ध्वल हिमालय के दूरदर्शन एवं प्रत्यक्ष संवाद
गढ़वाल हिमालय की ध्वल पर्वत श्रृंखलाएं |
नई टिहरी के बारे में सुना बहुत था, मुख्यरुप से टिहरी डेम के संदर्भ में। दूसरा पास ही बन रहे कोटेश्वर बाँध के बारे में और वहाँ के आइएएस स्वामीजी, उनके आश्रम व समाज सेवा की गतिविधियों के बारे में भी सुना था अपने छात्र अवनीश से और एक बार शांतिकुंज में युवा स्वामीजी से मुलाकात भी हो चुकी थी नई कैंटीन के सामने खड़े-खड़े। सो इस बार की शैक्षणिक यात्रा के बारे में उत्साह, जिज्ञासा और रोमाँच के भाव तीव्र थे। मालूम हो कि विभाग के मीडिया लेखन पाठ्यक्रम में यात्रा वृतांत के अंतर्गत हर बैच को ऐसी यात्रा का अवसर मिलता है, जिसका प्रायः सबको इंतजार रहता है।
वर्ष 2011 के सितम्बर माह का अंतिम सप्ताह, प्रातः सात बजे देवसंस्कृति विवि से उत्तराखँड परिवहन की बस में निकल पड़ना, उत्साह और उत्सुक्तता से भरी छात्र-छात्राओँ एवं शिक्षकों की टोली, बैठते ही गीतों की लड़ियों का जुड़ना, जल्द ही ऋषिकेश के पार गढ़वाल हिमालय के शिखरों का आरोहण, नरेंद्रनगर के आगे अब तक के ज्ञात मार्ग से आगे बस का प्रवेश – एक नए पहाड़ी क्षेत्र में विचरण की अनुभूति - सब यात्रा की शुरुआत के रोमाँचक अनुभव रहे। साथ ही बीच में नींद के झौंके भी आते रहे।
गढ़वाल हिमालय की गोद में |
इसके आगे चीड़ से भरे सघन बन प्रदेश के बीच बढ़ना, चम्बा को पार करते हुए चढ़ाई के अनुपम अनुभव रहे। उस पार विस्थापित टिहरी शहर का विहंगम दृश्य। शीघ्र ही चौराहे पर बस का रुकना, लो नई टिहरी बस स्टॉप आ गया।
बस से बाहर आकर स्थानीय गायत्री शक्तिपीठ की दिशा का पता कर, उस ओर चल देते हैं। राह में पीले वस्त्र में परिब्राजकजी से मुलाकात होती है, उनके साथ चल देते हैं। शांतिकुंज और देवसंस्कृति विश्वविद्यालय के नाम से पलेट पढ़कर सुकून मिलता है। शक्तिपीठ के परिसर में प्रवेश करते हैं, कई गाड़ियां खडी हैं बाहर आँगन में। यहाँ के व्यवस्थापक बदानीजी बड़े ही सम्मान के साथ स्वागत-सत्कार करते हैं और अंदर कुर्सी पर बिठाकर जल-पान कराते हैं। इसके बाद रिफ्रेश होकर ऊपर हॉल में ठहरने की व्यवस्था होती है।
नई टिहरी गायत्री शक्तिपीठ, सितम्वर 2011 |
भोजन बनने के बाद सब भोजन-प्रसाद ग्रहण करते हैं। अब तक दो गाड़ियाँ आ गई हैं, कोटेश्वर बाँध की यात्रा के लिए, जहाँ उद्देश्य था पास में रह रहे युवा स्वामीजी से मिलने का। रास्ते में टिहरी डेम के फोटो के लिए एक स्थान पर बाहर निकलते हैं, डेम का विहंगम दृश्य सामने था। लेकिन इसके नीचे जलमग्न पूरा शहर, यहाँ का इतिहास, संस्कृति और लोकजीवन गहरे सवाल मन में जगा रहा था।
टिहरी बाँध |
कोटेश्वर बाँध की ओर भगीरथी के संग |
आज स्वामीजी से भेंट-मुलाकात संभव नही थी, सो उसी मार्ग से नई टिहरी गायत्री शक्तिपीठ की ओर चल देते हैं।
नई टिहरी शहर का विहंगम दृश्य |
रास्ते में बाँध के
निर्माण स्थल के पास एक मनोरम स्थल पर चाय-नाश्ता करते हैं, ग्रुप फोटो होती है और
नई टिहरी पहुँचते हैं। मार्ग में जेल के रास्ते, देवदार से अटे दिलकश एवं मनोरम
मार्ग से वापिस आते हैं ठीक शक्तिपीठ के ऊपर। वहाँ से फोटोग्राफी का लुत्फ लेते
हैं।
गायत्री शक्तिपीठ की ओर से टिहरी बाँध झील का दृश्य |
शक्तिपीठ परिसर से सामने का मनोरम दृश्य |
कुछ ही देर में भोजन तैयार हो जाता है, कड़ी चावल का प्रसाद ग्रहण करते हैं। भोजन के बाद चुपचाप हाल
में ऊपर अग्रवती का जलाना और वहीं थके हुए बिस्तर पर लुढ़क जाना याद है। नीचे
बच्चे भगदड़ मचाए हुए, ऊपर हम कमरे में नींद की गोद में मदहोश, सो रहे थे। रात को बीच में थोड़ा नींद खुलती है, तो बच्चों का हल्ला चौंकाता है, पता चलता है कि उनका उपजोन प्रभारी जयरामजी के साथ रात भर भजन-कीर्तन, कथा, अंताक्षरी, सत्संग
और चित्रकारी चलती रही।
प्रातः चार बज कर चालीस मिनट पर नींद खुल जाती
है, देखा सभी सो रहे थे। उठकर नीचे मैदान में टहलते हैं। दो चक्कर लगा कर, पंचस्नान
और फिर आसन जमाकर अग्रबती जलती है, जप के साथ ध्यान का क्रम चलता है, जैसे आज जीवन
के सभी समाधान मिल रहे हों।
गढ़वाल हिमालय की ध्वल पर्वत श्रृंखलाएं |
हिमालय की घनीभूत चेतना से जैसे प्रत्यक्ष संवाद की स्थिति बनती है। इसके साथ अपने ईष्ट-आराध्य एवं सद्गुरु का सुमरण एवं ध्यान होता है और जीवन ध्येय एवं स्वधर्म की स्पष्टता में नए आयाम जुड़ते हैं।
पूजा के बाद छत पर जाते हैं, जहाँ सुदूर हिमाच्छादित ध्वल हिमालय के दर्शन प्रत्यक्ष थे, जिन्हें देख कर ऐसे लग रहा था कि जैसे हम अपने घर पहुँच गए हों। हिमालय से कुछ मूक संवाद चलता रहा। फिर कुछ फोटोग्राफी होती है।
गढ़वाल हिमालय के पहाड़ी गाँव |
उस पार हिमालय की गोद में दूर-दूर कितने सारे गाँव दिख रहे थे, पता करने पर इनकी संख्या 200 के आसपास निकली। मन कर रहा था कि वहाँ जाकर गाँवों में घूम कर आएं, वहाँ की यथास्थिति की ग्राउंड रिपोर्टिंग तथा अवलोकन करें। लेकिन आज यह भावलोक में ही संभव था। फिर डेम में समा रही भिलंगना नदी पर छाया सघन बादलों का समूह जैसे नाग का रुप धारण कर धीरे-धीरे आगे सरकता हुआ दिख रहा था। दृश्य स्वयं में अद्भुत था, लेकिन इसके दैवीय संदेश को हम डिकोड नहीं कर पा रहे थे।
हस्त चित्रकला का अद्भुत नमूना, अविस्मरणीय भेंट |
पूरा दल सामान के साथ टिहरी बस स्टेंड पहुँचता है। बस खड़ी थी। लगा जैसे महाकाल सारी योजना पहले से ही बना बैठे हों व उनका सूक्ष्म संचालन चल रहा हो। एक आध घंटे में चम्बा पहुंचते हैं। देवदार-चीड़ के जंगल के बीच सफर यादगार रहता है।
टिहरी गढ़वाल की वादियों में |
चम्बा में केले एवं फलों की दुकानों के सुंदर नजारे दिखते हैं। बस टेक्सी की उहापोह में अंततः 40 रुपए प्रति सवारी में ट्रेक्करों का इंतजाम होता है। इनके साथ रोचक एवं रोमाँचक यात्रा की शुरुआत होती है। साफ सुथरी सड़कें, उर्वर गहरी घाटियाँ, देवदार-बांज और बुराँश के जंगल, एक और घाटियाँ तो दूसरी ओर सुदूर हिमालय के दर्शन पूरी यात्रा भर सब कोई उत्साह से भरा हुआ था।
आगे चलकर सब्जी के खेत, सेब के बागान मिलते हैं। चम्बा से सुरकण्डा तक का यादगार सफर, जिसे दुबारा दुहराना चाहेंगे, ऐसा भाव मन में जग रहा था, क्योंकि ट्रैक्कर की अपनी सीमा थी, पूरा नजारा नहीं देख पा रहे थे। दूर चोटी पर सुरकंडा देवी का मंदिर दिख रहा था।
शिखर पर सुरकुण्डा माता के दूरदर्शन |
पास आने पर देवदार के घने जंगलों के बीच आनंददायी सफर तय होता है। लो सुरकुण्डा माता के चरणों में कद्दुखाल स्थान पर पहुंच गए थे। यहाँ से ग्रुप के साथ माँ के द्वार तक आरोहण होता है। हम पहली बार इस शक्तिपीठ के दर्शन कर रहे थे।
रास्ते में भूख लगने पर केला खाकर जठराग्नि को शांत करते हैं। नीचे घाटी के विहंगम दृश्य देखते ही बन रहे थे। हल्की किंतु थकाऊ चढ़ाई के संग हम सुरकुण्डा देवी के प्रागण पहुँचते हैं। नया मंदिर अभी निर्माणाधीन था।
कद्दुखाल से चोटी पर सुरकुण्डा माता के दर्शन |
मंदिर के अस्थायी शिविर में भगवती के विग्रह का दर्शन करते हैं, यहाँ का बिस्कुट नारियल का प्रसाद ग्रहण करते हैं और बाहर खुले में छत्त के नीचे हनुमानजी और शिव परिवार के विग्रह के सामने कुछ पल ध्यान के बिताते हैं। लगभग 12000 फीट की ऊँचाई पर स्थित इस चोटी के शिखर से सामने हिमालय के दर्शन प्रत्यक्ष थे, हालाँकि बादल से ढके होने के कारण इनके दर्शन नहीं हो पा रहे थे। यहाँ से चारों ओर का विहंगम दृश्य देखते ही बन रहा था। परिसर में कुछ ग्रुप फोटोग्राफी होती है और फिर मखमली लॉन पर बैठकर कुछ समूह संवाद होता है और कुछ चर्चा। बच्चे अपनी उछल-कूद के साथ नीचे उतरते हैं।
सुरकुण्डा टॉप से दूरस्थ गढ़वाल हिमालय (बादलों से ढके) |
आज इस तरह का तो कोई खतरा नहीं था, फिर ड्राइवर भी ऐसे
रास्तों के लिए मंझे हुए थे, लेकिन हमारे लिए जीप
में बाहर के नजारों के अवलोकन की बहुत अधिक गुंजायश नहीं थी। मसूरी पहुंचकर
जब ट्रेक्कर से बाहर निकलते हैं, तो यहाँ के दिलकश
नजारे देखते हैं।
बादलों के आगोश में मसूरी हिल स्टेशन |
बादलों के आगोश में मसूरी का सौंदर्य निखर कर सामने आ रहा था, लगा क्यों इसे पहाड़ों की रानी कहा जाता है। प्रिंस होटल से पैदल यात्रा, कैमल बैक की परिक्रमा, कुल मिलाकर यादगार सफर रहता है। रास्ते में दुर्गा माता के मंदिर के पास से वर्षा शुरु हो जाती है, लगा कि जैसे हमारा स्वागत अभिसिंचन हो रहा है। हल्की बारिश लगातार होती रही, जबतक कि हम बस में नहीं बैठे।
बस स्टैंड पर टिकट के लिए संघर्ष भी याद रहेगा। भीड़ अधिक थी, बारिश तेज हो चुकी थी। लेकिन आखिर टिकट मिल जाती है, लेकिन सबके लिए सीटें नहीं थीं। बस धीरे-धीरे नीचे देहरादून की ओर बढ़ रह थी, चलती बस से रास्ते के दृश्य निहारते रहे। बस में बच्चों की मौज-मस्ती चलती रही। पता ही नहीं चला, देहरादून कब आ गया। आईएसबीटी से दूसरी बस में बैठककर हरिदार पहुँचते हैं और रात के अंधेरे में विश्वविद्यालय के परिसर में प्रवेश करते हैं।
टिहरी गढ़वाल, पुष्पित स्मृतियाँ |
इस तरह यह यात्रा गढ़वाल हिमालय का एक विहंगावलोकन करता सफर था, जिसकी पुनरावृति आगे विस्तार से होनी थी। यह एक तरह से दूरस्थ हिमालय की चेतना से परिचय एवं संवाद का ट्रेलर था, जिसके नए आयाम अगली यात्राओं में अनावृत होने थे, जिनका विस्तृत परिचय आप इस क्षेत्र में सम्पन्न आगे की यात्राओं को नीचे दिए लिंक्स में पढ़ सकते हैं -
सुरकुण्डा देवी का यादगार सफर, भाग-1 (ऋषिकेश-नरेंद्रनगर-चम्बा)
सुरकुण्डा देवी का यादगार सफर, भाग-2 (चम्बा, कानाताल,कद्दुखाल)
सुरकुण्डा देवी का यादगार सफर, भाग-3 (कद्दुखाल से सुरकुण्डा देवी, मसूरी)
हरिद्वार से मसूरी वाया
कैप्टिफाल