शुक्रवार, 27 दिसंबर 2019

यात्रा वृतांत - मेरी पहली मुम्बई यात्रा, भाग-1


मायानगरी से पहला परिचय

बचपन के बम्बई और आज के मुम्बई का नाम सुनते दशकों बीत गए, लेकिन यहाँ की यात्रा का कभी कोई संयोग नहीं बन सका। सुनी-सुनाई बातों और बहुत कुछ मीडिया की जुबानी, इस महानगर की छवि एक घिच-पिच शहर की बन गयी थी, जहाँ शोर-शराबा, भाग-दौड़ भरी हाय-हत्या, प्रदूषण और नरक सा जीवन होगा। फिर मायानगरी नाम से इसके घोर भौतिकवादी स्वरुप का अक्स जेहन में उभरता था। लेकिन अक्टूबर माह में जब अचानक मुम्बई के भ्रमण का संयोग बना, तो 3-4 दिन में ही मुम्बई के प्रति हमारे सारे भ्रम के बादल छंटते गए। महानगर से हल्का सा ही सही, किंतु ऐसा गाढ़ा परिचय हुआ कि मुम्बई हमारे सबसे मनभावन महानगरों की श्रेणी में शुमार हो गया।
इस महानगर में प्रकृति, संस्कृति, इतिहास, भूगोल, परम्परा, अध्यात्म और एडवेंचर की जो झलक मिली, संभावनाएं दिखीं, वो हमारी कल्पना से परे थी। साथ ही अहसास हुआ कि पुरुषार्थी एवं जुझारू प्रतिभाओं के लिए यह महानगर संभावनाओं का द्वार है, जहाँ प्रतिभा एवं कला के कदरदानों की कमी नहीं। और यदि व्यक्ति विवेक से काम ले तो मुम्बई स्वर्ग से कम नहीं है, जहाँ व्यक्ति धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष सभी पुरुषार्थों को साध सकता है और यह मायानगरी माया के बीच रहते हुए व्यक्ति को इससे पार जाने का रास्ता भी दिखा सकती है।

प्रगतिशील बागवान भाई के संग भारत की सबसे बड़ी फल एवं सब्जी मण्डियों में एक - एपीएमसी फल एवं सब्जी मंडी, नवी मुम्बई, वाशी को एक्सप्लोअर करने के उद्देश्य के साथ इस यात्रा का संयोग बन रहा था। सितम्बर 2019 के अंत में बनी इस यात्रा का शुभारम्भ चण्डीगढ़ एयरपोर्ट से होता है। इससे पहले हिमाचल से चले भाई से हमारी मुलाकात प्रातः सेक्टर-43 में स्थित चण्डीगढ़ बस स्टैंड पर होती है।
अभी फ्लाईट को 4-5 घंटे शेष थे, सो इस खाली समय का सदुपयोग करने के उद्देश्य से हम चण्डीगढ़ के कुछ दर्शनीय स्थलों का विहंगावलोकन करने निकल पड़ते हैं। 17 सेक्टर से सटे रोज गार्डन से गुजरते हुए यहाँ रुकने का विचार करते हैं, लेकिन सुबह की ओंस को देखकर फिर आगे चल देते हैं। आगे शहर के उत्तरी छोर पर मानव निर्मित सुखना लेक ही हमें सही ठिकाना मालूम पड़ता है। इसके बाहर बाहन खड़ा कर हम सीढियों को चढ़कर झील का दिग्दर्शन करते हैं।
हम यहाँ संभवतः तीन दशक बाद आ रहे थे। 1980 के प्रारम्भिक दशक में डीएवी कालेज चण्डीगढ में पढ़ते हए हम एक बार यहाँ आए थे। तब और अब में इसमें बहुत अंतर दिख रहा था। इसके किनारे बनी पक्की सड़क व पगडंडियों पर लोग मोर्निंग वाक कर रहे थे। यहाँ के लोगों की फिटनेस के प्रति सजगता उत्साहबर्धक लगी, जिसमें स्त्री-पुरुष, युवा, प्रौढ़, बुजुर्ग सभी शामिल दिखे। कुछ बरगद के वृहद पेड़ के नीचे योगासन कर रहे थे।

हम लगभग एक-डेढ़ किमी पैदल चलते हुए झील की अर्द्दपरिक्रमा करते हैं, झील की शुद्ध आवोहवा और प्राकृतिक दृश्यावली मन को प्रमुदित कर रही थी। इसके किनारे कुछ यादगार फोटो लेते हैं, इसके छोर पर बने रेस्टोरेंट में नाश्ता करते हैं और फिर चण्ड़ीगढ़ एयरपोर्ट की ओर चल देते हैं। चण्डीगढ़ शहर के बीच से होकर सफर हमेशा ही एक बहुत ही सुखद अनुभव रहता है। चौडी सुव्यवस्थित सड़कें, हरी-भरी झाड़ियों, फूल एवं वृक्षों से सजे चौराहे (जिन्हें शहर के फेफडों की संज्ञा दी जाती है), सड़क के दोनों ओर खड़े बड़े-बड़े पेड़ – इस सीटी ब्यूटीफुल को विशेष पहचान देते हैं। 

इस तरह आधा-पौन घण्टे में हम एयरपोर्ट में प्रवेश कर रहे थे, जो शहर के बाहर ऐयरफोर्स के बेसकेंप के साथ स्थित है, जहाँ एयरफोर्स के हवाई जहाज कतारों में खड़े थे व यदा कदा उड़ान भर व उतर रहे थे।

चण्डीगढ़ एयरपोर्ट में प्रवेश की प्रक्रिया सरल है और यह छोटे आकार का है। यहाँ से इंडिगो सर्विस में हम मुम्बई के लिए उड़ान भरते हैं। यहाँ के एयरपोर्ट पर सामान ढोने में ट्रेक्टर के उपयोग का ठेठ पंजाबी अंदाज हमें बहुत भाया। शायद ही किसी एयरपोर्ट पर ट्रैक्टरों का ऐसा सदुपयोग होता हो।


भाई के लिए हवाई यात्रा का यह पहला अनुभव था, जिसके रोमाँच की कल्पना हम अपनी पहली हवाई यात्रा की उत्सुक्तता का पुनरावलोकन करते हुए कर रहे थे। हवाई पट्टी पर काफी देर तक आगे सरकते हुए अंत में यान स्पीड़ पकड़ता है, जेट इंजन एक्टिवेट हो जाते हैं और कुछ ही पल में एक झटके के साथ यान हवा में उडान भरता है। कुछ ही देर में हम शहर, खेत व सड़कों को पीछे छोड़ते हुए आसमान में बादलों से बातें कर रहे थे।

रास्ते में अधिकाँश समय हम बादलों के ऊपर थे, जहाँ से हम बादलों के नाना रुपाकारों का विहंगावलोकन करते रहे, जो हमेशा ही एक रोमाँचक अनुभव रहता है। बीच में मौसम खराब होने के कारण बादलों के बीच हवाई जहाज के झटकों का अनुभव भी मिलता रहा। लगभग दो घंटे बाद मुम्बई के पास नीचे जमीं के दर्शन होना शुरु हो जाते हैं, बीचों बीच सर्प सी बलखाती नदी व सड़कों की रेखा बहुत सुंदर लग रही थी। सागर तट पर बसे शहर की बसावट मुम्बई में प्रवेश की सूचना दे रही थी, ऐयर होस्टेस की अनाउंसमेंट के साथ इसकी पुष्टि हो रही थी। सागर, शहर के भवन व सड़कों को नजदीक से देखते हुए अंत में एक झटके के साथ छत्रपति शिवाजी महाराज इंटरनेशनल एयरपोर्ट की पट्टी पर उतरते हैं।

मुम्बई एयरपोर्ट से फीड़र बस में चढ़कर हम हवाई अड्डे के भवन में प्रवेश करते हैं और एक्सट्रा लगेज (चेक्ड-इन-बैगेज) न होने के कारण सीधे एग्जिट गेट की ओर बाहर निकलते हैं। बाहर मुम्बई की टीवी इंडस्ट्री में काम कर रही विभाग की पास आउट प्रखर छात्रा प्रियंका इंतजार कर रही थी। एक कतार में खड़ा होकर हम आटो तक पहुँचते हैं। यहाँ की लोक्ल ट्रेन का अनुभव लेते हुए, स्थानीय ऑटो में मलाड़ स्थित अपने रुकने के ठिकाने पर पहुँचते हैं। यहाँ इनके जीवनसाथी संगम राय से मुलाकात होती है, जो एक उदियमान अभिनेता हैं और इससे भी अधिक एक शांत, गंभीर एवं सुलझे हुए व्यक्तित्व के धनी एक शानदार इंसान। 
यहाँ का एकांत-शांत प्राकृतिक परिवेेश हमें भा गया और इनके आत्मीयतापूर्ण व्यवहार के बीच लगा जैसे हम अपने ही घर आ गए हैं। खिड़की के बाहर कबूतरों की गुटरगूँ और पक्षियों की चहचाहट हमें प्रकृति की गोद में ठहरने का बहुत सुखद अहसास करा रही थी।



यहाँ प्रदूषण की कोई समस्या हमें नहीं दिखी, जिसके लिए महानगर कुख्यात होते हैं। क्रिएटिव काम करने लायक यहाँ का एकांत-शांत माहौल हमें बहुत उपयुक्त लगा। सुरक्षा की दृष्टि से भी चिंता की कोई बात यहाँ नहीं दिखी। रात को 12 बजे तक लोगों को, बच्चों बुढ़ों महिलाओं को बाहर कालोनी के पार्क में घूमते पाया, बाहर दशहरे में रामलीला की तैयारियाँ चल रही थी, हर मुहल्ले में गरबा के साथ महिलाओं व बच्चों को नाचते कूदते, एंज्वाय करते देखा। हर मुहल्ले में उत्सव का माहौल हमें चकित करने वाला लगा। प्रतीत हुआ की सामूहिक स्तर पर जीवन को एन्जवाय करना मुम्बईवासियों से सीख सकते हैं अन्यथा शहरों में सब अपने में खोए रहते हैं, किसी को दूसरे से अधिक लेना-देना कहाँ रहता है।

अगले दिनों नवीं मुम्बई, वाशी सब्जी मंडी तक आने-जाने में यहाँ के यातायात के लगभग हर तरह के तौर-तरीकों को अनुभव किया। आटो रिक्शा से लेकर उबर सर्विस, ऐसी बस से लेकर आर्डनरी बस, पैदल से लेकर लोक्ल ट्रेन व सेंट्रल रेल्वे - सभी तरह के अनुभव लिए। लोक्ल ट्रेन यहाँ की लाईफ लाईन लगी। सस्ती, किफायती, सुरक्षित और समय को बचाने वाली। ट्रेन का ढांचा पुराने स्टाईल का दिखने के बावजूद डिजिटल सुविधाओं से युक्त था, जिसमें हर स्टेशन की जानकारियाँ अनाउंस्मेंट के साथ फ्लेश होती रहती हैं।

मलाड़ से नवी मुम्बई, वाशी का किराया दो व्यक्तियों के लिए ऊबर में 550 रुपए तक रहा, वहीं ऐसी बस में 250 रुपए में निपट गया। लोक्ल बस में तो 40 रुपए में काम चल गया। वहीं ट्रेन इससे भी सस्ता विकल्प लगी। व्यक्ति अपने समय, सुविधा, आवश्यकता एवं पॉकेट के अनुसार अपने यातायात के साधन तय कर सकता है, हर तरह के विकल्प यहाँ उपलब्ध दिखे।

वाशी फल एवं सब्जी मंडी में भारत के कौने-कौने से फल व सब्जियाँ आती हैं। जहाँ तक सेब फल की बात है, तो यहाँ हिमाचल के किन्नौर, शिमला व कुल्लू इलाकों के सेब दिखे। साथ ही काश्मीर का सेब आना शुरु हो चुका था।
इसके साथ नाशपाती, केला, तरबूज, अंगूर, संतरा जैसे फलों से मंडी सजी दिखी। हमारे लिए यहाँ ड्रेगन फल एक नया आकर्षण था, जो कम ऊँचाई वाले इलाकों में उगाया जाता है। पता चला यह मूलतः एक विदेशी फल है, लेकिन अपनी पौष्टिकता के कारण भारत में खासा लोकप्रिय हो रहा है व इसका मंडी भाव भी ठीक ठाक रहता है।

दिल्ली-चण्डीगढ़ सहित उत्तर भारत की मंडियों से यहाँ पर एक अन्तर साफ दिखा, कि यहाँ फलों की क्वालिटी पर विशेष ध्यान दिया जाता है। पेटियों में लोड़ हुए फलों को पूरी तरह से चैक कर पैक किया जाता है। गुणवत्ता से कोई समझौता नहीं रहता। प्रायः पैकिंग के दौरान उपर की परतें तो क्वालिटी फलों की रहती हैं, लेकिन नीचे खराब फल भी डाल दिए जाते हैं। यहाँ ऊपर से नीचे तक सारे फल क्वालिटी का रखने का प्रयास दिखा, जिसके अनुरुप यहाँ दाम भी उचित रहते हैं। व्यापक क्षेत्र में फैली यहाँ की मंडी की पृष्ठभूमि में हरे-भरे पहाड़ दर्शनीय लगे और यहाँ आकाश में उडान भरते वायुयान ध्यान आकर्षित करते रहे, क्योंकि मुम्बई एयरपोर्ट की राह का एयर ट्रेफिक वाशी क्षेत्र के ऊपर से होकर गुजरता है। 
शुरु के दो दिन वाशी मंडी के नाम रहे। अगले दिन खाली समय में ठिकाने के पास के दर्शनीय स्थल - अक्सा बीच एवं कान्हेरी गुफाओं को एक्सप्लोअर करने का प्लान था, जिसका वर्णन अगली ब्लॉग पोस्ट में पढ़ सकते हैं। (जारी...) यात्रा के अगले भाग को आप आगे दिए लिंक पर पढ़ सकते हैं - मेरी मुम्बई यात्रा, भाग-2

शुक्रवार, 29 नवंबर 2019

आस्था संकट एवं समाधान की राह

 अध्यात्म शरणं गच्छामि

आस्था जीवन की आध्यात्मिक संभावनाओं से उत्पन्न विश्वास का नाम है, जो अपने से श्रेष्ठ एवं विराट सत्ता से जुड़ने पर पैदा होता है। इसे अस्तित्व का गहनतम एवं उच्चतम आयाम कह सकते हैं, जहां से जीवन के स्थूल एवं सूक्ष्म आयाम निर्धारित, प्रभावित एवं प्रेरित होते हैं। जीवन का उत्कर्ष और विकास आस्था क्षेत्र के सतत सिंचन एवं पोषण से संभव होता है। यदि आस्था पक्ष सुदृढ़ हो तो व्यक्ति जीवन की चुनौतियों का हंसते हुए सामना करता है, प्रतिकूल परिस्थितियों के साथ बखूबी निपट लेता है। सारी सृष्टि को ईश्वर की क्रीड़ा-भूमि मानते हुए वह एक खिलाड़ी की भांति विचरण करता है। लेकिन आस्था पक्ष दुर्बल हो, तो जीवन बोझिल हो जाता है, इसकी दिशाएं धूमिल हो जाती हैं, इसमें विसंगतियां शुरू हो जाती हैं और जीवन अंतहीन संकटों व समस्याओं से आक्रांत हो जाता है।

आज हम आस्था संकट के ऐसे ही विषम दौर से गुजर रहे हैं, जहां एक ओर विज्ञान ने हमें चमत्कारी शक्तियों व सुख-सुविधाओं से लैस कर दिया है, वहीं दूसरी ओर हम अपनी आस्था के स्रोत से विलग हो चले हैं। ऐसे में जीवन का अर्थ भौतिक विकास, भोग-विलास, सुख-साधन एवं सांसारिक चमक-दमक तक सीमित हो चला है, जिसके लिए व्यक्ति कोई भी कीमत चुकाने व नैतिक रूप में गिरने को तैयार रहता है। परिणामस्वरूप जीवन के बुनियादी सिद्धांतों की चूलें हिल रही हैं और इन पर टिके रहने वाली सुख-शांति, सुकून एवं निश्चिंतता के भाव दूभर हो चले हैं। आस्था स्रोत से कटा जीवन जहां भार स्वरूप हो चला है, वहीं अपने समाज-संस्कृति व परिवेश रूपी जड़ों से कटने के दुष्परिणाम नाना प्रकार के संकटों के रूप में मानवीय अस्तित्व को चुनौती दे रहे हैं।
आस्था संकट के कारण व्यक्ति का प्रकृति के प्रति श्रद्धा एवं सम्मान का भाव लुप्त होता जा रहा है, वह इसे भोग्य वस्तु मानता है, जिसके दोहन एवं शोषण से वह कोई गुरेज नहीं करता। ऐसे में पृथ्वी, जल, वायु, आकाश जैसे जीवन के आधारभूत तत्व दूषित हो रहे हैं। इससे उपजे पर्यावरण संकट एवं कुपित प्रकृति की मार से मानवीय अस्तित्व खतरे में पड़ रहा है। आस्था की जड़ें सूखने से जहां जीवन अर्थहीन हो रहा है, वहीं परिवार में तनाव, कलह एवं बिखराव का माहौल है। सामाजिक ताना-बाना विखंडन की ओर बढ़ रहा है। पूरा विश्व आस्था के अभाव में अंतहीन कलह, संघर्षों के कुचक्र में उलझा हुआ है।

व्यक्ति एवं समाज को आस्था की डोर से जोड़ने वाला धर्म तत्व आज स्वयं विकृति का शिकार हो चला है। धर्म को जीवन के शाश्वत विधान की बजाय संप्रदाय के संकीर्ण दायरे से जोड़कर देखा जाने लगा है, जो महज कर्मकांड तक सीमित होकर आत्माहीन स्थिति में दम तोड़ रहे हैं। इनसे उपजी विकृत आस्था व्यक्ति को एक बेहतर इंसान बनाने की बजाय अंधविश्वासी, कट्टर, असहिष्णु एवं हिंसक बना रही है। ऐसी विकृत आस्था के चलते व्यक्ति ईश्वर को भी मूढ़, खुशामद प्रिय मान बैठा है, जिसको वह बिना तप-त्याग एवं पुण्य के कुछ भेंट-भोग चढ़ाकर, चापलूसी के सहारे प्रसन्न करने की चेष्टा करते देखा जा सकता है।
धर्म के नाम पर ऐसी विकृत आस्था के दिन वास्तव में अब लदते दिख रहे हैं। व्यक्तिगत एवं सामाजिक स्तर पर ठोस सुख-शांति एवं प्रगति को तलाशती मानवीय चेतना, धर्म के विकृत स्वरूप से असंतुष्ट होकर इसके आध्यात्मिक पक्ष की ओर उन्मुख हो चुकी है। आश्चर्य नहीं कि आज अध्यात्म सबसे लोकप्रिय विषयों में शुमार है, जिसकी ओर जागरूक लोगों का रुझान तेजी से बढ़ रहा है। इसे अस्तित्व के संकट से गुजर रही मानवता की, जीवन के सही अर्थ की खोज में आस्था के स्रोत से जुड़ने की खोजी यात्रा कह सकते हैं।
इसे व्यक्ति के अपनी आस्था के मूल धर्म के आध्यात्मिक स्वरूप से जुड़ने की व्यग्र चेष्टा के रूप में देखा जा सकता है, जहां हर धर्म अपने शुरुआती दौर में अपने विशुद्धतम रूप में मानवमात्र के कल्याण के लिए प्रकट हुआ था। आज की पढ़ी-लिखी, प्रबुद्ध पीढ़ी धर्म एवं अध्यात्म के व्यावहारिक, वैज्ञानिक एवं प्रगतिशील स्वरूप को जानना चाहती है, जो व्यक्ति को खोया हुआ सुकून दे सके और आपसी प्रेम, सद्भाव एवं शांति के साथ समाज में बेहतर माहौल दे सके।

यही आस्था उसे उस काल-कोठरी से बाहर निकाल पाएगी, जहां उसका दम घुट रहा है, जहां उसे अंधेरे में कुछ सूझ नहीं रहा। जहां वह अंधेरे में अज्ञात भय एवं असुरक्षा के भाव से आक्रांत है। जहां जीवन की उच्चतर संभावनाएं दम तोड़ रही हैं, जीवन के श्रेष्ठ मूल्य एवं पारमार्थिक भाव गौण हो चुके हैं, जीवन नारकीय यंत्रणा में झुलस रहा है। चेतना के संकट से गुजर रहे इस विषम काल में आवश्यकता आस्था के दीपक को जलाने की है, सुप्त मानवीय चेतना एवं दैवीय संभावना को जगाने की है। हर जाग्रत नागरिक एवं भावनाशील व्यक्ति अपनी ईमानदार एवं साहसिक कोशिश के आधार पर इस दिशा में अपना योगदान दे सकता है। (दैनिक ट्रिब्यून, 24नवम्बर,2019 को प्रकाशित)

बुधवार, 20 नवंबर 2019

गीता का सार्वभौमिक-सार्वकालिक संदेश



संतप्त ह्दय को आश्वस्त करता गीता का शाश्वत-कालजयी संदेश


 गीता वेदों का निचोड़ एवं उपनिषदों का सार है। श्रीकृष्ण रुपी ग्वाल उपनिषद रुपी गाय को दुहकर अर्जुन रुपी बछड़े को इसका दुग्धामृत पिलाते हैं, जो हर काल के मनुष्यमात्र के लिए संजीवनी स्वरुप है। हर युग में हर स्वभाव के सुपात्र व्यक्ति के लिए उपयुक्त ज्ञान एवं संदेश इसमें निहित है।
इस रुप में गीता देश ही नहीं पूरे विश्वमानवता के लिए भारतभूमि का एक वरदान है। यह भगवान श्रीकृष्ण के श्रीमुख से निस्सृत कालजयी ज्ञान का अक्षय निर्झर है, जिसने हर युग में इंसान को जीवन जीने की राह दिखाई है। भारत ही नहीं विश्व के हर कौने से प्रबुद्धजनों, विचारकों एवं ज्ञान पिपासुओं ने इसका पान किया और मुक्त कंठ से प्रशंसा की।


भारतीय सांस्कृतिक नवजागरण के अगुआ स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में, वेदों पर गीता से बेहतर टीका नहीं लिखी गयी है और न ही संभव है।..गीता में उपलब्ध श्रीकृष्ण भगवान की शिक्षाएं भव्यतम हैं, जिन्हें विश्व ने जाना है। रामकृष्ण परमहंस गीता को अपना सतत सहचर बनाने की सलाह देते थे। महर्षि अरविंद के शब्दों में, गीता मानव जाति के लिए आध्यात्मिक सृजन का सबसे महान सुसमाचार है।  यह देश की प्रमुख राष्ट्रीय विरासत और भविष्य की आशा है। मदन मोहन मालवीय के मत में, पूरे विश्व साहित्य में गीता के समान कोई ग्रंथ नहीं, जो न केवल हिंदुओं के लिए बल्कि पूरी मानवता के लिए धर्म-अध्यात्म का खजाना है। राष्ट्रपिता गाँधीजी के मत में, गीता न केवल मेरी बाईबिल या कुरान है, बल्कि यह तो इनसे भी बढ़कर मेरी माँ के समान है। जब भी मैं कठिनाई या दुविधा में होता हूँ, तो मैं इसके आँचल की शरण में शाँति पाता हूँ। गीता की कर्मयोग के आधार पर व्याख्या करने वाले तिलकजी के शब्दों में, गीता अपने प्राचीन पावन ग्रंथों में सबसे उत्कृष्ट एवं पावन नगीना है।



इसी तरह विदेशी विचारकों के गीता के प्रति श्रद्धास्पद भाव इसके शाश्वत एवं सार्वभौम स्वरुप को पुष्ट करते हैं। वीसवीं सदी के महान वैज्ञानिक आइंस्टीन के विचार में, जब मैं गीता पढ़ता हूँ और विचार करता हूँ कि भगवान ने सृष्टि कैसे रची, तो सबकुछ अनावश्यक सा प्रतीत होता है। अमेरिकी उपन्यासकार क्रिस्टोफर आइशरवुड़ के अनुसार, गीता महज उपदेश नहीं है, बल्कि एक दर्शनिक ग्रँथ है। प्रख्यात लेखक एवं दार्शनिक एल्डस हक्सले के मत में, गीता संभवतः शाश्वत दर्शन का सबसे व्यवस्थित आध्यात्मिक कथन है। 


फारसी विद्वान, विल्हेम वॉन हमबोल्ट के लिए गीता विश्व में उपलब्ध सबसे गहन एवं उदात्त चीज है। अमेरिकी विचार हेनरी डेविड थोरो के शब्दों में, प्रातः मैं अपनी बुद्धि को गीता के अतिविशाल एवं विराट दर्शन में स्नान कराता हूँ, इसकी तुलना में आज का जगत एवं साहित्य बौना एवं तुच्छ प्रतीत होता है। प्रख्यात केनेडियन लेखिका एल एडम बैक के विचार में, भगवान के गीत या आकाशीय गीत के रुप में प्रख्यात गीता सानन्त आत्मा की अनन्त आत्मा की ओर उच्चतम उड़ान की एक दुर्लभतम उपलब्धि का प्रतिनिधित्व करती हैं।
इस तरह गीता एक सार्वभौमिक ग्रँथ है, जिसका संदेश शाश्वत एवं सर्वकालिक है और इसने हर युग के इंसान के प्रेरित एवं प्रभावित किया है।
भारतीय वांड्गमय में दर्जनों गीता ग्रंथ हैं, जिनका संदेश  प्रायः शांत-एकांत पलों में प्रकट हुआ। जबकि श्रीकृष्ण के श्रीमुख से निस्सृत श्रीमद्भगवद्गीता एक मात्र उपदेश है जो युद्ध के मैदान के बीच दिया गया। यही इसकी विशेषता है, जो इसे जीवन के रणक्षेत्र के बीच भी प्रासांगिक बनाती है।
भारतीय अध्यात्म का इसमें निचोड़ समाया है। आश्चर्य नहीं कि गीता का महत्व सामान्य पलों में अनुभव नहीं होता, ये तो विषाद के विशिष्ट पलों का ज्ञान अमृत है, जिसे विषाद-संताप से तप्त इंसान ही गहनता में समझ सकता है और इन पलों में यह संजीवनी का काम करता है।

गीता की शुरुआत अर्जुन के विषाद के साथ होती है, जिसमें वह किंकर्तव्यविमूढ़ अवस्था में युद्ध न लड़ने की वकालत करते हैं। इस अवस्था से उबारने के लिए श्रीकृष्ण क्रमिक रुप में अर्जुन को जाग्रत करते हैं। सबसे पहले वे विषादग्रस्त अर्जुन को स्व के अजर, अनित्य, अविनाशी आत्म स्वरुप का बोध कराते हैं, और अपने स्वधर्म के अनुरुप रणक्षेत्र में जूझने की बात करते हैं। और जीवन में समत्व, कर्मकौशल एवं स्थितप्रज्ञता के आदर्श का प्रतिपादित करते हैं। 


जीवन की आध्यात्मिक समझ एक महत्वपूर्ण तत्व है, जिसकी पृष्ठभूमि में फिर भगवान श्रीकृष्ण निष्काम कर्म के रुप में कर्मयोग का विधान समझाते हैं।
 हमारे प्रायः हर कर्म आशा-अपेक्षा एवं स्वार्थ-अहं के दायरे में होते हैं, जो अपने फल के साथ चिंता, उद्गिनता व संताप भी साथ लाते हैं। ऐसे सकाम कर्मों की सीमा व निष्काम कर्म का व्यवहारिक महत्व श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं। अहं-स्वार्थ के दायरे से बाहर निकलकर किया गया यज्ञमय कर्म गीता का महत्वपूर्ण संदेश है, जो हमें विराट से जोड़ता है। निष्काम कर्म के साथ चित्त शुद्धि का आध्यात्मिक उद्देश्य सिद्ध होता है, भाव शुद्धि होती है और भक्ति भाव का उदय एवं विकास होता है। 
     ज्ञान एवं कर्मयोग के साथ श्री कृष्ण भक्ति के महत्व को समझाते हैं। अपनी दिव्य विभूतियों से परिचित करवाते हैं और क्रमशः अपने विराट स्वरुप के दर्शन के साथ अर्जुन को समर्पण भाव की ओर ले जाते हैं। ईश्वर के सनातन अंश के रुप में अर्जुन का आत्मबोध और ईश्वर के विराट स्वरुप के दर्शन के साथ अर्जुन का मोहभंग होता है।
भक्ति भाव का जागरण होता है और इसी के साथ वे सुमरण के साथ धर्मयुद्ध के भाव को ह्दयंगम करते हैं। नष्टो मोहः स्मृतिलब्धा....करिष्ये वचनं त्व के साथ अर्जुन रणक्षेत्र में क्षात्रधर्म का पालन करने के लिए कटिबध हो जाते हैं।


इसी के साथ चंचल मन के निग्रह के लिए गीता में ध्यान योग, राज योग का भी प्रतिपादन है। कैसे व कहाँ ध्यान करना चाहिए, विस्तार से वर्णित है। और मन की स्थिरता के लिए संतुलित जीवनचर्या का प्रतिपादन है। सबका निचोड़ जीवन के समत्व(समत्व योग उच्यते) के रुप में है। जीवन की हर परिस्थिति में बिना संतुलन खोए, द्वन्दों के बीच समभाव, यह गीता की आधारभूत शिक्षा है। इसके साथ कर्मकुशलता (योगः कर्मशु कौशलं) के रुप में गीता व्यवहारिक शिक्षा का प्रतिपादन करती है। 



जीवन के रणक्षेत्र से पलायन नहीं, वीरतापूर्वक इसकी चुनौतियों का सामना और सत्य के पक्ष में धर्मयुद्ध, गीता में निहित शाश्वत-सर्वकालिक संदेश है, जो इसे सदैव प्रासांगिक बनाता है। गीता के अनुसार, पापी से पापी व्यक्ति को भी चिंता करने की जरुरत नहीं, यदि वह प्रभु की शरण में आता है, तो वह शीघ्र ही धर्मात्मा बन जाता है, परमात्मा स्वयं उसका योग-क्षेम वहन करते हैं, उसका उद्धार सुनिश्चित है, परमात्मा का भक्त कभी नष्ट नहीं होता। भगवान श्रीकृष्ण के श्रीमुख से ऐसे वचन संतप्त ह्दय को आश्वस्त करते हैं। (दैनिक ट्रिब्यून, 18 दिसम्बर,2018 को प्रकाशित)


चुनींदी पोस्ट

प्रबुद्ध शिक्षक, जाग्रत आचार्य

            लोकतंत्र के सजग प्रहरी – भविष्य की आस सुनहरी    आज हम ऐसे विषम दौर से गुजर रहे हैं, जब लोकतंत्र के सभी स्तम्...