शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2022

लेखन कला, युगऋषि पं.श्रीराम शर्मा आचार्यजी के संग

 लेखन प्रारम्भ करने से पूर्व मनन करने योग्य कुछ सुत्र

1 उत्कट आकांक्षा

महान लेखक बनने की उत्कट अभिलाषा लेखक की प्रमुख विशेषता होनी चाहिए। वह आकांक्षा नाम और यश की कामना से अभिप्रेरित न हो। वह तो साधना के परिपक्व होने पर अपने आप मिलती है, पर साहित्य के आराधक को इनके पीछे कभी नहीं दौड़ना चाहिए। आकांक्षा दृढ़ निश्चय से अभिप्रेरित हो। मुझे हर तरह की कठिनाइयों का सामना करते हुए अपने ध्येय की ओर बढ़ना है, ऐसा दृढ़ निश्चय जो कर चुका है, वह इस दिशा में कदम उठाए। उत्कृष्ट लेखन वस्तुतः योगी मनोभूमि से युक्त व्यक्तियों का कार्य है। ऐसी मनोभूमी होती नहीं, बनानी पड़ती है। ध्येनिष्ठ साधक ही सफल रचनाकार बन सकते हैं।

 

2       एकाग्रता का अभ्यास

लेखन में साधक को विचारों की एकाग्रता का अभ्यास करना पड़ता है। एक निश्चित विषय के इर्द-गिर्द सोचना और लिखना पड़ता है। यह अभ्यास नियमित होना आवश्यक है। मन की चंचलता, एकाग्रता में सर्वाधिक बाधक बनती है। नियमित अभ्यास इस अवरोध को दूर करने का एकमात्र साधन है। व्यायाम की अनियमितता के बिना कोई पहलवान नहीं बन सकता। रियाज किए बिना कोई संगीतज्ञ कैसे बन सकता है? शिल्पकार प्रवीणता एक निष्ठ अभ्यास द्वारा ही प्राप्त करता है। लेखन कला के साथ भी यही नियम लागू होता है। न्यूनतम 5 अथवा 10 पन्ने बिना एक दिन भी नागा किए हर साहित्य साधक को लिखने का अभ्यास करना चाहिए। (यदि कोई नया लेखक है, तो शुभारम्भ एक पैरा या एक पन्ने से भी की जा सकती है।)

संभव है कि आरंभ में सफलता न मिले। विचार विश्रृंखलित हों, अस्त-व्यस्त अथवा हल्के स्तर के हों, पर इससे साधक को कभी निराश नहीं होना चाहिए। संसार में किसी को भी आरंभ में सफलता कहां मिली है? एक निश्चित समय के अभ्यास के उपरांत ही वे सफल हो सके। अपना नाम छपाने अथवा पैसा कमाने की ललक जिसे आरंभ से ही सवार हो गई, वह कभी भी महान लेखक नहीं बन सकता। भौतिक लालसाओं की पूर्ति की ओर ही उसका ध्यान केंद्रित रहता है। फलस्वरूप ऐसे मनोवृति के छात्र अभीष्ट स्तर का अध्यवसाय नहीं कर पाते। परिश्रम एवं अभ्यास के अभाव में लेखन के लिए आवश्यक एकाग्रता का संपादन नहीं हो पाता। ऐसे लेखक कोई हल्की-फुल्की चीजें भले ही लिख लें, विचारोत्तेजक रचनाएं करने में सर्वथा असमर्थ ही रहते हैं।

 

3       अध्ययनशीलता

अध्ययन के बिना लेखन कभी संभव नहीं है। जिसकी अभिरुचि प्रबल अध्ययन में नहीं है, उसे लेखन में कभी प्रवृत नहीं होना चाहिए। किसी विषय की गंभीरता में प्रवेश कर सकना बिना गहन स्वाध्याय के संभव नहीं। लेखक की रुचि पढ़ने के प्रति उस व्यसनी की तरह होना चाहिए जिसे बिना व्यसन के चैन नहीं पड़ता। प्रतिपाद्य विचारों के समर्थन के लिए अनेकों प्रकार के तर्कों, तथ्यों और प्रमाणों का सहारा लेना पड़ता है। मात्र मौलिक सूझबूझ से इन आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकना किसी भी आरंभिक लेखक के लिए संभव नहीं। ऐसे विरले होते हैं जिनके विचार इतने सशक्त और पैने होते हैं कि उन्हें किसी अन्य प्रकार के समर्थन की जरूरत नहीं पड़ती। यह स्थिति भी विशेष अध्ययन के उपरांत आती है। आरंभ में किसी भी लेखक को ऐसी मौलिकता के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए

इस संदर्भ में एक विचारक का कथन शत प्रतिशत सही है कि जितना लिखा जाए उससे 4 गुना पढ़ा जाए। पढ़ने से विचारों को दिशा मिलती और विषयों से संबंध उपयोगी तथ्य और प्रमाण मिलते रहते हैं। विचारों को पुष्ट करने, प्राणवान बनाने में इन तथ्यों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। हिंदी रचनाओं में आजकल तथ्यों की कमी देखी जा सकती है। प्रायः अधिकांश पत्र-पत्रिकाओं में मौलिकता के नाम पर विचारों की पुनरावृति ही होती रहती है। तर्क, तथ्य और प्रमाण के बिना ऐसी रचनाएं नीरस और उबाऊ लगती है। विचारों में नवीनता एवं प्रखरता न रहने से कोई दिशा नहीं दे पाती, न ही वह प्रभाव दिखा पाती जो एक उत्कृष्ट रचना द्वारा दिखाई पड़ना चाहिए।

यह वस्तुतः अध्ययन की उपेक्षा का परिणाम है। मानसिक प्रमाद के कारण अधिकांश लेखक परिश्रम से कतराते रहते हैं। अभीष्ट स्तर का संकलन ना होने से एक ही विचारधारा को शब्दावली में बदल कर दोहराते रहते हैं। पश्चिमी जगत के लेखकों की इस संदर्भ में प्रशंसा करनी होगी। संकलन करने, तथ्य और प्रमाण जुटाने के लिए वे भरपूर मेहनत करते हैं। जितना लिखते हैं उसका कई गुना अधिक पढ़ते हैं। तथ्यों, तर्कों एवं साक्ष्यों की भरमार देखनी हो तो उनके लेखों में देखी जा सकती है। यह अनुकरण हिंदी भाषी लेखकों को भी करना चाहिए। जो लेखन की दिशा में प्रवृत्त हो रहे हैं उन्हें स्वाध्याय के प्रति बरती गई उपेक्षा के प्रति सावधान रहना चाहिए।

यह भी बात ध्यान रखने योग्य है कि विचारों का गांभीर्य विशद अध्ययन के उपरांत ही आता है। विचार भी विचारों को पढ़कर चलते तथा प्रखर बनते हैं। उन्हें नवीनता अध्ययन से पैदा होती है। अतएव अध्ययनशीलता लेखन की प्रमुख शर्त है।

एक सूत्र में कहा जाए तो इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है, लेखन बाद में, पहले अपने विषय का ज्ञान अर्जित करना। सबसे पहले लिखने की जिनमें सनक सवार होती है वह कलम घिसना भले ही सीख लें, विषय में गहरे प्रवेश कर प्रतिपादन करने की विधा में कभी निष्णात नहीं हो पाते। लिखना उतना महत्वपूर्ण नहीं, जितना कि तथ्यों का संकलन। विषय के कई पक्षों-विपक्षों की जानकारी लिए बिना सामग्री संकलन संभव नहीं। बिना सामग्री के जो भी लिखेगा आधा-अधूरा, नीरस ही होगा।

 

4       जागरूकता

हर नवीन रचना में त्रुटियों एवं भटकाव की गुंजाइश रहती है। त्रुटियाँ अनेकों प्रकार की हो सकती हैं। भाषा संबंधी और वाक्य विन्यास संबंधी भी। व्याकरण की गलतियां भी देखी जाती हैं। प्रतिपादन में कभी-कभी भटकाव भी हो सकता है। इन सबके पति लेखक-साधक को पूर्णरूपेण जागरूक होना चाहिए। हर त्रुटि में सुधार के लिए बिना किसी आग्रह के तैयार रहना चाहिए। इस क्षेत्र में जो विशेषज्ञ हैं, उनसे समय-समय पर अपनी रचनाओं को दिखाते रहने से अपनी भूल मालूम पड़ती है। विषयांतर हो जाने से भी लेखक अपने लक्ष्य से भटक जाता है। फलस्वरुप रचना में सहज प्रवाह नहीं आ पाता। इस खतरे से बचने का सर्वोत्तम तरीका यह है कि किसी समीक्षक की निकटता न प्राप्त हो तो स्वयं को आलोचक नियुक्त करें, जो लेखे लिखे जाएं, उन्हें कुछ दिनों के लिए अलग अलमारी अथवा फाइल में रख देना चाहिए तथा दो-तीन दिनों बाद पुनः अवलोकन करना चाहिए। ऐसा इसलिए करना उचित है कि तुरंत के लिखे लेखों में मस्तिष्क एक विशिष्ट ढर्रे में घूमता रहता है। इस चक्र से बाहर चिंतन नहीं निकलने पाता। फलस्वरुप स्वयं की गलतियां पकड़ में नहीं आती। समय बीतते ही चिंतन का यह ढर्रा टूट जाता है। फलतः बाद में पुनरावलोकन करने पर भूल-त्रुटियों का ज्ञान होता है, जिन्हें सुगमतापूर्वक ठीक किया जा सकता है।

जागरूकता का यह तो निषेधात्मक पक्ष हुआ। विधेयात्मक पक्ष में लेखक को लेखनी से संबद्ध हर विशेषताओं को धारण करने के लिए तत्पर रहना पड़ता है। शैली लेखन कला की प्राण है। वह जितनी अधिक जीवंत-माधुर्यपूर्ण होगी, उतना ही लेख प्रभावोत्त्पादक होगा। इस क्षमता के विकास के लिए लेखक को उन तत्वों को धारण करना पड़ता है जो किसी भी लेख को ओजपूर्ण बनाते हैं। शब्दों का उपयुक्त चयन भी इसी के अंतर्गत आता है। प्रभावोत्पादक शब्दों का चयन तथा वाक्यों में उचित स्थानों पर उनका गुंथन लेखन की एक विशिष्ट कला है जो हर लेखक की अपनी मौलिक हुआ करती है। इसके विकास के लिए प्रयत्नशील रहना सबका कर्तव्य है।

 

5       ज्ञान को पचाने की सामर्थ्य का होना

जो भी कार्य हाथ में लिया जाए उसके सीमाबंधन को भी जानना चाहिए। असीम विस्तार वाला विषय हाथ में लेकर कोई भी व्यक्ति अपने प्रतिपाद्य शोध कार्य से न्याय नहीं कर सकता। अपनी सामर्थ्य कितनी है तथा किस प्रकार सिनॉप्सिस बनाकर आगे बढ़ना है, इसका पूर्वानुमान लगा लेना सफलता का मूलभूत आधार है। यह ठीक उसी प्रकार हुआ जैसे रोगी को व्याधि एवं शरीर के भार नाप-तोल आदि के बाद उसकी औषधि का निर्धारण किया जाए। यदि प्रारंभिक निर्धारण न करके अपनी हवाई उड़ान आरंभ कर दी तो फिर शोधकार्य कभी पूरा नहीं हो सकता। अपनी विषयवस्तु के बारे में लेखक को बड़ा स्पष्ट एवं टू द प्वाइंट होना चाहिए। इसी से भटकाव से बचना संभव हो पाता है। सफल शोधार्थी व लेखक पहले अपनी सीमा-क्षमता देखते हैं, तदुपरांत कुछ करने का संकल्प लेते हैं। अधूरे शोधकार्यों की भरमार इस दिशा में एक अच्छा खासा शिक्षण है।

 

6       संवेदनशीलता

कल्पना की नींव पर ही लेख का महल तैयार होता है, किसी विद्वान का यह कथन अक्षरशः सत्य है। कविता जैसी रचनाओं में तो एक मात्र कल्पना शक्ति का ही सहारा लेना पड़ता है। भाव-संवेदनाओं का शब्दों के साथ नृत्य, कविता की प्रमुख विशेषता होती है। लेखों में भी विचारों के साथ भाव-संवेदनाओं का गुंथन रचना में प्राण डाल देता है। लेखन में दीर्घकालीन अभ्यास के बाद यह कला विकसित होती है। एक मनीषी का मत सारगर्भित जान पड़ता है कि जिसका हृदय अधिक संवेदनशील और विराट है उसमें उतनी ही सशक्त सृजनात्मक कल्पनाएं-प्रेरणाएं उद्भूत होती हैं। हृदयस्पर्शी मार्मिक संरचनाएं भाव संपन्न ह्दयों से ही उद्भूत होती हैं। ऐसी रचनाओं में रचनाकार के व्यक्तित्व की अमिट छाप प्रायः झलकती है। जो दूसरों की पीड़ा, वेदना को अनुभव करता है वह अपनी रचना में संवेदना को अधिक कुशलता से उभार सकने में सक्षम हो सकता है। वेदना-विहीन हृदय में वह संवेदन नहीं उभर सकता, जो रचना में प्रकट होकर दूसरों के अंतःकरणों को आंदोलित-तरंगित कर सके।

(साभार – श्रीराम शर्मा आचार्य, युगसृजन के संदर्भ में प्रगतिशील लेखन कला, पृ.64-69)

 

 

शनिवार, 5 फ़रवरी 2022

देवसंस्कृति की गौरवमयी पावन धारा - गंगा मैया

 गंगा की पावनता को बनाए रखने की चुनौती

जब से होश संभाला घर के बुजुर्गों से गंगाजल का परिचय मिला। घर में एक सीलबंद लोटे में गंगाजल रहता, किन्हीं विशेष अवसरों पर इसका छिड़काव शुद्धि के लिए किया जाता। हमें याद है कि हमारे नानाजी इस गंगाजल के लोटे को हरिद्वार से लाए थे। जब भी घर-गाँव में कोई दिवंगत होता तो हरिद्वार में अस्थि-विसर्जन एवं तर्पण का संस्कार होता। कई दिनों की बस और ट्रेन यात्रा के बाद हरिद्वार से यह पवित्र जल घर पहुँचता।

नहीं मालूम था कि धर्मनगरी हरिद्वार ही आगे चलकर हमारी कर्मस्थली बनने वाली है। हरिद्वार के सप्तसरोवर क्षेत्र में एक आश्रम के शोध संस्थान में कार्य करने का संयोग बना। यहाँ गंगाजी के किनारे सुबह-शाम भ्रमण का मौका मिलता। गंगाकिनारे बने घाटों पर कितनी शामें बीतीं, खासकर जब परेशान होते, इसके तट पर बैठ जाते, विक्षुब्ध मन शांत हो जाता। गंगाजी के तट पर, इसके जल प्रवाह में कुछ तो बात है, इसे गहराई से अनुभव करते।

सूक्ष्मदर्शी विज्ञजनों के श्रीमुख से सुनकर हमारी धारणा ओर बलवती हुई कि गंगाजल कोई सामान्य जल नहीं है। कितने तपस्वी, ऋषियों के तप तेज का दिव्य अंश इसमें मिला है, जो आज भी प्रवाहमान है। यह औषधीय गुणों से भरपूर दिव्य जल है। जब शास्त्रों को पढ़ा, तो महापुरुषों के वचनों में भी इसको पुष्ट होते पाया। आदि शंकराचार्यजी ने इसे ब्रह्मदव्य की संज्ञा दी। पौराणिक किवदंयितों के अनुसार ये ब्रह्माजी के कमंडल से प्रकट, विष्णुजी के चरणनख से निस्सृत और शिव की जटाओं से होकर धरती पर अवतरित दैवीय प्रवाह है। धरती पर मानव मात्र के कल्याण-त्राण के लिए भगीरथी तप ने इसे आगे बढ़ाया।

गंगाजी में डुबकी लगाते ही बर्फ की ठंडक लिए इसका शीतल जल हमें सीधे हिमालय से जोड़ता। भाव स्मरण होता कि कैसे यह जल हिमालय के तीर्थों को समेटे हुए हम तक पहुंच रहा है। हर डुबकी के साथ यह सिमरन हमें गंगाजी के उद्गम स्थल की ओर सोचने के लिए प्रेरित करता। और इस सुमरन के सम्मिलित भाव का फल कहेंगे, जो कालांतर में हमें हिमालय की गोद में तीर्थाटन के सुअबसर मिले। देवप्रयाग, केदारनाथ, तुंगनाथ, बद्रीनाथ, हेमकुंड साहिब जैसे तीर्थ स्थलों की यात्राएं सम्पन्न हुईं और गंगाजी की धाराओं का इसके शुरुआती पड़ाव में अवलोकन का अबसर मिला। केदारनाथ में उस पार धौलीगंगा के ध्वल निर्मल जल को पहाडों से छलछलाते हुए नीचे गिरते देखकर चित्त आल्हादित हो जाता, लेकिन उसके पास जाकर किनारे पर इंसान को अपनी गंदगी से इसे अपवित्र करते देख कष्ट हुआ। लगा, इंसान में जलस्रोत्रों के प्रति न्यूनतम संवेदनशीलता का अभाव कितना बड़ा संकट है। शायद हमारे विचार में गंगाजी व अन्य किसी भी नदी में प्रदूषण का यही मुख्य कारण है।

हिमालय में गंगाजी की धाराएं अपने शुद्धतम रुप में प्रवाहित होती हैं, प्रायः आसमानी नीलवर्ण लिए, हालाँकि बीच-बीच में रंग मटमैला हो जाता है और वरसात में इसका स्वरुप एकदम बदल जाता है, जो स्वाभिवक भी है। देवप्रयाग में अलकनंदा और भगीरथी के संगम पर गंगाजी का पूर्ण स्वरुप प्रकट होता है। एक ओर से भगीरथी की नीलवर्णी धारा तो दूसरी ओर से अलकनंदा का कुछ मटमैला सा प्रवाह। संगम दृश्य दर्शनीय है। यहाँ गंगाजी को अपने भव्यतम निर्मल रुप में पाया और यहाँ के दिव्य संगम पर लगाई डुबकी हमारे चिरस्मरणीय पलों में शुमार है।

यहां से आगे फिर गंगाजी का प्रवाह शांत व गंभीर होता जाता है, ऋषिकेश तक आते-आते जैसे यह अपनी प्रौढ़ावस्था को पा जाती है। रास्ते में ही एडवेंचर स्पोर्ट्स के नाम पर राफ्टिंग क्लबों की भरमार के साथ मानवीय हस्तक्षेप की कहानी शुरु हो जाती है। इसके तटों पर पर्यटकों का रवैया गंगाजी के प्रति कितना संवेदनशील रहता है, यह शोध की विषय वस्तु है। हालांकि ऋषिकेश में लक्ष्मणझूला एवं रामझूला में गंगाजी पर्याप्त शुद्ध पायी गयी है, जो हरिद्वार तक बहुत कुछ बैसी ही रहती है। लेकिन राह में शहरों के अवशिष्ट पदार्थों के इसमें मिलते जाने से इसकी शुद्धता का प्रभावित होना शुरु हो जाता है।

गंगाजल की विलक्षणता की चर्चा जब विदेश तक पहुँची थी तो इसके जल का वैज्ञानिक परीक्षण हुआ। इन परीक्षणों के आधार पर पाया गया था कि इसमें कुछ ऐसे तत्व हैं, जो इसे विशिष्ट बनाते हैं। इसमें जबर्दस्त कीटाणुनिरोधक क्षमता है, जिसके कारण इसका जल कितने ही वर्षों तक ताजा रहता है। समझ में आता है कि हिमालय की औषधियों से लेकर खनिज तत्वों का सत्व इसमें मिलकर इन औषधीय गुणों से युक्त बनाता होगा।

अपनी इन आध्यात्मिक एवं वैज्ञानिक विशेषताओं के साथ गंगाजी देश की सांस्कृतिक जीवन रेखा हैं। देश-विदेश के किसी भी कौने में रह रहा भारतवासी गंगाजी से जुड़ाव अनुभव करता है। और फिर एक बड़ी आवादी का तो सीधा गंगाजी के किनारे ही अस्तित्व टिका है। हिमालय में गोमुख से गंगासागर पर्यन्त 2525 किमी के सफर में गंगाजी के तट पर देश की 43 फीसदी आवादी पलती है। फिर ऋषिकेश, हरिद्वारसे लेकर प्रयागराज, बनारस एवं कोलकत्ता तक कितने नगर-महानगर इसके तट पर बसे हैं, जो न जाने कबसे देश की समृद्ध धार्मिक-सांस्कृतिक विरासत संजोए हुए हैं। इन दिनों प्रयागराज में चल रहे विश्व के सबसे बड़े धार्मिक समारोह कुंभ-2019 में इस सांस्कृतिक प्रवाह की झलक-झांकी को भली भांती देखा जा सकता है, जिसका दीदार करने के लिए विदेशों से तक सैंकड़ों शोधार्थी, पर्यटक एवं जिज्ञासु आए हुए हैं। हरिद्वार में भी कुंभ के ऐसे ही दो वृहद आयोजनों के हम साक्षी रहे हैं, जिसका विस्तार हरिद्वार से लेकर ऋषिकेश पर्यन्त था।

हमारा अनुभव हरिद्वार के सप्तसरोवर क्षेत्र का विशेष रहा, क्योंकि यहीं अपने पिछले अढाई दशक गंगाजी के किनारे बीते। मान्यता है कि भगीरथ के आवाह्न पर जब हिमालय से उतर कर गंगाजी मैदानों में आती हैं, तो हरिद्वार के इस क्षेत्र में सत्पऋषि तप कर रहे थे। उनको कोई असुविधा न हो, गंगाजी सात भागों में विभक्त हो गयी। आज भी यहाँ के सात मंजिले भारतमाता मंदिर में चढ़कर देखें तो 4-5 धाराएं तो आज भी दिखती हैं। बीच में बाँध बनने के कारण बाकि धाराएं बिलुप्त हो गयी हैं, नहीं तो पहाड़ी के नीचे दायीं ओर उस छोर तक गंगाजी का प्रवाह था, जिसके बीच में आज गायत्री तीर्थ शांतिकुज बना हुआ है। वहाँ खोदने पर बालु और गोल-गोल पत्थर के साथ जल की प्रचुरता इसकी मौजूदगी के सबूत पेश करते हैं। मान्यता है कि यहाँ कभी गायत्री महामंत्र के द्रष्टा महर्षि विश्वामित्र की तपःस्थली थी। खैर सप्तसरोवर क्षेत्र में गंगाजी को साल भर निहारने का मौका मिलता रहा।

गंगाजी की मुख्य धारा का एक बड़ा अंश ऋषिकेश वैराज से चीला डैम (लघु विद्युत योजना) की ओर नीलधारा नहर के रुप में बहता है और शेष गंगाजल रायवाला सप्तसरोवर से होकर आगे नीलधारा से घाट नम्बर 10 पर मिलता है। इस तरह सप्तसरोवर की धारा में देहरादून से आ रही सोंग नदी का जल भी मिला होता है। लेकिन जो भी हो गंगाजी का जल सालभर के अधिकाँश समय हिमालयन टच लिए रहता है। जब यह फील नहीं आता तो हम आगे दस नम्बर घाट या इससे आगे एक नम्बर घाट तक जाते, जहाँ गंगाजी को समग्र रुपमें पाते। यहीं से एक धारा खड़खड़ी शमशान से होते हुए हरकी पौड़ी की ओर प्रवाहित होती है।

हमारे जितने भी मित्र हैं, अतिथि प्रवक्ता या बाहरी मेहमान, हम गंगाजी के इस घाट पर एक वार अवश्य स्नान कराते हैं। हरिद्वार के फक्कड़ जीवन में हमारे पास गंगाजी के अलावा ओर है भी क्या। गंगाजी का हिमालयन टच ही हमारा एक गिफ्ट रहता है, जो शायद दिल्ली या दूसरे शहरों से आए मित्रों के लिए एक दुर्लभ चीज रहती है। और ग्रुप में गंगाजी के किनारे दर्जनों नहीं अनगिन पिकनिकों की यादें ताजा है। कुछ तो देसंविवि के कुलाधिपति डॉ. प्रणव पण्ड्याजी के साथ, कुछ विभाग के शिक्षकों के साथ, कुछ यार दोस्तों के साथ, कुछ परिवारजनों के साथ और कुछ निपट अकेले।

गंगाजी के उस पार धाराओं के बीच बसे टापूओं में कितने बाबाओं को कुटिया बना कर एकांत वास करते देखा। कुछ को तो वृक्षों पर मचान बनाकर रहते देखा। हालाँकि अब राजाजी नेशनल पार्क में इनको रुकने की मनाही है, लेकिन इनके अवशेष अभी भी देखे जा सकते हैं। ब्रह्मवर्चस आरण्यक की स्थापना भी कुछ ऐसे ही उद्देश्य के साथ हुई थी। आचार्यश्री का मानना था कि नांव से गंगाजी को पार कर साधक टापू में दिन भर साधना करेंगे और फिर शाम को नाव से ही बापस अपने कक्ष में आएंगे। हालाँकि यह बात योजना बनकर ही रह गई। लेकिन गंगा की गोद व हिमालय की छाया में साधना का अपना महत्व तो है ही।

इन टापूओं में जंगली बेर फल की पर्याप्त झाडियाँ हैं, साथ ही जंगली बेल के वृक्ष भी, जिनका सीजन में पकने पर लुत्फ उठाया जा सकता है। सेमल के वृहद पेड़ तट पर फैले हैं, जो वसंत में फूलने पर सुर्ख लाल रंगत लिए टापुओं व गंगा तट की शोभा में चार चाँद लगा रहे होते हैं। हिरन, खरगोश, बंदर, मोर आदि वन्य पशु राजाजी नेशनल पार्क से यहाँ खुलेआम विचरण करते हैं। यदा-कदा हाथियों के दर्शन भी झुंडों में हो सकते हैं। बन क्षेत्र गांव वासियों के लिए सूखी लकड़ी का समृद्ध स्रोत हैं, गाँव की महिलाओं को यहाँ इनको बटोरते देखा जा सकता है। सीजन में बन गुर्जरों को अपनी भैंसों के साथ यहाँ के संरक्षित क्षेत्रों में रहते देखा जा सकता है। सर्दियों में गंगा की धाराओं में बने टापुओं में माईग्रेटरी पक्षियों के झुडों का जमाबड़ा, चहचाहट व क्रीडा-क्लोल सबका ध्यान आकर्षित करता है। शाम को घर की ओऱ बापिस उडान भरते पक्षियों का नजारा दर्शनीय रहता है।

फिर गंगाजी का किनारा सबके लिए अलग-अलग मतलब रखता है। अनास्थावान इसे अपराध का अड्ड़ा तक कहने से नहीं चूकते, जिसमें कुछ सच्चाई भी है। भीड़ भरे घाटों पर चोर-उच्चकों व जेबकतरों से साबधानी के बोर्ड मिलते हैं। मछली मारों के लिए गंगा तट मच्छली का स्रोत है, लेकिन धारा के उसपार ही छिपकर वे ऐसा कुछ कर पाते हैं। पियक्कड़ों के लिए यहाँ का एकांत नशे की बेहोशी में डुबने का सुरक्षित स्थल है। हालांकि यह सब चोरी छिपे ही होता है। लापरवाहों के लिए गंगाजी साक्षात कालस्वरुपा हैं। हर साल कितने लापरवाह पर्यटक-श्रद्धालु चेतावनी के बावजूद इसके उद्दाम प्रवाह में डूबते रहते हैं।

इसी के तट पर नित्य हवन, यज्ञ, जप तप भी होता है। नित्य आरती का क्रम कई घाटों पर चलता है। लोग सुबह-शाम इसके तट पर भ्रमण कर स्वास्थ्य लाभ लेते हैं। विशिष्ट पर्व-त्यौहारों एवं अवसरों पर हजारों-लाख लोग यहाँ स्नान करते हैं। गंगा के तट के सात्विक प्रभामंडल को कोई भी संवेदनशील व्यक्ति अनुभव कर सकता है। पिछले कुंभ के दौरान तमाम घोटालों के बीच भी घाटों का पर्याप्त जीर्णोंदार हो चुका है, जो तीर्थयात्रियों के लिए दिन के विश्राम स्थल तो सन्यासी बाबाओं के लिए रात्रि के आश्रयस्थल हैं।

सालभर गंगाजी के हर रुप को देखा जा सकता है। कभी एक दम पतली धारा, जिसे पैदल ही पार किया जा सकता है, तो कभी मध्यम आकार की, जिसे तैरकर ही पार किया जा सकता है। बरसात में गंगाजी विकराल रुप धारण करती हैं, जिसमें तैरने का दुस्साहस शायद ही कोई विरला कर सके। लेकिन हर रुप में जब भी गंगाजी में डुबकी लगाओ, इसका हिमालयन टच हमेशा व्यक्ति को तरोताजा करता है। शायद यही विशेषता श्रद्धालु भक्तों को इसमें नित्य स्नान के लिए प्रेरित करती है। इनके लिए गंगाजी का जल नीला है या मटमेला, वे इसकी परवाह नहीं करते। वे तो इस ब्रह्मद्रव में स्नान कर शुद्ध-बुद्ध एवं निर्मल होने का भाव रखते हैं और शायद बैसा फल भी पाते हैं।

हालांकि सभी इस भाव से डुबकी लगाते हों, ऐसी बात भी नहीं। कईयों के लिए यह महज नदी का जल है, जिसके किनारे ऐसे अभागों को ब्रश करते, कुल्ला करते, इसी में साबुन से रगड़कर कपडे धोते देखा जा सकता है। हालांकि गंगाजी के किनारे ये कृत्य वर्जित हैं, लेकिन सबको समझाना कठिन है। कितनी वार हम ऐसे तत्वों को प्यार से समझाए हैं, कभी हड़काए हैं, लेकिन हर बार कोई नया अनाढ़ी आ जाता। इस क्षेत्र में पिछले कुंभ के दौरान गंगाजी के निर्मल जल में बहुत दूर से आए एक पढ़े-लिखे सज्जन को साबुन लगाकर स्नान करते देखा तो हमसे रहा नहीं गया कि यदि साबुन लगाकर ही नहाना था तो घर के बाथरुम में स्नान कर लेते। कुंभ में इतना दूर आकर गंगाजल को दूषित कर पुण्य की वजाए पाप के भागीदार क्यों बन रहे हो। ऐसे तमाम अनगढ़ श्रद्धालु गंगाजी के तट पर मिलेंगे।

आश्चर्य ऐसे धार्मिक वर्ग को देखकर होता है, जो गंगा नदी को माँ कहता है, इसकी पूजा-अर्चना करता है, इसमें डुबकी लगाकर मोक्ष व त्राण की कामना करता है, लेकिन स्नान के बाद गंगाजी को कूड़दान की तरह उपयोग करता है और साथ लाया सारा कुड़ा-कचरा इसमें छोड़ कर चला जाता है। इसका प्रमाण हर वर्ष हरिद्वार गंगा क्लोजर के समय हरकी पौडी के आसपास पोलीथीन, कपडों, फूल-मालाओं व पूजन सामग्री के क्विंटलों कचरे के रुप में देखा जा सकता है। आश्चर्य होता है, जब धर्म-अध्यात्म के नाम पर स्थापित आश्रमों व मठ-मंदिरों का गंदा अवशिष्ट जल सीधे गंगाजी में प्रवाहित होता है। गंगाजल के प्रति न्यूतनम संवेदनशीलता से हीन यह आस्था समझ से परे है।

फिर कहने की जरुरत नहीं कि गंगाजी की सफाई को लेकर सरकार अब तक हजारों करोड़ रुपयों की धनराशि पानी की तरह बहा चुकी है। समझ नहीं आता कि यह सब धन किस ब्लैक होल में समा जाता है और गंगाजी बैसी की बैसी ही गंदी, बदरंग और प्रदूषित अपने अस्तित्व के लिए कराह रही है, विशेषरुप में हरिद्वार से आगे कानपुर जैसे महानगरों से होते हुए इसकी स्थिति ओर विकराल है, जहाँ कारखानों का विषैला द्रव सीधे गंगाजी में गिर रहा है, जो किसी अपराध से कम नहीं। महानगरों की बड़ी आबादी के अवशिष्ट द्रव्य का गंगाजी में गिरकर दूषित करना, गंभीर चिंता का विषय है। सरकारी एवं प्रशासनिक स्तर पर इस संदर्भ में की जा रही लापरवाही पर सख्त कार्य़वाही की जरुरत है, क्योंकि जब इसके लिए प्रचुर बजट की व्यवस्था है तो आवश्यक जलसंशोधन यंत्र क्यों नहीं स्थापित हो रहे।

इस पुनीत कार्य में कई स्वयंसेवी संगठन अपने स्तर पर कोशिश कर रहे हैं, लेकिन गंगाजी जैसी वृहद नदी के पुनरुद्धार का कार्य किसी एक संगठन के बूते की बात नहीं है। इसके लिए सबको साथ मिलकर काम करने की जरुरत है। सबसे महत्वपूर्ण है जनता की इसमें भागीदारी का। जब तक जनता इसको अपना काम नहीं मानेगी, उसके अंदर न्यूनतम संवेदनशीलता का भाव विकसित नहीं होगा, गंगा शुद्धि का कार्य अधूरा ही रहेगा।

.गंगाजी पर प्राचीन काल से लेकर मध्यकालीन एवं आधुनिक काल तक महापुरुषों, मनीषियों, कवियों, साहित्यकारों एवं विशेषज्ञों के उद्गार पढ़कर लगता है कि ऐसी उपमा तो शायद ही विश्व की किसी नदी को मिली हो, जो गंगाजी को मिली है। भारतीय ही नहीं मुगल सम्राट तक इसके जल का पान करते थे। भारत ही नहीं विदेशी विद्वानों को तक इसका मुरीद पाया। हेनरी डेविड थोरो वाल्डेन सरोवर के किनारे गंगाजी के पावन स्पर्श का अहसास करते। हमारे धर्म-अध्यात्म एवं संस्कृति के इस केंद्रीय प्रवाह को सुरक्षित एवं संरक्षित रखना हमारा पावन दायित्व है।

संस्कृति की इस जीवन रेखा को अपने पावनतम रुप में संजोए रखने की जरुत है। गोमुख गंगोत्री से गंगा सागर पर्यन्त गंगाजी के स्वरुप को यथासंभव निर्मलतम रुप में बनाए रखने की जरुरत है। समय हर स्तर पर गहन आत्म-समीक्षा का एवं ईमानदार प्रय़ास का है। जरुरत अंधी आस्था और कौरी लफ्फाजी से बाहर निकलकर अपना नैष्ठिक योगदान देने की है। प्रश्न गंगाजी के अस्तित्व का नहीं, हमारे अपने बजूद का है, हमारी भावी पीढ़ियों के सुरक्षित एवं उज्जवल भविष्य का है, प्रश्न भारत की शाश्वत सनातन संस्कृति के गौरवपूर्ण अस्तित्व का है।

(साभार - पुस्तक - गंगा का समाज और संस्कृति, 2021, अनामिका प्रकाशन। संपादक - राजकुमार भारद्वाज। अध्याय - पावनता की चुनौती। लेखक - प्रो. सुखनन्दन सिंह, पृ.6-74)

मंगलवार, 18 जनवरी 2022

पु्स्तक समीक्षा - हिमालय की वादियों में, दैनिक ट्रिब्यून

 हिमालयी वादियों में जोगी मन की तलाश

पुस्तक समीक्षा, हिमालय की वादियों में

हिमालय  की वादियों में पुस्तक के रचनाकार डॉ. सुखनन्दन सिंह का संबंध हिमाचल प्रदेश से है। उन्होंने जब से होश संभाला, अपने के पहाड़ों की गोद में पाया। पारिवारिक सदस्यों तथा अन्य लोगों से पर्वतीय यात्राओं के वृत्त सुनते-सुनते इन जिज्ञासाओं ने उकसाया, तो स्वयं इन पर्वतों को एक्सप्लोअर करना प्रारम्भ किया। ज्ञानीजनों से संपर्क से बोध हुआ कि ये साामान्य पर्वत नहीं। देवात्मा हिमालय की गोद में घुमक्कड़ी का सुअवसर मिला। अपना अनुभव जन-जन से साझा करने हेतु इसे कलमबद्ध करना जरुरी समझा।

हिमालयी यात्राओं के इस संकलन में उत्तराखंड के कुमाउं तथा गढ़वाल हिमालय में अलमोड़ा, नैनीताल, मुनस्यारी, रानीखेत, केदारनाथ, बद्रीनाथ, तुंगनाथ, हेमकुण्ड साहिव, नीलकंठ, ऋषिकेश, टिहरी, मसूरी आदि की यात्राएं सम्मिलित हैं। हिमाचल अंचल के शिमला, मंडी, कुफरी, चैअल, कुल्लू-मानाली, मणिकर्ण घाटी, सोलंग घाटी, रोहतांग पास, लाहौल घाटी आदि की मनोरम झल से भी पाठक आनंद अनुभव करता है।

प्रस्तुत कृति के संबंध में प्रो (डॉ.) दिनेश चमौला 'शैलेश' का सार्थक उल्लेख है, हिमालच व उत्तराखण्ड आदि के अनेक पर्यटन स्थलों, मंदिरों, देवतीर्थों तक हो आने का लेखा-जोखा उनकी (लेखक की) अध्यात्म प्रेरित प्रवृत्ति को भी द्योतित करता है।

हिमालय की वादियों में, पुस्तक समीक्षा

 लेखक ने पर्वतीय प्रदेश की यात्राओं और उनकी प्रस्तुति की प्रेरणाओं का भी सार्थक उल्लेख किया है। नग्गर स्थित निकोलाई रोरिक केंद्र में हिमालय के आलौकिक सौंदर्य को दर्शाती पेंटिंग्ज से उन्हें प्रेरणा मिली। चंडीगढ़ में अपनी शिक्षा की अवधि में लेख ने रामकृष्ण मिशन के साहित्य का अध्ययन किया, जिससे उसे हिमालय के आध्यात्मिक आयाम को समझने में सहायती मिली। हरिद्वार निवास में श्रीराम शर्मा के साहित्य के अध्ययन से एक नये सत्य से साक्षात्कार हुआ। अपने अनुभवों की अभिव्यक्ति का लेखक का अपना ही अंदाज है। शिमला यात्रा के लिए उचित मौसम की ओर संकेत है - बरसात के मौसम के बिना शिमला का वास्तविक आनन्द अधूरा है, क्योंकि मौसम न अधिक गर्म होता है, न अधिक ठंडा। उड़ते-तैरते आवारा बादलों के बीच घाटी का विहंगावलोकन एक स्वप्निल लोक में विचरण की अनुभूति देता है।

पुस्तक की भूमिका में डॉ. दिनेश चमौला ने यात्रा के दौरान लेखक की मनःस्थिति का यों सार्थक विश्लेषण किया है - इस पुस्तक में कहीं सुखनंदन का जोगी मन यात्रा के मूल को तलाशता प्रकृति में ही तल्लीन प्रतीत होता है, तो कहीं जिज्ञासा का असीम क्षितिज असीम में बंध जाने के लिए आतुर दिखाई देता है। कहीं देखे को हुबहू न कह पाने तथा कहीं न देख पाने की बेचैनी यात्रा वृत्तांत को अधिक रोचक व रहस्यपूर्ण बनाती है।

पुस्तक समीक्षा - हिमालय की वादियों में

मोहन मैत्रेय, दैनिक ट्रिब्यून, 12 दिसम्बर, 2021, चण्डीगढ़

पुस्तक - हिमालय की वादियों में।, लेखक - प्रो. सुखनन्दन सिंह

प्रकाशक - एविंसपव पब्लिशिंग, बिलासपुर, छत्तीसगढ़, पृष्ठ - 243, मूल्य - रु.369

पुस्तक समीक्षा, दैनिक ट्रिब्यून, 12.12.2021, हिमालय की वादियों में


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