इस सौम्य एवं मोहक रुप के साथ इसे रौद्र रुप के भी दर्शन यदा-कदा होते रहते। कौंधती बिजली के साथ बादलों की गड़गड़ाहट और बारिश की तेज बौछारें प्रकृति के इस रुप की झलक देते। इनका प्रहार कभी बज्र सा कठोर, लोमहर्षक व भयावह लगता। हवा के तीव्र वेग के साथ इसका संयोग एक अलग ही नजारा पेश करता। पूरी घाटी जैसे सांय-सांय की आवाज के साथ सीटी मारते हुए गूँजती। कभी-कभी इसके साथ ओलों की मार फसल व फलों पर कहर बरपा देती। अचानक बारिश के साथ पहाड़ी नदी व नाले फूल जाते, इनकी जलराशी कई गुणा बढ़कर घाटी में स्थिति को विकराल कर देती, जन जीवन को अस्त-व्यस्त कर देती।

घर के सामने ही घाटी के उस पार के तीन-चार नालों के दिग्दर्शन पूरी आभा, वेग व उफान के साथ होता, जो प्रायः साल के बाकि समय शांत रहते। अपनी घाटी की ओर के कझोरा नाला, ध्रोगीनाला, सयो नाला, बरींडू नाला, काईस नाला आदि के बरसाती मौसम के भयावह मंजर हम यदा-कदा देखते रहते। इनमें सयो नाला अपनी बनावट के कारण सबसे मजबूत तटबंध लिए होने के कारण सारी जल राशि अपने में समेटे रहता।
इसका प्रख्यात स्यो-झरना बरसात में देखने लायक होता। इसकी गर्जन-तर्जन से पूरा गाँव गूँज उठता। प्रायः स्कूल के दिनों में इसके पार के गाँव के विद्यार्थी पार नहीं कर पाते। अतः नाले के उफान के दिनों में अघोषित छुट्टी रहती। हालाँकि अब तो पुल बन चुके हैं, तब पत्थरों के ऊपर या छोटी पुलिया के सहारे इसको पार किया जाता था।

कझोरा नाले का बरसाती मंजर हम एक बार देख चुके हैं, जब इसके मलबे से गाँंव का खेल मैदान पट गया था। किसी जान-माल का नुकसान नहीं हुआ था, लेकिन इसका मलबा घरों व खेतों में घुस गया था। इसी तरह ध्रोगी नाला के रात में बरपे कहर के दिगदर्शन हम सुबह वहाँ जाकर किए थे। इसका तटबंध मजबूत न होने के कारण सारा मलबा घरों व खेतों में घुस आया था और तबाही का मंजर कुछ ऐसा था कि कुछ मवेशी बहकर ब्यास नदी तक पहुँच गए थे। हालाँकि इंसान समय से पहले बाहर निकल कर सुरक्षित थे। इसके चलते लेफ्ट बैंक का हाईवे पूरे दिन ठप्प हो गया था।

ऐसे ही नालों की तरह कुल्लू-मानाली घाटी की जल रेखा ब्यास नदी में सावन के चरम पर तबाही की यादें ताजा हैं, जब ब्यास नदी के उद्गम स्थल की ओऱ से कहीँ बादल फटा था  और साथ में लैंड स्लाईड हुआ था, जिसमें बांहंग विहाली का नक्शा बदल गया था। तब बादल फटने की घटनाएं न के बराबर होती थी और यह शब्द भी अनजाना था। शायद यह उस बक्त के मूक मीडिया का भी असर था। दूरदर्शन का युग था। सोशल मीडिया तो दूर प्राइवेट न्यूज चैनल तक सही ढ़ंग से शुरु नहीं हुए थे। अतः ऐसे में इन घटनाओं के कारण व प्रभाव का विस्तार से सटीक जानकारी नहीं मिल पाती थी। अखबार भी घर पर नियमित रुप से नहीं आते थे। मुंहजुबानी सुनने पर पता चलता की बांहंग की पूरी विहाल बह गयी है, जिससे रास्ते भर के पेड़, लकड़ियाँ व कुछ संख्या में जानवर व वाहन भी व्यास नदी के उफान के बीच बहते हुए दिखते। ऐसे में लकड़ियों को इकट्ठा करने वालों का न्जारा विशेष रुप में दर्शनीय रहता। सुबह पुल के पार स्कूल जाते समय इसकी तबाही का मंजर पता चलता। यहाँ भी ब्यास नदी के किनारे बाढ़ के उफान के चलते रास्ते में पानी की छोटी-बड़ी नहरें बन चुकी होती।

लेकिन कुल मिलाकर बरसात में बचपन के पहाड़ों की ये घटनाएं लोक-जीवन का एक अभिन्न अंग प्रतीत होती। हालाँकि कभी भी भारी बारिश में अप्रत्याशित घटना की आशंका बनी रहती, लेकिन इनकी आवृति विरल ही रहती। तब आबादी का दबाव भी इतना अधिक नहीं था कि कहीं भी घर-मकान व दुकान-होटेल खड़े मिलते। प्रकृति के साथ इतनी छेड़खान नहीं हुई थी। वैश्विक स्तर पर भी पर्यावरण संतुलन बेहतरीन था। लेकिन पिछले दो-तीन दशकों में विकास के नाम पर इंसान ने प्रकृति के साथ पर्याप्त छेड़खान की है, इसके साथ अमानवीय व्यवहार हुआ है। पहाड़ों का सीना चीर कर सड़कों का जाल बिछता गया। वृक्षों का अंधाधुंध कटाव हुआ। इसके साथ विश्वस्तर पर ग्लोबल वार्मिंग के चलते मौसम का बदलता मिजाज भी अपना असर दिखा रहा है। जिस कारण हर वर्ष अप्रत्याशित घटनाओं में इजाफा हो रहा है।

इस साल इसका प्रभाव पहाड़ी क्षेत्रों में स्पष्ट रहा। एक ओर जहाँ अत्यधिक बारिश होती रही, वहीं कुछ इलाके बारिश से वंचित ही रहे। यहाँ के हालात बरसात में सूखाग्रस्त क्षेत्र जैसे थे, जिसके चलते फलों के नए पौंधों के सूखने की तक नौबत आ गयी थी। नमी के अभाव में फल पूरा आकार नहीं ले पाए। इसी के साथ कई क्षेत्रों में बारिश की अति ने व्यापक स्तर पर बादल फटने से लेकर भूस्खलन के साथ भारी तबाही मचाई। घर से दूर रहकर मीडिया हाईप के बीच सुनकर ऐसे लगता रहा जैसे पहाड़ी इलाकों में बरसात का मंजर लगातार जारी है। कुछ क्षेत्र विशेष की घटनाएं पूरे प्रांत पर लागू होती रहीं।
प्रभावित क्षेत्रों के साथ पूरी संवेदना व्यक्त करते हुए ध्यान देने योग्य बातें हैं कि विकास के नाम पर प्रकृति के साथ हम कैसा रवैया अपना रहे हैं, प्रकृति के साथ सामंजस्य बिठाकर जीने के लिए कितना तैयार हैं। क्योंकि सावन सनातन धर्म में भगवान शिव का माह है, कूपित प्रकृति के रुप में शिव के रौद्र रुप और प्रकृति के काली तत्व के लोमहर्षक प्रहारों से इंसान नहीं बच सकता। आवश्यकता प्रकृति के माध्यम से झर रहे परमेश्वर तत्व को समझने व उसके अनुशासन का पालन करने की है, जिससे हम प्रकृति के कोप की बजाए इसके दिव्य संरक्षण व अनुदानों के सुपात्र अधिकारी बन सकें।

चुनींदी पोस्ट

प्रबुद्ध शिक्षक, जाग्रत आचार्य

            लोकतंत्र के सजग प्रहरी – भविष्य की आस सुनहरी    आज हम ऐसे विषम दौर से गुजर रहे हैं, जब लोकतंत्र के सभी स्तम्...