रविवार, 27 अक्टूबर 2019

यात्रा वृतांत – पराशर झील, मण्डी,हि.प्र. की हमारी पहली यात्रा, भाग-3


धुंध के बीच लुकाछिपी करती पराशर झील 


पिछली पोस्ट में हम पराशर झील के किनारे मंदिर परिसर तक पहुँच चुके थे, लेकिन पूरी यात्रा घनी धुंध के बीच रही। लेकिन अब धुंध थोड़ा सा छंट रही थी। झील का किनारा दिख रहा था और इसमें तैरता टापू भी। झील के चारों ओर तार का बाढ़ा लगा हुआ था, जिसके अंदर प्रवेश करना मना है। बाढ़े के पास बुर्ज के साथ अलग-अलग रंग के झंड़े लगे हैं, जो यात्रियों को धुंध में परिक्रमा पथ का दिशा बोध कराते हैं। मंदिर की ओर सटी झील में छोटी मछलियों की अठखेलियाँ स्पष्ट दिख रही थी।


हम जुता स्टैंड में जुता उतारकर परिसर की एक दुकान से प्रसाद लेते हैं व मंदिर में प्रवेश करते हैं। ऋषि पराशर की प्रतिमा के सामने माथा टेककर पूजारीजी से प्रसाद लेकर प्राँगण के मध्यम में बने स्थान पर धूप-अग्रबती जलाते हैं और कुछ पल ध्यान के बाद फिर कुछ पारिवारिक फोटो लेते हैं और इसके बाद पूजारीजी से बात करते हैं। तीर्थ स्थल से जुड़ी कुछ रोचक जानकारियाँ बटोरते हैं व कुछ शंकाओं का समाधान करते हैं।
पूजारीजी के अनुसार, इस मंदिर का निर्माण तो लगभग 500 साल पहले एक छः माह के बालक ने एक ही पेड़ से किया था। हालाँकि झील का निर्माण पाण्डवों में महाबली भीम ने किया था, अपनी कोहनी से पहाड़ में गडढा को बनाकर। इसी झील के किनारे ऋषि पराशर ने घोर तप किया था, जिसके कारण यहाँ का नाम पराशर झील पड़ा।


मालूम हो कि ऋषि पराशर ऋषि वशिष्ठ के पौत्र माने जाते हैं व महर्षि व्यास के पिता। इस तरह पाण्डव इनकी दो पीढ़ी बाद के वंशज हैं। फिर ऋषि पराशर ने यहाँ तप कब व कैसे किया। प्रश्न के समाधान में हमें लगा कि द्वापर युग में व्यक्ति की आयु सैंकड़ों-हजारों वर्ष होती थी। ऐसे में हो सकता है कि पराशर ऋषि में अपने जीवन के उत्तरार्ध में यहाँ तप किया हो। दूसरा ऋषि पराशर के तप की चर्चा यमुना नदि के तट पर भी आती है, यहाँ तक कि दक्षिण भारत में उनका वर्णन आता है। फिर कुल्लू घाटी में ही महर्षि व्यास एवं वशिष्ट के विशिष्ट मंदिर व तपःस्थलियाँ क्रमशः व्यासकुण्ड एवं वशिष्ठ गाँव में प्रचलित हैं। मानाली में हडिम्बा मंदिर एवं घटोत्कच का वर्णन आता है। पाण्डवों से जुड़े तमाम स्थल यथा - पाण्डु रोपा, पाण्डु चूली, अर्जुन गुफा आदि स्थान यहाँ प्रचलित हैं।
मंदिर जहाँ पैगोड़ा शैली में बना है, जिसकी दो मंजिलें हैं, वहीं मंदिर परिसर में पहाड़ी शैली में लकड़ी के बने सुंदर भवन यू आकार में शोभायमान हैं। सफाई की यहाँ विशेष व्यवस्था दिखी। पुजारीजी के अनुसार यहाँ कमरे आसानी से सस्ते दामों में मिल जाते हैं, हालाँकि भीड़ रहने पर समय पर बुकिंग करनी पड़ती है।

यहाँ दर्शन के बाद हम झील की परिक्रमा करने के लिए बाहर निलकते हैं। बाहर धुंध पूरी तरह छंट चुकी थी। पूरी झील का एकदम स्पष्ट विहंगम दृश्य देखने लायक था। हम इसके चारों ओर मखमली घास पर बने परिक्रमा पथ पर आगे बढ़ रहे थे। इस समय यहां परिक्रमा पथ की ढलान पर लम्बी घास के साथ जैसे फूलों के गलीचे बिछे थे। 

मुश्किल से पाँच मिनट में ही पहाड़ की चोटी से बादल उमड़ना शुरु हो गए थे। अगले पाँच मिनट में पूरी झील इसके आगोश में आ चुकी थी। हम पुनः धुंध के बीच गुजर रहे थे, इसकी जलकणों को हम अनुभव कर रहे थे। जैसे हल्का सा अभिसिंचन शुरु हो चुका था, जिसे हम शुभ संकेत मान रहे थे। तैरता हुआ टापू हमारे सामने था, धुँध के बीच हम इसको नजदीक से देख पा रहे थे।


पूजारी जी के अनुसार इस छोर पर यह टापू पिछले तीन माह से टिका है। झील का 10 फीसदी यह भूभाग झील में एक छोर से दूसरे छोर तक तैरता रहता है। हालांकि यह गति धीमी होती है, लेकिन पूजारीजी एक ही दिन में इसको ईधर-उधर चलता देख चुके हैं।

अगले पाँच मिनट में बारिश कुछ तेज हो गयी थी। झील व घाटी पूरी तरह से धुँध में ढक चुकी थी। हम हल्का भीगते हुए पुनः मंदिर परिसर तक पहुँचते हैं, व इसके एक कौने में शरण लेते हैं। अब तो बारिश और तेज हो गयी थी, अगले 10-15 मिनट तक बरसने के बाद बारिश थमी व इसके साथ धुँध भी। 


इसके साथ ही हम बापिस अपने वाहन की ओर चल पड़ते हैं। ऊपर टीले तक हम धीरे-धीरे पक्की सड़क के साथ चलते रहे और झील व मंदिर का नजारा भी कैप्चर करते रहे। अब बादलों के झुंड नीचली पहाडियों से होकर आ रहे थे। मंदिर परिसर पुनः इसके आगोश में आ चुका था व झील को ढकते हुए घाटी के पार हमको छुता हुआ पहाड़ी के पार जा चुका था। जिस धुँध के बीच हम मंदिर घाटी में प्रवेश किए थे, बिल्कुल बैसी ही धुंध के बीच हम इसके बाहर निकल रहे थे।

पिछले आधे-पौन घंटे में हम हर तरह का नजारा परिसर झील व मंदिर के चारों ओर देख चुके थे। ऋषि परिशर की तपःस्थली का प्रताप हमारे जैसे जिज्ञासु के लिए प्रत्यक्ष था व हमारी आस्था इस तीर्थस्थल की दैवीय शक्ति के प्रति प्रगाढ़ हो चुकी थी, जहाँ प्रकृति ने कुछ ही पलों में हमें इसके सारे रंग दिखाकर सुरक्षित यात्रा को पूरा कर दिया था।



पहाड़ी के टॉप से हम मोटर मार्ग तक फिर पक्की पगडंडी के सहारे आ रहे थे, सड़क लगभग सीधी, हल्की उतराई लिए हुए धुंध से ढकी थी। अपनी गाड़ी के पास पहुँचकर हम अपना चाय-नाश्ता करते हैं। वुग्याल में चादर बिछाकर नाश्ता करने, लेटने, विश्राम व ध्यान के मंसूबे हमारे आज अधूरे रह गए थे। बाहर हल्का अभिसिंचन जारी था। नाश्ता करने के बाद हम बापिस गन्तव्य की ओर कूच करते हैं।
पुनः वुग्याल के बीच होकर नीचे ट्रीलाईन में प्रवेश करते हैं।

बीच में गुज्जरों की छानकियों (कच्चे घर) के दर्शन हुए, जिसकी छत्त को मिट्टी व देवदार के पत्तों से ढककर बनाया जाता है। भैंसों की चरते हुए पाया। रास्ते भर डायवर्जन प्वाइंट शेगली का साइनबोर्ड हर किमी पर मिला, जो यहाँ से 23 किमी था। इस तरह क्रमशः संख्या कम होती गयी व हम नीचे बागी से होकर मुख्यमार्ग में पहुंच चुके थे। वहाँ से दायीं ओर मुड़कर बजौरा-कुल्लू मार्ग की ओर चल देते हैं।


अब यात्रा चढाईदार थी, अगले आधे घंटे पहाड़ी टॉप कांडी तक के थे। घने देवदार-बुराँस के जंगले के बीच यहाँ पहुँचे, फिर अगली उतराई क्रमशः ऐसी ही राह पर अगले आधे घंटे की रही, जब तक कि हम बजौरा नहीं पहुँचते। अगले पौन घंटे में हम घर पहुँच चुके थे। 


इस सफर का एक सबक रहा कि, इस सीजन में यात्रा के दौरान एक छत्ता या वाटरप्रूफ विंडचीटर अवश्य रखें, जो बरसात के असर के खलल को कम करेगा। अपने थर्मस में चाय-काफी या होट-ड्रिंक की व्यवस्था अति उत्तम रहती है। यदि घर का ही नाश्ता पानी हो तो इससे बेहतर कुछ भी नहीं। बाकि हमारे अनुभव में पराशर झील एक प्रत्यक्ष तीर्थ है, आप जिस भी भाव से जाएंगे, उसका प्रत्युत्तर अवश्य मिलेगा।
 
यदि इस यात्रा के पिछले भाग न पढ़े हों, तो नीचे दिए लिंक्स पर पढ़ सकते हैं - 
 


गुरुवार, 17 अक्टूबर 2019

यात्रा वृतांत – पराशर झील, मण्डी,हि.प्र. की हमारी पहली यात्रा, भाग-2


पराशर झील की ओर बढ़ता सफर

पिछली ब्लॉग पोस्ट में हम कुल्लू से पराशर के पहले चरण में वाया बजौरा यात्रा का वर्णन कर चुके हैं, जहाँ दायीं ओर एक नई घाटी में प्रवेश तथा फिर आगे पहाड़ी के टॉप से नीचे मण्डी शहर की ओर की घाटी का अवरोहण होता है। अब हम अगले डायवर्जन बिंदु पर वायीं ओर मुड़ चुके थे, जहाँ से पराशर झील 23 किमी थी। अगले 10 मिनट में हम बाघी कस्वे में पहुँच चुके थे, जहाँ नाला पार कर आगे बढ़ना होता है। इसमें भरपूर पानी भरा था, लेकिन पक्का पुल भी निर्माणाधीन था, शायद अगले कुछ महीनों में तैयार हो जाए।

बाघी से सड़क रोड़ तो घुमावदार सड़कों से होकर ऊपर चढता है, जो लगभग 18 किमी पड़ता हो, लेकिन सीधे गाँव व जंगलों से होकर ट्रेकिंग मार्ग महज 8 किमी पड़ता है। हम पानी से भरे नाले को पार कर सड़क मार्ग से पराशर झील की ओर बढ़ रहे थे।
बंजर भूमि एवं वीहड़ वन से होता हुआ रास्ता क्रमशः ऊँचाई पकड़ रहा था, रास्ते में सड़क के किनारे इक्का-दुक्का घर ही दिखते हैं। इस रास्ते की खासियत पानी से लबालब भरे नाले हैं, जिनमें पाईप से होकर लोग पानी अपने सुदूर गाँव व खेतों की ओर ले जा रहे थे।
रास्ते में हम जैसे-जैसे ऊपर चढ़ रहे थे, नीचे घाटी का नजारा और स्पष्ट होता जा रहा था। पीछे छूटते पहाड़, घाटियां, नदी-नाले व सड़कों का ऊपर से विहंगाबलोकन एक भयमिश्रित रोमाँच का अनुभव दे रहा था। साथ ही सीढ़ीनुमा खेतों के बीच बसे पहाड़ी घर एवं गाँव हमेशा की तरह विसमित कर रहे थे।



रास्ते में कुछ ही ढाबे, काफी हाऊस, होटल व टी-स्टाल दिख, जो यात्रियों के लिए रिफ्रेश होने, चाय-नाश्ता करने व ठहरने का आमन्त्रण दे रहे थे।

आधे घण्टे बाद हम देवदार के घने जंगल में प्रवेश कर चुके थे। ऐसा नजारा किसी भी हिल स्टेशन के जंगली इलाकों से मेल खाता है। ठीक ऐसा ही रास्ता हमारे गाँव के ऊपर बचपन की रोमाँचभूमि रेऊँश, बिजली महादेव रास्ते के ऊपर-नीचे है। ऐसी ही झलक हम उत्तराखण्ड में तुंगनाथ जाते हुए चोपता के रास्ते में पा चुके हैं। ऐसे ही दृश्य मसूरी-धनोल्टी-सुरकुण्डा-चम्बा मार्ग पर बीच-बीच में मिलते हैं। ऐसे ही अनुभव शिमला की पहाड़ियों में पा चुके हैं। ये सारे अनुभव जैसे स्मृतिकोश से ऊभर कर घनीभूत रुप में चिदाकाश पर छा रहे थे। 



घने देवदार, रई-तौस, दियार, बुराँश के जंगलों के बीच बने सड़क मार्ग से सफर हमेशा ही एक विरल रोमाँच का अनुभव रहता है, जहाँ गंगमचु्म्बी वृक्षों और प्रकृति की नीरव शांति की विराटता के बीच व्यक्ति अपनी लघुता का गाढ़ा अहसास पाता है।
बीच-बीच में वृक्षों से विरल स्थलों से दूर पहाड़ियों की गोद में बसे गाँव के नजारे अद्भुत दृश्य पेश कर रहे थे। 

रास्ते में झरते पानी के झरने, नाले व जल स्रोत्र अपनी अद्वितीय निर्मलता के साथ प्राकृतिक सौंदर्य में चार चाँद लगा रहे थे। पेड़ों में उछल-कूद करते बंदर-लंगूरों को देखकर लगता कि इस प्राकृतिक साम्राज्य के असली मालिक तो येही हैं, हम तो यहाँ महज चंद घंटों के मुसाफिर हैं। सतत परिवर्तनशील प्रकृति के मध्य महाकाली के मौन ताण्डव नर्तन की झलक मिल रही थी, लेकिन इसके साथ ही एक दिव्य आनन्द, उल्लास, शांति एवं विरक्ति का भाव भी साथ में था।

बीच में कुछ आबादी भी दिखी, जो सेब के बगीचों को यहाँ तैयार कर रही थी। यहाँ सेब सड़क के किनारे टोकरियों में बिक्री के लिए दिखे, हालाँकि यह बहुत ही सादे व सरल रुप में थी, बिना किसी दुकान या ढाबे के। शायद इस रुट पर उतनी आबाजाही नहीं रहती। कम से कम आज तो इस पूरे रुट में हमें चार-छह गाडियों में ही क्रोस किया होगा। ऐसा ही अनुभव बापसी का रहा। शायद लोग पराशर झील के लिए ट्रेकिंग मार्ग अधिक प्रेफर करते होंगे।
चढाई के साथ धुंध भी गहरा रही थी। जिससे कुछ मीटर से आगे देख पाना सम्भव नहीं हो रहा था।



अब अचानक पेड़ कम हो गए थे, लग रहा था कि हम टॉप पर पहुँच रहे हैं। यहीं भैंसों के काफिले भी मिलने शुरु हो गए थे, रास्ते में जगह-जगह भेड़-बकरियों के झुंडों से हमारा सामना कई जगहों पर हो चुका था, जो इसका सूचक था कि यहाँ के लोग अभी भी पारम्परिक भेड़-बकरी पालन को निभा रहे हैं। खेती-बागवानी के आधुनिक तौर-तरीकों व पर्यटन उद्योग से अभी इनका अधिक वास्ता नहीं दिखा। 

कुछ ही मिनटों में हम ऐसी ऊँचाई पर थे, जहाँ पेड़ नीचे छूट रहे थे। देवदार के जंगल विरल हो चुके थे। घुमन्तु यायावरों के कच्चे मकान सड़क के साथ बने दिख रहे थे, जहाँ वे गर्मियों में भैंस, गाय व बकरी पालन करते हैं। यहाँ के बुग्याल हरी, घनी व मखमली घास के साथ इनके चरने के लिए बहुत उपयुक्त रहते हैं।
ऊपर नीचे बुग्यालों का विस्तार दिख रहा था। यह इलाका ठीक हमें अपने सेऊबाग-काईस, कुल्लू के ऊपर के जंगलों में ऊबलदा के बाद पटोऊल क्षेत्र का नजारा पेश कर रहा था, जो हमारे बचपन की ट्रेकिंग एवं एडवेंचर भूमि रही है। अंत में हम ट्री लाईन से ऊपर थे, जिसे स्नोलाइन भी कहा जाता है, जहाँ पेड़-पौधे न के बरावर होते हैं। होते हैं तो बस जंगली घास-फूस, जिनमें अधिकाँश जड़ी-बूटियाँ होती हैं तथा कुछ विशेष किस्म की झाड़ियां। 

लो हम यहाँ के बस स्टैंड पर पहुँच चुके थे। कुछ बसें, कार व अन्य वाहन यहाँ खड़े थे। यहीं पर एक स्थान पर गाड़ी खड़ी कर हम पराशर झील की ओर ब़ढ़ते हैं। आगे एक किमी पैदल चलना था। रास्ता सीधा आगे थे, पक्का किंतु संकरा। धुंध के बीच हम गुजर रहे थे। आगे 50-100 मीटर तक ही नजारा स्पष्ट था।  रास्ते में ऊपर नीचे सारे में गहरा कोहरा छाया हुआ था।

आगे फाटक को पार कर अब रास्ता ढलानदार था। धुंध में हमें कुछ दिख नहीं आ रहा था कि झील कहाँ है व मंदिर कहाँ। लोग नीचे कई रास्तों से ऊपर आ रहे थे, कुछ पक्की सड़क से, तो कुछ कच्ची पगडंडी से, तो कुछ घास के मैदानों से। वास्तव में हम पराशर झील के ऊपर के शिखर बिंदु पर थे व नीचे झील की ओर उतर रहे थे।


हम पक्के पैदल रास्ते के सहारे नीचे उतरते रहे। कुछ ही मिनटों में धुंध के बीच ढावे के दर्शन हुए। इससे नीचे ऊतर कर आगे मंदिर परिसर की दिवारें दिख रही थी। नीचे फूलदार घास के साथ जंगली पालक बहुतायत में लगा था। हम झील के किनारे मंदिर की ओर बढ़ रहे थे, लेकिन हमें धुंध में कुछ समझ नहीं आर हा था। रंग-विरंगे झंडे झील की सीमा को इंगित कर रहे थे। जब सामने वाईँ और पैगोड़ानुमा भवन दिखा, जो समझ आया की हम मंदिर पहुँच चुके हैं, जिसके बारे में हम पढ़कर भिज्ञ हो चुके थे।(जारी....)
यात्रा का अगला व अंतिम भाग, आगे दिए लिंक पर पढ़ सकते हैं - भाग-3, धुँध के बीच लुकाछिपी करती पराशर झील। 
 
यात्रा का पहला भाग नीचे दिए लिंक पर पढ सकते हैं -

शनिवार, 12 अक्टूबर 2019

दौर-ए-ठहराव जिंदगी का


लगे जब जिंदगी बन गई खेल-तमाशा
यह भी गजब कारवाँ जिंदगी का,
जहाँ से चले थे, आज वहीं खडा पा रहे।।

चले थे आदर्शों के शिखर नापने,
घाटी, कंदरा, बीहड़ व्यावन पार करते-करते,
छोटे-मोटे शिखरों को नापते,
यह क्या, आज वहीं खड़े, जहाँ से थे चल पड़े।।

मिला साथ, कारवाँ बनता गया,
लेकिन सबकी अपनी-2 मंजिल, अपना-2 रास्ता,
साथ चलते-चलते कितने बिछुड़ते गए,
यह क्या, जहाँ से चले थे, आज वहीं खड़ा पा रहे।।


ईष्ट-आराध्य-सद्गुरु सब अपनी जगह,
उन्हीं की कृपा जो आज भी चल रहे,
लेकिन दृष्टि से औझल जब प्रत्यक्ष उपस्थिति,
श्रद्धा की ज्योति टिमटिमाने की कोशिश कर रहे।।


इस तन का क्या भरोसा, ढलता सूरज यह तो,
मन कल्पना लोक में विचरण का आदी,
चित्त शाश्वत बक्रता संग अज्ञात अचेतन से संचालित,
आदर्शों के शिखर अविजित, मैदान पड़े हैं खाली।।
ये भी गजब दौर-ए-ठहराव जिंदगी के,
जब लगे जीवन बन गया एक खेल तमाशा।
येही पल निर्णायक साधना समर के,
बन खिलाड़ी गढ़ जीवन की नई परिभाषा।


धारण कर धैर्य अनन्त, परापुरुषार्थ, आशा अपार,
  बढ़ता चल परम लक्ष्य की ओर, जो अंध अचेतन के उस पार।।

चुनींदी पोस्ट

प्रबुद्ध शिक्षक, जाग्रत आचार्य

            लोकतंत्र के सजग प्रहरी – भविष्य की आस सुनहरी    आज हम ऐसे विषम दौर से गुजर रहे हैं, जब लोकतंत्र के सभी स्तम्...