विघ्न विनाशक, बुद्धि-विवेक के दाता, ऋषि-सिद्धि
के अधिष्ठाता
गणेश भारतीय पौराणिक इतिहास, कथा गाथाओं के एक अहं, रोचक एवं लोकप्रिय पात्र
हैं। भारत ही नहीं विश्व के हर कौने में इनकी उपासना के प्रमाण मिलते हैं। इनके रुपाकार को देखते हुए इतिहास से अनभिज्ञ बच्चे इन्हें एलीफेंट गॉड
के रुप में जानते हैं। इनके स्वरुप व विशेषताओं को प्रकट करता संक्षिप्त वर्णन
यहाँ हिमवीरु की इस ब्लॉग पोस्ट में प्रस्तुत है।
शास्त्रों के अनुसार गणेश माँ पार्वती के मानस पुत्र हैं। गणेश
को बुद्धि-विवेक के दाता, विघ्न विनाशक और ऋद्धि-सिद्धि के अधिष्ठाता माना जाता
है। इनका पौराणिक एवं धार्मिक महत्व जो भी हो, इनकी विशेषताओं के आधार पर इनका सामयिक महत्व एवं प्रासांगिकता बहुत है,
जिस पर विचार करना अभीष्ट हो जाता है। गणेश उत्सब के अवसर पर कहीं एक दिन तो महाराष्ट्र
जैसे प्रांत में पूरे दस तक गणपति वप्पा मोरिया का उत्सव धूमधाम से मनाया जाता है।
भादों की शुक्ल चतुर्थी से शुरु यह उत्सव अनन्त चतुर्दशी के दिन सम्पन्न होता है। अंतिम दिन गणेश की मूर्ति का विसर्जन किया जाता है। विसर्जन के साथ ही उत्सव का
भाव समाप्त न हो, भगवान गणेश से जुड़ी प्रेरणाएं हमारे जीवन का एक हिस्सा बनकर साथ
रहें, यह महत्वपूर्ण है।
बुद्धि से हम सांसारिक समस्याओं का हल करते हैं, लोकजीवन चलाते हैं।
लेकिन विवेक हमारे आध्यात्मिक जीवन का मार्ग प्रशस्त करता है। बुद्धि के साथ
विवेक की प्रतिष्ठा जीवन के समग्र विकास के लिए आवश्यक है, जो आत्मचिंतन व मनन से होती है और इसमें स्वाध्याय-सतसंग
की महत्वपूर्ण भमिका रहती है। अतः जब तक हम दैनिक जीवन में आत्मचिंतन के साथ
स्वाध्याय या सतसंग का समावेश न करें, हमारा गणेश पूजन पांडाल तक ही सीमित रहेगा,
इससे बुद्धि-विवेक से जुड़ी इनकी फलश्रुतियाँ से हम वंंचित ही रहेंगे।
संसार-समाज का सामान्य प्रवाह विवेक को कुंद किए रखता है। इसमें विवेक
का जागरण वितराग व प्रकाशित महापुरुषों के सतसंग से होता है। यदि ऐसे
सत्पुरुष उपलब्ध न हों तो इनके द्वारा रचित साहित्य का स्वाध्याय इसकी कमी
कई अंशों तक पूरी करता है। फिर हर धर्म में सद्गुरुओं एवं ऋषिकल्प व्यक्तियों की
आध्यात्मिक शिक्षाओं का निचोड़ समाहित रहता है। ऐसे सत्साहित्य के प्रकाश में स्वतंत्र
आत्मचिंतन एवं मनन की प्रक्रिया विवेक की ज्योति जलाए रखने में बहुत सहायक होती
है। दिनचर्या में कुछ समय इस हेतु निर्धारित किया जाना समझदारी वाला कदम माना
जाएगा।
दूसरा, गणेश ऋद्धि और सिद्धि के दायक हैं, ऋद्धि-सिद्धि को इनकी सहचरी माना जाता है। ऋद्धि आंतरिक
जीवन की शांति, संतुष्टि या कहें आंतरिक जीवन की उपलब्धि है, तो सिद्धि
बाह्य जीवन की योग्यता, दक्षता एवं वैभव विभूति। इन दोनों के मिलने से जीवन की समग्र
सफलता प्रकट होती है और व्यक्तित्व पूर्णता का बोध पाता है। बुद्धि-विवेक से उपजी
जीवन शैली निसंदेह इसका आधार बनती है और क्रमशः व्यक्ति को पूर्णता की ओर अग्रसर
करती है।
बैसे ऋद्धि का आधार है व्यक्तित्व में ईमानदारी और सिद्धि का
आधार है व्यक्तित्व में जिम्मेदारी का समावेश। ईमानदारी व्यक्ति के
ईमान या कहें अंतर में बैठी अंतर्वाणी या देववाणी या ईश्वरीय वाणी का अनुसरण है।
अंतर की वाणी बहुत स्प्ष्ट होती है, लेकिन प्रायः हम क्षणिक सुख, क्षुद्ध स्वार्थ
या अहं की रौ में, या आलस-प्रमाद में इसको अनसुनी कर जाते हैं। धीरे-धीरे यह आबाज
मंद पड़ने लगती है। शुरुआत में गलत राह पर जाते हुए जो अपराध बोध होता है, उसे
बुद्धि अपने पक्ष में कुतर्कों के साथ पुष्ट करती जाती है। क्रमशः विवेक कुंद पड़
जाता है और जीवन गलत आदतों, व्यसनों और कुटेवों की जकड़न का शिकार हो जाता है।
व्यक्तिगत जीवन में ईमान की दीर्घकालीन उपेक्षा एक दिन वाह्य जीवन में
विस्फोटक परिस्थिति के रुप में प्रकट होती है। व्यतिगत जीवन में न्यूरोटिक और
साइकोटिक मनोरोग इसके प्रत्यक्ष स्वरुप हैं तो सामाजिक जीवन में भ्रष्टाचार-घोटाले, अपराध, ब्लात्कार-गैंगरेप,
विभत्स काँड जैसी दुर्घटनाएं इसकी चरम परिणतियाँ हैं। इसके मूल में अपने ईमान से
समझौता, या कहें अपनी अंतर्वाणी की सतत अवज्ञा को ढूंढा-खोजा जा सकता है।
महापुरुषों, सत्पुरुषों का स्वाध्याय, वितराग पुरुषों का सतसंग और सतत आत्मचिंतन
की प्रक्रिया अपनाई गई होती तो विवेक की ज्योति जलती रहती और पतन की इस पराकाष्ठा तक दुर्गति नहीं होती या मनःविकारों से क्रमशः उबर गए होते।
साथ ही ईमानदारी से भरा जीवन गहरे आत्मसंतोष का भाव देता है,
शांतिपूर्वक जीने का आधार बनता है। इसके विपरीत बेईमान हमेशा आशंकित-आतंकित और हैरान-परेशान रहता है, क्योंकि एक ओर समाज-संसार के दण्ड का भय रहता है, अपने बुद्धि-चातुर्य के आधार पर इससे बच भी गए तो अंतरात्मा की लताड़ लगातार पड़ती रहती है।
हालाँकि ईमानदारी की राह तुरंत फलित नहीं होती। शॉर्ट कट्स का यहाँ
अभाव रहता है। धर्म व नीति के मार्ग पर धैर्यपूर्वक चलते हुए आगे बढ़ना
होता है। लेकिन जो उपलब्धि मिलती है वह गहरे आत्मसंतोष से भरी होती है और जीवन
ऋद्धि सम्पन्न बनता है। मंगलमूर्ति गणेश अर्थात बुद्धि-विवेक की कृपा प्रत्यक्ष
फलित दिखती है।
ईमानदारी के साथ जिम्मेदारी का भाव बाह्य जीवन में सफलता एवं दक्षता को
सुनिश्चित करता है। एक विद्यार्थी के रुप में हमारी पहली जिम्मेदारी है अध्ययन
करना और एक शिक्षक के रुप में हमारी पहली जिम्मेदारी है सतत ज्ञानार्जन और शिक्षण।
इसी तरह हर नागरिक का अपने स्वधर्म के अनुरुप प्राथमिक जिम्मेदारी तय है। इसी के
बाद दूसरी जिम्मेदारियाँ आती हैं। जिम्मेदारियों में संतुलन समझदारी या विवेक के
आधार पर सुनिश्चित होता है।
हमारी पहली जिम्मेदारी है अपने ईमान का अनुसरण करना या कहें ईमानदारी
भरा जीवन जीना। एक समझदार और जिम्मेदार नागरिक के रुप में अपने कर्तव्य का पालन
करना। चारों ओर जो समस्याएं मुंह वाए खड़ी हैं, उनके बीच समाधान का हिस्सा बनकर
जीना। जो परिवर्तन समाज या चारों ओर देखना चाहते हैं, उसकी शुरुआत स्वयं से करना।
यह सब ईमादारी के साथ शुरु होता है, जिम्मेदारी के साथ आगे बढ़ता है और समझदारी तथा बहादुरी के साथ निष्कर्ष तक पहुंचता है। उत्कृष्ट
चिंतन और आध्यात्मिक जीवन शैली इसके अभिन्न घटक हैं। इतना बन पड़ा तो समझें
विघ्नविनाशक भगवान गणेशजी के कृपा अजस्र रुपों में बरसेगी और फिर ऋद्धि-सिद्धि
अर्थात् आंतरिक संतोष एवं बाह्य सफलता जीवन का हिस्सा बनती जाएंगी। इससे कम में
मात्र चिन्ह पूजा से गणेश-उत्सव से प्रयोजन सिद्ध होने की आशा रखना नादानी होगी।