बुधवार, 16 दिसंबर 2020

शिमला के आसपास के दर्शनीय स्थल

                                 शिमला से कुफरी, चैयल, नारकण्डा, मशोवरा और सराहन

शिमला हिमालय की वादियों में

शिमला के बाहर आस-पास घूमने के कुछ बेहतरीन स्थल हैं, जहाँ हिमालय की वादियों में भ्रमण का आनन्द लिया जा सकता है। एडवांस्ड स्टडी में रहते हुए प्रायः एक माह का स्पैल पूरा होने पर हम अपने साथियों के साथ एक टैक्सी हायर कर इनका अवलोकन करते रहे। इसमें कुफरी, चैयल, मशोबरा, नारकण्डा, हाटू पीक, सराहन भीमाकाली मंदिर आदि उल्लेखनीय हैं, जो एक-दो दिन में आसानी से कवर हो जाते हैं। यहाँ शिमला के ग्रामीण आँचल में हो रहे खेती एवं बागवानी के प्रयोगों की एक झलक उठा सकते हैं। प्रकृति के वैभव को समेटे यहाँ की हिमालयन वादियों के बीच यात्रा सदैव रोमाँचक अनुभव रहता है और ज्ञानबर्धक भी।

फूलों से आच्छादित सेब के पेड़

ग्रामीण शिमला की ओर शिमला शहर से बाहर निकलने के दो रास्ते हैं। एक लक्कड़ बाजार से होकर। विक्टरी टन्नल को पार करते ही थोड़ी देर में लक्कड़ बाजार बस स्टैंड आता है, इसके आगे कुछ ही समय में सफर एक पुल के नीचे से होकर गुजरता है। आगे आता है शिमला का इंदिरा गाँधी मेडिकल कालेज एवं हॉस्पिटल। यहाँ तक व इसके थोड़ा आगे संजोली तक राजधानी की बढ़ती आबादी के दबाब को अनुभव किया जा सकता है। बेतरतीव भवन निर्माण, ढलान में भी बिल्डिंग के ऊपर बिल्डिंग खड़ी करने का चलन, सबकुछ शिमला के प्राकृतिक सौंदर्य पर तुषारापात करता प्रतीत होता है। भवन निर्माण और शहर की प्लानिंग के संदर्भ में सरकार एवं जनता के बीच किसी मानक रोड़मैप का न होना कचोटता है।

दूसरा मार्ग पुराने बस स्टैंड से होकर आगे सचिवालय भवन से होकर शिमला के सघन बनप्रदेश से गुजरता है। बन विभाग द्वारा संरक्षित इस क्षेत्र से सफर में शिमला के प्राकृतिक सौंदर्य की झलक मिलती है, कुछ पल शांति-सुकून के गुजरते हैं। इस दूरदर्शिता के लिए बन विभाग एवं सरकार के प्रति आभार के भाव फूटते हैं। इसी राह पर प्रतिष्ठित लेडीज सेंट बीड कालेज पड़ता है और इसके वायीं ओर से मोटर मार्ग जाखू मंदिर के लिए जाता है।

जाखू मंदिर, शिमला, हनुमान बजरंगबली

इसको पार करते ही संजोली क्षेत्र में प्रवेश होता है और फिर होते हैं ढलान के ऊपर कंक्रीट के जंगल के दर्शन, जो प्रकृति प्रेमी को व्यथित करते हैं। कई संजौली को शिमला का दिल कहते हैं, लेकिन बिना हरियाली, स्वस्थ आवोहवा के यह दिल कितने दिन धड़केगा और शिमला को स्वस्थ रखेगा, विचारणीय है। विषय गंभीर है, इस पर अधिक चर्चा न करते हुए आगे बढ़ते हैं। संजोली को पार करते ही आगे मानवीय हस्तक्षेप कम हो जाता है। दायीं ओर ग्रीन वैली के दर्शन होते हैं, जिसे एशिया का सबसे घना देवदार का जंगल माना जाता है। निश्चित ही इसमें जंगली जानवर बहुतायत में विचरण करते होंगे। सड़क पर भी हम कई बार बाघ के दर्शन कर चुके हैं। यहाँ हिरण, चकोर, जंगली मुर्गा, मोनाल आदि के दर्शन तो सामान्य घटना है। यहाँ कुछ पल रुककर कुछ यादगार फोटो के साथ आगे बढ़ा जा सकता है। 

इसके बाद आता है कुफरी, जो शिमला के समीपस्थ एक लोकप्रिय स्थल है, क्योंकि अधिक ऊँचाई (8924 फीट) पर होने के कारण यहाँ शिमला से अधिक बर्फ गिरती है तथा ठण्ड भी अधिक रहती है। यहाँ पर सीढ़ीदार खेतों में घूमना, स्लोप में फिसलना पर्यटकों को प्रकृति की गोद में कुछ पल खोने का मौका देता है।

बर्फ से ढकी कुफरी की ढलानें

इसके साथ यहाँ घोडे या खच्चर पर बैठकर यहाँ की यात्रा का आनन्द लिया जा सकता है। ऊपर पहाड़ी पर एक चिडियाघर भी है, जिसमें बाघ, तेंदुआ, काला भालू, ब्राउन बीयर, जंगली बकरी तथा अन्य पक्षी पर्याप्त प्राकृतिक परिवेश में रखे गए हैं। यहाँ पर ऊँचाई के बाँज बृक्षों के दर्शन किए जा सकते हैं, जिनके पत्ते मोटे, चमकीले, डार्क ग्रीन तथा कंटीले होते हैं। ऊँचाई के साथ बाँज के वृक्षों में कैसे परिवर्तन होता है, यहाँ देखा जा सकता है। अंदर चाय-नाश्ता के भी ठिकाने हैं। कुल मिलाकर कुफरी का टूर परिवार के साथ पैसा बसूल टूर साबित होता है। यदा-कदा यहाँ फिल्म शूटिंग के सीन भी देखे जा सकते हैं। बाहर गिफ्ट शॉप्स से कुछ यादगार चीजें खरीदीं जा सकती हैं।

कुफरी से नीचे उतरकर दायीं ओर शिमला के समानान्तर रास्ता चैयल की ओऱ जाता है। जहाँ कई दर्शनीय स्थल हैं। रास्ता देवदार के घने जंगलों से होकर गुजरता है। बीच-बीच में रास्ता धार (रिज) से होकर गुजरता है, ऐसे में दायीं ओर शिमला के दर्शन होते हैं और वायीं ओर जंगल विरल होने पर नीचे गाँव और दूर की घाटियोँ के दर्शन होते हैं। इस राह में चाय-नाश्ते के भी कुछ बेहतरीन ठिकाने मिलते हैं, जहाँ पर आवश्यकता पड़ने पर तरोजाजा हुआ जा सकता है।

चैयल पैलैस का विहंगम दृश्य

बीच में चैयल की पहाड़ियाँ दिखना शुरु हो जाती हैं। नीचे ढलान में सेब के बाग मिलते हैं। कुछ ही देर में घने बुराँश-देवदार के जंगल के बीच मुख्यमार्ग से रास्ता वाएं मुड़कर चैयल पैलेस की ओर बढ़ता है। थोड़ी ही देर में चैयल पैलेस आता है, जो अंग्रेजों के समय पटियाला के राजघराने का गर्मी का विश्रामगृह हुआ करता था। आज इसे एक हेरिटेज होटल में कन्वर्ट किया गया है। इसके अंदर सुंदर म्यूजियम है तो बाहर मैदान में चहलकदमी के लिए बेहतरीन लॉन और रुकने के ठिकाने। निसंदेह रुप में यहाँ परिवार के साथ कुछ समय अन्दर-बाहर शाही शानो-शौकत का अवलोकन व बजट के हिसाब से खर्च करते हुए विताए जा सकते हैं।

इसके आगे सिद्ध बाबा का मंदिर पड़ता है। माना जाता है कि बाबा महाराजा भूपिन्द्र सिंह के सपने में आते हैं और निर्देश देते हैं कि इस स्थान पर मैंने ध्यान किया था। महाराजा यहाँ पर मंदिर बनाते हैं। हमें इस मंदिर में एक औघड़ बाबाजी मिले थे। काफी पहुँचे हुए लग रहे थे। धुनी रमा कर बैठे थे। हमें चाय पिलाते हैं, कुशल-क्षेम पूछते हैं और कुछ व्यवहारिक ज्ञान की बातें बताकर विदा करते हैं। यहाँ से थोड़ा आगे क्रिकेट स्टेडियम पड़ता है, जिसे विश्व का सबसे अधिक ऊँचाई (7380 फीट) पर बना स्टेडियम माना जाता है। इसे पटियाला के महाराजा ने 1893 में बनाया था। आज इस मैदान का उपयोग चैयल मिलिट्री स्कूल के बच्चों के खेल के मैदान के रुप में होता है तथा सेना द्वारा इसका रख रखाब किया जाता है।

इसके थोड़ी दूरी पर काली का टिबा या काली मंदिर आता है, जो पहाड़ी की चोटी पर स्थित एक शांत-एकाँत स्थल है। चीड़, देवदार और बाँज के घने जंगल से होकर यहाँ का रास्ता जाता है, पहाड़ी के कौने पर सबसे ऊँचे स्थान पर बने इस मंदिर से चारों ओऱ का विहंगम नजारा देखते ही बनता है। साफ मौसम में यहाँ से चूड़ चांदनी और शिवालिक श्रृंखलाओं का नजारा दर्शनीय रहता है। यहाँ से हम बापस शाम तक 44 किमी दूरी तय करते हुए शिमला आते हैं। चैयल से दूसरा रास्ता सोलन की ओऱ जाता है, जो यहाँ से 45 किमी पड़ता है। यदि घूम कर आना हो तो इस रास्ते से भी शिमला आया जा सकता है।

कुफरी के पहले ही नीचे से एक रास्ता मशोबरा के लिए जाता है, जो आगे नालदेरा से होते हुए तता पानी तक पहुँचता है। इस रूट पर एक दिन का टूर प्लान हो सकता है। ततापानी में सतलुज नदी के बर्फिले जल के किनारे गर्म पानी के स्रोत थे, जो अब सतलुज नदी पर डैम बनने के कारण जल मग्न हो गए हैं, लेकिन इसके रुके पानी में बोटिंग से लेकर वार्टर स्पोर्टस का आनन्द लिया जा सकता है। साथ ही नदी के उपर रास्ते में बने तप्त जलकुण्डों में स्नान का लुत्फ उठाया जा सकता है। नालदेरा में पहाड़ों का सबसे पुराना और बेहतरीन गोल्फ कोर्स है। इसके अतिरिक्त यहाँ देवदार के घने वृक्षों के बीच पार्क बना हुआ है, जहाँ परिवार के साथ कुछ पल मौज-मस्ती के बिताए जा सकते हैं। राह में पड़ते स्थल मशोवरा में बागवानी से सम्बन्धित शोध संस्थान हैं। शिमला शहर के लिए फल एवं सब्जी का यह मुख्य आपूर्तिकर्ता है। इसके आसपास वाइल्ड़ फलावर हाउस, महासू देवता मंदिर तथा रिजर्व वन अभ्यारण्य पधार सकते हैं और समय हो तो यहाँ एडवेंचर एक्टिविटीज में भाग लिया जा सकता है। ततापानी जहाँ शिमला से लगभग 50 किमी की दूरी पर है, नालदेरा 23 किमी तथा मशोवरा 10 किमी की दूरी पर स्थित है।

जुलाई-अगस्त माह में तैयार सेब की फसल

कुफरी से आगे नारकण्डा की ओर रास्ता जाता है, जो मार्ग में ठियोग, मतियाना आदि कस्बों से होकर गुजरता है। यह रास्ता भी देवदार के घने जंगलों के बीच लुकाछिपी करते हुए पार होता है। एक मोड़ के बाद जंगल कम हो जाते हैं और सामने दिखती हैं कई घाटियाँ, जिनमें सेब के बगानों को बहुतायत में देखा जा सकता है। इन पर लगे सफेद और हरे रंग के नेट नए पर्यटकों में कौतुक जगाते हैं। वास्तव में ये सेब के फल को औलों से बचाने के लिए बगीचों के ऊपर ओढ़ा गया आच्छादन है। जिस इलाके में औलावृष्टि अधिक होती है, वहाँ इनका उपयोग किया जाता है। अन्यथा बागवानों की साल भर की मेहनत पर कुछ ही मिनटों में पानी फिर सकता है।

इस राह पर मतियाना में प्रायः हम भोजन के लिए रुकते रहे हैं। यह इलाका फल व सब्जि उत्पादन का एक मुख्य केंद्र है। इनके साथ इलाके की आर्थिकी में सुधार हुआ है, लेकिन साथ ही रसायनिक खाद एवं विषैले कीटनाशकों के बहुतायत में प्रयोग के साथ फल एवं सब्जियों के साथ जमीं पर भी इसके दुष्प्रभाव नजर आने लगे हैं। इसमें मेहनत करते किसानों पर भी इसकी घातक मार के समाचार आ चुके हैं। यह सब देखते हुए निसंदेह रुप में ऑर्गेनिक खेती औऱ बागवानी की ओर गंभीरता से बिचार करने का समय आ गया है। यह एक इलाके का नहीं पूरे प्रदेश एवं देश यहाँ तक कि पूरे विश्व पर लागू होता है, जहाँ जाने अनजाने ऐसे प्रयोग धड्ड़ले से चल रहे हैं।

औलों से बचाव के लिए नेट से ढके सेब को बागान

यहाँ से आगे नारकण्डा का रास्ता एक और पहाड़ों की गोद तो दूसरी ओर सेब, चैरी के बगीचों के बीच आगे बढ़ता है। मई माह में हम यहाँ पर पेड़ों में पीली और सुर्ख लाल चैरी के फलों का अवलोकन कर चुके हैं, जो देखने में बहुत सुंदर लगती हैं हालाँकि सेब तब कच्चे ही थे। सड़कों पर छोटे बक्सों में सजाकर किसानों को इनका विक्रय करते देखा। ऐसे दृश्यों के बीच हम नारकण्डा पहुँचते हैं। बीच में पानी की किल्लत की मार इस इलाके में दिखी। इसके लिए दूर-दूर से पाईपों से अपने खेत तथा बगीचों तक जल की व्यवस्था करते तथा बूंद-बूंद पानी का नियोजन करते किसानों को देखा। कितने पाईपों के जाल इस रास्ते में बिछे मिले।

नारकण्डा में फिर देवदार के सघन बन शुरु हो जाते हैं। यहाँ पर दायीं ओऱ से रास्ता हाटू पीक की ओर जाता है, जो स्वयं में एक बहुत ही रोमाँचक तथा नयनाभिराम यात्रा का अहसास देता है। रास्ते भर देवदार बुराँश के घने जंगल मिलते हैं और ऊपर हाईट के समीप ऊँचाई के बाँज वन। एक दम शिखर पर पेड़ कम हो जाते हैं, तथा बुग्याल अधिक। इन्हीं के बीच नवनिर्मित हाटू मंदिर के दर्शन किए, जो काली माता को समर्पित है। यहाँ पहाड़ी शैली में बना यह सुंदर मंदिर बहुत बारीक लकड़ी की नक्काशी लिए है, रामायण-महाभारत कालीन दृश्यों के साथ विविध देवी देवताओं के चित्र उत्कीर्ण हैं।

हाटू पीक पर स्थित शक्ति पीठ

मालूम हो कि हाटू पीक शिमला के आसपास 11,152 फीट की ऊँचाई पर सबसे ऊँचा बिंदु है। यहाँ पास के टीले पर चढ़कर चारों और घाटियों, दूर गाँव, खेत बगानों और बर्फ की चोटियों के नयनाभिराम दर्शन किए जा सकते हैं। नारकण्डा से ही एक रास्ता वायीं ओर नीचे उतरता है, जो आगे किन्नौर की ओर बढ़ता है। इसकी राह में चार-पाँच घण्टे बाद रामपुर शहर पड़ता है, जिसके थोड़ा आगे रास्ता जेओरी से सराहन गाँव की ओर मुड़ता है, जिसके एक छोर पर पड़ता है भीमाकाली मंदिर का भव्य परिसर।

नारकण्डा से रास्ता घने देवदार के जंगल के बीच ऩीचे उतरता है, रास्ते में फलों के बगीचे शुरु हो जाते हैं। इनके आगे दायीं ओर नीले रंग के फूलों से आच्छादित कई पेड़ कतारबद्ध मिले। काफी देर तक इनका सान्निध्य सफर में एक शीतल अहसास घोलता रहा। संभवतः ये मिल्ट्री के जवानों द्वारा रोपे गए लगे, जिनका कैंप आगे रास्ते में मिला। इसके बाद फिर इनके दर्शन दुर्लभ हो जाते हैं। इसी रास्ते में नीचे सतलुज नदी की घुमावदार रेखा के दर्शन होते हैं, जो कुछ ही देर में नीचे पास हो जाती हैं। रास्ता इसके किनारे आगे बढता है। इसका मटमेला रंग और इसका तेज बहाव पीछे ग्लेशियरों से इसके पिघल कर तैयार होते रुप को दर्शाता है। निसंदेह रुप में यह बहुत ठण्डा होगा, ऐसा हम अनुमान लगाते रहे, जैसा कि हमारे इलाके में ब्यास नदी के साथ होता है।

इसी तरह हम रामपुर शहर पहुँचते हैं। यहाँ रात को सतलुज नदी के किनारे एक धर्मशाला में रुकते हैं। सुबह सतलुज के गर्जन तर्जन करते तेज बहाव को देखते रहे, उस पार चट्टानीं टीले पर लोगों के घर को देखकर आश्चर्य करते रहे कि लोग कहाँ-कहाँ बस सकते हैं। यहाँ से चाय नाश्ता कर सराहन की ओर चल पड़े। बस रामपुर-सराहन वाया ज्यूरी थी। आगे का रास्ता चट्टानों को काटकर बनाया गया था, जो पहाड़ों के खालिस चट्टानी सत्य से हमें रुबरु करा रहा था। ज्यूरी से बस दायं मुड़ जाती है। आगे का रास्ता हरा भरा और पर्याप्त उर्बर लगा। रास्ते में ही आर्मी का कैंप मिला, इसकी व्यवस्थित संरचना, अनुशासन सदैव से ही मन में श्रद्धा का भाव जगाता है। कुछ ही देर में हम सराहन बस स्टैंड पहुँच चुके थे।

यहाँ सामने बर्फ से ढके किन्नर कैलाश के दिव्य दर्शन होते हैं। थोड़ा पैदल चलने के बाद हम भीमाकाली मंदिर के परिसर में थे। अंदर के प्रवेश द्वार पर हाथ पैर धोकर प्रसाद भेंट लेकर माता के द्वार में प्रवेश करते हैं। तीन-चार मंजिला यह मंदिर अद्भुत नक्काशी और बास्तुशिल्प का नमूना है, जो स्वयं में अद्वितीय प्रतीत होता है। भीमाकाली राजपरिवार की कुलदेवी भी हैं। इस क्षेत्र में ही नहीं बल्कि पूरे हिमाचल में शक्ति उपासकों के बीच इनकी विशिष्ट मान्यता है। असुरों के संहार के लिए इनका अवतरण काली रुप में हुआ था। दुर्गासप्तशती में भगवती का आश्वासन है कि हर युग में देवताओं अर्थात सज्जनों की रक्षा तथा असुरों अर्थात दुष्टों के संहार के लिए मैं देवताओं की सम्वेत पुकार पर अवतरित होउँगी।

भीमाकील मंदिर, सराहन

मंदिर के बहुमंजिले भवन में तीसरी मंजिल से अंदर प्रवेश हुआ, भीमाकाली के दर्शन होते हैं, अपना भाव निवेदन के साथ यहाँ बाहर परिसर में आते हैं। यहाँ गुलाब के सुंदर फूलों के दर्शन होते हैं, साफ सुथरे परिसर में भवनों का अवलोकन करते हैं। यहाँ की कैंटीन में पेट पूजा करते हैं बाहर निकल कर परिक्रमा पथ पर सराहन गाँव के दर्शन करते हैं। रास्ते में सेब के नए बगान दिखे, कुछ घरों के बाहर जापानी फल के पेड़ लगे मिले। यहाँ से पीछे हरे-भरे देवदार-बाँज के जंगल शीतल अनुभव दे रहे थे। परिक्रमा पूरा कर हम बापिसी में मंदिर परिसर के बाहर मैदान में चल रहे भण्डारे में भोजन-प्रसाद ग्रहण करते हैं और बापिसी की बस में बैठकर अपने गन्तव्य शिमला की ओर उसी रास्ते से घर आते हैं।

इस तरह शिमला में रहते हुए 1-2 दिन में आसपास के इन स्थलों का भ्रमण और अवलोकन किया जा सकता है। इनके अतिरिक्त और भी कई स्थल हैं, जिनको इस सूचि में जोड़ा जा सकता है।

शिमला की ऐतिहासिक विरासत संजोए दर्शनीय स्थल, IIAS, SHIMLA,  भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला

भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान (IIAS) Shimla


रविवार, 29 नवंबर 2020

गढ़वाल हिमालय की गोद में बसा देहरादून

 हिमालय के आँचल में बसा देहरादून

Dehradun Valley from Landour, By Paul Hamilton, Wiki

उत्तराखण्ड की राजधानी देहरादून गढ़वाल हिमालय की तराई में बसा एक महत्वपूर्ण शहर है, जो राष्ट्रीय महत्व के कई शिक्षण एवं प्रशिक्षण संस्थानों के लिए जाना जाता है। शहर बहुत पुरातन है। द्रोण नगरी के नाम से माना जाने वाला देहरादून अपना पौराणिक इतिहास लिए हुए है। सहस्रधारा की गुफा में स्थित द्रोणाचार्य की गुफा व उनका विग्रह आज भी इसकी गवाही देते हैं।

द्रोणाचार्य गुफा मंदिर, सहस्रधारा

टपकेश्वर में स्थित गुफा में माना जाता है कि द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा का जन्म हुआ था। आज भी यहाँ की गुफा से गिरता जल शिवलिंग का अभिषेक करता है। इसी परम्परा में भारतीय सैन्य संस्थान (IMA - इंडियन मिलिट्री एकादमी) की स्थापना देहरादून में की गई, जहाँ से भारतीय सेना के लिए कमिशन्ड अफसर तैयार किए जाते हैं। इसके साथ यहाँ कई मिलिट्री स्कूल और कालेज भी हैं। गढ़ी कैंट में पूरी आर्मी की छावनी यहाँ स्थित है।

देहरादून का नाम सिखों के गुरु राम राय से भी जुडा हुआ है। जब वे पंजाब से आकर इस क्षेत्र में बसे तो उनके डेरों के नाम पर यहाँ का नाम देहरादून पड़ा। आज भी गुरु रामराय के आश्रम के साथ इनकी स्थापित शैक्षणिक संस्थाओं की भरमार है। जिसमें स्कूल, कालेज, युनिवर्सिटी से लेकर मेडिक्ल संस्थान एवं अस्पताल यहाँ मौजूद हैं।

गढ़वाल तथा शिवालिक पहाड़ों की तराई पर बसे होने के कारण यहाँ की आवोहवा न अधिक गर्म है और न अधिक ठण्डी। साथ ही घने वनों के बीच बसे होने के कारण प्रारम्भ में इस जगह को स्वास्थ्यबर्धक एवं बेहतरीन माना गया। हालाँकि राजधानी बनने के बाद यहाँ आबादी का दबाव बढ़  गया है तथा प्रदूषण से लेकर घिच-पिच आबादी और ट्रैफिक समस्याएं आए दिन सरदर्द बनती रहती हैं। हालाँकि कई फ्लाईओवर और वाईपास बनने से इससे निजात पाने के प्रयास जोरों से चल रहे हैं।

इसके बावजूद देहरादून में कई दर्शनीय स्थल हैं, जिन्हें व्यक्ति दो-तीन दिन में देख सकता है। सहस्रधारा का जिक्र पहले हो चुका, जो शहर के बाहर मसूरी बाईपास पर रायपुर से लगभग 8 किमी दूरी पर स्थित है। यहाँ गुफा व मंदिरों के अतिरिक्त सहस्रों धाराओं में बह रहे झरनों का प्राकृतिक दृश्य देखने लायक रहता है, जिसके आधार पर इसका नाम सहस्रधारा पड़ा है।

सहस्रधारा

झरनों के बीच कुछ गुफाएं भी हैं, जिनमें फिसलने से बचते हए आनन्द लिया जा सकता है। नीचे नाला बहता है, जिसको रोककर स्नान योग्य छोटी-छोटी झीलें बनाई गई हैं, जिसमें डूबकी का लुत्फ गर्मियों में उठाया जा सकता है। इसके तट पर गंधक का जलस्रोत भी है, जिसका जल चर्म रोगों के लिए उपयोगी माना जाता है।

यहीं से बापसी में मसूरी बाईपास से होकर सीधे साईं मंदिर आता है, जहाँ के शांत-एकांत वातावरण में कुछ भक्तिमय पल बिताए जा सकते हैं। इसके साथ ही बौद्ध गोम्पा के दर्शन किए जा सकते हैं, जिसमें कालेज भी है। सांईं मंदिर के आगे श्रीअरविंद आश्रम भी है, जहाँ ध्यान के कुछ पल विताए जा सकते हैं। इसके आगे माता आनन्दमयी का आश्रम है, माना जाता है कि माता आनन्दमयी ने उत्तराखण्ड में सबसे पहले इस स्थल पर पदार्पण किया था, जो उनकी कई लीलाओं का साक्षी रहा है। इस मार्ग पर नीचे किशनपुर चौराहे के आगे रामकृष्ण मिशन पड़ता है। यहाँ के आध्यात्मिक ऊर्जा से चार्ज शाँत परिसर में मंदिर दर्शन के बाद पुस्तकों का अवलोकन किया जा सकता है, जिसमें रामकृष्ण परमहंस व स्वामी विवेकानन्द की पुस्तकें उपलब्ध रहती हैं। यहाँ पुस्तकाय भी है, जिसमें बैठकर स्वाध्याय का लाभ लिया जा सकता है।

रामकृष्ण मंदिर

यहाँ से थोड़ा नीचे दायीं ओर लिंक रोड़ से टपकेश्वर पहुंचा जा सकता है जो तमसा नदी पर बसा है। इसी के पीछे कुछ किमी पर गुच्चु पानी पड़ता है, जिसे रोबर्ज केव भी कहा जाता है। अंग्रेजों के समय यह सुल्ताना डाकू के छिपने का ठिकाना था। ऊपर से खुले गुफनुमा मार्ग से इसके अंदर प्रवेश होता है। प्रायः घुटनों तक पानी के बीच इसमें चलना पड़ता है, जो बरसात में बढ़ जाता है। अंदर बैठने के कई ठिकाने हैं और जल-पान की व्यवस्था भी। कुछ स्टुडेंटस यहाँ के एकांत स्थल में परीक्षा की तैयारी करते देखे जा सकते हैं और साथ ही प्रेमी जोड़ों के लिए भी यह मिलने का एक आदर्श स्थल रहता है। अंदर 2-3 किमी तक पैदल चलते हुए दूसरी ओर से बाहर निकलने का रास्ता है। लेकिन इस एडवेंचर को ग्रुप में ही करना उचित रहता है, अकेले में व्यक्ति भटक सकता है और घबराहट में परेशान भी हो सकता है।

गुच्चु पानी गुफा प्रवेश

यहीं से वाहन से आर्मी केंटोनमेंट को पार करते हुए बन अनुसंधान संस्थान (FIR-द फोरेस्ट रिसर्च इंस्टीच्यूट) आता है, जिसे अब डीम्ड-यूनिवर्सिटी का दर्जा दिया गया है। वन से सम्बन्धित यह भारत का सबसे बड़ा प्रशिक्षण संस्थान है और अधिकाँश फोरेस्ट अफसर यहाँ से तैयार किए गए हैं। इसका परिसर 450 एकड़ भूमि में फैला हुआ है। ग्रीको रोमन शैली में बना इसका भवन बास्तुशिल्प का एक उत्कृष्ट नमूना है, जो बहुत भव्य लगता है। इसमें वनों का बेहतरीन म्यूजियम बना हुआ है, जिसमें 700 साल पुराने वृक्ष के तने को तक संरक्षित रखा गया है। कुछ फीस के साथ यहाँ के हरे-भरे परिसर में यादगार पल बिताए जा सकते हैं। इसी के आगे आईएमए (इंडियन मिलिट्री एकेडमी) है, जिसके बाहर से दर्शन किए जा सकते हैं।

भारतीय सैन्य संस्थान (IMA)

इसके साथ देहरादून में तमाम राष्ट्रीय महत्व के संस्थान मौजूद हैं, जिन्हें अपनी रुचि के अनुसार भ्रमण किया जा सकता है। जैसे यूकोस्ट, सर्वे ऑफ इंडिया, वाइल्ड लाइफ इंस्टीच्यूट ऑफ इंडिया, वाडिया इंस्टीच्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी, ओएनजीसी, इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ रिमोट सेंसिंग, नेशनल इंस्टीच्यूट ऑफ विजुअली हैंडिकेप (एनआईवीएच), बोटेनिकल सर्वे ऑफ इंडिया, सेंट्रल सोइल एण्ड वाटर कंजर्वेशन रिसर्च एंड ट्रेनिंग इंस्टीच्यूट आदि। इसके साथ कई सरकारी तथा प्राईवेट विश्वविद्यालय एवं कॉलेज यहाँ स्थापित हैं, जैसे – दून विश्वविद्यालय, इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ पैट्रोलियम, उत्तराँचल यूनिवर्सिटी, उत्तराँचल टेक्निकल यूनिवर्सिटी, ग्राफिक ईरा यूनिवर्सिटी, आईएमएस यूनिसन यूनिवर्सिटी, डीआईटी, जी हिमगिरि यूनिवर्सिटी, पेट्रोलियम यूनिवर्सिटी, द राष्ट्रीय इंडियन मिलिट्री कालेज (आरआईएमसी), बीएफआईटी, डीएवी कालेज आदि।

घंटाघर - देहरादून का केंद्रिय स्थल


खरीददारी के लिए पलटन बाजार यहाँ की प्रमुख मार्केट हैं, जहाँ वीक-एंड में काफी भीड़ और हलचल रहती है। यहाँ पर घरेलु उपयोग की लगभग हर बस्तु उपलब्ध हो जाती है। यदि समय बिताना हो तो गाँधी पार्क में पेड़ों की छाया तले आराम से समय बिताया जा सकता है, जिसके बग्ल में पैरेड ग्राउंड है, जहाँ आए दिन कई तरह के मेले, उत्सब चलते रहते हैं। यहीं पर प्रेस क्लब के साथ एक बड़ी लाइब्रेरी भी है, जहाँ पुस्तक प्रेमी सदस्य बनकर अपना ज्ञान बढ़ा सकते हैं। इसके आस पास खाने-पीने के तमाम विकल्प उपलब्ध हैं। रेड़ी से लेकर ढावे एवं रेस्टोरेंट में आपके खानी-पीने की हर जरुरत पूरी हो जाती है।

बुद्धा टेम्पल, क्लेमेंटाउन

देहरादून का एक विशेष आकर्षण है बुद्धा टेम्पल, जिसका जिक्र किए बिना शायद देहरादून की यात्रा अधूरी मानी जाएगी। यह देहरादून के दक्षिणी छोर में क्लेमेंनटाउन में स्थित है, जहाँ बुद्ध भगवान का भव्य मंदिर है और एक तिबतन मार्केट भी। इसके पीछे साल का घना जंगल है। यहाँ कुछ पल शांति के साथ बिताए जा सकते हैं।

आईएसबीटी देहदरादून में बसों की बेहतरीन सर्विस रहती है, जहाँ से उत्तराखण्ड के किसी भी कौने तथा दूसरे प्राँतों के लिए बस उपलब्ध रहती हैं। यहाँ से मसूरी की पहाड़ियों के दर्शन सहज ही किए जा सकते हैं। रात को इसकी टिमटिमाटी रोशनी बहुत खूबसूरत लगती है। बर्फ पड़ने पर देहरादून से इसके सुन्दर नजारे देखे जा सकते हैं।

इसके अतिरिक्त देहरादून के थोड़ा बाहर हरिद्वार सड़क पर लक्ष्मण सिद्धबली मंदिर, आगे लच्छीवाला पिकनिक स्थल दर्शनीय हैं।

लच्छीवाला

मसूरी रोड़ पर माल्सी डीयर पार्क, क्रिश्चियन रिट्रीट सेंटर पड़ते हैं। ट्रैकिंग प्रेमी यहाँ से थोड़ी आगे शेखर फॉल की पैदल यात्रा कर सकते हैं, जो देहरादून में जल का एक प्रमुख स्रोत है। रायपुर साईड में मालदेवता भी दर्शनीय स्थल है। सांतला माता का मंदिर भी ट्रेकिंग व तीर्थाटन के हिसाब से एक महत्वपूर्ण पड़ाव है।

देहरादून में पुस्तक प्रेमियों के लिए कई बुक शॉप्स भी हैं, जैसे – बुक वर्ल्ड, इंग्लिश बुक डिपो, रमेश बुक डिपो आदि। लेखकों के लिए विंसर पब्लिकेशन, समय साक्ष्य जैसे प्रकाशन भी यहाँ उपलब्ध हैं। इसके साथ कई एनजीओ यहाँ के परिसर में हैं, जैसे नवधानिया, हेस्को आदि। जो जैविक खेती, बीज एवं जैव विविधता संरक्षण, पर्यावरण संरक्षण एवं ग्रामीण विकास के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं, जिनकी ज्ञानबर्धक जानकारी आप आगे दिए गए लिंक्स में पढ़ सकते हैं।

नवधान्या विद्यापीठ

हेस्को - प्रकृति-पर्यावरण एवं ग्रामीण विकास की अभिवन प्रयोगशाला

ऑर्गेनिक फार्मिंग, जैव विविधता संरक्षण की प्रयोगशाला - नवधान्या विद्यापीठ 

बुधवार, 25 नवंबर 2020

कुम्भनगरी हरिद्वार - कुछ दर्शनीय स्थल

हिमालय के द्वार पर बसी धर्मनगरी - हरिद्वार 

धर्मनगरी के नाम से प्रख्यात हरिद्वार में शायद ही किसी व्यक्ति का वास्ता न पड़ता हो। 6 और 12 साल के अंतराल में महाकुंभ का आयोजन इसकी एक विशेषता है। फिर जीवन के अंतिम पड़ाव के बाद शरीर के अवसान की पूर्णाहुति अस्थि विसर्जन और श्राद्ध-तर्पण आदि के रुप में प्रायः हरिद्वार तीर्थ में ही सम्पन्न होती है। हिमालय में स्थित चारों धामों की यात्रा यहीं से आगे बढ़ती है, जिस कारण इसे हरद्वार या हरिद्वार के नाम से जाना जाता है। निसंदेह रुप में भारतीय संस्कृति व इसके इतिहास की चिरन्तन धारा को समेटे यहाँ के तीर्थ स्थल स्वयं में अनुपम हैं, जिनकी विहंगम यात्रा यहाँ की जा रही है।

इनमें निसंदेह रुप में कनखल सबसे प्राचीन और पौराणिक स्थल है, जहाँ माता सती ने अपने पिता दक्षप्रजापति द्वारा अपने पति शिव के अपमान होने पर हवन कुण्ड में स्वयं को आहुत किया था और फिर शिव के गणों एवं वीरभद्र ने यज्ञ को ध्वंस कर दक्ष प्रजापति का सर कलम कर दिया था और फिर भगवान शिव ने इनके धड़ पर बकरे का सर लगा दिया था। सती माता के जले शरीर को कंधे पर लिए शिव विक्षिप्तावस्था में ताण्डव नर्तन करते हुए पृथ्वी में विचरण करते हैं, चारों ओर प्रलय की स्थिति आ जाती है। तब विष्णु भगवान सुदर्शन चक्र से सत्ती के शरीर को कई खण्डों में अलग करते हैं। जहाँ माता सती के ये अंग गिरते हैं, इन्हें शक्तिपीठ का दर्जा दिया गया। भारतीय परम्परा में ऐसे 51 या 52 शक्तिपीठों की मान्यता है। कनखल दक्षप्रजापति मंदिर गंगाजी की धारा के किनारे शक्तिपीठों के आदि उद्भव स्रोत के रुप में हमें पौराणिक इतिहास का स्मरण कराते हैं, जो हरिद्वार बस स्टैंड से लगभग 4 किमी की दूरी पर स्थित हैं।

कनखल में ही रामकृष्ण मिशन सेवाश्रम पधारने योग्य स्थल है, जिसे स्वामी विवेकानन्द एवं अनके गुरु भाईयों ने साधु, अनाथ एवं गरीब जनता की सेवा-सुश्रुणा के लिए एक आश्रम और चिकित्सालय स्थापित किया था। आज यहाँ पूरा हॉस्पिटल है और साथ ही एक समृद्ध पुस्तकालय के साथ रामकृष्ण आश्रम का मंदिर एवं मठ भी। इससे जुड़े कई रोचक एवं रोमाँचक संस्मरणों को विवेकानन्द साहित्य में पढ़ा जा सकता है। कनखल में ही माँ आनन्दमयी का आश्रम भी स्थित है। माँ आनन्दमयी बंगाल में पैदा हुई एक महान संत थी, जो योग विभूतियों से सम्पन्न थी। देश भर में कई स्थानों पर इनके मंदिर हैं, लेकिन कनखल, हरिद्वार में इनकी समाधि है, जो श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र है।

 इसके आगे सिंहद्वार से नीचे हरिद्वार-दिल्ली मार्ग पर गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय पड़ता है, जिसको आर्यसमाज के महान संत एवं सुधारक स्वामी श्रद्धानन्दजी ने स्थापित किया था। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान तथा बाद में यह विश्वविद्यालय मूर्धन्य साहित्यकारों, पत्रकारों, विचारकों, शिक्षाविदों एवं समाजसेवियों को तैयार करने की उर्बर भूमि रहा है। इसके आगे बहादरावाद सड़क पर गंगनहर के किनारे नवोदित उत्तराखण्ड संस्कृत विश्वविद्यालय स्थापित है, जो संस्कृत एवं आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के अध्ययन, अध्यापन एवं शोध पर केंद्रित है।

सिंहद्वार के पास गंगनहर के उस पार श्रीअरविंद आश्रम स्थित है। यह इतने शाँत एकांत स्थल पर है कि बाहर सड़क के कोलाहल के बीच इसका अंदाजा नहीं लगता, जहाँ इसका छोटा सा पुस्तक विक्रय स्टाल लगा हुआ है। लेकिन अन्दर एक भव्य, बहुत ही सुंदर आश्रम है, जहाँ आश्रम के साधकों के सान्निध्य में बेहतरीन आध्यात्मिक सत्संग एवं मार्गदर्शन पाया जा सकता है।

यही मार्ग उत्तर की ओर सीधा बस स्टैंड तथा रेल्वे स्टेशन की ओर आता है, दोनों लगभग आमने-सामने पास-पास स्थित हैं। यहाँ से उत्तर की ओर 3 किमी की दूरी पर हर-की-पौड़ी पड़ती है, जहाँ तक ऑटो-रिक्शा से आया जा सकता है। यही श्राद्ध-तर्पण, अस्थि विसर्जन का मुख्य स्थल है। मान्यता है कि यहीं पर समुद्र मंथन के बाद अमृत की बूँदे छलकी थीं, जिसके आधार पर यहाँ क्रमशः छः और बारह वर्ष के अन्तराल में अर्ध-कुम्भ और महाकुम्भ का आयोजन किया जाता है। वर्ष 2021 में यहाँ महाकुम्भ का आयोजन प्रस्तावित है। इसके घाट का निर्माण सर्वप्रथम 57 ईसा पूर्व सम्राट विक्रमादित्य द्वारा अपने भाई भर्तृहरि की याद में किया गया माना जाता है, जिन्होंने यहाँ गंगा तट पर जीवन का उत्तरार्ध ध्यान-साधना में बिताया था।

हरकी पौड़ी की सांयकालीन गंगा आरती सुप्रसिद्ध है। शाम को सन्ध्या वेला के समय घंटे, घडियाल और शंख ध्वनियों के बीच प्रज्जवलित दीपों से सजे थालों की श्रृंखला दर्शनीय रहती है। इस भक्तिमय दृश्य के साक्षी बनने व इसमें भाग लेने के लिए नित्यप्रति श्रद्धालुओं की भीड़ लगी रहती है। हरिद्वार पधारा शायद ही कोई दर्शनार्थी इसके दर्शनलाभ से वंचित रहता हो।

हर-की-पौड़ी के आसपास खाने पीने के कुछ बेहतरीन ठिकाने हैं, जिनका जिक्र करना उचित होगा। हर-की-पौड़ी के पास ही मोहन पूरी बाले की दुकान है, जो गर्मागर्म हल्वा, पूरी, कचौड़ी आदि के लिए प्रख्यात है। इसके अंदर मोती बाजार में प्रकाश लोक नाम से लाजवाब लस्सी की दुकान है, जिसका गर्मी के मौसम में विशेष रुप से लुत्फ उठाया जा सकता है। बस स्टैंड के पास त्रिमूर्ति के अंदर गली में गुजराती ढावा भी उल्लेखनीय है, जिसमें महज 50 रुपए में 15-20 व्यंजनों के साथ स्वादिष्ट एवं पौष्टिक गुजराती थाली परोसी जाती है। इसके आस-पास मोतीबाजार में तमाम दुकानें हैं, जहाँ से घर के लिए रुद्राक्ष, शंख, कंठी, मालाएं जैसी धार्मिक बस्तुएं प्रतीक एवं उपहार स्वरुप खरीदी जा सकती हैं।

हर-की-पौड़ी के दोनों और 2-3 किमी के फासले पर दो पहाड़ियाँ हैं, बीच में गंगाजी बहती हैं। दायीं ओर की पहाड़ी पर मनसा देवी का मंदिर है तो वायीं ओर की पहाड़ी पर चण्डी देवी का। दोनों मंदिरों तक उड़न खटोलों की सुविधा है। चण्डी देवी के प्रवेश द्वारा पर महाकाली का सिद्धपीठ है, जिसकी स्थापना महान तंत्र सम्राट कामराज महाराज ने की थी। इसी के आगे चण्डीघाट बना है, जो संभवतः हरिद्वार के भव्यतम घाटों में से एक है। यहीं पर कुष्ठाश्रम है, जो निष्काम सेवा का एक विरल उदाहरण है।

दोनों के मध्य पुलिस चौकी के पास मायादेवी का मंदिर है, जो यहाँ की अधिष्ठात्री देवी मानी जाती हैं, इन्हीं के नाम से हरिद्वार का एक नाम मायापुरी भी है। इसकी गणना 52 शक्तिपीठों में भी होती है। मान्यता है कि सती माता का ह्दय एवं नाभी स्थल यहाँ गिरा था। यहीं से थोड़ी दूरी पर ललिताराव पुल के आगे शिवालिक बाईपास के दायीं ओर बिल्केश्वर महादेव एवं गौरी कुण्ड पड़ते हैं। मान्यता है कि माँ पार्वती ने इसी स्थल पर बेल के पत्ते खाकर शिव की आराधना की थी और गौरी कुण्ड में वे स्नान किया करती थीं। यहीं से होकर शिवालिक पहाड़ियाँ आगे बढ़ती हैं।

यहाँ से उत्तर दिशा में सप्तसरोवर क्षेत्र के पास भारतमाता का सात मंजिला मंदिर है, जिसे स्वामी सत्यामित्रानन्दजी ने स्थापित किया था। इसमें भारत भर के हर प्राँत की संस्कृति, मातृशक्तियों, संतों-सुधारकों-यौद्धाओं, देवी-देवताओं की भव्य मूर्तियों एवं प्रस्तुतिओं को अलग-अलग मंजिलों में देखा जा सकता है। संक्षेप में भारतभूमि की युग-युगीन आध्यात्मिक-सांस्कृतिक परम्परा के दिग्दर्शन यहाँ किए जा सकते हैं। इसकी सातवीं मंजिल से गंगाजी की धाराओं के विहंगम दर्शन किए जा सकते हैं, जो हरिद्वार में अन्यत्र दुर्लभ हैं।

इसके पास ही ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान है, जहाँ आद्यशक्ति गायत्री की 24 शक्तिधाराओं के भव्य मंदिर है, साथ ही विज्ञान और अध्यात्म का समन्वय करती प्रयोगशाला एवं पुस्तकालय है।


यहाँ से थोड़ी आगे अजरअँध आश्रम पड़ता है, जिसमें अंधें बच्चों की निशुल्क शिक्षा व्यवस्था है। इसके थोड़ी आगे गोस्वामी गणेशदत्तजी द्वारा स्थापित सप्तसरोवर आश्रम और संस्कृत विद्यालय है। सप्तसरोवर क्षेत्र के वारे में मान्यता है कि जब गंगा मैया हिमालय से मैदानों की ओर प्रवाहित हो रही थी, तो इस क्षेत्र में सप्तऋषि तप कर रहे थे। इनकी तपस्या में विघ्न न पड़े, इसलिए गंगा मैया यहाँ सात भागों में विभक्त हुईं थी। इसके थोड़ी आगे शांतिकुंज आश्रम आता है, जिसे विश्वामित्र की तपःस्थली पर स्थापित माना जाता है। पं. श्रीरामशर्मा आचार्य द्वारा 1970 में गायत्री तीर्थ के रुप में स्थापित इस आश्रम में गायत्री-यज्ञ, संस्कार के अतिरिक्त कई तरह की रचनात्मक गतिविधियाँ संचालित की जाती हैं।

यहाँ नौ दिन के साधना सत्र चलते हैं, कोई भी गायत्री साधक इनमें शामिल हो सकता है। इसी तरह एक मासीय युग शिल्पी सत्र तथा तीन माह के परिव्राजक प्रशिक्षण सत्र चलते हैं। नैष्ठिक साधकों के लिए पाँच दिवसीय अंतःऊर्जा सत्र भी चलते हैं। यहाँ युगऋषि द्वारा 1926 से प्रज्जवलित अखण्ड दीपक के दर्शन किए जा सकते हैं। यहाँ देवात्मा हिमालय मंदिर भी है। 


आगंतुकों के लिए लंगर जैसी निःशुल्क भोजन की व्यवस्था है। ऋषि परम्परा पर आधारित सप्तऋषि मंदिर एवं प्रदर्शनी भी है, जहाँ शांतिकुंज एवं युग निर्माण आंदोलन से सम्बन्धित गतिविधियों की जानकारी पाई जा सकती है। गेट नं. 4 से प्रवेश करते ही गाईड विभाग से सहज मार्गदर्शक उपलब्ध रहता है। श्राद्ध तर्पण, संस्कार और आदर्श विवाह संस्कार यहाँ की अन्य निःशुल्क सेवाएं हैं। यहाँ के बुक स्टॉल पर आचार्यजी द्वारा लिखित 3200 से अधिक पुस्तकों तथा अखण्ड ज्योति पत्रिका को अपनी रुचि एवं आवश्यकतानुसार खरीदा जा सकता है। साथ ही विभिन्न जड़ी-बूटियाँ व इनके उत्पाद भी यहाँ उपलब्ध रहते हैं।

इसी के सामने दक्षिण भारतीय शैली में निर्मित ब्यास मंदिर है, तो गंगाजी के किनारे बने घाट नं. 20 के तट तक फैला है। यहाँ से नीचे गंगाजी के किनारे घाट नम्बर एक तक घाटों की श्रृंखला फैली है। ये घाट गंगाजी के किनारे बने तटबंधों पर स्थित हैं। गंगाजी का जल बरसात में बाढ़ के कारण उफनने पर किसी तरह की त्रास्दी का कारण न बने, इसके लिए गंगाजी के किनारे हर-की-पौड़ी तक तटबंध बने हुए हैं। इस बाँध पर लोगों को सुबह-शाम भ्रमण करते देखा जा सकता है और शाम को घाट के किनारे साधक यहाँ स्नान-ध्यान करते हैं। यहाँ के सात्विक, शाँत, एकाँत एवं आध्यात्मिक ऊर्जा से चार्ज वातावरण से आगंतुक लाभान्वित होते हैं।

गंगाजी के उस पार प्राकृतिक रुप से टापू बने हुए हैं, जहाँ घने जंगल हैं। 


पहले यहाँ साधु-सन्यासी लोग कुटिया बनाकर रहते थे, लेकिन अब वन विभाग के नियमानुसार यहाँ किसी तरह का निर्माण अबैध ठहराया गया है, अतः यहाँ कोई स्थायी निवास नहीं है। लेकिन यात्रीगण गंगाजी की धाराओं को पार कर वहाँ पिकनिक मना सकते हैं, कुछ पल गंभीर चिंतन-मनन व ध्यान के बिता सकते हैं।

 कुम्भ के दौरान ये टापू आबाद रहते हैं, जब इसमें संत महात्मा अपनी शिष्य एवं भक्त मण्डली के साथ यहाँ डेरा जमा कर महीनों रहते हैं।

शांतिकुंज के आगे हरिद्वार के उत्तरी छोर पर है देवसंस्कृति विश्वविद्यालय, जो 2002 में स्थापित हुआ था। युगऋषि पं. श्रीराम शर्मा आचार्य के विजन पर आधारित यह विश्वविद्यालय शिक्षा के साथ विद्या के लिए समर्पित है। 


यहाँ पर मूल्य आधारित शिक्षा के अभिनव प्रयोग चल रहे हैं। छात्रों को स्वाबलम्बी बनाने के लिए तकनीकी कौशल एवं बौद्धिक ज्ञान देने के साथ ही जीवन जीने की विद्या का भी कुशल प्रशिक्षण दिया जाता है, जिससे वे जीवन के हर क्षेत्र में एक जिम्मेदार नागरिक के रुप में समाज, राष्ट्र एवं विश्वमानव के कुछ काम आ सकें। संक्षेप में यहाँ उच्च शिक्षा के साथ संस्कार की उत्तम व्यवस्था है।

हरिद्वार के उत्तर में जहाँ देवसंस्कृति विश्वविद्यालय है तो दक्षिण में बाहरी छोर पर पातंजलि योग पीठ एवं विश्वविद्यालय, जिन्हें योगगुरु बाबा रामदेव के अभिनव प्रयोगों के लिए जाना जाता है। योग को टीवी माध्यम से घर-घर पहुँचाने में इनका योगदान स्तुत्य रहा है। आचार्य बालकृष्ण के साथ मिलकर इनका आयुर्वेद एवं दैनन्दिन उपयोग के देशी उत्पादों को घर-घर पहुँचाना एक बड़ा योगदान है। इनके साथ योग आयुर्वेद के क्षेत्र में हो रहे शोध अनुसन्धान, बच्चों के लिए वैदिक शिक्षा पर आधारित गुरुकुलम् की अभिनव पहल आदि के दर्शन यहाँ किए जा सकते हैं।

 उत्तरी छोर के उस पार रायवाला क्षेत्र में तथा हरिपुर कलाँ के आगे नदी के पार गंगा के निकट एक अद्भुत आश्रम है ऑरोवैली, जिसका शांति व अध्यात्म की तलाश में भटक रहे अभीप्सु एक बार अवश्य अवलोकन कर सकते हैं। हालाँकि यहाँ तक पहुँचने का कोई बोर्ड या विज्ञापन कहीं नहीं मिलेगा, लेकिन किसी को साथ लेकर एक बार इसके परिसर में जीवंत नीरव-शांति को अनुभव किया जा सकता है। स्वामी ब्रह्मदेव 1985 से यहाँ एक तरह से धुनी रमाकर बैठे हैं। श्रीअरविंद एवं श्रीमाँ की अध्यात्म विद्या के आधार पर यहाँ आश्रम की गतिविधियों को देखा जा सकता है। यहाँ बहुत समृद्ध पुस्तकालय है, ध्यान कक्ष है, भोजनालय है, एक गौशाला है, स्कूली बच्चों के लिए स्कूल है। साथ ही एक सर्वधर्म समभाव एवं विश्व एकता को लेकर विश्व मंदिर है। पूरा आश्रम आम के बाग तथा हरियाली से आच्छादित है। अभीप्सु यहाँ स्वामीजी के सान्निध्य में सत्संग लाभ ले सकते हैं।

इस तरह हरिद्वार में एक-दो दिन के प्रवास में 


इन स्थलों के दर्शन किए जा सकते हैं। अपनी आध्यात्मिक सांस्कृतिक विरासत से परिचय के साथ अध्यात्म लाभ लेते हुए कुछ पल शांति, सुकून एवं आत्म-चिंतन मनन के बिताए जा सकते हैं। बस या आटो को किराए पर लेकर आसानी से ये दर्शन लाभ लिए जा सकते हैं। इसके अतिरिक्त और भी तमाम मंदिर, आश्रम एवं शिक्षा केंद्र यहाँ स्थित हैं, जिनका जिक्र यहाँ नहीं हो पाया है।
 

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