बुधवार, 8 मई 2024

भावयात्रा - गिरमल देवता संग तीर्थ-स्नान यात्रा का रोमाँच, भाग-1


बनोगी से मणीकर्ण तीर्थ एवं बापसी वाया मलाना

तीर्थयात्रा का सबसे रोमाँचक एवं यादगार पड़ाव - दिव्य लोक में विचरण की अनुभूति

25 अप्रैल से 2 मई 2024

भाग-1

दिन 1 – पनाणी शिला से हाअंणीथाच,

दिन 2 – हाअंणीथाच से सूमा रोपा, मणिकर्ण घाटी

दिन 3 – सूमारोपा से मणिकर्ण तीर्थ,

भाग-2

दिन 4 – मणिकर्ण तीर्थ से रसोल टॉप की ओर,

दिन 5 – रसोल टॉप के नीचे से मलाणा गाँव,

भाग-3

दिन 6 – मलाणा गाँव से दोहरा नाला

दिन 7 – दोहरा नाला से नरेंइंडी

दिन 8 – नरेंइंडी से बनोगी एवं घर

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भाग - 1 

बनोगी से मणीकर्ण तीर्थ वाया पीणी-कसोल

देवभूमि कुल्लू-मणीकर्ण हिमालय की दिलकश वादियों में

दिन 1 – पनाणी शिला से हाअंणीथाच

दिन 2 – हाअंणीथाच से सूमा रोपा, मणिकर्ण घाटी

दिन 3 – सूमारोपा से मणिकर्ण तीर्थ

कुल्लू घाटी में ठारा करड़ु देवी-देवताओं का विशेष महत्व है, जिन्हें कुल्लू घाटी के मूल या आदि देवता माना जाता है। इनकी कहानी जमलू देवता (ऋषि जमदग्नि) के साथ प्रारम्भ होती है, जिनका केंद्रीय स्थल मलाना है। इन देवताओं की तीर्थयात्रा एवं स्नान की धार्मिक परम्परा उल्लेखनीय है। कुछ हर वर्ष जलतीर्थों में जाकर स्नान करते हैं, जो कुछ नियत अन्तराल पर। बनोगी गाँव में पर्वत शिखर के आंचल में विराजमान गिरमल देवता की तीर्थयात्रा इस बार 25 वर्षों के उपरान्त हो रही थी, अतः यह स्वयं में एक ऐतिहासिक घटना थी। साथ में शामिल कुछ लोगों की यह पहली यात्रा थी और अधिकाँश लोगों की संभवतः यह इस जीवन की अंतिम यात्रा थी।

मालूम हो कि कुल्लू घाटी में संभवतः गिरमल ऐसे एकमात्र देवता हैं, जिनका सम्बन्ध भगवान गौतम बुद्ध से भी माना जाता है। गांववासी तो इन्हें गौतम बुद्ध ही मानते हैं। करड़ु में रखी गई देवप्रतिमाओं में मुख्य प्रतिमा बुद्ध भगवान की ही है। कुछ छोटी प्रतिमाएं भी इन्हीं की प्रतीत होती हैं। इनकी भारथा (देववाणी) में भी इसी के संकेत मिलते हैं, जो गंभीर शोध-अनुसंधान का विषय है।

इससे पूर्व जब गिरमल देवता का मंदिर जल कर राख हो गया था, तो नए मंदिर की प्रतिष्ठा होने पर वर्ष 1986 में मणिकर्ण स्नान यात्रा सम्पन्न हुई थी। फिर वर्ष 1999 में जब देवता का नया गुर बना था, तो अगली स्नान यात्रा सम्पन्न हुई थी। इनसे पूर्व हमारे छोटे दादाजी गिरमल देवता के गुर की भूमिका निभा चुके थे। वर्ष 1999 के बाद इस वर्ष नया मंदिर बनने व यहाँ देव स्थापना के बाद 25 वर्ष के अन्तराल में मणिकर्ण तीर्थ की स्नान यात्रा का दिव्य संयोग बन रहा था।

गहरी घाटी के विहड़ मार्ग

25 अप्रैल 2024 को बनोगी गाँव से गिरमल देवता के साथ देउड़ू (जिनमें लगभग 50-60 लोग देवता की टीम के सदस्य थे, जैसे - काइस भगवती दशमी वारदा, वरिंडु देवता, थान देवता, पनाणु देवता, भगवती भागासिद्ध के गुर-पजियारे (पुजारी), वजंतरि (बाजा बजाने वाले) बारी (काम करने वाले) देवता के मेम्बर (सदस्य), कठियाला (भोजन व्यवस्था संभालने वाले), पाल्सरा (कैशियर) और कारदार (देवता के प्रबन्धक) इत्यादि। इनके साथ देवता के गांववासी परिजन अर्थात् हारियान (जिनमें चार बेड़ु और तराई ग्रांइं (तीन गाँवों के निवासी) शामिल थे। कुलमिलाकर देवता के साथ आगे-पीछे लगभग 250 लोगों का देव काफिला शामिल था। इतने बड़े दलबल के साथ पर्वत शिखरों को पार करते हुए यह आठ दिवसीय यात्रा स्वयं में दुर्लभ सौभाग्य तथा एक विरल अवसर थी प्रकृति एवं रोमाँचप्रेमी घुमक्कड़ आस्थावानों के लिए।

बीहड़ जंगल में विचरण करती भेड़ों एवं फुआलों (चरवाहों) के संग

पहला पड़ाव था बनोगी गाँव के पास नीचे घाटी में पनाणी शिला का पावन मैदान, जो पनाणु देवता के साथ जोगनियों का निवास स्थान है। गगनचुंबी मोहरु और वृहदाकार माहुनि के वृक्षों के नीचे मैदान में श्रद्धालुजन सुबह 10 बजे से एकत्र होना शुरु होते हैं। आस-पास व दूर-दराज के क्षेत्रों के हर घर का एक व्यक्ति इसमें शामिल था। अपवाद रुप में ही किसी एमरजेंसी के कारण किसी घर से कोई व्यक्ति इसमें शामिल न पाया हो। आखिर घाटी की देवशक्तियों के संग तीर्थ यात्रा के ऐसे परमसौभाग्य से कौन अभागा वंचित रहना चाहेगा।  

देवशक्तियों के संग देव-काफिला

दिन 1 – पनाणी शिला से हाअंणीथाच,

दोपहर 2.30 बजे सभी एकत्र लोग यहाँ से कूच करते हैं और चढ़ाईदार रास्ते से होते हुए आगे बढ़ते हैं।

घाटी-पहाड़ों को लांघती तीर्थ यात्रियों की बलखाती लम्बी रेल

रास्ते में खाकरी टोल (चट्टान) (जिसमें भोटी भाषा में अंकित शब्द हैं, क्या लिखा है अभी तक ज्ञात नहीं) के पीछे से होकर खड़ी चढ़ाई को पार करते हुए हाअंणीथाच पहुँचते हैं। पनाणी नाला के कभी दाएं तो कभी वाएं ऊपर चढते हुए यहाँ रई-तोस के आकाश चूमते वृक्षों के बीच काफिला 5 बजे हाअंणीथाच पहुँचता है, जो ग्रीष्मकाल में भेड़-बकरियों व मवेशियों के पालक फुआलों व गवालों के रुकने का अस्थायी ठिकाना रहता है। 

रास्ते में कुम्हार-री-वाई स्थान पर थोड़ा विश्राम होता है, जहाँ से गाहर गाँव के लिए पानी की स्पलाई की जाती है।

हाइंणीथाच में नग्गर बिजलीमहादेव की कच्ची सड़क के संग व ऊपर-नीचे समतल स्थान पर तम्बूओं की कतार बिछ जाती है। देउलू देवता की सांयकालीन पूजा करते हैं और इसके बाद सभी अपना भोजन तैयार करते हैं।

यहाँ रात्रि को भोजन के बाद सभी अपने-अपने समूह में एकत्र हो, गुफ्तगू का आनन्द लेते हैं।

विहड़ जंगल की नीरव शांति के मध्य बिताए कुछ यादगार पल

जंगल की नीरव शांति के बीच एकांतिक प्राकृतिक जीवन के संग ऐसी रात कोई सामान्य अनुभव नहीं था, जो अगले कुछ दिनों तक नित्य का क्रम बनने वाला था। रात्रि निद्रा-विश्राम के बाद देव काफिला प्रातः कूच करता है, जिसका पड़ाव था मणिकर्ण घाटी का सूमा रोपा जो वाया सूरजडूगा, पीणी होकर कवर होता है।

दिन 2 – हाअंणीथाच से सूमा रोपा, मणिकर्ण घाटी

दूसरे दिन इस तीर्थयात्रा का सबसे लम्बा ट्रैक सावित होने वाला था।

सुबह 6.15 बजे देव काफिला गिरमल देवता संग कूच करता हैं। बिल्कुल खड़ी चढाई के साथ देवदार, रई-तौस के जंगलों के बीच 1.5 घंटे बाद दल सूरजडुगा टॉप पहुँचता है, जहाँ से दूसरी ओर मणीकर्ण घाटी का विहंगम दृश्य आंशिक रुप में प्रत्यक्ष था, जहां से उस पार ढलानदार घाटी में धारा, शॉट व जलुग्राँ जैसे इलाके दिख रहे थे। आधा घंटा नीचे उतरने के बाद काफिला 8.30 तक सूरजडूगा पहुँचता है।

सूरजडूगा के बुग्याल मध्य विश्राम पड़ाव

खुले बुग्याल में बीचों-बीच एक जल स्रोत के पास सभी रुकते हैं और खाना बनाने की तैयारी करते हैं, सुबह की पूजा अर्चना होती है। इसके बाद सभी अपना लंच कर समान समेटते हुए 11.45 तक आगे कूच करते हैं।

इसके बाद हल्की उतराई के साथ टेढ़े-मेढ़े रास्ते से नीचे उतरते हुए दल पीणी की तरफ नीचे उतरता है। और 1.30 बजे तक पीणी से होकर गुजरता है।

थकाउ सफऱ के बीच विश्राम के कुछ पल

यहाँ गाँव के पीछे हल्का विश्राम होता है। मालूम हो कि पीणी गाँव भगवती भागासिद्ध का ठिकाना है, जिसे ठारा करड़ु देवताओं की बहन माना जाता है।
पहाड़ों की गोद में बसे पीणी गाँव का विहंगम दृश्य

साथ ही किवदंतियों के अनुसार ये काईस भगवती दशमी वारदा की छोटी बहन मानी जाती हैं। यहाँ के सामने से जरी साईड की मणीकर्ण घाटी का विहंगम दृश्य देखते ही बनता है। ढलानदार कच्ची पगडंडियों के संग काफिला नीचे पार्वती नदी तक पहुँचता है।

सीधी उतराई के संग यात्रा का कठिन दौर

पार्वती नदी पर बने ब्लादी पुल को पार करना काफिले को भय मिश्रित रोमाँच के साथ तरंगित करता है, क्योंकि लकड़ी से बना यह पुल खूब झूलता है। काफिला लेफ्ट बैंक में जरी के नीचे से होते हुए आगे चोउखी, ढुंखरा को पार करते हुए रात 8.30 तक दूसरे दिन के पड़ाव सूमा रोपा पहुँचता है। आज का ट्रैक बहुत ही थकाऊ रहा। लगा कि ब्लादी पुल के पास रुकते तो बेहतर होता। हालाँकि रुकने का पारम्परिक ठिकाना ढुंखरा है, लेकिन पर्य़टकों की भीड़ और बढ़ती आवादी के कारण अब यहाँ रुकने का खुला स्थान नहीं बचा है। शमशान के पास तो पर्याप्त जगह थी, लेकिन यहाँ रुकने का कोई औचित्य नहीं लगा। सो काफिला आगे बढ़ता है और सूमा रोपा के खुले मैदान में रात का ठिकाना बनता है, जहाँ कुछ वन विभाग, तो कुछ प्राइवेट जगह थी, जिसका कैंपिंग साइट के रुप में उपयोग किया जाता है।

सूमा रोपा में रात्रि विश्राम का विहंगम दृश्य

अंधेरे में रात का भोजन तैयार होता है। आज थकावट इतनी थी कि लोगों के पास पिछली रात की तरह आपसी गुफ्तगू की हिम्मत नहीं थी। पेटपूजा के बाद सभी निद्रा देवी की गोद में चले जाते हैं। कुछ पिछले दिन भर की थकान, तो कुछ आज की मंजिल के समीप होने की निश्चिंतता – काफिला प्रातः उठकर आराम से सुबह 11.35 तक दिन का स्नान ध्यान और भोजन-प्रसाद ग्रहण करता है, फिर आगे बढ़कर कसोल वन विभाग के गेस्ट हाउस में थोड़ा विश्राम करता है तथा आज की मंजिल मणिकर्ण तीर्थ की ओर बढ़ता है, जो यहाँ से लगभग 6 किमी दूर पड़ता है।

अगले पड़ाव मणिकर्ण की ओर देव-काफिला

दिन 3 – सूमारोपा से मणिकर्ण तीर्थ,

देव काफिला कसोल, गुज जैसे पडावों को पार करते हुए शाम 4 बजे मणीकर्ण पहुँचता है। कसाेल इस घाटी का एक प्रमुख कस्वा है, जिसमें वहुतायत में विदेशी सैलानी (इस्रायल से) आते हैं। आजकल तो भारत के शहरी सैलानी भी गर्मियों में यहाँ काफी मात्रा में आ रहे हैं। देवदार के घने वनों के बीच बसा यह पहाड़ी कस्बा गर्मी में भी ठण्डी आवोहवा लिए रहता है, जो इसके आकर्षण का एक प्रमुख कारण बनता है।

कसोल से होकर देव काफिला जैसे ही मणिकर्ण के प्रवेश, तंग गलू के पास पहुँचता है, बारिश शुरु होती है। लगा कि जैसे देवशक्तियाँ गिरमल देवता सहित पूरे दल का स्वागत अभिसिंचन कर रही हों। इस अभिसिंचन के बीच पार्वती नदी को पार कर मणिकर्ण में प्रवेश होता है, जो देवता का पारम्परिक प्रवेश मार्ग है। मालूम हो कि यहाँ दो बड़ी चट्टानों के बीच पार्वती नदी गर्जन-तर्जन करती हुए बहुत ही संकरे मार्ग (गलु) से नीचे की ओर प्रवाहित होती है।

गिरे पेड़ पर बने पुल को पार करता हुआ देव-काफिला

इस पर बने पक्के पुल को पार कर दल राइट बैंक में पहुँचता है और बरसात में खाई पर गिरे एक वृहद पेड़ के अस्थायी पुल के ऊपर धीरे-धीरे बढ़ते हुए पार होता है, जिसे पार करने में ठीक-ठाक समय लग जाता है और इसके बाद गुरुद्वारा को पार करते हुए काफिला मणीकर्ण पहुँचता है।

पावन तप्त कुण्ड से झरती अखण्ड जल राशि

शाम को सभी तीर्थ यात्री यहाँ के गर्मकुण्डों में स्नान करते हैं। पिछले दो-तीन दिनों से लगातार सफर की थकान गर्म कुण्ड में डूबकी लगाते ही जैसे छूमंतर हो जाती है और सभी देउलू तरोताजा हो जाते हैं। इस तीर्थस्थल में लगाई गई भावभरी डुबकी भक्तों को समाधि सुख सा आनन्द देती है, जिसमें जीवन के सकल भय, चिंता, शोक, द्वन्द और विक्षोभ शांत हो जाते हैं। खासकर सर्दी में तो कोई भी आस्थावान यात्री इस अनुभव का साक्षी बन सकता है।

स्नान के बाद सभी अपने-अपने ठिकानों पर कुछ मंदिर परिसर में तो कुछ होटल में और कुछ परिचित लोगों के घर में रुकते हैं। देवता का स्नान निर्धारित स्थान पर नियमानुसार प्रातः होता है, जबकि बाकि लोगों के लिए कई कुंड बने हुए हैं। कुछ रघुनाथ परिसर में, तो कुछ इसके पास बाहर। देवता के साथ पहाड़ लाँघ कर पैदल आए 250 लोगों के अतिरिक्त गाँव-फाटी के लगभग 4-500 श्रद्धालु भी वाया रोड़ बस व अपने वाहनों में यहाँ पहुँचे थे, जिनमें अधिकाँश महिलाएं, बुजुर्ग तथा नौकरी-पेश वाले लोग थे। सभी पूजन में शामिल होते हैं।


विधि विधान से देवता के स्नान व पूजा-पाठ के बाद बड़ा भण्डारा दिया जाता है, जिसमें सभी भोजन-प्रसाद ग्रहण कर अपने-अपने घर लौटते हैं और देव काफिला भी नए रुट पर बापिसी का सफर तय करता है। मालूम हो कि घाटी के स्थानीय लोग मणिकर्ण के पवित्र जल को गंगाजल की तरह पावन मानते हैं, जिसे वर्तनों व लोटों में भरकर घर ले जाया जाता है और विशेष अवसरों पर मंगल कार्यों में इसका उपयोग होता है। आस्थावान को इस पावन जल के लिए पैदल पहाड़ों को लांघते हुए आते हैं और बापिस पैदल ही अकेले तथा एक-दो दोस्तों के साथ यहाँ आते हैं। मनुष्य तो क्या, घाटी के देवी-देवता तक यहाँ के पुण्य स्नान के अवसर को नहीं चूकते और रोमाँचक यात्रा पूरी करते हुए इस पावन तीर्थ में स्नान करते हैं। (जारी, भाग-2, मणीकर्ण से मलाना वाया रसोल टॉप)
आगामी राह में हाड़ जमाती ठंड के बीच प्रज्जवलित अग्नि के संग


शुरुआती पड़ाव के कुछ यादगार पल

गुरुवार, 25 अप्रैल 2024

यात्रा वृतांत – कुल्लू घाटी के एक रिमोट शिखर की ओर

 

डुग्गीलग घाटी में ऋषि जम्दग्नि के प्रांगण तक


सितम्बर 2023 का पहला सप्ताह, हिमालय के पहाड़ी आंचलों में जुलाई-अगस्त की बरसात के बाद हरियाली की चादर ओढ़े धऱती माता, फूलों के गलीचों के साथ सजे बुग्याल, चारों ओर दनदनाते नदी-नाले, मौसम न अधिक गर्म न सर्द – निसंदेह रुप में पहाड़ों का प्राकृतिक सौंदर्य़ इस समय अपने पूरे श्बाव पर था, जो प्रकृति प्रेमी घुमक्कड़ों को सहज ही यात्रा का मूक निमंत्रण दे रहा था।

कुल्लू से छोटे भाई के संग सफर शुरु होता है घर से। कुछ ही मिनटों में कुल्लू शहर के ढालपुर मैदान के पास सीनियर सैकेंडरी स्कूल से वाहन दाईं ओर यू-टर्न लेता है, एक नई घाटी में प्रवेश होता है, यह है कुल्लू की डुग्गी लग वैली। नाम के अनुरुप यह डुग्गी अर्थात गहरी घाटी है और संकरी भी। दो-तीन वर्ष पहले मैं इस घाटी के दर्शन के लिए हिमाचल रोडवेज की बस में कुल्लू से कोलंग तक गया था। यह रुट मुझे एक अलग ही दुनियाँ में विचरण की अनुभूति दे गया था और रहस्य रोमाँच का जखीरा लगा था।

इस बार हम इस रास्ते पर पहले ही भुटटी मार्ग से मुड़ जाते हैं और धीरे-धीरे वाइं ओर यू-टर्न लेते हुए ऊपर बढ़ रहे थे, क्योंकि आज की हमारी मंजिल काइस धार की ओर थी। इसके बारे में पढ़ा-सुना बहुत था, लेकिन कभी जाने का अवसर नहीं मिला था। बिजली महादेव की ओर यात्रा के दौरान उस पार घाटी से यहाँ के दूरदर्शन किए थे। और आज पहली बार इस रुट पर जाने के कारण हमें नहीं मालूम था कि हम बहाँ तक कैसे व कब पहुँचने वाले हैं, बस कुछ अनुमान, तो कुछ रास्ते में यहाँ के लोगों से पूछते हुए आगे बढ़ रहे थे।

क्रमिक रुप में हम संकरी सड़क के साथ पहाड़ी में ऊपर चढ़ रहे थे। रास्ते में कई जगह तो मोड़पर गाड़ी को बैक कर पार करना पड़ रहा था और सामने की तंग घाटी के उस पार के गाँव एक-एक कर दर्शन दे रहे थे, इस एकांत विरान घाटी में लोगों के बसेरे, वे भी ढलानदार पहाड़ों की गोद में, कहीं-कहीं तो बिल्कुल शिखर के नीचे, जहां अभी सही ढंग से सड़कें भी नहीं पहुँची हैं। मन में विचार आ रहे थे कि ये पैदल ही कितने श्रम के बाद वहाँ पहुंचते होंगे। बीमार होने पर या एमरजेंसी में कैसे जीवन को संभालते होंगे। लेकिन प्रकृति की शांत, एकांत इन वादियों को देखकर लग रहा था कि स्वस्थ लोगों के लिए ये चिंताएं अधिक नहीं सताती होंगी। इस क्रम में हम आधे दर्जन गाँवों के दर्शन कर चुके थे, जिनके नाम भाई बता रहा था, जिनमें कुछ तो हमने पहले सुने थे व कुछ एकदम नए लग रहे थे।

लगभग एक घंटे बाद खड़ी चढ़ाई लगभग पूरी हो चुकी थी। अब हम हल्की चढ़ाई के साथ सीधे रास्ते पर आगे बढ़ रहे थे। सड़क के दोनों ओर सेब के उभरते हुए छोटे बगीचे दिख रहे थे, देवदार के पेड़ खेत व बगीचों के बीच झांक रहे थे, कहीं-कहीं देवदार के घने जंगल से सफर बढ़ रहा था, जो हमेशा की तरह सफर के हमारे रोमाँच व जोश को सातवें आसमान में उछाल रहा था। सड़क में एक समय एक ही वाहन सही ढंग से पार हो सकता था, दूसरे वाहन के आने पर आगे या पीछे मोड़ पर जाकर पास लेना पड़ रहा था। काफी चुनौतीपूर्ण मार्ग दिख रहा था, लेकिन यहाँ के प्राकृतिक सौंदर्य़ के सामने ऐसी सारी कठिनाईयाँ गौण लग रही थी। हाँ, भाई के ड्राइविंग कौशल की कठिन परीक्षा अवश्य हो रही थी।

अब हम जहाँ नीचे ढालपुर मैदान से मुड़े थे, ठीक उसी के ऊपर पहुँच चुके थे। नीचे कुल्लू घाटी का नजारा प्रत्यक्ष था, तो उस पार खराहल घाटी का विहंगम दृश्य, उसके पीछे लेफ्ट बैंक के मनमोहक गगनचुंवी पहाड़ दिख रहे थे। देवदार के वृक्षों से अटी नग्गर से बिजली महादेव की ओर जाने वाली धार (रिज) स्पष्ट दिख रही थी, जिसमें हम कई बार पैदल ट्रेकिंग से लेकर जीप सफारी का एडवेंचर कर चुके हैं। थोड़ी देर में व्यू प्वाइंट पर गाड़ी रुकती है।

इसके थोड़ा नीचे पानी के टैंक दिख रहे थे, जहाँ से नीचे कुल्लू शहर के लिए पानी की सप्लाई की जाती है। इसी प्वाइंट से पैरा ग्लाइडिंग भी की जाती है। नीचे ढालपुर मैदान, उस पार सुलतानपुर, अखाडा बाजार कुल्लू व पीछे पूरी खराहल घाटी तथा नीचे भूंतर और ऊपर बिजली महादेव तथा घाटी के बीचों-बीच ब्यास नदी की पतली सफेद रेखा, एक साथ रोमांचित कर रहे थे, हवा के तेज शीतल झौंके फर-फरकर हमें अपने आगोश में लेते हुए पार हो रहे थे, जैसे वह हमारी अब तक की सारी थकान छूमंतर करते हुए आगे की यात्रा के लिए चार्ज कर रहे थे। यहाँ कुछ पल फोटो, सेल्फी आदि लेते हुए हम लोग आगे बढ़ते हैं।

अब हम सामने खुली घाटी व नए पहाड़ी आंचल में प्रवेश कर चुके थे, जिसके दाईं ओर पहाड़ और जंगल थे, तो नीचे लोगों के खेत व बगीचे, हम सीधा सड़क पर आगे बढ़ते जा रहे थे, बीच में पगडंडी भी मिली थी दाईं ओर से ऊपर जाने की, लेकिन हम काइस धार का बोर्ड ने पाकर सीधा आगे बढ़ते रहे। फिर लगभग आधा घंटा बाद एक गाँव में प्रवेश करते हैं, जिसके अंतिम छोर पर पक्की सड़क का रुट बंद होता है और तीन मंजिले स्कूल के भव्य भवन के दर्शन होते हैं, पता चलता है कि पीज गाँव में पहुँच चुके हैं।

और यह भी पता चलता है कि काईस धार के लिए इस वाहन में नहीं जा सकते, आगे सड़क कच्ची व तंग है, बाइक आदि ही जा सकती है तथा फिर पैदल ट्रेकिंग करनी पड़ती है। जिसके लिए हम आज तैयार नहीं थे। हम तो एक दिन में ही सबकुछ देखकर बापिस आना चाहते थे। गाँववालों के दिशानिर्देश पर हम फिर बापिस होते हैं, पहले दिखी पगडंडी के सहारे ऊपर चढ़ते हैं, जो हमें निर्जन गाँव में पहुँचाती है, दो-चार घर, एक दुकान, और वहीं थोड़ा चौड़े स्थान पर गाड़ी को पार्क करते हैं, जहाँ पहले से कुछ और बाहन भी खड़े थे।

दुकान से कुछ पूजा सामग्री लेकर जाते हैं, और पैदल सीधा खड़ी चढ़ाई पार करते हैं।


लगभग आधा किमी चढ़ाई के बाद हम पहाड़ के शिखर पर एकदम जैसे नए लोक में पहुँच चुके थे। पहाड़ की धार (रिज) पर बना जम्दग्नि ऋषि (जमलू) का मंदिर, चारों ओर चोड़े बुग्याल अर्थात् मखमली हरी घास के मैदान। मालूम हो कि देवभूमि कुल्लू में जमलू देवता के सबसे अधिक मंदिर हैं और ये घाटी के सबसे प्रमुख देवताओं में एक हैं। और ठारह करड़ू देवताओं की कहानी तो इन्हीं के साथ शुरु होती है।

इस स्थल के शुरुआत में एक गगनचुम्बी विशाल देवदार का वृक्ष विशेष ध्यान आकर्षित करता है, लगा कई सौ बर्षों का होगा, पुरखों की कितनी पीढ़ियों की स्मृतियाँ समेटे होगा। हम तो सीधा इसकी गोद में बैठकर कुछ पल आत्मस्थ होकर स्वयं को तन-मन से रिलेक्स करते हैं। और यहाँ से उस पार सामने बिजली महादेव से लेकर माउट नाग और खराहल घाटी के ऊपरी हिस्से के मनोहारी दृश्य को विस्मित होकर मंत्रमुग्ध भाव से निहार रहे थे। लगा कि आजतक हम इस स्थान पर क्यों नहीं आ पाए थे। फिर ये भी अहसास हुआ कि हर कार्य की एक टाइमिंग होती है, जो हर व्यक्ति की नियति व ईश्वर की इच्छा पर निर्भर होती है। फिर देवस्थलों में अपनी इच्छा कहाँ चलती है, यहाँ तो बुलावा आने पर ही यात्रा के संयोग बनते हैं।

इस एकांत शांत परिसर में मन जैसे ठहर सा गया था, समय की गति थम गई थी। आँखें बंदकर अस्तित्व की गहराईयों में जीवन का मंथन हो रहा था। स्थान की वाइव्रेशन कुछ ऐसी थीं कि मन सहज रुप में ध्यानावस्था में पहुँच गया था, लग रहा था कि इसी भावदशा में यहाँ बैठे रहें, लेकिन आज के समय की सीमा इसकी इजाजत नहीं दे रही थी।

अतः आसपास के कुछ जंगली फूल-पत्तियों को तोड़कर, साथ लाई पूजा सामग्री को साथ लेकर मंदिर में प्रवेश करते हैं, धूपबत्ति जलाकर जमलूदेवता की पूजा अर्चना करते हैं और बाहर निकलते हैं। जहाँ छोटे बच्चों का झुंड कौतुहलवश हम लोगों के स्वागत के लिए खड़ा था। प्राइमरी स्कूल के इन नन्हें बच्चों-बच्चियों के साथ कुछ यादगार फोटो खींचते हैं। कुछ दक्षिणां व प्रसाद वाँटते हैं और बाहर मैदान को पार करते हुए, देवदार के पेड़ के नीचे साथ लाई गई भोजन सामग्री के साथ पेट पूजा करते हैं।

इसी बीच भेड़ों का एक झुंड यहाँ के घरे भरे घास के मैदान में चरने के लिए आ चुका था। इनके साथ स्थानीय गाँव के एक वुजुर्ग चरवाहे भी थे, जिसके साथ यहाँ के बारे में कुछ चर्चा होती है और इस क्षेत्र की आधारभूत जानकारियाँ प्राप्त करते हैं, साथ ही काइस धार के बारे में भी अपनी जिज्ञासाओं को शांत करते हैं।

इनकी भेड़ों में कुछ हमारे पास आ जाती हैं, हम इनके संग कुछ यादगार फोटो लेते हैं, लग रहा था कि ये कह रहे हों हम भी तो आखिर प्राणधारी जीव हैं। क्यों हमारी बलि देकर एक दूसरे से अलग किया जाता है। हमें क्यों पूरा जीवन जीने का अधिकार नहीं है। बीच में भेढ़ू और इसके आगे पीछे इसकी वहन भेड़ें हमारे पास बैठे चर रहे थे, काली वाली भेड़ तो जैसे हमारी गोद में सर रखकर विश्राम की मुद्रा में कुछ मौन संवाद कर रही थी।

यहाँ कुछ यादगार पल बिताकर हम नीचे बाहन तक उतरते हैं औऱ फिर उसी रुट पर बापिसी का सफर तय करते हैं। प्राकृतिक सौदर्य से मंडित, एकांत शांत इस स्थल की सघन यादों को समेटे हम घर पहुँचते हैं। एक बार हम पाठकों को रिक्मेंड करेंगे कि कभी कुल्लू आएं, तो ऐसे ऑफबीट स्थलों को अवश्य एक्सप्लोअर करें। भीड-भाड़ से भरे हिल स्टेशनों से अलग ये प्राकृतिक स्थल अपने सौंदर्य़ के साथ एक रुहानी भाव लिए होते हैं, जिसका स्पर्श जीवन को नए मायने दे जाता है और इनकी मधुर यादें समरण करने पर चित्त को गुदगुदाती हैं, सूकून व शांति के दिव्य भाव के साथ आह्लादित करती हैं।


सोमवार, 22 अप्रैल 2024

दैनिक जीवन में अध्यात्म, भाग-3

दैनिक जीवन में अध्यात्म

अध्यात्म का सामान्य अर्थ कुछ इस रुप में लिया जाता है, जिसके लिए घर-परिवार, व्यवसाय, ऑफिस आदि छोड़ने पड़ते हैं व ये मुख्यतः साधु सन्यासियों व बाबाओं या बुढ़े-बुजुर्गों के लिए है। जबकि अध्यात्म जीवन से घुला अन्तरतम पहलु है, अस्तित्व की पहेली का समाधान करता जीवन दर्शन एवं जीवन शैली है, जिसका दैनिक जीवन में जितना जल्दी समावेश किया जाए, उतना उत्तम है, श्रेयस्कारी है, कल्याणकारी है।

गायत्री के सिद्ध साधक, इस युग के विश्वामित्र, युगऋषि पं. श्रीराम शर्मा आचार्य व्यवहारिक अध्यात्म के प्रणेता रहे हैं, वैज्ञानिक अध्यात्म के जनक रहे हैं। उनके द्वारा दिए गए दैनिक जीवन में अध्यात्म के सुत्र सरल किंतु प्रभावशाली हैं, जिन्हें अपना पारिवारिक-सामाजिक जीवन जीते हुए सहज सरल रुप में अपनाया जा सकता है।

वे अध्यात्म को जीवन साधना के रुप में परिभाषित करते हैं, जिसके तीन चरण हैं उपासना, साधना और अराधना। इन्हें अन्यत्र वे संयम, स्वाध्याय, सेवा, साधना के रुप में भी समेटते हैं।

उपासना भगवान की, साधना मन की और अऱाधना समाज की। इस तरह इनके दायरे में पूरा जीवन, पूरा अस्तित्व समा जाता है। इनको भक्ति योग  - ज्ञान योग, ध्यान योग तथा कर्म योग के रुप में भी समझा जा सकता है, जिनकी फलश्रुतियाँ श्रद्धा, प्रज्ञा एवं निष्ठा रहती हैं।

दैनिक जीवन में अध्यात्म का समावेश प्रातः आत्म बोध से शुरु होता है, जिसमें ईश्वर का स्मरण करते हुए, ईश्वर प्रदत्त इस मानव जीवन की गरिमा, महिमा का अहसास करते हुए, आज के दिन के श्रेष्ठतम उपयोग की रुपरेखा बनाई जाती है। इसके लिए अपने डायरी व स्लिप पैड (प़ॉकेट डायरी) में दिन के कार्यों की प्राथमिकता के आधार पर सूची बनाई जाती है, यह  To do List दिन के हर पल का श्रेष्ठतम उपयोग सुनिश्चित करती है। बीच-बीच में इनको झांक कर देखने पर याद रहता कि आज क्या-क्या काम पूरे करने थे। आज के डिजिटल युग में मोबाइल डायरी का भी उपयोग किया जा सकता है।

दिन भर अपनी व्यस्त दिनचर्या के बाद फिर रात को तत्वबोध का क्रम आता है, जिसके अन्तर्गत दिन भर के कार्यों का लेखा-जोखा किया जाता है। जो विधिवत रुप में डायरी लेखन के रुप में सम्पन्न होता है। इस तरह आत्मबोध से शुरु दिनचर्या तत्वबोध में समाप्त होती है।

दिन भर में प्रातः Morning Walk, योगाभ्यास, व्यायाम आदि के साथ अपनी क्षमता, आयु एवं समय के अनुरुप शारीरिक फिटनेस का कार्य़क्रम निर्धारित किया जा सकता है। अपने प्रातःकालीन आवश्यक कार्यों के बाद स्नान एवं इसके बाद उपासना के अन्तर्गत जप-ध्यान का न्यूनतम कार्यक्रम पूरा किया जा सकता है। जो अपनी क्षमता, स्थिति के अनुरुप कुछ मिनट से लेकर कुछ घंटे का हो सकता है। इसमें माला की संख्या से अधिक अपने ईष्ट-अऱाध्य-भगवान से भावनात्मक प्रगाढता मायने रखती है।

उपासना के बाद साधना का क्रम आता है, जो दिन भर चलता है। जिसके अन्तर्गत आचार्यश्री इंद्रिय संयम, समय संयम, अर्थ संयम और विचार संयम की बात करते हैं। इंद्रिय संयम में स्वाद, दृष्टि-स्पर्श-जननेंद्री एवं वाणी प्रमुख हैं। अपने शरीर के अनुकूल हल्का-फुल्का, सात्विक एवं पौष्टिक भोजन लिया जाता है, शास्त्रों में बताए गए ऋतभुख्-मितभुख्-हितभुख् का सुत्र अनुकरणीय रहता है।

स्वाद का सीधा सम्बन्ध जननेंद्रि से रहता है, जितना सात्विक व हल्का आहार रहेगा, इस इंद्रिय का संयम उतना सरल रहेगा। फिर मन को उत्तेजित करने वाले बाहर के दृश्यों के प्रति सजगता एवं सावधानी आती है। आज के इंटरनेट एवं मोबाइल युग में प्रलोभनों की भरमार रहती है, समाज का वातारण भी विषाक्त रहता है, ऐसे में इस तरह के उत्तेजक उत्प्रेरकों से निपटना किसी चुनौती से कम नहीं रहता, लेकिन यही तो साधना का एडवेंचर है। साधक अपने ढंग से इस साधना समर में जूझता है और अपनी विजय को सुनिश्चित करने का प्रयास करता है।  

वाणीव्यवहार की साधना में मित-मधुर-कल्याणी के सुत्र का अनुसरण करें। कम बोलें, जितना आवश्यक हो। शिष्ट-शालीनता रहें, हितकर ही बोलें। साधना काल में अवांछनीय तत्वों से दूर ही रहें व उनके भड़काउ व्यवहार के प्रति मौन व उपेक्षा का भाव रखें। अपने मन की शांति व स्थिरता को बनाए रखना ही इस साधना का उद्देश्य रहता है।

संयम संयम – Time Management साधना का एक महत्वपूर्ण अंग है, जिसने काल को साध लिया, समझो उसकी महाकाल की उपासना हो चली। इसके लिए दिनचर्या में महत्वपूर्ण व तातकालिक (Important and Urgent) कार्यों की समझ आवश्यक होती है। इसमें खण्ड 1 में ड्यूटी, परीक्षा, एसाइन्मेंट, आपातकालीन परिस्थिति जैसे Impt/Urgnt कार्य आते हैं, जिन्हें प्राथमिकता के आधार पर निपटाना होता है। दूसरे खण्ड में स्वाध्याय, डायरी, व्यायाम, उपासना, सेवा जैसे  Impt/Not Urgnt कार्य़ आते हैं, जिनको दिनचर्या में शामिल करना होता है।

तीसरे खण्ड में  फोन कॉल, शादी-विवाह, दोस्त की पार्टी जैसे Not Impt/Urgnt कार्य आते हैं, जिन्हें टाला जा सकता है या दूसरों को सौंपा जा सकता है। और अंततः खण्ड 4 के Neither Impt/ Nor Urgnt कार्य आते हैं, जो मन के बहलावे या टाइमपास के लिए किए जाते हैं, या जैसे फिल्म, मोबाइल, दुर्व्यसन (शराब, नशा आदि)। येही समय, ऊर्जा व फोक्स की बर्वादी का कारण बनते हैं। खण्ड 3 व 4 के कार्यों को यदि सही ढंग से मैनेज कर लिया तो खण्ड 1 व 2 के उपयोगी कार्य संभव होंगे तथा व्यवहारिक जीवन में साधना का मकसद पुरा होगा।

अर्थ संयम में जितनी आमदनी है उसके हिसाब से खर्च की बात आती है, और जो अतिरिक्त अर्जन होता है, उसका उचित बचत के साथ जरुरतमंदों की सहायता में लगाया जा सकता है। सादा जीवन उच्च विचार इसका स्वर्णिम सुत्र है। विचार संयम, श्रेष्ठ विचारों में रमण करने व अपने लक्ष्य के प्रति फोक्स्ड रहने पर सधता है। इसें स्वाध्याय, सत्संग के साथ आत्म-चिंतन व मनन का विशेष महत्व रहता है।

इसके साथ अपने रिलेश्नशिप्स में, रिश्ते नातों व मित्रों से न्यूनतम आशा-अपेक्षा से भरा कर्तव्य पालन तथा सेवा का भाव उचित रहता है, जो अराधना के अंतर्गत आता है। हर इंसान व जीव में ईश्वर के दर्शन करते हुए उससे व्यवहार, इंटरएक्शन इसका हिस्सा है। दूसरों से व्यवहार में व्यक्तित्व की न्यूनतम गरिमा एवं गुरुत्व इसका हिस्सा हैं।

कहने की आवश्यकता नहीं कि दैनिक जीवन में अध्यात्म के लिए जीवन का आध्यात्मिक लक्ष्य होना अभीष्ट है, साथ ही अपना आध्यात्मिक ईष्ट- अऱाध्य – आदर्श  जितना स्पष्ट होगा, उतना ही श्रेष्ठ रहेगा। इतना करते हुए जीवन में संयम, स्वाध्याय, सेवा व साधना का क्रम बन पडेगा, जीवन में अध्यात्म का समावेश हो चलेगा।

रात को सोने से पहले तत्व बोध में डायरी लेखन के अंतर्गत स्व मूल्याँकन के साथ दिनचर्या पूर्ण होगी। दिन भर जो भूल-चूक हो गई, उसके लिए भगवान से क्षमाप्रार्थना करते हुए अगले दिन की और पुख्ता रण्नीति बनाते हुए, आज के जीवन को ईश्वर को अर्पित करते हुए निद्रा देवी की गोद में चले जाएं। इस तरह हर रोज सुबह नया जन्म और सोते समय रात को नित्य मौत का अभ्यास जीवन को अध्यात्म से ओतप्रोत करेगा।

रविवार, 7 अप्रैल 2024

दैनिक जीवन में अध्यात्म, भाग-2

 

धर्म, अध्यात्म एवं अध्यात्म के सोपान

धर्म बनाम् अध्यात्म

धर्म शब्द आज बदनाम हो चला है। धर्म के नाम पर यदा-कदा उठने वाले क्लह-कलेश, वाद-विवाद, दंगे-फसाद, हिंसा एवं आतंकी घटनाओं ने इस पावन शब्द के प्रति प्रबुद्ध ह्दय में एक अज्ञात सा भय, संशय एवं वितृष्णा का भाव पैदा कर दिया है, जबकि धर्म का मूल भाव बहुत पावन एवं उदात्त है।

व्यापक अर्थों में धर्म का अर्थ धारण करने योग्य उन गुणों से है, जो व्यक्ति को उसके स्वभाव के अनुरुप उसके सर्वाँगीण विकास का मार्ग प्रशस्त करते हैं और उसे पूर्णता की ओर ले जाते हैं। भारत के पहले परमाणु विज्ञानी एवं वैशेषिक दर्शन के जनक महर्षि कणाद के शब्दों मेंयतो अभ्युदय निःश्रेयस सिद्धिः सः धर्म, अर्थात् जिससे लौकिक उत्कर्ष तथा मोक्ष की प्राप्ति होती है, उसे धर्म कहते हैं। भारतीय संस्कृति में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के रुप में इसकी यही अवधारणा प्रस्तुत है। जीवन को पूर्णता तक पहुँचाने वाले चार पुरुषार्थों में इसे प्रमुख स्थान प्राप्त है। युगऋषि पं.श्रीराम शर्मा के शब्दों में, बिना धर्म के नीतिमत्ता व संवेदना को विकसित किए बिना वह अर्थोपार्जन व उसका सुनियोजन नहीं कर सकता, न ही परिष्कृत काम सुख की सिद्धि ही कर सकता है।

आचार्य मनु ने धर्म के दस लक्षण गिनाए हैं धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय निग्रह, धी, विद्या, सत्यम और अक्रोध। सामयिक संदर्भ में पं.श्री रामशर्मा आचार्य धर्म के दस लक्षण इस तरह से बताते हैं सत्य, विवेक, संयम, कर्तव्य परायणता, अनुशासन, आदर्शनिष्ठा-व्रतशीलता, स्नेह-सौजन्य, पराक्रम-पुरुषार्थ, सहकारिता और परमार्थ-उदारता।

एन्साइक्लोपीडिया ऑफ रिलीजन के अनुसार रिलीजन का अर्थ चरम अनुभूति से है। धर्म की इस चरम उपलब्धि तक पहुँचने के विविध मार्ग के अनुरुप हिंदु, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, जैन, बौद्ध, पारसी जैसे धर्मों के विविध रुप  सामने आते हैं। धर्म की प्रमुख विशेषताएँ व संरचना के अनिवार्य अंग अवयव हैं परम्परा (Traditionalism)मिथक एवं प्रतीक (Myth & Symbol)मुक्ति की अवधारणा (concept of salvation)पवित्र तीर्थ स्थल एव वस्तुएं (Sacred places and objects), कर्मकाण्ड(Sacred actions (Rituals))धर्मग्रंथ (Sacred writings)धर्म समुदाय (Sacred community)और धार्मिक अनुभूतियाँ (Sacred experience).

आचार्य श्रीराम शर्मा के शब्दों में धर्म को संक्षेप में तीन अंगों में समेटा जा सकता है नीति शास्त्र, आस्तिकता प्रधान दर्शन और अध्यात्म। इनमें दर्शन पक्ष उस धर्म के अनुसार इस जगत, परमसत्ता, मनुष्य जीवन के स्वरुप, लक्ष्य आदि पर विचार करता है। नीति शास्त्र उस लक्ष्य की ओर बढ़ने के नीति-नियम, विधि-निषेध आदि का मार्गदर्शन करता है। और कर्मकाण्ड पक्ष पूजा-पाठ एवं साधना पद्वति आदि का निर्धारण करता है।

देश, काल, परिस्थिति के अनुरुप हर धर्म के आचार शास्त्र, कर्मकाण्ड एवं विश्वास के रुप में वाह्य भिन्नता हो सकती है। लेकिन अंततः सभी धर्म एक ही सत्य की ओर ले जाते हैं। अपने वाहरी स्वरुप के प्रति दुराग्रह ही धर्म के नाम पर तमाम तरह के विवादों का कारण बनते हैं। इसी कारण डॉ. एस. राधाकृष्णन के शब्दों में, सैदाँतिक तौर पर सार्वभौम दृष्टि का प्रतिपादन करते हुए भी व्यवहारिक रुप से धर्मों में सार्वभौम दृष्टि का अभाव रहता है। यद्यपि वे कहते हैं कि सब मनुष्य चाहे वे किसी भी जाति, संप्रदाय, मत, रंग के हों, भगवान की नजर में एक समान हैं। लेकिन कई धर्म संस्थाएं अपने मत-विश्वास को लेकर कट्टर, असहिष्णु व उग्र हो जाती हैं। ऐसे में धर्म राष्ट्र-राज्य की तरह व्यवहार करने लगता है।

वास्तव में धर्म का अनुभूतिपरक उच्चतर स्वरुप अध्यात्म के क्षेत्र में आता है। धर्म और अध्यात्म के इस अनन्य सम्बन्ध को स्पष्ट करते हुए पं.श्री रामशर्मा आचार्य धर्म के तीन अंग बताते हैं धार्मिकता, आस्तिकता और आध्यात्मिकता। धार्मिकता अर्थात् नीति नियम और कर्मकाण्ड, जिसका निष्ठा पूर्वक अभ्यास करते हुए व्यक्ति आस्तिकता अर्थात् अपनी दैवीय प्रकृति एवं असीम संभावनाओं के बोध को पाता है। इसी के साथ वह आध्यात्मिकता के क्षेत्र में प्रवेश करता है और अपनी निम्न प्रकृति के क्रमिक रुपांतरण को साधता है। व्यवहारिक रुप में धार्मिकता का अर्थ कर्तव्यपरायण्ता हैआस्तिकता का अर्थ ईश्वरी सत्ता पर विश्वास है, जो कि नैतिकता का मेरुदंड है और आध्यात्मिकता का अर्थ आत्म-विश्वास, आत्म-निष्ठा और आत्म-विस्तार से है।

इस तरह धर्म का जो परिष्कृत रुप या चरम स्वरुप है वह अध्यात्म है। प्रायः अध्यात्म का उभार धर्म के गर्भ से ही होता रहा है। लेकिन धर्म के स्वतंत्र भी अध्यात्म का विकास हो सकता है। बिना किसी संस्थागत धर्म के किसी मत, विश्वास एवं मार्ग का अनुकरण किए भी व्यक्ति अपनी अंतःप्रेरणा, विवेक एवं प्रयोगधर्मिता के आधार पर अपने आत्मिक विकास को सुनिश्चित कर सकता है। अतः अध्यात्म का विकास धर्म के अंदर या बाहर कहीं भी हो सकता है।

अध्यात्म पथ के अनिवार्य सोपान

जीवन जिज्ञासा, आंतरिक खोज, आत्मानुसंधान – अपनी खोज में निकला पथिक जाने अनजाने में अध्यात्म पथ का राही होता है। यह जिज्ञासा जीवन के किसी न किसी मोड़ पर जोर अवश्य पकड़ती है। कुछ जन्मजात यह अभीप्सा लिए होते हैं। किंतु अधिकाँश जीवन के टेड़े-मेड़े रास्ते में राह की ठोकरें खाने के बाद, बाह्य जीवन के मायावी रुप से मोहभंग होते ही या जीवन के विषम प्रहार के साथ सचेत हो जाते हैं और जीवन के वास्तविक सत्य की खोज में जीवन के स्रोत्र की ओर मुड़ जाते हैं। जीवन के नश्वर स्वरुप का बोध एवं जीवन में सच्चे सुख व शांति की खोज व्यक्ति को देर सबेर अध्यात्म मार्ग पर आरुढ़ कर देती है। जीवन की वर्तमान स्थिति से गहन असंतुष्टी का भाव और मुमुक्षुत्व, अध्यात्म जीवन का प्रारम्भिक सोपान है। इसी के साथ साधक किसी आध्यात्मिक महापुरुष के संसर्ग में आता है, स्वाध्याय-सतसंग के साथ अगले सोपान की ओऱ बढ़ता है।

स्वाध्याय-सतसंग – आध्यात्मिक आदर्श एवं महापुरुषों का संग-साथ अध्यात्म का महत्वपूर्ण सोपान है। इसके साथ आत्मचिंतन की प्रक्रिया आगे बढ़ती है, जीवन का गहनतम स्तर पर निरीक्षण-परीक्षण का दौर प्रारम्भ होता है। साथ ही आंतरिक संघर्ष के पलों में इनसे आवश्यक प्रेरणा एवं मार्गदर्शन पाता है। खाली समय में उच्च आदर्श एवं सद्विचारों में निमग्न रहता है और आध्यात्मिक ग्रंथों एवं सत्साहित्य का अध्ययन जीवन का अभिन्न अंग होता है। इस प्रकार सद्विचारों का महायज्ञ साधक के चितकुण्ड में सदा ही चलता रहता है, जो क्रमशः आध्यात्मिक जीवन दृष्टि के रुप में विकसित होता है। 

आध्यात्मिक जीवन दृष्टि – इसी के साथ अपनी खोज की प्रक्रिया प्रगाढ़ रुप लेती है और जीवन के प्रति एक नई अंतर्दृष्टि का विकास होता है। इस सानन्त वजूद में अनन्त की खोज आगे बढ़ती है। शरीर व मन से बने स्वार्थ-अहं केंद्रित सीमित जीवन के परे एक विराट अस्तित्व का महत्व समझ आता है। अब समाधान की तलाश अपने अंदर होती है। किसी से अधिक आशा अपेक्षा नहीं रहती। पथिक का एकला यात्रा पर विश्वास प्रगाढ़ रहता है। वह यथासंभव दूसरों की मदद करता है और समस्याओं से भरे संसार में समाधान का एक हिस्सा बनकर जीने का प्रयास करता है और अपनी जीवन शैली पर विशेष रुप से कार्य करता है। 

आध्यात्मिक जीवन शैली – आध्यात्मिक जीवन दृष्टि का स्वाभाविक परिणाम होता है आध्यात्मिक जीवन शैली, जो संयमित एवं अनुशासित दिनचर्या का पर्याय है। शील-सदाचारपूर्ण व्यवहार इसके अनिवार्य आधार हैं। अपनी मेहनत की ईमानदार कमाई इसका स्वाभाविक अंग है। इसके तहत वह शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक सभी पहलुओं के सम्यक विकास के प्रति जागरुक रहता है और एक कर्तव्यपरायण जीवन जीता है। 

कर्तव्य परायण जीवन – आध्यात्मिक जीवन कर्तव्यपरायण होता है। अपने कर्तव्य के प्रति सजग एवं कर्मठ। श्रमशील जीवन अध्यात्मिक जीवन की निशानी है। घर परिवार हों या संसार व्यापार, अपने कर्तव्यों का होशोहवास में बिना किसी अधिक राग-द्वेष, आशा-अपेक्षा या आसक्ति के निर्वाह करता है। जीवन के निर्धारित रणक्षेत्र में एक यौद्धा की भांति अपनी भूमिका निभाता है और धर्म मार्ग पर आरुढ़ रहता है। अपने कर्तव्यकर्मों से पलायन, आलसी-विलासी जीवन से अध्यात्म का दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं होता। 

आदर्शनिष्ठ, आत्म-परायण जीवन – अपने परमलक्ष्य की ओर बढ़ रहे आध्यात्मिक जिज्ञासु का जीवन आदर्श के प्रति समर्पित होता है। आदर्श एक व्यक्ति भी हो सकता है, कोई विचार या भाव भी। आदर्श के उच्चतम मानदण्डों की कसौटी पर खुद के चिंतन-व्यवहार को सतत कसते हुए, पथिक अपनी महायात्रा पर अग्रसर रहता है। अपने मन एवं विचारों को उच्चतम भावों में निमग्न रखते हुए आत्म-चिंतन एवं ध्यान परायण जीवन को जीता है। 

आत्म चिंतन ध्यान परायण जीवन – निसंदेह अपने आत्म स्वरुप का चिंतन, जीवन लक्ष्य पर विचार, आदर्श का सुमरण-वरण इसके अनिवार्य सोपान हैं। इसके लिए अभीप्सु ध्यान के लिए कुछ समय अवश्य निकालता है। अपने अचेतन मन को सचेतन करने की प्रक्रिया को अपने ढंग से अंजाम देता है। आत्म-तत्व का चिंतन उसे परम-तत्व की ओर प्रवृत करता है और ईश्वरीय आस्था जीवन का सबल आधार बनती है। 

आत्म-श्रद्धा, ईश्वर-विश्वास –अपनी आत्म-सत्ता पर श्रद्धा जहाँ एक छोर होता है, वहीं ईश्वरीय-आस्था इसका दूसरा छोर। अध्यात्मवादी अपनी आध्यात्मिक नियति पर दृढ़ विश्वास रखता है और अपने पुरुषार्थ के बल पर, अपने सत्कर्मों के आधार पर अपने मनवाँछित भाग्य निर्माण का प्रयास करता है। साथ ही वह ईश्वरीय न्याय व्यवस्था को मानता है। दूसरे जो भी व्यवहार करें, अपने स्तर को गिरने नहीं देता। व्यक्तित्व की न्यूनतम गरिमा एवं गुरुता सदैव बनाए रखता है। अपनी पूरी जिम्मेदारी आप लेता है, अंदर ईमान तथा उपर भगवान को साथ जीवन के रणक्षेत्र में प्रवृत रहता है।  

प्रार्थना – प्रार्थना आध्यात्मिक जीवन का महत्वपूर्ण अंग है। अध्यात्मपरायण व्यक्ति अपनी औकात, अपनी मानवीय सीमाओं को जानता है, इससे ऊपर उठने के लिए, इनको पार करने के लिए ईश्वरीय अबलम्बन में संकोच नहीं करता। वह प्रार्थना की अमोघ शक्ति को जानता है और अपनी ईमानदार कोशिश के बाद भी जो कसर रह जाती है उसे प्रार्थना के बल पर पूरी करते का प्रयास करता है।  

निष्काम सेवा – सेवा अध्यात्म पथ का एक महत्वपूर्ण सोपान है। सेवा को आत्मकल्याण का एक सशक्त माध्यम मानता है। जिस आत्म-तत्व की खोज अपने अंदर करता है, वही तत्व बाहर पूरी सृष्टि में निहारने का प्रयास करते हुए यथासंभव सबके साथ सद्भावपूर्ण बर्ताव करता है। अपनी क्षमता एवं योग्यतानुरुप जरुरतमंद, दुखी-पीड़ित इंसान एवं प्राणियों की सेवा सत्कार के लिए सचेष्ट रहता है और निष्काम सेवा को अध्यात्म पथ का महत्वपूर्ण सोपान मानता है। 

सृजनधर्मी सकारात्मक जीवन- अध्यात्म से उपजा आस्तिकता का भाव व्यक्ति में अपने अस्तित्व के प्रति आशा का भाव जगाता है, अध्यात्म से उपजी कर्तव्यपरायणता उसे सृजनपथ पर आरुढ़ करती है और अपने स्रोत की ओर बढ़ता उसका हर ढग उसे सकारात्मक उत्साह से भरता है। अतः अध्यात्म नेगेटिविटी को जीवन में प्रश्रय नहीं देता। वह जिस भी क्षेत्र में काम करता है, एक सकारात्मक परिवर्तन के संवाहक के रुप में अपनी अकिंचन सी ही सही किंतु निर्णायक भूमिका निभाता है। हमेशा सकारात्मकता एवं सृजन के प्रति समर्पित जीवन आध्यात्मिकता का परिचय, पहचान है।

चुनींदी पोस्ट

प्रबुद्ध शिक्षक, जाग्रत आचार्य

            लोकतंत्र के सजग प्रहरी – भविष्य की आस सुनहरी    आज हम ऐसे विषम दौर से गुजर रहे हैं, जब लोकतंत्र के सभी स्तम्...