सोमवार, 29 जून 2020

मेरी पौलेंड यात्रा – 8, अंतिम दिनों की कुछ दिलचस्प यादें

अकादमिक एक्सचेंज, भ्रमण एवं शाकाहारी जायका

अगले दो दिन सक्रिय अकादमिक एक्सचेंज के रहे। आज पत्रकारिता विभाग के अध्यक्ष एवं प्रो. डॉ. सजना से मुलाकात होती है। यहाँ के बच्चों में थोडा हिचक दिखी, लेकिन थोडी ही देर में भाषा की दिवाल ढह जाती है और खुलकर संवाद होता है।

पत्रकारिता शिक्षा की स्थिति यहाँ भी बहुत कुछ भारत जैसी ही लगी। पत्रकारिता शिक्षण का मीडिया उद्योग के लिए स्किल्ड मैनपावर तैयार करना पहला ध्येय दिखा, इसका समाज को प्रभावित करने वाले तथा शोधपरक पक्ष पर ध्यान कम लगा। समय अभाव के कारण प्रो. सायना के साथ अधिक चर्चा तो नहीं हो पायी, लेकिन कुछ यादगार क्लिप्स के साथ हम बापिस आ जाते हैं।


पॉजिटिव जर्नलिज्म में इनकी खास रुचि दिखी। लगा कि हर समाज एवं देश में मीडिया की अधिकाँशतः नकारात्मक भूमिका के कारण एक विकल्प के रुप में हर जगह सकारात्मक पत्रकारिता की आवश्यकता अनुभव की जा रही है।

शाम को होटल में मनोविज्ञान के प्रो. मैकेन्जी के साथ डिन्नर पर मुलाकात होती है।

यहाँ पर सूप, पनीर की सब्जी और सामने-सामने कार्बन गैस से तैयार हो रही आईस-क्रीम का लुत्फ लिया। हमारी शाकाहारी पृष्ठभूमि को देखते हुए वो भी ऐसी डिश लेते हैं। मनोविज्ञान विभाग की ही इरेस्मस इंचार्ज प्रो. अलेग्जैंड्रा से भी यहां मुलाकात होती है, जो अगले दिनों सपरिवार हमें बिडगोश के पड़ोस में ऐतिहासिक किला घुमाने वाली थीं।


अगले दिन (24मई, 2019, शुक्रवार) हमारी मुलाकात शिक्षा विभाग के अध्यक्ष एवं प्रो. पोअटर से होती है, जो शिक्षा दर्शन में खासी दखल रखते हैं तथा इनके साथ यूरोप की अध्यात्म परम्परा पर गंभीर चर्चा होती है और इनका भारतीय अध्यात्म परम्परा से परिचय करवाते हैं, जिसमें वे खासी रुचि लेते रहे। शिक्षा में जीवन प्रबन्धन का देवसंस्कृति विवि में चल रहा प्रयोग इनको भाया व इसके आज की शिक्षा में महत्व को स्वीकारा।

आज फिर यहाँ के आधुनिक पुस्तकालय को देखने का मौका मिलता है, जिसका हम बाहर से कल दर्शन कर चुके थे। स्वयं प्रो. क्रिस्टोफ आज हमारे साथ थे। इस अत्याधुनिक पुस्कालय में लाखों पुस्तकें हैं, जो पूरी तरह से डिजिटल हैं। यहाँ पढ़ने की उमदा व्यवस्था दिखी। विद्यार्थी अलग-अलग कक्ष में भी पढ़ सकते थे और सामूहिक रुप से भी। यहाँ पुरानी पुस्तकों का संग्राहलय भी देखा, जिनके संरक्षण का विशेष प्रयास रहता है तथा कुछ पुस्तकें तो ऐसी हैं जिन तक पहुँच मात्रा 2-3 लोगों की ही रहती है।

प्रो. सायना की पारिवारिक समस्या के कारण आज इनसे मुलाकात नहीं हो पाती। मानविकी एवं समाज विज्ञान के गगनचूम्बी भवन में इनके पत्रकारिता विभाग में टेक्निकल इंचार्ज प्रो. पीटर से मुलाकात हुई, जहाँ पत्रकारिता के प्रेक्टिकल चलते हैं और इनका अपना रेडियो स्टेशन भी। पीटर के साथ पत्रकारिता विभाग के पाठ्यक्रम, ट्रेनिंग, प्लेसमेंट आदि पर विस्तार से चर्चा हुई।

शाम को इंटरनेशनल रिलेशन विभाग की प्रमुख एन्यिला बेकर के संग शहर के सबसे बड़े मॉल में पहुँचते हैं, जो इनके घर के रास्ते में पड़ता है। यहाँ की चमक-दमक चौंधियाने वाली थी तथा दाम भी काफी उँचे थे। यहाँ के दर्शन कर बापस आते हैं और लौटते समय रास्ता भटक जाते हैं। अनुमान के हिसाब से हम बर्डा नदी के किनारे पैदल चलते रहे और पुल पार कर लगा अपने गन्तव्य की ओर पहुँच रहे हैं, लेकिन लगभग 7 किमी पैदल बढ़ते के बाद पता चला कि हम गलत दिशा में थे।

रास्ते में पूछते भी रहे लेकिन कोई अंग्रेजी न जानने के कारण समझा न पाया, जब एक अंग्रेजी बोलने वाली महिला ने स्पष्ट किया कि हम गलत दिशा में जा रहे हैं। महिला ने फोन से टेक्सी मंगाई, जो दो मिनट में पहुँच गई और हमें अपने गन्तव्य स्थान तक पहुँचा दिया। यहाँ की यह सहयोग वृति और ड्राईवर की ईमानदारी हमें बहुत अच्छी लगी।

अगले दिन (25मई,2019,शनिवार) आकादमिक एक्सचेंका व्यस्त कार्यक्रम कुछ हल्का हो रहा था। अगली सुबह यहाँ के पार्क में मॉर्निंग वॉक करते हैं, जो हरा-भरा एवं एकांत-शांत था।

बड़े-बड़े पेड़ इसकी सुंदरता को चार चाँद लगा रहे थे। झाडियों, खुशबूदार फूलों के बीच-बीच में यहाँ की कला, साहित्य, संगीत की विभूतियों के पत्थर पर बने समारक-बूत रोचक लगे, जो यहाँ के लोगों के बीच कला एवं संस्कृति में रुचि एवं महत्व को दर्शा रहे थे। पार्क की सफाई पर यहाँ विशेष ध्यान रखा जाता है, यदि किसी का कुत्ता गंदगी करता है, तो मालिक तुरन्त पालिथीन के ग्लब्ज पहनकर साफ कर कूड़ेदान में डाल देता है। भारत में हम यह सब सोच भी नहीं सकते।

दोपहर किले में प्रो.अलेग्जेंड्रा के साथ घूमने गए। बिडगोस्ट शहर के बाहर अठाहरवीं सदी का यह किला आधा-पौने घंटे की दूरी पर था। रास्ता बिस्तुला नदी को पार कर हरे-भरे जंगल के बीच होकर गुजरता है। किला एकांत स्थल पर, जंगल से घिरा था, जिसमें उतार-चढ़ाव भरे मैदान दिखे। लोग परिवार के साथ यहाँ पिकनिक मना रहे थे, हालांकि संख्या कम ही थी। यहाँ के ट्रेकिंग ट्रेल की पूरी परिक्रमा की।

बीच में कृत्रिम झीलों के दर्शन किए। जंगल के बीचमार्ग बहुत ही मनोरम लग रहा था। मन के तार स्वतः ही प्रकृति की नीरव-शांति से जुड़ते अनुभव हो रहे थे। जंगल के किनारे जालीदार दिवाल के पार बाहर गाँब बसा दिखा। जंगल की परिक्रमा कर आखिर यहाँ के म्यूजियम में आए, जिसमें पूरे यूरोप के प्यानों का संग्रह है।

तीन मंजिले इस संग्राहल में  पयानों का अद्भुत संग्रह, संगीत प्रेमियों के लिए किसी तीर्थ स्थल से कम नहीं। हम अधिक तो नहीं समझ सके, लेकिन इनकी निष्ठा दिल को छू गई। एक कक्ष में बैठकर यहाँ के संगीत एवं कला प्रेम की भावना को अनुभव किया और नीचे जमीं के अंदर बने कमरों के भी दर्शन किए।

प्रो.अलेक्जेंड्रा के परिवार के साथ यहाँ के एक वेगन रेस्टोरेंट में रात का डिन्नर किया। मालूम हो कि नोन-वेज प्रधान यूरोप में माँसाहार के खिलाफ एक मूक अभियान चल रहा है, जो शाकाहार से भी दो कदम आगे वेगन के रुप में है, जिसमें पशुओं से प्राप्त दूध के उत्पाद, जैसे दूध, दही, पनीर आदि भी नहीं लिए जाते।

आज की शाम को, यहाँ के स्थानीय मॉल के नाम रही। बाजिव रेट पर यहाँ से घर पर गिफ्ट के लिए सामान खरीदे। यहाँ बिक्री के लिए सजी रंग-बिरंगी सब्जी-फलों की दुकानों के दर्शन बहुत रोचक लगे।

फूड़ कोर्नर में कॉफी पी, जिसका स्वाद हमारे लिए सदा की तरह कौतूक का विषय रहा, जिसमें 10-12 चीनी के पाउच मिलाकर पीने लायक बना पाए। अब कमरे में सामान के पैंकिंग की बारी थी। पता ही नहीं चला कि सप्ताह कैसे बीत गया।

    पौलेंड प्रवास की यात्रा के अंतिम चरण को पढ़ सकते हैं, अंतिम ब्लॉग पोस्ट में, पोलैंड यात्रा, भाग-9, घर बापसी और यादों को समेटता विदेश का सफर

मेरी पौलेंड यात्रा – 7, अकादमिक संवाद से भरा दिन

विद्यार्थियों से संवाद एवं पारम्परिक कॉफी का स्वाद

मार्ग में काजिमीर विल्किस यूनिवर्सिटी के कुछ भवन पड़े, जिनमें फिजिक्स व मेथेमेटिक्स विभाग प्रमुख थे। विश्वविद्यालय का मुख्य परिसर भी मार्ग में पड़ता है, जिसका संक्षिप्त इतिहास यहाँ बताना चाहेंगे।

संस्थान 1969 में शिक्षकों के प्रशिक्षण केंद्र के रुप में स्थापित हुआ था, जो विस्तार पाते हुए सन 2005 से विश्वविद्यालय के रुप में प्रारम्भ होता है। इसमें इस समय 7000 विद्यार्थी पढ़ते हैं, जिन्हें 1500 शिक्षक पढ़ाते हैं। मानविकी, समाज शास्त्र, मनोविज्ञान, दर्शन, राजनीति शास्त्र, पर्यटन, कम्प्यूटर, गणति, भौतिकी, संगीत, खेल आदि इसके लोकप्रिय पाठ्यक्रम हैं। इसका इंन्फ्रास्ट्रक्चर बेहतरीन एवं कैंप्स बहुत सुंदर है। कुछ विभागीय कैंपस शहर के अलग-2 स्थानों पर स्थित हैं, विशेषकर मनोविज्ञान विभाग पुल के उस पार पहाड़ी पर है। पुस्तकालय पास ही सड़क के उस पार। इसके ही सामने थोडे आगे सड़क के दूसरी ओर एक बहुमंजिले भवन में ह्यूमेनिटी एवं सोशल साइंस के विभाग मौजूद हैं।

यहाँ के लोग एक दम विंदास एवं खुलापन लिए दिखे, जो हम जैसे पुरातन पृष्ठभूमि के लोगों के लिए थोड़ा चौंकाने वाला नया अनुभव था। वस्त्रों के संदर्भ में महिलाओं में कोई संकोच का भाव नहीं दिखा, जैसे ये इनकी संस्कृति का हिस्सा हों। साथ ही इनकी सरलता-सहजता इस सबको स्वाभाविक बनाती है। भारतीयों के लिए इसमें समायोजित होने में थोड़ा समय लग सकता है, लेकिन धीरे-धीरे समय के साथ व्यक्ति परिवेश में ढल जाता है।


आज हमारा पत्रकारिता के विद्यार्थियों के साथ पहला इंटरएक्शन था, जो यहाँ के अत्याधुनिक पुस्तकालय के एक कक्ष में हो रहा था। अध्यात्म को लेकर यहाँ के विद्यार्थियों में गहरी रुचि दिखी, क्योंकि यहाँ प्रचलित धर्म तक ही लोकजीवन सीमित है। अध्यात्म के प्रति अधिक चर्चा नहीं होती व इसे व्यैक्तिगत स्तर का विषय मानते हैं, जिस पर अकादमिक विमर्श खुलकर नहीं होता। यहाँ पत्रकारिता विभाग की इरेस्मस समन्वयक डॉ. अन्ना से रोचक संवाद हुआ। यहाँ की संस्कृति, लोकप्रचलन, रहन-सहन, जीवनशैली आदि की मोटा-मोटी जानकारी मिली।

साथ ही यहाँ की चाय की चर्चा जरुर करना चाहेंगे, जो कुछ सुखी जड़ी-बूटियों में उबलते पानी व कुछ शक्कर मिलाकर तैयार हुई थी। हम इसको यहाँ का विशिष्ट उपहार मानकर कुकीज के साथ गटकते रहे, हालाँकि स्वाद में यह हमारे बिल्कुल अनुकूल नहीं थी। एसे अनुभव आगे भी होते रहे। ब्रेक के बाद यहाँ छात्र-छात्राओं से पुनः चर्चा होती है एवं ग्रुप फोटो के साथ आज का सत्र समाप्त होता है, इसके बाद हम मुख्य कैंपस में वाईस रेक्टर प्रो. मैको से मिलते हैं, जिनसे पिछले कल हम उनकी थ्री-डी प्रिंटिंग लैब में मिल चुके थे।

वाइस रेक्टर, प्रो. मारेक मैको एक सज्जन, योगा अभ्यासी व्यक्ति हैं, जो पिछले दस वर्षों से योगाभ्यास कर रहे हैं। इनकी शाँत, धीर-गंभीर मुद्रा एक योगी का अहसास जगाती है और साथ ही इनकी सरलता, गंभीरता एवं प्रमुदता हमें कहीं गहरे प्रभावित करती है। अपने पद का अहंकार इन्हें कहीं छू तक नहीं पाया है, ये स्पष्ट झलकता रहा। यहीं आज का लंच इनके साथ होता है। शुरुआत अण्डे की स्लाइस से भरे सूप से होती है, जिसे देखकर हम चौंक जाते हैं, हमारे लिए यह मांसाहारी डिश बन गयी थी, जबकि ये इसे शाकाहारी मानते हैं। इसके स्थान पर दूसरी शाहाकारी डिश आती है और चाबल के साथ मिक्स वेज का लुत्फ लेते हैं, जो एक नया अनुभव रहा।

आज की शाम प्रो. क्रिस्टोफर के साथ बीती, जो यहाँ विजिटिंग प्रोफेसर हैं। प्रो. क्रिस्टोफर देवसंस्कृति विश्वविद्यालय आ चुके हैं, और यहाँ के दो माह के प्रवास को अपने जीवन का रुपांतरणकारी अनुभव मानते हैं। ये अब पूरी तरह शाकाहारी हो गए हैं और परमपूज्य गुरुदेव आचार्यश्री रामशर्माजी की दो पुस्तकों - हारिए न हिम्मत और मैं कौन हूँ, का पोलिश भाषा में अनुवाद कर चुके हैं।

इनके साथ शहर का भ्रमण करते हुए यहाँ के लोकप्रिय कॉफी हाउस पहुँचते हैं, जहाँ यहाँ की पारम्परिक कॉफी का स्वाद चखते हैं। इसमें विटामिन-सी से भरी खट्टी चैरी के दाने पड़े थे। चाय व कॉफी के साथ दूध डालने की परम्परा यहाँ नहीं है। यहाँ चाय हल्की, लेकिन कॉफी कडक रहती है, जिसमें शहद का उपयोग करते हैं। कॉफी के साथ चीज केक की व्यवस्था हुई, जिसमें शहद से सजावट दिखी। हवा में लटके फुलों से गमलों के बीच हमारा नाश्ता होता है, यहाँ के खान-पान व संस्कृति की चर्चा के साथ देवसंस्कृति की यादें ताजा होती हैं। यहाँ के प्राकृतिक परिवेश में विताए कुछ पल हमेशा याद रहेंगे।

बापसी में शहर के भव्य एवं विशाल चर्च के भी दर्शन किए, जहाँ ईसा मसीह के 14 फोटो दिवार में टंगे थे, जिसमें 14 ढंग से ईसा के आत्म-बलिदान के दृष्टांतों को दर्शाया गया था। रास्ते में पार्क में नॉबेल पुरस्कार विजेता, पोलिश साहित्यकार एवं पत्रकार हेनरिक सेन्कविच के दर्शन हुए व इनका परिचय पाया। इस तरह आज का दिन अकादमिक गतिविधियों से भरा रहा, जिसका शुभारम्भ ऐतिहासिक शहर तोरुण के दर्शन एवं समाप्न बिडगोश की पारम्परिक कॉफी के स्वाद के साथ हुआ।      बिडगोश में हमारा प्रवास अंतिम चरणों की ओर बढ़ रहा था। अगले ब्लॉग में प्रस्तुत है, पोलैंड यात्रा, भाग-8, अंतिम दिनों की कुछ दिलचस्प यादें।

मंगलवार, 26 मई 2020

यात्रा वृतांत – 6, पोलैंड का छिपा नगीना, तोरुण शहर


तोरुण के मध्यकालीन ऐतिहासिक शहर में...

आज का दिन हमारा बिडगोश शहर के पास के ऐतिहासिक शहर तोरुण के दर्शन का था। ज्ञात हो कि यह पोलैंड ही नहीं पूरे यूरोप का अपनी ऐतिहासिक विरासत को संजोए सबसे सुन्दर शहर माना जाता है। यह एक ऐसा सौभाग्यशाली शहर है जो द्वितीय विश्वयुद्ध में हुए ध्वंस एवं हवाई हमलों से बचा रहा। अतः इस की ऐतिहासिक इमारतों एवं समारकों का अपना विशिष्ट महत्व है, जो पौलेंड की मध्यकालीन संस्कृति की झलक देते हैं। अपनी ऐतिहासिक विशेषताओं के कारण तोरुण यूनेस्को द्वारा नामित विश्व की ऐतिहासिक धरोहरों में शुमार है, साथ ही प्रख्यात खगोल वैज्ञानिक कॉपर्निक्स की जन्म एवं कर्मस्थली होने के कारण इस शहर का अपना महत्व है।
बिडगोश शहर से प्रातः नाश्ता कर हम तोरुण शहर के लिए निकल पड़ते हैं। काजिमीर विल्की यूनिवर्सिटी से काल्का मेडेम के पति प्रो. क्रिस्टोफ स्वयं ड्राईविंग कर रहे थे। वे कॉपर्निक्स विश्वविद्यालय में दर्शन विभाग के विजिटिंग प्रोफेसर भी हैं। मितभाषी, स्वयं में मस्त-मग्न सरल स्वभाव के धनी प्रोफेसर साहब 100-120 किमी प्रति घंटे की गति के साथ गाड़ी को यहाँ की स्पाट, सुंदर सड़कों पर दौड़ा रहे थे। ट्रैफिक के नियम स्पष्ट होने के कारण शायद यहाँ ड्राइविंग सरल रहती होगी। गाड़ी की वायीं ओर ड्राईवर सीट हमारे लिए सदा की तरह नया अनुभव थी। रास्ता घने जंगलों, हरे-भरे खेतों एवं सुंदर गाँवों से होकर गुजर रहा था। बिडगोश शहर के बाहर निकलते ही विस्तुला नदी को पार करते हुए लगा जैसे गंगा नदी को पार कर रहे हैं।
यह नदी पोलैंड की सबसे लम्बी नदी है, जो पौलेंड के आर-पार 1047 किमी की यात्रा तय करते हुए बाल्टिक सागर में जा गिरती है। पौलेंड के दक्षिण की पर्वतश्रृंखलाओं से निकलने वाली इस नदी को पोलैंड की सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय पहचान के रुप में देखा जाता है। तोरुण में पुनः इसके दर्शन होने वाले थे, जो इसके किनारे बसा हुआ ऐतिहासिक शहर है।
रास्ते में ही भव्य गिरिजाघर के दर्शन हुए, जो आधुनिक वास्तुशिल्प के साथ एक अलग ही नजारा पेश कर रहा था। एक घण्टे के सुखद सफर के बाद हम तोरुण के कॉपर्निक्स विश्वविद्यालय के कैंप्स में पहुँच चुके थे, जहाँ हमें यहां की गाईड केरोलिना शहर का भ्रमण करवाती हैं। यहीं शहर में ही निर्मित ईँट से बने ऐतिहासिक भवन में प्रवेश से शुरुआत होती है, जिसके अन्दर नगरीय व्यवस्था की प्रारम्भिक प्रशासनिक एवं कानूनी प्रक्रिया के हिसाब से बने भवन की जानकारी मिलती है।
इसी के मार्ग में गगनचूम्बी चार दिवारी में बने मध्यकालीन चर्च के दर्शन होते हैं। यहाँ मदर मेरी की प्रतिमा को देखकर ऐसा लग रहा था जैसे माँ भगवती के ही दर्शन हो रहे हों और प्रेम के प्रतीक भगवान ईसा मसीह की भव्य प्रतिमा बहुत सुंदर लग रही थी।
दिवार में संत भाई लारेंस के चित्र हमें इनके अगाध प्रभु प्रेम की याद दिलाते हैं। गीताप्रेस गोरखपुर द्वारा इन पर लिखी पुस्तक – भाई लारेंस के पत्र सहज ही स्मरण आईं, जो हर आध्यात्मिक जिज्ञासु के लिए पठनीय है। लगा सभी धर्म बाहरी रुप में भिन्न होते हुए, मूल भाव तो सबके एक ही हैं, जिन्हें एक आध्यात्मिक पिपासु होकर, खुले मन से विचार कर ह्दयंगम किया जा सकता है।
यहीं चौराहे पर खगोलविद कोपर्निक्स का समारक शहर का विशिष्ट आकर्षण लगा, जिसके सामने पर्यटकों की फोटो खिंचाने की होड़ लगी थी, हम भी एक यादगार फोटो के साथ आगे बढ़ते हैं। शहर के ही दूसरे छोर पर कोपर्निक्स की जन्म स्थली के भी दर्शन होते हैं, जो इनके समृद्ध पारिवारिक पृष्ठभूमि पर भी प्रकाश डालते हैं व अब यह भव्य भवन संग्रहालय के रुप में विकसित एवं संरक्षित है। मालूम हो कि कॉपर्निक्स ने सबसे पहले यह बताने की कोशिश की थी कि पृथ्वी सूर्य के गिर्द घूमिती है, जो प्रचलित धार्मिक मान्यताओं के खिलाफ था। इससे पहले कि इनको कोई सजा होती, कॉपर्निक्स अपना शरीर छोड़ चुके थे।
यहीं चौराहे के उस पार एक स्टील का गधा बना हुआ दिखा, जिसके चारों ओर काफी भीड़ लगी थी। पता चला कि यह यहाँ की मध्यकालीन न्याय व्यवस्था का एक हिस्सा था, जब अपराधियों को इसके ऊपर कई घण्टों बैठने की सजा दी जाती थी। इसकी पीठ पर कुछ सेमी ऊँची पट्टी लगी हुई है, जिस पर बैठना निसन्देह रुप में अपराधियों के लिए एक कष्टदायक अनुभव रहता रहा होगा।
यहाँ के ऐतिहासिक भवनों को पार करते हुए हम जिंजर-कूकीज की सजी दुकानों को देखते हुए आगे बढ़ते हैं, जिन्हें यहाँ के पारम्परिक आटे, शहद एवं विशिष्ट मसालों के साथ बनाया जाता है।
यह परम्परा चौदहवीं सदी से चल रही है, अतः तोरुण शहर की जिंजर कुकीज पौलेंड में विशेष दर्जा रखती हैं। यूरोप के व्यवसायिक मार्ग पर स्थित होने के कारण तोरुण की ये कूकीज पौलेंड एवं यूरोप के दूसरे हिस्सों में भी निर्यात होती रही हैं व हो रही हैं।
विस्तुला नदी भी शहर का एक प्राकृतिक आकर्षण है, जिसके तट पर यह बसा हुआ है। शहर को बाढ़ एवं बाह्य हमलों से संरक्षण देती ईंट की मोटी चार दिवारी को पार करते ही हम बिस्तुला नदी के सामने खड़़े थे। नदी का तट बहुत सुन्दर एवं भव्य लग रहा था, जिसमें छोटी नाव एवं बड़े स्टीमर चल रहे थे। स्पष्ट था कि नदी भी यहाँ यातायात का एक प्रमुख साधन है, जिसके माध्यम से व्यापार की बात हम कर चुके हैं।
शहर के एक कौने पर हमें झूकी मीनार के दर्शन होते हैं, जिसे पीसा की झुकी मीनार से भी अधिक प्राचीन माना जाता है औऱ लोग यहाँ खड़ा होकर स्वयं के पापी एवं पुण्यात्मा होनी की परीक्षा करते हैं। यदि मीनार के साथ खड़े होकर कुछ सैकण्ड टिककर खड़े हो सके तो पुण्यात्मा अन्यथा पापात्मा। इस परीक्षा में कोई विरला ही पास होता हो।
शहर का चप्पा-चप्पा मध्यकालीन वास्तुशिल्प की सुंदर स्मृतियों को समेटे हुए एक अलग ही अनुभव दे रहा था। यहाँ के गोइथिक शैली में बने भवन एवं एतिहासिक इमारतें अपनी अलग-अलग कहानी व्याँ कर रहे थे।
इसकी पारम्परिक साज-सज्जा में घर-आंगन एवं चौराहे पर रंग-विरंगे फूलों के गमलों की सजावट प्राकृतिक सौंदर्य से जुड़़ी भव्य सांस्कृतिक परम्परा का अहसास दिला रही थी।
यहीं बीच में देशी जायके वाले रुबरु रेस्टोरेंट में हमारा दिन का भोजन होता है, जहाँ काल्का मेडेम और उनके पतिदेव प्रो. क्रिस्टोफ हमारा इंतजार कर रहे थे। रुचि के अनुकूल उनके लिए नोन-वेज भोजन आता है और हम शाकाहारी भोजन ग्रहण करते हैं।
यह बिडगोश के रुबरु होटल की ही श्रृंखला का विस्तार था, जिसे यहाँ के स्थानीय लोग चला रहे थे, लेकिन कुक नेपाल के भाई रोमेश थे, जिनसे मिलकर आत्मीयता का अहसास हुआ।
भोजन के बाद हम यहाँ की स्थानीय दुकानों से स्मृति स्वरुप कुछ उपहार खरीदते हैं, जो जलोटी में उचित दाम पर हमें मिले। गाइड केरोलिना के साथ भावभरी विदाई के साथ तोरुण के ऐतिहासिक शहर का यादगार सफर पूरा होता है। हालाँकि इतने कम समय में इस ऐतिहासिक शहर का एक विहंगावलोक ही हो सकता था, इसके विस्तार से दर्शन को भविष्य के लिए छोड़, हम हरे-भरे सुंदर मार्ग से होते हुए बापिस बिडगोश शहर आते हैं, जहाँ आकादमिक एक्सचेंज के कार्यक्रम सम्पन्न होने थे, जिसे आप अगली ब्लॉग पोस्ट, पोलैंड यात्रा, भाग-7 अकादमिक संवाद एवं पारंपरिक कॉफी का स्वाद, में पढ़ सकते हैं।

चुनींदी पोस्ट

प्रबुद्ध शिक्षक, जाग्रत आचार्य

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