गुरुवार, 9 मई 2024

भाव यात्रा - गिरमल देवता संग तीर्थ यात्रा का यादगार-रोमाँचक सफर , भाग-2


मणीकर्ण तीर्थ से मलाणा वाया रसोल टॉप

पहाडियों से घिरी कुल्लू-मणिकर्ण घाटी का एक एकांतिक गाँव

दिन 4 – मणिकर्ण तीर्थ से रसोल टॉप की ओर

दिन 5 – रसोल टॉप से मलाणा गाँव वाया छोरोवाइ

दिन 4 – मणिकर्ण तीर्थ से रसोल टॉप की ओर

प्रातः स्नान के बाद क्लार (सुबह का नाश्ता व लंच) करके देव काफिला बापिस कसोल की और कूच करता है। मणिकर्ण तीर्थ के तप्त कुण्ड में स्नान कर सभी नई ऊर्जा के साथ लबरेज थे और बापिसी के नए सफर के लिए जिज्ञासा एवं रोमाँच से भरे हुए थे, क्योंकि यह यात्रा रसोल टॉप से होकर मलाना तथा आगे भुचकरी टॉप से होकर सम्पन्न होनी थी, जो अधिकाँश लोगों के लिए एक नया रास्ता था।

मणिकर्ण से प्रस्थान कर काफिला पार्वत नदी पर बने तंग गलु को पार कर लेफ्ट बैंक के मुख्य मोटर मार्ग के संग आगे बढ़ते हुए कसोल पहुँचता है, जहाँ विदेशी पर्यटकों का जमखट लगा रहता है। इस्रायल से पधारे पर्यटकों की बहुलता के कारण इसे मिनी इजराइल भी कहा जाता है। यह खीरगंगा और मलाना गाँव के लिए एक तरह से बेसकैंप का भी काम करता है। अपनी इस विशेषता के साथ यहाँ की शीतल आवोहवा विदेशियों की तरह भारतीय सैलानियों को भी आकर्षित करती है, जिनके जमावड़े को भी यहाँ देखा जा सकता है। 

कसोल में पार्वती नदी पर बने पुल को पार कर देव-काफिला राइट बैंक की नई घाटी में प्रवेश करता है।

उस पार से कसोल कस्वे का विहंगम दृश्य

लगभग आधा घंटा हल्की चढ़ाई को पार करते हुुए छलाल गांव आता है, काफिला इसके पीछे से होते हुए बढ़ी-बढ़ी चट्टानों और चीढ़ के जंगल को पार करते हुए आगे बढ़ता है। छलाल से रसोल लगभग 6 किमी है, जो यात्रियों के अनुभव के स्टेमिना के अनुरुप डेढ़-दो से चार घंटे में तय होता है।

चीढ़ के जंगल को पार करता हुआ देव काफिला

गाँव के पीछे रास्ते में कुछ विश्राम होता है। एक हारियान द्वारा कोल्ड ड्रिंक सर्व किया जाता है, जो सबको रिफ्रेश व रिचार्ज करता है। यहाँ से तरोजाता होकर काफिला छलाल नाले पर बने पुल को पार करते हुए रसोल गाँव की ओर बढ़ता है।

छलाल नाले के पुल को पार करता हुआ देव काफिला

इसी के साथ खड़ी चढ़ाई का दौर भी शुरु होता है, हालाँकि बीच में कुछ राहत भरे छोटे पड़ाव भी मिलते रहे। इन्हीं राहों पर
 बुराँश के सुर्ख लाल फूल से लदे वृक्ष यात्रियों का स्वागत करते हैं, जो रास्ते भर एक अलग ही लोक में विचरण का अनुभव देते रहे। मालूम हो कि बुराँश पहाड़ों में एक विशिष्ट ऊंचाई का विरल पौधा है, जिसके फूलों औषधीय गुणों से भरपूर पाए गए हैं, इसके फूलों की चटनी से लेकर जूस तैयार किया जाता है, जो पाचन संस्थान से लेकर ह्दय एवं मस्तिष्क के लिए बहुत लाभकारी माना जाता है।

रास्ते में बुराँश के ंजंगल से गुजरते हुए
निसंदेह रुप में वृक्ष-वनस्पतियों का रंग-बिरंगा संसार सफर के बीच आंखों को ठंडक देता है और मन को सुकून। मस्तिष्क भी इसके बीच अपनी स्थिति के अनुरुप ताने-बाने बुनता रहता है और पग मंजिल की ओर आगे बढ़ते रहते हैं। सदैव की तरह गिरमल देव संग देवशक्तियों का सान्निध्य निसंदेह रुप में एक अभेद्य रक्षा कवच तथा अटल सम्बल का काम कर रहा था। 

छलाल से लगभग ड़ेढ घंटे की कठिन यात्रा के बाद रसोल गाँव के दर्शन होते हैं। चारों और खड़ी पहाड़ियों के बीच एकांत घाटी में बस यह गाँव आश्चर्यचकित करता है। एक मायने में यह गाँव मलाना से भी अधिक रहस्यमयी लगता है कि कैसे लोग तंग घाटी में छिपे इस स्थान में बसे होंगे। मलाना तो फिर भी खुले स्थान पर बसा है। मलाना के विपरीत यहाँ भगवती के महामाया स्वरुप की पूजा की जाती है और मलाना की ही तरह यहाँ भी मंदिर परिसर में बाहर से पधारे लोग एक सीमा के अंदर मंदिर में प्रवेश नहीं कर सकते तथा न ही चीजों को छू सकते। 
यात्रियों के जीवट की परीक्षा लेती खड़ी चढ़ाई

गाँव की दुकानों से कुछ यात्री आगे के मार्ग के लिए कुछ राशन (पाथेय) खरीदते हैं। रसोल गाँव कसोल से मलाना गाँव के बीच के ट्रैक का मुख्य पड़ाव है। गाँव को पार करते ही सफर की कठिन चढ़ाई भी शुरु हो जाती है।

गहरी घाटी की ढलान पर बसे रसोल गाँव का विहंगम दृश्य

रसोल गाँव को पार करते-करते मुसलाधार बारिश शुरु हो जाती है, पत्थरीला रास्ता और फिसलन भरा हो जाता है। इसी के साथ रसोल गाँव के पीछे खड़ी चढ़ाई को धीरे-धीरे पार करते हुए काफिला आगे बढ़ता है। 

इसे पार करते हुए लगभग ड़ेढ घंटे बाद शाम 6.35 बजे काफिला रसोल टॉप के नीचे खेचुमारु स्थान पर रुकता है। चट्टानी बुग्याल के संग प्रकृति की गोद में आज की रात्रि विश्राम का ठिकाना निसंदेह रुप में रोमाँचप्रेमियों के एडवेंचर की भूख को शांत करने वाला रहा। 

रसोल टॉप के नीचे वीहड़ वन में रात्रि विश्राम की व्यवस्था

यहीं पर रात्रि विश्राम व भोजन की व्यवस्था होती है और प्रातः यहाँ से रवाना होते हैं। रोज की तरह रात को तंबुओं में मोबाइल व टॉर्च की व्यवस्था और बाहर चुल्हे में प्रज्जवलित आग अंधेरे में रोशनी के साधन थे। बाकि दिन भर की थकान के बाद खा-पीकर सभी लोग अपने तंबु्ओं में सो जाते हैं।

प्रातः आगे के सफर की तैयारी के साथ देव-काफिला

प्रातः देव-काफिला तैयार होकर अगले सफर के लिए चल पड़ता है, जिसकी मंजिल थी मलाना गाँव वाया छोरोवाई।

काफिले में 50-60 सदस्य देवता (की टीम) के साथ के थे, जिनमें 10-12 बाजा बजाने बाले बजंतरि, 10 नरकाहल बजाने वाले। फिर सभी देवी-देवताओं के एक-एक गुर व पजियारे। 8 बारी और उनके साथ 1 साथी-सहचर, इस तरह 16 और इनके साथ कारदार सहित देवता के अन्य सेवक। इनके भोजन की व्यवस्था देवता की तरफ से होती थी। इनका भोजन बड़े पतीले (पोतलू) व वर्तनों में तैयार होता है। पहले देवता को भोग लगता है और फिर भोजन-प्रसाद ग्रहण किया जाता है और फिर वर्तन साफ। इसके बाद की आगे की यात्रा शुरु होती थी। बाकि 200 लोग अपना-अपना भोजन अपने समूह में बनाते हैं।

खेचुमारु से रसोल टॉप की ओर अब तक के सफर का सबसे कठिन पड़ाव पूरा होना था। एकदम सीधी खड़ी चढ़ाई के संग तीर्थ यात्रियों के जीवट की अग्नि परीक्षा का दौर जैसे शुरु होता है। 

रसोल टॉप की ओर - अब तक का सबसे कठिन व थकाऊ ट्रैक

दिन 5 – रसोल टॉप से होकर मलाणा गाँव,

प्रातः 6.45 पर काफिला खेचुमारु से रवाना होता है और एकदम खडी चढाई के साथ लगभग एक घंटे की कठिन यात्रा के बाद कसोल टॉप पहुँचता है, जहाँ हल्के स्नोफॉल के साथ स्वागत होता है। 

बर्फ के बीच सफर का रोमाँचक एवं कठिन दौर

लगता है कि जैसे घाटी की देवशक्तियों द्वारा देव काफिले का विशिष्ट स्वागत-अभिसिंचन किया जा रहा हो। 

बर्फ के बीच रसोल टॉप की फिसलन भरी राहों को पार करते हुए

रसोल टॉप से उस पार सीधे दूर नीचे चंद्रखणी धार (रिज) के दर्शन हो रहे थे, जिसे घाटी का पावन क्षेत्र माना जाता है व ठारा करड़ु देवी-देवताओं का उद्गम स्थल। हालाँकि धुंध के कारण नजारा बहुत साफ नहीं था। रसोल टॉप पर पहले से जमी हुई बर्फ भी मौजूद थी, जिस कारण फिसलन भरी राह में सावधानी के साथ रास्ता पार करना पड़ रहा था। अगले लगभग आधे घंटे का सफर इसी तरह तय होता है।

टॉप से उतराई भरे रास्ते में नीचे उतरते हुए लगभग ड़ेढ घंटे बाद सुबह 10.30 तक छोरोवाई स्थान पर पहुँचते हैं, जहाँ बारिश शुरु हो जाती है। 

छोरोवाइ में बारिश के बीच देवकाफिला देवदार के वृक्ष की शरण में

यहां मार्ग से मलाणा गाँव के दर्शन घाटी के उस पार प्रत्यक्ष थे। विश्व का प्राचीनतम लोकतंत्र मलाना कभी अपनी पुरातन संस्कृति व पारम्परिक घर-गांव के लिए जाना जाता था। लेकिन आज यह आधुनिकता के दौर में प्रवेश कर शहरनुमा स्वरुप ले चुका है। हरी चादर से ढके चार मंजिला घर यहाँ की बढ़ती समृद्धि औऱ आधुनिकता की कहानी व्यां करते हैं। हालाँकि यहाँ के अधिकांश घर भूकम्परोधी काठकुणी शैली से बने हुए हैं और कुछ ही सीमेंट के लैंटर होंगे।

छोरोवाई से उस पार मलाना गाँव का विहंगम दृश्य

घाटी के बीच में नीचे मलाणा नाला बह रहा था। जैसे ही खाना बनाना शुरु करते हैं बारिश और तेज हो जाती है और झमाझम बारिश के बीच चुल्हे जलते हैं, भोजन तैयार होता है। सभी भोजन-प्रसाद ग्रहण करते हैं और बारिश के बीच ही आगे चलना शुरु करते हैं, क्योंकि बारिश थमने का नाम ही नहीं ले रही थी। इस तरह काफिला दोपहर के 2.30 बजे आगे बढ़ता है और सभी यहाँ से सीधा नीचे उतरते हुए मलाणा नाला पहुँचते हैं। रास्ते में जरी-मलाना के लिए निर्माणाधीन सड़क को पार करते हुए नीचे मलाना नाले को पार करते हैं और फिर खड़ी चढ़ाई के संग मलाना गाँव की ओर बढ़ते हैं। बारिश रास्ते भर थमने का नाम नहीं ले रही थी।

शाम 6 बजे देव काफिला बारिश के बीच मलाणा गांव पहुँचता है। रास्ते में काफिला पूरी तरह से भीग चुका था, जिसके कारण पीठ में लदा सामान भी भारी हो गया था। बरसाती भी काम नहीं आ रही थी, उसमें भी पानी व नमी घुस गई थी। लगा कि बढ़िया पॉलीशीट ऐसी स्थिति के लिए आवश्यक है, जिससे यात्रियों से लेकर उनके बेग बारिश से सुरक्षित रह सके। रास्ते भर बारिश के इस मंजर के बीच मोबाइल खोलने की फुरसत नहीं थी, अतः इस रास्ते की कोई फोटो नहीं खींच सके।

रास्ते में ही लैंड-स्लाईड (भूस्खलन) की लोमहर्षक घटना घटती है, जिसमें मल्बे के साथ एक बहुत बड़ी चट्टान कई टुकड़ों में चटककर तीव्र वेग के साथ नीचे गिरती है। काफिले के 8-10 लोग इसकी चपेट में आ जाते हैं और इनके सर के ऊपर से चट्टान के टुकड़े गिरते हैं और ये किसी तरह बाल-बाल बचते हैं। लगा कि जैसे दैवी संरक्षण ने रक्षा क्वच की भाँति सबको सुरक्षित इस प्राकृतिक आपदा के पार लगा दिया हो।

मलाना गाँव में प्रवेश करते हुए देवकाफिला

मलाना पहुँचने पर मलाणा वासियों द्वारा देव काफिले के देउड़ुओं की भावभरी आव-भगत होती है। हर घर के लिए 2-4 खिंडु (मेहमान) बाँटे जाते हैं। गाँववासी उसी हिसाब से मेहमानों को अपने-अपने घर में ठहराते हैं, भोजन कराते हैं। गिरमल देवता को गाँव में देवप्रांगण के भण्डार (विशिष्ट विश्रामगृह) में ठहराया जाता है।

मलाना गाँव का ह्दय क्षेत्र, देव प्रांगण (देउए-री-सोह)

देवता सहित देवलुओं की यह स्वागत व मेहमानवाजी कुल्लू घाटी की देवसंस्कृति की आतिथ्य-सत्कार को देव-परम्परा का एक अभिन्न हिस्सा है। घरों में आग के चुल्हे व तंदूर जल रहे थे। सभी गीले कपड़े सुखाते हैं। बाहर ठंड का अनुमान लगा सकते हैं, जो यह गाँव समुद्र तल से लगभग दस हजार (9,938) फीट की उंचाई पर बसा है।
मालूम हो कि मलाना विश्व के सबसे प्राचीन लोकतंत्र व्यवस्था के लिए जाना जाता है, जहाँ इसके अपर और लोअर हाउस हैं। गाँव की पूरी शासन व न्याय व्यवस्था जमलू देवता (ऋषि जमदग्नि) के इर्द-गिर्द केंद्रित है। निर्धारित नियमों का सख्ती से पालन किया जाता है। मंदिर परिसर में बाहर से आए लोगों को पावन क्षेत्र में प्रवेश का निषिध रहता है और वे हर चीज को छू नहीं सकते। संभवतः इस नियम के चलते गाँव की कुछ पावनता बची हुई है। मलानावासियों की देव आस्था इतनी प्रबल है कि देवता जमलू की हर बात को पत्थर की लकीर माना जाता है तथा इसका हर कीमत पर पालन किया जाता है।

रात्रि विश्राम के बाद सुबह 6 बजे देव काफिला देव प्रांगण (देउए-री-सोह) में एकत्र होता है, और 6.40 पर आगे के लिए कूच करता है।

आगे के सफर के लिए कूच की तैयारी में देव-काफिला

मलाणा गाँव की कच्ची-पक्की पगडंडियों के बीच देव-काफिला आगे बढ़ता है। और पंद्रह मिनट में गाँव को पार करते हुए अगली धार पर पहुंचता है और गाँव पीछे रह जाता है और धार के उस पार नई घाटी में प्रवेश होता है। (जारी, भाग-3, मलाना से बनोगी एवं घर बापसी वाया दोहरा नाला-भुचकरी टॉप)

बुधवार, 8 मई 2024

भावयात्रा - गिरमल देवता संग तीर्थ-स्नान यात्रा का रोमाँच, भाग-1


बनोगी से मणीकर्ण तीर्थ एवं बापसी वाया मलाना

तीर्थयात्रा का सबसे रोमाँचक एवं यादगार पड़ाव - दिव्य लोक में विचरण की अनुभूति

25 अप्रैल से 2 मई 2024

भाग-1

दिन 1 – पनाणी शिला से हाअंणीथाच,

दिन 2 – हाअंणीथाच से सूमा रोपा, मणिकर्ण घाटी

दिन 3 – सूमारोपा से मणिकर्ण तीर्थ,

भाग-2

दिन 4 – मणिकर्ण तीर्थ से रसोल टॉप की ओर,

दिन 5 – रसोल टॉप के नीचे से मलाणा गाँव,

भाग-3

दिन 6 – मलाणा गाँव से दोहरा नाला

दिन 7 – दोहरा नाला से नरेंइंडी

दिन 8 – नरेंइंडी से बनोगी एवं घर

..........................................................................................

भाग - 1 

बनोगी से मणीकर्ण तीर्थ वाया पीणी-कसोल

देवभूमि कुल्लू-मणीकर्ण हिमालय की दिलकश वादियों में

दिन 1 – पनाणी शिला से हाअंणीथाच

दिन 2 – हाअंणीथाच से सूमा रोपा, मणिकर्ण घाटी

दिन 3 – सूमारोपा से मणिकर्ण तीर्थ

कुल्लू घाटी में ठारा करड़ु देवी-देवताओं का विशेष महत्व है, जिन्हें कुल्लू घाटी के मूल या आदि देवता माना जाता है। इनकी कहानी जमलू देवता (ऋषि जमदग्नि) के साथ प्रारम्भ होती है, जिनका केंद्रीय स्थल मलाना है। इन देवताओं की तीर्थयात्रा एवं स्नान की धार्मिक परम्परा उल्लेखनीय है। कुछ हर वर्ष जलतीर्थों में जाकर स्नान करते हैं, जो कुछ नियत अन्तराल पर। बनोगी गाँव में पर्वत शिखर के आंचल में विराजमान गिरमल देवता की तीर्थयात्रा इस बार 25 वर्षों के उपरान्त हो रही थी, अतः यह स्वयं में एक ऐतिहासिक घटना थी। साथ में शामिल कुछ लोगों की यह पहली यात्रा थी और अधिकाँश लोगों की संभवतः यह इस जीवन की अंतिम यात्रा थी।

मालूम हो कि कुल्लू घाटी में संभवतः गिरमल ऐसे एकमात्र देवता हैं, जिनका सम्बन्ध भगवान गौतम बुद्ध से भी माना जाता है। गांववासी तो इन्हें गौतम बुद्ध ही मानते हैं। करड़ु में रखी गई देवप्रतिमाओं में मुख्य प्रतिमा बुद्ध भगवान की ही है। कुछ छोटी प्रतिमाएं भी इन्हीं की प्रतीत होती हैं। इनकी भारथा (देववाणी) में भी इसी के संकेत मिलते हैं, जो गंभीर शोध-अनुसंधान का विषय है।

इससे पूर्व जब गिरमल देवता का मंदिर जल कर राख हो गया था, तो नए मंदिर की प्रतिष्ठा होने पर वर्ष 1986 में मणिकर्ण स्नान यात्रा सम्पन्न हुई थी। फिर वर्ष 1999 में जब देवता का नया गुर बना था, तो अगली स्नान यात्रा सम्पन्न हुई थी। इनसे पूर्व हमारे छोटे दादाजी गिरमल देवता के गुर की भूमिका निभा चुके थे। वर्ष 1999 के बाद इस वर्ष नया मंदिर बनने व यहाँ देव स्थापना के बाद 25 वर्ष के अन्तराल में मणिकर्ण तीर्थ की स्नान यात्रा का दिव्य संयोग बन रहा था।

गहरी घाटी के विहड़ मार्ग

25 अप्रैल 2024 को बनोगी गाँव से गिरमल देवता के साथ देउड़ू (जिनमें लगभग 50-60 लोग देवता की टीम के सदस्य थे, जैसे - काइस भगवती दशमी वारदा, वरिंडु देवता, थान देवता, पनाणु देवता, भगवती भागासिद्ध के गुर-पजियारे (पुजारी), वजंतरि (बाजा बजाने वाले) बारी (काम करने वाले) देवता के मेम्बर (सदस्य), कठियाला (भोजन व्यवस्था संभालने वाले), पाल्सरा (कैशियर) और कारदार (देवता के प्रबन्धक) इत्यादि। इनके साथ देवता के गांववासी परिजन अर्थात् हारियान (जिनमें चार बेड़ु और तराई ग्रांइं (तीन गाँवों के निवासी) शामिल थे। कुलमिलाकर देवता के साथ आगे-पीछे लगभग 250 लोगों का देव काफिला शामिल था। इतने बड़े दलबल के साथ पर्वत शिखरों को पार करते हुए यह आठ दिवसीय यात्रा स्वयं में दुर्लभ सौभाग्य तथा एक विरल अवसर थी प्रकृति एवं रोमाँचप्रेमी घुमक्कड़ आस्थावानों के लिए।

बीहड़ जंगल में विचरण करती भेड़ों एवं फुआलों (चरवाहों) के संग

पहला पड़ाव था बनोगी गाँव के पास नीचे घाटी में पनाणी शिला का पावन मैदान, जो पनाणु देवता के साथ जोगनियों का निवास स्थान है। गगनचुंबी मोहरु और वृहदाकार माहुनि के वृक्षों के नीचे मैदान में श्रद्धालुजन सुबह 10 बजे से एकत्र होना शुरु होते हैं। आस-पास व दूर-दराज के क्षेत्रों के हर घर का एक व्यक्ति इसमें शामिल था। अपवाद रुप में ही किसी एमरजेंसी के कारण किसी घर से कोई व्यक्ति इसमें शामिल न पाया हो। आखिर घाटी की देवशक्तियों के संग तीर्थ यात्रा के ऐसे परमसौभाग्य से कौन अभागा वंचित रहना चाहेगा।  

देवशक्तियों के संग देव-काफिला

दिन 1 – पनाणी शिला से हाअंणीथाच,

दोपहर 2.30 बजे सभी एकत्र लोग यहाँ से कूच करते हैं और चढ़ाईदार रास्ते से होते हुए आगे बढ़ते हैं।

घाटी-पहाड़ों को लांघती तीर्थ यात्रियों की बलखाती लम्बी रेल

रास्ते में खाकरी टोल (चट्टान) (जिसमें भोटी भाषा में अंकित शब्द हैं, क्या लिखा है अभी तक ज्ञात नहीं) के पीछे से होकर खड़ी चढ़ाई को पार करते हुए हाअंणीथाच पहुँचते हैं। पनाणी नाला के कभी दाएं तो कभी वाएं ऊपर चढते हुए यहाँ रई-तोस के आकाश चूमते वृक्षों के बीच काफिला 5 बजे हाअंणीथाच पहुँचता है, जो ग्रीष्मकाल में भेड़-बकरियों व मवेशियों के पालक फुआलों व गवालों के रुकने का अस्थायी ठिकाना रहता है। 

रास्ते में कुम्हार-री-वाई स्थान पर थोड़ा विश्राम होता है, जहाँ से गाहर गाँव के लिए पानी की स्पलाई की जाती है।

हाइंणीथाच में नग्गर बिजलीमहादेव की कच्ची सड़क के संग व ऊपर-नीचे समतल स्थान पर तम्बूओं की कतार बिछ जाती है। देउलू देवता की सांयकालीन पूजा करते हैं और इसके बाद सभी अपना भोजन तैयार करते हैं।

यहाँ रात्रि को भोजन के बाद सभी अपने-अपने समूह में एकत्र हो, गुफ्तगू का आनन्द लेते हैं।

विहड़ जंगल की नीरव शांति के मध्य बिताए कुछ यादगार पल

जंगल की नीरव शांति के बीच एकांतिक प्राकृतिक जीवन के संग ऐसी रात कोई सामान्य अनुभव नहीं था, जो अगले कुछ दिनों तक नित्य का क्रम बनने वाला था। रात्रि निद्रा-विश्राम के बाद देव काफिला प्रातः कूच करता है, जिसका पड़ाव था मणिकर्ण घाटी का सूमा रोपा जो वाया सूरजडूगा, पीणी होकर कवर होता है।

दिन 2 – हाअंणीथाच से सूमा रोपा, मणिकर्ण घाटी

दूसरे दिन इस तीर्थयात्रा का सबसे लम्बा ट्रैक सावित होने वाला था।

सुबह 6.15 बजे देव काफिला गिरमल देवता संग कूच करता हैं। बिल्कुल खड़ी चढाई के साथ देवदार, रई-तौस के जंगलों के बीच 1.5 घंटे बाद दल सूरजडुगा टॉप पहुँचता है, जहाँ से दूसरी ओर मणीकर्ण घाटी का विहंगम दृश्य आंशिक रुप में प्रत्यक्ष था, जहां से उस पार ढलानदार घाटी में धारा, शॉट व जलुग्राँ जैसे इलाके दिख रहे थे। आधा घंटा नीचे उतरने के बाद काफिला 8.30 तक सूरजडूगा पहुँचता है।

सूरजडूगा के बुग्याल मध्य विश्राम पड़ाव

खुले बुग्याल में बीचों-बीच एक जल स्रोत के पास सभी रुकते हैं और खाना बनाने की तैयारी करते हैं, सुबह की पूजा अर्चना होती है। इसके बाद सभी अपना लंच कर समान समेटते हुए 11.45 तक आगे कूच करते हैं।

इसके बाद हल्की उतराई के साथ टेढ़े-मेढ़े रास्ते से नीचे उतरते हुए दल पीणी की तरफ नीचे उतरता है। और 1.30 बजे तक पीणी से होकर गुजरता है।

थकाउ सफऱ के बीच विश्राम के कुछ पल

यहाँ गाँव के पीछे हल्का विश्राम होता है। मालूम हो कि पीणी गाँव भगवती भागासिद्ध का ठिकाना है, जिसे ठारा करड़ु देवताओं की बहन माना जाता है।
पहाड़ों की गोद में बसे पीणी गाँव का विहंगम दृश्य

साथ ही किवदंतियों के अनुसार ये काईस भगवती दशमी वारदा की छोटी बहन मानी जाती हैं। यहाँ के सामने से जरी साईड की मणीकर्ण घाटी का विहंगम दृश्य देखते ही बनता है। ढलानदार कच्ची पगडंडियों के संग काफिला नीचे पार्वती नदी तक पहुँचता है।

सीधी उतराई के संग यात्रा का कठिन दौर

पार्वती नदी पर बने ब्लादी पुल को पार करना काफिले को भय मिश्रित रोमाँच के साथ तरंगित करता है, क्योंकि लकड़ी से बना यह पुल खूब झूलता है। काफिला लेफ्ट बैंक में जरी के नीचे से होते हुए आगे चोउखी, ढुंखरा को पार करते हुए रात 8.30 तक दूसरे दिन के पड़ाव सूमा रोपा पहुँचता है। आज का ट्रैक बहुत ही थकाऊ रहा। लगा कि ब्लादी पुल के पास रुकते तो बेहतर होता। हालाँकि रुकने का पारम्परिक ठिकाना ढुंखरा है, लेकिन पर्य़टकों की भीड़ और बढ़ती आवादी के कारण अब यहाँ रुकने का खुला स्थान नहीं बचा है। शमशान के पास तो पर्याप्त जगह थी, लेकिन यहाँ रुकने का कोई औचित्य नहीं लगा। सो काफिला आगे बढ़ता है और सूमा रोपा के खुले मैदान में रात का ठिकाना बनता है, जहाँ कुछ वन विभाग, तो कुछ प्राइवेट जगह थी, जिसका कैंपिंग साइट के रुप में उपयोग किया जाता है।

सूमा रोपा में रात्रि विश्राम का विहंगम दृश्य

अंधेरे में रात का भोजन तैयार होता है। आज थकावट इतनी थी कि लोगों के पास पिछली रात की तरह आपसी गुफ्तगू की हिम्मत नहीं थी। पेटपूजा के बाद सभी निद्रा देवी की गोद में चले जाते हैं। कुछ पिछले दिन भर की थकान, तो कुछ आज की मंजिल के समीप होने की निश्चिंतता – काफिला प्रातः उठकर आराम से सुबह 11.35 तक दिन का स्नान ध्यान और भोजन-प्रसाद ग्रहण करता है, फिर आगे बढ़कर कसोल वन विभाग के गेस्ट हाउस में थोड़ा विश्राम करता है तथा आज की मंजिल मणिकर्ण तीर्थ की ओर बढ़ता है, जो यहाँ से लगभग 6 किमी दूर पड़ता है।

अगले पड़ाव मणिकर्ण की ओर देव-काफिला

दिन 3 – सूमारोपा से मणिकर्ण तीर्थ,

देव काफिला कसोल, गुज जैसे पडावों को पार करते हुए शाम 4 बजे मणीकर्ण पहुँचता है। कसाेल इस घाटी का एक प्रमुख कस्वा है, जिसमें वहुतायत में विदेशी सैलानी (इस्रायल से) आते हैं। आजकल तो भारत के शहरी सैलानी भी गर्मियों में यहाँ काफी मात्रा में आ रहे हैं। देवदार के घने वनों के बीच बसा यह पहाड़ी कस्बा गर्मी में भी ठण्डी आवोहवा लिए रहता है, जो इसके आकर्षण का एक प्रमुख कारण बनता है।

कसोल से होकर देव काफिला जैसे ही मणिकर्ण के प्रवेश, तंग गलू के पास पहुँचता है, बारिश शुरु होती है। लगा कि जैसे देवशक्तियाँ गिरमल देवता सहित पूरे दल का स्वागत अभिसिंचन कर रही हों। इस अभिसिंचन के बीच पार्वती नदी को पार कर मणिकर्ण में प्रवेश होता है, जो देवता का पारम्परिक प्रवेश मार्ग है। मालूम हो कि यहाँ दो बड़ी चट्टानों के बीच पार्वती नदी गर्जन-तर्जन करती हुए बहुत ही संकरे मार्ग (गलु) से नीचे की ओर प्रवाहित होती है।

गिरे पेड़ पर बने पुल को पार करता हुआ देव-काफिला

इस पर बने पक्के पुल को पार कर दल राइट बैंक में पहुँचता है और बरसात में खाई पर गिरे एक वृहद पेड़ के अस्थायी पुल के ऊपर धीरे-धीरे बढ़ते हुए पार होता है, जिसे पार करने में ठीक-ठाक समय लग जाता है और इसके बाद गुरुद्वारा को पार करते हुए काफिला मणीकर्ण पहुँचता है।

पावन तप्त कुण्ड से झरती अखण्ड जल राशि

शाम को सभी तीर्थ यात्री यहाँ के गर्मकुण्डों में स्नान करते हैं। पिछले दो-तीन दिनों से लगातार सफर की थकान गर्म कुण्ड में डूबकी लगाते ही जैसे छूमंतर हो जाती है और सभी देउलू तरोताजा हो जाते हैं। इस तीर्थस्थल में लगाई गई भावभरी डुबकी भक्तों को समाधि सुख सा आनन्द देती है, जिसमें जीवन के सकल भय, चिंता, शोक, द्वन्द और विक्षोभ शांत हो जाते हैं। खासकर सर्दी में तो कोई भी आस्थावान यात्री इस अनुभव का साक्षी बन सकता है।

स्नान के बाद सभी अपने-अपने ठिकानों पर कुछ मंदिर परिसर में तो कुछ होटल में और कुछ परिचित लोगों के घर में रुकते हैं। देवता का स्नान निर्धारित स्थान पर नियमानुसार प्रातः होता है, जबकि बाकि लोगों के लिए कई कुंड बने हुए हैं। कुछ रघुनाथ परिसर में, तो कुछ इसके पास बाहर। देवता के साथ पहाड़ लाँघ कर पैदल आए 250 लोगों के अतिरिक्त गाँव-फाटी के लगभग 4-500 श्रद्धालु भी वाया रोड़ बस व अपने वाहनों में यहाँ पहुँचे थे, जिनमें अधिकाँश महिलाएं, बुजुर्ग तथा नौकरी-पेश वाले लोग थे। सभी पूजन में शामिल होते हैं।


विधि विधान से देवता के स्नान व पूजा-पाठ के बाद बड़ा भण्डारा दिया जाता है, जिसमें सभी भोजन-प्रसाद ग्रहण कर अपने-अपने घर लौटते हैं और देव काफिला भी नए रुट पर बापिसी का सफर तय करता है। मालूम हो कि घाटी के स्थानीय लोग मणिकर्ण के पवित्र जल को गंगाजल की तरह पावन मानते हैं, जिसे वर्तनों व लोटों में भरकर घर ले जाया जाता है और विशेष अवसरों पर मंगल कार्यों में इसका उपयोग होता है। आस्थावान को इस पावन जल के लिए पैदल पहाड़ों को लांघते हुए आते हैं और बापिस पैदल ही अकेले तथा एक-दो दोस्तों के साथ यहाँ आते हैं। मनुष्य तो क्या, घाटी के देवी-देवता तक यहाँ के पुण्य स्नान के अवसर को नहीं चूकते और रोमाँचक यात्रा पूरी करते हुए इस पावन तीर्थ में स्नान करते हैं। (जारी, भाग-2, मणीकर्ण से मलाना वाया रसोल टॉप)
आगामी राह में हाड़ जमाती ठंड के बीच प्रज्जवलित अग्नि के संग


शुरुआती पड़ाव के कुछ यादगार पल

गुरुवार, 25 अप्रैल 2024

यात्रा वृतांत – कुल्लू घाटी के एक रिमोट शिखर की ओर

 

डुग्गीलग घाटी में ऋषि जम्दग्नि के प्रांगण तक


सितम्बर 2023 का पहला सप्ताह, हिमालय के पहाड़ी आंचलों में जुलाई-अगस्त की बरसात के बाद हरियाली की चादर ओढ़े धऱती माता, फूलों के गलीचों के साथ सजे बुग्याल, चारों ओर दनदनाते नदी-नाले, मौसम न अधिक गर्म न सर्द – निसंदेह रुप में पहाड़ों का प्राकृतिक सौंदर्य़ इस समय अपने पूरे श्बाव पर था, जो प्रकृति प्रेमी घुमक्कड़ों को सहज ही यात्रा का मूक निमंत्रण दे रहा था।

कुल्लू से छोटे भाई के संग सफर शुरु होता है घर से। कुछ ही मिनटों में कुल्लू शहर के ढालपुर मैदान के पास सीनियर सैकेंडरी स्कूल से वाहन दाईं ओर यू-टर्न लेता है, एक नई घाटी में प्रवेश होता है, यह है कुल्लू की डुग्गी लग वैली। नाम के अनुरुप यह डुग्गी अर्थात गहरी घाटी है और संकरी भी। दो-तीन वर्ष पहले मैं इस घाटी के दर्शन के लिए हिमाचल रोडवेज की बस में कुल्लू से कोलंग तक गया था। यह रुट मुझे एक अलग ही दुनियाँ में विचरण की अनुभूति दे गया था और रहस्य रोमाँच का जखीरा लगा था।

इस बार हम इस रास्ते पर पहले ही भुटटी मार्ग से मुड़ जाते हैं और धीरे-धीरे वाइं ओर यू-टर्न लेते हुए ऊपर बढ़ रहे थे, क्योंकि आज की हमारी मंजिल काइस धार की ओर थी। इसके बारे में पढ़ा-सुना बहुत था, लेकिन कभी जाने का अवसर नहीं मिला था। बिजली महादेव की ओर यात्रा के दौरान उस पार घाटी से यहाँ के दूरदर्शन किए थे। और आज पहली बार इस रुट पर जाने के कारण हमें नहीं मालूम था कि हम बहाँ तक कैसे व कब पहुँचने वाले हैं, बस कुछ अनुमान, तो कुछ रास्ते में यहाँ के लोगों से पूछते हुए आगे बढ़ रहे थे।

क्रमिक रुप में हम संकरी सड़क के साथ पहाड़ी में ऊपर चढ़ रहे थे। रास्ते में कई जगह तो मोड़पर गाड़ी को बैक कर पार करना पड़ रहा था और सामने की तंग घाटी के उस पार के गाँव एक-एक कर दर्शन दे रहे थे, इस एकांत विरान घाटी में लोगों के बसेरे, वे भी ढलानदार पहाड़ों की गोद में, कहीं-कहीं तो बिल्कुल शिखर के नीचे, जहां अभी सही ढंग से सड़कें भी नहीं पहुँची हैं। मन में विचार आ रहे थे कि ये पैदल ही कितने श्रम के बाद वहाँ पहुंचते होंगे। बीमार होने पर या एमरजेंसी में कैसे जीवन को संभालते होंगे। लेकिन प्रकृति की शांत, एकांत इन वादियों को देखकर लग रहा था कि स्वस्थ लोगों के लिए ये चिंताएं अधिक नहीं सताती होंगी। इस क्रम में हम आधे दर्जन गाँवों के दर्शन कर चुके थे, जिनके नाम भाई बता रहा था, जिनमें कुछ तो हमने पहले सुने थे व कुछ एकदम नए लग रहे थे।

लगभग एक घंटे बाद खड़ी चढ़ाई लगभग पूरी हो चुकी थी। अब हम हल्की चढ़ाई के साथ सीधे रास्ते पर आगे बढ़ रहे थे। सड़क के दोनों ओर सेब के उभरते हुए छोटे बगीचे दिख रहे थे, देवदार के पेड़ खेत व बगीचों के बीच झांक रहे थे, कहीं-कहीं देवदार के घने जंगल से सफर बढ़ रहा था, जो हमेशा की तरह सफर के हमारे रोमाँच व जोश को सातवें आसमान में उछाल रहा था। सड़क में एक समय एक ही वाहन सही ढंग से पार हो सकता था, दूसरे वाहन के आने पर आगे या पीछे मोड़ पर जाकर पास लेना पड़ रहा था। काफी चुनौतीपूर्ण मार्ग दिख रहा था, लेकिन यहाँ के प्राकृतिक सौंदर्य़ के सामने ऐसी सारी कठिनाईयाँ गौण लग रही थी। हाँ, भाई के ड्राइविंग कौशल की कठिन परीक्षा अवश्य हो रही थी।

अब हम जहाँ नीचे ढालपुर मैदान से मुड़े थे, ठीक उसी के ऊपर पहुँच चुके थे। नीचे कुल्लू घाटी का नजारा प्रत्यक्ष था, तो उस पार खराहल घाटी का विहंगम दृश्य, उसके पीछे लेफ्ट बैंक के मनमोहक गगनचुंवी पहाड़ दिख रहे थे। देवदार के वृक्षों से अटी नग्गर से बिजली महादेव की ओर जाने वाली धार (रिज) स्पष्ट दिख रही थी, जिसमें हम कई बार पैदल ट्रेकिंग से लेकर जीप सफारी का एडवेंचर कर चुके हैं। थोड़ी देर में व्यू प्वाइंट पर गाड़ी रुकती है।

इसके थोड़ा नीचे पानी के टैंक दिख रहे थे, जहाँ से नीचे कुल्लू शहर के लिए पानी की सप्लाई की जाती है। इसी प्वाइंट से पैरा ग्लाइडिंग भी की जाती है। नीचे ढालपुर मैदान, उस पार सुलतानपुर, अखाडा बाजार कुल्लू व पीछे पूरी खराहल घाटी तथा नीचे भूंतर और ऊपर बिजली महादेव तथा घाटी के बीचों-बीच ब्यास नदी की पतली सफेद रेखा, एक साथ रोमांचित कर रहे थे, हवा के तेज शीतल झौंके फर-फरकर हमें अपने आगोश में लेते हुए पार हो रहे थे, जैसे वह हमारी अब तक की सारी थकान छूमंतर करते हुए आगे की यात्रा के लिए चार्ज कर रहे थे। यहाँ कुछ पल फोटो, सेल्फी आदि लेते हुए हम लोग आगे बढ़ते हैं।

अब हम सामने खुली घाटी व नए पहाड़ी आंचल में प्रवेश कर चुके थे, जिसके दाईं ओर पहाड़ और जंगल थे, तो नीचे लोगों के खेत व बगीचे, हम सीधा सड़क पर आगे बढ़ते जा रहे थे, बीच में पगडंडी भी मिली थी दाईं ओर से ऊपर जाने की, लेकिन हम काइस धार का बोर्ड ने पाकर सीधा आगे बढ़ते रहे। फिर लगभग आधा घंटा बाद एक गाँव में प्रवेश करते हैं, जिसके अंतिम छोर पर पक्की सड़क का रुट बंद होता है और तीन मंजिले स्कूल के भव्य भवन के दर्शन होते हैं, पता चलता है कि पीज गाँव में पहुँच चुके हैं।

और यह भी पता चलता है कि काईस धार के लिए इस वाहन में नहीं जा सकते, आगे सड़क कच्ची व तंग है, बाइक आदि ही जा सकती है तथा फिर पैदल ट्रेकिंग करनी पड़ती है। जिसके लिए हम आज तैयार नहीं थे। हम तो एक दिन में ही सबकुछ देखकर बापिस आना चाहते थे। गाँववालों के दिशानिर्देश पर हम फिर बापिस होते हैं, पहले दिखी पगडंडी के सहारे ऊपर चढ़ते हैं, जो हमें निर्जन गाँव में पहुँचाती है, दो-चार घर, एक दुकान, और वहीं थोड़ा चौड़े स्थान पर गाड़ी को पार्क करते हैं, जहाँ पहले से कुछ और बाहन भी खड़े थे।

दुकान से कुछ पूजा सामग्री लेकर जाते हैं, और पैदल सीधा खड़ी चढ़ाई पार करते हैं।


लगभग आधा किमी चढ़ाई के बाद हम पहाड़ के शिखर पर एकदम जैसे नए लोक में पहुँच चुके थे। पहाड़ की धार (रिज) पर बना जम्दग्नि ऋषि (जमलू) का मंदिर, चारों ओर चोड़े बुग्याल अर्थात् मखमली हरी घास के मैदान। मालूम हो कि देवभूमि कुल्लू में जमलू देवता के सबसे अधिक मंदिर हैं और ये घाटी के सबसे प्रमुख देवताओं में एक हैं। और ठारह करड़ू देवताओं की कहानी तो इन्हीं के साथ शुरु होती है।

इस स्थल के शुरुआत में एक गगनचुम्बी विशाल देवदार का वृक्ष विशेष ध्यान आकर्षित करता है, लगा कई सौ बर्षों का होगा, पुरखों की कितनी पीढ़ियों की स्मृतियाँ समेटे होगा। हम तो सीधा इसकी गोद में बैठकर कुछ पल आत्मस्थ होकर स्वयं को तन-मन से रिलेक्स करते हैं। और यहाँ से उस पार सामने बिजली महादेव से लेकर माउट नाग और खराहल घाटी के ऊपरी हिस्से के मनोहारी दृश्य को विस्मित होकर मंत्रमुग्ध भाव से निहार रहे थे। लगा कि आजतक हम इस स्थान पर क्यों नहीं आ पाए थे। फिर ये भी अहसास हुआ कि हर कार्य की एक टाइमिंग होती है, जो हर व्यक्ति की नियति व ईश्वर की इच्छा पर निर्भर होती है। फिर देवस्थलों में अपनी इच्छा कहाँ चलती है, यहाँ तो बुलावा आने पर ही यात्रा के संयोग बनते हैं।

इस एकांत शांत परिसर में मन जैसे ठहर सा गया था, समय की गति थम गई थी। आँखें बंदकर अस्तित्व की गहराईयों में जीवन का मंथन हो रहा था। स्थान की वाइव्रेशन कुछ ऐसी थीं कि मन सहज रुप में ध्यानावस्था में पहुँच गया था, लग रहा था कि इसी भावदशा में यहाँ बैठे रहें, लेकिन आज के समय की सीमा इसकी इजाजत नहीं दे रही थी।

अतः आसपास के कुछ जंगली फूल-पत्तियों को तोड़कर, साथ लाई पूजा सामग्री को साथ लेकर मंदिर में प्रवेश करते हैं, धूपबत्ति जलाकर जमलूदेवता की पूजा अर्चना करते हैं और बाहर निकलते हैं। जहाँ छोटे बच्चों का झुंड कौतुहलवश हम लोगों के स्वागत के लिए खड़ा था। प्राइमरी स्कूल के इन नन्हें बच्चों-बच्चियों के साथ कुछ यादगार फोटो खींचते हैं। कुछ दक्षिणां व प्रसाद वाँटते हैं और बाहर मैदान को पार करते हुए, देवदार के पेड़ के नीचे साथ लाई गई भोजन सामग्री के साथ पेट पूजा करते हैं।

इसी बीच भेड़ों का एक झुंड यहाँ के घरे भरे घास के मैदान में चरने के लिए आ चुका था। इनके साथ स्थानीय गाँव के एक वुजुर्ग चरवाहे भी थे, जिसके साथ यहाँ के बारे में कुछ चर्चा होती है और इस क्षेत्र की आधारभूत जानकारियाँ प्राप्त करते हैं, साथ ही काइस धार के बारे में भी अपनी जिज्ञासाओं को शांत करते हैं।

इनकी भेड़ों में कुछ हमारे पास आ जाती हैं, हम इनके संग कुछ यादगार फोटो लेते हैं, लग रहा था कि ये कह रहे हों हम भी तो आखिर प्राणधारी जीव हैं। क्यों हमारी बलि देकर एक दूसरे से अलग किया जाता है। हमें क्यों पूरा जीवन जीने का अधिकार नहीं है। बीच में भेढ़ू और इसके आगे पीछे इसकी वहन भेड़ें हमारे पास बैठे चर रहे थे, काली वाली भेड़ तो जैसे हमारी गोद में सर रखकर विश्राम की मुद्रा में कुछ मौन संवाद कर रही थी।

यहाँ कुछ यादगार पल बिताकर हम नीचे बाहन तक उतरते हैं औऱ फिर उसी रुट पर बापिसी का सफर तय करते हैं। प्राकृतिक सौदर्य से मंडित, एकांत शांत इस स्थल की सघन यादों को समेटे हम घर पहुँचते हैं। एक बार हम पाठकों को रिक्मेंड करेंगे कि कभी कुल्लू आएं, तो ऐसे ऑफबीट स्थलों को अवश्य एक्सप्लोअर करें। भीड-भाड़ से भरे हिल स्टेशनों से अलग ये प्राकृतिक स्थल अपने सौंदर्य़ के साथ एक रुहानी भाव लिए होते हैं, जिसका स्पर्श जीवन को नए मायने दे जाता है और इनकी मधुर यादें समरण करने पर चित्त को गुदगुदाती हैं, सूकून व शांति के दिव्य भाव के साथ आह्लादित करती हैं।


चुनींदी पोस्ट

प्रबुद्ध शिक्षक, जाग्रत आचार्य

            लोकतंत्र के सजग प्रहरी – भविष्य की आस सुनहरी    आज हम ऐसे विषम दौर से गुजर रहे हैं, जब लोकतंत्र के सभी स्तम्...