शनिवार, 5 फ़रवरी 2022

देवसंस्कृति की गौरवमयी पावन धारा - गंगा मैया

 गंगा की पावनता को बनाए रखने की चुनौती

जब से होश संभाला घर के बुजुर्गों से गंगाजल का परिचय मिला। घर में एक सीलबंद लोटे में गंगाजल रहता, किन्हीं विशेष अवसरों पर इसका छिड़काव शुद्धि के लिए किया जाता। हमें याद है कि हमारे नानाजी इस गंगाजल के लोटे को हरिद्वार से लाए थे। जब भी घर-गाँव में कोई दिवंगत होता तो हरिद्वार में अस्थि-विसर्जन एवं तर्पण का संस्कार होता। कई दिनों की बस और ट्रेन यात्रा के बाद हरिद्वार से यह पवित्र जल घर पहुँचता।

नहीं मालूम था कि धर्मनगरी हरिद्वार ही आगे चलकर हमारी कर्मस्थली बनने वाली है। हरिद्वार के सप्तसरोवर क्षेत्र में एक आश्रम के शोध संस्थान में कार्य करने का संयोग बना। यहाँ गंगाजी के किनारे सुबह-शाम भ्रमण का मौका मिलता। गंगाकिनारे बने घाटों पर कितनी शामें बीतीं, खासकर जब परेशान होते, इसके तट पर बैठ जाते, विक्षुब्ध मन शांत हो जाता। गंगाजी के तट पर, इसके जल प्रवाह में कुछ तो बात है, इसे गहराई से अनुभव करते।

सूक्ष्मदर्शी विज्ञजनों के श्रीमुख से सुनकर हमारी धारणा ओर बलवती हुई कि गंगाजल कोई सामान्य जल नहीं है। कितने तपस्वी, ऋषियों के तप तेज का दिव्य अंश इसमें मिला है, जो आज भी प्रवाहमान है। यह औषधीय गुणों से भरपूर दिव्य जल है। जब शास्त्रों को पढ़ा, तो महापुरुषों के वचनों में भी इसको पुष्ट होते पाया। आदि शंकराचार्यजी ने इसे ब्रह्मदव्य की संज्ञा दी। पौराणिक किवदंयितों के अनुसार ये ब्रह्माजी के कमंडल से प्रकट, विष्णुजी के चरणनख से निस्सृत और शिव की जटाओं से होकर धरती पर अवतरित दैवीय प्रवाह है। धरती पर मानव मात्र के कल्याण-त्राण के लिए भगीरथी तप ने इसे आगे बढ़ाया।

गंगाजी में डुबकी लगाते ही बर्फ की ठंडक लिए इसका शीतल जल हमें सीधे हिमालय से जोड़ता। भाव स्मरण होता कि कैसे यह जल हिमालय के तीर्थों को समेटे हुए हम तक पहुंच रहा है। हर डुबकी के साथ यह सिमरन हमें गंगाजी के उद्गम स्थल की ओर सोचने के लिए प्रेरित करता। और इस सुमरन के सम्मिलित भाव का फल कहेंगे, जो कालांतर में हमें हिमालय की गोद में तीर्थाटन के सुअबसर मिले। देवप्रयाग, केदारनाथ, तुंगनाथ, बद्रीनाथ, हेमकुंड साहिब जैसे तीर्थ स्थलों की यात्राएं सम्पन्न हुईं और गंगाजी की धाराओं का इसके शुरुआती पड़ाव में अवलोकन का अबसर मिला। केदारनाथ में उस पार धौलीगंगा के ध्वल निर्मल जल को पहाडों से छलछलाते हुए नीचे गिरते देखकर चित्त आल्हादित हो जाता, लेकिन उसके पास जाकर किनारे पर इंसान को अपनी गंदगी से इसे अपवित्र करते देख कष्ट हुआ। लगा, इंसान में जलस्रोत्रों के प्रति न्यूनतम संवेदनशीलता का अभाव कितना बड़ा संकट है। शायद हमारे विचार में गंगाजी व अन्य किसी भी नदी में प्रदूषण का यही मुख्य कारण है।

हिमालय में गंगाजी की धाराएं अपने शुद्धतम रुप में प्रवाहित होती हैं, प्रायः आसमानी नीलवर्ण लिए, हालाँकि बीच-बीच में रंग मटमैला हो जाता है और वरसात में इसका स्वरुप एकदम बदल जाता है, जो स्वाभिवक भी है। देवप्रयाग में अलकनंदा और भगीरथी के संगम पर गंगाजी का पूर्ण स्वरुप प्रकट होता है। एक ओर से भगीरथी की नीलवर्णी धारा तो दूसरी ओर से अलकनंदा का कुछ मटमैला सा प्रवाह। संगम दृश्य दर्शनीय है। यहाँ गंगाजी को अपने भव्यतम निर्मल रुप में पाया और यहाँ के दिव्य संगम पर लगाई डुबकी हमारे चिरस्मरणीय पलों में शुमार है।

यहां से आगे फिर गंगाजी का प्रवाह शांत व गंभीर होता जाता है, ऋषिकेश तक आते-आते जैसे यह अपनी प्रौढ़ावस्था को पा जाती है। रास्ते में ही एडवेंचर स्पोर्ट्स के नाम पर राफ्टिंग क्लबों की भरमार के साथ मानवीय हस्तक्षेप की कहानी शुरु हो जाती है। इसके तटों पर पर्यटकों का रवैया गंगाजी के प्रति कितना संवेदनशील रहता है, यह शोध की विषय वस्तु है। हालांकि ऋषिकेश में लक्ष्मणझूला एवं रामझूला में गंगाजी पर्याप्त शुद्ध पायी गयी है, जो हरिद्वार तक बहुत कुछ बैसी ही रहती है। लेकिन राह में शहरों के अवशिष्ट पदार्थों के इसमें मिलते जाने से इसकी शुद्धता का प्रभावित होना शुरु हो जाता है।

गंगाजल की विलक्षणता की चर्चा जब विदेश तक पहुँची थी तो इसके जल का वैज्ञानिक परीक्षण हुआ। इन परीक्षणों के आधार पर पाया गया था कि इसमें कुछ ऐसे तत्व हैं, जो इसे विशिष्ट बनाते हैं। इसमें जबर्दस्त कीटाणुनिरोधक क्षमता है, जिसके कारण इसका जल कितने ही वर्षों तक ताजा रहता है। समझ में आता है कि हिमालय की औषधियों से लेकर खनिज तत्वों का सत्व इसमें मिलकर इन औषधीय गुणों से युक्त बनाता होगा।

अपनी इन आध्यात्मिक एवं वैज्ञानिक विशेषताओं के साथ गंगाजी देश की सांस्कृतिक जीवन रेखा हैं। देश-विदेश के किसी भी कौने में रह रहा भारतवासी गंगाजी से जुड़ाव अनुभव करता है। और फिर एक बड़ी आवादी का तो सीधा गंगाजी के किनारे ही अस्तित्व टिका है। हिमालय में गोमुख से गंगासागर पर्यन्त 2525 किमी के सफर में गंगाजी के तट पर देश की 43 फीसदी आवादी पलती है। फिर ऋषिकेश, हरिद्वारसे लेकर प्रयागराज, बनारस एवं कोलकत्ता तक कितने नगर-महानगर इसके तट पर बसे हैं, जो न जाने कबसे देश की समृद्ध धार्मिक-सांस्कृतिक विरासत संजोए हुए हैं। इन दिनों प्रयागराज में चल रहे विश्व के सबसे बड़े धार्मिक समारोह कुंभ-2019 में इस सांस्कृतिक प्रवाह की झलक-झांकी को भली भांती देखा जा सकता है, जिसका दीदार करने के लिए विदेशों से तक सैंकड़ों शोधार्थी, पर्यटक एवं जिज्ञासु आए हुए हैं। हरिद्वार में भी कुंभ के ऐसे ही दो वृहद आयोजनों के हम साक्षी रहे हैं, जिसका विस्तार हरिद्वार से लेकर ऋषिकेश पर्यन्त था।

हमारा अनुभव हरिद्वार के सप्तसरोवर क्षेत्र का विशेष रहा, क्योंकि यहीं अपने पिछले अढाई दशक गंगाजी के किनारे बीते। मान्यता है कि भगीरथ के आवाह्न पर जब हिमालय से उतर कर गंगाजी मैदानों में आती हैं, तो हरिद्वार के इस क्षेत्र में सत्पऋषि तप कर रहे थे। उनको कोई असुविधा न हो, गंगाजी सात भागों में विभक्त हो गयी। आज भी यहाँ के सात मंजिले भारतमाता मंदिर में चढ़कर देखें तो 4-5 धाराएं तो आज भी दिखती हैं। बीच में बाँध बनने के कारण बाकि धाराएं बिलुप्त हो गयी हैं, नहीं तो पहाड़ी के नीचे दायीं ओर उस छोर तक गंगाजी का प्रवाह था, जिसके बीच में आज गायत्री तीर्थ शांतिकुज बना हुआ है। वहाँ खोदने पर बालु और गोल-गोल पत्थर के साथ जल की प्रचुरता इसकी मौजूदगी के सबूत पेश करते हैं। मान्यता है कि यहाँ कभी गायत्री महामंत्र के द्रष्टा महर्षि विश्वामित्र की तपःस्थली थी। खैर सप्तसरोवर क्षेत्र में गंगाजी को साल भर निहारने का मौका मिलता रहा।

गंगाजी की मुख्य धारा का एक बड़ा अंश ऋषिकेश वैराज से चीला डैम (लघु विद्युत योजना) की ओर नीलधारा नहर के रुप में बहता है और शेष गंगाजल रायवाला सप्तसरोवर से होकर आगे नीलधारा से घाट नम्बर 10 पर मिलता है। इस तरह सप्तसरोवर की धारा में देहरादून से आ रही सोंग नदी का जल भी मिला होता है। लेकिन जो भी हो गंगाजी का जल सालभर के अधिकाँश समय हिमालयन टच लिए रहता है। जब यह फील नहीं आता तो हम आगे दस नम्बर घाट या इससे आगे एक नम्बर घाट तक जाते, जहाँ गंगाजी को समग्र रुपमें पाते। यहीं से एक धारा खड़खड़ी शमशान से होते हुए हरकी पौड़ी की ओर प्रवाहित होती है।

हमारे जितने भी मित्र हैं, अतिथि प्रवक्ता या बाहरी मेहमान, हम गंगाजी के इस घाट पर एक वार अवश्य स्नान कराते हैं। हरिद्वार के फक्कड़ जीवन में हमारे पास गंगाजी के अलावा ओर है भी क्या। गंगाजी का हिमालयन टच ही हमारा एक गिफ्ट रहता है, जो शायद दिल्ली या दूसरे शहरों से आए मित्रों के लिए एक दुर्लभ चीज रहती है। और ग्रुप में गंगाजी के किनारे दर्जनों नहीं अनगिन पिकनिकों की यादें ताजा है। कुछ तो देसंविवि के कुलाधिपति डॉ. प्रणव पण्ड्याजी के साथ, कुछ विभाग के शिक्षकों के साथ, कुछ यार दोस्तों के साथ, कुछ परिवारजनों के साथ और कुछ निपट अकेले।

गंगाजी के उस पार धाराओं के बीच बसे टापूओं में कितने बाबाओं को कुटिया बना कर एकांत वास करते देखा। कुछ को तो वृक्षों पर मचान बनाकर रहते देखा। हालाँकि अब राजाजी नेशनल पार्क में इनको रुकने की मनाही है, लेकिन इनके अवशेष अभी भी देखे जा सकते हैं। ब्रह्मवर्चस आरण्यक की स्थापना भी कुछ ऐसे ही उद्देश्य के साथ हुई थी। आचार्यश्री का मानना था कि नांव से गंगाजी को पार कर साधक टापू में दिन भर साधना करेंगे और फिर शाम को नाव से ही बापस अपने कक्ष में आएंगे। हालाँकि यह बात योजना बनकर ही रह गई। लेकिन गंगा की गोद व हिमालय की छाया में साधना का अपना महत्व तो है ही।

इन टापूओं में जंगली बेर फल की पर्याप्त झाडियाँ हैं, साथ ही जंगली बेल के वृक्ष भी, जिनका सीजन में पकने पर लुत्फ उठाया जा सकता है। सेमल के वृहद पेड़ तट पर फैले हैं, जो वसंत में फूलने पर सुर्ख लाल रंगत लिए टापुओं व गंगा तट की शोभा में चार चाँद लगा रहे होते हैं। हिरन, खरगोश, बंदर, मोर आदि वन्य पशु राजाजी नेशनल पार्क से यहाँ खुलेआम विचरण करते हैं। यदा-कदा हाथियों के दर्शन भी झुंडों में हो सकते हैं। बन क्षेत्र गांव वासियों के लिए सूखी लकड़ी का समृद्ध स्रोत हैं, गाँव की महिलाओं को यहाँ इनको बटोरते देखा जा सकता है। सीजन में बन गुर्जरों को अपनी भैंसों के साथ यहाँ के संरक्षित क्षेत्रों में रहते देखा जा सकता है। सर्दियों में गंगा की धाराओं में बने टापुओं में माईग्रेटरी पक्षियों के झुडों का जमाबड़ा, चहचाहट व क्रीडा-क्लोल सबका ध्यान आकर्षित करता है। शाम को घर की ओऱ बापिस उडान भरते पक्षियों का नजारा दर्शनीय रहता है।

फिर गंगाजी का किनारा सबके लिए अलग-अलग मतलब रखता है। अनास्थावान इसे अपराध का अड्ड़ा तक कहने से नहीं चूकते, जिसमें कुछ सच्चाई भी है। भीड़ भरे घाटों पर चोर-उच्चकों व जेबकतरों से साबधानी के बोर्ड मिलते हैं। मछली मारों के लिए गंगा तट मच्छली का स्रोत है, लेकिन धारा के उसपार ही छिपकर वे ऐसा कुछ कर पाते हैं। पियक्कड़ों के लिए यहाँ का एकांत नशे की बेहोशी में डुबने का सुरक्षित स्थल है। हालांकि यह सब चोरी छिपे ही होता है। लापरवाहों के लिए गंगाजी साक्षात कालस्वरुपा हैं। हर साल कितने लापरवाह पर्यटक-श्रद्धालु चेतावनी के बावजूद इसके उद्दाम प्रवाह में डूबते रहते हैं।

इसी के तट पर नित्य हवन, यज्ञ, जप तप भी होता है। नित्य आरती का क्रम कई घाटों पर चलता है। लोग सुबह-शाम इसके तट पर भ्रमण कर स्वास्थ्य लाभ लेते हैं। विशिष्ट पर्व-त्यौहारों एवं अवसरों पर हजारों-लाख लोग यहाँ स्नान करते हैं। गंगा के तट के सात्विक प्रभामंडल को कोई भी संवेदनशील व्यक्ति अनुभव कर सकता है। पिछले कुंभ के दौरान तमाम घोटालों के बीच भी घाटों का पर्याप्त जीर्णोंदार हो चुका है, जो तीर्थयात्रियों के लिए दिन के विश्राम स्थल तो सन्यासी बाबाओं के लिए रात्रि के आश्रयस्थल हैं।

सालभर गंगाजी के हर रुप को देखा जा सकता है। कभी एक दम पतली धारा, जिसे पैदल ही पार किया जा सकता है, तो कभी मध्यम आकार की, जिसे तैरकर ही पार किया जा सकता है। बरसात में गंगाजी विकराल रुप धारण करती हैं, जिसमें तैरने का दुस्साहस शायद ही कोई विरला कर सके। लेकिन हर रुप में जब भी गंगाजी में डुबकी लगाओ, इसका हिमालयन टच हमेशा व्यक्ति को तरोताजा करता है। शायद यही विशेषता श्रद्धालु भक्तों को इसमें नित्य स्नान के लिए प्रेरित करती है। इनके लिए गंगाजी का जल नीला है या मटमेला, वे इसकी परवाह नहीं करते। वे तो इस ब्रह्मद्रव में स्नान कर शुद्ध-बुद्ध एवं निर्मल होने का भाव रखते हैं और शायद बैसा फल भी पाते हैं।

हालांकि सभी इस भाव से डुबकी लगाते हों, ऐसी बात भी नहीं। कईयों के लिए यह महज नदी का जल है, जिसके किनारे ऐसे अभागों को ब्रश करते, कुल्ला करते, इसी में साबुन से रगड़कर कपडे धोते देखा जा सकता है। हालांकि गंगाजी के किनारे ये कृत्य वर्जित हैं, लेकिन सबको समझाना कठिन है। कितनी वार हम ऐसे तत्वों को प्यार से समझाए हैं, कभी हड़काए हैं, लेकिन हर बार कोई नया अनाढ़ी आ जाता। इस क्षेत्र में पिछले कुंभ के दौरान गंगाजी के निर्मल जल में बहुत दूर से आए एक पढ़े-लिखे सज्जन को साबुन लगाकर स्नान करते देखा तो हमसे रहा नहीं गया कि यदि साबुन लगाकर ही नहाना था तो घर के बाथरुम में स्नान कर लेते। कुंभ में इतना दूर आकर गंगाजल को दूषित कर पुण्य की वजाए पाप के भागीदार क्यों बन रहे हो। ऐसे तमाम अनगढ़ श्रद्धालु गंगाजी के तट पर मिलेंगे।

आश्चर्य ऐसे धार्मिक वर्ग को देखकर होता है, जो गंगा नदी को माँ कहता है, इसकी पूजा-अर्चना करता है, इसमें डुबकी लगाकर मोक्ष व त्राण की कामना करता है, लेकिन स्नान के बाद गंगाजी को कूड़दान की तरह उपयोग करता है और साथ लाया सारा कुड़ा-कचरा इसमें छोड़ कर चला जाता है। इसका प्रमाण हर वर्ष हरिद्वार गंगा क्लोजर के समय हरकी पौडी के आसपास पोलीथीन, कपडों, फूल-मालाओं व पूजन सामग्री के क्विंटलों कचरे के रुप में देखा जा सकता है। आश्चर्य होता है, जब धर्म-अध्यात्म के नाम पर स्थापित आश्रमों व मठ-मंदिरों का गंदा अवशिष्ट जल सीधे गंगाजी में प्रवाहित होता है। गंगाजल के प्रति न्यूतनम संवेदनशीलता से हीन यह आस्था समझ से परे है।

फिर कहने की जरुरत नहीं कि गंगाजी की सफाई को लेकर सरकार अब तक हजारों करोड़ रुपयों की धनराशि पानी की तरह बहा चुकी है। समझ नहीं आता कि यह सब धन किस ब्लैक होल में समा जाता है और गंगाजी बैसी की बैसी ही गंदी, बदरंग और प्रदूषित अपने अस्तित्व के लिए कराह रही है, विशेषरुप में हरिद्वार से आगे कानपुर जैसे महानगरों से होते हुए इसकी स्थिति ओर विकराल है, जहाँ कारखानों का विषैला द्रव सीधे गंगाजी में गिर रहा है, जो किसी अपराध से कम नहीं। महानगरों की बड़ी आबादी के अवशिष्ट द्रव्य का गंगाजी में गिरकर दूषित करना, गंभीर चिंता का विषय है। सरकारी एवं प्रशासनिक स्तर पर इस संदर्भ में की जा रही लापरवाही पर सख्त कार्य़वाही की जरुरत है, क्योंकि जब इसके लिए प्रचुर बजट की व्यवस्था है तो आवश्यक जलसंशोधन यंत्र क्यों नहीं स्थापित हो रहे।

इस पुनीत कार्य में कई स्वयंसेवी संगठन अपने स्तर पर कोशिश कर रहे हैं, लेकिन गंगाजी जैसी वृहद नदी के पुनरुद्धार का कार्य किसी एक संगठन के बूते की बात नहीं है। इसके लिए सबको साथ मिलकर काम करने की जरुरत है। सबसे महत्वपूर्ण है जनता की इसमें भागीदारी का। जब तक जनता इसको अपना काम नहीं मानेगी, उसके अंदर न्यूनतम संवेदनशीलता का भाव विकसित नहीं होगा, गंगा शुद्धि का कार्य अधूरा ही रहेगा।

.गंगाजी पर प्राचीन काल से लेकर मध्यकालीन एवं आधुनिक काल तक महापुरुषों, मनीषियों, कवियों, साहित्यकारों एवं विशेषज्ञों के उद्गार पढ़कर लगता है कि ऐसी उपमा तो शायद ही विश्व की किसी नदी को मिली हो, जो गंगाजी को मिली है। भारतीय ही नहीं मुगल सम्राट तक इसके जल का पान करते थे। भारत ही नहीं विदेशी विद्वानों को तक इसका मुरीद पाया। हेनरी डेविड थोरो वाल्डेन सरोवर के किनारे गंगाजी के पावन स्पर्श का अहसास करते। हमारे धर्म-अध्यात्म एवं संस्कृति के इस केंद्रीय प्रवाह को सुरक्षित एवं संरक्षित रखना हमारा पावन दायित्व है।

संस्कृति की इस जीवन रेखा को अपने पावनतम रुप में संजोए रखने की जरुत है। गोमुख गंगोत्री से गंगा सागर पर्यन्त गंगाजी के स्वरुप को यथासंभव निर्मलतम रुप में बनाए रखने की जरुरत है। समय हर स्तर पर गहन आत्म-समीक्षा का एवं ईमानदार प्रय़ास का है। जरुरत अंधी आस्था और कौरी लफ्फाजी से बाहर निकलकर अपना नैष्ठिक योगदान देने की है। प्रश्न गंगाजी के अस्तित्व का नहीं, हमारे अपने बजूद का है, हमारी भावी पीढ़ियों के सुरक्षित एवं उज्जवल भविष्य का है, प्रश्न भारत की शाश्वत सनातन संस्कृति के गौरवपूर्ण अस्तित्व का है।

(साभार - पुस्तक - गंगा का समाज और संस्कृति, 2021, अनामिका प्रकाशन। संपादक - राजकुमार भारद्वाज। अध्याय - पावनता की चुनौती। लेखक - प्रो. सुखनन्दन सिंह, पृ.6-74)

मंगलवार, 18 जनवरी 2022

पु्स्तक समीक्षा - हिमालय की वादियों में, दैनिक ट्रिब्यून

 हिमालयी वादियों में जोगी मन की तलाश

पुस्तक समीक्षा, हिमालय की वादियों में

हिमालय  की वादियों में पुस्तक के रचनाकार डॉ. सुखनन्दन सिंह का संबंध हिमाचल प्रदेश से है। उन्होंने जब से होश संभाला, अपने के पहाड़ों की गोद में पाया। पारिवारिक सदस्यों तथा अन्य लोगों से पर्वतीय यात्राओं के वृत्त सुनते-सुनते इन जिज्ञासाओं ने उकसाया, तो स्वयं इन पर्वतों को एक्सप्लोअर करना प्रारम्भ किया। ज्ञानीजनों से संपर्क से बोध हुआ कि ये साामान्य पर्वत नहीं। देवात्मा हिमालय की गोद में घुमक्कड़ी का सुअवसर मिला। अपना अनुभव जन-जन से साझा करने हेतु इसे कलमबद्ध करना जरुरी समझा।

हिमालयी यात्राओं के इस संकलन में उत्तराखंड के कुमाउं तथा गढ़वाल हिमालय में अलमोड़ा, नैनीताल, मुनस्यारी, रानीखेत, केदारनाथ, बद्रीनाथ, तुंगनाथ, हेमकुण्ड साहिव, नीलकंठ, ऋषिकेश, टिहरी, मसूरी आदि की यात्राएं सम्मिलित हैं। हिमाचल अंचल के शिमला, मंडी, कुफरी, चैअल, कुल्लू-मानाली, मणिकर्ण घाटी, सोलंग घाटी, रोहतांग पास, लाहौल घाटी आदि की मनोरम झल से भी पाठक आनंद अनुभव करता है।

प्रस्तुत कृति के संबंध में प्रो (डॉ.) दिनेश चमौला 'शैलेश' का सार्थक उल्लेख है, हिमालच व उत्तराखण्ड आदि के अनेक पर्यटन स्थलों, मंदिरों, देवतीर्थों तक हो आने का लेखा-जोखा उनकी (लेखक की) अध्यात्म प्रेरित प्रवृत्ति को भी द्योतित करता है।

हिमालय की वादियों में, पुस्तक समीक्षा

 लेखक ने पर्वतीय प्रदेश की यात्राओं और उनकी प्रस्तुति की प्रेरणाओं का भी सार्थक उल्लेख किया है। नग्गर स्थित निकोलाई रोरिक केंद्र में हिमालय के आलौकिक सौंदर्य को दर्शाती पेंटिंग्ज से उन्हें प्रेरणा मिली। चंडीगढ़ में अपनी शिक्षा की अवधि में लेख ने रामकृष्ण मिशन के साहित्य का अध्ययन किया, जिससे उसे हिमालय के आध्यात्मिक आयाम को समझने में सहायती मिली। हरिद्वार निवास में श्रीराम शर्मा के साहित्य के अध्ययन से एक नये सत्य से साक्षात्कार हुआ। अपने अनुभवों की अभिव्यक्ति का लेखक का अपना ही अंदाज है। शिमला यात्रा के लिए उचित मौसम की ओर संकेत है - बरसात के मौसम के बिना शिमला का वास्तविक आनन्द अधूरा है, क्योंकि मौसम न अधिक गर्म होता है, न अधिक ठंडा। उड़ते-तैरते आवारा बादलों के बीच घाटी का विहंगावलोकन एक स्वप्निल लोक में विचरण की अनुभूति देता है।

पुस्तक की भूमिका में डॉ. दिनेश चमौला ने यात्रा के दौरान लेखक की मनःस्थिति का यों सार्थक विश्लेषण किया है - इस पुस्तक में कहीं सुखनंदन का जोगी मन यात्रा के मूल को तलाशता प्रकृति में ही तल्लीन प्रतीत होता है, तो कहीं जिज्ञासा का असीम क्षितिज असीम में बंध जाने के लिए आतुर दिखाई देता है। कहीं देखे को हुबहू न कह पाने तथा कहीं न देख पाने की बेचैनी यात्रा वृत्तांत को अधिक रोचक व रहस्यपूर्ण बनाती है।

पुस्तक समीक्षा - हिमालय की वादियों में

मोहन मैत्रेय, दैनिक ट्रिब्यून, 12 दिसम्बर, 2021, चण्डीगढ़

पुस्तक - हिमालय की वादियों में।, लेखक - प्रो. सुखनन्दन सिंह

प्रकाशक - एविंसपव पब्लिशिंग, बिलासपुर, छत्तीसगढ़, पृष्ठ - 243, मूल्य - रु.369

पुस्तक समीक्षा, दैनिक ट्रिब्यून, 12.12.2021, हिमालय की वादियों में


शुक्रवार, 31 दिसंबर 2021

यात्रा वृतांत - मेरी पहली नेपाल यात्रा

 हिमाच्छादित हिमालय के संग एक रोमाँचक सफर

दिव्य झलक - हिमाच्छादित पर्वतश्रृंखलाएं, नेपाल, हिमालय

यह हमारी पहली नेपाल यात्रा थी। वर्ष 2021 के उथल-पुथल भरे कलिकाल का समाप्न जैसे भगवान पशुपति नाथ क्षेत्र से आमन्त्रण के साथ हो रहा था। हरिद्वार से मुरादावाद होते हुए हम भारत की सीमा पर नानकमत्ता, बनवसा की ओर से प्रवेश करते हैं। यहाँ पहुँचते-पहुँचते शाम हो चुकी थी, अतः यहाँ पर काली नदी के दर्शन रात के अँधेरे में बिजली की रोशनी में ही कर पाए। काली नदी के बारे में बहुत कुछ पढ़-सुन चुके थे, सो इसके दर्शन की अभिलाषा दिन के उजाले में आज अधूरी ही रही।

मालूम हो कि काली नदी भारत और नेपाल के बीच एक नैसिर्गिक सीमा रेखा का काम करती है, जिसे महाकाली, कालीगंगा, शारदा जैसे कई नामों से जाना जाता है। यह उत्तराखण्ड के पिथौड़ागढ़ के 36,00 मीटर (लगभग 10,800 फीट) ऊँचे स्थान कालापानी स्थान से प्रकट होती है और उत्तर प्रदेश के मैदानी क्षेत्रों में शारदा के नाम से 350 किमी लम्बा सफल तय करती हुई अन्ततः सरयू नदी में जा मिलती है। काली नदी सरयू नदी की सबसे बड़ी सहायक नदी है। तवाघाट, धारचूला, जौलजीबी, झूलाघाट, पंचेश्वर, टनकपुर, बनबसा, महेंद्रनगर आदि इस नदी पर बसे मुख्य नगर हैं। इसकी जलराशि को देखकर इसके विराट स्वरुप का अहसास हो रहा था और इसके प्रत्यक्ष दर्शन की इच्छा को अगले टूर के लिए छोड़ते हुए हम यहाँ की सुरक्षा औपचारिकताएं पूरा करते हुए नेपाल की सीमा में प्रवेश करते हैं और इसके समीपस्थ शहर महेंद्रनगर में रुकते हैं। 

मालूम हो कि महेंद्रनगर नेपाल के सुदूर पश्चिम में भारत का समीपस्थ शहर है, जिसे दिवंगत राजा महेंद्र ने बसाया था और यह एक पूरी योजना के तहत एक सुव्यवस्थित शहर है। नेपाल का यह नौवां सबसे बड़ा शहर है तथा काठमाण्डू से 700 किमी दूरी पर स्थित है। यहाँ के होटल में नेपाल के खान-पान से जुड़ी विशेषताओं से परिचय शुरु हो जाता है। 

महेंद्रनगर में रात्रि विश्राम के यादगार पल

यहाँ रोटी का चलन न के बराबर दिखा, चाबल यहाँ भोजन का प्रमुख हिस्सा है। यहाँ से प्रातः पास के शहर धनगढ़ी तक का सफर गाड़ी से करते हैं, जहाँ से काठमाण्डू के लिए हवाई यात्रा की व्यवस्था हो चुकी थी। रास्ते में हम नेपाल के ग्रामीण परिवेश से पहला परिचय पा रहे थे, जिसे यहाँ की लोकल बसों में देखकर समझ आया कि इसे सुदूर पश्चिम के नाम से जाना जाता है, क्योंकि यह क्षेत्र नेपाल के पश्चिमी छोर की ओर बसा है। हम पश्चिम से पूर्व की ओर बढ़ रहे थे और काठमाण्डू नेपाल के लगभग बीच में पड़ता है। 

रास्ते में हर आध-एक किमी की दूरी पर छोटी-छोटी नदियों के दर्शन निसंदेह रुप में ताजगी भरा अहसास जगाते रहे, क्योंकि जहाँ भी जल दिखता है, वहीं जीवन की सकल संभावनाएं नजर आती हैं, जबकि जल से हीन भू-भाग देखकर मन में एक सुखापन सा कुरेदने लगता है, एक शुष्कता का भाव जेहन को आक्राँत करता है। रास्ते भर दायीं ओर पहाड़ियों के दर्शन होते रहे, लगा जैसे अपने ही गृह प्रदेश में एक नए परिवेश में विचरण कर रहे हैं। यात्रा के दौरान एक स्वप्न सरीखे अनुभव से स्वयं को गुजरता महसूस कर रहे थे और जेहन की कोई गहरी अतृप्त इच्छा जैसे पूरा हो रही थी।

पहाडियों से निस्सृत मार्ग की एक छोटी नदी
 

मार्ग में जीवन्त लोकजीवन के दर्शन होते रहे। बीच में दूल्हे की बारात जा रही थी, जिसमें लोक्ल गीत, संगीत व बाजे के साथ थिरकते लोग, बहुत सुन्दर नजारा पेश कर रहे थे। इसके साथ रास्ते भर कई जंगल, खेत, खलिहान, गाँवों को निहारते हुए हम मार्ग में कृष्णपुर व अटरिया जैसे कस्बों को पार करते हुए आखिर धनगढ़ी पहुँचे। विकास की दृष्टि से निहारने पर लगा की यह क्षेत्र अपनी पुरातन संस्कृति को संजोए हुए नए तौर तरीकों को अपना रहा है। खेती का चलन अधिक दिखा, कहीं-कहीं सब्जियाँ को उगाते देखा। बागवानी का चलन कम ही दिखा। धनगढ़ी के मुख्य मार्ग से अन्दर खेत-खलिहान के बीच होते हुए यहाँ के एयरपोर्ट पहुँचते हैं।

मार्ग के खेत खलिहान
 

थोड़ी ही देर में धनगढ़ी से काठमाण्डू की फ्लाइट मिल जाती है। अगले एक घण्टे जीवन के सबसे रोमाँचक पलों में शुमार होने वाले थे, क्योंकि हम बर्फ से ढकी हिमालय की पर्वत श्रृंखलाओं के दर्शन करने जा रहे थे, जिनमें कुछ तो विश्व के सबसे ऊँचाई बाले शिखरों में शुमार हैं। अभी तक जो हवाई यात्राएं हम दिल्ली व चण्डीगढ़ से हैदरावाद, मुम्बई तथा फ्रैंकर्फट, बिडगोश आदि की किए थे, वे सभी 35,000 फीट ऊँचाई के आसपास की थी। अतः इन यात्राओं में बादलों के अलावा नीचे के नजारे अधिकाँशतः नदारद ही रहे। आज की यात्रा महज 15,000 फीट की ऊँचाई पर होने वाली थी, जिसमें सामने हिमाच्छादित हिमालय और नीचे पर्वतों, घाटियों, नदियों, गाँवों, कस्वों तथा सड़कों को नजदीक से निहारने का अवसर मिल रहा था।

अगले एक घण्टे इन्हीं को निहारते हुए जीवन के बहुत ही रोमाँचक एवं यादगार पल रहे और यथा सम्भव अपने मोबाईल से इनको कैप्चर करते रहे, जिसकी एक झलक आप नीचे दिए विडियो में पा सकते हैं।

 

काठमाण्डू आने से पहले ही पोखरा के समीप से होकर गुजरे। दूर से भी नीचे इसकी झीलें स्पष्ट दिख रही थीं। इससे पहले हम संभवतः गोरखा इलाके से गुजरे, जिसे आठवीं सदी के यौद्धा सिद्ध-संत गुरु गोरखनाथ से जोड़कर देखा जाता है। यहाँ से गुजरते हुए जनरल सैम मनेक्शा के उद्गार याद आए कि यदि कोई कहता है कि मुझे मौत से डर नहीं लगता, वह या तो झूठ बोल रहा है या वह गोरखा है।

रास्ते में नीचे हरी-भरी पहाड़ियां, इनसे फूटती छोटी-बड़ी नदियाँ व इनके मार्ग स्पष्ट दिख रहे थे। कहीं-कहीं कई किमी दूर तक जंगल ही जंगल दिखते, कहीं पहाडियों में बसे गाँव व इनके पास से गुजरती सर्पिली पहाड़ी सड़कें - 15000 फीट से गुजर रहे शौर्य यान से निहारते रहे। इनके पीछे क्रमिक रुप में बढ़ती ऊँचाईयों के साथ सव अल्पाईन, अल्पाईन व हिमाच्छादित पहाड़ पहली बार एक साथ साँसों को थामकर देख रहा था। बर्फ से ढकी हिमालय की पर्वतश्रंखलाएं रास्ते भर दिखती रही, मोबाईल से जूम करने पर इनको इतने पास से देखना एक अलग ही अनुभव था। पर्वतशिखरों के साथ कितने सारे ग्लेशियर (बर्फ की नदियाँ) रास्ते भर दम थामकर देखते रहे और इनको यथासम्भव मोबाईल से कैप्चर भी करते रहे।

काठमाण्डू प्रवेश की एक झलक
 

इन दृश्यों को निहारते हुए पता ही नहीं चला कि हम कब काठमाण्डू के पास पहुँच चुके हैं। नीचे पहाडियों पर राजभवनों के दर्शन के साथ काठमाण्डू शहर में प्रवेश होता है। चारों और पहाड़ियों से घिरा काठमाण्डू शहर अपनी पूरी भव्यता के साथ हमारे सामने नीचे प्रत्यक्ष था। भवनों के जमघट के साथ एक बड़ी आवादी को समेटे काठमाण्डू शहर के दर्शन शुरु हो चुके थे। पीछे पृष्ठभूमि में हरे भरे पहाड, इनके भी पीछे सुदूर हिमाच्छादित पर्वतश्रृंखाएं और नीचे भवनों के समूह, कहीं अट्टालिकाएं तो बीच में नदियाँ, सड़कें तो कहीं कहीं हरे जंगल व खेतों के दर्शन - इन सबको निहारते हुए हमारा हमारा शौर्य यान धीरे-धीरे नीचे उतर रहा था और शहर के भवन, सड़कें, नदियाँ व गलियाँ सब स्पष्ट दिख रही थीं। हम नेपाल के सबसे बड़े शहर व इसकी राजधानी काठमाण्डू से गुजर रहे थे, विश्वास नहीं हो रहा था। बाबा पशुपतिनाथ एवं गुरु गोरखनाथ की पावन धरती का भाव सुमरन व धन्यवाद ज्ञापन करते हुए हम काठमाण्डू हवाई अड्डे पर उतरते हैं।

यहाँ के भव्य स्वागत के साथ अपने दिव्य गन्तव्य स्थल तक पहुँचते हैं। फिर अगले कुछ दिन यहाँ के प्रवास के साथ आस-पास के जो दर्शन हुए उनका सारगर्भित वर्णन आप अगली पोस्ट में पढ सकते हैं, जो यहाँ पहली बार पधार रहे यात्रियों के लिए उपयोगी हो सकते हैं।....जारी।

काठमाण्डू की राह में हिमालय के भव्य दर्शन

गुरुवार, 30 दिसंबर 2021

मेरा गाँव मेरा देश - मधुमक्खी पालन

 हिमालय की वादियों में मधुमक्खी पालन

बर्फ में हिमालयन बी फार्म मोहिला का विहंगम नजारा

शहद के साथ बचपन की कितनी सारी यादें जुड़ी हुई हैं। घर की छत्त पर प्राय़ः दक्षिण या उत्तर दिशा में मधुमक्खी के दीवाल के साथ जड़े छत्त लगे होते थे, जिन्हें क्षेत्रीय भाषा में म़ड्ड़ाम कह कर पुकारते हैं। साल भर में एक बार हमारे बड़े-बुजुर्ग इनसे शहद निकालते। धुँआँ देकर मधुमक्खियों को कुछ देर के लिए बाहर निकाला जाता और इनके छत्तों के बीच शुद्ध शहद से जड़े छत्ते को काटकर अलग किया जाता।

इसको ऐसे ही टुकड़े में खाने का लुत्फ लेते और शेष का कपड़छान कर अलग कर लेते। कभी कभार खाने के लिए इस शहद का उपयोग होता, अधिकाँशतः औषधी के लिए इसको सुरक्षित रखते। या फिर शास्त्र के रुप में इसे पूजा कार्यों के लिए संरक्षित रखा जाता। ऐसे नानीजी के खजाने में कईयों साल पुराने शहद से भरे वर्तन सुरक्षित मिलते। मालूम हो कि शहद एक ऐसा विरल उत्पाद है, जो कभी खराब नहीं होता।

हिमालयन बी फार्म में उपलब्ध शुद्ध देशी शहद
 

अब हालाँकि पारम्परिक रुप में शहद के ये तौर-तरीके पीछे छुटते जा रहे हैं। एक तो फल व सब्जियों में बहुतायत में उपयोग किए जाने वाले रसायन व कीटनाशकों के कारण मधुमक्खियाँ खुलकर परागण नहीं कर पाती, अधिकाँश तो विलुप्त हो चली हैं। इस कारण हिमालयन मधुमक्खियों का शहद अब पहाड़ों में तराई के इलाकों की वजाए अधिक ऊँचाईयों तक सीमित हो चला है, जहाँ अभी भी जंगली फूल व बनौषधियाँ प्रचूर मात्रा में उपलब्ध रहती हैं, जो खिलने पर मधुमक्खियों के लिए परागण का आहार उपलब्ध कराते हैं।

मधुमक्खी पालन का नया चलन – हालाँकि अब बक्सों में शहद की मधुमक्खियों के पालन का चलन चल पड़ा है, जो पारम्परिक तरीके से एक प्रकार से थोड़ा अधिक वैज्ञानिक और व्यवहारिक लगता है, जिसमें मधुमक्खियों के छत्तों को कम से कम छेड़खान के साथ इससे अधिक शहद प्राप्त किया जा सकता है।

फ्रेमयुक्त बक्से में मधुमक्खी का आवास

वर्ष 2021 का नवम्बर माह और आज हमारी यात्रा का संयोग बन रहा था, ऐसे ही एक हनी कीपर, श्री लाल सिंह ठाकुर के हिमालयन बी फार्म में, जहाँ वे सेब के बगान के बीच पिछले 15-16 बर्षों से मधुमक्खी पालने के अपने शौक को अंजाम दे रहे हैं। इनके बगीचे में फैले 150 के करीब बक्सों में ये हर सीजन का शहद तैयार करते हैं। ये इनके मधुमक्खी पालन के शौक के साथ इनके लिए रोजगार का भी एक सशक्त साधन बन चुके हैं और ये इच्छुक किसानों को इसका प्रशिक्षण भी देते हैं और अपने यू-ट्यूब चैनल हिमालयन बीज (Himalayan Bees) के माध्यम से अपना अनुभव साझा करते रहते हैं, जिससे जुड़कर आप मधुमक्खी पालने की बारीकियाँ सीख सकते हैं। 

नवम्बर माह में Himalayan Bees फार्म, Mohila

नग्गर से होकर यहाँ जाने के लिए पहले पतलीकुहल पहुँचना पड़ता है, जो कुल्लू-मानाली राइट-बैंक का मध्य बिंदु है। यहाँ तक का दूसरा रास्ता कुल्लू की ओर से कटराईं होकर पतलीकुल पहुँचता है। मानाली से भी सीधे पतलीकुहल पहुँचा जा सकता है।

पतलीकुहल से आगे बड़ाग्राँ-पनगाँ लिंक रोड़ के साथ यहाँ तक पहुँचा जा सकता है।

नग्गर से पतलीकुहल की ओर, ब्यास नदी को पार करते हुए

बड़ाग्राँ इस रुट का पहला बड़ा गाँव पड़ता है, इसके आगे आता है पनगाँ गोम्पा। यहां सड़क के नीचे रंग-बिरंगे कपड़ों की झालरें इसका परिचय देती हैं।  इसके आगे सड़क पर बढ़ते हुए समानान्तर उस पार लेफ्ट बैंक में अप्पर बैली का विहंगम दृश्य दर्शनीय रहता है। यहीं से सामने नगर के पीछे चंद्रखणीं पास की बर्फ से ढ़की चौटियों के दर्शन किए जा सकते हैं। और पास में सडक के साथ पहाड़ों पर पहाड़ी घर व गाँव के नजारें बहुत सुन्दर लगते हैं।

उस पार लेफ्ट बैंक नग्गर साईड, चंद्रखणी पास में बर्फ ढके पहाड़
थोड़ी आगे एक डायवर्जन आता है, जहाँ वायीं ओर से सड़क आगे शेगली की ओर जाती है, जो स्वयं में एक लोकप्रिय टूरिस्ट डेस्टिनेशन है, जबकि सीधे आगे सड़क पनगां की ओर जाती है। सड़क के दोनों ओर सेब के बाग स्वागत करते हैं, हालाँकि नवम्बर में इनमें फलों का तुड़ान हो चुका था।

पहाड़ी झरने रास्ते में अपने गर्जन-तर्जन भरे कलकल निनाद के साथ एक बहुत सुखद अहसास दिलाते हैं। साथ ही इस ऊँचाई पर वहने पाली ठण्डी आवोहवा आपको हिमालय की वादियों में विचरण की सघन अनुभूति देती है। थोड़ी ही देर में पनगाँ गाँव आता है, इसको पार करते ही हम अपने गन्तव्य मोहिला गाँव पहुँच चुके थे, जहाँ सेब के बागान में मधुमक्खी के बक्से सजे थे, जहाँ श्री लाल सिंह ठाकुर मधुपालन के अपने शौक को सेब की बगीचे में अंजाम दे रहे हैं।

हिमालयन बीज फार्म, मोहिला

मधुमक्खियाँ इनमें छेद से होकर अंदर-बाहर निकल रहीं थी। कुछ इसके चारों ओर मंडरा रहीं थी। इनकी चाल, इनके बोल व इनकी कार्यशैली तो येही जाने, हम तो बस इनकी मधुर गुंजार को सुन रहे थे, इनकी मस्त चाल को देख रहे थे, जो सब मिलकर इनकी अनवरत सक्रियता व अथक श्रम की बानगी पेश कर रही थी, जिसका मधुर फल शहद के रुप में बक्सों के अंदर छत्तों में तैयार हो रहा था।एक बक्से में औसतन सात फ्रेम जड़े थे, जिनमें मधुमक्खियाँ छत्ता बनाकर शहब इकट्ठा कर रही थीं। जिस फ्रेम में शहद पूरी तरह से भर जाता है, उस को अलग कर एख सेंट्रिफ्यूगल मशीन में फिट कर फिर शहद निकाला जाता है और शहद निकालने के बाद फ्रेम को पुनः बक्से में फिट किया जाता है, जहाँ फिर मधुमक्खियाँ अपना काम शुरु करती हैं।

लकड़ी के घर के बाहर सक्रिय हिमालयन मधुमक्खियाँ

मालूम हो कि एक छत्ते में एक रानी मक्खी होती है। रानी मक्खी का कार्य छत्तों में अण्डे देना होता है। इसके सहयोग के लिए कुछ नर होते हैं, जिन्हें निखट्टू कहा जाता है, क्योंकि प्रजनन के अतिरिक्त इनका कोई कार्य नहीं होता और इसके तुरन्त बाद इनका जीवन समाप्त हो जाता है। इनके साथ मुख्य कार्य श्रमिक मधुमक्खियों का होता है, जो फूलों से परागण लाकर छत्तों में एकत्रित करती हैं व शहद तैयार करती हैं। ये मादा मधुमक्खियाँ होती हैं, जिनमें डंक मारने की क्षमता होती है, लेकिन दुःखद बात यह है कि डंक मारने के बाद इनके प्राण पखेरु उड़ जाते हैं।

हिमालय बी फार्म से सामने लेफ्ट बैंक का खूबसूरत नजारा

कुल्लू-मानाली घाटी के बीच राइट बैंक में मोहिला स्थित इस बी-फार्म में एक प्रगतिशील किसान श्री लाल सिंह ठाकुर के इन प्रयोग को देखकर बहुत कुछ जानने सीखने को मिला। पारम्परिक तरीके से, छत्त पर मड्डाम लगाकर मधुमक्खी पालन या जंगल से इनको छत्तों को निचोड़कर शहद निकालने के तौर-तरीकों से यहाँ चल रहा प्रयोग हमे अधिक व्यवहारिक व मानवीय लगा। साथ ही ग्रामीण परिवेश में स्वाबलम्बन का एक पुख्ता आधार दिखा।

यह सही है कि मधुमक्खी पालन में हम उनके मेहनत का मीठा फल शहद इस मेहनतकश नन्हें जीव से लेते हैं, लेकिन इनको रहने के लिए आवास की भी व्यवस्था करते हैं, सर्दियों में इनके लिए भोजन से लेकर आश्रय की व्यवस्था करते हैं। 

बर्फ की मौसम में बी फार्म

इस तरह मिलजुल कर एक दूसरे के पूरक बनकर काम करते हैं। पूरी संजीदगी व संवदेनशीलता के साथ मधुपालन के पेशे को अपनाया जाए, तो यह सभी के लिए हर दृष्टि से एक उपयोगी कार्य रहता है। यहाँ हमें कुछ ऐसा ही प्रयोग देखने के मिला।

इस सबके साथ यहाँ से सामने चारों ओर घाटी का नजारा लाजबाब लगा। सामने लेफ्ट बैंक के गाँव, खेतों की सेरियाँ, इसके महत्वपूर्ण गाँव-कस्वों तथा पहाड़ों के दर्शन मोहित करने वाले हैं। यहाँ से ऊपर जगतसुख से लेकर नीचे नगर साईड और सामने हरिपुर व सोयल गाँव का नजारा प्रत्यक्ष दिखा। इनके पीछे देवदार से ढके पर्वत व इनके भी पीछे बर्फ से ढके पहाड़ यहाँ की भव्यता को चार चाँद लगाते हैं। नीचे ब्यास नदी के भी हल्के से दर्शन यहाँ से होते हैं। इस सबके साथ सेब के बगीचे में बी-फार्म की लोकेशन व आसपास का व्यू स्वयं में बहुत ही मनोरम व बैजोड़ अनुभव रहा। आप चाहें तो इस सबकी एक झलक नीचे दिए वीडियो में भी पा सकते हैं। 

बर्फ में बी फार्म का नजारा दिलकश रहता है। हालाँकि ठण्ड में मधुमक्खियों की गतिविधियाँ सीमित हो जाती हैं, क्योंकि इस समय फूलों के रुप में आवश्यक आहार इन्हें उपलब्ध नहीं होता। इसके लिए इनके लिए अतिरिक्त आहार की व्यवस्था की जाती है, हालाँकि इनके छत्त में पहले से ही संचित मधु इस समय काम आता है।

धूप के बीच पिघलती बर्फ के बीच हिमालयन बीज फार्म का नजारा


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