शुक्रवार, 27 सितंबर 2019

यात्रा वृतांत – मेरी दूसरी झारखण्ड यात्रा


सब दिन होत न एक समान


दिसम्बर 2014 के पहले सप्ताह में सम्पन्न मेरी पहली झारखण्ड यात्रा कई मायनों में यादगार रही, ऐतिहासिक रही। सहज स्फुर्त रुप में उमड़े भावों को अभिव्यक्ति करता मेरी पहली झारखण्ड यात्रा की ब्लॉग पोस्ट हिमवीरु ब्लॉग की सबसे लोकप्रिय पोस्ट निकली, जिसे आज भी यात्रा वृतांत सर्च करने पर गूगल सर्च इंजन के पहले पृष्ठ में देखा जा सकता है।
लगभग 5 वर्ष बाद पिछले दिनों (16-20जुलाई2018) सम्पन्न हमारी दूसरी यात्रा पहली यात्रा का एक तरह से फोलो अप था। लेकिन समय की धारा कहाँ कब एक समान रहती है, इस बार के अनुभव एकदम अलग रहे। अकादमिक उद्देश्य से सम्पन्न यह यात्रा थर्ड ऐसी में रिजर्वेशन का संयोग न होने के कारण स्लीपर क्लास में रही, जो तप एवं योगमयी अनुभवों के साथ फलित हुई, लगा हमारे किन्हीं प्रारब्धों के काटने की व्यवस्था इसमें थी। काफी समय बाद रेल में सफर का संयोग बन रहा था, जो हमें हमेशा की तरह रोमाँचित कर रहा था। इस बार हमारे साथ Where is my train ऐप्प की अतिरिक्त सुबिधा थी, जिसमें हमें ट्रेन का स्टैंडर्ड समय, उसका हर स्टेशन व उसकी लेट-लतीफी की सटीक जानकारी उपलब्ध हो रही थी।

रात 10 बजे हरिद्वार से दून एक्सप्रेस में चढ़ते हैं। साइड अपर बर्थ में सीट मिलने के कारण चैन से रात का सफर कट गया, सुबह नित्यकर्म से निपटने के बाद चाय व नाश्ता के साथ दिनचर्या आगे बढ़ती है। ट्रेन भी कहीं छुकछुक तो कहीं फटड़-फटड़ कर अपनी मंजिल की ओर सरपट दौड़ रही थी। पठन सामग्री और मोबाईल साथ होने के कारण हम यात्रा के अधिकाँश समय अपने अध्ययन, चिंतन-मनन व विचारों की दुनियाँ में मश्गूल रहे। रास्ते में जहाँ लेटे-लेटे व पढ़ते-लिखते बोअर हो जाते, चाय की चुस्की के साथ तरोताजा होते। जहाँ थक जाते, वहाँ करबट पलट कर छपकी लेते।


पता ही नहीं चला कि कब हम बनारस पहुँच चुके थे। यहां गंगामैया व बनारस शहर के दर्शन की उत्कट जिज्ञासा एवं इच्छा के चलते हम नीचे सीट पर उतरे व गंगाजी के किनारे बसे बनारस शहर को पुल से निहारते रहे। यहाँ गंगाजी काफी बिस्तार लिए दिखी, जिस पर नावें चल रहीं थी व कुछ किनारे पर खड़ी थी। पुल को पार करने के कुछ मिनट बाद हम काशी नगर से गुजर रहे थे। यहाँ ट्रेन किन्हीं कारणवश रुक जाती है। ट्रेन ऐसी जगह खड़ी थी कि यदि हम पीछे पानी लेने जाते तो ट्रेन छुटने का ड़र था और आगे दूर-दूर तक पानी का काई स्रोत नजर नहीं आ रहा था। 


ट्रेन के समानान्तर दूसरी ट्रेन रुकती है, जिसकी पेंट्रीकार से पानी की गुजारिश करते हैं, लेकिन कोई व्यवस्था नहीं हो पाती। पानी के कारण गला सूख रहा था। उपलब्ध पानी गर्म होने के कारण प्यासे कंठ को तर नहीं कर पा रहा था। चिल्लड़ पानी ही ऐसे में एक मात्र समाधान था। ठंडे पानी की खोज इस कदर विफल रही कि अंततः थकहार कर बैठ गए और काशीबाबा को याद किए, कि तेरी नगरी में पीने के पानी की भी कोई व्यवस्था नहीं, यह कैसे हो सकता है। पुकार गहराई से एकांतिक रुप ले चुकी थी व बाहर पानी की खोज बंद हो चुकी थी।
ट्रेन भी आगे सरकना शुरु हो गई थी। इसी बीच पानी-पानी की आवाज आती है। एक लम्बा सा नौजवान ठंडे पानी की बोतल के साथ हमारे ढब्बे में प्रवेश करता है। यह पल हमारी मुराद पुरा होने जैसे लग रहे थे। इनसे हम एक नहीं दो बोटल पानी की लेते हैं और पानी इतना मीठा निकला, लगा जैसे गंगाजल पी रहे हैं। तहेदिल से धन्यवाद की पुकार उठी। पूछने पर कि इतना मीठा पानी कहाँ से लाए, नौजवान का बिनम्र सा जबाब था कि साहब हम क्या जाने, हम तो पानी बेचते हैं। उसके जबाब का लेहजा, बिनम्र स्वभाव, चेहरे का सरल किंतु तेजस्वी स्वरुप व स्वाभिमानी व्यक्तित्व, हमें विश्वास नहीं हो रहा था कि कोई पानी बेचने वाला आम व्यक्ति सामने खड़ा है। ह्दय के भावों में हम कहीं गहरा उतर चुके थे, संवाद जैसे काशीबाबा से परा-पश्यंती स्तर पर चल रहे थे।


ऐसा ही अनुभव हमारा बापसी में कानपुर शहर के पास का रहा। यहाँ भी ट्रेन काफी देर रुकी रही। हालांकि इस बार हम पानी की उचित व्यवस्था कर रखे थे। किंतु गर्मी से तप रही ट्रेन की छत पूरे डिब्बे को तपा रही थी। गर्मी और नमी के बीच ठहरी गाड़ी ने डिब्बे को तपा रखा था। सहज ही स्मरण आ रहे थे इन पलों में अलीपुर जेल की तंग कोठरी में बैठे श्रीअऱविंद, आसनसोल जेल की कालकोठरी में कैद आचार्य़ श्रीराम, जिन्होंने जेल को ही तपस्थली में बदलकर जीवन के गहन सत्य को पा लिया था। याद आ रहे थे तिलक, गांधीजी व नेहरु जिन्होंने जेल को ही अपनी सृजन स्थली में रुपांतरित कर कालजयी रचनाओं को सृजित किया था। हम भी इन पलों को स्वाध्याय-तप व योगमय बनाने का प्रयास कर रहे थे और मन को समझा रहे थे कि ये पल कुछ देर के हैं, ये भी बीत जाएंगे। और थोड़ी ही देर में आश्चर्य तब हुआ जब बादल उमड़ पड़े, कुछ बरस गए और साथ ही ट्रेन भी चल पड़ी। फिर हवा के ठंडे झौंकों के साथ विकट समय पार हो चुका था। 
खेर, धनवाद की ओर बढ़ रही रेल यात्रा में आगे कुछ देर तक हम बाहर के नजारों को निहारते रहे। राह में हरे-भरे खेत आँखों को ठंडक तो मन को सकून देते रहे।


बीच में ही हमें शाम होती है, रात भर के सफर के बाद हम सुबह 4 बजे धनवाद पहुँच चुके थे, जहाँ से हमें दूसरी ट्रेन, वनांचल एक्सप्रेस अगले चार घंटे में राँची पहुंचाने वाली थी। मार्ग में सुबह हो रही थी। रास्ते में कटराजगढ़ और फुलवर्तन स्थलों में पत्थर व कोयले के पहाड़ों को पार करते हुए हम आगे बढ़े, जो स्वयं में एक नया एवं अनूठा अनुभव था।
रास्ते में कुछ स्थानों पर फाटक को पार करती ट्रैन के साथ इंतजार करती अनुशासित जनता के दृश्य सुखद लगे। इससे भी अधिक खुशी हो रही थी चलती ट्रेन से तड़ातड़ शॉट लेते हुए ऐसे नजारों को कैप्चर करना व इनमें से अपने अनुकूल एक सही व सटीक शॉट को पाना। इस ब्लॉग के अधिकाँश शॉट इसी तरह चलती ट्रेन से लिए गए, आखिर ट्रेन हमारी पसंद के नजारों के लिए रुकने के लिए बाधित कहाँ थी।



 इसी तरह रास्ते में पलाश के पेड़ और बाँस के झुरमुटों के शॉट लिए गए, जो यहाँ बहुतायत में पाए जाते हैं।



 रास्ते में कई नालों के साथ कुछ छोटी-मोटी नदियां दिखीं, जो पता चला कि सब मिलकर दामोदर नदी में समा जाती हैं। रास्ते में चंद्रपुरा जंक्शन पर सूर्याेदय का स्वर्णिम नजारा पेश होता है। राह में बोकारो स्टील प्लांट के दूरदर्शन होते रहे, जहाँ से कोयले को माल गाड़ियों के डब्बों में आगे सरकाया जा रहा था। 


इस बार यात्रा का समय अलग था, सो अनुभव भी कुछ अलग रहे। इस बार मोबाईल कैमरा साथ होने के कारण डिब्बे के दरबाजे पर खड़े होकर बाहर के नजारों को निहारते रहे व उचित दृश्य् को केप्चर करते रहे। रास्ते में किसानों को बहुतायत में बेलों की जोड़ी के संग खेतों को जोतते पाया। यहाँ धान की पनीरी भी विशेष ढंग से खेतों के बीचों-बीच उगायी जाती है।

खेतों में अधिकांशतः महिलाओं को भी धान की रोपाई करते पाया। हमारी जानकारी में यह धान की रोपाई का प्रचलित चलन है, पुरुष बैलों को जोतते हैं, तो महिलाएं धान की रोपाई करती हैं। ऐसे ही खेतों की पृष्ठभूमि में रास्ते में दूर एक गुम्बदाकार चट्टानी पहाड़ मिला। ऐसा पहाड़ हम जिंदगी में पहली बार देख रहे थे व यह हमारे मन में कई जिज्ञासाओं व कौतुक को जगा रहा था। हम आश्चर्य कर रहे थे कि ऐसे चट्टानी पहाड़ पर चढ़ाई कितनी कठिन होती होगी, इसके शिखर तक लोग कैसे पहुँचते होंगे। पूछने पर कोई हमें इस पहाड़ के बारे में कोई विशेष जानकारी नहीं दे पाया। इस पहाड़ को हम ट्रेन से निहारते रहे, जब तक कि यह दृष्टि से औझल न हुआ।


खेतों के साथ जंगल तो रास्ते भर मिलें, लेकिन गंगाघाट के बाद जंगल का नजारा अलग ही था। पाँच वर्ष पूर्व हम इस क्षेत्र में जो छोटी पौध देखे थे, वे अब बड़े हो चुके हैं, लगा वन विभाग ने इनमें और इजाफा किया है। 
निसंदेह रुप में किसी भी रेल्वे ट्रेक या मोटर मार्ग के दोनों और वृक्षारोपण व वनों की बहुतायत सफर को कितना सुंदर, सुकूनदायी एवं शीतल बनाती है, यह यहाँ देखकर अनुभव हो रहा था।



इस तरह हम राँची पहुँचते हैं, पाँच साल पहले के स्टेशन से आज का स्टेशन अलग नजर आ रहा था। लगा प्रधानमंत्री मोदीजी ने जो सफाई अभियान चला रखा है, उसका असर हो रहा है। स्टेशन पर ही मशीनें खड़ी थी। सामने ही इनको पूरे प्लेटफॉर्म की सफाई करते देखा। सफाई को लेकर विकसित हो रही यह सजगता एक शुभ संकेत है, देश की प्रगति का आशादायी मानक है। 

स्टेशन से बाहर निकलते ही बारिश की हल्की फुआर भी शुरु हो गई थी, जिसे हम प्रकृति द्वारा यहाँ अपना स्वागत अभिसिंचन मान रहे थे। अपना अकादमिक कार्य पूरा होने के बाद हम पुनः स्टेशन की ओर आते हैं, जहाँ पर वॉकिंग डिस्टेंस पर मौजूद विश्वविख्यात आध्यात्मिक संस्थान, योगदा सोसायटी के मुख्यालय जाने का पावन संयोग बनता है। 



पिछली वार समय अभाव के कारण यहाँ नहीं पधार पाए थे, जबकि यह रेल्वे स्टेशन से एकदम पास है। जिस आध्यात्मिक पत्रिका को हम मुद्दतों से खोज रहे थे, आज हमें वह उपलब्ध हो रही थी। साथ ही कुछ दुर्लभ साहित्य भी हमें यहाँ उपलब्ध हुआ, जो स्वाध्याय एवं शोध की दृष्टि से उपयोगी था। यहाँ महायोगी परमहंस योगानन्द के कक्ष में ध्यान के कुछ पल विताए। पूरा परिसर प्रकृति की सुरम्य गोद में बसा है, इसका हरा-भरा, साफ-सुथरा, शांत-एकांत परिसर दिव्यता से ओतप्रोत है, जिसे यहाँ आकर अनुभव किया जा सकता है।

रात को बापसी का सफर तय होता है। दिन में पुनः कानपुर के पास तपोमय पलों का जिक्र हम पहले ही कर चुके हैं। कानपुर से आगे बरसात की फुआर ने सफर को खुशनुमा कर दिया था। सुबह दिल्ली आईएसबीटी पर पहुँचते हैं। इस समय काँबड़ मेला चल रहा था, सो कांबड़ियों की भीड़ के बीच सीधे हरिद्वार के लिए बस कठिन थी, देहरादून से डायवर्टिड रुट ही हमें उचित लगा। 


यहाँ शुरु में पसीने से तर-बतर होने का अभ्यास एवं मनोभूमि काम आयी, लेकिन जैसे ही बस आगे बढ़ी, ठंडी हवा रास्ते भर स्वागत करती रही। साथ ही यह रास्ता हरे-भरे खेतों, आम-अमरुद के बगीचों व साल के जंगलों से भरा अधिकाँशतः सुकूनदायी रहा। देहरादून से हरिद्वार बस हमें सीधे देसंविवि के गेट पर उतारती है। इस तरह कुछ नयी यादों, जीवन के अनुभवों व सीख के साथ झारखण्ड की दूसरी यात्रा सम्पन्न होती है। जो पहली यात्रा से तुलना करने पर संदेश दे रही थी कि जीवन चलने का नाम है, समय कब किसके लिए ठहरता है। और फिर किसी ने सच ही कहा है कि, सब दिन होत न एक समान।
 

सोमवार, 26 अगस्त 2019

यात्रा वृतांत - मेरी पोलैंड यात्रा, भाग-4


विदेशी धरती में देशी जायके से रुबरु


आज रविवार का दिन था। दिन भर प्रेजन्टेशन की तैयारियाँ चलती रहीं। आज की शाम बिडगोश शहर के एकमात्र भारतीय रेस्टोरेंट - रुबरु के नाम थी, जिसके दर्शन हम पिछले कल भ्रमण के दौरान मिल्ज टापू में कर चुके थे। काजिमीर यूनिवर्सिटी की इंटरनेशल रिलेशन विभाग की मेडेम जोएना काल्का हमें लेने अपनी गाड़ी में आती हैं। यहाँ आने से पूर्व मेल्ज के माध्यम से मैडेम का शाब्दिक परिचय हो चुका था। भारत में काल्का शब्द काली माता से जुड़ा हुआ है, जैसे चंडीगढ़ शिमला के बीच काल्का मंदिर व शहर, बैसे ही दिल्ली में काल्का मंदिर प्रख्यात है। गुरु गोविंद सिंहजी की आत्मकथा विचित्र नाटक में भी काल्का आराधना का रोमाँचक जिक्र मिलता है। खैर, इन भावों के साथ मैडेम का नाम आसानी से हमें याद था, आज प्रत्यक्ष मैडेम का परिचय हो रहा था, जो एक सरल, सुगड़, सजग एवं सज्जन महिला निकली। हमारे प्रवास के अंतिम पड़ाव तक जरुरत पड़ने पर इनका भावभरा सहयोग साथ रहा। शहर की स्पाट, सुंदर सड़कों के बीच कुशलतापूर्वक ड्राइविंग करती हुई मेडेम काल्का हमें अपने गन्तव्य की ओर ले जा रही थी। पिछले दो दिनों में जिस मार्ग को हम पैदल तय कर रहे थे, आज गाड़ी में बैठकर उसका विहंगावलोकन हो रहा था।
रुबरु में जाने से पहले गाड़ी को पार्क करना था। लेकिन शहर में इस समय पार्किंग स्थान बुक थे। उचित पार्किंग स्थान की खोज में हमने मेडेम को टापू की तीन परिक्रमा करते हुए देखा, जो यहाँ पार्किंग के अनुशासन की बानगी पेश कर रहा था, जिससे हम कुछ सीख सकते हैं। अपने यहाँ तो पार्किंग के ऐसे अनुशासन की बात तो दूर, नो पार्किंग जोन में ही पार्किंग करना जैसे चलन बन चुका है। पार्किंग के संदर्भ में यहाँ का सार्वजनिक अनुशासन हमें अनुकरणीय लगा।
रुबरु में काल्का मेडेम की बॉस मैडेम एनिला बेकर (इंटरनेशनल विभाग की हेड़) अपने पति आरेक व दो बेटों के संग इंतजार कर रही थीं। मेडेम एनिला देवसंस्कृति विवि आ चुकी हैं व भारतीय व्यंजनों का स्वाद चख चुकी हैं व इनकी मुक्तकँठ से प्रशंसा करती रही हैं। आज मेडेम सपरिवार हमको यहाँ के भारतीय स्वाद से रुबरु करा रहीं थी। मेडेम बहुत मिलनसार, खुशमिजाज, स्मार्ट एवं कड़क महिला हैं, पति भी उतने ही बातूनी, मस्तमौला एवं मजेदार। दोनों बेटे पहली बार मिलने के कारण थोड़ा गंभीर व संकोच कर रहे थे, डीलडोल में उमर से अधिक ऊँचे व भारी भरकम थे। आज पहली बार पता चला कि यहाँ आहार में माँसाहार का चलन कितना आम है। शायद ही कोई वाशिंदा हो जो पूर्णत्या शाकाहारी हो। यहाँ तक कि सलाद में तक मछली को स्टफड पाया। लगा शायद यहाँ की जरुरत के हिसाब से भोजन का चलन रहा होगा, ठंड़ा इलाका होने के कारण यहाँ तापमान माइनस 10-15 तक रहता है, क्योंकि अधिकाँश समय यहाँ शाकाहारी सब्जियां, अन्न, दाल आदि कम मात्रा में उपलब्ध रहते हैं। फिर इनके पूर्वज स्लाव भी ठंड़े इलाकों से आए, तो परम्परागत रुप में ऐसे आहार के चलन को समझने की कोशिश कर रहा था।
प्रीतिभोज के साथ पोलैंड व भारत के खानपान व दर्शन की चर्चा होती रही। पहली बार एग्नोस्टिक से हमारा परिचय हो रहा था। आरेक स्वयं को एग्नोस्टिक मान रहे थे। कभी वे यहाँ के प्रचलित चर्च में कुछ माह-साल मोंक तक रह चुके हैं, व अन्य धार्मिक एवं आध्यात्मिक मार्गों को भी आज्माँ चुके हैं, लेकिन सबसे मोहभंग के बाद अब वे एग्नोस्टिक हो चुके हैं। सब धार्मिक परम्पराओं का सम्मान करते हैं, लेकिन किसी में अधिक आस्था ऩही रखते। हमारे लिए यह एक नया व रुचिकर प्रसंग था। ऐसा भी होता है व क्यों होता है, जानने-समझने की हम कोशिश कर रहे थे।
रुबरु का मालिक तो पोलिश ही था, बात करने पर पता कि वेटर व शैफ देशी ही है, हमने मिलने की इच्छा जाहिर की तो, कुछ ही मिनट में चिरंजीवी शर्मा हमारे सामने थे, नेपाली मूल के बेटर व शैफ, जो पिछले कुछ वर्षों से यहाँ काम कर रहे हैं। पोलैंड के बड़े शहरों में रुबरु रेस्टोरेंट की श्रृंखला है, पता चला कि यहाँ के पास के शहर तोरुन में भी रुबरु रेस्टोरेंट है, जिसमें इनके मित्र काम करते हैं, जहाँ अगले दिनों हम विजिट करने वाले थे।
यहाँ तृप्तिदायक भोजन करने के बाद हम फिर टापू के बीच बर्दा नदी को पार करते हुए औपेरा नोएवा में पहुँचे, जो शहर का मुख्य कलाकेंद्र है, जो पता चला कि वर्षों की मशक्कत के बाद भारी-भरकम बजट में तैयार किया गया है व आज इस आधुनिक शहर की सांस्कृतिक पहचान है।
शहर के संभ्रांत परिवारों को यहाँ पधारते देखा। संडे के दिन यहाँ विशेष चहल-पहल रहती है। मेडेम काल्का की फैमिली भी यहाँ जुड़ चुकी थी, इनके प्रोफेसर पति व तीन प्यारी एवं सुसंस्कृत बेटियों के साथ। यहाँ थियेटर नुमा भवन में जैसे हम बाल्कोनी में थे। नीचे स्टेज पर कार्यक्रम लगभग दो घंटे चला। भाषा तो समझ में नहीं आयी (मूल फ्रेंच में लिखा गया था व पोलिश में अनुदित हो रहा था), लेकिन भावों की गहनता एवं संगीत की सुर लहरियों को अनुभव करते रहे। संगीत टीम में दर्जनों लोग शामिल थे, और थियेटर में 100 से अधिक कलाकार नाटक को अंजाम दे रहे थे। कहानी कुछ-कुछ प्रेमी, शैतान व दैवीय शक्तियों के बीच के संघर्ष को दर्शा रही थी। शैतान का प्रलोभन, पात्र के भाव की पावनता व दैवीय सहयोग आदि इसका विषय लगे। किसी प्रख्यात नाटककार के उपन्यास का यह नाटय रुपांतरण हो रहा था।
यहाँ उच्च घराने के लोग ही अधिकांशतः लोग पधारे थे। उनको नाटक कितना समझ आता है, क्या भाव लेकर जाते होंगे, कह नहीं सकते। लेकिन उनके सांस्कृतिक जीवन का हिस्सा अवश्य लगा। संगीत, संस्कृति, कला से जुड़ने का एक प्रयास प्रतीत हुआ। इसी मिल्ज टापू में पिछले कल भी ऐसे ही कला केंद्र व म्यूजियम हम कल देख चुके थे, जिससे लगा कि यहाँ अपनी संस्कृति, कला आदि को महत्व दिया जाता है, जिन्हें अपनी जड़ों से जुड़े रहने के प्रयास क रुप में देखा जा सकता है।
इसी बीच अध्यात्म पर भी गहन चर्चा होती रही। लगा धर्म का पारंपरिक रुप यहां भी दम तोड़ रहा है। मालूम हो कि पोलैंड विश्व का सबसे बड़ा कैथोलिक चर्च आवादी वाला देश है, जो लगभग कुल आबादी के 87 फीसदी हैं। लेकिन लगा कि विज्ञान और आधुनिकता में पली-बढ़ी पीढ़ी को प्रचलित धर्म अपने पारम्परिक तौर-तरीकों से संतुष्ट नहीं कर पा रहा। हमारी जिज्ञासा धर्म के आध्यात्मिक स्वरुप को समझने की अधिक थी, जिस पर गहराई से चर्चा के लिए कोई व्यक्ति भी नहीं मिला। इतना स्पष्ट था कि धर्म का पारम्परिक स्वरुप प्रबुद्ध वर्ग पर पकड़ खो रहा है, फिर धर्म में जैसे भारत में गढ़बढ़ झाला चल रहा है, कुछ ऐसा ही यहाँ भी दिखा। शायद यह एक वैश्विक समस्या है, जहाँ धर्मक्षेत्रों में विकृतियों का प्रवेश एवं नाना प्रकार की शौषण की घटनाएं इसके पावन स्वरुप को धुमिल कर रही हैं।
रास्ते में आईसक्रीम पार्लर में आइसक्रीम का लुत्फ लिए। यहाँ सभी के बाल भूरे व सफेद होते हैं, क्या बुढ़े, क्या जवान या बच्चे। काले बाल तो अपवाद रुप में ही किसी के होते हों। पार्लर में बुढी अम्माओं को भी बनठनकर आइसक्रीम का आनन्द लेते देखा। यहाँ के लोकजीवन को देख जीवन के उच्च जीवन स्तर की झलक स्पष्ट दिख रही थी। हम एक विकसित देश के आठवें सबसे बड़े शहर में थे। तेजी से विकसित होता देश यूरोप में अपना महत्वपूर्ण स्थान गढ़ रहा है।
नदी के किनारे बने विश्राम स्थलों में लोग प्रकृति का पूरा आनन्द ले रहे थे। पास में बह रही बर्दा नदी से निकली जलधार, ऊपर आकाश छूते हरे-भरे पेड़, चारों और प्रकृति के सुरम्य आँचल में बसा शहर, लोक प्रकृति से एकात्म, लयबद्ध जीवन का आनन्द ले रहे थे। पूरा नजारा चित्त को आल्हादित कर रहा था। देश-परिवेश कोई भी हो प्रकृति तो प्रकृति ठहरी, माँ की तरह वह जैसे अपनी गोद में आए शिशुओं को दुलार रही थी, परमेश्वर का सुमधुर संगीत सुनाकर अपने शिशुओं के जीवन को शांति-सुकून व आनन्द से रंग घोल रही थी।
इस तरह आज की शाम रुबरु व ओपेरा नोएवा के नाम रही, रात के 9 बज चुके थे, लेकिन यहाँ तो यह ढलती शाम का समय था। 9,30 बजे तक यहाँ अंधेरा छाता है। वापसी में मेडेम एनिला अपनी कार में हमें हमारे विश्राम स्थल पर छोड़ती हैं। कल यूनिवर्सिटी में मिलने के वायदे के साथ विदाई होती है, जो हमारा कैंपस में पहला विजिट होने वाला था, जिसका हमें बेसव्री से इंतजार था। (शेष अगली पोस्ट में....)
अगली पोस्ट नीचे दिए लिंक पर पढ़ सकते हैं -
 
पोलैंड यात्रा की पिछली पोस्ट नीचे पढ़ सकते हैं -
 
मेरी पोलैंड यात्रा, भाग-1, (दिल्ली से बिडगोश वाया फ्रेंक्फर्ट)
 
मेरी पोलैंड यात्रा, भाग-2, (बिडगोश शहर का पहला दिन, पहला परिचय) 

मेरी पोलैंड यात्रा, भाग-3, (बिडगोश शहर के ह्दय क्षेत्र में पहली शाम)
 

मंगलवार, 20 अगस्त 2019

हे सृजन साधक, हर दिन भरो कुछ रंग ऐसे


मिले जीवन को नया अर्थ और समाधान
हर दिवस, एक नूतन सृजन संभावना,
प्रकट होने के लिए जहाँ कुलबुला रहा कुछ विशेष,
एक खाली पट कर रहा जैसे इंतजार,
रचना है जिसमें अपने सपनों का सतरंगी संसार।1।

आपकी खूबियां और हुनर हैं रंग जिसके,
अभिव्यक्त होने का जो कर रहे हैं इंतजार,
 अनुपम छटा बिखरती है जीवन की या होता है यह बदरंग,
तुम्हारे ऊपर है सारा दारोमदार।2।


शब्द शिल्पी, युग साधक बन, हो सकता है सृजन कुछ मौलिक,
जिसे प्रकट होने का है बेसव्री से इंतजार,
आपके शब्द और आचरण से मिलेगी जिसे अभिव्यक्ति,
झरेगा जिनसे आपका चिंतन, चरित्र और संस्कार।3।

अतः हे पथिक, बन सृजन साधक,
भरो जीवन में हर दिन रंग कुछ ऐसे,
 झरता हो जिनमें जीवन का भव्यतम सत्य,
मिलता हो जहाँ जीवन को नया अर्थ और समाधान।4।
 

चुनींदी पोस्ट

प्रबुद्ध शिक्षक, जाग्रत आचार्य

            लोकतंत्र के सजग प्रहरी – भविष्य की आस सुनहरी    आज हम ऐसे विषम दौर से गुजर रहे हैं, जब लोकतंत्र के सभी स्तम्...