गुरुवार, 12 नवंबर 2015

मेरी यादों का पहाड़ - झरने के पास, झरने के उस पार, भाग-2 (समापन किश्त)



 बचपन की मासूम यादें और बदलते सरोकार

(गांव के नाले व झरने से जुड़ी बचपन की यादें पिछली ब्लॉग पोस्ट में शेयर हो चुकी हैं।) इनके पीछे के राज को जानने की चिर-इच्छा को पूरा करने का सुयोग आज बन रहा था। सुबह 6 बजे चलने की योजना बन चुकी थी। सो उठकर सुबह की चाय के साथ हम मंजिल के सफर पर चल पड़े। आज उपवास का दिन था, सो झोले में अपनी स्वाध्याय-पूजा किट के साथ रास्ते के लिए अखरोट, सेब, जापानी फल जैसे पाथेय साथ लेकर चल पड़े। 

आज हम उसी रास्ते से दो दशक बाद चल रहे थे, जिस पर कभी गाय भेड़ बकरियों के साथ हम छुट्टियों में जंगल के चरागाहों, घाटियों, वुग्यालों में जाया करते थे। अकसर जुलाई माह में 1-2 माह की छुट्टियां पड़ती, तो गाय चराने की ड्यूटी मिलती। आज दो दशकों के बाद इलाके के मुआयने का संयोग बन रहा था, सो आज इस अंतराल में आए परिवर्तन को नजदीक से देखने-अनुभव करने का दिन था। घर से पास में सटे नउंड़ी-सेरी गांव से गुजरते हुए आगे के विराने में पहुंचे। गांव में सभी घर पक्के दिखे। साफ सुथरे, रंगों से सजे, आधुनिक तौर तरीकों से लैंस। विकास की व्यार यहाँ तक साफ पहुंची दिख रही थी। 

इसके आगे, कझोरा आहागे पहुंचे, जहाँ से पानी का वंटवारा होता था। घर-गाँव में खेतों की सब्जी के लिए पानी यहीं से आता था। यह गांव का छोटा नाला था, जिसका पानी थोडी दूर नीचे मुख्य नाले में मिलता है, जिसका जिक्र पिछली ब्लॉग पोस्ट में हो चुका है। नाउंड़ी सेरी गांव से होते हुए कच्ची पगड़ंडी के सहारे पानी घर की कियारी तक लगभग 15-20 मिनट में पहुंच जाया करता था। यही आगे बढ़ने का पड़ाव और वापसी का विश्राम स्थल था। यहीं चट्टान के ऊपर बैठ कर विश्राम, खेल हुआ करते थे, यहीं से गाय-भेडों का काफिला आगे जंगल के लिए कूच करता था और शाम को बापिसी में यहीं कुछ पल विश्रांति के बाद घर वापसी हुआ करती थी। आज यह स्थल खेतों एवं सेब बगानों की जद में आ गया है, पुराना नक्शा गायब दिखा। बचपन की यादें बाढ़ें में बंद दिखीं। आज पूरा मैदान, पूरा क्रीडा स्थल गायब था। आगे बढ़ते गए, पानी का टेंक यथावत था, लेकिन इसके इर्द-गिर्द की बंजर जमीं, सीढ़ी दार खेत, मैदान नादारद थे।

वह घास के खेत, क्यारियों, जंगल, वियावन सब गायव थे, पत्थरों की दिवालों में कैद। इनमें सेब व दूसरे फलों के बाग लहलहा रहे थे। लगा आवादी का दवाव, कुछ इंसान के विकास का संघर्ष, तो कुछ लोभ का अंश। सबने मिलजुलकर बचपन की मासूम समृतियों पर जैसे डाका डाल दिया है। विकास का दंश साफ दिखा। वह प्राकृत अवस्था नादारद थी, जिसकी मिट्टी में हम खेलते-कूदते अपने मासूम बचपन को पार करते हुए बढ़े हुए थे।

यह क्या सुवह सुवह ही गांव की कन्याएं पीठ में घास की गठरी लादे नीचे उतर रही थी। निश्चित ही ये प्रातः अंधेरे में ही घर से निकली होंगी, साथ में इनके भाई औऱ माँ। यह, यहाँ की मेहनतकश जिंदगी की बानगी थी, जो ताजा हवा के झौंके की तरह छू गई। इसके साथ ही याद आए बचपन के वो दिन, जब हम यदा-कदा बान जंगलों में घास-पत्तियों को लाने के लिए घर के बढ़े-बुजुर्गों के साथ इसी तरह सुबह अंधेरे में निकल पड़ते थे और सूर्योदय से पहले ही घर पहुंच जाया करते थे। पहाड़ों पर ऊतार-चढाव भरी मेहनतकश जिंगदी और साफ आवो-हबा शायद एक कारण रही, जो यहाँ के लोग, औसतन शहरी लोगों से अधिक स्वस्थ, निरोग और दीर्घायु थे। गांव में शायद की कोई व्यक्ति रहा हो जिसे मधुमेह, ह्दयरोग. मोटापा या ऐसी जीवनशैली से जुड़ी बिमारियों का शिकार होता था। लेकिन आज नक्शा बदल रहा है, नयी पीढ़ी में श्रम के प्रति निष्ठा क्रमशः क्षीण हो रही है और जीवन शैली अस्त-व्यस्त व असंयमित। जीवन शैली से जुड़ी समस्याएं-रोग सर उठा रहे हैं।

अब तक हम कझोरे नाले के समानान्तर चढ़ाई चढ रहे थे। अब इसको पार कर हल्की चढ़ाई के साथ उस पार मुख्य नाले तक पहुँचना था, जो गांव के झरने के पीछे का मध्यम स्रोत है। छाउंदर नाले के रुप में जेहन में बसा यह स्थान हमारी स्मृतियों में गहरे अंकित हैं। इससे जुड़ी कई रोचक, रोमांचक यादें गहरे अवचेतन में दबी, आज इस ओर बढ़ते हुए ताजा हो रही थीं। मार्ग में गांव का विहंगम दृश्य उपर से दर्शनीय था। सामने पहाड से सुबह का सूर्योदय नीचे उतर रहा था। कुछ मिनटों में विरान मार्ग पार हो गया, रास्ते में कंटीली केक्टस की झाड़ियों में खिले सफेद पुष्प गुच्छ ताजगी का अहसास दिला रहे थे। सडक के दोनों ओर वही नजारा था। राह के विरान, बंंजर चरागाह अब खेत- बागानों में बदल चुके थे। थोड़ी ही देर में हम छाउंदर नाला पहुंच चुके थे।

यहीं से होते हुए गांव का मुख्य नाला नीचे रुपाकार लेता है। इस तक का रास्ता नीचे खरतनाक खाई और उपर भयंकर चट्टानों के बीच से होकर गुजरता है। जीवन-मरण के बीच की पतली रेखा इस मार्ग में कुछ पल के लिए कितनी स्पष्ट हो जाती है। रास्ता पूरा होते ही फिर नाले का कलकल करता स्वच्छ निर्मल जल आता है। इसी पर घराट बने हैं। सरकार के जल विभाग द्वारा इस पर विशेष पुल तैयार किया गया है और बर्षा बाढ़ से रक्षा के लिए चैक डैम। यहीं से कई पाइपें नीचे चट्टानों से उतरती दिखीं, जो पता चला कि सुदूर खेतों व बागों के लिए सिंचाई के लिए कई कि.मी. मार्ग तय करती हुई जाती हैं।

नाले के उस पार खड़ी चढ़ाई को चढ़ते हुए मंजिल की ओर आगे बढते गए। इस ऊँचाई पर गांव पीछे छूट चुके थे। ऐसे विरान में भी अकेला घऱ, बाहर आंगन में काम करते स्त्री-पुरुष, खेलते बच्चे। इस ऊँचाई में एकांतिक जीवन का रुमानी भाव जाग रहा था। कितना शांति रहती होगी यहाँ इस एकांत शांत निर्जन बन में। सृजन व एकांतिक ध्यान-साधना के लिए कितना आदर्श स्थल है यह। लेकिन साथ ही यह भी लगा कि यह सब संसाधनों के रहते ही संभव है। यदि खाने-पीने व दवाई-दारु का अभाव रहा तो यहां जीवन कितना विकट हो सकता है। आपातकाल में यहाँ कैसे जुरुरी साधन-सुविधाएं जुटती होंगी। इसी विचार के साथ आगे की कष्टभरी चढ़ाई चढ़ते गए।

पसीने से बदन भीग रहा था, सांसें फूल रहीं थी। हल्का होने के लिए बीच-बीच में अल्प विराम भी लेते। अभी पहाड़ी पगडंडियों को मिलाते तिराहे पर बने चट्टानी आसन पर विश्राम कर रहे थे। पहाड़ में इधर ऊधर बिखरे घरों में दैनिक जीवनचर्या शुरु हो चुकी थी। रास्ते में गाय बछड़ों के साथ खेतों की ओर कूच करते महिलाएं, बच्चे, पुरुष मिलते रहे। अब हम पहाड़ के काफी पीछे आ चुके थे। नीचे की घाटी पीछे छूट चुकी थी। मुख्य नाला वाईं ओर गहरी खाई में गायव था। सामने फाड़मेंह गांव के माध्यमिक स्कूल का भवन दिख रहा था। कभी इस गांव के बच्चे रोज हमारे गांव के स्कूल में 3-4 किमी सीधी खडी उतराई, चढाई को पार कर आते थे। आज गांव के अपने स्कूल में बच्चों की इस दुविधा का समाधान दिखा। 

यहां से थोड़ी की चढाई के बाद हमे मुख्य मार्ग में पहुंच चुके थे। यह इन दो दशकों में हुआ बड़ा विकास दिखा। अब इस इलाके के अंतिम गांव तक सड़क पहुंच चुकी है। हम इसी सड़क तक पहुंच चुके थे। पहले कभी इन गांव से फलों को क्रेन के माध्यम से नीचे पहुंचाया जाता था, आज इन सड़कों में जीप-ट्रोली के माध्यम से सेब-सब्जियां मंडी तक ले जायी जा रही हैं। गांव के युवा अपनी वाइकों में स्वार होकर यहां से सीधा शहर-कालेज जा रहे हैं। घर निर्माण के संसाधन सहज होने के कारण गांव का नक्शा बदल चुका है। विकास की व्यार इन सुदूर गांव तक स्पष्ट दिखी। पीने का साफ जल, बिजली, सड़क के साथ टीवी-नेट सुबिधाएं सब यहां सहज सुलभ हैं।

इस सड़क के साथ कुछ दूर चलने के बाद हम फिर पगडंडी के साथ होते हुए मंजिल की ओर बढ़ चले। अब फिर सीधी खड़ी चढाई थी। रास्ता बहुत ही संकरा और फिसलन भरा, हमारे लिए कठिन परीक्षा थी, लेकिन यहां के क्षेत्रीय लोग तो यहाँ पीठ में बोझा लादे भी सहज ढंग से चढ़-उतर रहे थे। रास्ते में जल का शीतल-निर्मल स्रोत मिला, जो यह मार्ग की प्यास व थकान को दूर करने बाली औषधी सरीखा था। यह किसी भी तरह बोतलों में बंद मिनरल वाटर से कम नहीं था, बल्कि अपने प्राकृत औषधीय गुणों व स्वाद के कारण उससे बेहतर ही लगा। क्षेत्रीय लोगों का कहना है कि यह भूख को बढाता है और पाचन प्रक्रिया को तेज करता है। हमारा अनुभव भी ऐसा ही रहा।

थोडी ही देर में हम मंजिल पहुंच चुके थे। दूर नीचे घाटी का विहिंगम दृष्ट दर्शनीय था। पहाड के निर्जन गाँव नीचे छूट चुके थे औऱ यहां से इनका विहंगम दृश्य दर्शनीय था। पीछे गांव के नाले का मूल स्रोत रेउंश झरना अपनी मनोरम छटा के साथ अपने दिव्य दर्शन दे रहा था। गावं के पवित्र ईष्ट देव, स्थान देवों की पुण्य भूमि सामने थी। बचपन में जिन पहाड़ों को निहारा करते थे, देवदार से लदे वे पर्वत सामने थे। इस देवभूमि में सुबह का सूर्योदय होने वाला था। आसन जमाकर, हम इन दुर्लभ क्षणों को ध्यान की विषय बस्तु बनाकर अपने जीवन के शाश्वत स्रोत से जुड़ने की कवायद करते रहे। सूर्य की किरणें पूरी घाटी में ऊजाला फैला रही थी, हमारे शरीर-प्राण की जड़ता को भेदकर कहीं अंतरमन में गहरे उतर रही थीं।
आज हम गांव के नाले व झरने के स्रोत के पास ध्यान मग्न थे। इसकी गोद में विताए बचपन के मासूम दिनों को याद कर रहे थे, इसके बाद बीते दशकों की भी भाव यात्रा कर रहे थे। कैसे कालचक्र जीवन को बचपन, जवानी, प्रौढावस्था के पड़ाव से ले जाते हुए बुढ़ापे कओर धकेल देता है। परिवर्तन के शाश्वत चक्र में सब कैसे सिमट जाता है, बीत जाता है, खो जाता है। लेकिन साथ रहता है तो शायद वर्तमान। उसी वर्तमान के साथ हम भूत को समरण कर, भविष्य का ताना-बाना बुन रहे थे। अब आगे क्या होगा यह तो साहब जाने, हम तो नेक इरादों के साथ इस जीवन की यात्रा को एक सार्थक निष्कर्ष तक पहुंचाने के भाव के साथ यहाँ खुद को खोजने-खोदने आए थे।

बापसी में इसी सीधी उतराई के साथ नीचे उतरे। छाउंदर नाले के पास केकटस की कंटीली झाड़ियों के पके मीठे फलों का लुत्फ लेते हुए, फिसलन भरी घास के बीच नीचे उतर कर गांव के हनुमान मंदिर पहुंचे। मंदिर में माथा टेकते हुए बापिस झरने व नाले की गोद में पहुँचे। आज की यात्रा पूरी हुई, जिसकी स्मृतियां हमेशा याद करने पर भावनाओं को उद्वेलित करती रहेंगी। अपने साथ कई सवाल भी छोड़ गई, जिनका समाधान किया जाना है। एक मकसद भी दे गई, जिसको समय रहते पूरा करना है।

शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2015

मेरी यादों का पहाड़ - झरने के पास, झरने के उस पार- भाग 1



 बचपन की मासूम यादें और बदलते सारोकार

जिंदगी का प्रवाह कालचक्र के साथ बहता रहता है, घटनाएं घटती रहती हैं, जिनका तात्कालिक कोई खास महत्व प्रतीत नहीं होता। लेकिन समय के साथ इनका महत्व बढ़ता जाता है। काल के गर्भ में समायी इन घटनाओं का अर्थ व महत्व बाद में पता चलता है, जब सहज ही घटी इन घटनाओं से जुड़ी स्मृतियां गहरे अवचेतन से उभर कर प्रकट होती हैं और वर्तमान को नए मायने, नए रंग दे जाती हैं। अक्टूबर 2015 के पहले सप्ताह में हुआ अपनी बचपन की क्रीडा-भूमि का सफर कई मायनों में इसी सत्य का साक्षी रहा।

याद हैं बचपन के वो दिन जब गांव में पीने के लिए नल की कोई व्यवस्था नहीं थे। गांव का नाला ही जल का एक मात्र स्रोत था। घर से आधा किमी दूर नाले तक जाकर स्कूल जाने से पहले सुबह दो बाल्टी या केन दोनों हाथों में लिए पानी भरना नित्य क्रम था। इसी नाले में दिन को घर में पल रहे गाय-बैलों को पानी पीने के लिए ले जाया करते थे। नाला ही हमारा धोबीघाट था। नाले की धारा पर मिट्टी-पत्थरों की दीवाल से बनी झील ही हमारा स्विमिंग पुल। गांव का वार्षिक मेला इसी के किनारे मैदान में मनाया जाता था। इसी को पार करते हुए हम कितनी बार दूसरे गांव में बसी नानी-मौसी के घर आया जाया करते थे। बचपन का स्मृति कोष जैसे इसके इर्द-गिर्द छिपा था, जो आज एक साथ जागकर हमें बालपने के बीते दिनों में ले गया था।

इसके पानी की शुद्धता को लेकर कोई गिला शिक्वा नहीं था। कितनी पुश्तें इसका जल पीकर पली बढ़ी होंगी। सब स्वस्थ नीरोग, हष्ट-पुष्ट थे। (यह अलग बात है कि समय के साथ सरकार द्वारा गांव में जगह-जगह नल की व्यवस्था की गई। आज तो गांव क्या, घर-घर में नल हैं, जिनमें नाले का नहीं, पहाड़ों से जलस्रोतों का शुद्ध जल स्पलाई किया जाता है)

इसी नाले का उद्गम कहां से व कैसे होता है, यह प्रश्न बालमन के लिए पहेली से कम नहीं था। क्योंकि नाला गांव में एक दुर्गम खाई भरी चढ़ाई से अचानक एक झरने के रुप में प्रकट होता था। झरना कहाँ से शुरु होता है व कैसे रास्ते में रुपाकार लेता है, यह शिशुमन के लिए एक राज था। बचपन इसी झरने की गोद में खेलते कूदते बीता। कभी इसके मुहाने पर बसे घराट में आटा पीसने के वहाने, तो कभी इसकी गोद में लगे अखरोट व खुमानी के पेड़ों से कचे-पक्के फल खाने के बहाने। और हाँ, कभी जायरु (भूमिगत जल स्रोत) के शुद्धजल के बहाने। झरने से 100-150 मीटर के दायरे में चट्टानों की गोद से जल के ये जायरू हमारे लिए प्रकृति प्रदत उपहार से कम नहीं थे। गर्मी में ठंडा जल तो सर्दी में कोसा गर्म जल। उस समय यहाँ ऐसे तीन चार जायरु थे। लेकिन अब एक ही शेष बचा है। सुना है कि बरसात में बाकी भी जीवंत हो जाते हैं।

झरना जहाँ गिरता था वहाँ झील बन जाती थी, जिसमें हम तैरते थे। लगभग 300 फीट ऊँचे झरने से गिरती पानी की फुआरों के बीच सतरंगी इंद्रधनुष अपने आप में एक दिलकश नजारा रहता था। झरने की दुधिया धाराएं व फुआरें यहां के सौंदर्य़ को चार चांद लगाते थे। गांव वासियों के लिए झरना एक पवित्र स्थल था, जिसके उद्गम पर झरने के शिखर पर वे योगनियों का निवासस्थान मानते थे व इनको पूजते थे, जो चलन आज भी पूरानी पीढ़ी के साथ जारी है।

आज हम इसी झरने तक आए थे। घर-गाँव से निकलने के दो दशक बाद इसके दर्शन-अवलोक का संयोग बना था। अखरोट के पेड़  में सुखते हरे कव्च से झांक रहे पक्के अखरोट जैसे हमें अपना परिचय देते हुए बचपन की यादें ताजा करा रहे थे। झरने में पानी की मात्रा काफी कम थी। लेकिन ऊपर से गिरती जलराशी अपनी सुमधुर आवाज के साथ एक जीवंत झरने का पूरा अहसास दिला रही थी। पता चला की पर्यटकों के बीच आज यह झरना खासा लोकप्रिय है। हो भी क्यों न, आखिर यह गहन एकांत-शांत गुफा नुमा घाटी में बसा प्रकृति का अद्भुत नाजारा आज भी अपने आगोश में दुनियां के कोलाहल से दूर दूसरे लोक में विचरण की अनुभूति देता है। ऊपर क्या है, पीछे क्या है, सब दुर्गम रहस्य की ओढ़ में छिपा हुआ, बालमन के लिए बैसे ही कुछ था, जैसे बाहुबली में झरने के पीछे के लोक की रहस्यमयी उपस्थिति।
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झरने का घटता हुआ जल स्तर हमें चिंता का विषय लगा। इसका सीधा सम्बन्ध एक तरफे विकास की मार झेलते प्रकृति-पर्यावरण से है। पिछले दो दशकों में क्षेत्र में उल्लेखनीय विकास हुआ है, जिसका इस नाले से सीधा सम्बन्ध रहा। याद हैं बचपन के वो दिन जब गांव के युवा अधिकाँश वेरोजगार घूमते थे। शाम को स्कूल के मैदान में सबका जमाबड़ा रहता था। बालीवाल खेलते थे, मस्ती करते थे। इसके बाद गावं की दुकानों व सड़कों पर मटरगश्ती से लेकिर शराब-नशे का सेवन होता था। कई बार मारपीट की घटनाएं भी होती थीं। गांव के युवा खेल में अब्बल रहते थे, लेकिन युवा ऊर्जा का सृजनात्मन नियोजन न होना, चिंता का विषय था। इनकी खेती-बाड़ी व श्रम में रुचि न के बरावर थी।

लेकिन इन दो दशकों में नजारा बदल चुका है। बीच में यहाँ सब्जी उत्पादन का दौर चला। तीन माह में इस कैश क्रांपिक से झोली भरने लगी। गोभी, मटर, टमाटर, गाजर-शलजम जैसी सब्जियों उगाई जाने लगी। इसके अलावा ब्रोक्ली, स्पाइनेच, सेलेड जैसी विदेशी सब्जियां भी आजमायी गईं।

सब्जियों की फसल बहुत मेहनत की मांग करती हैं। दिन रात इनकी देखभाल करनी पड़ती है। निंडाई-गुडाई से लेकर समय पर सप्रे व पानी की व्यवस्था। जल का एक मात्र स्रोत यह नाला था। सो झरने के ऊपर से नाले के मूल स्रोत से सीधे पाइपें बिछनी शुरु हो गईं। इस समय दो दर्जन से अधिक पाइपों के जाल इसमें बिछ चुके हैं और इसका जल गांव में खेतों की सिचांई के काम आ रहा है। स्वाभिवक रुप से झरने का जल प्रभावित हुआ है।

दूसरा सेब की फसल का चलन इस दौरान क्षेत्र में बढ़ा है। पहले जिन खेतों में गैंहूं, चावल उगाए जाते थे, आज वहाँ सेब के पेड़ देखे जा सकते हैं। कुल्लू मानाली घाटी की अप्पर वेली को तो हम बचपन से ही सेब बेल्ट में रुपांतरित होते देख चुके थे। लेकिन हमारा क्षेत्र इससे अछूता था। बचपन में हमारे गाँव में सेब के गिनती के पड़े थे। जंगली खुमानी भर की बहुतायत थी, जो खेत की मेंड़ पर उगी होती थी। धीरे-धीरे नाशपाती व प्लम के पेड़ जुड़ते गए। लेकिन आज पूरा क्षेत्र सेब के बागानों से भर चुका है, जिसके साथ यहाँ आर्थिक समृद्धि की नयी तिजारत लिखी जा रही है। इसमें जल का नियोजन अहम है, जिसमें नाले का जल केंद्रीय भूमिका में है। 

पाईपों से फल व सब्जी के खेतों में पानी के नियोजन से बचपन का झरना दम तोड़ता दिख रहा है। जो नाला व्यास नदी तक निर्बाध बहता था, वह भी बीच रास्ते में ही दम तोड़ता नजर आ रहा है। इस पर बढ़ती जनसंख्या, मौसम में परिवर्तन व विकास की एकतरफा दौड़ की मार स्पष्ट है। ऐसे में जल के बैकल्पिक स्रोत पर विचार अहम हो जाता है। उपलब्ध जल का सही व संतुलित नियोजन महत्वपूर्ण है। सूखते जल स्रोतों को कैसे पुनः रिचार्ज किया जाए, काम बाकि है। क्षेत्र के समझदार एवं जिम्मेदार लोगों को मिलकर इस दिशा में कदम उठाने होंगे, अन्यथा विकास की एकतरफा दौड़ आगे अंधेरी सुरंग की ओर बढ़ती दिख रही है। ..(जारी..शेष अगली ब्लॉग पोस्ट में..)

शनिवार, 24 अक्तूबर 2015

भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला (IIAS Shimla)

प्रकृति की मनोरम गोद में इतिहास को समेटे एक शोध केंद्र

शिमला की पहाडियों की चोटी पर बसा भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला का एक विशेष आकर्षण है, जो शोध-अध्ययन प्रेमियों के लिए किसी तीर्थ से कम नहीं। उच्चस्तरीय शोध केंद्र के रुप में इसकी स्थापना 1964 में तत्काकलीन राष्ट्रपति डॉ.एस राधाकृष्णन ने की थी। इससे पूर्व यह राष्ट्रपति भवन के नाम से जाना जाता था और वर्ष में एक या दो बार पधारने वाले राष्ट्र के महामहिम राष्ट्रपति का विश्रामगृह रहता था, साल के बाकि महीने यह मंत्रियों और बड़े अधिकारियों की आरामगाह रहता। डॉ. राधाकृष्णन का इसे शोध-अध्ययन केंद्र में तबदील करने का निर्णय उनकी दूरदर्शिता एवं महान शिक्षक होने का सूचक था।

आजादी से पहले यह संस्थान देश पर राज करने वाली अंग्रेजी हुकूमत की समर केपिटल का मुख्यालय था। सर्दी में कलकत्ता या दिल्ली तो गर्मिंयों में अंग्रेज यहाँ से राज करते थे और इसे वायसराय लॉज के नाम से जाना जाता था। अतः यह मूलतः अंग्रेजी वायसरायों की निवासभूमि के रुप में 1888 में तैयार होता है, जिसमें स्कॉटिश वास्तुशिल्प शैली को देखा जा सकता है। इसे शिमला की सात पहाड़ियों में से एक ऑबजरवेटरी हिल पर बसाया गया है।

मालूम हो कि शिमला में ऐसी सात प्रमुख पहाड़ियाँ हैं, जिन पर यहाँ के प्रमुख दर्शनीय स्थल बसे हैं। पश्चिमी शिमला का प्रोस्पेक्ट हिल, जिस पर कामना देवी मंदिर स्थित है। सम्मर हिल, जहाँ हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय का कैंपस पड़ता है। ऑबजर्वेटरी हिल, जहाँ इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडी स्थित है। इन्वेरार्रम हिल, जहाँ स्टेट म्यूजियम स्थित है। मध्य शिमला का बेंटोनी हिल जहाँ ग्राँड होटल पड़ता है। मध्य शिमला की जाखू हिल, जहाँ हनुमानजी का मंदिर स्थित है। यह शिमला की सबसे ऊँची पहाड़ी है, जहाँ हनुमानजी की 108 फीट ऊँची प्रतिमा लगी है, जिसके दर्शन शिमला के किसी भी कौने से किए जा सकते हैं, यहाँ तक कि रास्ते में सोलन से ही इसके दर्शन शुरु हो जाते हैं। और उत्तर-पश्चिम दिशा का इलायजियम हिल, जहाँ ऑकलैंड हाउस और लौंगवुड़ स्थित हैं।

शिमला की भौगोलिक स्थिति, प्राकृतिक विशेषता, फ्लोरा-फोना सब मिलाकर इसको विशिष्ट हिल स्टेशन का दर्जा देते हैं। एडवांस्ड स्टडी के संरक्षित परिसर में इनके विशेष दिग्दर्शन किए जा सकते हैं। यहाँ देवदार के घने जंगल हैं। इनके बीच में बुराँश के सघन पेड़ लगे हैं, जो अप्रैल-मई के माह में सुर्ख लाल फूलों के साथ यहाँ के वातावरण की खुबसूरती में एक नया रंग घोलते हैं। इसके साथ जंगली चेस्टनेट के पेड़ बहुतायत में मिलेंगे, जिनके फूलों के गुच्छे सीजन में यात्रियों का स्वागत करते हैं। इनके बीच बाँज के वन तो यहाँ आम हैं। इन वृक्षों पर उछल-कूद करते बंदर लंगूरों के झुण्ड भी इस परिसर की विशेषता है। बंदर हालाँकि थोड़े खुराफाती जीव हैं, खाने पीने की चीजें देख छीना झपटी करना अपना अधिकार मानते हैं, जबकि लंगूर बहुत शर्मीला और शांत जीव है। जो झुँड में रहता है और किसी को अधिक परेशान नहीं करता। लम्बी पूँछ लिए इस जीव को एक पेड़ से दूसरे पेड़ में लम्बी छलाँग लगाते यहाँ देखा जा सकता है।

संस्थान प्रायः सर्दियों में दिसम्बर से फरवरी तक शोधार्थियों के लिए बन्द रहता है। बाकि समय इसके यहाँ कई तरह के शोध अध्ययन से जुड़े कार्यक्रम चलते रहते हैं। जिनमें एक माह का एशोसिएटशिप कार्यक्रम पीएचडी स्कोलर्ज के बीच लोकप्रिय है। इसके बाद एक से दो वर्ष का फैलोशिप प्रोग्राम, जिसमें यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर्ज एवं अपने क्षेत्र के विद्वान लोग आते हैं। इसके साथ बौद्धिक गोष्ठियां, सेमीनार आदि यहाँ चलते रहते हैं, जिसमें अपने क्षेत्र के चुडान्त विद्वान एवं विषय विशेषज्ञ यहाँ पधारते हैं, बौद्धिक विमर्श होते हैं और विचार मंथन के साथ समाज राष्ट्र को दिशा देने वाली नीतियाँ तय होती हैं।

यहाँ का पुस्तकालय संस्थान की शान है, जो प्रातः नौ बजे से रात्रि सात बजे तक शोधार्थियों के लिए खुला रहता है। इसमें लगभग दो लाख पुस्तकें हैं और इसके साथ समृद्ध ई-लाइब्रेरी, जिसमें विश्वभर की पुस्तकों एवं शोधपत्रों को एक्सेस किया जा सकता है। जब पढ़ते-पढ़ते थक जाएं तो तरोताजा होने के लिए पास ही एक कैंटीन और एक कैफिटेरिया की भी व्यवस्था है। प्रकृति की गोद में बसा परिसर स्वयं में ही एक प्रशांतक ऊर्जा लिए रहता है, जिसमें टहलने मात्र से व्यक्ति तरोताजा अनुभव करता है। संस्थान की अपनी शोध पत्रिका सम्मर हिल रिव्यू है। यहाँ का अपना प्रकाशन भी है, जिसके प्रकाशनों का किसी भी बड़े पुस्तक मेले में अवलोकन किया जा सकता है।

परिसर में लाइब्रेरी के पीछे विशाल बाँज का पेड़ लगा है, जहाँ कभी कामना देवी का मंदिर था, जिसे अब पास की पहाड़ी में विस्थापित किया गया है। इसी के साथ दो भव्य मैपल पेड़ हैं, जो शिमला में रिज पर एक कौने में भी स्थित हैं। मौसम साफ होने पर इसके पास ही एक स्थान से दूर हिमालय की हिमाच्छादित चोटियों का अवलोकन किया जा सकता है, जहाँ इनकी ऊँचाई व नाम भी अंकित है। इसी के नीचे बहुत बड़ा बगीचा और पार्क है। उसके पार खेलने का बंदोवस्त है, जहाँ एक इंडोर स्टेडियम है। उसके आगे अंडरग्राउण्ड जेल है, जहाँ गाँधीजी को कुछ दिन नजरबंद किया गया था।

इसके साथ यहाँ का अपना समृद्ध बोटेनिक्ल गार्डन है, जिसमें तैयार किए जा रहे फूलों के गमलों से पूरा परिसर शोभायमान और सुवासित रहता है। संस्थान में जल संरक्षण की बेहतरीन व्यवस्था है। मुख्य भवन की छत से गिरता बारिश का पानी सीधे छनकर लॉन के नीचे बने स्टोरेज टैंक में जाता है और इसका उपयोग फूलों, पौधों व लॉन की सिंचाई में किया जाता है।

रहने के लिए यहाँ परिसर में भव्य भवन हैं, जिनमें वेहतरीन कमरों की व्यवस्था है। भोजन के लिए पहाड़ी पर मेस है, जिसमें उम्दा नाश्ता, लंच और डिन्नर परोसा जाता है। यहीं आगंतुकों के लिए अतिथि गृह भी है। फिल्म देखने के लिए छोटा सा ऑडिटोरियम भी है। जरुरत का सामान खरीदने के लिए परिसर के नीचे बालुगंज में तमाम दुकानें हैं। यहाँ का कृष्णा स्वीट्स दूध-जलेबी के लिए प्रख्यात है। थोड़ी ही दूरी पर शिमला यूनिवर्सिटी है, जहाँ बस व पैदल मार्ग दोनों तरीकों से जाया जा सकता है। दोनों मार्ग घने देवदार, बुराँश व बाँज के जंगल से होकर गुजरते हैं।

यहाँ पर रुकने व अध्ययन के इच्छुक शोधार्थियों के लिए ऑनलाइन प्रवेश की सुविधा है। एक माह से लेकर दो साल तक इस सुंदर परिसर में गहन अध्ययन, चिंतन-मनन एवं सृजन के यादगार पल बिताए जा सकते हैं। हमें सौभाग्य मिला 2010,12 और 2013 में तीन वार एक-एक माह यहाँ रुकने का और अपने एसोशिएटशिप कार्य़क्रम पूरा करने का, जिसमें हमने अपने पीएचडी के विषय को गंभीरता एवं व्यापकता में एक्सप्लोअर किया। भारत भर से आए विद्वानों से चर्चा होती रही, फैलोज के साप्ताहिक सेमीनार में खुलकर भाग लिया और कई सारी नई चीजें सीखने को मिलीं। उस बक्त यहाँ के निर्देशक थे, प्रो. पीटर रोनाल्ड डसूजा, जिनके सज्जन एवं भव्य व्यक्तित्व, प्रखर विद्वता, बौद्धिक ईमानदारी, शोधधर्मिता एवं भावपूर्ण संवाद से हमें बहुत कुछ सीखने को मिला, जिसे समरण करने पर मन आज भी पुलकित हो उठता है।

शुक्रवार, 11 सितंबर 2015

आध्यात्मिक पथ के प्राथमिक सोपान




अध्यात्म क्या? अपनी खोज में निकल पड़े मुसाफिर की राह, मंजिल है अध्यात्म। जब लक्ष्य अपनी चेतना का स्रोत समझ आ जाए तो अपने उत्स, केंद्र की यात्रा है अध्यात्म। थोड़ा एडवेंचर के भाव से कहें तो यह अपनी चेतना के शिखर का आरोहण है। अध्यात्म स्वयं को समग्र रुप से जानने की प्रक्रिया है। विज्ञजनों की बात मानें तो यह जीवन पहेली की मास्टर-की है। आश्चर्य़ नहीं कि सभी विचारकों-दार्शनिकों-मनीषियों ने चाहे वे पूर्व के रहे हों या पश्चिम के, जीवन के निचोड़ रुप में एक ही बात कही आत्मानम् विद्, नो दाईसेल्फ, अर्थात पहले, खुद को जानो, स्वयं को पहचानो।
इस तरह अध्यात्म आत्मानुसंधान का पथ है, एक अंतर्यात्रा है। अध्यात्म उस आस्था का नाम है जो जीवन का केंद्र अपने अंदर मानती है और जीवन की हर समस्या का समाधान अपने अस्तित्व के केंद्र में खोजते का प्रयास करती है।
अध्यात्म की आवश्यकता – अध्यात्म मानवीय जीवन में अंतर्निहित दिव्य विशेषता है, इसका केंद्रीय तत्व है और जीवन की मूलभूत आश्यकता है। सभी सांसारिक जरुरतें पूरी होने के बाद, सभी तरह का लौकिक ज्ञान पाने के बाद, सभी तरह की भौतिक सुख-समृद्धि-उपलब्धि के बाद भी जो खालीस्थान बना रहता है, अध्यात्म उस खालीस्थान की पूर्ति है। अब तो मनोवैज्ञानिक भी इस रुप में इसे जीवन की मेटानीड, जीवन की महा-आवश्यकता बता रहे हैं। चेतनात्मक संकट से गुजर रहे आधुनिक इंसान की आंतरिक त्रास्दी को समेटे मॉड्रन मेन इन सर्च ऑफ गॉड, सप्रिचुअल क्राइसिस ऑफ मॉड्रन मैन जैसी पश्चमी विचारकों कार्ल जुंग एवं पॉल ब्रंटन की शोधपूर्ण रचनाएं भी इसी सत्य को उद्घाटित करती हैं।

अध्यात्म का महत्व अध्यात्म जीवन की समग्र समझ देता है। यह जीवन के एकतरफा भौतिक विकास का संतुलक है। आंतिरक विकास के साथ वाह्य जीवन की प्रगति को संतुलित करता है। यह आंतरिक शक्तियों के जागरण की स्वाभाविक प्रक्रिया है, यह व्यक्ति के समग्र विकास को सुनिश्चित करता है। यह जीवन के दव्न्दों के पार जाने की सूझ व शक्ति देता है। खुद से रुबरु कर, विराट से जोड़ता है और चरम संभावनाओं के विकास का द्वार खोलता है। यह जीवन को गुणवता देता है और व्यक्तित्व में विश्वसनीयता एवं प्रामाणिकता को पैदा करने वाला तत्व है। आश्चर्य नहीं कि यह चरित्र निर्माण की धूरी है, श्रेष्ठ नागरिक को तैयार करने की प्रयोगशाला है। यह स्व-अनुशासित जीवन का नाम है। एक अच्छा इंसान बनने की जरुरत यहीं कहीं सही मायने में पूर्ण होती है। शांति, स्वतंत्रता, आनन्द की खोज यहीं पूर्णता पाती है। जीवन के चरम एवं परम विकास की संभावनाएं इसी के आधार पर शक्य-संभव बनती हैं। मनुष्य अपने भाग्य विधाता होने का भाव यहीं कहीं पाता है। आश्चर्य नहीं कि जिन भी महापुरुषों, महामानवों एवं देवमानवों को हम आदर्श के रुप में श्रद्धानत होकर सुमरण-अनुकरण करते हैं, अध्यात्म किसी न किसी रुप में उनके जीवन का केंद्रीय तत्व रहा है। 
अध्यात्म पथ के अनिवार्य सोपान
जीवन जिज्ञासा, आंतरिक खोज, आत्मानुसंधान – अपनी खोज में निकला पथिक जाने अनजाने में अध्यात्म पथ का राही होता है। यह जिज्ञासा जीवन के किसी न किसी मोड़ पर जोर अवश्य पकड़ती है। कुछ जन्मजात यह अभीप्सा लिए होते हैं। किंतु अधिकाँश जीवन के टेड़े मेड़े रास्ते में राह की ठोकरें खाने के बाद, बाह्य जीवन के मायावी रुप से मोहभंग होते ही या जीवन के विषम प्रहार के साथ सचेत हो जाते हैं और जीवन के वास्तविक सत्य की खोज में जीवन के स्रोत्र की ओर मुड़ जाते हैं। जीवन के नश्वर स्वरुप का बोध एवं जीवन में सच्चे सुख व शांति की खोज व्यक्ति को देर सबेर अध्यात्म मार्ग पर आरुढ़ कर देती है। जीवन की वर्तमान स्थिति से गहन असंतुष्टी का भाव और मुमुक्षुत्व, अध्यात्म जीवन का प्रारम्भिक सोपान है।

आध्यात्मिक जीवन दृष्टि – इसी के साथ अपनी खोज की प्रक्रिया शुरु होती है और जीवन के प्रति एक नई अंतर्दृष्टि का विकास होता है। इस सानन्त बजूद में अनन्त की खोज आगे बढ़ती है। शरीर व मन से बने स्वार्थ-अहं केंद्रित संकीर्ण जीवन के परे एक विराट अस्तित्व का महत्व समझ आता है, यह अध्यात्म का दूसरा सोपान है। अब समाधान की तलाश अपने अंदर होती है। किसी से अधिक आशा अपेक्षा नहीं रहती। भीड़ के बीच भी एकाकीपन का भाव प्रगाढ़ रहता है और अपने तमाम शुभचिंतकों के बावजूद यह एक एकाकी यात्रा होती है। पथिक का एकला यात्रा पर विश्वास प्रगाढ़ रहता है। वह यथासंभव दूसरों की मदद करता है और समस्याओं से भरे संसार में समाधान का एक हिस्सा बनकर जीने का प्रयास करता है।

आध्यात्मिक जीवन शैली – आध्यात्मिक जीवन दृष्टि का स्वाभाविक परिणाम होता है आध्यात्मिक जीवन शैली, जो संयमित एवं अनुशासित दिनचर्या का पर्याय है। शील-सदाचारपूर्ण व्यवहार इसके अनिवार्य आधार हैं। अपनी मेहनत की ईमानदार कमाई इसका स्वाभाविक अंग है। इसके तहत वह शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक सभी पहलुओं के सम्यक विकास के प्रति जागरुक रहता है और एक कर्तव्यपरायण जीवन जीता है।

कर्तव्य परायण जीवन – आध्यात्मिक जीवन कर्तव्यपरायण होता है। अपने कर्तव्य के प्रति सजग एवं कर्मठ। श्रमशील जीवन अध्यात्मिक जीवन की निशानी है। घर परिवार हों या संसार व्यापार, अपने कर्तव्यों का होशोहवास में बिना किसी अधिक राग-द्वेष या आसक्ति के निर्वाह करता है। जीवन के निर्धारित रणक्षेत्र में एक यौद्धा की भांति अपनी भूमिका निभाता है और धर्म मार्ग पर आरुढ़ रहता है। अपने कर्तव्यकर्मों से पलायन, आलसी-विलासी जीवन से अध्यात्म का दूर दूर तक कोई वास्ता नहीं होता।

आदर्शनिष्ठ, आत्म-परायण जीवन – अपने परमलक्ष्य की ओर बढ़ रहे आध्यात्मिक जिज्ञासु का जीवन आदर्श के प्रति समर्पित होता है। आदर्श एक व्यक्ति भी हो सकता है, कोई विचार या भाव भी। आदर्श के उच्चतम मानदण्डों की कसौटी पर खुद के चिंतन-व्यवहार को सतत कसते हुए, पथिक अपनी महायात्रा पर अग्रसर रहता है। अपने मन एवं विचारों को उच्चतम भावों में निमग्न रखने के लिए स्वाध्याय-सतसंग का सहारा लेता है।

स्वाध्याय-सतसंग – आध्यात्मिक आदर्श एवं महापुरुषों का संग-साथ अध्यात्म का महत्वपूर्ण सोपान है। आंतरिक संघर्ष के पलों में इनसे आवश्यक प्रेरणा एवं मार्गदर्शन पाता है। खाली समय में उच्च आदर्श एवं सद्विचारों में निमग्न रहता है। आध्यात्मिक ग्रंथों एवं सत्साहित्य का अध्ययन जीवन का अभिन्न अंग होता है। इस प्रकार सद्विचारों का महायज्ञ उसके चितकुण्ड में सदा ही चलता रहता है, जो क्रमशः उसे ध्यान की उच्चस्तरीय कक्षा के लिए तैयार करता है।


आत्म चिंतन – ध्यान परायण जीवन – निसंदेह अपने आत्म रुप का चिंतन, जीवन लक्ष्य पर विचार, आदर्श का सुमरण-वरण इसके अनिवार्य सोपान हैं। इसके लिए अभीप्सु ध्यान के लिए कुछ समय अवश्य निकालता है। अपने अचेतन मन को सचेतन करने की प्रक्रिया को अपने ढंग से अंजाम देता है। आत्म तत्व का चिंतन उसे परम तत्व की ओर प्रवृत करता है और ईश्वरीय आस्था जीवन का सबल आधार बनती है।

आत्म श्रद्धा, ईश्वर विश्वास –अपनी आत्म सत्ता पर श्रद्धा जहाँ एक छोर होता है वहीं ईश्वरीय आस्था इसका दूसरा छोर। अध्यात्मवादी अपनी आध्यात्मिक नियति पर दृढ़ विश्वास रखता है और अपने पुरुषार्थ के बल पर अपने सत्कर्मों के आधार पर अपने मनवाँछित भाग्य निर्माण का प्रयास करता है। साथ ही वह ईश्वरीय न्याय व्यवस्था को मानता है। दूसरे जो भी व्यवहार करें, अपने स्तर को गिरने नहीं देता। व्यक्तित्व की न्यूनतम गरिमा एवं गुरुता अवश्य बनाए रखता है। अपनी पूरी जिम्मेदारी आप लेता है, अंदर ईमान तथा उपर भगवान को साथ जीवन के रणक्षेत्र में प्रवृत रहता है। 

प्रार्थना – प्रार्थना आध्यात्मिक जीवन का महत्वपूर्ण अंग है। अध्यात्मपरायण व्यक्ति अपनी औकात, अपनी मानवीय सीमाओं को जानता है, इससे ऊपर उठने के लिए, इनको पार करने के लिए ईश्वरीय अबलम्बन में संकोच नहीं करता। वह प्रार्थना की अमोघ शक्ति को जानता है और अपनी ईमानदार कोशिश के बाद भी जो कसर रह जाती है उसे प्रार्थना के बल पर पूरी करते का प्रयास करता है। 

निष्काम सेवा – सेवा अध्यात्म पथ का एक महत्वपूर्ण सोपान है। सेवा को आत्मकल्याण का एक सशक्त माध्यम मानता है। जिस आत्म-तत्व की खोज अपने अंदर करता है वही तत्व बाहर पूरी सृष्टि में निहारने का प्रयास करते हुए यथासंभव सबके साथ सद्भावपूर्ण बर्ताव करता है। अपनी क्षमता एवं योग्यतानुरुप जरुरतमंद, दुखी-पीड़ीत इंसाव एवं प्राणियों की सेवा सत्कार के लिए सचेष्ट रहता है और निष्काम सेवा को अध्यात्म पथ का महत्वपूर्ण सोपान मानता है।

सृजनधर्मी सकारात्मक जीवन- अध्यात्म से उपजा आस्तिकता का भाव व्यक्ति में अपने अस्तित्व के प्रति आशा का भाव जगाता है, अध्यात्म से उपजी कर्तव्यपरायणता उसे सृजनपथ पर आरुढ़ करती है और अपने स्रोत की ओर बढ़ता उसका हर ढग उसे सकारात्मक उत्साह से भरता है। अतः अध्यात्म नेगेटिविटी को जीवन में प्रश्रय नहीं देता। वह जिस भी क्षेत्र में काम करता है, एक सकारात्मक परिवर्तन के संवाहक के रुप में अपनी अकिंचन सी ही सही किंतु निर्णायक भूमिका निभाता है। हमेशा सकारात्मकता एवं सृजन के प्रति समर्पित जीवन आध्यात्मिकता का परिचय, पहचान है।


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