धुंध के बीच लुकाछिपी करती पराशर झील
पिछली पोस्ट में हम पराशर झील के किनारे मंदिर परिसर तक पहुँच चुके थे, लेकिन पूरी यात्रा घनी धुंध के बीच रही। लेकिन अब धुंध थोड़ा सा छंट रही थी। झील का किनारा
दिख रहा था और इसमें तैरता टापू भी। झील के चारों ओर तार का बाढ़ा लगा हुआ था,
जिसके अंदर प्रवेश करना मना है। बाढ़े के पास बुर्ज के साथ अलग-अलग रंग के झंड़े
लगे हैं, जो यात्रियों को धुंध में परिक्रमा पथ का दिशा बोध कराते हैं। मंदिर की
ओर सटी झील में छोटी मछलियों की अठखेलियाँ स्पष्ट दिख रही थी।
हम जुता स्टैंड में जुता उतारकर परिसर की एक
दुकान से प्रसाद लेते हैं व मंदिर में प्रवेश करते हैं। ऋषि पराशर की प्रतिमा के सामने माथा टेककर
पूजारीजी से प्रसाद लेकर प्राँगण के मध्यम में बने स्थान पर धूप-अग्रबती जलाते हैं
और कुछ पल ध्यान के बाद फिर कुछ पारिवारिक फोटो लेते हैं और इसके बाद पूजारीजी से
बात करते हैं। तीर्थ स्थल से जुड़ी कुछ रोचक जानकारियाँ बटोरते हैं व कुछ शंकाओं
का समाधान करते हैं।
पूजारीजी के अनुसार, इस मंदिर का निर्माण तो लगभग
500 साल पहले एक छः माह के बालक ने एक ही पेड़ से किया था। हालाँकि झील का निर्माण
पाण्डवों में महाबली भीम ने किया था, अपनी कोहनी से पहाड़ में गडढा को बनाकर। इसी
झील के किनारे ऋषि पराशर ने घोर तप किया था, जिसके कारण यहाँ का नाम पराशर झील
पड़ा।
मालूम हो कि ऋषि पराशर ऋषि वशिष्ठ के पौत्र माने
जाते हैं व महर्षि व्यास के पिता। इस तरह पाण्डव इनकी दो पीढ़ी बाद के वंशज हैं।
फिर ऋषि पराशर ने यहाँ तप कब व कैसे किया। प्रश्न के समाधान में हमें लगा कि
द्वापर युग में व्यक्ति की आयु सैंकड़ों-हजारों वर्ष होती थी। ऐसे में हो सकता है
कि पराशर ऋषि में अपने जीवन के उत्तरार्ध में यहाँ तप किया हो। दूसरा ऋषि पराशर के
तप की चर्चा यमुना नदि के तट पर भी आती है, यहाँ तक कि दक्षिण भारत में उनका वर्णन
आता है। फिर कुल्लू घाटी में ही महर्षि व्यास एवं वशिष्ट के विशिष्ट मंदिर व
तपःस्थलियाँ क्रमशः व्यासकुण्ड एवं वशिष्ठ गाँव में प्रचलित हैं। मानाली में
हडिम्बा मंदिर एवं घटोत्कच का वर्णन आता है। पाण्डवों से जुड़े तमाम स्थल यथा -
पाण्डु रोपा, पाण्डु चूली, अर्जुन गुफा आदि स्थान यहाँ प्रचलित हैं।
मंदिर जहाँ पैगोड़ा शैली में बना है, जिसकी दो
मंजिलें हैं, वहीं मंदिर परिसर में पहाड़ी शैली में लकड़ी के बने सुंदर भवन यू
आकार में शोभायमान हैं। सफाई की यहाँ विशेष व्यवस्था दिखी। पुजारीजी के अनुसार
यहाँ कमरे आसानी से सस्ते दामों में मिल जाते हैं, हालाँकि भीड़ रहने पर समय पर
बुकिंग करनी पड़ती है।
यहाँ दर्शन के बाद हम झील की परिक्रमा करने के
लिए बाहर निलकते हैं। बाहर धुंध पूरी तरह छंट चुकी थी। पूरी झील का एकदम स्पष्ट
विहंगम दृश्य देखने लायक था। हम इसके चारों ओर मखमली घास पर बने परिक्रमा पथ पर
आगे बढ़ रहे थे। इस समय यहां परिक्रमा पथ की ढलान पर लम्बी घास के साथ जैसे फूलों के गलीचे बिछे थे।
मुश्किल से पाँच मिनट में ही पहाड़ की
चोटी से बादल उमड़ना शुरु हो
गए थे। अगले पाँच मिनट में पूरी झील इसके आगोश में आ चुकी थी। हम पुनः धुंध के बीच गुजर रहे थे, इसकी जलकणों को हम अनुभव कर रहे थे।
जैसे हल्का सा अभिसिंचन शुरु हो
चुका था, जिसे हम शुभ संकेत मान रहे थे। तैरता
हुआ टापू हमारे सामने था,
धुँध के बीच हम इसको नजदीक से देख पा रहे
थे।
पूजारी जी के अनुसार इस छोर पर यह टापू पिछले तीन माह से टिका है। झील का 10 फीसदी यह भूभाग झील में एक छोर से
दूसरे छोर तक तैरता रहता है। हालांकि यह गति धीमी
होती है, लेकिन पूजारीजी एक ही दिन में इसको ईधर-उधर चलता देख चुके हैं।
अगले पाँच मिनट में बारिश कुछ तेज हो गयी थी। झील
व घाटी पूरी तरह से धुँध में ढक चुकी थी। हम हल्का भीगते हुए पुनः मंदिर परिसर तक
पहुँचते हैं, व इसके एक कौने में शरण लेते हैं। अब तो बारिश और तेज हो गयी थी,
अगले 10-15 मिनट तक बरसने के बाद बारिश थमी व इसके साथ धुँध भी।
इसके साथ ही हम बापिस अपने वाहन की ओर चल पड़ते
हैं। ऊपर टीले तक हम धीरे-धीरे पक्की सड़क के साथ चलते रहे और झील व मंदिर का
नजारा भी कैप्चर करते रहे। अब बादलों के झुंड नीचली पहाडियों से होकर आ रहे
थे। मंदिर परिसर पुनः इसके आगोश में आ चुका था व झील को ढकते हुए घाटी के पार हमको
छुता हुआ पहाड़ी के पार जा चुका था। जिस धुँध के बीच हम मंदिर घाटी में प्रवेश किए
थे, बिल्कुल बैसी ही धुंध के बीच हम इसके बाहर निकल रहे थे।
पिछले आधे-पौन घंटे में हम हर तरह का नजारा परिसर झील व मंदिर
के चारों ओर देख चुके थे। ऋषि परिशर की तपःस्थली का प्रताप हमारे जैसे जिज्ञासु के लिए प्रत्यक्ष था व हमारी
आस्था इस तीर्थस्थल की दैवीय शक्ति के प्रति
प्रगाढ़ हो चुकी थी, जहाँ प्रकृति ने कुछ ही पलों में हमें इसके सारे रंग दिखाकर
सुरक्षित यात्रा को पूरा कर दिया था।
पहाड़ी के टॉप से हम मोटर मार्ग तक फिर पक्की
पगडंडी के सहारे आ रहे थे, सड़क लगभग सीधी, हल्की उतराई लिए हुए धुंध से ढकी थी।
अपनी गाड़ी के पास पहुँचकर हम अपना चाय-नाश्ता करते हैं। वुग्याल में चादर बिछाकर
नाश्ता करने, लेटने, विश्राम व ध्यान के मंसूबे हमारे आज अधूरे रह गए थे। बाहर
हल्का अभिसिंचन जारी था। नाश्ता करने के बाद हम बापिस गन्तव्य की ओर कूच करते हैं।
पुनः वुग्याल के बीच होकर नीचे ट्रीलाईन
में प्रवेश करते हैं।
बीच में गुज्जरों की छानकियों (कच्चे
घर) के दर्शन हुए, जिसकी छत्त को मिट्टी व देवदार के
पत्तों से ढककर बनाया जाता है। भैंसों की चरते हुए पाया। रास्ते भर डायवर्जन प्वाइंट शेगली का साइनबोर्ड हर किमी पर मिला, जो यहाँ से 23 किमी था। इस तरह क्रमशः संख्या कम होती
गयी व हम नीचे बागी से होकर मुख्यमार्ग
में पहुंच चुके थे। वहाँ से दायीं ओर मुड़कर बजौरा-कुल्लू मार्ग की ओर चल देते हैं।
अब यात्रा चढाईदार थी, अगले आधे घंटे पहाड़ी टॉप कांडी तक के थे। घने
देवदार-बुराँस के जंगले के बीच यहाँ पहुँचे, फिर अगली उतराई क्रमशः ऐसी ही राह पर
अगले आधे घंटे की रही, जब तक कि हम बजौरा नहीं पहुँचते। अगले पौन घंटे में हम घर
पहुँच चुके थे।
इस सफर का एक सबक रहा कि, इस सीजन में यात्रा के
दौरान एक छत्ता या वाटरप्रूफ विंडचीटर अवश्य रखें, जो बरसात के असर के खलल को
कम करेगा। अपने थर्मस में चाय-काफी या होट-ड्रिंक की व्यवस्था अति उत्तम
रहती है। यदि घर का ही नाश्ता पानी हो तो इससे बेहतर कुछ भी नहीं। बाकि हमारे
अनुभव में पराशर झील एक प्रत्यक्ष तीर्थ है, आप जिस भी भाव से जाएंगे, उसका
प्रत्युत्तर अवश्य मिलेगा।
यदि इस यात्रा के पिछले भाग न पढ़े हों, तो नीचे दिए लिंक्स पर पढ़ सकते हैं -