पुस्तक प्रेमियों का महाकुम्भ
इस बार भी दिल्ली के
प्रगति मैदान में चल रहे विश्व पुस्तक मेले में जाने का सुयोग बना। संभवतः 1995
में शुरु पुस्तक मेला यात्रा का यह पूर्णाहुति पड़ाव था। अब आगे से संस्था की तरफ
से शायद ही दुबारा पुस्तक मेले में जा पाऊँ। ब्रह्मवर्चस पुस्तकालय से जुड़ा होने के
कारण 1995 से लगभग अधिकांश पुस्तक मेले में आने का क्रम बनता रहा, सो इस बार के
पुस्तक कुम्भ में एक तुलनात्मक अध्ययन स्वतः ही चलता रहा। मेले के अपने कुछ नए
अनुभवों के साथ यह ब्लॉग पोस्ट सुधी पाठकों की जानकारी हेतु शेयर कर रहा हूँ।
1. सिकुड़ता पुस्तक मेले का स्पेस – इस बार हॉल नं.1,2,3,4 तो खाली ही मिले। हॉल
6 और 18 नम्बर भी ग्राउंड फ्लोर तक सीमटे मिले। कारण शायद एक तो पुस्तकों का
डिजिटलाइजेशन और इनकी ऑनलाई उपलब्धता को मान सकते हैं। पढ़ने का क्रेज कम हुआ, यह कहना
मुश्किल है, क्योंकि पाठकों की भीड़ मेले में कम नहीं थी।
2. अंग्रेजी बनाम् हिंदी प्रकाशक – दोनों के केरेक्टर में मौलिक अंतर स्पष्ट दिखता
है। अपनी भव्यता. स्पेस और वैभव में अंग्रेजी स्टॉल कुल मिलाकर हिंदी पर भारी दिखे, जैसेे कि हमेशा
ही रहा है। मार्केट स्ट्रेटजी में भी अंग्रेजी वाले आगे हैं। कंटेंट कितना
ही हों, लेकिन स्पेस घेरने में अंग्रेजी पब्लिशर्ज में कोई कमी नहीं दिखी। फिर पुस्तकालय
के लिए इनके कन्शेसन रेट 30 से 40 फीसदी तक रहे। जबकि हिंदी बाले महज 20 से 25 तक
ही सिमटे रहे। आश्चर्य तब हुआ जब ओशो के चेलों को भी बिजनेस करते देखा। 10
फीसदी से आगे एक भी परसेंट छूट देने को ये तैयार नहीं थे।
3. खास विचारधारा की प्रचार आक्रामकता का अभाव – पिछली बार गेट में घुसते ही हाथ में पेंप्लेट
लिए इंक्लावी युवा और एक धर्म विशेष का प्रचार करती भीड नहीं दिखी। हालांकि स्टाल
के अंदर प्रोमोट करने की आक्रामकता कहीं कहीं अवश्य दिखी। एक ओर जहां धर्म का समन्वयकारी,
समभाव वाला स्वरुप देखा, वहीं सिर्फ अपने ही धर्म को शांति की ठेकेदारी का दावा पेश
करते की कुचेष्टा भी देखी, जो गले नहीं उतरी। आपसी शांति सद्भाव के लिए यह किसी भी तरह उचित नहीं।
4. दागी बाबाओं के भी मंडप गुल्जार – विवादों के कारण सुर्खियों में रहे बाबाओं के
स्टॉल भी गुलजार दिखे, लेकिन अधिक भीड़ नहीं थी। विश्वसनीयता और प्रामाणिकता का
संकट यहां स्पष्ट दिख रहा था। कोई भूला भटका ही इनमें प्रवेश कर रहा था।
5. प्रेरक पुस्तकों की भरमार – पुस्तक मेले में प्रेरक पुस्तकों की भरमार दिखी।
हिंदी हो या अंग्रेजी दोनों में पुराने लोकप्रिय लेखकों की अनुवादित पुस्तकें दिखी
और नए लेखक भी मैदान में उतरते दिखे। पाठकों की खासी भीड़ इन स्टालों पर दिखी।
6. अध्यात्म के प्रति बढता रुझान – अध्यात्म के स्टाल्ज पर पाठकों की भीड़ को देखकर
स्पष्ट था कि अध्यात्म के प्रति पाठकों का रुझान बढ़ा है। गीता प्रेस पर सदा की
तरह पाठकों की भीड़ यथावत दिखी, और पूछने पर पता चला की रामायण और गीता की सबसे
अधिक बिक्री हो रही है।
7. नेशनल बुक ट्रस्ट का सराहनीय प्रकाशन – दाम, पुस्तक विविधता और उपयोगिता के हिसाव से
संभवतः नेशनल बुक ट्रस्ट का स्टाल आम जनता ले लिए सबसे उपयोगी स्टाल प्रतीत हुआ,
क्योंकि यहां बहुत ही सस्ते दामों में लगभग हर विषय पर ज्ञानबर्धक और रोचक
पुस्तकों की भरमार है। पुस्तक मेले
का प्रयोजक होने के नाते हर हॉल में इनके स्टाल लगे हैं। सस्ता साहित्य मंडल की
पुस्तकें भी इस संदर्भ में आम पाठकों के लिए उपयोगी हैं।
8. सरकारी तंत्र का लचर प्रदर्शन – प्रकाशकों में सरकारी तंत्र की लचरता स्पष्ट
दिखी। सूचना प्रसारण मंत्रालय द्वारा संचालित प्रकाशन विभाग की स्थिति देखकर दुख
हुआ। पत्रकारिता और प्रेस से जुड़ी अपनी रुचि की पुस्तकें पिछले कई वर्षों से
अपडेटड नहीं दिखीं। पूछने पर पता चला की कर्मचारी ही नहीं हैं काम करने वाले।
प्राइवेट प्रकाशनों की स्थिति इस मामले में बेहतर दिखी। यहीं अपडेटड पुस्तकें मिली।
9. मेट्रो का असर – कभी 2 नम्बर गेट से सबसे अधिक भीड़ रहती थी,
जो सीधे हाल 6 और 1, 2 की ओर से प्रवेश दिलाता था। लेकिन मेट्रो के कारण अब प्रवेश की दिशा
बदल गई है। हाल 12 और 11 के बीच का मार्ग बाहर निकलने और प्रवेश का मुख्य द्वार बन
गया है। यहीं से दायीं और वाहनों के पार्किंग का भी रास्ता जाता है।
10. चाइनीज प्रदर्शनी, दर्शनीय है। सभी पाठकों से आग्रह रहेगा कि एक
वार इसमें अवश्य जाएं। एक यादगार अनुभव रहेगा। यहां के हाल का इंटीरियर डेकोरेशन,
भव्यता और पुस्तकों का डिस्पले बहुत सुंदर है। चीन के प्रमुख प्रकाशनों की पुस्तकें
किनारे में लगी हैं, इनके बीच सजे आरामदायक चेयर टेबल पर आराम का आनंद ले सकते हैं। इन्हीं
के बीच भारतीय सांस्कृतिक विरासत को सेमटती प्रदर्शनी एवं प्रकाशन भी बहुत
ज्ञानबर्धक और रोचक लगे।
11. वाइनेकुलर्ज से लेकर रेसिपीज तक – पुस्तकों के साथ कुछ रोचक स्टाल भी हर हाल में
लगे हैं, जिनमें दुर्वीन से लेकर विदेशी चाकू, मेगनेट और खुफिया यंत्र बिक्री पर
हैं। इनके साथ आंखों को सकून देते उपयोगी उपकरण से लेकर
गृहणियों के लिए हर तरह की रेसिपीज की पुस्तकें उपलब्ध हैं। बच्चों के लिए पूरा हॉल नं. 14 समर्पित है।
12. मेला भ्रमण के कुछ प्रभावी टिप्स – दिन भर खडे खड़े घूमना कुल मिलाकर टांगे तोड़ने
वाला अनुभव रहता है। दिन भर की पुस्तक यात्रा को रोचक और थकानमुक्त बनाने के लिए कुछ
टिप्स उपयोगी है। प्रकाशकों से पुस्तक सूची बाले केटेलॉग अवश्य लें। केटेलॉग के ही बाहर अपनी काम की पुस्तकों के कमेंट्स या पृष्ठ संख्या
लिख सकते हैं। या रात को इनमें से पुस्तकों को चिन्हित कर अगले दिन चयनित पुस्तकों
को खरीदा जा सकता है। हर स्टाल पर बैठे गाइडों का परामर्श भी उपयोगी रहता है। यदि
खड़े-खड़े थक गए तो कौने में पालथी मारकर पुस्तक अवलोकन में क्या संकोच, कुछ ही
मिनट में थकान हल्की हो जाती है। साथ में चाय की चुस्की का प्रयोग भी प्रभावी रहता
है।
13. लेखक कार्नर – हर हॉल में लेखक मंच बने हैं। यदि समय हो तो
यहां चल रहे विमोचन, विचार विमर्श और संवाद का हिस्सा बनकर ज्ञानबर्धन कर सकते
हैं। अपने पसंदीदा कवियों, लेखकों व साहित्यकारों से परिचय और दर्शन का यह एक सुनहरा अवसर रहता है।
14. वाश रुम सुविधा – पुस्तक मेला में बॉश रुम की उमदा सुविधा है। हर
हॉल में स्वच्छ और वेल मेंटेंड बॉश रुम उपलब्ध हैं, जिनमें तनावपूर्ण पलों से निजात पाकर यात्रा को सुकूनदायी बनाए रह सकते हैं।
15. खान पान की सुविधाएं – बाहर मैदान में खान पान की हर सुविधा है। लेकिन
यहां के दाम लूटने बाले हैं। दिन भर यहां टहलने के इच्छुकों के लिए
सुझाव है कि साथ में ब्रेड-बटर, जैम और कुछ फल फूल लेकर जाएं, तो अधिक किफायती
रहेगा। हम इस मामले में सौभाग्यशाली रहे। स्थानीय गायत्री परिजनों का सेवा सत्कार
हमारे लिए विशेष उपयोगी रहा, जिनके हम सदा कृतज्ञ रहेंगे।
कुलमिलाकर, पुस्तक मेला ज्ञान पिपासुओं के लिए महाकुम्भ से कम
नहीं है। पुस्तकों के सागर में अपने काम की पुस्तकों का चयन अवश्य चुनौतीपूर्ण है।
लेकिन, यदि पुस्तक और प्रकाशक पता हो, तो फिर काम बहुत सरल हो जाता है। पुस्तक की
डायरेक्टरी इसमें बहुत सहायक रहती है। यदि एक दो सहयोगी साथ में हों तो काम ओर सरल
व रोचक हो जाता है। यदि आप अभी तक पुस्तक मेला नहीं गए हों, तो अवश्य जाएं, दो दिन अभी शेष हैं। यह ज्ञान कुम्भ एक यादगार अनुभव सावित होगा।