लाहौल घाटी में पर्वतारोहण और शिखर का आरोहण
यहाँ आकर तम्बू गाढ़ते हैं, थोड़ी ही देर में इस विरान घाटी में तम्बुओं की एक बस्ती बस जाती है। नदी का पानी मिट्टी लगे ग्लेशियर के पिघलने के कारण साफ नहीं था, सो थोड़ी दूरी पर नीचे चश्में से पीने के लिए शुद्ध जल लाते थे। जिगजिंगवार घाटी चट्टानी पहाड़ों के बीच अधिकाँशतः पत्थरीला धरातल लिए एक विरान स्थल है। सड़क के थोडा ही नीचे मैदान में हमारी बस्ती सज चुकी थी। पास में बर्फिली नदी बह रही थी, जिसके उस पार नीचे आढ़ी-तिरछी सड़क और नीचे पहाड़ खड़े थे। हमारे पीछे दायीं ओर चट्टानी पहाड़ खड़े थे, जिनकी गोद से होकर जिग-जैग सड़क आगे लेह की ओर बढ़ रही थी। कभी कभार कोई इक्का-दुक्का बाहन वहाँ से गुजरता तो दूर से हाय-बाय हो जाती, अन्यथा इस निर्जन स्थल पर तो जैसे परिन्दा भी पर नहीं मारने बाली कहावत लागू हो रही थी। वायीं ओर नदी के उस पार बर्फ से ढके पहाड़ दिख रहे थे, जहाँ अगले दिनों हमारा स्नो-क्राफ्ट और आईस-क्लाइंविंग का अभ्यास होना था।
बर्तन धोने के लिए पास में बह रही नदी का पानी प्रयोग करते थे, पानी इतना ठँडा रहता कि, खाने का तेल-घी सब हाथ में जम जाता, जिसे हाथ में मिट्टी लगाकर साफ करना पड़ता।
साबुन से हाथ धोते तो वह भी जम जाता। ऐसे में यहाँ नहाना तो दूर हाथ मुँह धोने की भी नहीं सोच सकते थे। यदि किसी तरह किचन से गर्म पानी की व्यवस्था हो जाती तो कहीं हाथ-मुँह धोने की सोच सकते थे। आश्चर्य नहीं कि ऐसे दो सप्ताह के प्रवास के बाद हम सबके चेहरों पर एक काली पपड़ी जम चुकी थी, जो कुछ सप्ताह बाद उतरी और यहाँ के बर्फिले रोमाँच की याद दिलाती रही।
यहाँ एक तम्बू में दो-दो लोगों के रुकने की व्यवस्था थी। स्नो फील्ड पास ही थी, नदी के दूसरी ओऱ कुछ पैदल चलने के बाद बहाँ पहुँच जाते। यहाँ स्नो क्राफ्ट, स्कीइंग का अभ्यास चलता रहा। एडवेंचर कोर्स में सीखे गुर व सबक यहाँ काम आ रहे थे। इसके आगे एडवांस प्रेक्टिस भी हुई व कुछ नयी तकनीकों को सीखा। यहाँ की बर्फ की ढलान काफी बड़ी व ढलानदार थी, जिसमें बर्फ पर चलने, फिसने व गिरने का पूरा आनन्द लेते रहे। संयोग से अब तक किसी तरह की दुर्घटना किसी के साथ नहीं हुई।
अंतिम दो दिन पास की जमीं बर्फ की दिवारों पर आइस क्लाइंविंग की प्रेक्टिस होती रही, जो काफी रोमाँचक व थकाऊ अनुभव रहता था, साथ ही खरतनाक भी। क्योंकि आइस एक्स से बर्फ को काटकर सीढ़ी बनायी जाती। एक एक स्टेप कर ऊपर चढते। बर्फ की दीवार के पीछे बहते व झरते पानी की आबाज साफ सुनाई देती। ऐसे आरोहण में थोडी सी भी लापरवाही या घबराहट सीधे नीचे फिसलन को आमन्त्रण था, जो काफी खतरनाक हो सकता था। कुशल ट्रेनर के मार्गदर्शन में यह अभ्यास चलता रहा।
पीक क्लाइंव के एक दिन पहले, जब हमारा बेस कैंप का अभ्यास पूरा हो चुका था, तो पास के ग्लेशियर के बीच कुछ ड्रिल होते हैं, जिसमें दिल्ली के एक सरदार जी दुर्घटना ग्रस्त हो जाते हैं, जिन्हें संस्थान के बाहन में बापिस घर भेजने की व्यवस्था होती है।
हमारा अनुभव रहा कि ऐसे क्षेत्र विरान के साथ बहुत पावन भी होते हैं, जिसकी पावनता का अहसास व तदनुरुप अपना आचरण-व्यवहार ऐसे इलाकों में बहुत मायने रखता है। यहाँ किसी भी तरह की उद्दण्डता और बदतमीजी भारी पड़ सकती है, प्रकृति तुरन्त प्रतिक्रिया करती है। आप ऐसे पावन क्षेत्रों में जितना शुद्ध अन्तःकरण व पावन भाव के साथ रहेंगे, उतना ही यहाँ मौजूद दिव्य शक्तियों का सहयोग संरक्षण अनुभव करेंगे।
इस तरह हम सप्ताह-दस दिन में पूरा ग्रुप पीक क्लाइंव के लिए
तैयार था। एक दिन पहले पूरे ग्रुप को बारालाचा के पास सूरजताल तक की ट्रेकिंग कराई जाती है, जिसमें हमारे स्टेमिना की भी परीक्षा हो रही थी और ऊँचाईयों के अनुरुप एक्लेमेटाइजेशन ड्रिल भी।
आज हम पेट खराब होने के कारण थोड़ा पिछड गए थे और इंस्ट्रक्टर से थोड़ा पीछे चल रहे थे। लेकिन क्रमशः ऊँचाई के साथ हम यह गैप कवर करते गए। अंतिम 100 मीटर का सफर हमें आज भी बखूबी याद है। तीखी हबा चल रही थी। पेट की समस्या अब तक गायब हो चुकी थी। कदम ऑटोमेटिक्ली आगे बढ़ रहे थे, शरीर जैसा निढाल हो चुका था, बस कदम किसी तरह से आगे बढ़ रहे थे। पीक पर इंस्ट्रक्टर के ठीक पीछे हम शिखर तक पहुँच चुके थे। पर्वतारोहण का एक माह का अभियान अनुभूतियों के अपने चरम पर था। यहाँ लुढ़क कर हम कुछ पल आँखें बंद कर अपने ईष्ट-अराध्य को सुमरन करते हैं, धन्यवाद देते हैं। फिर थोड़ा सचेत होकर आँखें खोलते हैं, ग्रुप के सदस्य एक-एक कर पहुँच रहे थे।
थक कर चूर होने के बावजूद सबके चेहरों पर उपलब्धि की चमक साफ दिख रही थी। पास बर्फ के बीच बिखरे पड़े पत्थरों को इकट्ठा कर हम एक मौरेन खडा करते हैं, यादगार में कि एक दल कभी यहाँ पहुँचा था। यहाँ से चारों ओर के विहंगम दृख्य का अवलोकन एक अद्भुत अनुभव था। सुदूर घाटियाँ, बर्फ से ढकी अनगिन पर्वतश्रृंखलाएं सब हमारी नजर में थी।
कुछ मिनट यहाँ विश्राम के बाद काफिला बापिस चल देता है। रास्ते में मैदानी ढलान पर हम फिसलते हुए नीचे सफर तय करते हैं, स्किंईंग के सीखे गुर काम आ रहे थे। आधे घण्टे में हम घाटी को पार करते हुए बारालाचा मुख्य सड़क तक पहुँचते हैं और पक्के मार्ग के संग सुरजताल की अर्धपरिक्रमा करते हुए बापिस बेसकैंप जिंगजिंगवार पहुँचते हैं। यहाँ भोजन विश्राम के बाद रात को कैंप फायर होता है और अगली सुबह तम्बू पैक कर संस्थान के बाहन में बापिस मानाली आ जाते हैं। ग्रुप लीड़र के रुप में रिपोर्ट तैयार करते हैं और वेस्ट स्टुडेंट का तग्मा पुनः हमारे हिस्से में आता है। इसे हम उन पर्वतों के प्रति भावनाओं के शिखर का विशिष्ट तौफा मानकर स्वीकार करते हैं, जिनके लिए सदा ही हमारा दिल धड़कता रहा है व अंतिम साँस तक धड़कता रहेगा।
इसके बाद अगले वर्ष एडवाँस कोर्स के एक मासीय प्रशिक्षण की योजना थी, क्योंकि इस कोर्स को माउंट एवरेस्ट के आरोहण का क्वालिफाइंग मानक माना जाता है, जोकि हमारा सपना रहा है। लेकिन तब तक हम गंगा के पावन तट पर धर्मनगरी हरिद्वार पहुँच जाते हैं। और फिर एक माह का एक मुश्त समय निकाल पाना हमारे लिए संभव नहीं था और साथ ही यह भी बोध हो चुका था कि बाहर के हिमालय से भी अधिक महत्वपूर्ण है अंदर के हिमालय का आरोहण, जो कि अपनी आदर्शों के शिखर, चेतना के शिखर की यात्रा है। जिसका आरोहण एक पथिक के रुप में करते-करते तीन दशक बीत चुके। खैर यह सफर अपनी जगह और हिमालय के प्रति अनुराग अपनी जगह, जिसकी खाना पूर्ति यदा-कदा इसकी गोद में सम्पन्न ट्रेकिंग व घुमक्कड़ी के साथ होती रहती है। और करोना काल में ऐसे संचित अनुभव कलमबद्ध हो रहे हैं।
इस श्रृंखला के पूर्व भाग यदि न पढ़े हों, तो नीचे दिए लिंक्स पर पढ़ सकते हैं -
मानाली की वादियों में, बेसिक कोर्स, भाग-1
मनाली से लाहौल घाटी की ओर, बेसिक कोर्स, भाग-2