बुधवार, 12 अगस्त 2020

मेरा गाँव मेरा देश - बेसिक कोर्स का रोमाँच, भाग-1

 मनाली की वादियों में ट्रेनिंग के पहले नौ दिन


जून में सम्पन्न एडवेंचर कोर्स का सर्टिफिकेट लेने हम संस्थान आए थे। पता चला कि बेसिक कोर्स में मेडिकल कारण से कुछ केंडिडेट नहीं आ पाए और सीट खाली हैं। हम इसमें एप्लाई करते हैं और प्रवेश मिल जाता है। इस कोर्स में 67 प्रशिक्षु देश के कौने-कौने से आए थे। आसाम, बंगाल, बैंगलोर, दिल्ली, महाराष्ट्र आदि – भारत के लगभग हर कौने से इसमें एडवेंचर प्रेमी आए थे। कुछ लोक्ल युवक भी इसमें थे। एक सदस्य तो विदेश से भी था। इसमें हर उम्र के लोग थे, कुछ हमारी उम्र के, कुछ हमसे छोटे, तो कुछ हमसे बड़े।

 

बेसिक कोर्स के शुरुआती दिनों में तो वही प्रशिक्षण मिला, जो एडवेंचर कोर्स में किए थे। लेकिन यह उससे थोड़ा एडवाँस्ड और कठिन था। पहले का प्रशिक्षण निश्चित रुप में हमारे काम आ रहा था। पंजाव कृषि विश्वविद्यालय, लुधियाना में खेल कूद में सक्रिय होने के कारण तन-मन की रफ-टफ पृष्ठभूमि भी यहाँ उपयोगी साबित हो रही थी। अब तक का फ्रीस्टाइल में अपने आस-पास के पहाड़ों में की गई ट्रेकिंग औऱ घुमक्कड़ी के अनुभव तो साथ में थे ही। पहली बार ऐसे भाग-दौड़ भरे प्रशिक्षण में आए सुकुमार प्रशिक्षुओं को इसके थकाऊ ड्रिल भारी पड़ रहे थे और खून-पसीना तो सभी का बह रहा था। और यह अगले पड़ाव के कठिन दौर की आवश्यक तैयारी थी, जिससे जल्द ही हम लाहौल की बर्फिली वादियों में रुबरु होने बाले थे।

बेसिक कोर्स में सुबह की ड्रिल में मोर्निंग वॉल्क रनिंग का दायरा बढ़ गया था।

लेफ्ट बैंक के मुख्य मार्ग में अलेऊ के आगे जगतसुख तक अर्जुन गुफा से होते हुए हमारा कठिन ड्रिल इसका हिस्सा था, जो प्रशिक्षण के छटे दिन सम्पन्न हुआ। इसके तहत लेफ्ट बैंक की मुख्य सड़क से ऊपर गाँव में प्रवेश होता है, फिर देवदार के घने जंगलों से होकर खेतों को पार करते हुए अर्जुन गुफा पहुँचते हैं। यहाँ कुछ दम भरकर फिर आगे जंगल, खेत को पार करते हुए नीचे जगतसुख कस्वे तक आते हैं। फिर बापिस मुख्य सड़क के साथ अलेउ होते हुए संस्थान पहुँचे। अभ्यास थक कर चूर करने वाला था। लेकिन हर रोज की तरह ऐसे अभ्यास के बाद स्नान और फिर टेस्टी एवं पौष्टिक भोजन, इसका अपना ही आनन्द रहता था।

 

अलेउ की रॉक फील्ड में शुरु के एक सप्ताह तक रॉक क्लाइंबिंग का प्रशिक्षण चलता रहा। इस बार कुछ एडवांस्ड तकनीकों को भी आजमाया रहा था। चट्टानें भी पहले से बड़ी, सीधी खड़ी और ऊँची थी, जिसमें रैप्लिंग की ऊँचाई भी अधिक थी, जिसमें रस्सी के सहारे खडी चट्टान के सहारे नीचे कूदना होता है। ऊपर चढ़ने के लिए चिमनी क्लाइंविंग का भी अभ्यास कराया गया, जिसमें दो चट्टानों के बीच के खाली स्थान से होकर पीठ व पंजे के बलपर ऊपर चढ़ना होता था। संस्थान के पीछे ब्यास नदी की ओर जंगल में स्थित चट्टानों में भी खाली समय में अपने स्तर से अतिरिक्त अभ्यास चलता रहा। इसके साथ एक दिन जुमारिंग का भी प्रशिक्षण दिया गया।

इस बार का बुश क्राफ्ट और रिवर क्रोसिंग भी कुछ एडवान्स्ड थी। इस बार नदी को लाठी के सहारे सीधा पार करने के साथ इसे संकरे स्थान पर तेज वहाव के ऊपर उलटा लटककर रस्सी के सहारे पार करने का भी अभ्यास होता रहा। इसी के साथ संस्थान के आडिटोरियम में पर्वतारोहण की फिल्में दिखाई जाती रहीं। साथ ही यहाँ संस्थान के निर्देशक के प्रेरक उद्बोधन भी होते रहे। उँचाईयों में माउंटेन सिकनेस पर डॉक्टर के विशेष उद्बोधन व फर्स्ट एड ट्रेनिंग भी चलती रही, कि कैसे ऑक्सीजन की कमी व अधिक दबाव के बीच साबधानियाँ बरती जानी हैं, व यदि कोई दिक्कत आती है, तो इनका कैसे तात्कालिक उपचार किया जाना है।

नौ दिन की सघन ट्रेनिंग के बाद मेडिक्ल चैक अप के साथ हम अगले पड़ाव के लिए तैयार थे। आगे की स्नो-क्राफ्ट और आइस-क्लाइंविंग के हिसाब से पूरी किट का वितरण होता है, जिसमें आइस-एक्स, क्लैम्पस, स्लीपिंग बैग, ग्रुप का टैंट, शूज आदि थे। साथ ही खाने-पीने की अतिरिक्त सामग्री का भी इंतजाम सभी लोग अपने स्तर पर कर चुके थे, जब एक शाम मानाली शहर की मार्केट में घूमने व शोपिंग की इजाजत सबको मिली थी।

इस तरह पूरा ग्रुप अगले रोमाँच के लिए तैयार था और संस्थान द्वारा हायर की गई हिमाचल परिवहन निगम की बसों में सवार होते हैं, सामान छत पर पैक होता है और हम अपने अगले पड़ाव कुल्लु के पड़ौसी जिला लाहौल –स्पिति जिला में पर्वतारोहण संस्थान के स्थानीय जिप्सा केंद्र की ओर कूच करते हैं, जो रोहताँग दर्रा के उस पार लाहौल-स्पिति के मुख्यालय केलांग के कुछ आगे था। यहाँ तक पहुँचने का मार्ग विश्व के सबसे रोमाँचक रास्तों में एक है, जिसकी स्वयं में एक अलग दुनियाँ है। इसका सफर अगली ब्लॉग पोस्ट - मानाली से जिंगजिंगवार घाटी के रोमाँचक सफर में पढ़ सकते हैं।

शुक्रवार, 31 जुलाई 2020

मेरा गाँव मेरा देश - पर्वतारोहण का विधिवत प्रशिक्षण, भाग-2

मानाली रोहतांग की बर्फीली वादियों में

मानाली के पर्वतारोहण संस्थान में शुरुआती प्रशिक्षण का जिक्र पिछले ब्लॉग में हो चुका, जिसमें रॉक क्लाइंविंग, रिवर क्रोसिंग, बुश क्राफ्ट से लेकर नाइट स्फारी और सर्वाइवल कोर्स का रोमाँच कवर कर चुके हैं। इससे आगे का एडवेंचर गुलाबा फोरेस्ट के पास की बर्फीली वादियों में शेष था, जिसमें स्नोक्राफ्ट और स्कीइंग का बेसिक प्रशिक्षण मिलने वाला था।

सोलाँग से हम अपना पिट्ठू बैग टाँगे संस्थान के बाहन में बैठते हैं और रास्ते में पलचान, कोठी जैसे गाँवों को पार करते हुए सर्पीली सड़कों के साथ गुलाबा मोड़ पर पहुँचते हैं। बीच का रास्ता अद्भुत दृश्यावलियों से भरा हुआ है। लगता है कि जैसे हम किसी दूसरे लोक में आ गए हैं। गहरी खाईयाँ, आसमाँ को छूते पर्वत और पहाड़ों से गिरते झरने, रास्ते भर यात्री इन दृश्यों को सांस थामे देखते रहते हैं। बीच में देवदार, मैपल और अन्य पेड़ों के साथ हिमालयन झाडियों से घिरी सडकें सफर को बहुत ही शांति और सुकूनदायी बनाती हैं।

गुलाबा मोड़ पर गाड़ी रुकती है, इसके थोडा ऊपर एक समतल स्थान पर अपना तम्बू गाढ़ते हैं। हमारे इंस्ट्रक्टर पास के तम्बू में थे। इस बीहड़ बन में रुकने के कोई भवन आदि की व्यवस्था नहीं थी, जैसा कि अब तक हम रात को रुकते आए थे। पिछला नाइट सफारी का अनुभव अब हमारे काम आ रहा था। समझ आ रहा था कि अब तक के प्रशिक्षण किस तरह से क्रमिक रुप में हमें आज के दिन के लिए तैयार कर चुके थे।

यहाँ ठण्ड पहले से अधिक लग रही थी, लेकिन स्लीपिंग बैग में सिमट कर इससे निजात पाते हैं। सुबह चाय-नाश्ते के बाद हमें पीछे स्नो फील्डज में ले जाया गया।

इतनी सारी बर्फ को पहली वार देख रहे युवकों का रोमाँचित होना स्वाभाविक था, वह ही पूरी ढ़लान के आर-पार, ऊपर-नीचे, हर तरफ। इस पर पड़ रही धूप के चलते इसे सीधा निहारना खतरनाक था, जो आँखों को चौंधिया कर अस्थायी रुप से अंधा कर सकती थी, जिसे स्नो ब्लाइंडनेस कहा जाता है। इसके लिए स्नो गोग्ल्ज की व्यवस्था हो रखी थी। हाथ में आईस एक्स और पैरों में क्लैंप्स के साथ हम लोग बर्फ पर चल रहे थे, जिनको पहनने का प्रशिक्षण भी हमको मिल चुका था।

चलने के तौर-तरीके हमारे कुशल इंस्ट्रक्टर खुद चल कर सिखा रहे थे। कम स्लोप में बतख की तरह पैरों को फैला कर चला जाता है, जबकि खड़ी चढाई में जिग-जैग हल्की चढ़ाई के साथ आर-पार चलते हुए ऊँचाई को नापा जाता है। आइस एक्स का स्पोर्ट इसमें लाठी का काम करता है। स्नो क्राफ्ट का पहला सबक आज हमें मिल गया था, जिसका अभ्यास चलता रहा। फिर दिन का भोजन होता है, कुछ विश्राम के बाद फिर हम स्नो फील्ड में आज के सीखे पाठ का अभ्यास करते हैं।

अगले दिन हम और ऊँचाई में पहुँचते हैं, जहाँ से बर्फ के संग स्कीइंग, फिसलने के प्राथमिक गुर हमें सिखाए जाते हैं। और यदि कहीँ रुकना हो तो कैसे आइस एक्स का सहारा लिया जा सकता है, या कहीं बर्फ में गिर गए या फिसल गए तो कैसे आइस एक्स को बर्फ में फंसाकर स्वयं का बचाव किया जा सकता है। इस तरह आज हम बर्फ पर फिसलने का अभ्यास करते रहे। इसमें नौसिखियों के अनाढ़ीपन का खामियाजा भी बीच-बीच में भुगतना पड़ रहा था। लेकिन आईस एक्स के सहारे बचाव के तौर तरीके हम सीख रहे थे। कुल मिलाकर इसके साथ हमारा एडवेंचर कोर्स पूरे श्बाव पर था।

कोर्स की अवधि पूरा होने को थी, दिन का अभ्यास पूरा हो चुका है, फुर्सत के पलों में तम्बू के आसपास के जंगलों व बुग्यालों को एक्सप्लोअर करते हैं। यहाँ से घाटी के उस पार सोलाँग व मानाली के बीच के क्षेत्र के पीछे की पर्वत श्रृंखलाएं स्पष्ट दिख रहीं थीं, जिनमें हनुमान टिब्बा विशेष रुप से पर्वतारोहियों के बीच खास लोकप्रिय रहता है। इन बर्फ से ढकी चोटियों को देखकर सहज ही मन में भाव उमड़ रहे थे कि ये पर्वत तपस्वियों की तरह अपनी धुनी रमाकर न जाने कब से ध्यान में मग्न हैं। इनका सान्निध्य व्यक्ति को इनकी ध्वलता, विराटता, दृढ़ता, पावनता, तप, विरक्तता एकांतिकता, शाँति जैसे अनगिन विशेषताओं से रुबरु कराता है और प्रकृति एवं रोमाँच प्रेमी घुमक्कड़ अपनी पात्रता सिद्ध करते हुए हिमालय के इस दिव्य स्पर्श को पाकर धन्य अनुभव करते हैं। लेकिन अभी हम इनका दूरदर्शन कर संतोष पा रहे थे, हालाँकि इतने दिन हिमालय की गोद में हिमक्रीडा का आनन्द लेकर हम भी धन्य अनुभव कर रहे थे।

कोर्स पूरा कर हम संस्थान के वाहन में बापिस मानाली आते हैं।

यहाँ पर ग्रुप लीड़र के नाते फाइनल रिपोर्ट बनाने व पढ़ने की जिम्मेदारी निभाते हैं और बेस्ट स्टुडेंट का तग्मा भी हमारे हिस्से में आता है। छोटे से ग्रुप में यह उपलब्धि अंधों में काना राजा की उक्ति जैसी थी, लेकिन हमारे जुनून व मेहनत की हौंसला बधाई तो इसके साथ अवश्य हो रही थी। एडवेंचर कोर्स के अनुभव हमें अगले पड़ाव के लिए तैयार कर रहे थे, जिसका पूरा अंदाजा अभी हमें भी नहीं था, क्योंकि अचानक अगले ही माह हमारे बेसिक कोर्स में प्रवेश का भी संयोग बन जाता है, जो लगभग एक मासीय अवधि का था।

माह जुलाई का था। सामान्यतया मई-जून में बेसिक कोर्स के तहत मानाली के सामने सोलंग वैली के पीछे की पीर पंजाल हिमालयन पर्वत श्रृंखलाओं की किसी चोटी का आरोहण किया जाता है, जो औसतन 20 हजार फीट के आसपास की रहती हैं। लेकिन जुलाई माह में बरसात के कारण यहाँ पर्वतारोहण संभव नहीं होता। अतः हमारे हिस्से में लाहौल-स्पीति के ठंडे रेगिस्तान के सूखे पहाड़ थे, जिसका बैस कैंप मानाली-लेह सड़क के बीच सूरजताल सरोवर के पास जिंगजिंगवार घाटी में लगने वाला था। पर्वतारोहण के बेसिक कोर्स के प्रशिक्षण व यात्रा का रोमाँचक वर्णन आप अगली ब्लॉग पोस्ट - मानाली की वादियों में प्रशिक्षण के पहले नौ दिन में पढ़ सकते हैं।

बुधवार, 29 जुलाई 2020

मेरा गाँव मेरा देश - पर्वतारोहण का विधिवत प्रशिक्षण, भाग-1

एडवेंचर कोर्स के वो रोमाँचक दिन

1991 के मई माह में किसी विज्ञापन से पता चलता है कि मानाली स्थित माउंटेनीयरिंग इंस्टीच्यूट में पंद्रह दिवसीय एडवेंचर कोर्स के लिए सीटें निकली हैं। इसमें एप्लाई करते हैं और प्रवेश भी मिल जाता है। पता चला कि इसके अलावा यहाँ पर्वतारोहण के एक-एक मासीय बेसिक और एडवांस कोर्स भी चलते हैं।

हमने शुरुआत एडवेंचर कोर्स से करनी उचित समझी, जो लगभग 15 दिन का था। इसमें लगभग 15 प्रवेशार्थी थे। मैं सबसे बड़ा 22 साल का, बाकि सब अंडर 17 थे। मैं अभी-अभी पंजाब कृषि विश्वविद्यालय, लुधियाना से अपनी बीटेक की पढ़ाई पूरी कर बाहर निकला था।

मेरी पहाड़ों में रुचि बचपन से थी, जब से होश संभाला था। अब तक अपने पहाड़ों में घूमने के शौक को अपने ढंग से अंजाम देता रहा था। कभी ग्वाला बनकर गाय-बैल, भेड़-बकरियों के साथ, तो कभी जंगल से घास-पत्ति व सूखी लकड़ियों को लाने के वहाने, कभी अपने मवेशियों को जंगल में छोड़ने व वहाँ रात को रुकने के साथ, तो कभी देवताओं के साथ पहाड़ों के उस पार देवयात्रा का हिस्सा बनकर, तो कभी भादों की बीस में पावन जल स्नान हेतु पहाड़ी चश्में की सैर और कभी एक धार से दूसरी धार तक मित्रों के साथ ट्रेकिंग करते हुए।

लेकिन ये सब फ्री स्टाइल में हो रहा था। विधिवत प्रशिक्षण अभी तक हमें कहीं से नहीं मिला था। पर्वतारोहण संस्थान में यह काम पूरा होने वाला था। मालूम हो कि दिल्ली में इंडियन माउंटेनियरिंग फेडरेशन (आईएमएफ) ऑफ इंडिया भारत में पर्वतारोहण का मुख्य सरकारी कार्यालय है, जो माउंड एवरेस्ट से लेकर अन्य बड़े हिमशिखरों के अभियानों का नियोजन करता है।

इसके भारत में तीन प्रशिक्षण संस्थान हैं – 1.दार्जिलिंग, प.बंगाल, 2.उत्तरकाशी, उत्तराखण्ड और 3.मानाली, हि.प्र.। मानाली स्थित पर्वतारोहण और एडवेंचर गतिविधियों से जुड़ा संस्थान अपनी तरह का भारत का सबसे बड़ा और विश्व के सबसे बड़े संस्थानों में अपना गरिमापूर्ण नाम रखता है।

मानाली का पर्वतारोहण संस्थान मुख्य शहर से हटकर व्यास नदी के लेफ्ट बैंक पर स्थित है। मानाली से लगभग दो किमी नीचे मानाली से कुल्लू लैफ्ट बैंक पर अलेउ नामक स्थान से दाएं लगभग आधा किमी नीचे देवदार के घने जंगलों के बीच इसका मनोरम कैंपस बसा हुआ है। इसकी थोड़ी दूरी पर ब्यास नदी बहती है।

इसके चारों ओर देवदार का घना जंगल पिछले कुछ दशकों में ही तैयार हुआ है, जो दूर से देखने पर बहुत सुंदर लगता है। ब्यास नदी की ओर यह बन इतना घना है कि संस्थान से ब्यास नदी व उस पार मुख्य मार्ग के दर्शन नहीं हो पाते। संस्थान के निर्देशक प्रायः आर्मी के कर्नल रैंक के अधिकारी रहते हैं, जिसकी पर्वतारोहण में उच्चस्तरीय उपलब्धियों होती हैं। साथ ही योग्य इंस्ट्रक्टरों की पूरी टीम प्रशिक्षुओं को ट्रैनिंग देती है, जिनमें कुछ तो एवरेस्ट शिखर का आरोहण तक किए हुए हैं।

यहाँ हमारे रुकने की व्यवस्था ब्यास होस्टल में की गई थी, जहाँ हमें डोर्मेटरी में स्थान मिला था।

मोर्निंग टी के साथ हमारी दिनचर्या शुरु होती। फिर आस-पास के मैदान व जंगलों में वार्म-अप ट्रेनिंग और मॉर्निंग ड्रिल होता, पसीना बहाने के बाद फिर स्नान और ब्रेकफास्ट होता। फिर कुछ विश्राम के बाद दिनचर्या आगे बढ़ती। शुरु के दिनों में पास के गाँव अलेउ के बन क्षेत्र में खड़ी चट्टानों के बीच रॉक क्लाइंविंग का अभ्यास होता रहा। क्नॉट प्रैक्टिस, रॉक-क्लाइंबिंग से लेकर रैप्लिंग आदि के बेसिक गुर हमने यहां सीखे। इसके बाद अगले एक-दो दिन पास की नदी में रिवर क्रासिंग का अभ्यास किया। तेज धार के साथ बहती पहाड़ी नदियों को पार करना कठिन होता है, लेकिन कुछ तकनीकों के सहारे यह काफी आसान हो जाता है। इसका विधिवत प्रशिक्षण हमने पाया। एक-दो दिन ब्यास नदी के किनारे कंटीली जंगली झाड़ियों के बीच बुश क्राफ्ट सीखा, कि कैसे इन झाड़ियों को पार किया जाता है।

इस तरह लगभग दस दिन के रॉक क्लाइंबिंग, रिवर क्रासिंग, बुश क्राफ्ट आदि के अभ्यास के बाद हम अगले अभियान के लिए तैयार थे, जिसके लिए हम मानाली से आगे सोलाँग वैली के लिए कूच करते हैं, जो यहाँ से लगभग 25 किमी आगे सर्दियों की प्रख्यात स्कीईंग स्लोप लिए हुए है।

यहाँ पर पर्वतारोहण संस्थान की बिल्डिंग भी है, जिसमें हम दो-तीन रात रुके। यहाँ हमारे सर्वाइवल कोर्स और नाईट सफारी के रोमाँचक पल इंतजार कर रहे थे।

सर्वाइवल कोर्स में हमें टीम में बाँटकर जंगल में भेजा गया, साथ में फ्राई पैन, चीनी, चाय पत्ती और बिस्कुट आदि थे। स्थानीय पालक आदि की जानकारी हमें दी गयी थी, जिनसे हम कुछ-कुछ पहले से ही परिचित थे। इस तरह न्यूनतम संसाधनों के साथ जंगल में कैसे सर्वाइव करते हैं, इसका अभ्यास किया जाना था। इसके तहत जंगल से लकडियाँ बीनना, चूल्हा बनाना, पानी की व्यवस्था करना, चाय बनाना, जंगली पालक को उबालकर अपना कामचलाऊ भोजन तैयार करना, चाय-बिस्कुट आदि के साथ दिन गुजारना इस सबका अभ्यास करते रहे। हमारे लिए इसमें कुछ अधिक नया नहीं था, लेकिन जो अपने शहरी घरों से पहली बार जंगल में निकले थे, उनके लिए ये यह सब एक नया अनुभव था।

नाईट सफारी के रोमाँच का शिखर अभी शेष था, जिसमें पूरी रात हमें टीम के साथ बीहड़ बन के घने अंधेरे के बीच गुजारनी थी। खिचड़ी का समान, कूकर आदि पाथेय साथ दिए गए थे। हमें शाम को ही वहाँ छोड़ दिया गया था। रात होने से पहले हम तम्बू गाढ़ चुके थे। पास बह रहे पहाड़ी नाले से पानी की व्यवस्था करते हैं। कुछ लोग लकड़ी इकटठा करते हैं, चुल्हा जलता है और रात की खिचडी तैयार होती है। दिन में सर्वाइवल कोर्स का अभ्यास यहाँ काम आ रहा था। फिर चूल्हे के ईर्द-गिर्द बैठकर कैंप फायर होती है, कुछ गीत-संगीत और गप्पबाजी के साथ रात आगे बढ़ती है। और फिर रात को जागने की पारियाँ निर्धारित होती हैं, जिसमें दो-दो घण्टे की शिफ्ट सबके हिस्से में थी। एक समय दो लोगों का जागना तय होता है।

अभी हम निद्रा देवी की गोद में प्रवेश किए ही थे कि हमारे पहरा दे रहे साथियों की आवाज हमें जगा देती है। आवाज में सहमापन था, कुछ भय था। सुनने में आया कि पास ही हमारे तम्बू के थोड़ी दूर किसी के घुंघरु की आबाजें आ रही हैं और दो काले साए भी नजर आ रहे हैं। एक बारगी तो हम सबका घबरा जाना स्वाभाविक था, कि इस बीहड़ बन में ये कौन से भूत-प्रेत या चुड़ैल जैसे साए आ गए, जो हमारा पीछा कर रहे हैं।

ग्रुप में सबसे सीनियर होने की बजह से अपना भय दबाकर अपनी बहादुरी का प्रदर्शन उचित समझा, जिससे ग्रुप में पैनिक न फैले। फिर थोड़ा साहस बटोरकर हम लाठी लेकर टोर्च के साथ आगे बढ़े। थोडी ही देर में सारा माजरा साफ था। गुज्जरों की दो अवारा भैंसें पास के मैदान में चर रही थी, उनके गले में बंधी घंटियाँ घुंघरु की आबाज जैसी ध्वनि कर रही थी।

इसके बाद जाग चुके सारे ग्रुप के हंसने व मस्ती की बारी थी। पहरा दे रहे हमारे दोस्तों का खूब मजाक बनता रहा और साथ ही सब राहत की साँस लेकर आग को और प्रदीप्त किए, होट ड्रिंक की व्यवस्था हुई और फिर निश्चिंत होकर अपनी अपनी पारी में सो गए। इस तरह से सुबह होती है और हम अपना तम्बू समेट कर सोलाँग वैली के होस्टल में पहुँच जाते हैं। अपने इंस्ट्रक्टर को पूरी कहानी सुनाते हैं। जिसको सुनकर उन्हें अच्छा लगा कि यही तो इस ट्रेनिंग का मकसद था। अनुभव के साथ जीवन के भय, गलतफहमियों पर विजय और विषम परिस्थियों में जीवट के साथ जीने की कला। जीवन की अनिश्चितताओं का साहस के साथ सामना करना और उसका आनन्द मनाना, यही तो एडवेंचर है।

एडवेंचर कोर्स का अगला रोमाँच सामने गुलाबा फोरेस्ट की बर्फ से ढकी ढलानों पर हमारा इंतजार कर रहा था। जिसे आप अगले भाग - गुलाबा फोरेस्ट की बर्फिली वादियों में पढ़ सकते हैं।


चुनींदी पोस्ट

प्रबुद्ध शिक्षक, जाग्रत आचार्य

            लोकतंत्र के सजग प्रहरी – भविष्य की आस सुनहरी    आज हम ऐसे विषम दौर से गुजर रहे हैं, जब लोकतंत्र के सभी स्तम्...