शुक्रवार, 29 अक्टूबर 2021

शांघड़ - सैंज घाटी का छिपा नगीना

 

शांग्चुल महादेव के पावन धाम में


शांघड़ सैंज घाटी के एक गुमनाम से कौने में प्रकृति की गोद में बसा एक अद्भुत गाँव है, जिसकी सैंज घाटी में प्रवेश करने पर शायद ही कोई कल्पना कर पाए। इसके नैसर्गिक सौंदर्य को शब्दों में वर्णन करना हमारे लिए संभव नहीं, इसे तो वहाँ जाकर ही अनुभव किया जा सकता है।

शांघड़ देवदार के गगनचुम्बी वृक्षों से घिरा 228 बीघे में फैला घास की मखमली चादर ओढ़े ढलानदार मैदान है, जिसे देवसंरक्षित माना जाता है, क्योंकि यहाँ पर शांग्चुल महादेव का शासन चलता है। किसी को इस क्षेत्र में अवाँछनीय गतिविधियों की इजाजत नहीं। यहाँ के परिसर में किसी तरह की अपवित्रता न फैले, इसके लिए यहाँ कायदे-कानून बने हुए हैं। कोई यहाँ शोर नहीं कर सकता, शराब व नशा नहीं कर सकता, मैदान तक बाहन का प्रवेश वर्जित है। यहाँ तक कि पुलिस अपनी बर्दी व चमड़े की बेल्ट के साथ प्रवेश नहीं कर सकती। नियमों के उल्लंघन पर शांग्चुल महादेव की ओर से दण्ड का विधान भी है। इस तरह दैवीय विधान द्वारा संरक्षित शांघड़ प्रकृति का एक नायाव तौफा है, जिसके आगोश में कोई भी प्रकृति प्रेमी गहनतम शांति व आनन्द की अनुभूति पाता है और यहाँ बारम्बार आने व लम्बे अन्तराल तक रुकने के लिए प्रेरित होता है।

अक्टूबर माह में हमारी यहाँ की पहली यात्रा का संयोग बनता है, कह सकते हैं कि बाबा का बुलावा आ गया था, क्योंकि कार्य़क्रम यकायक बन गया था। इस स्थान के बारे में पहले काफी कुछ सुन व देख चुके थे, लेकिन प्रत्यक्ष दर्शन शेष थे। कल्पना के आधार पर एक मोटा-मोटा अक्स बन चुका था, जो प्रत्यक्ष दर्शन के बाद कहीं टिक नहीं पाया। यहाँ के प्राकृतिक सौंदर्य में प्रवेश करते ही मन किसी दूसरे लोक में विचरण की अनुभूतियों के साथ आनन्द से सरावोर हो उठा।

घर से निकलते ही कुछ मिनटों में कुल्लू लेफ्ट बैंक से होकर यात्रा आगे बढ़ती है। बिजली महादेव के नीचे जिया पुल से होकर पार्वती नदी पार करते हुए नवनिर्मित भुंतर – बजौरा फोरलेन बाईपास से आगे बढ़ते हैं। फिर ब्यास नदी को पार करते हुए बजौरा से होकर राईट बैंक से नगवाईं, पनारसा होते हुए ओउट टन्नल को पार करते हैं। इसके बाहर वायें मुड़ते हैं और लारजी के छोटे बाँध को पार करते हुए सैंज घाटी में प्रवेश करते हैं। रास्ते में सैंज नदी और तीर्थन नदी का संगम दिखता है, जिसके आगे पुल पार करते ही दायीं सड़क बंजार की ओर जाती है, जो आगे तीर्थन घाटी से लेकर जलोड़ी पास तक पहुँचाती है, लेकिन हम वाईँ ओर मुड़कर सैंज घाटी में प्रवेश करते हैं।

यह हमारी सैंज घाटी की पहली यात्रा थी, सो इस यात्रा के प्रति उत्सुक्तता और रोमाँच के भाव स्वाभाविक थे। साथ में अपने भतीजे के फेवरेट चिप्स, कुरकुरे व फ्रूट जूस के संग आंशिक भूख की तृप्ति करते हुए यात्रा का आनन्द लेते रहे। सैंज नदी के किनारे कई झरने व जल स्रोत मिले। इस घाटी में विद्युत परियोजनाओं के दर्शन कदम-कदम पर होते गए। पता चला कि मणिकर्ण घाटी में वरशैणी के पास चल रहे हाइडेल प्रोजेक्ट से जल सुरंग के माध्यम से इस घाटी में जल पहुँचता है और इसके संग कई स्थानों पर विद्युत उत्पादन का कार्य चल रहा है, जिनके दिग्दर्शन मार्ग में कई स्थानों पर होते रहे।

रास्ते भर कहीं पहाड़ीं की गोद में, तो कहीं पहाड़ों के शिखर पर, तो कहीं जैसे बीच हवा में टंगे गाँव दिखे। कई गाँवों तक पहाड़ काटकर जिगजैग सड़कों को जाते देखा, तो कुछ लगा अभी भी नितांत एकांतिक शांति में बसे हुए हैं। 


देखकर आश्चर्य होता रहा कि लोग कितना दूर व दुर्गम क्षेत्रों में बसे हैं और ये कभी किन परिस्थितियों में ऐसे दुर्गम स्थलों में बसकर घर-गाँव तैयार किए होंगे। ये स्वयं में एक शोध की विषय वस्तु लगी, जो कभी इनके बीच रहकर अनावृत की जा सकती है।

इस संकरी घाटी के अंत में रोपा स्थान से एक सड़क दायीं ओर मुड़कर आगे बढ़ती है, जहाँ साईन बोर्ड देखकर पता चला कि यहाँ से शांघड़ मेहज 6 किमी दूर रह गया है। अब आगे की सड़क चढ़ाई भरी एवं मोड़दार निकली। क्रमशः ऊँचाई के साथ प्राकृतिक सौंदर्य़ में भी निखार आता जा रहा था। सामने घाटी में आबाद गाँव की एकाँतिक स्थिति मन में रुमानी भाव जगाती रही, कि यहाँ के लोग कितने सौभाग्यशाली हैं, जो इतने एकाँत-शांत स्थल में रहने का सौभाग्य सुख पा रहे हैं।

देवदार के पेड़ हिमालयन ऊँचाईयों में प्रवेश का पावन अहसास दिला रहे थे। कुछ ही वाहन रास्ते में मिले जो शांघड़ से बापिस आ रहे थे। राह में देसी नस्ल के नंदी व गाय देखने को मिले। लगा इस इलाके में अभी कृषि-गौपाल की देसी परम्परा कायम है। ऐसे में सड़क के किनारे चरती भेड़-बकरियों को देखकर कोई आश्चर्य नहीं हुआ। थोड़ी ही देर में साईन बोर्ड व देवदार के जंगलों से घिरी घाटी को देखकर अहसास हो चला कि हम मंजिल के करीव पहुँच गए हैं। कुछ दुकानों को पार करते हुए हम एक खाली स्थान पर गाड़ी पार्क करते हैं और शांघड़ मैदान की ओर चल देते हैं।


रास्ते में शाग्चुल महादेव की कमेटी द्वारा टंगे बोर्ड में इस पावन स्थल से जुड़े नियमों को पढ़ा। सो हम इसकी पावनता का ध्यान रखते हुए आगे कदम बढ़ाते हैं। इस बुग्यालनुमा मैदान का विहंगम दृश्य विस्मित करता है और इसके चारों ओर देवदार के गगनचुम्बी वृक्षों तथा इनके पीछे कई पर्वतश्रृंखलाओं के दिग्दर्शन रोमाँचित करते हैं। इस आलौकिक सौंदर्य को एक जगह बैठकर निहारते रहे। सामने ढलानदार बुग्याल, इसमें चरती गाय, भेड़-बकरियों के झुण्ड। इसके पार एक काष्ट मंदिर, जो शिव को समर्पित है। यहाँ से फिर हम नीचे स्लेटों से जड़ी पैदल पगडंडी तक पहुँचते हैं और इसके संग शांग्चुल महादेव के नवनिर्मित मंदिर की ओर बढ़ते हैं, जो शांघड़ गाँव में लगभग 5-700 दूरी पर बसा है।

5-7 मंजिले इस मंदिर की भव्य उपस्थिति दूर से ही ध्यान आकर्षित करती है, जो क्रमशः पास आने पर और निखर रही थी। मैदान को पार करने के बाद हम खेतों के बीच बनी पगडंडियों के साथ आगे बढ़ रहे थे। सड़क के दोनों ओर राजमां, मक्की, चौलाई जैसी यहाँ की पारम्परिक फसलें पकती दिखीं, जिनका कहीं-कहीं पर कटान भी चल रहा था। साथ ही कुछ खेतों में सेब, नाशपति व अन्य फलों के पौधे दिखे।

इस तरह कुछ मिनटों में हम शांग्चुल महादेव के मंदिर परिसर में प्रवेश करते हैँ। गाँव के उस पार निकल कर दूसरी ओर से मंदिर का नजारा निहारते हैं और साथ लाए पुष्प एवं प्रसाद को अंदर शिवमंदिर में चढ़ाकर आशीर्वाद लेते हैं। यहाँ पर 90 वर्षीय बुजुर्ग पुजारी पं. नरोत्तम शर्मा के सर्वकामधुक आशीर्वचनों के साथ कृतार्थ होकर बापिस आते हैं। रास्ते में गाय और बछड़े के साथ मुलाकात हुई, जो खेलने के मूड़ में थे। मंदिर परिसर में चाय-नाश्ता व भोजन आदि की उचित व्यवस्था दिखी। खेतों में साग-सब्जियाँ आदि उगती दिखी, जो घरेलु उपयोग में काम आती होंगी।

गाँव के खेतों को पार करते हुए हम फिर मैदान के बीच पगडंडी पर बढ़ रहे थे। यहाँ घास के मैदान में चर रही गाय, भेड़-बकरियों का दृश्य देखने लायक था। हमें पता चला कि इस मैदान को पाण्डवों ने एक रात में तैयार किया था। अज्ञातवास के दौरान पाण्डवों ने यहाँ कुछ समय विताया था। यहाँ की मिट्टी को छानकर धान की खेती की थी। आश्चर्य़ नहीं कि इसके मैदान में एक भी पत्थर नहीं खोज सकते। देवदार से घिरे इस मैदान को देख खजियार का दृश्य याद आता है। इसके नैसर्गिक सौंदर्य के आधार पर इसे मिनी स्विटजरलैंड की संज्ञा दें, तो अतिश्योक्ति न होगी। बल्कि इससे जुड़ी दैवी आस्था व पौराणिक महत्व के आधार पर यह श्रद्धालुओं व प्रकृति प्रेमियों के लिए एक सिद्ध तीर्थ स्थल है, जहाँ माना जाता है कि आपके सच्चे मन से की गई हर मनोकामना पूर्ण होती है।

यहाँ पर कुछ क्वालिटी समय बिताने के पश्चात अपने बाहन में बापिसी का सफर तय होता है। अचानक बना आज का ट्रिप हालाँकि एक ट्रैलर जैसा लगा। पूरी फिल्म तो आगे कभी खुला समय निकालकर यहाँ कुछ दिन बिताकर ही पूरा होगी। शाम को सामने के पहाड़ों से सूर्यास्त के नजारे के बीच हम नीचे रोपा तक उतरते हैं और आगे सैंज घाटी से होते हुए लारजी-आउट पहुँचते हैं और फिर बजौरा-भुन्तर होते हुए जिया पुल से पार्वती नदी को पार कर अपने गन्तव्य स्थल तक पहुँचते हैं।

समय अभाव के कारण यह टूर हमें अधूरा ही प्रतीत हुआ। लेकिन यहाँ की सुखद स्मृतियों का खुमार कई दिनों तक सर चढ़कर बोलता रहा। देखते हैं अब बाबा का अगला बुलावा कब आता है, जब इस यात्रा की पूर्णाहुति विधान के साथ पूरा कर पाते हैं। जो भी हो अकूत सौंदर्य व शांति को सेमेटे शांघड़ सैंज घाटी का एक छिपा नगीना है, प्रकृति का विशिष्ट उपहार है, जो हर खोजी यात्री व प्रकृति प्रेमी के लिए किसी वरदान से कम नहीं और आस्थावान के लिए एक प्रत्यक्ष तीर्थ। यदि आप कुल्लू-मानाली की ओर आते हैं, तो एक वार अवश्य इस डेस्टिनेशन को आजमा सकते हैं।

यहाँ आने के लिए बस, टैक्सी आदि की समुचित व्यवस्था है। शांघड़ कुल्लू से लगभग 60 किमी, भूंतर हवाई अड्डे से 45 किमी तथा समीपस्थ रेल्वे स्टेशन बैजनाथ से 117 किमी की दूरी पर है। कुल्लू से यहाँ के लिए बस और टैक्सी सुविधा उपलब्ध रहती है। बाकि चण्डीगढ़ से यहाँ के लिए मण्डी से होकर आया जा सकता है, शिमला से जलोड़ी पास या मण्डी से होकर सैंजघाटी में प्रवेश किया जा सकता है।

गुरुवार, 28 अक्टूबर 2021

ग्रीन एप्पल के गुण हजार

 

विदेशों में लोकप्रिय किंतु भारत में उपेक्षित हरा सेब



सेब विश्व का एक लोकप्रिय फल है, जो अमूनन ठण्डे और बर्फीले इलाकों में उगाया जाता है। हालाँकि अब तो इसकी गर्म इलाकों में उगाई जाने वाली किस्में भी तैयार हो रही हैं, लेकिन ठण्डे इलाकों में तैयार सेब का कोई विकल्प नहीं।

सेब में भी यदि भारत की बात करें, तो लाल रंग को ही अधिक महत्व दिया जाता है। सेब की मार्केट वैल्यू इसकी रंगत के आधार पर ही तय की जाती है और खरीदने वाले भी लाल रंग को ही तबज्जो देते हैं। ग्राहकों व मार्केट की इस माँग को देखते हुए सेब में लाल रंगत को बढ़ाने के लिए किसान अपने स्तर पर जुगाड़ भिड़ाते हैं, जिनमें ईथर जैसे रसायनों का छिड़काव भी शामिल है, जिसका चलन स्वास्थ्य की दृष्टि से उचित नहीं।

मालूम हो कि सेब की लाल रंग के अलावा पीली और हरी किस्में भी पाई जाती हैं। अब तो सफेद सेब भी तैयार हो चला है। पीले रंग की किस्म को गोल्ड़न सेब कहते हैं, जो स्वाद में काफी मीठा होता है, लेकिन लाल रंग के अभाव में इसकी भी मार्केट वेल्यू कम ही रहती है, जिसे संतोषजनक नहीं कहा जा सकता। इसी तरह हरे सेब की लोकप्रिय किस्म ग्रेन्नी स्मिथ है, जो स्वाद में खट्टी होती है और समय के साथ इसमें मिठास आना शुरु होती है।


यह विश्व में सबसे लोकप्रिय सेब की वेरायटी में से एक है। हालाँकि यह बात दूसरी है कि सेब की इस किस्म को भारत में बहुत कम लोग जानते हैं, ठेलों पर शायद ही इसके दर्शन होते हों। जबकि अमेरिका में यह सबसे लोकप्रिय सेब की किस्मों में शुमार है, जो अकारण नहीं है। वहाँ लोग सेब के रंग की बजाए इसकी गुणवत्ता को आधार बनाकर प्राथमिकता देते हैं। इस जागरुकता का अभी हमारे देश में अभाव दिखता है।

ग्रीन एप्पल के गुण – ग्रीन एप्पल की शेल्फ लाईफ अधिक होती है अर्थात इसे पेड़ से तोड़ने के बाद 4-5 महिने तक बिना किसी खराबी के सामान्य तापमान (रुम टेम्परेचर) पर स्टोर किया जा सकता है। भारत के पहाड़ी इलाकों में अक्टूबर माह में तुड़ान के बाद इसे मार्च-अप्रैल तक सुरक्षित रखा जा सकता है। साथ ही समय के साथ इस खट्टे सेब में मिठास आना शुरु हो जाती है। अपने खट्ट-मिठ स्वाद के कारण इसके सेवन का अपना ही आनन्द रहता है। साथ ही यह सेब ठोस होता है तथा इसमें भरपूर रस होता है, अतः इससे बेहतरीन जूस तैयार किया जा सकता है। इसकी चट्टनी बनाकर या बेक कर उपयोग किया जा सकता है। अन्य़था दूसरी ओर लाल रंग के सेब की शेल्फ लाईफ कम होने की वजह से इन किस्मों को लम्बे समय तक दुरुस्त रखने के लिए कोल्ड स्टोरेज में रखना पड़ता है, जो छोटे किसानों के बूते की बात नहीं रहती। साथ ही बड़े व्यापारियों द्वारा संरक्षित ऐसे सेब को आम ग्राहक महंगे दाम पर खरीदने के लिए विवश होते हैं।


ग्रीन एप्पल बेस्ट पॉलिनाईजर किस्म की वेरायटी में आता है, जिस कारण सेब के बगीचे में बीच-बीच में इसके पौधे होने से पूरे बगीचे में बेहतरीन परागण होती है और सेब की उम्दा फसल सुनिश्चित होती है। साथ ही ग्रीन एप्पल में फ्लावरिंग शुरु से अंत तक बनी रहती है।

स्वास्थ्य की दृष्टि से हरा सेब एंटी ऑक्सिडेंट गुणों से भरपूर पाया गया है, जो स्वास्थ्य की दृष्टि से अपना महत्व रखता है। बजन कम करने के लिए ग्रीन एप्पल को सबसे प्रभावशाली सेब पाया गया है।


हरे सेब में पेक्टिन नाम का तत्व पाया जाता है, जो आंत के स्वास्थ्यबर्धक बैक्टीरिया के विकास में सहायक होता है। इसमें मौजूद फाईबर पाचन तंत्र को दुरूस्त करता है व कब्ज के उपचार में प्रभावशाली रहता है। हरे सेब में पोटेशियम, विटामिन-के और कैल्शियम प्रचूर मात्रा में रहते हैं, जो हड्डियों को मजबूत करते हैं। इसमें विद्यमान विटामिन-ए आँखों की रोशनी के लिए बहुत लाभकारी रहता है। अपने इन गुणों के आधार पर हरा सेब कॉलेस्ट्रल, शुगर व बीपी के नियंत्रण में मदद करता है व भूख सुधार में सहायक होता है। हरे सेब में विद्यमान फ्लेवोनॉयड्स को फैफड़ों के लिए लाभदायक पाया गया है व यह अस्थमा के जोखिम को कम कर देता है। इसे एक अच्छा ऐंटीएजिंग भी माना जाता है, जो आयुबर्धक है तथा त्वचा का साफ रखता है।

आश्चर्य़ नहीं कि इतने गुणों व विशेषताओं के आधार पर ग्रीन एप्पल विश्व के विकसित देशों में एक लोकप्रिय सेब के रुप में प्रचलित है, जबकि भारत में यह एक उपेक्षित वैरायटी है। न ही आम लोग इससे अधिक परिचित हैं और न ही मार्केट में इसको उचित भाव मिलता है। इसलिए बागवान व किसान भी इसको व्यापक स्तर पर लगाने के लिए प्रेरित व प्रोत्साहित नहीं होते। हालाँकि बड़े शहरों में स्वास्थ्य के प्रति सजग लोगों के बीच बढ़ती जागरुकता के चलते अब बड़ी मंडियों में ग्रीन एप्पल को उत्साहबर्धक भाव मिलना शुरु हो रहे हैं। लेकिन व्यापक स्तर पर इसके प्रति जागरुकता के अभाव में अभी हरे सेब को मुख्यधारा की सेब वैरायटीज में स्थान मिलना शेष है।


बुधवार, 25 अगस्त 2021

अटल टनल – विश्व की सबसे लम्बी सुरंग

 

कुल्लू – मानाली लेफ्ट बैंक से होकर यहाँ तक का सफर

अटल टनल रोहतांग

अटल टनल के बारे में बहुत कुछ पढ़ सुन चुके थे, लेकिन इसको देखने का मौका नहीं मिल पाया था। अगस्त माह के पहले सप्ताह में इसका संयोग बनता है। माता पिता के संग एक साथ घूमने की चिर आकाँक्षित इच्छा भी आज पूरा होने जा रही थी। भाई राजू सारथी के रुप में सपिवार शामिल होते हैं। सभी का यह पहला विजिट था, सो इस यात्रा के प्रति उत्सुक्तता के भाव गहरे थे और यह एक यादगार रोमाँचक यात्रा होने जा रही है, यह सुनिश्चित था।   

इस बीच पूरा हिमाचल कई भूस्खलनों की लोमहर्षक घटनाओं के साथ दहल चुका था। इन्हीं घटनाओं के बीच पिछले सप्ताह से पर्यटकों को ऊँचाईयों से बापिस नीचे भेजा जा रहा था। मानाली में होटलों में मात्र 10 प्रतिशत यात्री शेष थे और नई बुकिंग बंद हो चुकी थीं। इसी बीच जब मानाली साईड बारिश कम होती है, तो एक साफ सुबह हमारा काफिला अटल टनल की ओर निकल पडता है।

ब्यास नदी के संग कुल्लू-मानाली लैफ्ट बैंक रुट
हम कुल्लु से मानाली लेफ्ट बैंक से होकर वाया नग्गर जा रहे थे। मालूम हो कि कुल्लू से मानाली लगभग 45 किमी पड़ता है। यह घाटी दो से चार किमी चौडी है तथा इसके बीचों बीच ब्यास नदी बहती है। जो अपने निर्मल जल के कारण ट्राईट मछलियों के लिए जानी जाती है। इसकी दुधिया एवं तेज धार में राफ्टिंग भी सीजन में खूब होती है, इस समय बरसात के चलते नदी पूरे उफान पर रहती है, अतः इस समय राफ्टिंग की ऑफ सीजन चल रहा था।

ब्यास नदी
कुल्लू से मानाली का प्रचलित मार्ग राईट बैंक से है, जो पतलीकुल्ह-कटराईं से होकर जाता है। लेकिन हम इसके समानान्तर लेफ्ट बैंक से आगे बढ़ रहे थे। एक तो हमारा घर इस ओर पड़ता है, दूसरा इस ओर की घाटी अधिक चौड़ी एवं खुली है। रास्ते के नजारे भी अधिक सुदंर हैं। और इस मार्ग का मध्य बिंदु पड़ती है नग्गर, जो कभी कुल्लू रियासत की राजधानी रहा है।  

नगर से पहले हम कायस, कराड़सु, बनोगी, अरछण्डी, हिरनी, लराँकेलो व घुडदौड़ जैसे पड़ाव से होकर गुजरते हैं। इस समय सड़क के दोनों ओर सेब के बाग लाल लाल सेब से लदे थे। सेब का सीजन लगभग शुरु हो चुका था।

नगर - कुल्लू मानाली का मध्य बिंदु
नगर के बाद छाकी, सरसेई, हरिपुर, गोजरा, जगतसुख, शूरु, पीणी व अलेऊ जैसे पड़ाव पड़ते हैं। इस मार्ग में भी कदम कदम पर बर्फीले पहोड़ों से पिघलकर दनदनाते नाले मिले, जिनके कारण कभी यहाँ की सेर (सीढ़ीनुमा खेतों की विशाल श्रृंखला) धान की फसल के लिए जानी जाती थी, लेकिन आज सेबों का बगीचों से ये खेत अटे पड़े हैं। केबल 10 प्रतिशत खेतों में ही पारम्परिक अन्न उगाए जा रहे हैं।

पारम्परिक खेती का सिकुड़ता दायरा
इस मार्ग में एक और जहाँ देवदार के घने जंगलों से भरे पहाड़ राहभर एक शीतल अहसास दिलाते हैं, वहीं सामने धोलाधार पर्वत श्रृंखलाएं और आगे मानाली साईड़ के पहाड़ राह को हिमालय की वादियों में विचरण का दिव्य अहसास दिलाते हैं। बागवानी एवं पर्य़टन के साथ यहाँ की समृद्ध हो रही आर्थिकी के दर्शन यहाँ के भव्य भवनों, होटलों एवं वाहनों आदि को देखकर सहज ही किए जा सकते हैं। इसमें क्षेत्र के लोगों की दूरदर्शिता एवं अथक श्रम का अपना योगदान रहा है। इस मार्ग में भी राह के ऊपर व नीचे कई ऐतिहासिक एवं पौराणिक स्थल पड़ते हैं, जिनका वर्णन किसी अलग ब्लॉग में करते हैं।

अलेऊ के बाद सफर मानाली के दायीँ और से गुजरता , जो आगे अटल टनल की ओर बढ़ता है। 

मानाली के आगे सोलांग घाटी की ओर
इस राह में बाँहग, नेहरु कुण्ड, कुलंग, पलचान जैसी स्टेश आते हैं, जिसके बाद ब्यास नदी के ऊपर पुल पार करते ही सोलांग वैली में प्रवेश होता है। रास्ते में ही स्कीईँग स्लोप क दर्शन होते हैं, जो बर्फ पड़ने पर पर्टयकों से गुलजार रहती है। इस घाटी का अंतिम गाँव सोलाँग गाँव भी थोड़ी देर में दायीं और अपने दर्शन देता है। और फिर नाले के ऊपर बने पुल को पार करते ही धुँधी के दर्शन होते हैं, जहाँ से रास्ता आगे व्यास कुण्ड की ओर जाता है।

धुंधी - ब्यास कुण्ड की प्रस्थान बिंदु
और यहीं से सड़क रोड़ दायीँ और से आगे बढ़ते हुए अटल टनल पहुँचता है। इस मार्ग की खासियत इसका प्राकृतिक सौंदर्य है और सुन्दर घाटियाँ हैं, जो किसी भी रुप में विश्व की सुन्दरतम घाटियों से कम नहीं। यह क्षेत्र पहले पर्यटकों के लिए दुर्गम था और अटल टनल के लिए मार्ग बनने से इसके अकूत प्राकृतिक सौंदर्य़ संपदा के दर्शन किए जा सकते हैं।

सोलांग घाटी का दिलकश प्राकृतिक सौंदर्य
इसको देखकर, इसे निहार कर मन शीतल हो जाता है, आल्हादित हो जाता है। मन करता है कि इसका प्राकृतिक ताजगी ऐसी ही अक्षुण्ण रहे। ताकि हर पर्य़टकों युगों तक इसकी गोद में आकर इसकी शीतल एवं सुकूनदायी स्पर्श पाकर धन्य हो जाए। हम सबका कर्तव्य बनता है कि इसके संरक्षण में अपना योगदान दें व जब भी ऐसे क्षेत्रों से गुजरें, इसके सौंदर्य, संतुलन व जैव विविधता को बिना किसी नुकसान पहुँचाए यहाँ का आनन्द लें।

सोलांग घाटी की स्कीइंग स्लोप्स - बर्फ के इंतजार में
अटल टनल की विशेषताएं -

·        विश्व की सबसे लम्बी हाई अल्टिच्यूट सुरंग, जो 10,000 फीट की औसतन ऊँचाई लिए हुए है। मानाली की ओर का दक्षिणी छोर लाहौल की ओर का उत्तरी छोर।

·        पीर पंजाल रेंज के नीचे आरपार बनायी गई है।

·        मानाली से 25 किमी दूर।

·        कुल लम्बाई 9.02 किमी

·        इसको भारतीय सेना की विशिष्ट संस्था बोर्डर रोड ऑर्गेनाइजेशन ने बनाया है। इसमें विदेशी कम्पनियों का सहयोग भी मिला है।

·        इसको बनाने में 10 साल लगे और बजट रहा 3500 करोड़ रुपए के लगभग।

·        सुरंग आधुनिकतम सुरक्षा उपकरणों से सुसज्जित है तथा आपातकालीन निकास द्वारों से युक्त है।

आधुनिकतम उपकरणों से सुसज्जित अटल सुरंग

·        इसकी स्पीड़ लिमिट 40 से 60 घण्टे हैं।

·        इसने मानाली-लेह हाईवे की दूरी 45 किमी कम कर दी है, अर्थात् 4 से 5 घण्टे के सफर को कम किया है।

·        लाहौल घाटी के लिए यह सुरंग किसी वरदान से कम नहीं है, जो छः माह सर्दी में भारी बर्फवारी के चलते बाहर की दुनियाँ से कटी रहती थी, क्योंकि रोहताँग दर्रा भारी बर्फ के कारण आबाजाही के लिए बंद रहता था।

अटल टनल के बाहर लाहौल घाटी में प्रवेश

·        पर्यटकों के लिए भी एक वरदान की तरह से है, जो सर्दियों में लाहौल घाटी में बर्फ का आनन्द ले सकते हैं।

·        हाँ, थोड़ा चिंता का विषय भी है, कि पर्यटकों के गैर जिम्मेदाराना रवैये एवं अधिक भीड़ के चलते यहाँ के पर्यावरण, जैवविविधता एवं वातावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।

पुनः पधारने का आमंत्रण देती अटल टनल



रविवार, 25 जुलाई 2021

अपनी गरिमा रहे बर्करार

                                                        गढ़ता चल तू अपना संसार

अपनी गरिमा न गिरने देना,

अपनी गुरुता रखना बर्करार,

ये झलके आपके वाणी - आचरण से,

येही आपके चरित्र के आधार ।1।

 

कोई कैसा व्यवहार कर रहा,

कैसे हैं उसके वाणी आचार,

मत करना अधिक परवाह इनकी,

ये उसकी सम्पत्ति, उसकी इज्जत, उसका संसार ।2।

 

तुम तो रहना संयत जीवन में,

विनम्र, उदात्त और श्रेष्ठ विचार,

रहना विनीत अढिग अपने सत्य पर, 

संग अपनी स्थिरता, शांति और स्वाभिमान ।3।

 

आएंगी अग्नि परीक्षाएं अनगिन,

शुभचिंतकों, भ्रमितों के औचक प्रहार,

स्वागत करना खुले दिल से इनका भी,

रहना हर एडवेंचर के लिए तैयार ।4।

 

यही तो खेल जिंदगी का इस धरा पर,

धारण कर क्षणभंगुर जीवन का सार,

 राह की हर कसौटी पर कसते,

गढ़ता चल तू अपना संसार ।5।

बुधवार, 30 जून 2021

कुल्लू घाटी की देव परम्परा

आध्यात्मिक-सांस्कृतिक विरासत का भी रहे ध्यान

कुल्लू-मानाली हिमाचल का वह हिस्सा है, जो अपने प्राकृतिक सौंदर्य के साथ धार्मिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक विरासत के आधार पर एक विशिष्ट स्थान रखता है। क्षेत्र की युवा पीढ़ी को शायद इसका सही-सही बोध भी नहीं है, लेकिन यदि एक बार उसे इसकी सही झलक मिल जाए, तो वह देवभूमि की देवसंस्कृति का संवाहक बनकर अपनी भूमिका निभाने के लिए  सचेष्ट हो जाए। और बाहर से यहाँ पधार रहे यात्री और पर्यटक भी इसमें स्नात होकर इसके रंग में रंग जाएं।

कुल्लू-मानाली हिमाचल की सबसे सुंदर घाटियों में से है, जिसके कारण मानाली सहित यहाँ के कई स्थल हिल स्टेशन के रुप में प्रकृति प्रेमी यात्रियों के बीच लोकप्रिय स्थान पा चुके हैं। हालाँकि बढ़ती आवादी और भीड़ के कारण स्थिति चुनौतीपूर्ण हो जाती है, जिस पर ध्यान देने की आवश्यकता है। लेकिन इसकी सुंदर घाटियाँ, दिलकश वादियाँ अपने अप्रतिम सौंदर्य के साथ प्रकृति एवं रोमाँच प्रेमियोँ तथा आस्थावानों का स्वागत करने के लिए सदा तत्पर रहती हैं।

60-70 किमी लम्बी और 2 से 4 किमी चौड़ी घाटी के बीचों-बीच में बहती ब्यास नदी की निर्मल धार, इसे विशिष्ट बनाती है। साथ ही भूमि की उर्बरता और जल की प्रचुरता इस घाटी के लिए प्रकृति का एक विशिष्ट उपहार है। इसी के आधार पर घाटी फल एवं सब्जी उत्पादन में अग्रणी स्थान रखती है। यहाँ सेब, नाशपाती, प्लम जैसे फल बहुतायत में उगाए जा रहे हैं। अंग्रेजों के समय में सेब उत्पादन के प्राथमिक प्रयोग की यह घाटी साक्षी रही है। इस संदर्भ में मंद्रोल, मानाली, सेऊबाग जैसे स्थान अपना ऐतिहासिक महत्व रखते हैं।

स्नो लाईन पास होने के कारण यहाँ का मौसम पहाड़ी प्राँतों के इसी ऊँचाई के क्षेत्रों की तुलना में अधिक ठण्डा रहता है। घाटी में बर्फ से ढ़की पहाडियाँ साल के अधिकाँश समय हिमालय टच का सुखद अहसास दिलाती रहती हैं, हालाँकि सर्दियों में तापमान के माइनस में जाने पर स्थिति थोड़ी विकट हो जाती है, लेकिन प्रकृति ने इसकी भी व्यवस्था कर रखी है। घाटी में गर्म जल के कई स्रोत हैं। शायद ही इतने गर्म चश्में हिमाचल के किसी और जिला या भारत के किसी पहाड़ी प्राँतों के हिस्से में हों। मणीकर्ण, क्लाथ, वशिष्ट, खीरगंगा, रामशिला जैसे स्थानों में ये सर्दियों में यात्रियों एवं क्षेत्रीय लोगों के लिए वरदान स्वरुप गर्मी का सुखद अहसास दिलाते हैं और इनमें से अधिकाँश तीर्थ का दर्जा प्राप्त हैं, जिनमें स्नान बहुत पावन एवं पापनाशक माना जाता है।

यह घाटी शिव-शक्ति की भी क्रीडा स्थली रही है। मणिकर्ण तीर्थ की कहानी इसी से जुड़ी हुई है। खीरगंगा को शिव-पार्वती पुत्र कार्तिकेय के साथ जोड़कर देखा जाता है। पहाड़ी की चोटी पर बिजलेश्वर महादेव इसकी बानगी पेश करते हैं, जिसके चरणों में पार्वती एवं ब्यास नदियाँ जैसे चरण पखारती प्रतीत होती हैं व इनके संगम को भी तीर्थ का दर्जा प्राप्त है, जहाँ स्थानीय देवी-देवता विशेष अवसरों पर पुण्य स्नान करते हैं। बिजलेश्वर महादेव से व्यास कुण्ड एवं मानतलाई के बीच एक दिव्य त्रिकोण बनता है, जिसका अपना महत्व है। अठारह करड़ु देवताओं की लीलाभूमि चंद्रखणी पास इसी के बीच में शिखर पर पड़ता है। इंद्रकील पर्वत का इस क्षेत्र में अपना विशिष्ट महत्व है।

यह भूमि महाभारत के यौद्धा अर्जुन की तपःस्थली भी रही है, जहाँ इन्हें दिव्य अस्त्र मिले थे। अर्जुन की तपस्या से प्रसन्न होकर शवर रुप में भगवान शिव प्रकट हुए थे व युद्ध में परीक्षा के बाद प्रसन्न होकर वरदान दिए थे। मानाली के समीप लेफ्ट बैंक में जगतसुख के पास अर्जुन गुफा और शवरी माता का मंदिर आज भी इसकी गवाही देते हैं।

मानाली में हिडिम्बा माता का मंदिर महाभारत काल की याद दिलाता है, जब महाबली भीम नें राक्षस हिडिम्ब को मारकर हिडिम्बा से विवाह किया था। इनके पुत्र घटोत्कच का मंदिर भी पास में ही है। इसके आगे पुरानी मानाली में ऋषि मनु का मंदिर है, जिनके नाम पर इस स्थल का नाम मानाली पड़ा। मनु ऋषि से जुड़ा विश्व में संभवतः यह एक मात्र मंदिर है। इस आधार पर मानव सभ्यता की शुरुआत से इस स्थल का सम्बन्ध देखा जा सकता है, जिस पर और शोध-अनुसंधान की आवश्यकता है। सप्तऋषियों में अधिकाँश के तार इस घाटी से जुड़े मिलते हैं। व्यास, वशिष्ट, जमदग्नि, पराशर, गौतम, अत्रि, नारद जैसे ऋषि-मुनियों का इस घाटी में विशेष सम्बन्ध रहा है।

इस घाटी में हर गाँव का अपना देवता है, जो ठारा करड़ू के साथ अठारह नारायण, आठारह रुद्र, उठारह नाग आदि देवताओं ये युग्म के रुप में इस घाटी को देवभूमि के रुप में सार्थक करते हैं। विश्व विख्यात कुल्लू के दशहरे में ये सभी देवी-देवता अपने गाँवों से निकलकर भगवान रघुनाथ को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। कुल्लू के ढालपुर मैदान (ठारा करड़ू की सोह) में देवमिलन का यह पर्व अद्भुत नजारा पेश करता है।

इन सब विशेषताओं के साथ विश्व का सबसे प्राचीन लोकतंत्र मलाना इसी घाटी की दुर्गम वादियों में स्थित है, जहाँ आज भी इनके देवता जमलु का शासन चलता है। विश्व विजय का सपने लिए सम्राट सिकन्दर से लेकर बादशाह अकबर की कथा-गाथाएं इस गाँव से जुड़ी हुई हैं।

कुल्लू मानाली के ठीक बीचों-बीच लेफ्ट बैंक पर स्थित नग्गर एक विशिष्ट स्थल है, जो कभी कुल्लू की राजधानी रहा है। आज भी नग्गर में 500 वर्ष पुराने राजमहल को नग्गर कैसल के रुप में देखा जा सकता है। यहाँ का जगती पोट देवताओं की दिव्य-शक्तियों की गवाही देता है। रशियन चित्रकार, यायावर, पुरातत्ववेता, विचारक, दार्शनिक, कवि, भविष्यद्रष्टा और हिमालय के चितेरे निकोलाई रोरिक की समाधी के कारण भी घाटी अंतर्राष्ट्रीय नक्शे पर अपना विशेष स्थान रखती है। विश्व के ये महानतम कलाकार एवं शांतिदूत 1928 में आकर यहाँ बस गए थे, जो इनके अंतिम 20 वर्षों की सृजन स्थली रही। 

नग्गर शेरे कुल्लू के नाम से प्रख्यात लालचंद्र प्रार्थी की भी जन्मभूमि रही है। मानाली के समीप प्रीणी गाँव में पूर्व प्रधानमंत्री अटल विहारी वाजपेयी का लोकप्रिय आशियाना रहा, जिनके नाम से जुड़े पर्वतारोहण संस्थान और अटल टनल इस क्षेत्र से उनके आत्मिक जुड़ाव को दर्शाते हैं। मानाली के आगे नेहरु कुण्ड जवाहरलाल नेहरू से जुड़ा स्थल था, जहाँ के जल का वे यहाँ आने पर पान करते। आज भी कई हस्तियाँ इस घाटी से जुड़कर अपना गौरव अनुभव करती हैं।

एडवेंचर प्रेमी घुमक्कड़ों के बीच भी घाटी खासी लोकप्रिय है, जिसमें मानाली स्थित पर्वतारोहण संस्थान, सर्दी में स्कीइंग से लेकर विभिन्न कार्यक्रम आयोजित करता है, जो पर्वतारोहण एवं एडवेंचर स्पोर्टस के क्षेत्र में विश्व में अग्रणी स्थान रखता है। सोलाँग घाटी में स्कीईंग के साथ अन्य एडवेंचर स्पोर्टस होते रहते हैं। इसके आगे कुल्लू घाटी को लाहौल घाटी के दुर्गम क्षेत्र से जोड़ती अटल टनल भी एक नया आकर्षण है, जिसका पिछले ही वर्ष उद्घाटन हुआ है।

इंटरनेट एवं सोशल मीडिया के युग में घाटी की सांस्कृतिक विरासत एवं कला संगीत आदि के प्रति युवाओं व जनता में एक नया रुझान पैदा हुआ है, जो अपनी सांस्कृतिक जड़ों से जोड़ती एक सुखद घटना है। लेकिन नाच गाने व मनोरंजन तक ही सांस्कृतिक विरासत को सीमित मानना एक भूल होगी। फिर देवपरम्परा में बलि प्रथा से लेकर लोक जीवन में शराब व नशे का बढ़ता चलन चिंता का विषय है। इन विकृतियों के परिमार्जन के साथ समय देवसंस्कृति की उस आध्यात्मिक विरासत के प्रति जागरुक होने का है, जिसके आधार पर संस्कृति व्यक्ति के मन, बुद्धि एवं चित्त का परिष्कार करती है, जीवन के समग्र उत्थान का रास्ता खोलती है। और परिवार में श्रेष्ठ संस्कारों का रोपण करते हुए समाज, राष्ट्र तथा पूरे विश्व को एक सुत्र में बाँधने का मानवीय आधार देती है। समृद्ध आध्यात्मिक-सांस्कृतिक विरासत को संजोए इस देवभूमि से इस आधार पर कुछ विशेष आशाएं तो की ही जा सकती हैं। 

पुस्तक समीक्षा – हिमालय की वादियों में

यात्राओं में हिमालय


हिमालय युगों-युगों से लोगों को आकर्षित करता रहा है। सैलानियों के लिए अगर हिमालय को सौंदर्य अविभूत करने वाला है, तो युगों-युगों से साधक यहाँ तपस्या और समाधि के लिए आते रहे हैं। हिमालय पर लिखी गई असंख्य किताबों में भी इसके विविध रुप उभरकर सामने आए हैं। लेखक सुखनंदन सिंह की पुस्तक हिमालय की वादियों में, इसी की ताजा कड़ी है।

पहाड़ों की गोद में जन्में लेखक बचपन से ही हिमालय के प्रति आकर्षित रहे हैं। उन्होंने खुद लिखा है कि किशोरावस्था में नगर स्थित निकोलाई रोरिख केन्द्र में जाने का अवसर मिला, तो युवावस्था में पर्वतारोहण के माध्यम से हिमालय को नजदीक से देखने का संयोग बना। स्वामी विवेकानन्द और उनके गुरु भाई स्वामी अखण्डानन्द की हिमालय हिमालय यात्राओं ने इन यात्राओं में ईश्वरीय आस्था को बल दिया। युगऋषि पं.श्रीराम शर्मा आचार्य के सुनसान के सहचर ने हिमालय की गुढ़ आध्यात्मिक चेतना परिचित काया, तो स्वामी अमर ज्योति की पुस्तक हिमालय की आत्मा ने हिमालय की विरल ऊँचाईयों और गहराईयों से संवेदित किया। ऐसे ही सिखों के दशम गुरु गोविंद सिंह जी की आत्मकथा विचित्र नाटक ने हेमकुण्ड साहिब की यात्रा के लिए प्रेरित किया।


 लेखक ने इस पुस्तक को कुल छत्तीस अध्यायों में विभाजित किया है, जिसमें यात्राओं को कुमाऊँ हिमालय, गढ़वाल हिमालय, शिमला हिमालय, और फिर मंडी, कुल्लू घाटी, मानाली हिमालय और दुर्गम लाहौल घाटी जैसे अलग-अलग नौ खंडों में वर्गीकृत किया गया है। किताब में हिमाचल और उत्तराखंड के अनेक पर्यटन स्थलों, मंदिरों और तीर्थस्थलों का बेहद सहज लेकिन दिलचस्प वर्णन है। दरअसल, लेखक ने पहले की स्पष्ट कर दिया है ये यात्रा वृत्तांत महज घुमक्कड़ी तक सीमित न होकर पाठकों को इस क्षेत्र के प्राकृतिक सौंदर्य, भौगोलिक विशेषताओं, यहाँ की लोक संस्कृति, समाज, धर्म-अध्यात्म तथा विकास का मुआयना भी कराते हैं। 


 पुस्तक के कई प्रसंग बेहद दिलचस्प बन पड़े हैं, जैसे मानाली में माउंटेनियरिंग के कोर्स करने के दौरान रात में पहरा दे रहे साथी अचानक घुंघरु की आवाज से डर जाते हैं, तो पता चलता है कि आवारा भैंसों के गले की घंटियां बज रहीं थीं। लेखक ने केदारनाथ की यात्रा में उस शांत झील के बारे में भी बताया है, जो 2013 में विकराल बन गई और केदारनाथ की आपदा का कारण बनीं।

- कल्लोल चक्रवर्ती (अमर उजाला के साप्ताहिक किताब स्तम्भ के अंतर्गत 30 मई, 2021 रविवार को प्रकाशित) 

 प्रकाशक – एविन्स पब्लिशिंग, बिलासपुर, मूल्य-369 रुपये।

पुस्तक अमेजन, किंडल जैसे प्लेटफॉर्म पर भी उपलब्ध है।

शुक्रवार, 18 जून 2021

मेरा गाँव मेरा देश – मौसम गर्मी का

गर्मी के साथ पहाड़ों में बदलता जीवन का मिजाज

मैदानों में जहाँ मार्च-अप्रैल में बसन्त के बाद गर्मी के मौसम की शुरुआत हो जाती है। वहीं पहाड़ों की हिमालयन ऊँचाई में, जंगलों में बुराँश के फूल झरने लगते हैं, पहाड़ों में जमीं बर्फ पिघलने लगती है, बगीचों में सेब-प्लम-नाशपाती व अन्य फलों की सेटिंग शुरु हो जाती है और इनके पेड़ों व टहनियों में हरी कौंपलें विकसित होकर एक ताजगी भरा हरियाली का आच्छादन शुरु करती हैं। मैदानों में इसी समय आम की बौर से फल लगना शुरु हो जाते हैं। मैदानों में कोयल की कूकू, तो पहाड़ों में कुप्पु चिड़िया के मधुर बोल वसन्त के समाप्न तथा गर्मी के मौसम के आगमन की सूचना देने लगते हैं।

मई माह में शुरु यह दौर जून-जुलाई तक चलता है, जिसके चरम पर मौनसून की फुआर के साथ कुछ राहत अवश्य मिलती है, हालाँकि इसके बाद सीलन भरी गर्मी का एक नया दौर चलता है। ये माह पहाड़ों में अपनी ही रंगत, विशेषता व चुनौती लिए होते हैं। अपने विगत पाँच दशकों के अनुभवों के प्रकाश में इनका लेखा जोखा यहाँ कर रहा हूँ, कि किस तरह से पहाड़ों में गर्मी का मिजाज बदला है और किस तरह के परिवर्तनों के साथ पहाड़ों का विकास गति पकड़ रहा है।

हमें याद है वर्ष 2010 से 2013 के बीच मई माह में शिमला में बिताए एक-एक माह के दो स्पैल (दौर), जब हम जैकेट पहने एडवांस स्टडीज के परिसर में विचरण करते रहे। पहाड़ी की चोटी पर भोजनालय में दोपहर के भोजन के बाद जब 1 बजे के लगभग मैस से बाहर निकलते तो दोपहरी की कुनकुनी धूप बहुत सुहानी लगती। सभी एशोसिऐट्स बाहर मैदान में खुली धूप का आनन्द लेते। अर्थात यहाँ मई माह में भरी दोपहरी में भी ठण्डक का अहसास रहता।

इससे पहले हमें याद हैं वर्ष 1991 में मानाली में मई-जून माह में बिताए वो यादगार पल, जब पर्वतारोहण करते हुए, कुछ ऐसे ही अहसास हुए थे। यहाँ इस मौसम में भी ठीक-ठाक ठण्ड का अहसास हुआ था और गुलाबा फोरेस्ट में तो पीछे ढलान पर बर्फ की मोटी चादर मिली थी, जिसपर हमलोग स्कीईंग का अभ्यास किए थे।

हमारे गाँव में भी मई माह में गर्मी नाममात्र की रहती है, बल्कि यह सबसे हरा-भरा माह रहता है। इसी तरह की हरियाली वरसात के बाद सितम्बर माह में रहती है। इस तरह घर में मई माह अमूनन खुशनुमा ही रहा। गर्मी की शुरुआत जून माह में होती रही, जो मोनसून की बरसात के साथ सिमट जाती। इस तरह मुश्किल से 3 से 4 सप्ताह ही गर्मी रहती। इस गर्मी में तापमान 38 डिग्री से नीचे ही रहता। इसके चरम को लोकपरम्परा में मीर्गसाड़ी कहा जाता है, जो 16 दिनों का कालखण्ड रहता है, जिसमें 8 दिन ज्येष्ठ माह के तो शेष 8 दिन आषाढ़ माह के रहते। इस वर्ष 2021 में 6 जून से 22 जून तक यह दौर चल रहा है। इस दौर के बारे में बुजुर्गों की लोकमान्यता रहती कि जो इन दिनों खुमानी की गिरि की चटनी (चौपा) के साथ माश के बड़े का सेवन करेगा, उसमें साँड को तक हराने की ताक्कत आ जाएगी। हालाँकि यह प्रयोग हम कभी पूरी तरह नहीं कर पाए। कोई प्रयोगधर्मी चाहे तो इसको आजमा सकता है।

इस गर्मी के दौर के बाद जून अंत तक मौनसून का आगमन हो जाता और इसके साथ जुलाई में तपती धरती का संताप बहुत कुछ शाँत होता, लेकिन बीच बीच में बारिश के बाद तेज धूप में नमी युक्त गर्मी के बीच दोपहरी का समय पर्याप्त तपस्या कराता, विशेषकर यदि इस समय खेत या बगीचे में श्रम करना हो या चढाई में पैदल चलना हो।

अधिक ऊँचाई और स्नो लाईन की नजदीकी के कारण मानाली साईड तो यह समय भी ठण्ड का ही रहता है। यहाँ पूरी गर्मी ठण्ड में ही बीत जाती है। पहाड़ों की ऊँचाईयों में तो यहाँ तक कि स्नोफाल के नजारे भी पेश होते रहते। हमें याद है मई-जून माह में ट्रेकिंग का दौर, जिसमें नग्गर के पीछे पहाड़ों की चोटी पर चंद्रखणी पास में ट्रैकरों ने बर्फवारी का आनन्द लिया था और बर्फ के गलेशियर को पार करते हुए अपनी मंजिल तक पहुँचे थे।

जून में गर्मी के दिनों में भी यदि एक-दो दिन लगातार बारिश होती तो फिर ठण्ड पड़ जाती, क्योंकि नजदीक की पीर-पंजाल व शिवालिक पर्वत श्रृंखलाओं में बर्फवारी हो जाती। इस तरह गर्मी का मौसम कुछ सप्ताह तक सिमट जाता। हालाँकि बारिश न होने के कारण और लगातार सूखे के कारण हमनें बचपन में दो माह तक गर्मियों के दौर को भी देखा है, जब मक्की की छोटी पौध दिन में मुरझा जाती।

यदि फसलों (क्रॉपिंग पैटर्न) की बात करें, तो हमें याद है कि पहले गर्मी में जौ व गैंहूं की फसल तैयार होती। फलों में चैरी, खुमानी, पलम, नाशपती, आढ़ू सेब आदि फल एक-एक कर तैयार होते। जापानी व अखरोट का नम्बर इनके बाद आता। सब्जियों में पहले मटर, टमाटर, मूली, शल्जम आदि उगाए जाते। फिर बंद गोभी, फूल गोभी, शिमला मिर्च आदि का चलन शुरु हुआ और आज आईसवर्ग, ब्रौक्ली, स्पाईनेच, लिफी(लैट्यूस) जैसी इग्जोटिक सब्जियों को उगाया जा रहा है। इनको नकदी फसल के रुप में तैयार किए जाने का चलन बढ़ा है।

ये मौसमी सब्जियाँ यहाँ से पंजाब, राजस्थान जैसे मैदानी राज्यों में निर्यात होती हैं, जहाँ गर्मी के कारण इनका उत्पादन कठिन होता है और वहां से अन्न का आयात हमारे इलाके में होता है। क्योंकि हमारे इलाकों में अन्न उत्पादन का रिवाज समाप्त प्रायः हो चला है, क्योंकि अन्न से अधिक यहाँ फल व सब्जी की पैदावार होती है व किसानों को इसका उचित आर्थिक लाभ मिलता है। इस क्षेत्र में जितनी आमदनी पारम्परिक अन्न व दाल आदि से होती है, उससे चार गुणा दाम पारम्परिक सब्जियों से होता है और इग्जोटिक सब्जियाँ इससे भी अधिक लाभ देती हैं। वहीं फलों का उत्पादन सब्जियों से भी अधिक लाभदायक रहता है, हालाँकि इनके पेड़ को पूरी फसल देने में कुछ वर्ष लग जाते हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि अब किसानों ने अन्न उगाना बंद प्रायः कर दिया है तथा यहाँ बागवानी का चलन पिछले दो-तीन दशकों में तेजी से बढ़ा है और यह गर्मी में ही शुरु हो जाता है। सेब प्लम आदि की अर्ली वैरायटी जून में तैयार हो जाती हैं, हालाँकि इसकी पूरी फसल जुलाई-अगस्त में तैयार होती है।

जून माह में ही जुलाई की बरसात से पहले धान की बुआई, जिसे हम रुहणी कहते – एक अहम खेती का सीजन रहता, जिसका हम बचपन में बड़ी बेसब्री से इंतजार करते। हमारे लिए इसमें भाग लेना किसी उत्सव से कम नहीं होता था। काईस नाला से पानी के झल्कों (फल्ड इरिगेशन का किसानों की पारी के हिसाब से नियंत्रित प्रवाह) के साथ काईस सेरी में धान के खेतों की सिंचाई होती। घर के बड़े बुजुर्ग पुरुष जहाँ बैलों की जोडियों के साथ रोपे को जोतते, मिट्टी को समतल व मुलायम करते, हम लोग धान की पनीरी को बंड़ल में बाँधकर दूर से फैंकते और महिलाएं गीत गाते हुए पूरे आनन्द के साथ धान की पौध की रुपाई करती। खेत की मेड़ पर माष जैसी दालों के बीज बोए जाते, जो बाद में पकने पर दाल की उम्दा फसल देते।

गाँव भर की महिलाएं धान की रुपाई (रुहणी) में सहयोग करती। सहकारिता के आधार पर हर घर के खेतों में धान की रुपाई होती। दोपहर को बीच में थकने पर पतोहरी (दोपहर का भोजन) होती, जिसे घरों से किल्टों (जंगली वाँस की लम्बी पिट्ठू टोकरी) में नाना-प्रकार के बर्तनों में पैक कर ले जाया जाता। इसकी सुखद यादें जेहन में एक दर्दभरा रोमाँच पैदा करती हैं। आज इन रुहणियों के नायक कई बढ़े-बुजुर्ग पात्र घर में नहीं हैं, इस संसार से विदाई ले चुके हैं, लेकिन उनके साथ विताए रुहणी के पल चिर स्मृतियों में गहरे अंकित हैं। समय के फेर में हालाँकि रुहणी का चलन आज बिलुप्ति की कगार पर है, मात्र 5 से 10 प्रतिशत खेतों में ऐसा कुछ चलन शेष बचा है, लेकिन गर्मी का मौसम इसकी यादों को ताजा तो कर ही देता है।

गाँव-घर में गर्मियाँ की छुट्टियाँ भी 10 जुन से पड़ती, जो लगभग डेढ़-दो माह की रहती। ये अगस्त तक चलती। हालाँकि अब इन छुट्टियों के घटाकर क्रमशः कम कर दिया गया है, जो अभी महज 3 सप्ताह की रहती हैं। शेष छुट्टियों के सर्दी में देने का चलन शुरु हुआ है। इस दौरान जंगल में गाय व भेड़-बकरियों को चराने की ड्यूटी रहती। साथ में एक बैग में स्कूल का होम वर्क भी साथ रहता। मई, जून में ही गैर दूधारु पशुओं को जंगल में छोड़ने का चलन रहता, जिनकी फिर अक्टूबर में बापिसी होती। इनको छोड़ते समय एक-आध रात जंगल में बिताने का संयोग बनता, जिसकी यादें आज भी भय मिश्रित रोमाँच का भाव जगाती हैं।

हालाँकि गर्मी का मौसम घर में बिताए लम्बा अर्सा हो चुका है, लेकिन स्मरण मात्र करने से ये पल अंतःकरण को गुदगुदाते हुए भावुक सा बनाते हैं और दर्दभरी सुखद स्मृतियों को जगाते हैं। शायद जन्मभूमि से दूर रह रहे हर इंसान के मन में कुछ ऐसे ही भावों को समंदर उमड़ता होगा, खासकर तब, जब लोकडॉउन के बीच लम्बे अन्तराल से वहाँ जाने का संयोग न बन पा रहा हो।

चुनींदी पोस्ट

प्रबुद्ध शिक्षक, जाग्रत आचार्य

            लोकतंत्र के सजग प्रहरी – भविष्य की आस सुनहरी    आज हम ऐसे विषम दौर से गुजर रहे हैं, जब लोकतंत्र के सभी स्तम्...