बुधवार, 25 अगस्त 2021

अटल टनल – विश्व की सबसे लम्बी सुरंग

 

कुल्लू – मानाली लेफ्ट बैंक से होकर यहाँ तक का सफर

अटल टनल रोहतांग

अटल टनल के बारे में बहुत कुछ पढ़ सुन चुके थे, लेकिन इसको देखने का मौका नहीं मिल पाया था। अगस्त माह के पहले सप्ताह में इसका संयोग बनता है। माता पिता के संग एक साथ घूमने की चिर आकाँक्षित इच्छा भी आज पूरा होने जा रही थी। भाई राजू सारथी के रुप में सपिवार शामिल होते हैं। सभी का यह पहला विजिट था, सो इस यात्रा के प्रति उत्सुक्तता के भाव गहरे थे और यह एक यादगार रोमाँचक यात्रा होने जा रही है, यह सुनिश्चित था।   

इस बीच पूरा हिमाचल कई भूस्खलनों की लोमहर्षक घटनाओं के साथ दहल चुका था। इन्हीं घटनाओं के बीच पिछले सप्ताह से पर्यटकों को ऊँचाईयों से बापिस नीचे भेजा जा रहा था। मानाली में होटलों में मात्र 10 प्रतिशत यात्री शेष थे और नई बुकिंग बंद हो चुकी थीं। इसी बीच जब मानाली साईड बारिश कम होती है, तो एक साफ सुबह हमारा काफिला अटल टनल की ओर निकल पडता है।

ब्यास नदी के संग कुल्लू-मानाली लैफ्ट बैंक रुट
हम कुल्लु से मानाली लेफ्ट बैंक से होकर वाया नग्गर जा रहे थे। मालूम हो कि कुल्लू से मानाली लगभग 45 किमी पड़ता है। यह घाटी दो से चार किमी चौडी है तथा इसके बीचों बीच ब्यास नदी बहती है। जो अपने निर्मल जल के कारण ट्राईट मछलियों के लिए जानी जाती है। इसकी दुधिया एवं तेज धार में राफ्टिंग भी सीजन में खूब होती है, इस समय बरसात के चलते नदी पूरे उफान पर रहती है, अतः इस समय राफ्टिंग की ऑफ सीजन चल रहा था।

ब्यास नदी
कुल्लू से मानाली का प्रचलित मार्ग राईट बैंक से है, जो पतलीकुल्ह-कटराईं से होकर जाता है। लेकिन हम इसके समानान्तर लेफ्ट बैंक से आगे बढ़ रहे थे। एक तो हमारा घर इस ओर पड़ता है, दूसरा इस ओर की घाटी अधिक चौड़ी एवं खुली है। रास्ते के नजारे भी अधिक सुदंर हैं। और इस मार्ग का मध्य बिंदु पड़ती है नग्गर, जो कभी कुल्लू रियासत की राजधानी रहा है।  

नगर से पहले हम कायस, कराड़सु, बनोगी, अरछण्डी, हिरनी, लराँकेलो व घुडदौड़ जैसे पड़ाव से होकर गुजरते हैं। इस समय सड़क के दोनों ओर सेब के बाग लाल लाल सेब से लदे थे। सेब का सीजन लगभग शुरु हो चुका था।

नगर - कुल्लू मानाली का मध्य बिंदु
नगर के बाद छाकी, सरसेई, हरिपुर, गोजरा, जगतसुख, शूरु, पीणी व अलेऊ जैसे पड़ाव पड़ते हैं। इस मार्ग में भी कदम कदम पर बर्फीले पहोड़ों से पिघलकर दनदनाते नाले मिले, जिनके कारण कभी यहाँ की सेर (सीढ़ीनुमा खेतों की विशाल श्रृंखला) धान की फसल के लिए जानी जाती थी, लेकिन आज सेबों का बगीचों से ये खेत अटे पड़े हैं। केबल 10 प्रतिशत खेतों में ही पारम्परिक अन्न उगाए जा रहे हैं।

पारम्परिक खेती का सिकुड़ता दायरा
इस मार्ग में एक और जहाँ देवदार के घने जंगलों से भरे पहाड़ राहभर एक शीतल अहसास दिलाते हैं, वहीं सामने धोलाधार पर्वत श्रृंखलाएं और आगे मानाली साईड़ के पहाड़ राह को हिमालय की वादियों में विचरण का दिव्य अहसास दिलाते हैं। बागवानी एवं पर्य़टन के साथ यहाँ की समृद्ध हो रही आर्थिकी के दर्शन यहाँ के भव्य भवनों, होटलों एवं वाहनों आदि को देखकर सहज ही किए जा सकते हैं। इसमें क्षेत्र के लोगों की दूरदर्शिता एवं अथक श्रम का अपना योगदान रहा है। इस मार्ग में भी राह के ऊपर व नीचे कई ऐतिहासिक एवं पौराणिक स्थल पड़ते हैं, जिनका वर्णन किसी अलग ब्लॉग में करते हैं।

अलेऊ के बाद सफर मानाली के दायीँ और से गुजरता , जो आगे अटल टनल की ओर बढ़ता है। 

मानाली के आगे सोलांग घाटी की ओर
इस राह में बाँहग, नेहरु कुण्ड, कुलंग, पलचान जैसी स्टेश आते हैं, जिसके बाद ब्यास नदी के ऊपर पुल पार करते ही सोलांग वैली में प्रवेश होता है। रास्ते में ही स्कीईँग स्लोप क दर्शन होते हैं, जो बर्फ पड़ने पर पर्टयकों से गुलजार रहती है। इस घाटी का अंतिम गाँव सोलाँग गाँव भी थोड़ी देर में दायीं और अपने दर्शन देता है। और फिर नाले के ऊपर बने पुल को पार करते ही धुँधी के दर्शन होते हैं, जहाँ से रास्ता आगे व्यास कुण्ड की ओर जाता है।

धुंधी - ब्यास कुण्ड की प्रस्थान बिंदु
और यहीं से सड़क रोड़ दायीँ और से आगे बढ़ते हुए अटल टनल पहुँचता है। इस मार्ग की खासियत इसका प्राकृतिक सौंदर्य है और सुन्दर घाटियाँ हैं, जो किसी भी रुप में विश्व की सुन्दरतम घाटियों से कम नहीं। यह क्षेत्र पहले पर्यटकों के लिए दुर्गम था और अटल टनल के लिए मार्ग बनने से इसके अकूत प्राकृतिक सौंदर्य़ संपदा के दर्शन किए जा सकते हैं।

सोलांग घाटी का दिलकश प्राकृतिक सौंदर्य
इसको देखकर, इसे निहार कर मन शीतल हो जाता है, आल्हादित हो जाता है। मन करता है कि इसका प्राकृतिक ताजगी ऐसी ही अक्षुण्ण रहे। ताकि हर पर्य़टकों युगों तक इसकी गोद में आकर इसकी शीतल एवं सुकूनदायी स्पर्श पाकर धन्य हो जाए। हम सबका कर्तव्य बनता है कि इसके संरक्षण में अपना योगदान दें व जब भी ऐसे क्षेत्रों से गुजरें, इसके सौंदर्य, संतुलन व जैव विविधता को बिना किसी नुकसान पहुँचाए यहाँ का आनन्द लें।

सोलांग घाटी की स्कीइंग स्लोप्स - बर्फ के इंतजार में
अटल टनल की विशेषताएं -

·        विश्व की सबसे लम्बी हाई अल्टिच्यूट सुरंग, जो 10,000 फीट की औसतन ऊँचाई लिए हुए है। मानाली की ओर का दक्षिणी छोर लाहौल की ओर का उत्तरी छोर।

·        पीर पंजाल रेंज के नीचे आरपार बनायी गई है।

·        मानाली से 25 किमी दूर।

·        कुल लम्बाई 9.02 किमी

·        इसको भारतीय सेना की विशिष्ट संस्था बोर्डर रोड ऑर्गेनाइजेशन ने बनाया है। इसमें विदेशी कम्पनियों का सहयोग भी मिला है।

·        इसको बनाने में 10 साल लगे और बजट रहा 3500 करोड़ रुपए के लगभग।

·        सुरंग आधुनिकतम सुरक्षा उपकरणों से सुसज्जित है तथा आपातकालीन निकास द्वारों से युक्त है।

आधुनिकतम उपकरणों से सुसज्जित अटल सुरंग

·        इसकी स्पीड़ लिमिट 40 से 60 घण्टे हैं।

·        इसने मानाली-लेह हाईवे की दूरी 45 किमी कम कर दी है, अर्थात् 4 से 5 घण्टे के सफर को कम किया है।

·        लाहौल घाटी के लिए यह सुरंग किसी वरदान से कम नहीं है, जो छः माह सर्दी में भारी बर्फवारी के चलते बाहर की दुनियाँ से कटी रहती थी, क्योंकि रोहताँग दर्रा भारी बर्फ के कारण आबाजाही के लिए बंद रहता था।

अटल टनल के बाहर लाहौल घाटी में प्रवेश

·        पर्यटकों के लिए भी एक वरदान की तरह से है, जो सर्दियों में लाहौल घाटी में बर्फ का आनन्द ले सकते हैं।

·        हाँ, थोड़ा चिंता का विषय भी है, कि पर्यटकों के गैर जिम्मेदाराना रवैये एवं अधिक भीड़ के चलते यहाँ के पर्यावरण, जैवविविधता एवं वातावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।

पुनः पधारने का आमंत्रण देती अटल टनल



रविवार, 25 जुलाई 2021

अपनी गरिमा रहे बर्करार

                                                        गढ़ता चल तू अपना संसार

अपनी गरिमा न गिरने देना,

अपनी गुरुता रखना बर्करार,

ये झलके आपके वाणी - आचरण से,

येही आपके चरित्र के आधार ।1।

 

कोई कैसा व्यवहार कर रहा,

कैसे हैं उसके वाणी आचार,

मत करना अधिक परवाह इनकी,

ये उसकी सम्पत्ति, उसकी इज्जत, उसका संसार ।2।

 

तुम तो रहना संयत जीवन में,

विनम्र, उदात्त और श्रेष्ठ विचार,

रहना विनीत अढिग अपने सत्य पर, 

संग अपनी स्थिरता, शांति और स्वाभिमान ।3।

 

आएंगी अग्नि परीक्षाएं अनगिन,

शुभचिंतकों, भ्रमितों के औचक प्रहार,

स्वागत करना खुले दिल से इनका भी,

रहना हर एडवेंचर के लिए तैयार ।4।

 

यही तो खेल जिंदगी का इस धरा पर,

धारण कर क्षणभंगुर जीवन का सार,

 राह की हर कसौटी पर कसते,

गढ़ता चल तू अपना संसार ।5।

बुधवार, 30 जून 2021

कुल्लू घाटी की देव परम्परा

आध्यात्मिक-सांस्कृतिक विरासत का भी रहे ध्यान

कुल्लू-मानाली हिमाचल का वह हिस्सा है, जो अपने प्राकृतिक सौंदर्य के साथ धार्मिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक विरासत के आधार पर एक विशिष्ट स्थान रखता है। क्षेत्र की युवा पीढ़ी को शायद इसका सही-सही बोध भी नहीं है, लेकिन यदि एक बार उसे इसकी सही झलक मिल जाए, तो वह देवभूमि की देवसंस्कृति का संवाहक बनकर अपनी भूमिका निभाने के लिए  सचेष्ट हो जाए। और बाहर से यहाँ पधार रहे यात्री और पर्यटक भी इसमें स्नात होकर इसके रंग में रंग जाएं।

कुल्लू-मानाली हिमाचल की सबसे सुंदर घाटियों में से है, जिसके कारण मानाली सहित यहाँ के कई स्थल हिल स्टेशन के रुप में प्रकृति प्रेमी यात्रियों के बीच लोकप्रिय स्थान पा चुके हैं। हालाँकि बढ़ती आवादी और भीड़ के कारण स्थिति चुनौतीपूर्ण हो जाती है, जिस पर ध्यान देने की आवश्यकता है। लेकिन इसकी सुंदर घाटियाँ, दिलकश वादियाँ अपने अप्रतिम सौंदर्य के साथ प्रकृति एवं रोमाँच प्रेमियोँ तथा आस्थावानों का स्वागत करने के लिए सदा तत्पर रहती हैं।

60-70 किमी लम्बी और 2 से 4 किमी चौड़ी घाटी के बीचों-बीच में बहती ब्यास नदी की निर्मल धार, इसे विशिष्ट बनाती है। साथ ही भूमि की उर्बरता और जल की प्रचुरता इस घाटी के लिए प्रकृति का एक विशिष्ट उपहार है। इसी के आधार पर घाटी फल एवं सब्जी उत्पादन में अग्रणी स्थान रखती है। यहाँ सेब, नाशपाती, प्लम जैसे फल बहुतायत में उगाए जा रहे हैं। अंग्रेजों के समय में सेब उत्पादन के प्राथमिक प्रयोग की यह घाटी साक्षी रही है। इस संदर्भ में मंद्रोल, मानाली, सेऊबाग जैसे स्थान अपना ऐतिहासिक महत्व रखते हैं।

स्नो लाईन पास होने के कारण यहाँ का मौसम पहाड़ी प्राँतों के इसी ऊँचाई के क्षेत्रों की तुलना में अधिक ठण्डा रहता है। घाटी में बर्फ से ढ़की पहाडियाँ साल के अधिकाँश समय हिमालय टच का सुखद अहसास दिलाती रहती हैं, हालाँकि सर्दियों में तापमान के माइनस में जाने पर स्थिति थोड़ी विकट हो जाती है, लेकिन प्रकृति ने इसकी भी व्यवस्था कर रखी है। घाटी में गर्म जल के कई स्रोत हैं। शायद ही इतने गर्म चश्में हिमाचल के किसी और जिला या भारत के किसी पहाड़ी प्राँतों के हिस्से में हों। मणीकर्ण, क्लाथ, वशिष्ट, खीरगंगा, रामशिला जैसे स्थानों में ये सर्दियों में यात्रियों एवं क्षेत्रीय लोगों के लिए वरदान स्वरुप गर्मी का सुखद अहसास दिलाते हैं और इनमें से अधिकाँश तीर्थ का दर्जा प्राप्त हैं, जिनमें स्नान बहुत पावन एवं पापनाशक माना जाता है।

यह घाटी शिव-शक्ति की भी क्रीडा स्थली रही है। मणिकर्ण तीर्थ की कहानी इसी से जुड़ी हुई है। खीरगंगा को शिव-पार्वती पुत्र कार्तिकेय के साथ जोड़कर देखा जाता है। पहाड़ी की चोटी पर बिजलेश्वर महादेव इसकी बानगी पेश करते हैं, जिसके चरणों में पार्वती एवं ब्यास नदियाँ जैसे चरण पखारती प्रतीत होती हैं व इनके संगम को भी तीर्थ का दर्जा प्राप्त है, जहाँ स्थानीय देवी-देवता विशेष अवसरों पर पुण्य स्नान करते हैं। बिजलेश्वर महादेव से व्यास कुण्ड एवं मानतलाई के बीच एक दिव्य त्रिकोण बनता है, जिसका अपना महत्व है। अठारह करड़ु देवताओं की लीलाभूमि चंद्रखणी पास इसी के बीच में शिखर पर पड़ता है। इंद्रकील पर्वत का इस क्षेत्र में अपना विशिष्ट महत्व है।

यह भूमि महाभारत के यौद्धा अर्जुन की तपःस्थली भी रही है, जहाँ इन्हें दिव्य अस्त्र मिले थे। अर्जुन की तपस्या से प्रसन्न होकर शवर रुप में भगवान शिव प्रकट हुए थे व युद्ध में परीक्षा के बाद प्रसन्न होकर वरदान दिए थे। मानाली के समीप लेफ्ट बैंक में जगतसुख के पास अर्जुन गुफा और शवरी माता का मंदिर आज भी इसकी गवाही देते हैं।

मानाली में हिडिम्बा माता का मंदिर महाभारत काल की याद दिलाता है, जब महाबली भीम नें राक्षस हिडिम्ब को मारकर हिडिम्बा से विवाह किया था। इनके पुत्र घटोत्कच का मंदिर भी पास में ही है। इसके आगे पुरानी मानाली में ऋषि मनु का मंदिर है, जिनके नाम पर इस स्थल का नाम मानाली पड़ा। मनु ऋषि से जुड़ा विश्व में संभवतः यह एक मात्र मंदिर है। इस आधार पर मानव सभ्यता की शुरुआत से इस स्थल का सम्बन्ध देखा जा सकता है, जिस पर और शोध-अनुसंधान की आवश्यकता है। सप्तऋषियों में अधिकाँश के तार इस घाटी से जुड़े मिलते हैं। व्यास, वशिष्ट, जमदग्नि, पराशर, गौतम, अत्रि, नारद जैसे ऋषि-मुनियों का इस घाटी में विशेष सम्बन्ध रहा है।

इस घाटी में हर गाँव का अपना देवता है, जो ठारा करड़ू के साथ अठारह नारायण, आठारह रुद्र, उठारह नाग आदि देवताओं ये युग्म के रुप में इस घाटी को देवभूमि के रुप में सार्थक करते हैं। विश्व विख्यात कुल्लू के दशहरे में ये सभी देवी-देवता अपने गाँवों से निकलकर भगवान रघुनाथ को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। कुल्लू के ढालपुर मैदान (ठारा करड़ू की सोह) में देवमिलन का यह पर्व अद्भुत नजारा पेश करता है।

इन सब विशेषताओं के साथ विश्व का सबसे प्राचीन लोकतंत्र मलाना इसी घाटी की दुर्गम वादियों में स्थित है, जहाँ आज भी इनके देवता जमलु का शासन चलता है। विश्व विजय का सपने लिए सम्राट सिकन्दर से लेकर बादशाह अकबर की कथा-गाथाएं इस गाँव से जुड़ी हुई हैं।

कुल्लू मानाली के ठीक बीचों-बीच लेफ्ट बैंक पर स्थित नग्गर एक विशिष्ट स्थल है, जो कभी कुल्लू की राजधानी रहा है। आज भी नग्गर में 500 वर्ष पुराने राजमहल को नग्गर कैसल के रुप में देखा जा सकता है। यहाँ का जगती पोट देवताओं की दिव्य-शक्तियों की गवाही देता है। रशियन चित्रकार, यायावर, पुरातत्ववेता, विचारक, दार्शनिक, कवि, भविष्यद्रष्टा और हिमालय के चितेरे निकोलाई रोरिक की समाधी के कारण भी घाटी अंतर्राष्ट्रीय नक्शे पर अपना विशेष स्थान रखती है। विश्व के ये महानतम कलाकार एवं शांतिदूत 1928 में आकर यहाँ बस गए थे, जो इनके अंतिम 20 वर्षों की सृजन स्थली रही। 

नग्गर शेरे कुल्लू के नाम से प्रख्यात लालचंद्र प्रार्थी की भी जन्मभूमि रही है। मानाली के समीप प्रीणी गाँव में पूर्व प्रधानमंत्री अटल विहारी वाजपेयी का लोकप्रिय आशियाना रहा, जिनके नाम से जुड़े पर्वतारोहण संस्थान और अटल टनल इस क्षेत्र से उनके आत्मिक जुड़ाव को दर्शाते हैं। मानाली के आगे नेहरु कुण्ड जवाहरलाल नेहरू से जुड़ा स्थल था, जहाँ के जल का वे यहाँ आने पर पान करते। आज भी कई हस्तियाँ इस घाटी से जुड़कर अपना गौरव अनुभव करती हैं।

एडवेंचर प्रेमी घुमक्कड़ों के बीच भी घाटी खासी लोकप्रिय है, जिसमें मानाली स्थित पर्वतारोहण संस्थान, सर्दी में स्कीइंग से लेकर विभिन्न कार्यक्रम आयोजित करता है, जो पर्वतारोहण एवं एडवेंचर स्पोर्टस के क्षेत्र में विश्व में अग्रणी स्थान रखता है। सोलाँग घाटी में स्कीईंग के साथ अन्य एडवेंचर स्पोर्टस होते रहते हैं। इसके आगे कुल्लू घाटी को लाहौल घाटी के दुर्गम क्षेत्र से जोड़ती अटल टनल भी एक नया आकर्षण है, जिसका पिछले ही वर्ष उद्घाटन हुआ है।

इंटरनेट एवं सोशल मीडिया के युग में घाटी की सांस्कृतिक विरासत एवं कला संगीत आदि के प्रति युवाओं व जनता में एक नया रुझान पैदा हुआ है, जो अपनी सांस्कृतिक जड़ों से जोड़ती एक सुखद घटना है। लेकिन नाच गाने व मनोरंजन तक ही सांस्कृतिक विरासत को सीमित मानना एक भूल होगी। फिर देवपरम्परा में बलि प्रथा से लेकर लोक जीवन में शराब व नशे का बढ़ता चलन चिंता का विषय है। इन विकृतियों के परिमार्जन के साथ समय देवसंस्कृति की उस आध्यात्मिक विरासत के प्रति जागरुक होने का है, जिसके आधार पर संस्कृति व्यक्ति के मन, बुद्धि एवं चित्त का परिष्कार करती है, जीवन के समग्र उत्थान का रास्ता खोलती है। और परिवार में श्रेष्ठ संस्कारों का रोपण करते हुए समाज, राष्ट्र तथा पूरे विश्व को एक सुत्र में बाँधने का मानवीय आधार देती है। समृद्ध आध्यात्मिक-सांस्कृतिक विरासत को संजोए इस देवभूमि से इस आधार पर कुछ विशेष आशाएं तो की ही जा सकती हैं। 

पुस्तक समीक्षा – हिमालय की वादियों में

यात्राओं में हिमालय


हिमालय युगों-युगों से लोगों को आकर्षित करता रहा है। सैलानियों के लिए अगर हिमालय को सौंदर्य अविभूत करने वाला है, तो युगों-युगों से साधक यहाँ तपस्या और समाधि के लिए आते रहे हैं। हिमालय पर लिखी गई असंख्य किताबों में भी इसके विविध रुप उभरकर सामने आए हैं। लेखक सुखनंदन सिंह की पुस्तक हिमालय की वादियों में, इसी की ताजा कड़ी है।

पहाड़ों की गोद में जन्में लेखक बचपन से ही हिमालय के प्रति आकर्षित रहे हैं। उन्होंने खुद लिखा है कि किशोरावस्था में नगर स्थित निकोलाई रोरिख केन्द्र में जाने का अवसर मिला, तो युवावस्था में पर्वतारोहण के माध्यम से हिमालय को नजदीक से देखने का संयोग बना। स्वामी विवेकानन्द और उनके गुरु भाई स्वामी अखण्डानन्द की हिमालय हिमालय यात्राओं ने इन यात्राओं में ईश्वरीय आस्था को बल दिया। युगऋषि पं.श्रीराम शर्मा आचार्य के सुनसान के सहचर ने हिमालय की गुढ़ आध्यात्मिक चेतना परिचित काया, तो स्वामी अमर ज्योति की पुस्तक हिमालय की आत्मा ने हिमालय की विरल ऊँचाईयों और गहराईयों से संवेदित किया। ऐसे ही सिखों के दशम गुरु गोविंद सिंह जी की आत्मकथा विचित्र नाटक ने हेमकुण्ड साहिब की यात्रा के लिए प्रेरित किया।


 लेखक ने इस पुस्तक को कुल छत्तीस अध्यायों में विभाजित किया है, जिसमें यात्राओं को कुमाऊँ हिमालय, गढ़वाल हिमालय, शिमला हिमालय, और फिर मंडी, कुल्लू घाटी, मानाली हिमालय और दुर्गम लाहौल घाटी जैसे अलग-अलग नौ खंडों में वर्गीकृत किया गया है। किताब में हिमाचल और उत्तराखंड के अनेक पर्यटन स्थलों, मंदिरों और तीर्थस्थलों का बेहद सहज लेकिन दिलचस्प वर्णन है। दरअसल, लेखक ने पहले की स्पष्ट कर दिया है ये यात्रा वृत्तांत महज घुमक्कड़ी तक सीमित न होकर पाठकों को इस क्षेत्र के प्राकृतिक सौंदर्य, भौगोलिक विशेषताओं, यहाँ की लोक संस्कृति, समाज, धर्म-अध्यात्म तथा विकास का मुआयना भी कराते हैं। 


 पुस्तक के कई प्रसंग बेहद दिलचस्प बन पड़े हैं, जैसे मानाली में माउंटेनियरिंग के कोर्स करने के दौरान रात में पहरा दे रहे साथी अचानक घुंघरु की आवाज से डर जाते हैं, तो पता चलता है कि आवारा भैंसों के गले की घंटियां बज रहीं थीं। लेखक ने केदारनाथ की यात्रा में उस शांत झील के बारे में भी बताया है, जो 2013 में विकराल बन गई और केदारनाथ की आपदा का कारण बनीं।

- कल्लोल चक्रवर्ती (अमर उजाला के साप्ताहिक किताब स्तम्भ के अंतर्गत 30 मई, 2021 रविवार को प्रकाशित) 

 प्रकाशक – एविन्स पब्लिशिंग, बिलासपुर, मूल्य-369 रुपये।

पुस्तक अमेजन, किंडल जैसे प्लेटफॉर्म पर भी उपलब्ध है।

शुक्रवार, 18 जून 2021

मेरा गाँव मेरा देश – मौसम गर्मी का

गर्मी के साथ पहाड़ों में बदलता जीवन का मिजाज

मैदानों में जहाँ मार्च-अप्रैल में बसन्त के बाद गर्मी के मौसम की शुरुआत हो जाती है। वहीं पहाड़ों की हिमालयन ऊँचाई में, जंगलों में बुराँश के फूल झरने लगते हैं, पहाड़ों में जमीं बर्फ पिघलने लगती है, बगीचों में सेब-प्लम-नाशपाती व अन्य फलों की सेटिंग शुरु हो जाती है और इनके पेड़ों व टहनियों में हरी कौंपलें विकसित होकर एक ताजगी भरा हरियाली का आच्छादन शुरु करती हैं। मैदानों में इसी समय आम की बौर से फल लगना शुरु हो जाते हैं। मैदानों में कोयल की कूकू, तो पहाड़ों में कुप्पु चिड़िया के मधुर बोल वसन्त के समाप्न तथा गर्मी के मौसम के आगमन की सूचना देने लगते हैं।

मई माह में शुरु यह दौर जून-जुलाई तक चलता है, जिसके चरम पर मौनसून की फुआर के साथ कुछ राहत अवश्य मिलती है, हालाँकि इसके बाद सीलन भरी गर्मी का एक नया दौर चलता है। ये माह पहाड़ों में अपनी ही रंगत, विशेषता व चुनौती लिए होते हैं। अपने विगत पाँच दशकों के अनुभवों के प्रकाश में इनका लेखा जोखा यहाँ कर रहा हूँ, कि किस तरह से पहाड़ों में गर्मी का मिजाज बदला है और किस तरह के परिवर्तनों के साथ पहाड़ों का विकास गति पकड़ रहा है।

हमें याद है वर्ष 2010 से 2013 के बीच मई माह में शिमला में बिताए एक-एक माह के दो स्पैल (दौर), जब हम जैकेट पहने एडवांस स्टडीज के परिसर में विचरण करते रहे। पहाड़ी की चोटी पर भोजनालय में दोपहर के भोजन के बाद जब 1 बजे के लगभग मैस से बाहर निकलते तो दोपहरी की कुनकुनी धूप बहुत सुहानी लगती। सभी एशोसिऐट्स बाहर मैदान में खुली धूप का आनन्द लेते। अर्थात यहाँ मई माह में भरी दोपहरी में भी ठण्डक का अहसास रहता।

इससे पहले हमें याद हैं वर्ष 1991 में मानाली में मई-जून माह में बिताए वो यादगार पल, जब पर्वतारोहण करते हुए, कुछ ऐसे ही अहसास हुए थे। यहाँ इस मौसम में भी ठीक-ठाक ठण्ड का अहसास हुआ था और गुलाबा फोरेस्ट में तो पीछे ढलान पर बर्फ की मोटी चादर मिली थी, जिसपर हमलोग स्कीईंग का अभ्यास किए थे।

हमारे गाँव में भी मई माह में गर्मी नाममात्र की रहती है, बल्कि यह सबसे हरा-भरा माह रहता है। इसी तरह की हरियाली वरसात के बाद सितम्बर माह में रहती है। इस तरह घर में मई माह अमूनन खुशनुमा ही रहा। गर्मी की शुरुआत जून माह में होती रही, जो मोनसून की बरसात के साथ सिमट जाती। इस तरह मुश्किल से 3 से 4 सप्ताह ही गर्मी रहती। इस गर्मी में तापमान 38 डिग्री से नीचे ही रहता। इसके चरम को लोकपरम्परा में मीर्गसाड़ी कहा जाता है, जो 16 दिनों का कालखण्ड रहता है, जिसमें 8 दिन ज्येष्ठ माह के तो शेष 8 दिन आषाढ़ माह के रहते। इस वर्ष 2021 में 6 जून से 22 जून तक यह दौर चल रहा है। इस दौर के बारे में बुजुर्गों की लोकमान्यता रहती कि जो इन दिनों खुमानी की गिरि की चटनी (चौपा) के साथ माश के बड़े का सेवन करेगा, उसमें साँड को तक हराने की ताक्कत आ जाएगी। हालाँकि यह प्रयोग हम कभी पूरी तरह नहीं कर पाए। कोई प्रयोगधर्मी चाहे तो इसको आजमा सकता है।

इस गर्मी के दौर के बाद जून अंत तक मौनसून का आगमन हो जाता और इसके साथ जुलाई में तपती धरती का संताप बहुत कुछ शाँत होता, लेकिन बीच बीच में बारिश के बाद तेज धूप में नमी युक्त गर्मी के बीच दोपहरी का समय पर्याप्त तपस्या कराता, विशेषकर यदि इस समय खेत या बगीचे में श्रम करना हो या चढाई में पैदल चलना हो।

अधिक ऊँचाई और स्नो लाईन की नजदीकी के कारण मानाली साईड तो यह समय भी ठण्ड का ही रहता है। यहाँ पूरी गर्मी ठण्ड में ही बीत जाती है। पहाड़ों की ऊँचाईयों में तो यहाँ तक कि स्नोफाल के नजारे भी पेश होते रहते। हमें याद है मई-जून माह में ट्रेकिंग का दौर, जिसमें नग्गर के पीछे पहाड़ों की चोटी पर चंद्रखणी पास में ट्रैकरों ने बर्फवारी का आनन्द लिया था और बर्फ के गलेशियर को पार करते हुए अपनी मंजिल तक पहुँचे थे।

जून में गर्मी के दिनों में भी यदि एक-दो दिन लगातार बारिश होती तो फिर ठण्ड पड़ जाती, क्योंकि नजदीक की पीर-पंजाल व शिवालिक पर्वत श्रृंखलाओं में बर्फवारी हो जाती। इस तरह गर्मी का मौसम कुछ सप्ताह तक सिमट जाता। हालाँकि बारिश न होने के कारण और लगातार सूखे के कारण हमनें बचपन में दो माह तक गर्मियों के दौर को भी देखा है, जब मक्की की छोटी पौध दिन में मुरझा जाती।

यदि फसलों (क्रॉपिंग पैटर्न) की बात करें, तो हमें याद है कि पहले गर्मी में जौ व गैंहूं की फसल तैयार होती। फलों में चैरी, खुमानी, पलम, नाशपती, आढ़ू सेब आदि फल एक-एक कर तैयार होते। जापानी व अखरोट का नम्बर इनके बाद आता। सब्जियों में पहले मटर, टमाटर, मूली, शल्जम आदि उगाए जाते। फिर बंद गोभी, फूल गोभी, शिमला मिर्च आदि का चलन शुरु हुआ और आज आईसवर्ग, ब्रौक्ली, स्पाईनेच, लिफी(लैट्यूस) जैसी इग्जोटिक सब्जियों को उगाया जा रहा है। इनको नकदी फसल के रुप में तैयार किए जाने का चलन बढ़ा है।

ये मौसमी सब्जियाँ यहाँ से पंजाब, राजस्थान जैसे मैदानी राज्यों में निर्यात होती हैं, जहाँ गर्मी के कारण इनका उत्पादन कठिन होता है और वहां से अन्न का आयात हमारे इलाके में होता है। क्योंकि हमारे इलाकों में अन्न उत्पादन का रिवाज समाप्त प्रायः हो चला है, क्योंकि अन्न से अधिक यहाँ फल व सब्जी की पैदावार होती है व किसानों को इसका उचित आर्थिक लाभ मिलता है। इस क्षेत्र में जितनी आमदनी पारम्परिक अन्न व दाल आदि से होती है, उससे चार गुणा दाम पारम्परिक सब्जियों से होता है और इग्जोटिक सब्जियाँ इससे भी अधिक लाभ देती हैं। वहीं फलों का उत्पादन सब्जियों से भी अधिक लाभदायक रहता है, हालाँकि इनके पेड़ को पूरी फसल देने में कुछ वर्ष लग जाते हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि अब किसानों ने अन्न उगाना बंद प्रायः कर दिया है तथा यहाँ बागवानी का चलन पिछले दो-तीन दशकों में तेजी से बढ़ा है और यह गर्मी में ही शुरु हो जाता है। सेब प्लम आदि की अर्ली वैरायटी जून में तैयार हो जाती हैं, हालाँकि इसकी पूरी फसल जुलाई-अगस्त में तैयार होती है।

जून माह में ही जुलाई की बरसात से पहले धान की बुआई, जिसे हम रुहणी कहते – एक अहम खेती का सीजन रहता, जिसका हम बचपन में बड़ी बेसब्री से इंतजार करते। हमारे लिए इसमें भाग लेना किसी उत्सव से कम नहीं होता था। काईस नाला से पानी के झल्कों (फल्ड इरिगेशन का किसानों की पारी के हिसाब से नियंत्रित प्रवाह) के साथ काईस सेरी में धान के खेतों की सिंचाई होती। घर के बड़े बुजुर्ग पुरुष जहाँ बैलों की जोडियों के साथ रोपे को जोतते, मिट्टी को समतल व मुलायम करते, हम लोग धान की पनीरी को बंड़ल में बाँधकर दूर से फैंकते और महिलाएं गीत गाते हुए पूरे आनन्द के साथ धान की पौध की रुपाई करती। खेत की मेड़ पर माष जैसी दालों के बीज बोए जाते, जो बाद में पकने पर दाल की उम्दा फसल देते।

गाँव भर की महिलाएं धान की रुपाई (रुहणी) में सहयोग करती। सहकारिता के आधार पर हर घर के खेतों में धान की रुपाई होती। दोपहर को बीच में थकने पर पतोहरी (दोपहर का भोजन) होती, जिसे घरों से किल्टों (जंगली वाँस की लम्बी पिट्ठू टोकरी) में नाना-प्रकार के बर्तनों में पैक कर ले जाया जाता। इसकी सुखद यादें जेहन में एक दर्दभरा रोमाँच पैदा करती हैं। आज इन रुहणियों के नायक कई बढ़े-बुजुर्ग पात्र घर में नहीं हैं, इस संसार से विदाई ले चुके हैं, लेकिन उनके साथ विताए रुहणी के पल चिर स्मृतियों में गहरे अंकित हैं। समय के फेर में हालाँकि रुहणी का चलन आज बिलुप्ति की कगार पर है, मात्र 5 से 10 प्रतिशत खेतों में ऐसा कुछ चलन शेष बचा है, लेकिन गर्मी का मौसम इसकी यादों को ताजा तो कर ही देता है।

गाँव-घर में गर्मियाँ की छुट्टियाँ भी 10 जुन से पड़ती, जो लगभग डेढ़-दो माह की रहती। ये अगस्त तक चलती। हालाँकि अब इन छुट्टियों के घटाकर क्रमशः कम कर दिया गया है, जो अभी महज 3 सप्ताह की रहती हैं। शेष छुट्टियों के सर्दी में देने का चलन शुरु हुआ है। इस दौरान जंगल में गाय व भेड़-बकरियों को चराने की ड्यूटी रहती। साथ में एक बैग में स्कूल का होम वर्क भी साथ रहता। मई, जून में ही गैर दूधारु पशुओं को जंगल में छोड़ने का चलन रहता, जिनकी फिर अक्टूबर में बापिसी होती। इनको छोड़ते समय एक-आध रात जंगल में बिताने का संयोग बनता, जिसकी यादें आज भी भय मिश्रित रोमाँच का भाव जगाती हैं।

हालाँकि गर्मी का मौसम घर में बिताए लम्बा अर्सा हो चुका है, लेकिन स्मरण मात्र करने से ये पल अंतःकरण को गुदगुदाते हुए भावुक सा बनाते हैं और दर्दभरी सुखद स्मृतियों को जगाते हैं। शायद जन्मभूमि से दूर रह रहे हर इंसान के मन में कुछ ऐसे ही भावों को समंदर उमड़ता होगा, खासकर तब, जब लोकडॉउन के बीच लम्बे अन्तराल से वहाँ जाने का संयोग न बन पा रहा हो।

सोमवार, 31 मई 2021

कोरोना काल के बीच उभरता जीवन दर्शन

अपनों के वियोग-विछोह की पीड़ा एवं आध्यात्मिक सम्बल

कोरोना काल ने कई मायनों में जीवन की परिभाषा और जिंदगी के मायने बदल दिए हैं, जिनमें एक है अपनों का असामयिक अवसान और इस जीवन की नश्वरता का तीखा बोध।

सबसे पहले ह्दय की गहराई से अपनी संवेदनापूरक श्रद्धाँजलि उन सभी दिवंगत मित्रों, परिवारजनों, परिजनों एवं जीवात्माओं को, जो कोरोना के कारण असमय ही अपनों को बिलखते हुए छोड़ गए। परमात्मा, भगवान, गुरुसत्ता उन सब दिवंगत आत्माओं को शांति दे, सद्गति दे, अपने चरणों में विश्राँति दे। साथ ही परमात्मा शोकाकुल एवं दुःखी परिवारजनों, आत्मीयजनों एवं मित्रों को इनके बिछुड़ने के असह्य दुःख को सहन करने की शक्ति दे।

निश्चित ही कोरोना के रुप में संव्याप्त जानलेवा अदृश्य वायरस ने एक आशंका, भय और आतंक का माहौल पैदा कर दिया है। प्रारम्भ में, पहली लहर के दौर में स्थिति इतनी विकट नहीं थी, जब मात्र बिमार या न्यून इम्यूनिटी बाले बृद्ध-बुजुर्गों को अपना निशाना बनाया था और इसका प्रभाव सीमित था तथा यह उतना घातक नहीं था। कोरोना की दूसरी लहर के साथ इसके घातक स्वरुप ने स्वस्थ लोगों तथा युवाओं को भी अपनी लपेट में ले लिया है। बहुत सारे इससे संक्रमित होकर उबर भी रहे हैं, लेकिन जब कोई अपना अचानक इसके खूनी शिकंजे में फंस जाता है, तो दिल सहम जाता है। प्रार्थना के स्वर उठते हैं, कि भगवान इनको जल्द ठीक कर दें। लेकिन प्रार्थना की भी एक सीमा होती है। हमेशा ही यह काम नहीं कर पाती।

फिर खबर आती है कि अमुक नहीं रहे। कई बार तो अनजाने में ही किसी मित्र को फोन करते हैं, तो जबाव किसी दूसरे  की आबाज में आता है, कि आप कौन बोल रहे हैं। परिचय पाने के बाद जब वो अपरिचित परिजन कहते हैं, कि अमुक तो अब नहीं रहे। ऐसा अनपेक्षित उत्तर सीधे शॉक करता है, पूरे अस्तित्व को हिला डालता है कि यह कैसे हो सकता है। अभी ही तो पिछले दिनों इनसे बातचीत हुई थी, स्वस्थ-सकुशल थे। अभी तो इनकी यात्रा शुरु ही हुई थी, अभी तो फूल को खिलना बाकि था। ऐसे असमय सबको बिलखता हुआ छोड़कर कैसे चले गए, कुछ समझ नहीं आता। परमात्मा के विधान पर भी कुछ पल के लिए तो संशय होता है। यह कैसा नियति का, ईश्वर का क्रूर विधान। लेकिन कुल मिलाकर अन्ततः जीवन-मरण के इस अकाट्य सत्य के सामने सर झुकाना पड़ता है। इस पर आखिर किसका वश।

ऐसे पलों में जीवन की नई परिभाषा, नए मायने, नया दर्शन अस्तित्व की गहराईयों से फूट पड़ता है। जब मृत्यु ही इस जीवन का अंतिम सत्य है, तो फिर इस जीवन के क्या मायने हैं। एक व्यक्ति के असामयिक अवसान पर तो यह सवाल और भी तल्ख हो जाते हैं।

फिर याद आते हैं, अपने बाबा, दादा-दादी, नाना-नानी और घर के बड़े बुजुर्गों की, जो एक-एक कर परिवार-संसार को छोड़ गए थे। कुछ भाई बंधु, मित्र, गुरुजन तो समय से पहले ही। इस मृत्युलोक का गहरा शॉकिंग अहसास इन पलों में हुआ था। जीवन की नश्वरता का गहरा तत्वबोध इन क्षणों में हुआ था। इंसान क्या, हमें याद है घर में हमारी प्यारी बिल्ली को जब घर के कुत्ते ने ही मार डाला था, अपना प्यारी गाय अचानक चल बसी थी या सड़क पर दुर्घटना में पशुओं को असामयिक इस देह से अलग होते देखा तो, बहुत की गहरे प्रश्न कौंधे थे जेहन में कि इस नश्वर जीवन का परमसत्य क्या है, जहाँ मृत्यु, वियोग-वछोह, दुःख, पीड़ा आदि गौण हो जाते हों, इनका उपचार मिल जाता हो। एक शाश्वत जीवन की खोज का जन्म इन पलों में हुआ था।

मित्रो, यह प्रश्न हमारे अध्यात्म के प्रति रुझान का एक बड़ा कारण रहा है। इन प्रश्नों की खोज में, इस नश्वर जीवन में शाश्वत की खोज ने, इस मृत्यु लोक में अमरता की संभाव्यता के दर्शन की पिपासा ने हमें अध्यात्म मार्ग में प्रवृत्त किया है। और यह हमारे विचार में हर संवेदनशील व्यक्ति की कहानी है। प्राय़ः जब कोई अपना बिछुड़ता है तो शमशान घाट पर हर व्यक्ति के ऊपर शमशान वैराग्य तो छा ही जाता है। जीवन की नश्वता का गहरा बोध इन पलों में होता है। यह बात दूसरी है कि कुछ समय बाद फिर जीवन पुराने ढर्रे पर आ जाता है और जीवन-मरण के प्रश्न, एक शाश्वत जीवन की अभिलाषा कहीं गौण हो जाती है।

लेकिन क्या अच्छा होता कि शमशान वैराग्य की लौ आगे भी सुलगती रहती, जीवन का एक हिस्सा बन जाती। व्यक्ति को हर पल जीवन की नश्वरता को बोध होता रहता और वह इसके अनावश्यक पहलुओं में न उलझकर एक सार्थक जीवन जीता। यह प्राय़ः नहीं हो पाता। लेकिन कोरोना काल ने इसे संभव कर दिखाया है। यह एक कटु सत्य है लेकिन इस विकट काल ने जीवन में नश्वरता का अहसास स्थायी सा कर दिया है। जब यदा-कदा कोई अपना अचानक छोड़कर जा रहा हो या अपने ही जीवन की कोरोना की चपेट में आने की नौवत आ रही हो, तो बार-बार विस्मृत कटु सत्य कौंधता है और सोचने के लिए मजबूर कर देता है।

भगवान करे कोरोना काल के ये दुखद पल जल्द ही खत्म हो जाएं और मानवीय जीवन इसके घातक शिकंजे से बाहर आ जाए। आम जीवन पटरी पर सरपट आगे बढ़े, सामाजिक-राष्ट्रीय जीवन विकास पथ पर अग्रसर हो, समूची मानवता स्वस्थ एवं सुरक्षित हो अमन-चैन से रहे। इस विकट काल में मिल रही अमूल्य सीख व सवकों को जीवन में धारण कर हम सभी एक स्वस्थ, सुखी, खुशहाल और उज्जवल भविष्य की ओर बढ़ें।

ओम शाँति, शाँति, शाँति।।

शनिवार, 29 मई 2021

शाश्वत जीवन की अकथ कहानी

                                             कीमत कितने जन्म, युगों है इसने चुकाई


सागर की शांत लहरों को देख,

कहाँ समझ आती है इसकी अतल गहराई।


घाटी से नीले आसमान को निहारते हुए,

कहाँ समझ आता है इसका विस्तार अनन्त।


जंगल के हरे सौंदर्य को दूर से निहारते,

कहाँ समझ आती है उसकी बीहड़ सच्चाई।


ऐसे ही एक शाँत-सौम्य, धीर-गंभीर, सरल-सह्दय रुह को देख,

कहाँ समझ आती है उसकी अथक गहराई, अनन्त विस्तार और बीहड़ सच्चाई।


उसकी सरलता-तरलता, सहजता-फक्कड़पन, वितरागिता, समता-स्थिरता देख,

कहाँ समझ आती है हिमालय से भी उत्तुंग उसके व्यक्तित्व की ऊँचाई।


कितने दुःख, कितने झंझावत, कितने आघात, कितने प्रहार खाकर-सहकर,

पहुँची है यह रुह आज चेतना के शिखर पर, लिए अंतरतम की वह गहराई।


जहाँ शाँति, समता, स्थिरता, निर्दन्दता, निश्चिंतता बसती है हर पल,

कितनी क्राँति, कितनी अशाँति, कितने मंजर, कितने संघर्ष के बाद,

पहुँची है वह सर्वस्व दाँव पर लगा, एकाँतिक निष्ठा के बूते इस मुकाम पर,

जिसकी कीमत हर पल, हर दिन, हर जन्म है युगों उसने भरपूर चुकाई।।

चुनींदी पोस्ट

प्रबुद्ध शिक्षक, जाग्रत आचार्य

            लोकतंत्र के सजग प्रहरी – भविष्य की आस सुनहरी    आज हम ऐसे विषम दौर से गुजर रहे हैं, जब लोकतंत्र के सभी स्तम्...