स्वर्णमंदिर से होकर भगवती माँ के द्वार तक
लम्बे समय के बाद चिरप्रतिशित शैक्षणिक भ्रमण का
संयोग बन रहा था। ऐसे लग रहा था कि जैसे माता का बुलावा आखिर आ ही गया। क्योंकि
दो-तीन वार पहले पूरी योजना के वावजूद यहाँ नहीं जा पाए थे। इस बार भी एक तिथि
निर्धारित होने के बावजूद एक बार फिर स्थगित करना पड़ा, क्योंकि किसान आंदोलन के
कारण इन तिथियों में पंजाब बंद का ऐलान हुआ और बस तथा रेल यातायात बाधित हो गए थे।
आखिर जैसे हमारे पुण्य उदय हो गए थे और रास्ता खुल गया। रात को शिक्षक और विद्यार्थियों का पूरा दल हरिद्वार से वैष्णुदेवी एक्सप्रैस में चढता है, पहला पड़ाव स्वर्णमंदिर अमृतसर था। यहां पर माथा टेकने और तन-मन से शुद्ध होकर माता के दरवार की यात्रा से बेहतर क्या हो सकता था। हरिद्वार से अमृतसर का रात का सफर सोते-सोते बीत गया। प्रातः अमृतसर पहुँचते हैं।
अमृतसर के ऐतिहासिक रेल्वे स्टेशन के बाहर से स्वर्णमंदिर के लिए बस में बैठते हैं, जो गुरुद्वारे के बाहर कुछ दूरी पर छोड़ती है। परिसर की ओर पैदल मार्ग की भव्यता देखते ही बन रही थी। पहले तंग गलियों से होकर गुजरना पड़ता था, लगा हाल ही में इस मार्ग का पुनर्निमाण हुआ है। गुरुद्वारे के बाहर स्नानगृह में यात्रियों के फ्रेश होने की उम्दा व्यवस्था है, जहाँ सभी तरोताजा होकर क्लॉक रुप में सामान जमा करते हैं और फिर मंदिर में दर्शन के लिए आगे बढ़ते हैं।
स्वर्ण मंदिर के दिव्य
दर्शन –
मुख्य द्वार से प्रवेश करते ही पावन सरोवर और
स्वर्ण मंदिर की पहली झलक के साथ दिव्य भावों की झंकार होती है। पावन सरोवर में
आचमन के साथ तन-मन व अन्तःकरण की शुद्धि करते हुए, तीर्थ चेतना का भाव सुमरण करते
हुए आगे बढ़ते है। हाथ जोड़े श्रद्धालुओं की अनुशासित भीड़, वातावरण में
शब्द-कीर्तन की मधुर संगीतमय ध्वनि दर्शनार्थियों को रुहानी भाव के सागर में गोते लगाने
के लिए प्रेरित करती है। भाव समाधि की इस अवस्था की अनुभूति वर्णनातीत है। इसे तो
वस अनुभव किया जा सकता है, जिया जा सकता है।
परिक्रमा एवं भाव सुमरण के बाद यहाँ के यादगार
पलों को केप्चर करने के लिए सेल्फी एवं फोटो का क्रम चलता है। हम इससे निवृत होकर
परिक्रमा पथ के एक कौने में बैठ ध्यान सुमरण में मग्न होते हैं। किसी दर्शनार्थी
का सर कहकर संबोधन हमें चौंकाता है, कोई हमारी कुशल-क्षेम पूछता प्रतीत होता है।
ये सज्जन शिमला यूनिवर्सिटी के पूर्व छात्र सिमरनजीत सिंह निकले, जिनसे मिलकर अतीव
प्रसन्नता हुई। वो सपरिवार यहाँ दर्शन के लिए आए थे। किन्हीं पलों में हुई प्रगाढ
मुलाकातें कैसे समय के धुंधलके में ढकी होने के वावजूद आज तरोताजा हो रहीं थी। इसके
बाद पूरा दल एकत्र होकर लंगर छकता है, जहां का अनुशासन, भक्ति और सेवा का भाव सदा
ही आह्लादित करता है।
जलियाँवाला बाग दर्शन –
इसके बाद गुरुद्वारा के बाहर जलियाँबाला बाग का
दर्शन करते हैं, जो यहाँ से मुश्किल से 200 मीटर दूर होगा। अंग्रेजी जनरल डायर की
क्रूरता की कहानियाँ यहाँ दिवारों में गोली को निशांनों से लेकर कुँए में देखी जा
सकती है, जिसमें भीड़ जान बचाने के लिए कूद पड़ी थी। इतिहास के इस काले अध्याय को
स्मरण कर ह्दय व्यथित रहोता है, आक्रोश जगाता है। और स्वतंत्रता संग्राम में
पूर्वजों के त्याग-बलिदान और खूनी संघर्ष की याद दिलाता है। जिस स्वतंत्रता की हवा
में आज हम सांस ले रहे हैं, यह किस कीमत पर हमें मिली है। काश, हम इसकी कीमत को
याद रखते।
अमृतसर से बाघा बोर्डर की
ओर -
अमृतसर की ही छात्रा से पूछने पर कि अमृतसर की खास डिश क्या है, तो जबाव लस्सी मिला। यहीं की गलियों में एक लस्सी की दुकान पर, इसका आनन्द लिया और फिर अगले पड़ाव बाघा बोर्डर की ओऱ ऑटो टैक्सी में चल दिए। ऑटो टैक्सी स्टैंड पर छोड़ दिया और हम पैदल 2 किमी चलते हैं। रास्ते में मूँछों वाले फौजी भाई के साथ एक यादगार फोटो लेते हैं। और अंत में बोर्डर पर बने स्टेडियम नुमा भवन में अंदर प्रवेश करते हैं, जहाँ आमने-सामने भारी भीड़ थी और बोर्डर के दूसरी ओर पाकिस्तान की जनता व सैनिक मौजूद थे।
इस ओर तथा उस ओर भीड़ ही भीड़ थी, लेकिन फौजियों के ड्रिल व देशभक्ति के गीतों के साथ झूमती भीड़ का दृश्य एक अलग ही दृश्य था, जिसे हम जीवन में पहली बार अनुभव कर रहे थे। जोशिले नारों के बीच जनता का जोश देखते ही बन रहा था। बीच गलियारे में देश भक्ति के गीतों पर कन्याओं व महिलाओं को झिरकने व झूमने का विशेष आमंत्रण मिल रहा था। देश भक्ति के गीतों के संग इनकी सामूहिक थिरकन समां बांध रही थी। फिर बीएसएफ की स्पेशल पलटन के स्त्री व पुरुष फौजियों का एक-एक कर ड्रिल होता है। इनके शौर्य, पराक्रम, अनुशासन व जीवट की झलक इनकी पैरेड व ड्रिल में स्पष्ट थी, जिसका संचार सीधे दर्शकों के अंतःकरण में हो रहा था। इसी के साथ भारत-पाकिस्तान सीमा पर झंडों का अवरोहण होता है। पाकिस्तान की ओर सैनिकों व जनता की भीड़ कम ही थी। पलड़ा इधर भारी दिख रहा था।
बापिसी में ग्रुप फोटो के साथ सेल्फी लेते हैं। आकर्षण रहता है गगनचुंबी तिरंगे और अशोक स्तम्भ का। ऑटो से पुनः स्वर्णमंदिर के बाहर उतरते हैं, लंगर छकते हैं और स्वर्ण मंदिर को प्रणाम कर बुक की गई बस से कटरा के लिए प्रस्थान करते हैं।
अमृतसर से कटरा की बस
यात्रा –
अमृतसर से हम रात को 10 बजे बस में चल पड़े। यह एक ऐसी बस में यात्रा का पहला अनुभव था, जिसमें कोई सीट नहीं थी। ऊपर-नीचे, आगे-पीछे केविन बने थे, जिसमें नीचे गद्दे बिछे थे अर्थात पालथी मारकर या लेटकर सफर की व्यवस्था थी। कुल मिलाकर रात के हिसाब से सोने के लिए माकूल व्यवस्था थी। हर केबिन में दो लोग रुक सकते थे। हम भी सोते हुए सफर पूरा किए। नई रुट पर सफर के रोमाँच के चलते नींद नहीं आ रही थी, बाहर पर्दे से झांककर देखते रहते कि कहाँ से गुजर रहे हैं। रास्ते में पठानकोट, जम्मु जैसे स्टेशन आने हैं, इसका अनुमान था, पहली बार यहाँ से गुजरते हुए, इनको एक नजर देखने की उत्सुक्तता थी।
इसी बीच बस रास्ते में 15-20 मिनट रुकी। अधिकाँश
सवारियाँ घोड़े बेचकर सो रही थी। हमारे सहित कुछ एक लोग ही बाहर निकले, फ्रेश हुए
व चाय की चुस्की के साथ तरोताजा हुए। आगे रास्ते में कुछ-कुछ पहाड़ दिखने शुरु हो
गए थे। बीच में नींद का गहरा झौंका आ गया और जब नींद खुली तो स्वयं को जम्मु से
गुजरते पाया। बाहर सुंदर नक्काशी, हरी-भरी लताओं से सज्जा बस स्टेशन तथा रोशनी की
जगमगाहट के बीच बस को गुजरते पाया। फिर नींद का झौंका आया और जब आँख खुली तो बाहर
ऊंचे-ऊँचे पहाड़ों की गोद में बस को झूमते पाया। पहाड़ों के शिखर व गोदी में
टिमटिमाटी रोशनियाँ, बलखाते मोड़, दूर रोशनियों से जगमाते गाँव व कस्वे मंजिल के
करीब पहुंचने का गाढ़ा अहासस दिला रहे थे।
रास्ते में ही भौर हो चुकी है, हमारी बस का गन्तव्य कटरा आने वाला था। लो ठीक छः बजे हमारी बस स्टेशन पर खड़ी हो गई।
बाहर
निकलते ही चारों ओर गगनचुम्बी पहाड़, इनमें माता वैष्णुदेवी की ओर बढते राह का
दृश्य हमें रोमाँचित कर रहा था, जिसे आज कुछ घंटों बाद हमें तय करना था। पहाड़ों
को काटकर बनाए गई सड़कें, टीनशैड़ से ढ़के मार्ग, बीच में मुख्य पड़ावों के
दिग्दर्शन। इस रुट पर पहली तीर्थ यात्रा कर चुके विभाग के युवा शोधार्थी एवं
शिक्षक रजत हमें दूर से ही मार्ग के पड़ावों का विहंगावलोकन करबा रहे थे।
बस स्टैंड से समान उतरता है, मौसम में ठंड का अहसास हो रहा था, जो हरिद्वार से अधिक कड़क था। सभी लोगों के गर्म कपड़ों की उचित व्यवस्था थी, सो कोई परेशानी की बात नहीं थी। सभी एक भिन्न परिवेश में, एक नए देश में स्वयं को पाकर रोमाँचित थे। आगे की यात्रा के लिए तैयार थे। किसी होटल या धर्मशाला में फ्रेश होने से लेकर सामान रखना था, ताकि फ्रेश होकर आवश्यक सामान के साथ आगे की यात्रा पर कूच किया जा सके। बस स्टैंड के पास ही एक होटल की व्यवस्था हो जाती है, सभी फ्रेश होते हैं, कुछ विश्राम करते हैं और फिर बाहर एक ढावे में नाश्ता कर माता बैष्णुदेवी के धाम की ओर चल पड़ते हैं।
होटल से ही एक बैन में बारी-बारी 8-10 लोगों की टुकड़ियों में हम कटरा के बाजार को पार करते हुए बैरी के पेड़ के पास उतरते हैं। ग्रुप फोटो खेंच, माता के जयकारे के साथ आगे बढ़ते हैं। यहाँ से मुख्य द्वार 3 किमी के लगभग था। रास्ते में ही एक बुढ़ी अम्मा से 20 रुपए में एक लाठी खरीदते हैं, जिसका पहाड़ी सफर में विशेष सहारा व योगदान रहता है। सभी लोग मुख्य द्वार में इकटठे हो जाते हैं। ऑनलाइन बुकिंग के कारण सभी निश्चिंत थे कि यहाँ से अब सीधे आगे की यात्रा करेंगे। लेकिन पता चला कि ऑनलाइन बुकिंग स्वीकार्य नहीं है, पिछले महीनों विवाद व तोड़फोड़ के कारण इस व्यवस्था को निरस्त किया गया था। कटरा में बस स्टैंड के आसपास दो स्थानों पर ऑफलाइन बुकिंग की व्यवस्था है। लगा अभी माता रानी परीक्षा ले रही हैं, पूरा दल बापिस 3 किमी आटो में बैठकर बुकिंग स्थल पर पहुँचता है, लाइन में लगकर टिकट लेता है औऱ फिर मुख्य द्वार पर पहुँचता है। और माता के जयकारे के साथ उत्साह से लबरेज मंजिल की ओर आगे बढ़ता है।
आगे की यात्रा के लिए पढ़ें - बाणगंगा से माता वैष्णों देवी तक का सफर, भाग-2
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