रविवार, 31 दिसंबर 2023

मेरी चौथी झारखण्ड यात्रा, भाग-1


हरिद्वार से टाटानगर (जमशेदपुर) की रेल यात्रा

हरिद्वार रेल्वे स्टेशन, 17 दिसम्बर, 2023

नौ वर्ष वाद मेरी यह चौथी झारखण्ड यात्रा थी, 2014 में संयोगवश प्रारम्भ यात्रा अभियान की पूर्णाहुति जैसी और एक नए अभियान के शुभारम्भ जैसी। यहाँ हमारे अंतिम शोध छात्र की पीएचडी उपाधि पूर्ण हो रही थी। जीवन की विषम परिस्थितियों के साथ कोविड की दुश्वारियों को पार करते हुए तमाम विघ्न-बाधाओं के बावजूद कार्य पूर्ण हो रहा था, यह दर्शाते हुए कि जिसके भाग्य में जो वदा होता है, वह उसको मिलकर रहता है। हालाँकि इसमें व्यक्ति का श्रम, लग्न, त्याग और अपनों के सहयोग की अपनी भूमिका रहती है। बस व्यक्ति हिम्मत न हारे, आशा का दामन न छोड़े और अपने लक्षिय ध्येय की खातिर अनवरत प्रय़ास करता रहे, जो मंजिल देर-सबेर मिलकर ही रहती है।

इस बार धनवाद-रांची की वजाए पहले टाटानगर - जमशेदपुर जाने का संयोग बन रहा था। इसलिए पहली बार कलिंगा उत्कल एक्सप्रेस रेल से जा रहा था, जो सीधा हरिद्वार से होकर जमशेदपुर-टाटानगर पहुंचती है और इसका अंतिम पड़ाव रहता है उड़ीसा प्रांत का प्रख्यात तीर्थ स्थल श्री जगन्नाथधाम पूरी। दस दिवसीय यह यात्रा कई मायनों में यादगार रही। रेल से लेकर बस तथा हवाई सफर के रोमाँच के बीच अनुभव की कमी तथा कुछ लापरवाही के चलते छोटी-छोटी चूकें कड़क सवक देती गई और अनुभव से शिक्षण का क्रम भी यात्रा के समानान्तर चलता रहा। फिर कुछ देव निर्धारित जीवन के संयोग, जिनके साथ ईश्वर हर जीवात्मा की विकास यात्रा को अपने ढंग से पूर्णता के मुकाम की ओर गतिशील करता है। अगले 4-5 ब्लॉगज की सीरिज में इन्हीं जीवन यात्रा के अनुभवों को साझा करने का प्रयास रहेगा, जो शायद पाठकों के लिए कभी कुछ काम आएं। 

इस यात्रा का शुभारम्भ ही अद्भुत रहा, रेल अपने प्रारम्भिक पड़ाव योग-नगरी ऋषिकेश से ही पूरा तीन घंटा लेट थी। यात्रा के प्रारम्भ में ही ऐसी लेट-लतीफी का यह हमारा पहला अनुभव था, कि ऐसा भी हो सकता है। आगे से फिर घर से ही रेल के स्टेटस का अपडेट लेकर चला जाए, जिससे रेल्वे स्टेशन पर मौसम की विषमता के बीच अनावश्यक तप न करना पड़े। हालाँकि आज के अनुभव का अपना कड़क मजा रहा। आधा समय तो स्टेशन के प्रतीक्षालय कक्ष में इंतजार करते बीते, एक चौथाई समय स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर टहलते हुए और शेष चौथाई समय ट्रेन की आने की घोषणा के चलते ट्रेन के इंतजार में टकटकी लगाए हुए। सूर्योदय से पहले की ठण्डी में हाथ जैसे जम रहे थे, गंगाजी से बह रहे ठंडी हवा के तीखे झौंके सीधे टोपी के आर-पार हो रहे थे। क्योंकि हमारे इंतजार का स्थल स्टेशन के थोड़ा बाहर पड़ रहा था, रेल की सेकण्ड लास्ट बोगी में हमें चढ़ना था। लेकिन यात्रा के उत्साह की ऊर्जा इंतजार की वाध्यता और शीतल हवा के तीखे झौंको पर भारी पड़ रही थी।

दिसम्बर की सर्दी के बीच सफर का रोमाँच 

फिर शरीर को गर्म रखने के लिए प्लेटफॉर्म पर लगे स्टाल पर बीच-बीच में गर्म पेय का सहारा लेते रहे, जिससे कड़क ठंड के बीच कुछ राहत अवश्य महसूस होती रही। जिस रेल से 6.55 पर प्रातः हरिद्वार से कूच करना था, वो आखिर पौने 10 बजे पहुँचती है और दस मिनट के विराम के बाद लगभग 10 बजे चल पड़ती है। इस तरह पूरा 3 घण्टा लेट। 2 बजे के आसपास गाजियावाद और पौने 3 बजे निजामुद्दीन से होती हुई, मथुरा को पार कर सवा छः बजे आगरा पहुँचती है। रेल साढ़े तीन घंटा लेट हो चुकी थी। ग्वालियर पहुँचते-पहुँचते रेल लगभग 4 घंटा लेट थी। रात को पौने 9 बजे यहाँ पहुंचती है। साइड अपर बर्थ में सीट होने के कारण नीचे उतर कर बाहर देखने की अधिक गुंजाइश नहीं थी और मनःस्थिति भी एकांतिक चिंतन-मनन तथा अध्ययन के साथ विश्राम करते हुए सफर की थी। रास्ते में साथ लिए ब्रेड तथा जैम के साथ गर्म पेय का मिश्रण रात्रि आहार बनता है। रात को रेल थोड़ा गति पकड़ती है। प्रातः दिन खुलते-खुलते साढ़े 6 बजे हम वीरसिंहपुर पहुंच चुके थे। रेल अब 2 घंटे लेट थी। अपने बर्थ में ही बैठे-लेटे भाव सुमिरन के साथ मानसिक ध्यान-पूजा आदि का क्रम चलता रहा।

सुबह 9 बजे के आस-पास पेंद्रा रोड़ पर रेल रुकती है। यहाँ छुट्टियों में घर गई विभाग की एक छात्रा से मुलाकात होती है, जो हमारे लिए नाश्ते की व्यवस्था कर रखी थी। 

पेंद्रा रोड़ स्टेशन का दृश्य

बिलासपुर आते-आते रेल 3 घंटे लेट हो चुकी थी और 11 बजे के आसपास यहाँ पहुंचते हैं, जहाँ विश्वविद्यालय के योगा में दीक्षित पुराने छात्रों से मुलाकात होती है, जो सफर के लिए लंच की व्यवस्था कर बैठे थे। हालाँकि हम स्वभाववश ऐसी सेवा लेने से संकोच करते हैं, लेकिन संयोग से घटी ये अप्रत्याशित मुलाकातें विश्वविद्यालय परिवार के आत्मीय विस्तार से गाढ़ा परिचय करवा रही थी और इनका भावनात्मक स्पर्श अंतःकरण को कहीं गहरे स्पर्श कर रहा था। 

रात को राउरकेला पहुँचते – पहुंचते रेल पाँच घंटा लेट हो चुकी थी और रात के आठ बज चुके थे। शाम छः बजे जमशेदपुर पहुंचने वाली रेल रात 12 बजे पहुँचती है और रेल 6 घण्टे लेट हो चुकी थी। इस तरह रेल की लेट-लतीफी का यह हमारा पहला अनुभव था। स्टेशन पर मार्ग में आतिथ्य के सुत्रधार डॉ. दीपकजी हमारा इंतजार कर रहे थे, जिन्होंने रात्रि विश्राम की व्यवस्था घर पर कर रखी थी। 

रेल में हमारी सीट साइड अपर बर्थ की थी, सो हमें किसी तरह की दिक्कत नहीं हुई। रेल के लम्बे सफर में यह सीट हमारे अनुभव में सबसे विश्रामदायी रहती है। एक बैग को पैर की और रखे, तो दूसरे को साइड में टांगे आराम से कभी लेटे, तो कभी उठकर पढते-लिखते व चिंतन-मनन करते बिताते रहे। बीच-बीच में अधिक बोअर होते तो गर्म पेय की चुस्कियों के साथ मूड बदलते। केविन में बैठे परिवार की बातें, छोटे बच्चों की आपसी नोक-झौंक भरी शरारतें, बड़ों से खाने-पीने की उनकी तमाम तरह की फरमाइशें रास्ते भर केविन में घर-परिवार जैसा माहौल बनाऐ रखीं। 

एक नन्हें शिशु की चपलता भरी तोतली बातें विशेषरुप से आकर्षित कर रही थीं। छोटे बालक से भावनात्मक तार जुड़ रहे थे, लेकिन बहुत घुलने-मिलने से बचते रहे। क्योंकि सफर कुछ घंटों का साथ का था, फिर रास्ते में अलग होना था। परिवार पुरी धाम जा रहा था। ऐसे में अस्तित्व के सुत्रधार भगवान जगन्ननाथ को सुमरण करते हुए तटस्थ भाव से वाल गोपाल की भोली चपलता को निहारते रहे। लगा प्रभु ही आखिर हर जीवात्मा के स्वामी, परमपिता हैं, और उनकी लीला वही जाने। आज इस नन्हें बालक के माध्यम से प्रभु एक ओर हमारे सफर को आनन्ददायी बना रहे हैं और साथ ही जीवन के किन्हीं गहनतम भावनात्मक तारों को भी झंकृत कर रहे थे। 

पास के केविन में एक बाबाजी का कथा-प्रवचन भी इस यात्रा की विशेषता रही, जो पहली वार घटित होता देख रहा था। केविन की सवारियाँ भी सतसंग का पूरा आनन्द ले रही थी और बाबाजी की बातों के साथ हामी भरती हुई, इनके समर्थन में अपनी दो बातें जोड़ती हुई ज्ञान-गंगोत्री में डुबकी लगा रहीं थी। काफी देर यह सतसंग चलता रहा। हालांकि छोटा बालक बोअर हो रहा था, जब उसके धैर्य का बाँध टूट गया तो वह रोने व चिल्लाने तक लगा था। हमारा बाबाजी से विनम्र निवेदन था कि सत्संग को बालक के स्तर पर क्यों नहीं ले आते, बाल-गोपाल की लीला-कथाओं के साथ इसका मन क्यों नहीं बहलाते। खेैर, रेल में ऐसे सत्संग का माहौल हमारे लिए एक नया अनुभव था। इसके साथ रेल की लेट-लतीफी का मलाल जाता रहा। साथ ही बीच-बीच में नीचले बर्थ में आकर बाहर निहारते तो हरियाली की चादर औढे खेत खलिहान व जंगल के दृश्य मन को तरोताजा करते।

हरियाली की चादर औढे खेत-खलिहान व जंगल का बाहरी दृश्य

अगले दिन इसी रेल से आ रहा विश्वविद्यालय के छात्रों का दल, जिसे शाम 6 बजे टाटानगर पहुँचना था, वो ब्रह्ममुहूर्त में सवा 3 बजे प्रातः पहुचता है। अर्थात आज रेल पूरा 9 घंटा लेट थी। थोड़ा बहुत कोहरे का भी असर रहा होगा, लेकिन पता चला कि यह रेल ऐसी लेट-लतीफी के लिए कुख्यात है, जो प्रायः सवारियों के लिए परेशानी का सबब बनती है। विशेषकर जब किसी को आपात में जल्दी पहुँचना हो, या आगे की यात्रा इससे जुड़ी हुई हो, तो ऐसी लेत-लतीफी घातक एवं अक्षम्य श्रेणी की चूक में गिनी जा सकती है। रेल मंत्रालय को इस ओर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है।

रास्ता भर मसाले वाली इलायची व अदरक चाय तथा कॉफी ही गर्म पेय में मिलती रही। पहले दिन सर्विस चुस्त-दुरुस्त रही, दिन भर पेंट्री सेवाकर्मियों के केविन में यदा-कदा चक्कर लगते रहे। कितनी बार भोजन और नाश्ते के वारे में पूछते रहे। लेकिन दूसरे दिन सर्विस ढीली पड़ गई थी, दिन में 12-1 बजे तक पानी की बातल तक नसीव नहीं हो पायी थी। मसाला चाय से तंग आ चुकी सवारियों के लिए स्टेशन पर केतली में ताजा चाय और लेमन टी की व्यवस्था स्वागत योग्य अनुभव था। स्वाभाविक रुप में स्वारियां दिन भर टाइमपास के लिए कुछ न कुछ चुगती रहती हैं। ऐसे में लंच या डिन्नर में हल्का भोजन अपेक्षित रहता है। लेकिन रेल में पूरी थाली से कम कोई दूसरी व्यवस्था नहीं दिखी, जिसमें लगा सुधार की जरुरत है। हल्का आहार लेने के इच्छुक सवारियों के लिए हाल्फ प्लेट जैसी व्यवस्था रेल विभाग कर सकता है।

टाटानगर पहुँचकर संक्षिप्त विश्राम कर हम, प्रातः अगले गन्तव्य की ओर बढ़ते हैं, जो था यहाँ से 132 किमी की दूरी पर स्थित झारखण्ड की राजधानी रांची का एक अकादमिक संस्थान। पिछली तीन झारखण्ड यात्राओं में हम अधिकाँशतः धनवाद से होकर राँची आए थे और इस बार टाटानगर से राँची की ओर जाने का संयोग बन रहा था। सुवर्णानदी के किनारे टाटानगर-राँची एक्सप्रेैस मार्ग पर हमारी पहली यात्रा होने वाली थी। नए रुट पर सफर की उत्सुक्तता और रोमाँच का भाव स्वाभाविक था, जिसका यात्रा विवरण आप अगली पोस्ट में पढ़ सकते हैं। सुवर्णरेखा के संग टाटानगर से राँची का सफर

जुबिली पार्क, टाटानगर, जमशेदपुर, झारखण्ड, भारत

जब आया बुलावा माता वैष्णों देवी का, भाग-1


स्वर्णमंदिर से होकर भगवती माँ के द्वार तक

लम्बे समय के बाद चिरप्रतिशित शैक्षणिक भ्रमण का संयोग बन रहा था। ऐसे लग रहा था कि जैसे माता का बुलावा आखिर आ ही गया। क्योंकि दो-तीन वार पहले पूरी योजना के वावजूद यहाँ नहीं जा पाए थे। इस बार भी एक तिथि निर्धारित होने के बावजूद एक बार फिर स्थगित करना पड़ा, क्योंकि किसान आंदोलन के कारण इन तिथियों में पंजाब बंद का ऐलान हुआ और बस तथा रेल यातायात बाधित हो गए थे।

आखिर जैसे हमारे पुण्य उदय हो गए थे और रास्ता खुल गया। रात को शिक्षक और विद्यार्थियों का पूरा दल हरिद्वार से वैष्णुदेवी एक्सप्रैस में चढता है, पहला पड़ाव स्वर्णमंदिर अमृतसर था। यहां पर माथा टेकने और तन-मन से शुद्ध होकर माता के दरवार की यात्रा से बेहतर क्या हो सकता था। हरिद्वार से अमृतसर का रात का सफर सोते-सोते बीत गया। प्रातः अमृतसर पहुँचते हैं।


अमृतसर के ऐतिहासिक रेल्वे स्टेशन के बाहर से स्वर्णमंदिर के लिए बस में बैठते हैं, जो गुरुद्वारे के बाहर कुछ दूरी पर छोड़ती है। परिसर की ओर पैदल मार्ग की भव्यता देखते ही बन रही थी। पहले तंग गलियों से होकर गुजरना पड़ता था, लगा हाल ही में इस मार्ग का पुनर्निमाण हुआ है। गुरुद्वारे के बाहर स्नानगृह में यात्रियों के फ्रेश होने की उम्दा व्यवस्था है, जहाँ सभी तरोताजा होकर क्लॉक रुप में सामान जमा करते हैं और फिर मंदिर में दर्शन के लिए आगे बढ़ते हैं।  

स्वर्ण मंदिर के दिव्य दर्शन

मुख्य द्वार से प्रवेश करते ही पावन सरोवर और स्वर्ण मंदिर की पहली झलक के साथ दिव्य भावों की झंकार होती है। पावन सरोवर में आचमन के साथ तन-मन व अन्तःकरण की शुद्धि करते हुए, तीर्थ चेतना का भाव सुमरण करते हुए आगे बढ़ते है। हाथ जोड़े श्रद्धालुओं की अनुशासित भीड़, वातावरण में शब्द-कीर्तन की मधुर संगीतमय ध्वनि दर्शनार्थियों को रुहानी भाव के सागर में गोते लगाने के लिए प्रेरित करती है। भाव समाधि की इस अवस्था की अनुभूति वर्णनातीत है। इसे तो वस अनुभव किया जा सकता है, जिया जा सकता है।

परिक्रमा एवं भाव सुमरण के बाद यहाँ के यादगार पलों को केप्चर करने के लिए सेल्फी एवं फोटो का क्रम चलता है। हम इससे निवृत होकर परिक्रमा पथ के एक कौने में बैठ ध्यान सुमरण में मग्न होते हैं। किसी दर्शनार्थी का सर कहकर संबोधन हमें चौंकाता है, कोई हमारी कुशल-क्षेम पूछता प्रतीत होता है। ये सज्जन शिमला यूनिवर्सिटी के पूर्व छात्र सिमरनजीत सिंह निकले, जिनसे मिलकर अतीव प्रसन्नता हुई। वो सपरिवार यहाँ दर्शन के लिए आए थे। किन्हीं पलों में हुई प्रगाढ मुलाकातें कैसे समय के धुंधलके में ढकी होने के वावजूद आज तरोताजा हो रहीं थी। इसके बाद पूरा दल एकत्र होकर लंगर छकता है, जहां का अनुशासन, भक्ति और सेवा का भाव सदा ही आह्लादित करता है।

जलियाँवाला बाग दर्शन

इसके बाद गुरुद्वारा के बाहर जलियाँबाला बाग का दर्शन करते हैं, जो यहाँ से मुश्किल से 200 मीटर दूर होगा। अंग्रेजी जनरल डायर की क्रूरता की कहानियाँ यहाँ दिवारों में गोली को निशांनों से लेकर कुँए में देखी जा सकती है, जिसमें भीड़ जान बचाने के लिए कूद पड़ी थी। इतिहास के इस काले अध्याय को स्मरण कर ह्दय व्यथित रहोता है, आक्रोश जगाता है। और स्वतंत्रता संग्राम में पूर्वजों के त्याग-बलिदान और खूनी संघर्ष की याद दिलाता है। जिस स्वतंत्रता की हवा में आज हम सांस ले रहे हैं, यह किस कीमत पर हमें मिली है। काश, हम इसकी कीमत को याद रखते।

अमृतसर से बाघा बोर्डर की ओर -

अमृतसर की ही छात्रा से पूछने पर कि अमृतसर की खास डिश क्या है, तो जबाव लस्सी मिला। यहीं की गलियों में एक लस्सी की दुकान पर, इसका आनन्द लिया और फिर अगले पड़ाव बाघा बोर्डर की ओऱ ऑटो टैक्सी में चल दिए। ऑटो टैक्सी स्टैंड पर छोड़ दिया और हम पैदल 2 किमी चलते हैं। रास्ते में मूँछों वाले फौजी भाई के साथ एक यादगार फोटो लेते हैं। और अंत में बोर्डर पर बने स्टेडियम नुमा भवन में अंदर प्रवेश करते हैं, जहाँ आमने-सामने भारी भीड़ थी और बोर्डर के दूसरी ओर पाकिस्तान की जनता व सैनिक मौजूद थे।

इस ओर तथा उस ओर भीड़ ही भीड़ थी, लेकिन फौजियों के ड्रिल व देशभक्ति के गीतों के साथ झूमती भीड़ का दृश्य एक अलग ही दृश्य था, जिसे हम जीवन में पहली बार अनुभव कर रहे थे। जोशिले नारों के बीच जनता का जोश देखते ही बन रहा था। बीच गलियारे में देश भक्ति के गीतों पर कन्याओं व महिलाओं को झिरकने व झूमने का विशेष आमंत्रण मिल रहा था। देश भक्ति के गीतों के संग इनकी सामूहिक थिरकन समां बांध रही थी। फिर बीएसएफ की स्पेशल पलटन के स्त्री व पुरुष फौजियों का एक-एक कर ड्रिल होता है। इनके शौर्य, पराक्रम, अनुशासन व जीवट की झलक इनकी पैरेड व ड्रिल में स्पष्ट थी, जिसका संचार सीधे दर्शकों के अंतःकरण में हो रहा था। इसी के साथ भारत-पाकिस्तान सीमा पर झंडों का अवरोहण होता है। पाकिस्तान की ओर सैनिकों व जनता की भीड़ कम ही थी। पलड़ा इधर भारी दिख रहा था।

बापिसी में ग्रुप फोटो के साथ सेल्फी लेते हैं। आकर्षण रहता है गगनचुंबी तिरंगे और अशोक स्तम्भ का। ऑटो से पुनः स्वर्णमंदिर के बाहर उतरते हैं, लंगर छकते हैं और स्वर्ण मंदिर को प्रणाम कर बुक की गई बस से कटरा के लिए प्रस्थान करते हैं।

अमृतसर से कटरा की बस यात्रा

अमृतसर से हम रात को 10 बजे बस में चल पड़े। यह एक ऐसी बस में यात्रा का पहला अनुभव था, जिसमें कोई सीट नहीं थी। ऊपर-नीचे, आगे-पीछे केविन बने थे, जिसमें नीचे गद्दे बिछे थे अर्थात पालथी मारकर या लेटकर सफर की व्यवस्था थी। कुल मिलाकर रात के हिसाब से सोने के लिए माकूल व्यवस्था थी। हर केबिन में दो लोग रुक सकते थे। हम भी सोते हुए सफर पूरा किए। नई रुट पर सफर के रोमाँच के चलते नींद नहीं आ रही थी, बाहर पर्दे से झांककर देखते रहते कि कहाँ से गुजर रहे हैं। रास्ते में पठानकोट, जम्मु जैसे स्टेशन आने हैं, इसका अनुमान था, पहली बार यहाँ से गुजरते हुए, इनको एक नजर देखने की उत्सुक्तता थी।

इसी बीच बस रास्ते में 15-20 मिनट रुकी। अधिकाँश सवारियाँ घोड़े बेचकर सो रही थी। हमारे सहित कुछ एक लोग ही बाहर निकले, फ्रेश हुए व चाय की चुस्की के साथ तरोताजा हुए। आगे रास्ते में कुछ-कुछ पहाड़ दिखने शुरु हो गए थे। बीच में नींद का गहरा झौंका आ गया और जब नींद खुली तो स्वयं को जम्मु से गुजरते पाया। बाहर सुंदर नक्काशी, हरी-भरी लताओं से सज्जा बस स्टेशन तथा रोशनी की जगमगाहट के बीच बस को गुजरते पाया। फिर नींद का झौंका आया और जब आँख खुली तो बाहर ऊंचे-ऊँचे पहाड़ों की गोद में बस को झूमते पाया। पहाड़ों के शिखर व गोदी में टिमटिमाटी रोशनियाँ, बलखाते मोड़, दूर रोशनियों से जगमाते गाँव व कस्वे मंजिल के करीब पहुंचने का गाढ़ा अहासस दिला रहे थे।

रास्ते में ही भौर हो चुकी है, हमारी बस का गन्तव्य कटरा आने वाला था। लो ठीक छः बजे हमारी बस स्टेशन पर खड़ी हो गई। 

बाहर निकलते ही चारों ओर गगनचुम्बी पहाड़, इनमें माता वैष्णुदेवी की ओर बढते राह का दृश्य हमें रोमाँचित कर रहा था, जिसे आज कुछ घंटों बाद हमें तय करना था। पहाड़ों को काटकर बनाए गई सड़कें, टीनशैड़ से ढ़के मार्ग, बीच में मुख्य पड़ावों के दिग्दर्शन। इस रुट पर पहली तीर्थ यात्रा कर चुके विभाग के युवा शोधार्थी एवं शिक्षक रजत हमें दूर से ही मार्ग के पड़ावों का विहंगावलोकन करबा रहे थे।

बस स्टैंड से समान उतरता है, मौसम में ठंड का अहसास हो रहा था, जो हरिद्वार से अधिक कड़क था। सभी लोगों के गर्म कपड़ों की उचित व्यवस्था थी, सो कोई परेशानी की बात नहीं थी। सभी एक भिन्न परिवेश में, एक नए देश में स्वयं को पाकर रोमाँचित थे। आगे की यात्रा के लिए तैयार थे। किसी होटल या धर्मशाला में फ्रेश होने से लेकर सामान रखना था, ताकि फ्रेश होकर आवश्यक सामान के साथ आगे की यात्रा पर कूच किया जा सके। बस स्टैंड के पास ही एक होटल की व्यवस्था हो जाती है, सभी फ्रेश होते हैं, कुछ विश्राम करते हैं और फिर बाहर एक ढावे में नाश्ता कर माता बैष्णुदेवी के धाम की ओर चल पड़ते हैं।

होटल से ही एक बैन में बारी-बारी 8-10 लोगों की टुकड़ियों में हम कटरा के बाजार को पार करते हुए बैरी के पेड़ के पास उतरते हैं। ग्रुप फोटो खेंच, माता के जयकारे के साथ आगे बढ़ते हैं। यहाँ से मुख्य द्वार 3 किमी के लगभग था। रास्ते में ही एक बुढ़ी अम्मा से 20 रुपए में एक लाठी खरीदते हैं, जिसका पहाड़ी सफर में विशेष सहारा व योगदान रहता है। सभी लोग मुख्य द्वार में इकटठे हो जाते हैं। ऑनलाइन बुकिंग के कारण सभी निश्चिंत थे कि यहाँ से अब सीधे आगे की यात्रा करेंगे। लेकिन पता चला कि ऑनलाइन बुकिंग स्वीकार्य नहीं है, पिछले महीनों विवाद व तोड़फोड़ के कारण इस व्यवस्था को निरस्त किया गया था। कटरा में बस स्टैंड के आसपास दो स्थानों पर ऑफलाइन बुकिंग की व्यवस्था है। लगा अभी माता रानी परीक्षा ले रही हैं, पूरा दल बापिस 3 किमी आटो में बैठकर बुकिंग स्थल पर पहुँचता है, लाइन में लगकर टिकट लेता है औऱ फिर मुख्य द्वार पर पहुँचता है। और माता के जयकारे के साथ उत्साह से लबरेज मंजिल की ओर आगे बढ़ता है। 

आगे की यात्रा के लिए पढ़ें - बाणगंगा से माता वैष्णों देवी तक का सफर, भाग-2

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शनिवार, 30 सितंबर 2023

वरसात का विप्लवी मंजर और यात्रा का रोमाँच

चैलचोक से पंडोह व कुल्लू की पहली यात्रा

वर्ष 2023 का जुलाई-अगस्त माह भारत के हिमालयी क्षेत्र व साथ में लगे तराई व मैदान के लोगों को लम्बे समय तक याद रहेगा, जब लगातार भारी से भारी मूसलाधार बारिश के बीच कूपित प्रकृति के कोप ने जनमानस को दहशत के साय में जीने के लिए विवश किया था। 9-10 जुलाई, 14-15 अगस्त और फिर 23-24 अगस्त - ये तीन तिथियाँ इस संदर्भ में सदा याद रहेंगी।

इस दौर में बारिश का कहर कुछ इस तरह से बरसा था कि हिमालयी क्षेत्र के हिमाचल प्राँत में कुल्लू-मानाली-मंडी-शिमला-सोलन क्षेत्र विप्लवी मंजर के बीच गुजरते दिखे, जिसका विस्तार नीचे चंडीगढ़ पंजाब से लेकर दिल्ली-आगरा तक रहा। 12 अगस्त को हमारा हरिद्वार से कुल्लू जाने का संयोग बन गया था। मकसद अपने जन्मदिन को मनाने के साथ पिछले माह गृहक्षेत्र में बरसात में हुई भयंकर तबाही को नजदीक से देखने व अनुभव करने का भी था।

इससे पहले 9-10 जुलाई की भयंकर बारिश के दौरान हमारा गृहक्षेत्र कुल्लू-मानाली बूरी तरह से प्रभावित हुआ था। कुल्लू से मानाली के बीच के राइट बैंक का राष्ट्रीय मार्ग जगह-जगह से धड़ाशयी हो गया था, सड़क के नामो-निशान बीच-बीच में मिट गए थे। बस-कारें-ट्रक और नदी किनारे आबाद घर जल में धड़ाशयी होकर बहते नजर आ रहे थे। बादल फटने की तमाम घटनाएं इस दौरान होती रही, जिसमें गाँव के गाँव तथा जंगल-वस्तियाँ उजड़ती दिखीं। चारों ओर हाहाकार औऱ चीत्कार के स्वर उठ रहे थे। खंड जल प्रलय की स्थिति के दर्शन हो रहे थे।

कुल्लू से मंडी के बीच पिछले 50 से 100 वर्षों तक शान से खड़े पुल ब्यास नदी के उफान में ताश के पत्ते की भांति धड़ाशयी होते दिखे थे। जगह-जगह भूस्खलन की घटनाओं के बीच गाँव वासी दहशत में जीने के लिए विवश हो गए थे। इस बीच हमारे ही दोनों पुश्तैनी गाँवों में पीछे से पहाड़ दरकना शुरु हो गए थे, दोनों ओर से भूस्खलन और बादल फटने के बीच आए दिन कभी दिन को तो कभी रात को नालों में ऐसे दृश्य खड़े हो जाते कि समाचार पढ़कर तथा सोशल मीडिया में आ रहे विजुअल देखकर रुह कांप जाती। इस दौरान वहाँ रह रहे लोगों पर क्या बीती होगी, यह भुगतभोगी ही बता सकते हैं।

बरसात की पहली मार में अनुमान था कि कुल्लू-मानाली क्षेत्र 25 साल पीछे चला गया था, क्योंकि अगले 2 माह तक क्षतिग्रस्त सड़कें आंशिक रुप से ही ठीक होती रहीं, जिसमें फल-सब्जी का सीजन बुरी तरह से प्रभावित हुआ, क्योंकि येही सड़के मैदानी इलाकों की बड़ी मंडियों तक इनको ले जाने की लाइफ-लाइन रहती हैं। (पिछले दिन 29 सितम्बर को ही पहली बोल्वो बस के मानाली तक पहुँचने के समाचार मिले हैं। हालांकि मंडी-कुल्लू नेशनल हाइवे आंशिक रुप से बसों के लिए पिछले 2-3 सप्ताह से खुल चुका था।)

9-10 जुलाई के बाद दूसरा मंजर अभी इंतजार में था। इससे बेखबर हम अपने गृहक्षेत्र की यात्रा पर थे, इसके पीछे भी दैवी संयोग ही था, जिसका राज आगे स्पष्ट होगा। बस हरिद्वार से चल पड़ी ही थी कि खबर मिली कि सुंदरनगर क्षेत्र में बारिश बहुत तेज हो रही है और खड्ड़ में अत्यधिक जल भरने से कई किलोमीटर सड़कें जलमग्न हो गई हैं। हल्की बारिश रास्ते भर हो रही थी। हमारी बस रात को अंबाला-चंडीगढ़-रोपड़ को पार करती हुई कीरतपुर से आगे टनल में प्रवेश करते हुए बिलासपुर पहुँचती है। नए रुट पर रोशनी व अंधेरे की आंख-मिचौली के बीच हल्की से तेज बारिश के साथ सफर आनन्ददायक लग रहा था।

ड्राइवर तथा कंडकटर के संवाद से समझ आ रहा था कि रूट डायवर्ट किया जा रहा है। घाघस से धुमारवीं होकर हम आगे बढ़ रहे थे। सुंदरनगर की बजाए हम सीधा नैरचौक पहुंचते हैं और बारिश के बीच रात अढाई बजे मंडी पहुँच चुके थे। पता चला कि आगे 6 मील पर पूरा पहाड़ नीचे आ गया है, रास्ता बंद है और अगले दो दिन तक रस्ता खुलने के आसार नहीं हैं। इसी के साथ बस, बस-स्टैंड पर एक कौने पर खड़ी हो जाती है। प्रातः दस बजे तक बस में ही इंतजार करते बीते, आगे के लिए कोई बैकल्पिक मार्ग की छोटी या बड़ी गाडियां नहीं मिल सकी। भाईयों से टेलिफोनिक संवाद से पता चला कि फल के बाहन भी रास्ते में फंसे हुए हैं, सुंदरनगर साइड में खड़ड में पानी खत्तरे के स्तर को पार कर आसपास के इलाकों को जलमग्न किए हुए है।

मंडी से दो ही वैकल्पिक मार्ग कुल्लु के लिए थे - एक कंडी-कटौला होकर, जहाँ से छोटी गाँडियाँ चलती हैं, लेकिन आज यह भी भूस्खलन के चलते बंद था। दूसरा चैलचोक से होकर, जो पंडोह तक पहुंचाता है। मंडी से पंडोह सीधे मुश्किल से पोन घंटे का रास्ता है, जो कैरचोक के धुमावदार रास्ते से होकर 3-4 घंटे का हो जाता है। खैर आपातकाल में जहां 24 घंटे तक रास्ता खुलने के असार नहीं हों, तो ये 3-4 घंटे भी अधिक नहीं लगते, जब किसी तरह घर पहुंचना प्राथमिकता में रहता है।

किसी भी वैकल्पिक रुट के लिए कोई बस या टैक्सी नहीं मिल रही थी। इसी बीच फ्रेश होकर पास के ढावे में आलू-पराँठा, दही व चाय के नाश्ते के साथ तृप्त होकर अपना सामान पीठ पर लादे पास के पुल तक चहलकदमी करते हैं। कुछ पिछले सात-आठ घंटे तक बस में बैठकर शरीर में हॉवी हो चुकी जकड़न से निजात पाने के लिए, तो कुछ पुल से सुकेत खड्ड़ का मुआइना करने के भाव के साथ, जिसमें भयंकर जलभराव के समाचार आ रहे थे।

पुल पर पहुंचते ही नजारा साफ था, लोग पुल पर खड़े होकर भय मिश्रित आश्चर्य के साथ इसके उग्र स्वरुप के दीदार कर रहे थे। सुकेत नदी विकराल रुप लिए हुए थी। इसका प्रवाह पुल के नीचे से पार होकर आगे ब्यास नदी में मिल रहा था। दोनों के संगम पर दायीं और पंचवक्र शिव मंदिर है, जिसके दीदार 9-10 जुलाई के विप्लवी बाढ़ के मंजर के बीच पूरे विश्व ने किए थे, जिसमें केदारनाथ त्रास्दी की भीमशिला से संरक्षित केदारनाथ मंदिर के समकक्ष भोलेनाथ के दैवीय स्वरुप के भाव शिवभक्तों के ह्दय में झंकृत हुए थे, जब ऐसा लगा था कि स्वयं सावन भोलेनाथ के अभिषेक के लिए उमड़ पड़ा हो। आज पुल से इसके दिव्य तीर्थ का दूरदर्शन कर रहा था। लगा बाबा ने हमारी व्यथा-वेदना सुन-समझ ली थी।

वहाँ से बापिस होते ही बस स्टैंड पर हमें पठानकोट-कुल्लू बस के दर्शन हुए। पूछने पर पता चला कि ये चैलचोक से होकर पंडोह व आगे कुल्लू तक जा रही है। बस में आगे ही ड्राइवर के पीछे दूसरी पंक्ति में सीट मिल जाती है। घर पहुँचने का पहला मोर्चा फतह होते दिख रहा था, आठ घंटे का इंतजार खत्म हो रहा था। अगले आधे घंटे में बस के पूरा भरने के बाद हम चल पड़े नए-अनजान मार्ग पर, जिसके बारे में भाई से बहुत-कुछ सुना था। नए क्षेत्र से होकर यात्रा की उत्सुकतता व रोमाँच का भाव चिदाकाश में उमड-घुमड़ रहा था और हमारी बस मंडी से नैरचोक की ओर बढ़ रही थी।.......(शेष अगली पोस्ट में)     

मंगलवार, 1 अगस्त 2023

2023 का सावन और प्रकृति का रौद्र रुप

                                      प्रकृति की करारी मार में निहित संकेत-संदेश

इस वार मई-जून के माह से प्रकृति की विचित्र लीला के दर्शन हो रहे थे, जिसमें गर्मी की वजाए, लगातार वारिश होती रही, विशेषकार पहाड़ों व इनके तलहटी क्षेत्रों में। परिणामस्वरुप गर्मी की झुलसन बैसी तल्ख नहीं रही, जो हर वर्ष मई-जून माह में प्रायः कई सप्ताह तक रहती थी। हिमालयन घाटियों-वादियों में सघन हरियाली छाई रही। मौसम खुशनुमा बना रहा। गर्मी के महीनों में इतनी हरियाली के दर्शन कई दशकों बाद हो रहे थे। इसके साथ भूमि के अंदर जल स्रोत पर्याप्त रुप से समृद्ध हो चुके थे। भूमि में जल जैसे रच-बस चुका था, जगह-जगह से जल स्रोत फूट रहे थे और कभी इस मौसम में सुखे रहने वाले नाले दनदनाते हुए नदी तक प्रवाहित हो रहे थे। आश्चर्य नहीं कि इस वर्ष मैदानों व शहरों में गर्मी व घिचपिच आवादी के तनाव-अवसाद से राहत पाने, कुछ दिन शांति-सूकून व शीतल आवोहवा का आनन्द लेने वाले पर्यटकों की संख्या हिल स्टेशनों में बढ़ी-चढ़ी रही।

गर्मी के मौसम में प्रकृति का यह अप्रत्याशित व्यवहार एक ओर जहाँ गर्मी से राहत देता विशिष्ट उपहार लग रहा था, वहीं इसके साथ जलवायु परिवर्तन की आहट भी सुनाई दे रही थी, जिसके कुछ दुष्परिणाम भी प्रत्यक्ष दिख रहे थे। इस बार प्लम से लेकर सेब की फ्लावरिंग ठंड के कारण दो सप्ताह पीछे चली गई थी औऱ फल उत्पादन का भी इसी हिसाब से प्रभावित होना तय था। लेकिन जुलाई के आते-आते मानसून के साथ पश्चिमी विक्षोभ का संगम-संयोग पहाड़ों में कहर बनकर बरसा, जिससे मैदानी इलाकों तक जनजीवन त्राहि-त्राहि कर उठा।

हालात कुछ ऐसे बन गए थे, जो 2015 की केदारनाथ त्रास्दी के दौरान रहे। खण्ड जलप्रलय के परिदृश्य दो-चार दिन में स्थान-स्थान पर प्रत्यक्ष हो उठे थे। दिल्ली में चालीस वर्षों का वारिश का रिकॉर्ड ध्वस्त हो रहा था, तो हिमाचल में कुल्लू से मंडी इलाके में पिछले 50 से सौ वर्षों तक शान के साथ ब्यास नदी के किनारे खड़े पुल व भवन ताश के पत्तों की भांति धड़ाशयी हो रहे थे। पंजाव के चंडीगढ़-मोहाली शहरों के बीच नदी से लेकर झीलों के दर्शन हो रहे थे, तो प्राकृतिक प्रहार ने कुल्लू से मानाली के बीच के राइट बैंक नेशनल हाइवे को पूरी तरह से ध्वस्थ कर दिया। रासयन से आगे मानाली के बीच जगह-जगह पर सड़क के नामो-निशान मिट गए हैं। घाटी में जगह-जगह बादलों का फटना, गाँवों-घरों, कस्वों व शहरों का उजड़ना, जनजीवन का दहशत में जीने के लिए विवश-वाध्य होना आम परिदृश्य रहा और इस सबके बीच प्रकृति की अपराजय सत्ता के सामने मनुष्य अपने असहायपन व बौनेपन का तीखा अहसास, आए दिन करता रहा।

प्रकृति की गोद में बसी देवभूमि जैसे कह रही थी कि बहुत हो गया पर्यटन व्यसाय, एक तरफा बिजनस-धंधा, आधुनिकता के नाम पर पिकनिक, भोग-विलास, राग-रंग से भरा शौर-गुल, दोहन-शौषण व दूषित आचरण। अब मुझे कुछ दिन एकांत में छोड़ दो, अपने हालात में, अपने प्राकृतिक-आदिम स्वरुप में, एकांत-शांत-नीरव-आनन्दमय व ध्यानस्थ अवस्था में। मेरी शांति अब कुछ दिन भंग मत करो।

दिल्ली में राजधानी के ह्दय क्षेत्र क्नॉट प्लेस तक इस बीच झील बन गई थी, आगरा में ताजमहल के आंगन तक यमुना नदी का स्तर पहुँच गया था। वृंदावन में तो जैसे यमुना शहर में प्रवेश कर गई थी, अपनी पुरानी राहों को तलाशते हुए, अपने ईष्ट से मिलने के लिए आकुल। इस प्राकृतिक आपदा में प्रकृति के चमत्कार, दैवीय संकेत एवं दिव्य संयोग भी स्पष्ट रुप में प्रत्यक्ष होते गए, जो ईश्वरीय अस्तित्व में विश्वास रखने वालों की आस्था को ओर मजबूत करते गए।

इस पूरे खंड जल-प्रलय के विप्लवी दृश्य के बीच छोटी काशी के नाम से प्रख्यात हि.प्र. के शहर मण्डी में व्यास नदी के किनारे चार सौ वर्ष पुराना पंचवक्त्र शिवमंदिर शांत-स्थिर-अविचल अवस्था में खड़ा रहा। ऐसा प्रतीत होता रहा, कि जैसे सावन स्वयं भगवान शिव को अभिषेक करने के लिए उमड़ पड़ा हो। यह कुछ ऐसा ही दृश्य था, जैसे केदार त्रास्दी के दौरान बाबा केदार भीम शीला की आढ़ में अविचल खड़े रहे। फिर हनोगी माता के आगे जहाँ ब्यास नदी हर वर्ष सड़क को छुकर जाती थी, वह इस वर्ष पूरी तरह से ध्वस्थ हुई। इससे पूर्व कभी यह सड़क ध्वस्त नहीं हुई थी। इसी वर्ष इसके समानान्तर पहाड़ों के अंदर सुरंग तैयार हो चुकी है, जहाँ से यातायात सुचारु हो चुका है। ऐसे लगता है कि प्रकृति ने इसका इंतजार किया, हनोगी माता ने इस राह पर अब तक कृपा बनाए रखी। ऐसे लगता है कि जैसे अब भगवती भी शांति चाहती हैं, एकांत चाहती हैं, अपने ईष्ट महाकाल के साथ अपने मूल स्वरुप में कुछ काल विताना चाहती हैं। हनोगी माता के आगे का पुराना सड़क मार्ग इस वर्ष पूरी तरह से ध्वस्त हुआ है।

दिल्ली में जमुना नदी तो वर्ष के अधिकाँश समय गंदे नाले के रुप में सड़ांध से अभिशप्त रहती हैं, जिस पर उद्योगों का अवशिष्ट कचरा निरंतर प्रवाहित होता रहता है, जिस कारण इसका जल गंदे नाले से भी अधिक दूषित एवं वदरंग रहता है और इस पर इतनी झाग छायी रहती है कि इसका स्वरुप तक समझ नहीं आता। इस बाढ़-विप्लव में पहली बार यमुना नदी को जीवित-जीवंत प्रवाहित देखा। यह अलग बात है कि दिल्ली से लेकर मथुरा-वृंदावन को इस प्रवाह ने कुछ दिन जल-मग्न रखा और कुछ सोचने विचारने, चिंतन-मनन व आत्म मंथन करने के लिए विवश दिया।

और यह जुलाई माह में, सावन माह में, भोले नाथ के पावन काल में, कुपित प्रकृति के प्रहार के बीच हर क्षेत्र के मानुष समुदायों के लिए सोचने, विचारने, सुधरने के लिए प्रखर संदेश, स्पष्ट संकेत मिलते रहे हैं। और इंसान इनको कितना इनको समझ पाया है, कितना गुन पाया है, समझकर, गुनकर आगे कितना अमल करता है, यह देखना शेष है। आशा है कि वह लम्बे समय तक इस बार मिले सबकों को याद रखेगा और प्रकृति से मिले संकेतों व संदेशों के अनुरुप व्यैक्तिक एवं सामूहिक स्तर पर अपने आचरण में आवश्यक सुधार लाने की भरपूर चेष्टा करेगा और अपने तथा भावी पीढ़ी के भविष्य को बेहतरीन बनाने की दिशा में कदम उठाएगा।   

शुक्रवार, 30 जून 2023

सावन में 14 घंटे का वह ऐतिहासिक सफर

                                      14 घंटे के जाम के बीच 14 घंटे का यादगार सफर

2023 के सावन का 14 घंटे का सफर, हरिद्वार से कुल्लू, हमेशा याद रहेगा। क्योंकि ऐसा जाम कभी नहीं देखा था, भोगा था और संभवतः आगे भी ऐसी नौवत नहीं आएगी। अपनी मंजिल पर पहुंचने से महज 2 घंटे पहले, ऐसे जाम में फंसे की अगले 14 घंटे, इसकी छत्रछाया में जीवन के सारे फलसफे चिदाकाश पर तैरते हुए, जीवन का गाढ़ा बोध दे गए। इस रुट पर पिछले चार दशकों के सफर की स्मृतियों का जैसे इस दौरान प्रक्षालन हुआ। दैवीय विधान के अन्तर्गत कुछ भी अनायास तो नहीं होता, ऐसा ही कुछ इस यादगार यात्रा के अनुभव रहे।

     जून के अंतिम सप्ताह के रविवार देसंविवि, हरिद्वार परिसर से हरिद्वार बस स्टैड की ओर चल पड़े थे। 4 बजे बस थी और सवा तीन चलते-चलते बच गए थे। तैयारियों की व्यवस्तता में भूल गए थे कि आज रविवार है और मालूम हो कि हरिद्वार-ऋषिकेश रोड़ पर सप्ताह अंत के दो दिनों में दिन भर वाहनो के काफिले रेंगते रहते हैं, 3-4 घंटे में 8-10 किमी का सफर पूरा होता है, और कभी तो इससे भी अधिक। आज भी वाहन ड्राईवर पहले ही चेतावनी दे रहे थे कि कल तक बस स्टैंड पहुंच जाओ, तो भी जल्दी मानना। वह पहले ही दिन की पारी में बस स्टैंड से विश्वविद्यालय परिसर तक एक राउँड में 3-4 घंटे के जाम में फंस चुका था।

     खैर हमारे पास कोई विकल्प नहीं था। हाँ प्लान बी जरुर था कि यदि हरिद्वार से बस छूट गई तो, किसी भी बस में चण्डीगढ़ तक निकल जाएंगे, वहाँ से किसी भी दूसरी बस में अपने गन्तव्य की ओर कूच कर जाएंगे। इसी प्लान के साथ ड्राइवर को सप्तऋषि चूंगी से मैन हाइवे (जहाँ ट्रैफिक चिंटी की चाल रेंग रहा था) से हट कर भारत माता की ओर से आगे बढ़ते हैं। इसी के समानान्तर बांध के ऊपर गंगा के किनारे से भी वैकल्पिक मार्ग है, जो दिन को बड़े बाहनों के लिए बंद रहता है। हम भारत माता वाइपास के छोर पर भूपतवाला के पास मुख्यमार्ग में निकलते हैं, हमारी किस्मत के लिए यहाँ हमारी ओर का ट्रेफिक खुल चुका था, दूसरी ओर का बंद था। सो हम कुछ ही मिनट में हर-की-पौड़ी पार करते हुए फ्लाई ओवर पर चढ़ जाते हैं, क्योंकि नीचे के मार्ग में फिर जाम था। इस तरह फ्लाई ओवर के दूसरे छोर से मुड़ कर वाइं ओर से आगे बढ़ते हुए फ्लाई ओवर के नीचे से तिराहे के पार गंगनहर के समानान्तर पुलिया से पार होते हैं व अग्रसेन चौक से होकर प्रेस क्लव से होते हुए बस स्टैंड पहुँचते हैं। काऊंटर पर हरिद्वार-मानाली हिमधारा बस खड़ी थी। कन्डक्टर के ईशारे पर काउंटर पर जा पहुँचे हैं, 3 बज कर 45 मिनट हो चुके थे, 15 मिनट शेष थे। अनुमान था कि काउंटर पर भारी भीड़ होगी, जो पिछली बार हमने झेली थी। लेकिन आश्चर्य, इस बार मात्र एक सवारी खड़ी थी। हमे तुरन्त ही अपनी इच्छानुकूल खिड़की बाली 24 नम्बर सीट मिल जाती है। अंदर बस में पहुँचते हैं, एक तिहाई ही भरी थी। हमारे लिए इतनी सहजता से आज मनचाही सीट मिलना किसी चमत्कार से कम नहीं था। हमारे प्लान बी को लागू करने की नौवत नहीं आने दी प्रभू ने।

     बस ठीक 4 बजे चल देती है, गन्तव्य तक कब पहुँचेगी, कंडक्टर ने 5,30 का समय बताया। 14 घंटे का हमारा अनुमान लगभग सही निकला, जितना औसतन इस रुट पर एक बस समय लेती है।

     हल्के अभिसिंचन के साथ यात्रा शुरु होती है। अनुमान था कि आगे भारी बारिश का सामना हो सकता है, क्योंकि 80 से 90 प्रतिशत बारिश की भविष्यवाणी गूगल देवता कर रहे थे। और पहाड़ों में तो भूसख्लन से लेकर बादल फटने की घटनाएं समाचारों में फ्लैश हो रही थी।

लेकिन हमारा यह अनुमान गलत निकला। रुढ़की – सहारनपुर से होते हुए हम मनका-मनकी के चण्डीगढ़ ढावे में शाम के अंधेरे के बीच पहुँचते हैं। रास्ते भर आसमान में हल्के बादलों के बीच ढलते सूरज के दर्शन होते रहे। रास्ते के हरे-भरे खेत, आम से लदे बगीचे, धान की ताजा रुपाई से पानी के बीच झूमते चावल के नन्हें पौधे और बीच में बरसाती जल से उफनता यमुना नदी का जलस्तर। सड़क के पास के गाँव की भी खबर लेते रहे, मोबाइल कैमरे को जूम कर इनको नजदीक लाकर केप्चर करते रहे। रास्ते का नजारा नीचे दिए विडियो लिंक में देख सकते हैं।

     मनका-मनकी ढावे तक पहुँचते-पहुँचते शाम हो चुकी थी। यहाँ अपनी पसंदीदा डिश का आनन्द लिया। सवा आठ के करीब यहाँ से बस चल पड़ती है। अम्बाला को पार करते हुए 10 बजे तक चण्डीगढ़ 43 सैक्टर के बस आइएसबीटी पहुँचते हैं। और रात के अंधेरे में मोहाली, खरड़, रुपनगर से होते हुए कीरतपुर पार करते हैं।

यहाँ पर सुना था कि टनल का कार्य पुरा हो चुका है, सो आज इसमें प्रवेश के नए अनुभव को लेकर रोमाँचित थे, लेकिन बस चढाई ही चढ़ती गई और स्वारघाट के शिखर तक पहुँच गई। पता चला टनल ट्रायल के लिए बीच में खुली थी, लेकिन आज बंद थी। सो हम पुराने घुमावदार व उतार-चढ़ाव भरे रास्ते से होकर रात को लगभग 1 बजे बिलासपुर पहुँचते हैं।

यहाँ से आगे सलापड़ में सतलुज नदी को पार करते हुए, सुन्दर नगर पहुँचते हैं व आगे नैर चौक से होकर प्रातः 3 बजे तक मण्डी  बस खड़ी होती है। हल्की सी बूंदावादी के दर्शन यहाँ हो रहे थे, लेकिन आगे कई बसों व वाहनों की कतार खड़ी दिख रही थी। जल्द ही सूचना मिली कि आगे 7 मील स्थान पर लैंड स्लाइड हुआ है और ट्रैफिक जाम पड़ा है। उम्मीद थी कि जाम कुछ देर में खुल जाएगा, इस रूट में बारिश के बीच यदा-कदा भूस्खलन और फिर कुछ देर में रास्ते का खुलना आम बात है।

बाहर निकलकर जब दूसरी सबारियों से चर्चा हुई तो पता चला कि जाम कुछ अधिक लम्बा है, और लैंड स्लाइड भी कई किमी में है, 5 से 7 किमी में लैंड स्लाइट की बात हो रही थी, जो समझ नहीं आ रही थी। रात को 3 बजे तो सड़क ठीक होने से रही, अनुमान था की प्रातः 6 बजे उजाला होते ही काम शुरु हो जाएगा औऱ 8-9 बजे तक सड़क खुल जाएगी। बस में कुल 7 सवारियां थी और ड्राइवर भी सबारियों को आगे किसी बस में बिठाने की बात कर रहा था। इसी के साथ आगे बढ़ता है, लगभग मंडी बस स्टैंड से 3 किमी आगे एक विरान से स्थान पर बस खड़ी होती है, हालाँकि एक ओर बंद दुकानें थी तो दायीं और ऊपर कुछ हॉटेल, जो विराने में जंगल के नीचे खड़े थे। सुबह 8-9 बजे तक यहां किन्हीं हलचल की उम्मीद भी नहीं थी। इस बीच बारिश थोड़ा तेज हो चुकी थी और गाढ़ी थोड़ा आगे सरक चुकी थी और वायीं ओर एक रिजार्ट था, नीचे व्यास नदीं की तेज धारा। दायीं ओर ऊपर जंगल व छोडी सी पहाड़ी। आगे भी दूर पहाड़ियों के दर्शन यहाँ से हो रहे थे, जो अंशतः बादलों से ढके थे।

प्रकृति की गोद में अद्भुत नजारे के बीच जैसे हमारी प्रातःकालीन संध्या हो रही थी। हमारी कोई चिरआकाँक्षित इच्छा इस सबके बीच पूरा हो रही थी। पूरा बस खाली थी, तीनों सीटों पर कभी पीठ के बल, तो कभी करवट लेते हुए नींद पूरी करते हैं। उठकर पीछे सड़क के किनारे एक पगडंडी के साथ थोड़ा ऊपर जंगल में जाकर हल्का होते हैं, पास के जल स्रोत में हाथ धोते हैं।

पुनः बस में बैठकर साथ में लाए दाल-मौंठ, न्यूट्री-च्वाइस बिस्कुट व का नाश्ता करते हैं, जल के साथ मुख शुद्धि करते हैं। ड्राइवर से टायलेट के सुविधा की पूछते हैं, तो निराशाजनक उत्तर मिलता है, लगा कि आज इस जंगल में हठयोग करना पड़ेगा। 400 मीटर पीछे एक ढावा भी दिख गया था, लेकिन कुछ भी भारी खाने से परहेज करते रहे। पास की दुकान से 25 रुपए के 3 केले व साल्टेड़ मूंगफली लिए। किसी तरह से आज का दिन पार करना था, लगा प्रीमिटिव सरवाइल तथा मैन वर्सेज वाइल्ड सीरियल्ज के एडवेंचर की इच्छा को पूरी करने का प्रभु मौका दे रहा था। बहुत देख लिए यू-ट्यूब पर, आज कुछ प्रैक्टिकल हो जाए।

ऐसे में दिन के 12 बज गए, फिर 1, 2 और 3। बारह घंटे जाम में फंस कर बीत चुके थे। बीच में खबर मिल चुकी थी कि जाम खुलने बाला है, लेकिन फिर खबर आई और कन्डकटर के पास वीडियो भी कि ऊपर से दूसरा लैंड स्लाइड हो चुका है। लगा कि आज का हढयोग तो भारी पड़ने वाला है। अब तक हम दो पत्रिकाओं, एक पुस्तक को पढ़ चुके थे व सारे आइजियाज को पन्नों में उतार चुके थे।  

ऐसे में उक्ता कर पास की सबारी से अपनी व्यथा सुनाते हैं, तो पता चला की पीछे 500 मीटर पर एक पेट्रोल पंप है व वहाँ फ्रेश होने की सुविधा है। अपना लैप्टॉप पीठ पर टांगे हम बिना देरी किए चल पड़े और वहाँ 2-3 पुरुषों को मेल काउंटर पर खड़ा पाकर राहत की सांस लिए। फिमेल काउंटर पर दर्जनों की भीड़ थी। जल्द ही अंदर प्रवेश मिलता है व हल्का होकर भारी राहत की सांस लेते हैं।

लगा कि दैवी कृपा भी तप के चरम पर ही बरसती है। यही बात सुबह ही ड्राइवर कहे होते, या किसी सवारी से पता चली होती, तो इतना लम्बा हठयोग न करना पड़ता।

लगभग साढ़े चार बज चुके थे। पता चला की जाम खुल चुका है। कई किमी लम्बे जाम को खुलने में आधा घंटा लगा, पहले ऊपर के बाहर नीचे आते गए। फिर हमारा नम्बर आया, लगभग 5 पजे हमारी गाड़ी बाकि वाहनों के काफिले के साथ आगे सरक रही थी। 14 घंटे के ऐतिहासिक जाम के बीच हम आज जैसे एक चिरस्मरणीय अनुभव लेकर जा रहे थे। हमारे लिए ये किन्हीं ऐतिहासिक पलों से कम नहीं थे। आप चाहें तो आगे की वीडियो में जाम के नजारे को नीचे दिए लिंक में देख सकते हैं। यह इस मायने में विशेष है कि इस रुट पर गुजरने वाली 14 घंटे की सभी देशी-विदेशी, डिलक्स, आर्डिनरी, सरकारी व प्राइवेट गाडियों तथा विभिन्न प्रकार के ट्रक, कारें व अन्य वाहनों के दिग्दर्शन कुछ मिनट में आप कर पाएंगें औऱ कुछ के नाम, रुप व डिजायन को देखकर आप चकित भी हो सकते हैं और कुछ रोचक व रोमाँचक जानकारियों आपको मिल सकती हैं। आगे 7 व 9 मील के लैंडस्लाइट प्वाइँट को भी आप इसमें देख सकते हैं।

आगे पँडोह को पार करते ही यहाँ के डैम के बरसाती स्वरुप को कैप्चर किए। जल की वृहद राशि, भयावह फब्बारे के रुप में आसमां को छुते हुए नीचे गिरती है। पंडोह को पार करते हुए रास्ते में टनल के कार्य रोमाँचित करते हैं और एक बिंदु पर इनमें प्रवेश करने का संयोग बनता है। इनकी सफाइ, लाइटिंग, टेक्नोलॉजी व पॉलिश अटल टनल को भी फेल कर रही थी। हनोगी माता के पीछे के गगनचूंबी पहाड़ के बीच आगे बढ़ते यह टनल इंजीनियरिंग के चमत्कार का एक वेजोड़ नमूना है। इसमें कार्यरत कम्पनी, कर्मचारी, इंजीनियर पर इनके नीति निर्माता नेतृत्व सभी साधुवाद के पात्र हैं।

टनन के बाहर निकलते-निकलते अंधेरा हो चुका था। थ्लौट से गुजरते हुए, ओउट टनल से गुजरते हैं, जो अब एक आदिम सुरंग प्रतीत हो रह थी। आउट के बाद पनारसा के पहले अंधेरे में पहाड़ों के शिखर पर बिजली महादेव के दर्शन हो रहे थे। आगे का सफर सड़क के दोनों ओर की बिजली की चकाचौंध के बीच पूरा होता है। इस तरह रात को 9 बजे हम कुल्लू के ढालपुर मैदान (अठारह करड़ू री सोह) में प्रवेश करते हैं और कुछ ही मिनट में सरबरी नदी को पार करते हुए सर्वरी बस स्टैंड पर पहुँचते हैं।

इस तरह 14 घंटे के जाम के बीच 14 घंटे का यह सफर कई ऐतिहासिक यादों का साक्षी बना, जो जीवन में पहली बार घटित हो रहा था। इसलिए स्मृति पटल पर चिरअंकित रहेगा। 

बुधवार, 31 मई 2023

पहचानें अपना जीवन का मौलिक लक्ष्य

 

अन्तःप्रेरणा संग उठाएं साहसिक कदम

जीवन में लक्ष्य का होना बहुत महत्वपूर्ण है। बिना लक्ष्य के व्यक्ति उस पेंडुलम की भांति होता है, जो इधर-ऊधर हिलता ढुलता तो रहता है, लेकिन पहुँचता कहीं नहीं। जीवन का लक्ष्य स्पष्ट न होने पर व्यक्ति की ऊर्जा यूँ ही नष्ट-भ्रष्ट होती रहती है और हाथ कुछ लगता नहीं। फिर कहावत भी है कि खाली मन शैतान का घर। लक्ष्यहीन जीवन शैतानियों में ही बीत जाता है, निष्कर्ष ऐसे में कुछ निकलता नहीं। पश्चाताप के साथ इसका अंत होता है और बिना किसी सार्थक उपलब्धि के एक त्रास्द कॉमेडी के रुप में वहुमूल्य जीवन का अवसान होता है। अतः जीवन में लक्ष्य का होना बहुत महत्वपूर्ण है।

लेकिन जीवन लक्ष्य निर्धारण में प्रायः चूक हो जाती है। अधिकाँशतः बाह्य परिस्थितियाँ से प्रभावित होकर हमारा जीवन लक्ष्य निर्धारित होता है। समाज का चलन या फिर घर में बड़े-बुजुर्गों का दबाव या बाजार का चलन या फिर किसी आदर्श का अंधानुकरण जीवन का लक्ष्य तय करते देखे जाते हैं। इसमें भी कुछ गलत नहीं है यदि इस तरह निर्धारित लक्ष्य हमारी प्रतिभा, आंतरिक चाह, क्षमता और स्वभाव से मेल खाता हो। लेकिन यदि ऐसा नहीं है तो फिर जीवन एक नीरस एवं बोझिल यात्रा बन जाती है। हम जीवन में आगे तो बढ़ते हैं, सफल भी होते हैं, उपलब्धियाँ भी हाथ लगती हैं, लेकिन जीवन की शांति, सुकून और आनन्द से वंचित ही रह जाते हैं। हमारी अंतर्निहित क्षमता प्रकट नहीं हो पाती, जीवन का उल्लास प्रस्फुटित नहीं हो पाता। पेशे के साथ व्यक्तित्व में जो निखार आना चाहिए वह नहीं आ पाता।

क्योंकि जीवन के लक्ष्य निर्धारण में अंतःप्रेरणा का कोई विकल्प नहीं। अंतःप्रेरणा सीधे ईश्वरीय वाणी होती है, जिससे हमारे जीवन की चरम संभावनाओं का द्वार खुलता है। हर इंसान ईश्वर की एक अनुपम एवं बैजोड़ कृति है, जिसे एक विशिष्ट लक्ष्य के साथ धरती पर भेजा गया है, जिसका कोई दूसरा विकल्प नहीं। अतः जीवन लक्ष्य के संदर्भ में किसी की नकल नहीं हो सकती। ऐसा करना अपनी संभावनाओं के साथ धोखा है, जिस छोटी सी चूक का खामियाजा जीवन भर भुगतना पड़ता है। यह एक विडम्बना ही है कि मन को ढर्रे पर चलना भाता है। अपने मौलक लक्ष्य के अनुरुप लीक से हटकर चलने का साहस यह नहीं जुटा पाता और भेड़ चाल में उधारी सपनों का बोझ ढोने के लिए वह अभिशप्त हो जाता है। ऐसे में अपनी अंतःप्रेरणा किन्हीं अंधेरे कौनों में पड़ी सिसकती रहती है और मौलिक क्षमताओं का बीज बिना प्रकट हुए ही दम तोड़ देता है।

कितना अच्छा हुआ होता यदि व्यक्ति अपने सच का सामना करने का साहस कर पाता। अंतर्मन से जुड़कर अपने मूल बीज को समझ पाता। बाहर प्रकट होने के लिए कुलबुला रहे प्रतिभा के बीज को निहार पाता। अपनी शक्ति-सीमाओं को, अपनी खूबी-न्यूनताओं को देख कर अपनी अंतःप्रेरणा के अनुरुप जीवन लक्ष्य के निर्धारण का साहसिक कदम उठा पाता, जिसमें आदर्श की बुलंदियाँ भी होती और व्यवहार का सघन पुट भी। ऐसे में नजरें आदर्शों के शिखर को निहारते हुए, कदम जड़ों से जुड़े हुए शनै-शनै मंजिल की ओर आगे बढ़ रहे होते।

ऐसा न कर पाने का एक प्रमुख कारण रहता है, दूसरों से तुलना व कटाक्ष में समय व ऊर्जा की बर्वादी। अपनी मौलिकता की पहचान न होने की बजह से हम अनावश्यक रुप में दूसरों से तुलना में उलझ जाते हैं। भूल जाते हैं कि सब की अपनी-अपनी मंजिलें हैं और अपनी अपनी राहें। इस भूल में छोटी-छोटी बातों में ही हम एक दूसरे के प्रतिद्वन्दी बन बैठते हैं। इस बहकाव में अपने स्वधर्म पर केंद्रित होने की वजाए हम कहीं ओर उलझ जाते हैं। ऐसे में अपने मौलिक बीज को निहारने-निखारने की शांत-स्थिर मनःस्थिति ही नहीं जुट पाती। मन की अस्थिरता-चंचलता गहरे उतरने से रोकती है। एक पल किसी से आगे निकलने की खुशी में मदहोश हो जाते हैं, तो अगले ही पल दूसरे से पिछड़ने पर अंदर ही अंदर कुढ़ते व घुटते रहते हैं। बाहर की आपा-धापी और अंधी दौड़ में कुछ यूँ उलझ जाते हैं कि अपने मूल लक्ष्य से चूक जाते हैं।

ऐसे में जरुरत होती है, कुछ पल नित्य अपने लिए निकालने की, एकाँत में शांति स्थिर होकर बैठने की और गहन आत्म समीक्षा करने की, जिससे कि अपनी प्रतिभा के मौलिक बीज को खोदने-खोजने की तथा इसके ईर्द-गिर्द केंद्रित होने की। प्रेरक पुस्तकों का स्वाध्याय इसमें बहुत सहायक होता है। इसके प्रकाश में आत्म समीक्षा व्यक्तित्व की गहरी परतों से गाढ़ा परिचय कराने में मदद करती है। अपने व्यवहार, स्वभाव एवं आदतों का पेटर्न समझ आने लगता है। इसी के साथ अपने मौलिक स्व से परिचय होता है और जीवन का स्वधर्म कहें या वास्तविक लक्ष्य स्पष्ट होता चलता है।

खुद को जानने के प्रयास में ज्ञानीजनों का संगसाथ बहुत उपयोगी सावित होता है। उनके साथ विताए कुछ पल जीवन की गहन अंतर्दृष्टि देने में सक्षम होते हैं। जीवन की उच्चतर प्रेरणा से संपर्क सधता है, जीवन का मूल उद्देश्य स्पष्ट होता है। भीड़ की अंधी दौड़ से हटकर चलने का साहस जुट पाता है और जीवन को नयी समझ व दिशा मिलती है। जीवन नई ढ़गर पर आगे बढ़ चलता है। वास्तव में अपनी मूल प्रेरणा से जुड़ना जीवन की सबसे रोमाँचक घटनाओं में एक होती है। इसी के साथ जीवन के मायने बदल जाते हैं, जीवन अंतर्निहित संभावनाओं की अभिव्यक्ति का एक रोचक अभियान बन जाता है।

शुक्रवार, 31 मार्च 2023

खेल जन्म-जन्मांतर का है ये प्यारे

 

जब न मिले चित्त को शांति, सुकून, सहारा और समाधान

जीवन में ऐसी परिस्थितियां आती हैं, ऐसी घटनाएं घटती हैं, ऐसी समस्याओं से जूझना पड़ता है, जिनका तात्कालिक कोई कारण समझ नहीं आता और न ही त्वरित कोई समाधान भी उपलब्ध हो पाता। ऐसे में जहाँ अपना अस्तित्व दूसरों के लिए प्रश्नों के घेरे में रहता है, वहीं स्वयं के लिए भी यह किसी पहेली से कम नहीं लगता।

यदि आप भी कुछ ऐसे जीवन के अनुभवों से गुजर रहे हैं, या उलझे हुए हैं, तो मानकर चलें कि यह कोई बड़ी बात नहीं। यह इस धरती पर जीवन का एक सर्वप्रचलित स्वरुप है, माया के अधीन जगत का एक कड़ुआ सच है। वास्तव में येही प्रश्न, ये ही समस्याएं, येही बातें जीवन को ओर गहराई में उतरकर अनुसंधान के लिए प्रेरित करती हैं, समाधान के लिए विवश-वाधित करती हैं।

उन्नीसवीं सदी के अंत तक व्यवहार में व्यक्तित्व की परिभाषा खोजने वाला आधुनिक मनोविज्ञान मन की पहेलियों के समाधान खोजते-खोजते फ्रायड महोदय के साथ वीसवीं सदी के प्रारम्भ में मनोविश्लेषण की विधा को जन्म देता है। फ्रायड की काम-केंद्रित व्याख्याओं से असंतुष्ट एडलर, जुंग जैसे शिष्य मनोविश्लेषण कि विधा में नया आयाम जोड़ते हैं। इनके उत्तरों में अपने समाधान न पाने वाले मैस्लो मूलभूत मानवीय आवश्यकताओं (Hierarchy of Needs) की एक श्रृंखला परिभाषित कर जाते हैं, जिनमें अध्यात्म को भी स्थान मिल जाता है।

इससे भी आगे जीवन को समग्रता में समझने की कोशिश में मनोवैज्ञानिक आध्यात्मिक मनोविज्ञान पर शोध-अनुसंधान कर रहे हैं। हमारे ऋषियों ने हजारों वर्ष पूर्व योग-मनोविज्ञान के रुप में अष्टांग योग का एक व्यवहारिक एवं व्यवस्थित राजमार्ग उद्घाटित किया था, जिसका अनुसरण करते हुए व्यक्ति अपने जीवन की पहेली को सुलझा सके। क्योंकि यह कोई बौद्धिक तर्क-वितर्क तक सीमित विधा नहीं, बल्कि जीवन साधक बनकर अस्तित्व के साथ एक होने व जीने की पद्वति का नाम है।

यहाँ हर घटना कार्य-कारण के सिद्धान्त पर कार्य कर रही है। हम जो आज हैं, वो हमारे पिछले कर्मों का फल है और जो आज हम कर रहे हैं, उसकी परिणति हमारा भावी जीवन होने वाला है। वह अच्छा है या बुरा, उत्कृष्ट है या निकृष्ट, भव्य है या घृणित, असफल है या सफल, अशांत-क्लांत है या प्रसन्न-शांत – सब हमारे विचार-भाव व कर्मों के सम्मिलित स्वरुप पर निर्धारित होना तय है।

यही ऋषि प्रणीत कर्मफल का अकाट्य सिद्धान्त ईश्वरीय विधान के रुप में जीवन का संचालन कर रहा है। यदि हम पुण्य कर्म करते हैं, तो इनके सुफल हमें मिलने तय हैं और यदि हम पाप कर्म करते हैं, तो इनके कुफल से भी हम बच नहीं सकते। देर-सबेर पककर ये हमारे दरबाजे पर दस्तक देते मिलेंगे। इसी के अनुरुप स्वर्ग व नरक की कल्पना की गई है, जिसे दैनिक स्तर पर मानसिक रुप से भोगे जा रहे स्वर्गतुल्य या नारकीय अनुभवों के रुप में हर कोई अनुभव करता है। मरने के बाद शास्त्रों में वर्णित स्वर्ग-नरक का स्वरुप कितना सत्य है, कुछ कह नहीं सकते, लेकिन जीते-जी शरीर छोड़ने तक इसके स्वर्गोपम एवं मरणात्क अनुभवों से गुजरते देख स्वर्ग-नरक के प्रत्यक्ष दर्शन किए जा सकते हैं।

दैनिक जीवन की परिस्थितियों, घटनाओं व मनःस्थिति में भी इन्हीं कर्मों की गुंज को सुन सकते हैं और गहराई में उतरने पर इनके बीजों को खोज सकते हैं। नियमित रुप से अपनाई गई आत्मचिंतन एवं विश्लेषण की प्रक्रिया इनके स्वरुप को स्पष्ट करती है। कई बार तो ये स्वप्न में भी अपनी झलक-झांकी दे जाते हैं। दूसरों के व्यवहार, प्रतिक्रिया व जीवन के अवलोकन के आधार पर भी इनका अनुमान लगाया जा सकता है। एक साधक व सत्य-अन्वेषक हर व्यक्ति व घटना के मध्य अपने अंतर सत्य को समझने-जानने व खोजने की कोशिश करता है।

जब कोई तत्कालिक कारण नहीं मिलते तो इसे पूर्व जन्मों के कर्मों से जोड़कर देखता है औऱ जन्म-जन्मांतर की कड़ियों को सुलझाने की कोशिश करता है। यह प्रक्रिया सरल-सहज भी हो सकती है औऱ कष्ट-साध्य, दुस्साध्य भी। यह जीवन के प्रति सजगता व बेहोशी पर निर्भर करता है। माया-मोह व अज्ञानता में डूबे व्यक्ति के जीवन में ऐसे अनुभव प्रायः भुकम्प बन कर आते हैं, शॉकिंग अनुभवों के आँधी-तुफां तथा सुनामी की तरह आते हैं तथा अस्तित्व को झकझोर कर जीवन व जगत के तत्व-बोध का उपहार दे जाते हैं।

इन्हीं के मध्य सजग साधक समाधान के बीजों को पाता है, जबकि लापरवाह व्यक्ति दूसरों पर या नियति या भगवान को दोषारोपण करता हुआ, इन समाधान से वंचित रह जाता है। वस्तुतः इसमें स्वाध्याय-सतसंग से प्राप्त जीवन दृष्टि व आत्म-श्रद्धा की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। और इनके साथ गुरुकृपा व ईश्वर कृपा का अपना स्थान रहता है। अतः आत्म-निष्ठ, ईश्वर परायण व सत्य-उपासक साधक कभी निराश नहीं होते। गहन अंधकार के बीच भी वे भौर के प्रकाश की आश लिए आस्थावान ह्दय के साथ दैवीय कृपा के प्रसाद का इंतजार करते हैं और देर-सबेर उसे पा भी जाते हैं।

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