जेएनयू के बारे में अधिक नहीं जानता था, न ही,
वाम विचारधारा की गहराइयों को। लेकिन जब से 9 फरवरी को देश के प्रतिष्ठित शिक्षा
केंद्र में देशद्रोही नारों का विस्फोट देखा, प्रकरण की नित नयी परतें सामने उधड़ती गईंं। यह विचारधारा युवा विद्यार्थियों की सोच में देश की
बर्वादी का जहर भी घोल सकती है, समझ से परे था। गरीब-शोषितों की समता-एकता की आबाज के
रुप में तो इसके स्वरुप को जानता था, लेकिन देश को खंडित करने वाली इसकी खतरनाक सोच
से परिचित न था। घटना के बाद नित्य एक विद्यार्थी की भांति रोज घटनाक्रम पर नजर
रखे हुए हूँ, देश-समाज व जीवन को संवेदित-आंदोलित करते
इस घटनाक्रम के प्रकाश में किसी सार्थक समाधान तक ले जाते निष्कर्ष की खोज में।
नित्य अपने पत्रकारिता विभाग में 12-14 हिंदी-अंग्रेजी
के अखवारों पर एक नजर डालने का मौका मिलता है, हर दिन की घटनाओं से टीवी पर रुबरु
होता हूँ, जो रह जाती हैं, वे सोशल मीडिया पर वायरल होते वीडियोज व शेयर से आ
जाती हैं। सारा मंजर, सारा हंगामा, सारा खेल-तमाशा मूक दर्शक बन कर देखता
रहा हूँ प्रकरण को पूरी तरह से समझने की कोशिश में कि ये देश में हो क्या रहा है। हम ये किस दौर से गुजर रहे हैं, देश
व समाज किस दिशा में जा रहा है और विशेषकर उच्च शिक्षा के केंद्र, जहाँ से हमेशा परिवर्तन की पटकथा लिखी जाती रही है।
हर दिन बदलते घटनाक्रम के बीच प्रतिक्रिया देने से बचता रहा हूँ, लेकिन अब शायद
कुछ कहने का समय आ गया है।
कुछ बातें जेहन को कचोट रही हैं, कुछ सवाल
महासवाल बनकर खड़े हो गए हैं, कुछ निष्कर्ष बुद्धि से नहीं, ह्दय को आंदोलित कर फूट
रहे हैं। उन्हें शिवरात्रि के पावन दिन मित्रों, सुधी पाठकों के सामने शेयर कर रहा
हूँ। स्पष्ट कर दूं कि मैं राजनीति का पंडित नहीं, इसका सामान्य बोध रखता हूँ। न
ही किसी वाद, प्रतिवाद का अंध समर्थक। भारत का एक आम नागरिक हूँ, एक शिक्षक हूँ,
जिसमें एक सामान्य इंसान की तरह अपनी मातृभूमि के प्रति सहज-स्फुर्त अनुराग है।
समाज में सकल जाति-पाति, धर्म-सम्प्रदाय, भाषा-लिंग, सीमाओं के भेदभाव के पार
एकता-समता-शुचिता का पक्षधर हूँ, समर्थक हूँ। भारत की अनेकता में एकता की शक्ति को
मानता हूँ। अपने देश की शाश्वत-सनातन ज्ञान-विज्ञान से समृद्ध अद्वितीय-अनुपम
सांस्कृतिक-आध्यात्मिक विरासत व इसकी कालजयी सत्ता के प्रति आश्वस्त हूँ और इनके
साथ भारत को विश्व के अग्रणी देशों की कतार में शामिल होता देखना चाहता हूँ। देश के
साथ पूरे विश्व में अमन-चैन-शांति का हिमायती हूँ। संक्षेप में सत्यं, शिवं,
सुन्दरं को जीवन का प्रेरक दर्शन मानता हूँ। अपनी जड़ों से जुड़ी वैज्ञानिक सोच वाले अध्यात्म, धर्म के
साथ मानवता और अपनी सनातन विरासत के साथ आधुनिकता के संगम-समन्वय वाली संस्कृति में जीवन के
समग्र समाधान की आश रखता हूँ।
जेएनयू प्रकरण ने, एक आम नागरिक की तरह हमें भी
हिलाकर रख दिया है। देश की बर्वादी के नारों को सुनकर किसी भी नागरिक के खून में उबाल आना
स्वाभाविक है। माना इस दौरान प्रसारित 5-7 वीडियो में 1-2 के साथ छेड़खानी हुई।
इसके लिए वे मीडिया घराने कटघरे में हैं और इसके चलते आज टीवी माध्यम की
विश्वसनीयता अपने निम्नतम स्तर पर है। इन्हें अपने गिरेवान में झांकने व गहन आत्म
समीक्षा की जरुरत है। इनके आधार पर जो उन्माद का माहौल किसी एक व्यक्ति के प्रति खड़ा हुआ, जो ज्यादतियाँ कोर्ट में न्याय दूतों द्वारा
हुई, वे भी घटना से जुड़ा एक काला अध्याय है। इस पर न्यायिक प्रक्रिया अपने ढंग
से सक्रिय है। सरकार द्वारा पूरे प्रकरण के शुरुआती दौर की जल्दवाजी में
हुई मिसहेंडलिंग भी उचित नहीं थी।
पूरी प्रक्रिया में छात्र नेता कन्हैया की सशर्त
रिहाई और उसका जेएनयू में संबोधन तक की घटना के बाद मीडिया, सत्ता पक्ष,
प्रतिपक्ष, न्याय व्यवस्था और जेएनयू – सबकी भूमिका अग्नि परीक्षा से होकर गुजरी
है। इन विप्लवी पलों से गुजरते हुए पूरा देश एक गहन मंथन की प्रक्रिया से गुजरा है
और अभी मंथन जारी है। इसी घटना के समानान्तर सीमा पर और देश के अंदर हमारी रक्षा, सुख-चैन की खातिर कितने वीर सपूतों, जवानों को प्राणों की मौन
आहूति देते देखा है।
जो बातें, राष्ट्रीय जीवन के इन विप्लवी क्षणों
में स्पष्ट होती हैं, इन पर विचार करना लाजमी हो जाता है।
1. टीवी माध्यम की
निंदनीय फोर्जरी (छेडखान) के बावजूद यह तथ्य नजरंदाज नहीं होता कि देश विरोधी नारे नहीं लगे थे। जेएनयू के बाहर भी दूसरे विश्वविद्यालयों से इनकी गूँज उठी थी। शिक्षा के उच्चस्तरीय
केंद्रों से जहाँ समाज निर्माण, राष्ट्र निर्माण की बातें होनी चाहिए थीं, वहाँ से
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम, देश को तोड़ने की ये बातें कैसे उठ रही हैं,
गंभीर चिंता का विषय है। जेएनयू की अकादमिक गतिविधियों के प्रति एक फौरी सी
जानकारी थी, प्रगतिशील बुद्धिजीवियों के गढ़ के रुप में, लेकिन इस घटना ने इस प्रगतिशील सोच पर गंभीर प्रश्न चिन्ह खड़े कर दिए
है। प्रश्न उठता है, कि युवाओं के जेहन में यह विष बीज कहां से वोए गए। इनको खाद-पानी
देने वाला पोषण कहाँ से मिलता रहा। देश विद्रोही नारों को विश्व का कौन सा देश
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर बर्दाश्त कर सकता है। बुद्धिजीवियों को अपने भावशून्य कुतर्कों और अपनी बौद्धिक उछलकूद (Intellectual gymnastic) से देश के आम जन को भरमाने की कुचेष्टाओं को रोज होते देखकर आश्चर्य होता है।
2. इसी के साथ
कन्हैया का जेल से छूटने के बाद के भाषण पर विचार आता है। अपने वक्तृत्व कौशल के
आधार पर दर्शकों को अवश्य मुग्ध किया है। लेकिन यह एक जिम्मेदार छात्रनेता से अधिक एक राजनेता का भाषण था। इसके साथ कन्हैया ने अपना राजनैतिक भविष्य सुनिश्चित कर लिया है, लेकिन
इनके साथियों द्वारा की गई देश विद्रोही कारगुजारियों का इन्हें कोई गिला शिक्वा नहीं
है, बल्कि उनकी बेकसूर रिहाई की माँग उठती दिखी। इनकी गरीबी, समता आदि के जुम्ले
राजनैतिक हथियार के रुप में उपयोग हो सकते हैं, लेकिन ये शांति सद्भावपूर्ण समग्र
विकास और न्याय की अवधारणा को सुनिश्चित करेंगे, इस पर संदेह होता है। सामयिक तौर
पर मीडिया ने इन्हें नायक जरुर बना दिया है, लेकिन इस देश की, इस जमीं की तासीर को
समझे बिना यह नायकत्व कितना देर तक टिकता है, देखना बाकि है।
3. राजनैतिक दलों को जिस
मुद्धे पर एक जुट होना चाहिए था, वह इनकी वोट वैंक की कुत्सित राजनीति का शिकार हो गई। शायद यह देश का दुर्भाग्य है कि राष्ट्रीय एकता-अखण्डता के संवेदनशील
मुद्दे पर, जहाँ पूरे विश्व में एक सुर से देश की आवाज बुलन्द होनी चाहिए थी, वहाँ
तमाम विपक्षी राजनेता विघटनकारी तत्वों के पक्ष में समर्थन देते खड़े दिखे। ऐसे संवेदनशील मुद्दे पर सत्ता पक्ष से भी अधिक संवेदनशील, धीर व संतुलित हेंडलिंग की उम्मीद थी, जिसे बीच बीच में बाधित होते देखा गया।
4. आश्चर्य तब हुआ जब
मीडिया का एक वर्ग भी इनके साथ सुर मिलाता दिखा। बड़े-बड़े पत्रकारों के चरित्र इसमें उजागर
हुए हैं। एक दो पत्र को छोड़ अंग्रेजी प्रिंट मीडिया विघटनकारी तत्वों के पक्ष में
खड़ा दिखा। ऐसे संवेदनशील मुद्दे पर भी इनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रट्ट समझ
से परे लगी। कुछ हिंदी पत्रों को भी इनकी देखादेखी में पासा पलटते देखा। पूरे
प्रकरण की मीडिया कवरेज एक शोध-अध्ययन की विषय वस्तु है।
5. कुछ टीवी चैनलों की
भूमिका भी संदेह के घेरे में दिखी। कुछ चैनल जहाँ प्रकरण को संजीदगी से पेश करते
रहे, कुछ एक को इनका महिमामंडन करते देखा गया। प्रकरण से जुड़े फुटेज से फोर्जरी
अवश्य चिंता का विषय है। आश्चर्य नहीं कि इस सबके चलते इस समय टीवी माध्यम की
विश्वसनीयता गहरे संकट से गुजर रही है।
पूरे प्रकरण में
मोटी मोटी बातें, जो समझ में आ रही हैं -
a.
जो नारे लगे हैं,
इन्हें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का नाम देना वेमानी होगा। नारों के पीछे की
खतरनाक सोच की जड़ों तक जाना होगा। जिस विचारधारा में अपने
देश-राष्ट्र-मातृभूमि-संस्कृति के प्रति अनुराग का भाव न हो, उससे सजग-सावधान रहने
की जरुरत है। जो सृजन की बजाए ध्वंस में विश्वास रखती हो, जिसमें सत्यं, शिवं,
सुंदरं का भाव बोध न हो, वह किसी भी तरह वरेण्यं नहीं हो सकती।
b.
शिक्षा के उच्चतर
केंद्रों को कौरे बौद्धिक विलास, विकृत मानसिकता और भोगवादी संस्कृति का अड्डा
बनने से रोकना होगा। अपनी जड़ों से जुड़कर, आम जनता की समस्याओं के समाधान केंद्र
के रुप में, राष्ट्र निर्माण की प्रयोगशाला के रुप में इनको रुपांतरित करना होगा।
c. विश्वविद्यालयों को
ज्ञान साधना के उच्चस्तरीय केंद्रों के रुप में अपनी भूमिका निभानी होगी, जहाँ
वैज्ञानिक, प्रगतिशील और मूल्यनिष्ठ समग्र सोच में शिक्षित-दीक्षित युवा पीढ़ी का निर्माण हो सके। समाज व देश को तोड़ने वाली राजनीति से इन्हें जितना दूर रखा जाए, शायद उतना
वेहतर होगा।
d. इस महत कार्य में
शिक्षकों की भूमिका अहम है। अपने श्रेष्ठ आचरण, समग्र सोच व दूरदृष्टि के साथ युवा
पीढ़ी में श्रेष्ठ संस्कारों का बीजारोपण उनका पावन कर्तव्य है। छात्रों में जीवन,
समाज व विश्व के प्रति नीर-क्षीर विवेक और समग्र दृष्टि का विकास उनकी सफलता का
मापदंड होगा।
e. तभी हम युवाओं की अजस्र ऊर्जा का सकारात्मक नियोजन कर समाज व राष्ट्र निर्माण के महत उद्देश्य को पूरा कर पाएंगे।
शायद तभी हम देश की
रक्षा हित सीमाओं पर, सामाजिक जीवन के विभिन्न मोर्चों पर खून पसीना बहा रहे,
गुमनामी में शहीद हो रहे हर जवान, किसान, श्रमिक, संत, सुधारक व हर आम इंसान के
अनुदानों से पोषण पा रही अपनी शिक्षा के लिए मिली सुख-सुविधाओं, सुरक्षा व संरक्षण के साथ न्याय कर पाएंगे।
नहीं तो देश विद्रोही
नारा लगाए बिना भी हम आत्मद्रोह, समाजद्रोह की श्रेणी में खुद को खडा पाएंगे,
सरकार के कटघड़े में न सही, अपनी अंतरात्मा के कटघड़े में।