स्वराज के अमर योद्धा की अद्वितीय शौर्य-बलिदानी
गाथा
बाहुबली के बाद एक ऐसी फिल्म आई है, जो दर्शकों को
अपने सिनेमाई करिश्मे के साथ मंत्रमुग्ध कर रही है और उनमें एक नया जोश, एक नयी
ऐतिहासिक समझ व सांस्कृतिक चेतना का संचार कर रही है। मराठा योद्धा तानाजी मालुसरे
के अप्रतिम शौर्य, बलिदान एवं अदम्य साहस की गाथा पर आधारित यह फिल्म शुरु से अंत
तक दर्शकों को बाँधे रखती है। इसके कथानक की कसावट, चरित्रों के रोल, चाहे वे
तानाजी के रुप में अजय देवगन हों, खलनायक उदयभान सिंह राठौर के रुप में सैफ अली
खान या सावित्री बाई के रुप में काजोल या छत्रपति शिवाजी महाराज के रुप में शरद केलकर
या अन्य – सभी अपनी जगह सटीक छाप छोड़ते हैं। पृष्ठभूमि में सुत्रधार के रुप में संजय
मिश्रा की आबाज अपना प्रभाव डालती है। एनीमेशन एवं वीएफएक्स का उत्कृष्ट प्रयोग
इसकी विजुअल अपील को ज्बर्दस्त ढंग से दर्शकों को हर दृश्य में हिस्सेदार बनाती
है। गीत-संगीत एवं नृत्य भी स्वयं में बेजोड़ है, जिनमें भागीदार होकर दर्शक
शौर्यभाव से भर जाते हैं। युद्ध के बीच-बीच में हल्की कॉमेडी दर्शकों को गुदगुदाती
है तो मानवीय भावों के मार्मिक चित्रण दर्शकों को भावुक कर देते हैं।
आश्चर्य नहीं कि जीवंत इतिहास के रोमाँचक पलों के
साक्षी बनते हुए दर्शकों के अंदर जैसे भावनाओं का समन्दर लहलहा उठता है और फिल्म के
अंत में नम आँखों के साथ दर्शक बाहर निकलता है। कुल मिलाकर अनसंग वॉरियर तानाजी का चरित्र दर्शकों के जेहन में
अपनी अमिट छाप छोड़ जाता है।
आश्चर्य नहीं कि पहले दिन से फिल्म को देखने के
लिए दर्शकों की भीड़ उमड़ रही है और 2020 की यह सबसे लोकप्रिय एवं हिट फिल्म के
रुप में उभरी है। 8.6 की आईबीडीएम रेटिंग के साथ बॉक्स ऑफिस पर फिल्म ने धमाल मचा
रखा है। दूसरे सप्ताह भी तान्हाजी का जादू दर्शकों के सर चढ़कर बोल रहा है। बॉक्स
आफिस पर महज सप्ताह में 100 करोड़ क्लब में शामिल हो चुकी है और इस सप्ताह 200
करोड़ की ओर अग्रसर है और आगे यह किन नए रिकॉर्ड को स्थापित करती है, देखना रोचक
होगा।
विदित हो कि सोलहवीं शताब्दी के मध्य तक लगभग
पूरा भारत मुगल शासकों के अधीन था। शिवाजी के पिता शाहजी भौंसले मुगल शासन में एक
सैन्य अधिकारी के रुप में कार्यरत थे। माता जीजाबाई नहीं चाहती थी कि उनका वेटा
शिवा भी मुगलों के अधीन काम करे। वे बालक शिवा को बचपन से ही रामायण-महाभारत की
कथाओं के माध्यम से स्वतंत्रता, स्वाभिमान एवं शौर्य की भावना कूट-कूट कर भरती हैं।
दादाजी
कोन्डेव उन्हें युद्धकला एवं नीतिशास्त्र में पारंगत बनाते हैं। साहसी एवं स्वाभिमानी मराठों को इक्टठा कर बालक
शिवा उन्हें प्रशिक्षित करते हैं और मात्र 15 साल
की आयु में तोरण का किला जीतकर स्वराज की ओर पहला कदम उठाते हैं। इस तरह इनका विजय अभियान आगे बढ़ता है और कई किले
इनके अधिकार में आ जाते हैं तथा स्वराज की परिकल्पना मूर्त होने लगती है। मुगल शासक औरंगजेब को यह विस्तार
नागवार गुजरता है
और वो विराट सेना के साथ हमला करवाता
है। मध्यम मार्ग अपनाते हुए पुरन्दर की संधि होती है, जिसमें
कोन्ढाणा सहित 23 किले खो बैठते हैं। कूटनीतिक चाल चलते
हुए मुगल शासन मराठा शक्ति
को चुनौती देने के उद्देश्य से राजपूत यौद्धा उदयभान सिंह राठोर को कोन्ढाणा का सरदार बनाते हैं।
कोन्ढाणा का किला रणनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण होने के साथ माता जीजावाई को विशेषरुप से प्रिय था, जिसको अपने अधिकार में लाने की दृष्टि से शिवाजी महाराज स्वयं धावा करने की तैयारी करते हैं।
कोन्ढाणा का किला रणनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण होने के साथ माता जीजावाई को विशेषरुप से प्रिय था, जिसको अपने अधिकार में लाने की दृष्टि से शिवाजी महाराज स्वयं धावा करने की तैयारी करते हैं।
ईधर तानाजी अपने बेटे की शादी का निमंत्रण लेकर
राजगढ़ पहुँचते हैं। जब पता चलता है कि कोन्ढाणा के किले के लिए युद्ध की तैयारियाँ
चल रही हैं, तो वे इसका जिम्मा स्वयं पर ले लेते हैं। तानाजी एक बार छद्मवेश में
जाकर किले का पूरा मुआइना करते हैं और इसके बाद पाँच सौ मराठा यौद्धाओं को साथ
लेकर दो हजार सैनिकों से आबाद किले पर चढ़ाई करते हैं। इसके लिए वे रात के अंधेरे
में किले के चढ़ाईदार पश्चिमी हिस्से से उपर चढ़ते हैं, जहां पहरा कम रहता है तथा
कल्याण दरवाजे से प्रवेश करते हैं और अंदर घमासान युद्ध होता है।
युद्ध के दौरान
एक हाथ कटने के बाद, तानाजी इस पर पगडी लपेट कर ढाल के साथ लड़ते हैं। युद्ध में
अंततः उदयभान सिंह राठोर परास्त हो जाता है, लेकिन तानाजी भी वीरगति को
प्राप्त हो जाते हैं। किला मराठाओं के कब्जे में आ जाता है, लेकिन वे अपना सरदार
खो बैठते हैं। इस पर शिवाजी महाराज के शब्द थे – गढ़ आला पण सिंह गेला
अर्थात् गढ़ तो जीत लिया, लेकिन मेरा सिंह नहीं रहा। तब से कोन्ढाणा किले का नाम
सिंहगढ़ पड़ता है। पुना से महज 35 किमी दूर सिंहगढ़ आज एक लोकप्रिय पर्यटन स्थल
है, जो इस फिल्म के बाद पूरे देश की नजर में आ चुका है। युद्ध के बाद शिवाजी
महाराज स्वयं तानाजी के बेटे की शादी करवाते हैं और तानाजी का बूत स्मृति
समारक के रुप में सिंहगढ़ में स्थापित होता है।
उत्कृष्ट एनीमेशन एवं वीएफएक्स का उपयोग करते हुए
किले को व युद्ध के हर दृश्य को जीवंत तरीके से दर्शाया गया है। युद्ध का
फिल्माँकन हॉलीबुड की किसी भी युद्ध फिल्म से कम नहीं है, जिसमें भारतीय सिनेमा
(बालीवुड़) के विश्व सिनेमा की ओर बढ़ते कदमों की आहट देखी जा सकती है। ऐसे तकनीकी
कौशल से बनी फिल्में विदेशों में जहाँ इससे कई गुणा अधिक बजट में बनती है, वहीं यह
फिल्म महज 150 करोड़ रुपए में तैयार हुई है, जिसे कुछ विशेषज्ञ भारत के मंगल ग्रह
पर भेजे चंद्रयान की तरह किफायती प्रयोग मान रहे हैं। मालूम हो कि फिल्म के
एनीमेशन व वीएफएक्स में स्वदेशी तकनीशियनों ने काम किया है।
हमारे विचार में तान्हाजी बाहुबली के बाद एक
दूसरी बेमिसाल फिल्म आई है, जो दर्शकों के जेहन को कहीं गहरे छू जाती है। साथ ही
ऐतिहासिक दस्ताबेजों के ऊपर आधारित होने के कारण तान्हाजी का असर बाहुबली से कहीं
अधिक गहरा एवं व्याप्क प्रतीत होता है, क्योंकि इसके साथ छत्रपति शिवाजी महाराज का
भव्य एवं दिव्य चरित्र भी अभिन्न रुप में जुड़ा हुआ है।
फिल्म
के माध्यम से जहाँ
दर्शकों की ऐतिहासिक समझ रवाँ हो रही
है, वहीं स्वदेश एवं राष्ट्रभक्ति के
भावनाएं हिलोंरें मार रही हैं। जिस पावन भाव के
साथ इसके निर्देशक ओम राउत एवं प्रोड्यूसर अजय देवगन ने फिल्म को बनाया है, वह
दर्शकों को कहीं गहरे छू रहा है। कहीं से भी हल्के फिल्मी मनोरंजन को परोसने की
कुचेष्टा यहाँ नहीं दिखती। पात्रों के चरित्र के साथ उचित न्याय इस फिल्म की विशेषता
है, जो आशा है कि अनसंग वॉरियर की श्रृंखला की अगली कढ़ियों में भी बर्करार
रहेंगी।
यदि आपने यह फिल्म अभी तक न देखी हो तो बड़े
थियेटर में जाकर अवश्य देखें। लेप्टॉप या मोबाईल पर इसके साथ न्याय नहीं हो पाएगा।
कुछ तथ्य जो फिल्म को और भी दर्शनीय बनाते हैं –
1. अजय देवगन के फेन्ज के लिए यह फिल्म एक ट्रीट
से कम नहीं है, जो इनकी 100वीं फिल्म भी है। काजोल के साथ इनकी भूमिका के कारण
फिल्म ओर भी विशिष्ट बन गई है। दोनों आठ साल बाद एक साथ किसी फिल्म में काम कर रहे
हैं।
2. खलनायक उदयभान सिंह राठोर के रुप में सैफ अली खान
का अभिनय दर्शनीय है।
3. छत्रपति शिवाजी महाराज के रुप में शरद केलकर भी भूमिका
बेजोड़ है। याद हो कि डब्ब की गई एसएस राजामौली की फिल्म बाहुबली के हिंदी संस्करण
में इन्हीं की आबाज बाहुबली के रुप में गूंजती रही है।
4. मराठा शौर्य पर आधारित यह फिल्म इतिहास का जीवंत
दस्तावेज है। अपने इतिहास से अनभिज्ञ या भूला बैठी पीढ़ी के लिए यह फिल्म एक
प्रभावी एवं जीवंत शिक्षण से कम नहीं है।
5. फिल्म का थ्री-डी संस्करण भी उपलब्ध है, जिसमें थ्री-डी चश्में के साथ फिल्म के दृश्यों व घटनाओं का सघन फील लिया जा सकता है। हालाँकि फिल्म का दू-डी संस्करण भी स्वयं में जीवंत एवं प्रभावशाली है।