सोमवार, 19 अक्तूबर 2020

यात्रा वृतांत – हमारी पहली त्रिलोकनाथ यात्रा, भाग-1

 लाहौल के ह्दय क्षेत्र कैलांग की ओर

मनाली के आगे रोहतांग पास की ओर

रोहताँग के पार – बहुत सुना था, लाहुल-स्पीति के बारे में बड़े-बुजुर्गों से किवदंतियों के रुप में बचपन से। तीन-चार वर्ष पहले बेसिक कोर्स के दौरान यहाँ से होकर गुजरे भी थे, लेकिन वह परिचय यहाँ के मात्र पहाड़ों, नदियों, हिमानियों, सरोवरों तथा शिखरों से था। यहाँ के लोकजीवन, संस्कृति-समाज तथा अध्यात्म से परिचय न के बराबर था, जिसे इस बार थोड़ा नजदीक से समझने-जानने का अबसर था। इस बार केलाँग में रुकने व आस-पास के क्षेत्रों को एक्सप्लोअर करने का संयोग बन रहा था। पिताजी कैलांग में बागवानी विभाग के अधिकारी पद पर कार्यरत थे। साथ ही हमारी नयी-नयी शादी हुई थी, जीवन संगिनी संग इस क्षेत्र में यात्रा का प्लान बन चुका था, जिसका विशेष आकर्षण था त्रिलोकीनाथ धाम की तीर्थयात्रा, जिसके रोचक संस्मरण बचपन से घर के बुजुर्गों से सुनते आए थे। यात्रा कई मायनों में याद्गार रही, जिसके कुछ दृष्टाँत आज भी रोंगटे खड़ा कर देते हैं और रोमाँच पैदा करते हैं।

मालूम हो कि लाहौल एक ऐसा क्षेत्र है, जो प्रायः नवम्बर से अप्रैल तक लगभग छः माह पूरी दुनियाँ से कट जाता है। सर्दियों में यहाँ का तापमान 15 से 20 डिग्री सेल्सियस माइन्स तक गिर जाता है। मई से अक्टूबर तक ही यहाँ फसलें होती हैं, जो साल में एक बार होती हैं। बाकि समय बर्फ के कारण यहाँ कुछ उगा पाना संभव नहीं होता। देखने वालों का तो यहाँ तक कहना है कि उन्होंने यहाँ साल के हर महीने बर्फ को गिरते हुए देखा है। पिछले ही वर्ष भारी बर्फवारी के कारण सेब से लदे वृक्षों को खासा नुकसान उठाना पड़ा था।

बेमौसमी बर्फवारी से क्षतिग्रस्त सेब की फसल

हिमालय के इस अद्भुत क्षेत्र की वादियों और इलाकों को देखने का संयोग बन रहा था। अपने घर से पहले हम मानाली बस स्टैंड पहुँचते हैं और फिर केलाँग डिपो की बस में चढ़ते हैं। बस का आकार सामान्य बस से थोड़ा छोटा था, जो शायद संकरी व विकट सड़क के हिसाब से निर्धारित था। मढ़ी, रोहताँग से होकर हमारा सफर उस पार दूसरी घाटी में प्रवेश करता है। रास्ते भर के दृश्य बैसे ही थे, जैसे पिछली पर्वतारोहण की ब्लॉग पोस्ट में वर्णित हो चुके हैं।

रोहतांग पास की राह में निर्मल झरने का रुप लिए हिमनद

रोहताँग को पार कर हम खोखसर पहुँचते हैं। रास्ता सदा की तरह जहाँ-तहाँ तेज बहाव बाले नालों से होकर गुजर रहा था और रास्ते की टेढ़ी-मेड़ी, टूटी-फूटी सडकों में हिचकौले खाते हुए बढ़ना एक अलग ही अनुभव था। सामने दूर लाहौल-स्पिति की बर्फ से ढकी चोटियाँ और पास में रेगिस्तानी पहाड़ दूसरे लोक में पहुँचने का अहसास दिला रहे थे तथा नीचे तंग घाटी के बीच चंद्रा नदी एक पतली रेखा के रुप में दिख रही थी। खोखसर से थोड़ा आगे ग्लेशियर गिरने के कारण पूरा रास्ता ब्लॉक था। बर्फ काटकर सड़क बनायी जा रही थी। लगभग दो घण्टे के इंतजार के बाद बस आगे बढ़ी। बस से सारी सबारियाँ उतार दी गयीं थी। हमारे सहित कुछ ही सबारियाँ बैठी थीं। बस जिस स्पीड़ के साथ बर्फ की दिबारों के बीच, पानी व कीचड़ से भरी कच्ची सड़क पर हवाई गति से दौड़ रही थी, उसके कारण बस बुरी तरह से हिचकोले खाते हुए, दायें-बाँये झूलते हुए आगे बढ़ रही थी। कहीं-कहीं सवारियों के सिर ऊपर छत तक लगने की स्थिति आ रही थी और मुँह से चीखें निकल रही थी। लग रहा था कि बस अब पलट गयी या तब। लेकिन ड्राइवर साहब अपने पूरे कौशल के साथ गाड़ी को पार निकाल लेते हैं, तब जाकर सब राहत भरी सांस लेते हैं। आगे रास्ते में सीसू, गोंधला, ताँदी आदि स्थल पड़े। रास्ता खराब होने के कारण केलाँग पहुँचते पहुँचते हमें रात हो चुकी थी।

लाहौल घाटी का एक गाँव

पिताजी का क्वार्टर बस स्टैंड के एकदम ऊपर लगभग आधा किमी की दूरी पर था। पहले कभी न आने के कारण रास्ते से भिज्ञ भी नहीं थे। फोन नेटवर्क उन दिनों यहाँ काम नहीं कर रहे थे, इस कारण पिताजी को भी मालूम नहीं था कि हम केलाँग पहुँच चुके हैं। बस स्टैंड की दुकान पर बैठी आची (महिला का सम्मानपूर्ण बहन सरीखा लोक्ल संबोधन) से पूछा तो वह पिताजी का पता जानती थी। उसके मार्गदर्शन में हम सीधा उपर नाक की सीध में दौड़ लगाते हैं। घुप्प अंधेरे में रोशनी के लिए लकड़ी के डण्डे के आगे बोरी व इसमें मिट्टी का तेल लगाकर मशाल बनाई जाती है और हम दोनों एक साँस में ऊपर तक दौड़े, इस सोच के साथ कि कहीं मशाल बीच रास्ते में बुझ जाए। सीधी खड़ी चढाई में हमारी साँस बुरी तरह से फूल गयी थी, लग रहा था कहीं छाती फट न जाए। जब हमारी यह हालत थी तो सहधर्मिणी का तो इससे भी बुरा हाल था। रात के अंधेरे में भय के चलते हमारी मैराथन स्प्रिंट हमें ऊपर घर तक पहुँचा चुकी थी।

बहाँ बाहर निकले किसी पड़ोसी से पिताजी के कमरे का पता चलता है और हम नॉक कर कमरे में प्रवेश करते हैं और अपनी कथा व्यथा सुनाते हैं। यहाँ पर भोजन तैयार होता है। पिताजी का फेवरेट जाटू का चाबल, राजमाँ और देशी घी। रास्ते की थकान के चलते नींद जल्द ही आ गई थी। सुबह उठते हैं, तो सामने के दिलकश नजारे हमारा स्वागत कर रहे थे।

कैलांग से कार्दांग गोम्पा के विहंगम दर्शन

एक दम सामने भागा नदी के उस पार हरियाली के बीच पहाड़ की गोद में कार्दांग गोंपा अपनी विशिष्ट उपस्थिति दर्शा रही था और पधारने का आमन्त्रण दे रहा था।

उसके पीछे दूर वायीं ओर लेडी ऑफ कैलाँग अपना पावन दर्शन दे रही थीं, समुद्रतल से 19800 फीट की ऊँचाई पर स्थित यह चोटी वर्षभर बर्फ से ढकी रहती है। पीठ पर बोझा लादे हुए महिला की आकृति लिए इस चोटी को अंग्रेजों ने यह नाम दिया था। घर के पीछे ही लगभग 2 किमी उपर शाशूर गोम्पा स्थित था।

शाशूर गोम्पा, लाहौल

जिसे हम पिताजी के साथ देखते हैं। यह बुद्ध धर्म के द्रुग्पा संप्रदाय का 16वीं शताब्दी में बनाया गया गोंपा है। सुंदर हरे और नीले चीड़ के वृक्षों से घिरे इस गोम्पा को इसके उत्कृष्ट बास्तुशिल्प और शिक्षा केंद्र के रुप में जाना जाता है।

इसके बाद हम कार्दांग गोम्पा की सैर करते हैं। पहले नीचे केलाँग शहर में उतरते हैं, भागा नदी के ऊपर पुल को पार करते हैं और कार्दांग गाँव से होते हुए लगभग 11000 फीट की ऊँचाई पर स्थित कार्दांग गोम्पा पहुँचते हैं, जिसे 12वीं शताब्दी में बनाया गया माना जाता है, जो बौद्ध संस्कृति का एक महत्वपूर्ण केंद्र है। यह अपने मनमोहक वास्तुशिल्प, धार्मिक महत्व, भिति चित्र, थांग्का, चित्रकला और यंत्रों के लिए विख्यात है। यहाँ के हेड़ लामा से भेंट करते हैं, जिनका पिताजी से परिचय था। यहाँ वो घी वाली चाय के साथ नाश्ता कराते हैं। इसी बीच गाँव की महिलाएं अपने साथ भेंट चढ़ाती हैं। ऐसा लगा स्थानीय लोग खाने पीने का सामान गोंपा में चढ़ाते हैं, जिसको लामा बड़ी उदारतापूर्वक आगंतुकों के बीच बाँटते हैं।

कार्दांग गोम्पा, लाहौल

यहाँ बाहर आँगन में हरियाली के बीच मठ का शाँत एकाँत वातावरण ध्यान साधना के लिए आदर्श प्रतीत हो रहा था और यहाँ से सामने केलाँग और घाटी पर्वतों का विहगंम दृश्य देखते ही बन रहा था।

यहाँ से बापसी में पिताजी के उद्यान विभाग को देखते हैं, पास की डिस्ट्रिक्ट लाइब्रेरी में पुस्तकों का अध्ययन-अवलोकन करते हैं। और फिर शाम होते होते अपने पिताजी के क्वार्टर तक पैदल यात्रा करते हैं। रास्ते से यहाँ के खेतों की फार्म फ्रेश पत्तागोभी खरीदते हैं, जो स्वाद में कच्ची ही पर्याप्त स्वादिष्ट लग रही थी। आज काफी थक चुके थे, भोजनोपरान्त सो जाते हैं, अगले दिन की यात्रा तैयारियों के साथ, जिसमें हम लाहौल घाटी के ऐतिहासिक शिव व शक्ति मंदिर बाबा त्रिलोकनाथ और मृकुला माता के दर्शन करने वाले थे। (शेष, जारी...)

यात्रा का अगला भाग, नीचे दिए लिंक पर पढ़ सकते हैं –

लाहौल घाटी के बाबा त्रिलोकनाथ, हमारी पहलीयात्रा,भाग-2

 

चंद्रभागा (चनाव) नदी एवं लाहौल घाटी

सोमवार, 12 अक्तूबर 2020

मनाली से सोलाँग वैली एवं दर्शनीय स्थल

 मनाली के आस-पास दर्शनीय स्थल

मनाली से सोलांग वैली की ओर...

मनाली एक हिल स्टेशन के कारण चर्चित होने की बजह से सीजन में बाकि हिल स्टेशन की तरह यहाँ भी भीड़ रहती है। यहाँ की हवा में हिमालयन टच तो साल के अधिकाँश समय रहता है, लेकिन शाँति-सुकून के पल तो मनाली शहर से बाहर निकल कर ही मय्यसर होते हैं। इसके आसपास के ऐसे स्थलों की चर्चा यहाँ की जा रही है, जो पर्यटन, एडवेंचर, प्रकृति का सान्निध्य एवं तीर्थाटन हर तरह की आवश्यकता को पूरा करते हैं।

बस स्टैंड के सामने और थोड़ा उपर तिराहे पर दोनों स्थानों पर वन विहार मिलेगा, जो वन विभाग द्वारा संरक्षित है। शायद मानाली शहर का जो थोड़ा बहुत प्राकृतिक सौदर्य बचा है, वह इन्हीं दो वन विहारों के कारण है। 

मनाली, व्यास नदी एवं वनविहार की पृष्ठभूमि में

नीचे बाले वन बिहार में कुछ शुल्क के साथ प्रवेश होता है, इसमें देवदार के घने जंगल के बीच वॉल्क किया जा सकता है। अंदर मैपल और जंगली चेस्टनेट के पेड़ भी मिलेंगे, जो सीजन में फलों से लदे रहते हैं। इसकी गिरि बहुत स्वादिष्ट होती है, हालाँकि कांटो भरे इसके क्बच को तोड़ना पड़ता है। इसी बन विहार में नीचे ढलान से उतर कर ब्यास नदी के तट पर कृत्रिम झील बनी है, जिसमें परिवार के साथ बोटिंग का आनन्द लिया जा सकता है। नीचे ब्यास नदी के तट पर भी जाया जा सकता है, लेकिन कुछ साबधानी के साथ। हर साल यहाँ लापरवाह पर्यटकों के फिसलने व नदी के तेज बहाव में डूबने की दुर्घटनाएं होती रहती हैं।

ऊपर बाले वनविहार में कोई फीस नहीं लगती, लेकिन इसके अंदर भी देवदार के घने जंगल के बीच कुछ पल एकांत शांत आवोहवा में वॉल्क किया जा सकता है। इसके उपर के गेट से बाहर निकल कर सीधा ऊपर हिडम्बा माता के मंदिर की ओर पैदल जाया जा सकता है।

गगनचूम्बी देवतरु की गोद में माँ हिडिम्बा मंदिर

हालाँकि आटो आदि से भी बस स्टैंड से सीधे हडिम्बा माता के द्वार तक पहुँचा जा सकता है, जो महज 3-4 किमी दूरी पर है। समय हो तो पैदल भी रास्ता तय किया जा सकता है। बीच में सीड़ियों से होकर थोड़ी चढ़ाईदार रास्ते से जंगल के बीच से जाना पड़ता है। हिडम्बा माता का मंदिर मानाली का एक पौराणिक आकर्षण है, जो महाभारत काल की याद दिलाता है। यह पैगोड़ा शैली में बना मंदिर है। इसी के साथ बाहर कौने में हिडिम्बा-भीम के पुत्र घटोत्कच का मंदिर है। इसके सामने पूरी मार्केट हैं, जहाँ जल पान किया जा सकता है। बाहर चाय की चुस्की के साथ यहाँ से सामने बर्फ से ढके पहाड़ों का अवलोकन किया जा सकता है। बगल में म्यूजियम है, जिसमें हिमाचल की संस्कृति के दिग्दर्शन किए जा सकते हैं।

मनालसू नाला

हिडिम्बा से नीचे उतर कर मनालसू नाले के उस पार थोड़ा चढ़ाई पार करते ही मनु महाराज का मंदिर है, जिसका अपना ऐतिहासिक महत्व है। पूरे विश्व में यह एक मात्र मंदिर है, जिसका सृष्टि की उत्पति के बाद मानवीय सभ्यता-संस्कृति के विकास की गाथा के साथ जोड़कर देखा जाता है। इसका मूल स्थान टीले के ऊपर है, जिसमें जल की एक बाबड़ी है। यहाँ से चारों ओर पहाड़ों और सामने घाटियों का विहंगावलोकन किया जा सकता है।

पौराणिक मनु मंदिर, विश्व में अद्वितीय

मनाली में ही बस स्टैंड के पास अन्दर एक गोम्पा और शिव मंदिर भी हैं, जिनके दर्शन किए जा सकते हैं। इसके बाद यहाँ से 3-4 किमी की दूरी पर ब्यास नदी के उस पार वशिष्ट मंदिर आता है, जो गर्म पानी के कुण्डों के लिए प्रख्यात है। यहाँ भगवान राम का मंदिर भी है। यहाँ के जल को औषधीय गुणों से भरपूर माना जाता है। इनमें डुबकी एक रिफ्रेशिंग अनुभव रहता है। 

ऋषि विशिष्ट मंदिर एवं तप्त कुण्ड

यहीं से जोगनी फाल का रास्ता जाता है, जो क्षेत्र का एक प्राकृतिक आकर्षण है। यह वशिष्ट मंदिर से लगभग 2 किमी की दूरी पर है। चट्टानों के बीच से निकलते और 160 फीट की ऊँचाई से गिरते इस वॉटर फाल को एक पावन स्थल माना जाता है।

यहाँ से नीचे मुख्य मार्ग में आकर आगे बांहग बिहाली पड़ती है, जहाँ बोर्डर रोड़ ऑर्गेनाइजेशन (ग्रेफ) का मुख्यालय है, जो सर्दियों में मनाली लेह रोड़ की देखभाल करते हैं और बर्फ काटकर रास्ता बनाते हैं। इसी के पास है नेहरु कुण्ड, जहाँ माना जाता है कि भृगु लेक का पानी भूमिगत होकर आता है। मान्यता है कि नेहरुजी जब भी मानाली आते थे, तो यहीँ का जल पीते थे।


मनाली सोलांग वैली के बीच कहीं रहा में...

इसके आगे 2-3 किमी के बाद पलचान गाँव आता है, इससे वाएं मुडकर सोलाँग घाटी में प्रवेश होता है, जहाँ की स्कीईंग स्लोप में लोग बर्फ पड़ने पर स्कीईंग का आनन्द लेते हैं। इस सीजन में यहाँ खासी चहल-पहल रहती है। यही पूरा रास्ता अनगिन फिल्मों की शूटिंग का साक्षी रहा है। बाकि यहाँ पैरा ग्लाइडिंग तो हर सीजन में चलती रहती है। 

सोलांग वैली का विहंगम दृश्य

यहाँ पर्वतारोहण संस्थान का भवन भी है। इसके आगे व्यास कुण्ड पड़ता है, जिसे ट्रेकिंग प्रेमी ही दर्शन कर पाते हैं, क्योंकि आगे धुँधी से कुछ किमी पैदल चढाई को पार कर वहाँ पहुँचना होता है। एक मान्यता के हिसाब से इसे ब्यास नदी का उदगम माना जाता है, दूसरा रोहताँग पास के ब्यास कुँड को इसका स्रोत मानते हैं। जो भी हो ब्यास नदी का असली स्वरुप तो पलचान में दोनों धाराओं के मिलने के बाद ही शुरु होता है। अब तो मनाली को सीधे लाहौल से जोड़ने वाली अटल टनल बनने के साथ इस खुबसूरत रास्ते का महत्व ओर बढ़ गया है।

अंजली महादेव की ओर से सोलांग वैली

सोलाँग के ही पीछे लगभग दो किमी दूरी पर अंजनी महादेव भी एक दर्शनीय स्थल है। यहाँ पहाड़ों की ऊँचाईयों से पानी झरता रहता है, जो ठण्ड में नीचे एक छोटे से शिवलिंग पर गिरता है और अनवरत अभिषेक चलता रहता है। सर्दियों में यहाँ गिरता पानी जम जाता है, जिस कारण यहाँ वृहदाकार प्राकृतिक शिललिंग बन जाता है। सोलाँग घाटी के ऊपरी छोर पर पहाड़ के नीचे यह स्थान एक हल्का ट्रैकिंग अनुभव भी रहता है। यहाँ एक कुटिया में बाबाजी रहते हैं, जहाँ गर्मागर्म चाय की व्यवस्था रहती है। मौसम की ठण्ड व ट्रैकिंग की थकान के बाद विश्राम एवं सत्संग के कुछ बेहतरीन पल यहाँ बिताए जा सकते हैं।

यह संक्षेप में मनाली के आसपास के दर्शनीय स्थलों का जिक्र हुआ। इसके अतिरिक्त रफ टफ लोग व जिनके पास समय है, वे इसमें कुछ ओर स्थलों को जोड़ सकते हैं। भृगु लेक, हामटा जोट, पाण्डु रोपा, नग्गर में कैसल और रोरिक गैलरी, अलेउ स्थित पर्वतारोहण संस्थान आदि। रोहताँग पास यहाँ का एक विशिष्ट आकर्षण रहता है, जहाँ गर्मियों में भी बर्फ के दीदार किए जा सकते हैं। पलचान, कोठी से होकर आगे गुलाबा जंगल और फिर मढ़ी इसके बीच के पड़ाव पड़ते हैं। रास्ता दिलकश पहाड़ियों, गहरी घाटियों, आसमान छूते पहाड़ों, हरे-भरे वृक्षों एवं झरनों से गुलजार है।

रोहतांग पास की ओर, गुलाबा फोरेस्ट

इसके 1-2 दिन में इन स्थलों का अवलोकन किया जा सकता है। बाकि समय हो तो मानाली मार्केट को एक्सप्लोअर करना तो एक बार बनता ही है, जहाँ पर आपको अवश्य ही घर के लिए कुछ यादगार गिफ्ट मिल जाएंगे। हालाँकि दाम थोडे अधिक हो सकते हैं, लेकिन निशानी के बतौर कुछ तो आप देख सकते हैं। बस स्टैंड के साथ ही छोटी सी मार्केट है, जिसमें यहाँ के ऊनी कपड़ों के लोक्ल प्रोडक्ट मिलते हैं। 

मनाली माल रोड़

माल रोड़ पर कई दुकानें हैं, जहाँ खाने-पीने के कई ठिकाने हैं। यहाँ की सब्जी मण्डी में लोक्ल फल-फूल बाजिव दाम में खरीद सकते हैं। अंदर प्रवेश करेंगे तो तिब्बतन एम्पोरियन में कुछ बेहतरीन समान देख सकते हैं। अंडरग्राउँड मार्केट में भी बाहर के समान बिकते हैं। थोड़ी बार्गेनिंग अवश्य करनी पड़ती है।

जिनके पास अधिक समय हो तथा जो ट्रेकिंग तथा पर्वतारोहण का शौक रखते हों, उनके लिए मानाली स्थित पर्वतारोहण संस्थान पास में ही है, जहाँ रुकने से लेकर प्रशिक्षण की उम्दा व्यवस्था है, जिनकी विस्तृत जानकारी आप पर्वतारोहण पर नीचे दिए गए लिंक्स पर पढ़ सकते हैं।

पर्वतारोहण, एडवेंचर कोर्स, भाग-1

पर्वतारोहण, बेसिक कोर्स, भाग-1

जिन्हें मानाली के आगे रोहतांग दर्रे (अब अटल टनल) के पार लाहौल घाटी के भी दर्शन करने हों, वे पढ़ सकते हैं, आगे के लिंक में यात्रा वृतांत - लाहौल के ह्दयक्षेत्र केलांग की ओर।

हिमक्रीम का स्वाद चख्ते हुए

 

चुनींदी पोस्ट

प्रबुद्ध शिक्षक, जाग्रत आचार्य

            लोकतंत्र के सजग प्रहरी – भविष्य की आस सुनहरी    आज हम ऐसे विषम दौर से गुजर रहे हैं, जब लोकतंत्र के सभी स्तम्...