शुक्रवार, 27 दिसंबर 2019

यात्रा वृतांत - मेरी पहली मुम्बई यात्रा, भाग-2


अक्सा बीच व कान्हेरी गुफाओं की गोद में


पिछले ब्लॉग में हम मुम्बई में प्रवेश से लेकर, वाशी सब्जी मंडी व यातायात का वर्णन कर चुके हैं, इस पोस्ट में हम अगले दिनों मुम्बई के कुछ दर्शनीय इलाकों के रोचक एवं ज्ञानबर्धक अनुभवों को शेयर कर रहे हैं, जिनमें अक्सा बीच का सागर तट और कान्हेरी गुफाएं शामिल हैं।

मुम्बई की गगनचुम्बी इमारतें महानगर को विशेष पहचान देती हैं, जिनमें अधिकाँशतः कंपनियों के ऑफिस रहते हैं।
महानगरों की आबादी को समेटने के उद्देश्य से कई मंजिले भवनों का निर्माण समझ आता है। फिर यहाँ शायद भूकम्प का भी कोई बड़ा खतरा नहीं है। सागर, नदियाँ व बाँध पास होने की बजह से पीने के पानी भी यहाँ कोई बड़ी समस्या नहीं है। जिंदगी यहाँ भागदौड़ में रहती है, जिसे यहाँ के व्यस्त ट्रेफिक को देखते हुए समझा जा सकता है। नवी मुम्बई के रास्ते में पवाई लेक के दर्शन हुए, जो काफी बड़ी दिखी। इसके किनारे रुकने व अधिक समझने का तो मौका नहीं मिला, लेकिन यह महानगर का एक आकर्षण लगी, जिसके एक ओर आईआईटी मुम्बई स्थित है और पीछे पहाड़ियाँ व घने जंगल।
इसके आगे सागर के बेकवाटर पर बने पुल व पृष्ठभूमि में हरी-भरी पहाड़ियाँ सब मुम्बई को एक खास पहचान देते है और यात्रा में एक नया अनुभव जोड़ते हैं।

पता चला कि यहाँ भागती दौड़ती जिंदगी के बीच बड़ा पाव आम जनता का सबसे लोकप्रिय आहार है। एक तो यह सस्ता है, पेट भराऊ है, तुरन्त तैयार हो जाता है व मिर्च-मसाला अपनी क्षमता के अनुसार एडजेस्ट हो जाता है। फिर चलते-फिरते इसको खा सकते हैं। भाग दौड़ भरे महानगर की जीवनशैली से यह खास मैच करता है। इसके साथ पावभाजी, इडली बड़ा आदि यहाँ के लोकप्रिय स्ट्रीट फूड दिखे।

     एक शाम मुम्बई के अक्सा बीच पधारने का संयोग बना। यह मलाड़ से उत्तर-पश्चिम का सागर तट है, जो एक पिकनिक स्पॉट के रुप में लोकप्रिय है। समुद्र के किनारे सड़क यहाँ तक पहुँचती है, जिसकी राह में नौसेना का एक प्रशिक्षण केंद्र भी पड़ता है। बीच में प्रवेश का कोई शुल्क नहीं रहता। इसमें प्रवेश करते ही स्थानीय फल, फूल तथा व्यंजन के ठेले व दुकानें सजी मिली, जिनका स्वाद हम बापसी में चख्ते हैं। एक बड़ा रिजोर्ट भी यहाँ है और फिर सामने सागर तट, जो ज्वार भाटे के अनुरुप अलग-अलग रुप लेता रहता है। आज की शाम पानी उतार पर था, सो रेतीले तट पर काफी पैदल चलने के बाद हम सागर किनारे पहुँचते हैं। पता चला कि मछुआरों की बस्तियाँ आगे किनारे पर बसी हैं, जहाँ से पानी पीछे से रेतीली मिट्टी को काटते हुए छोटी धाराओं के रुप में सागर में आ रहा था।

     बाद में पता चला कि यहाँ का सागर तट सबसे खरतनाकर तटों में से हैं, जहाँ दो सागर की धाराएं मिलती हैं, जिसके कारण तट बनता-बिगड़ता रहता है। पानी में अंदर घुसने का दुस्साहस करने वाले कई पर्यटकों के इसके रेतीले तटों में अंदर धंसने व सागर में समा जाने की दुर्घटनाएं होती रहती हैं। अतः यहाँ सागर तट में अधिक अंदर प्रवेश करना खतरे से खाली नहीं रहता। 
आज की ढलती शाम अ्ंधेरे की काली चादर औढ चुकी थी, ऐसे में बीच के किनारे की टिमटिमाती रोशनियाँ सागर में अपनी परछाई के साथ बहुत सुंदर नजारा पेश कर रही थी।


     इसी दिशा में कुछ नीचे एक बड़ा बौद्ध स्तूप बना हुआ है, जिसके भव्य दर्शन दिन के उजाले में यहाँ से होते हैं। यह बीच एक लोकप्रिय शूटिंग स्पॉट भी है, जिसके नयनाभिराम दृश्य के कारण कई फिल्मों के गीत व दृश्यों की शूटिंग यहाँ हो चुकी है। जो भी हो यहाँ सागर व आसमान को छूते अनन्त क्षितिज को निहारते हुए कुछ पल विराट प्रकृति से मूक संवाद के विताए जा सकते हैं। हम भी कुछ पल इसका आनन्द लेते हुए फिर बापिस आते हैं।
बापसी में भूट्टा, नारियल पानी, यहाँ के जंगली फलों के खट्टे-मिठे स्वादों का लुत्फ उठाते हुए बीच से बाहर निकले।




मुम्बई के दूसरे छिपे प्राकृतिक खजाने से परिचय अभी शेष था, जो इस पहली यात्रा का एक विशिष्ट अनुभव बनने  बाला था और मुम्बई के बारे में हमारी धारणा को आमूल बदलने बाला भी। यह मुम्बई में बॉरिबली से सात किमी अंदर जंगल में घुसकर बसाल्ट चट्टानों को काटकर बनायी गई एक हजार से दो हजार साल पुरानी गुफाएं थीं, जो कान्हेरी गुफाओं के नाम से प्रख्यात हैं। यहाँ बाहर गेट पर निर्धारित शुल्क के साथ प्रवेश होता है। बसें हर आधा घण्टे में चलती रहती हैं। घने जंगल से होकर सात किमी सफर तय होता है।
माना जाता है, कि जंगल में स्थित ये गुफाएं प्राचीन काल में सागर मार्ग से आने वाले यात्रियों के मार्ग की पड़ाव रहती थी, जो व्यापार के उद्देश्य से मुम्बई से होकर भारत के उत्तरी क्षेत्रों में आगे बढ़ते थे। ये गुफाएं रुकने व विश्राम का स्थल हुआ करती थी। धीरे-धीरे ये बौद्ध भिक्षुओं के रुकने व साधना का स्थल बनती गयी। राजाश्रय में इन्हें विधिवत ढंग से तराशा गया, जो बाद में बौद्ध विहार एवं प्रशिक्षण केंद्र के रुप में विकसित हुई।

यहाँ पर अभी भी उपलब्ध लगभग 108 गुफाओं में इनकी झलक पायी जा सकती है। कुछ रुकने के लिए हैं, कुछ पूजा व सामूहिक ध्यान के हिसाब से विकसित। कुछ में सामूहिक कक्षाओं की व्यवस्था दिखती है। कुछ विश्राम व शयन के हिसाब से बनी हुई हैं। इनके बीचों बीच झरना स्नान व धोबीघाट के रुप में बहुत उपयुक्त लगता है। यहाँ जल संचय की भी समुचित व्यवस्था देखी जा सकती है।
भारतीय पुरातत्व विभाग की देख-रेख में इनकी साज-संभाल अभी हो रही है। इन गुफाओं के शिखर पर या चट्टानी छत से जंगल के पार पहाड़ों के बीच झांकती मुम्बई शहर की गगमचूम्बी ईमारतों को देखा जा सकता है, साथ ही अक्सा-बीच, बौद्ध विहार आदि के साथ सागर तट की झलक भी यहाँ से मिलती है। यहाँ के घने जंगल में शेर, चिता, हिरन आदि भी रहते हैं, जिनके दर्शन की सफारी टूर व्यवस्था यहाँ रहती है। आज रविवार होने के कारण यहाँ प्रवेश बंद था।

अब तक कन्हेरी गुफाओं की छत तक पहुँचते-पहुँचते हम थक कर चूर हो चुके थे, शरीर पसीने से भीग रहा था। लेकिन दूर सागर से जंगल की ओर आ रहे हवा के झोंके हरे बनों की खुशबू को समेटे हमारी थकान पर मलहम लगा रहे थे, पसीना सूख रहा था। यहीं पर एक उपयुक्त स्थान पर बैठकर प्रियंका, संगम एवं भाई के संग इन विशिष्ट पलों को केप्चर करती एक ग्रुप फोटो खिंचवाते हैं। कुछ पल यहाँ की ठंडी हवा में विश्राम करते हैं, साथ लिए फलों का सेवन करते हैं और तरोताजा होकर बापिस चल देते हैं।




यहाँ से धीरे-धीरे सीढ़ियों को उतरते हुए बापिस प्रवेश गेट की ओर आते हैं। रास्ते में एक विदेशी यात्रियों का वीआईपी डेलीगेशन भी इनके दर्शन के लिए अपने गाईड़ के साथ रास्ते में मिला। जो भी हो कान्हेरी गुफा प्रकृति प्रेमी घुमक्कड़ों के लिए रोमाँच का खजाना है और अगर आपका ऐतिहासिक एवं आध्यात्मिक रुझान भी है, तो ये स्थल किसी वरदान से कम नहीं है। आप स्वयं को खोजने, खोदने व जानने के कुछ बहुमूल्य पल यहाँ बिता सकते हैं।
गेट पर हम आदिवासी महिलाओं द्वारा पत्तों पर काटकर रखे जंगली खट्टे-मीठे फलों का स्वाद चखते हैं। इनमें एक फल काटने पर स्टार फिश जैसा लग रहा था।
आते समय हम लोग लोकल बस में सात किमी जंगल का सफर किए थे, लेकिन बापसी में कोई बस उपलब्ध न होने के कारण हम पैदल ही चल देते हैं। आधे रास्ते तक यहाँ के घने जंगल, शांत प्राकृतिक वातावरण, कलकल बहती जल धाराओं के बीच जंगल पार करते गए। यहाँ की वृहदाकार बेलों से लदे पुराने पेड़ इस जंगल की पुरातनता की कहानी को व्यां कर रहे थे, कितने व्यापारी, बौद्ध भिक्षु एवं यात्री प्राचीनकाल से इस जंगल व राह से होकर गुजरे होंगे।


यात्रा की थकान धीरे-धीरे हॉवी हो रही थी, बीच में एक पुलिया पर वृक्षों की छाया में कुछ पल विश्राम कर आगे चल देते हैं। एक जंगली बस्ती के समीप बस मिलने पर शेष आधा मार्ग बस में बैठकर तय करते हैं। गुफा के बाहर सडक पर छन रहे गर्मागर्म ताजे बड़ा पाव का आनन्द लिया, जिसकी यहाँ के लोकजीवन में विशेषता के बारे में हम काफी सुन चुके थे। 

हमारे बिचार में मुम्बई जैसे महानगर में सप्ताह भर मेहनतकश लोग प्रकृति की गोद में रिलेक्स होने व बैट्री चार्ज करने के लिए कान्हेरी गुफाओं में आ सकते हैं। यहाँ के नीरव परिवेश में कुछ पल आत्मचिंतन, मनन व ध्यान का बिताकर जीवन में एक नयी ताजगी का संचार कर सकते हैं। ऐसे में मुम्बई वासियों के लिए ये गुफाएं किसी बरदान से कम नहीं है। यदि कोई यहाँ रहते हुए भी इनसे परिचित नहीं है, तो उसे अभागा ही कहा जाएगा। 


यहाँ की सात नम्बर गुफा में चट्टानी आसन पर विताए चिंतन-मनन व ध्यान के पल हमें याद रहेंगे और फिर अगली बार और गहराई में इन अनुभवों से गुजरना चाहेंगे।



मुम्बई शहर के नाम का अर्थ खोजते हुए हमें पता चला की यह मुम्बा माता(माँ पार्वती का रुप) के नाम पर पडा है, जो यहाँ की कुलदेवी हैं। फिर राह में सिद्धि विनायक और महालक्ष्मी जैसे सिद्ध मंदिर मुम्बई को एक आध्यात्मिक संस्पर्श देते हैं। सागर तट पर हाजीअली की दरगाह, सागर पर एलिफेंटा गुफाएं, चर्च आदि सभी धर्मों को अपने आध्यात्मिक मूल से जुड़ने के तीर्थ स्थल हैं। मुम्बई को इस नज़रिए से भी एक्सप्लोअर करने का मन था, लेकिन समय अभाव के कारण संभव नहीं हो पाया। लगा ये अगली यात्रा के माध्यम बनेंगे।

इसी भाव के साथ कार्य पूरा होने पर हम मुम्बई सेंट्रल स्टेशन पर आ जाते हैं और शाम को राजधानी एक्सप्रैस में बैठकर मुम्बई को विदा करते हैं।


बापसी में रेल्वे ट्रेक के दोनों ओर हम मुम्बई शहर के दर्शन करते रहे। लोकल ट्रेन में सरपट भागती दौडती जिंदगी के बीच यहाँ महानगर के लोकजीवन को निहारते हुए हम महानगर से बाहर निकलते हैं।
महानगर के बाहर रास्ते में बंजर जमीन बहुतायत में दिखी। किसी तरह की खेती वाड़ी का अभाव दिखा। यात्रियों से चर्चा करने पर समझ आया कि यह क्षेत्र समुद्री इलाके का हिस्सा है, जो ज्वार-भाटे व बाढ़ आदि से अधिक प्रभावित रहता है। रास्ते में  ही नदी व बेकवाटर के कारण जलमग्न भूमि को देख इसकी पुष्टि हुई।
आगे अंधेरा शुरु होता है व गुजरात के सूरत, बड़ोदरा जैसे शहरों से होकर रात का सफर आगे बढ़ता है। रात नींद की गोद में बीत जाती है और प्रातः हम दिल्ली रेल्वे स्टेशन पर पहुँच जाते हैं।
यहाँ से आईएसबीटी बस स्टेंड पहुँचते हैं। भाई सीधा दिल्ली-मानाली बस से हिमाचल अपने गाँव की ओर कूच करता है, तो हम हरिद्वार।
इस तरह हमारी पहली मुम्बई यात्रा इस महानगरी को एक नया अर्थ दे जाती है। इसके प्रति हमारी भाँत धारणाओं का कुहासा छंटता है, एक नया भाव जगता है, जो इसे हमारे लोकप्रिय महानगरों की श्रेणी में शुमार करता है। इसे अभी ऊपर दी गई दो पोस्टों में शेष रह गए बिंदुओं के एंग्ल से एक्सप्लोअर करना शेष है। देखते हैं कब बुलावा आता है व अगली यात्रा का संयोग बनता है।
यदि आपने यात्रा का पहला भाग नहीं पढा हो, तो आगे दिए लिंक पर पढ़ सकते हैं - मेरी पहली मुम्बई यात्रा, भाग-1

यात्रा वृतांत - मेरी पहली मुम्बई यात्रा, भाग-1


मायानगरी से पहला परिचय

बचपन के बम्बई और आज के मुम्बई का नाम सुनते दशकों बीत गए, लेकिन यहाँ की यात्रा का कभी कोई संयोग नहीं बन सका। सुनी-सुनाई बातों और बहुत कुछ मीडिया की जुबानी, इस महानगर की छवि एक घिच-पिच शहर की बन गयी थी, जहाँ शोर-शराबा, भाग-दौड़ भरी हाय-हत्या, प्रदूषण और नरक सा जीवन होगा। फिर मायानगरी नाम से इसके घोर भौतिकवादी स्वरुप का अक्स जेहन में उभरता था। लेकिन अक्टूबर माह में जब अचानक मुम्बई के भ्रमण का संयोग बना, तो 3-4 दिन में ही मुम्बई के प्रति हमारे सारे भ्रम के बादल छंटते गए। महानगर से हल्का सा ही सही, किंतु ऐसा गाढ़ा परिचय हुआ कि मुम्बई हमारे सबसे मनभावन महानगरों की श्रेणी में शुमार हो गया।
इस महानगर में प्रकृति, संस्कृति, इतिहास, भूगोल, परम्परा, अध्यात्म और एडवेंचर की जो झलक मिली, संभावनाएं दिखीं, वो हमारी कल्पना से परे थी। साथ ही अहसास हुआ कि पुरुषार्थी एवं जुझारू प्रतिभाओं के लिए यह महानगर संभावनाओं का द्वार है, जहाँ प्रतिभा एवं कला के कदरदानों की कमी नहीं। और यदि व्यक्ति विवेक से काम ले तो मुम्बई स्वर्ग से कम नहीं है, जहाँ व्यक्ति धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष सभी पुरुषार्थों को साध सकता है और यह मायानगरी माया के बीच रहते हुए व्यक्ति को इससे पार जाने का रास्ता भी दिखा सकती है।

प्रगतिशील बागवान भाई के संग भारत की सबसे बड़ी फल एवं सब्जी मण्डियों में एक - एपीएमसी फल एवं सब्जी मंडी, नवी मुम्बई, वाशी को एक्सप्लोअर करने के उद्देश्य के साथ इस यात्रा का संयोग बन रहा था। सितम्बर 2019 के अंत में बनी इस यात्रा का शुभारम्भ चण्डीगढ़ एयरपोर्ट से होता है। इससे पहले हिमाचल से चले भाई से हमारी मुलाकात प्रातः सेक्टर-43 में स्थित चण्डीगढ़ बस स्टैंड पर होती है।
अभी फ्लाईट को 4-5 घंटे शेष थे, सो इस खाली समय का सदुपयोग करने के उद्देश्य से हम चण्डीगढ़ के कुछ दर्शनीय स्थलों का विहंगावलोकन करने निकल पड़ते हैं। 17 सेक्टर से सटे रोज गार्डन से गुजरते हुए यहाँ रुकने का विचार करते हैं, लेकिन सुबह की ओंस को देखकर फिर आगे चल देते हैं। आगे शहर के उत्तरी छोर पर मानव निर्मित सुखना लेक ही हमें सही ठिकाना मालूम पड़ता है। इसके बाहर बाहन खड़ा कर हम सीढियों को चढ़कर झील का दिग्दर्शन करते हैं।
हम यहाँ संभवतः तीन दशक बाद आ रहे थे। 1980 के प्रारम्भिक दशक में डीएवी कालेज चण्डीगढ में पढ़ते हए हम एक बार यहाँ आए थे। तब और अब में इसमें बहुत अंतर दिख रहा था। इसके किनारे बनी पक्की सड़क व पगडंडियों पर लोग मोर्निंग वाक कर रहे थे। यहाँ के लोगों की फिटनेस के प्रति सजगता उत्साहबर्धक लगी, जिसमें स्त्री-पुरुष, युवा, प्रौढ़, बुजुर्ग सभी शामिल दिखे। कुछ बरगद के वृहद पेड़ के नीचे योगासन कर रहे थे।

हम लगभग एक-डेढ़ किमी पैदल चलते हुए झील की अर्द्दपरिक्रमा करते हैं, झील की शुद्ध आवोहवा और प्राकृतिक दृश्यावली मन को प्रमुदित कर रही थी। इसके किनारे कुछ यादगार फोटो लेते हैं, इसके छोर पर बने रेस्टोरेंट में नाश्ता करते हैं और फिर चण्ड़ीगढ़ एयरपोर्ट की ओर चल देते हैं। चण्डीगढ़ शहर के बीच से होकर सफर हमेशा ही एक बहुत ही सुखद अनुभव रहता है। चौडी सुव्यवस्थित सड़कें, हरी-भरी झाड़ियों, फूल एवं वृक्षों से सजे चौराहे (जिन्हें शहर के फेफडों की संज्ञा दी जाती है), सड़क के दोनों ओर खड़े बड़े-बड़े पेड़ – इस सीटी ब्यूटीफुल को विशेष पहचान देते हैं। 

इस तरह आधा-पौन घण्टे में हम एयरपोर्ट में प्रवेश कर रहे थे, जो शहर के बाहर ऐयरफोर्स के बेसकेंप के साथ स्थित है, जहाँ एयरफोर्स के हवाई जहाज कतारों में खड़े थे व यदा कदा उड़ान भर व उतर रहे थे।

चण्डीगढ़ एयरपोर्ट में प्रवेश की प्रक्रिया सरल है और यह छोटे आकार का है। यहाँ से इंडिगो सर्विस में हम मुम्बई के लिए उड़ान भरते हैं। यहाँ के एयरपोर्ट पर सामान ढोने में ट्रेक्टर के उपयोग का ठेठ पंजाबी अंदाज हमें बहुत भाया। शायद ही किसी एयरपोर्ट पर ट्रैक्टरों का ऐसा सदुपयोग होता हो।


भाई के लिए हवाई यात्रा का यह पहला अनुभव था, जिसके रोमाँच की कल्पना हम अपनी पहली हवाई यात्रा की उत्सुक्तता का पुनरावलोकन करते हुए कर रहे थे। हवाई पट्टी पर काफी देर तक आगे सरकते हुए अंत में यान स्पीड़ पकड़ता है, जेट इंजन एक्टिवेट हो जाते हैं और कुछ ही पल में एक झटके के साथ यान हवा में उडान भरता है। कुछ ही देर में हम शहर, खेत व सड़कों को पीछे छोड़ते हुए आसमान में बादलों से बातें कर रहे थे।

रास्ते में अधिकाँश समय हम बादलों के ऊपर थे, जहाँ से हम बादलों के नाना रुपाकारों का विहंगावलोकन करते रहे, जो हमेशा ही एक रोमाँचक अनुभव रहता है। बीच में मौसम खराब होने के कारण बादलों के बीच हवाई जहाज के झटकों का अनुभव भी मिलता रहा। लगभग दो घंटे बाद मुम्बई के पास नीचे जमीं के दर्शन होना शुरु हो जाते हैं, बीचों बीच सर्प सी बलखाती नदी व सड़कों की रेखा बहुत सुंदर लग रही थी। सागर तट पर बसे शहर की बसावट मुम्बई में प्रवेश की सूचना दे रही थी, ऐयर होस्टेस की अनाउंसमेंट के साथ इसकी पुष्टि हो रही थी। सागर, शहर के भवन व सड़कों को नजदीक से देखते हुए अंत में एक झटके के साथ छत्रपति शिवाजी महाराज इंटरनेशनल एयरपोर्ट की पट्टी पर उतरते हैं।

मुम्बई एयरपोर्ट से फीड़र बस में चढ़कर हम हवाई अड्डे के भवन में प्रवेश करते हैं और एक्सट्रा लगेज (चेक्ड-इन-बैगेज) न होने के कारण सीधे एग्जिट गेट की ओर बाहर निकलते हैं। बाहर मुम्बई की टीवी इंडस्ट्री में काम कर रही विभाग की पास आउट प्रखर छात्रा प्रियंका इंतजार कर रही थी। एक कतार में खड़ा होकर हम आटो तक पहुँचते हैं। यहाँ की लोक्ल ट्रेन का अनुभव लेते हुए, स्थानीय ऑटो में मलाड़ स्थित अपने रुकने के ठिकाने पर पहुँचते हैं। यहाँ इनके जीवनसाथी संगम राय से मुलाकात होती है, जो एक उदियमान अभिनेता हैं और इससे भी अधिक एक शांत, गंभीर एवं सुलझे हुए व्यक्तित्व के धनी एक शानदार इंसान। 
यहाँ का एकांत-शांत प्राकृतिक परिवेेश हमें भा गया और इनके आत्मीयतापूर्ण व्यवहार के बीच लगा जैसे हम अपने ही घर आ गए हैं। खिड़की के बाहर कबूतरों की गुटरगूँ और पक्षियों की चहचाहट हमें प्रकृति की गोद में ठहरने का बहुत सुखद अहसास करा रही थी।



यहाँ प्रदूषण की कोई समस्या हमें नहीं दिखी, जिसके लिए महानगर कुख्यात होते हैं। क्रिएटिव काम करने लायक यहाँ का एकांत-शांत माहौल हमें बहुत उपयुक्त लगा। सुरक्षा की दृष्टि से भी चिंता की कोई बात यहाँ नहीं दिखी। रात को 12 बजे तक लोगों को, बच्चों बुढ़ों महिलाओं को बाहर कालोनी के पार्क में घूमते पाया, बाहर दशहरे में रामलीला की तैयारियाँ चल रही थी, हर मुहल्ले में गरबा के साथ महिलाओं व बच्चों को नाचते कूदते, एंज्वाय करते देखा। हर मुहल्ले में उत्सव का माहौल हमें चकित करने वाला लगा। प्रतीत हुआ की सामूहिक स्तर पर जीवन को एन्जवाय करना मुम्बईवासियों से सीख सकते हैं अन्यथा शहरों में सब अपने में खोए रहते हैं, किसी को दूसरे से अधिक लेना-देना कहाँ रहता है।

अगले दिनों नवीं मुम्बई, वाशी सब्जी मंडी तक आने-जाने में यहाँ के यातायात के लगभग हर तरह के तौर-तरीकों को अनुभव किया। आटो रिक्शा से लेकर उबर सर्विस, ऐसी बस से लेकर आर्डनरी बस, पैदल से लेकर लोक्ल ट्रेन व सेंट्रल रेल्वे - सभी तरह के अनुभव लिए। लोक्ल ट्रेन यहाँ की लाईफ लाईन लगी। सस्ती, किफायती, सुरक्षित और समय को बचाने वाली। ट्रेन का ढांचा पुराने स्टाईल का दिखने के बावजूद डिजिटल सुविधाओं से युक्त था, जिसमें हर स्टेशन की जानकारियाँ अनाउंस्मेंट के साथ फ्लेश होती रहती हैं।

मलाड़ से नवी मुम्बई, वाशी का किराया दो व्यक्तियों के लिए ऊबर में 550 रुपए तक रहा, वहीं ऐसी बस में 250 रुपए में निपट गया। लोक्ल बस में तो 40 रुपए में काम चल गया। वहीं ट्रेन इससे भी सस्ता विकल्प लगी। व्यक्ति अपने समय, सुविधा, आवश्यकता एवं पॉकेट के अनुसार अपने यातायात के साधन तय कर सकता है, हर तरह के विकल्प यहाँ उपलब्ध दिखे।

वाशी फल एवं सब्जी मंडी में भारत के कौने-कौने से फल व सब्जियाँ आती हैं। जहाँ तक सेब फल की बात है, तो यहाँ हिमाचल के किन्नौर, शिमला व कुल्लू इलाकों के सेब दिखे। साथ ही काश्मीर का सेब आना शुरु हो चुका था।
इसके साथ नाशपाती, केला, तरबूज, अंगूर, संतरा जैसे फलों से मंडी सजी दिखी। हमारे लिए यहाँ ड्रेगन फल एक नया आकर्षण था, जो कम ऊँचाई वाले इलाकों में उगाया जाता है। पता चला यह मूलतः एक विदेशी फल है, लेकिन अपनी पौष्टिकता के कारण भारत में खासा लोकप्रिय हो रहा है व इसका मंडी भाव भी ठीक ठाक रहता है।

दिल्ली-चण्डीगढ़ सहित उत्तर भारत की मंडियों से यहाँ पर एक अन्तर साफ दिखा, कि यहाँ फलों की क्वालिटी पर विशेष ध्यान दिया जाता है। पेटियों में लोड़ हुए फलों को पूरी तरह से चैक कर पैक किया जाता है। गुणवत्ता से कोई समझौता नहीं रहता। प्रायः पैकिंग के दौरान उपर की परतें तो क्वालिटी फलों की रहती हैं, लेकिन नीचे खराब फल भी डाल दिए जाते हैं। यहाँ ऊपर से नीचे तक सारे फल क्वालिटी का रखने का प्रयास दिखा, जिसके अनुरुप यहाँ दाम भी उचित रहते हैं। व्यापक क्षेत्र में फैली यहाँ की मंडी की पृष्ठभूमि में हरे-भरे पहाड़ दर्शनीय लगे और यहाँ आकाश में उडान भरते वायुयान ध्यान आकर्षित करते रहे, क्योंकि मुम्बई एयरपोर्ट की राह का एयर ट्रेफिक वाशी क्षेत्र के ऊपर से होकर गुजरता है। 
शुरु के दो दिन वाशी मंडी के नाम रहे। अगले दिन खाली समय में ठिकाने के पास के दर्शनीय स्थल - अक्सा बीच एवं कान्हेरी गुफाओं को एक्सप्लोअर करने का प्लान था, जिसका वर्णन अगली ब्लॉग पोस्ट में पढ़ सकते हैं। (जारी...) यात्रा के अगले भाग को आप आगे दिए लिंक पर पढ़ सकते हैं - मेरी मुम्बई यात्रा, भाग-2

शुक्रवार, 29 नवंबर 2019

आस्था संकट एवं समाधान की राह

 अध्यात्म शरणं गच्छामि

आस्था जीवन की आध्यात्मिक संभावनाओं से उत्पन्न विश्वास का नाम है, जो अपने से श्रेष्ठ एवं विराट सत्ता से जुड़ने पर पैदा होता है। इसे अस्तित्व का गहनतम एवं उच्चतम आयाम कह सकते हैं, जहां से जीवन के स्थूल एवं सूक्ष्म आयाम निर्धारित, प्रभावित एवं प्रेरित होते हैं। जीवन का उत्कर्ष और विकास आस्था क्षेत्र के सतत सिंचन एवं पोषण से संभव होता है। यदि आस्था पक्ष सुदृढ़ हो तो व्यक्ति जीवन की चुनौतियों का हंसते हुए सामना करता है, प्रतिकूल परिस्थितियों के साथ बखूबी निपट लेता है। सारी सृष्टि को ईश्वर की क्रीड़ा-भूमि मानते हुए वह एक खिलाड़ी की भांति विचरण करता है। लेकिन आस्था पक्ष दुर्बल हो, तो जीवन बोझिल हो जाता है, इसकी दिशाएं धूमिल हो जाती हैं, इसमें विसंगतियां शुरू हो जाती हैं और जीवन अंतहीन संकटों व समस्याओं से आक्रांत हो जाता है।

आज हम आस्था संकट के ऐसे ही विषम दौर से गुजर रहे हैं, जहां एक ओर विज्ञान ने हमें चमत्कारी शक्तियों व सुख-सुविधाओं से लैस कर दिया है, वहीं दूसरी ओर हम अपनी आस्था के स्रोत से विलग हो चले हैं। ऐसे में जीवन का अर्थ भौतिक विकास, भोग-विलास, सुख-साधन एवं सांसारिक चमक-दमक तक सीमित हो चला है, जिसके लिए व्यक्ति कोई भी कीमत चुकाने व नैतिक रूप में गिरने को तैयार रहता है। परिणामस्वरूप जीवन के बुनियादी सिद्धांतों की चूलें हिल रही हैं और इन पर टिके रहने वाली सुख-शांति, सुकून एवं निश्चिंतता के भाव दूभर हो चले हैं। आस्था स्रोत से कटा जीवन जहां भार स्वरूप हो चला है, वहीं अपने समाज-संस्कृति व परिवेश रूपी जड़ों से कटने के दुष्परिणाम नाना प्रकार के संकटों के रूप में मानवीय अस्तित्व को चुनौती दे रहे हैं।
आस्था संकट के कारण व्यक्ति का प्रकृति के प्रति श्रद्धा एवं सम्मान का भाव लुप्त होता जा रहा है, वह इसे भोग्य वस्तु मानता है, जिसके दोहन एवं शोषण से वह कोई गुरेज नहीं करता। ऐसे में पृथ्वी, जल, वायु, आकाश जैसे जीवन के आधारभूत तत्व दूषित हो रहे हैं। इससे उपजे पर्यावरण संकट एवं कुपित प्रकृति की मार से मानवीय अस्तित्व खतरे में पड़ रहा है। आस्था की जड़ें सूखने से जहां जीवन अर्थहीन हो रहा है, वहीं परिवार में तनाव, कलह एवं बिखराव का माहौल है। सामाजिक ताना-बाना विखंडन की ओर बढ़ रहा है। पूरा विश्व आस्था के अभाव में अंतहीन कलह, संघर्षों के कुचक्र में उलझा हुआ है।

व्यक्ति एवं समाज को आस्था की डोर से जोड़ने वाला धर्म तत्व आज स्वयं विकृति का शिकार हो चला है। धर्म को जीवन के शाश्वत विधान की बजाय संप्रदाय के संकीर्ण दायरे से जोड़कर देखा जाने लगा है, जो महज कर्मकांड तक सीमित होकर आत्माहीन स्थिति में दम तोड़ रहे हैं। इनसे उपजी विकृत आस्था व्यक्ति को एक बेहतर इंसान बनाने की बजाय अंधविश्वासी, कट्टर, असहिष्णु एवं हिंसक बना रही है। ऐसी विकृत आस्था के चलते व्यक्ति ईश्वर को भी मूढ़, खुशामद प्रिय मान बैठा है, जिसको वह बिना तप-त्याग एवं पुण्य के कुछ भेंट-भोग चढ़ाकर, चापलूसी के सहारे प्रसन्न करने की चेष्टा करते देखा जा सकता है।
धर्म के नाम पर ऐसी विकृत आस्था के दिन वास्तव में अब लदते दिख रहे हैं। व्यक्तिगत एवं सामाजिक स्तर पर ठोस सुख-शांति एवं प्रगति को तलाशती मानवीय चेतना, धर्म के विकृत स्वरूप से असंतुष्ट होकर इसके आध्यात्मिक पक्ष की ओर उन्मुख हो चुकी है। आश्चर्य नहीं कि आज अध्यात्म सबसे लोकप्रिय विषयों में शुमार है, जिसकी ओर जागरूक लोगों का रुझान तेजी से बढ़ रहा है। इसे अस्तित्व के संकट से गुजर रही मानवता की, जीवन के सही अर्थ की खोज में आस्था के स्रोत से जुड़ने की खोजी यात्रा कह सकते हैं।
इसे व्यक्ति के अपनी आस्था के मूल धर्म के आध्यात्मिक स्वरूप से जुड़ने की व्यग्र चेष्टा के रूप में देखा जा सकता है, जहां हर धर्म अपने शुरुआती दौर में अपने विशुद्धतम रूप में मानवमात्र के कल्याण के लिए प्रकट हुआ था। आज की पढ़ी-लिखी, प्रबुद्ध पीढ़ी धर्म एवं अध्यात्म के व्यावहारिक, वैज्ञानिक एवं प्रगतिशील स्वरूप को जानना चाहती है, जो व्यक्ति को खोया हुआ सुकून दे सके और आपसी प्रेम, सद्भाव एवं शांति के साथ समाज में बेहतर माहौल दे सके।

यही आस्था उसे उस काल-कोठरी से बाहर निकाल पाएगी, जहां उसका दम घुट रहा है, जहां उसे अंधेरे में कुछ सूझ नहीं रहा। जहां वह अंधेरे में अज्ञात भय एवं असुरक्षा के भाव से आक्रांत है। जहां जीवन की उच्चतर संभावनाएं दम तोड़ रही हैं, जीवन के श्रेष्ठ मूल्य एवं पारमार्थिक भाव गौण हो चुके हैं, जीवन नारकीय यंत्रणा में झुलस रहा है। चेतना के संकट से गुजर रहे इस विषम काल में आवश्यकता आस्था के दीपक को जलाने की है, सुप्त मानवीय चेतना एवं दैवीय संभावना को जगाने की है। हर जाग्रत नागरिक एवं भावनाशील व्यक्ति अपनी ईमानदार एवं साहसिक कोशिश के आधार पर इस दिशा में अपना योगदान दे सकता है। (दैनिक ट्रिब्यून, 24नवम्बर,2019 को प्रकाशित)

चुनींदी पोस्ट

प्रबुद्ध शिक्षक, जाग्रत आचार्य

            लोकतंत्र के सजग प्रहरी – भविष्य की आस सुनहरी    आज हम ऐसे विषम दौर से गुजर रहे हैं, जब लोकतंत्र के सभी स्तम्...