आज रविवार का दिन था। दिन भर प्रेजन्टेशन
की तैयारियाँ चलती रहीं। आज की शाम बिडगोश शहर के एकमात्र भारतीय रेस्टोरेंट -
रुबरु के नाम थी, जिसके दर्शन हम पिछले कल भ्रमण के दौरान मिल्ज टापू में कर चुके
थे। काजिमीर यूनिवर्सिटी की इंटरनेशल रिलेशन विभाग की मेडेम जोएना काल्का हमें
लेने अपनी गाड़ी में आती हैं। यहाँ आने से पूर्व मेल्ज के माध्यम से मैडेम
का शाब्दिक परिचय हो चुका था। भारत में काल्का शब्द काली माता से जुड़ा हुआ है,
जैसे चंडीगढ़ शिमला के बीच काल्का मंदिर व शहर, बैसे ही दिल्ली में काल्का मंदिर
प्रख्यात है। गुरु गोविंद सिंहजी की आत्मकथा विचित्र नाटक में भी काल्का आराधना का
रोमाँचक जिक्र मिलता है। खैर, इन भावों के साथ मैडेम का नाम आसानी से हमें याद था,
आज प्रत्यक्ष मैडेम का परिचय हो रहा था, जो एक सरल, सुगड़, सजग एवं सज्जन महिला
निकली। हमारे प्रवास के अंतिम पड़ाव तक जरुरत पड़ने पर इनका भावभरा सहयोग साथ रहा।
शहर की स्पाट, सुंदर सड़कों के बीच कुशलतापूर्वक ड्राइविंग करती हुई मेडेम काल्का
हमें अपने गन्तव्य की ओर ले जा रही थी। पिछले दो दिनों में जिस मार्ग को हम पैदल
तय कर रहे थे, आज गाड़ी में बैठकर उसका विहंगावलोकन हो रहा था।
रुबरु में जाने से पहले गाड़ी को पार्क करना था।
लेकिन शहर में इस समय पार्किंग स्थान बुक थे। उचित पार्किंग स्थान की खोज में हमने
मेडेम को टापू की तीन परिक्रमा करते हुए देखा, जो यहाँ पार्किंग के अनुशासन की
बानगी पेश कर रहा था, जिससे हम कुछ सीख सकते हैं। अपने यहाँ तो पार्किंग के ऐसे
अनुशासन की बात तो दूर, नो पार्किंग जोन में ही पार्किंग करना जैसे चलन बन चुका
है। पार्किंग के संदर्भ में यहाँ का सार्वजनिक अनुशासन हमें अनुकरणीय लगा।
रुबरु में काल्का मेडेम की बॉस मैडेम एनिला बेकर
(इंटरनेशनल विभाग की हेड़) अपने पति आरेक व दो बेटों के संग इंतजार कर रही थीं।
मेडेम एनिला देवसंस्कृति विवि आ चुकी हैं व भारतीय व्यंजनों का स्वाद चख चुकी हैं
व इनकी मुक्तकँठ से प्रशंसा करती रही हैं। आज मेडेम सपरिवार हमको यहाँ के भारतीय
स्वाद से रुबरु करा रहीं थी। मेडेम बहुत मिलनसार, खुशमिजाज, स्मार्ट एवं कड़क
महिला हैं, पति भी उतने ही बातूनी, मस्तमौला एवं मजेदार। दोनों बेटे पहली बार
मिलने के कारण थोड़ा गंभीर व संकोच कर रहे थे, डीलडोल में उमर से अधिक ऊँचे व भारी
भरकम थे। आज पहली बार पता चला कि यहाँ आहार में माँसाहार का चलन कितना आम है। शायद
ही कोई वाशिंदा हो जो पूर्णत्या शाकाहारी हो। यहाँ तक कि सलाद में तक मछली को स्टफड
पाया। लगा शायद यहाँ की जरुरत के हिसाब से भोजन का चलन रहा होगा, ठंड़ा इलाका होने
के कारण यहाँ तापमान माइनस 10-15 तक रहता है, क्योंकि अधिकाँश समय यहाँ शाकाहारी
सब्जियां, अन्न, दाल आदि कम मात्रा में उपलब्ध रहते हैं। फिर इनके पूर्वज स्लाव भी
ठंड़े इलाकों से आए, तो परम्परागत रुप में ऐसे आहार के चलन को समझने की कोशिश कर
रहा था।
प्रीतिभोज के साथ पोलैंड व भारत के खानपान व
दर्शन की चर्चा होती रही। पहली बार एग्नोस्टिक से हमारा परिचय हो रहा था। आरेक
स्वयं को एग्नोस्टिक मान रहे थे। कभी वे यहाँ के प्रचलित चर्च में कुछ माह-साल मोंक
तक रह चुके हैं, व अन्य धार्मिक एवं आध्यात्मिक मार्गों को भी आज्माँ चुके हैं,
लेकिन सबसे मोहभंग के बाद अब वे एग्नोस्टिक हो चुके हैं। सब धार्मिक परम्पराओं का
सम्मान करते हैं, लेकिन किसी में अधिक आस्था ऩही रखते। हमारे लिए यह एक नया व
रुचिकर प्रसंग था। ऐसा भी होता है व क्यों होता है, जानने-समझने की हम कोशिश कर
रहे थे।
रुबरु का मालिक तो पोलिश ही था, बात करने पर पता
कि वेटर व शैफ देशी ही है, हमने मिलने की इच्छा जाहिर की तो, कुछ ही मिनट
में चिरंजीवी शर्मा हमारे सामने थे, नेपाली मूल के बेटर व शैफ, जो पिछले कुछ
वर्षों से यहाँ काम कर रहे हैं। पोलैंड के बड़े शहरों में रुबरु रेस्टोरेंट की
श्रृंखला है, पता चला कि यहाँ के पास के शहर तोरुन में भी रुबरु रेस्टोरेंट है,
जिसमें इनके मित्र काम करते हैं, जहाँ अगले दिनों हम विजिट करने वाले थे।
यहाँ तृप्तिदायक भोजन करने के बाद हम फिर टापू के
बीच बर्दा नदी को पार करते हुए औपेरा नोएवा में पहुँचे, जो शहर का मुख्य कलाकेंद्र
है, जो पता चला कि वर्षों की मशक्कत के बाद भारी-भरकम बजट में तैयार किया गया है व
आज इस आधुनिक शहर की सांस्कृतिक पहचान है।
शहर के संभ्रांत परिवारों को यहाँ पधारते देखा। संडे के दिन यहाँ विशेष चहल-पहल रहती है। मेडेम काल्का की फैमिली भी यहाँ जुड़ चुकी थी, इनके प्रोफेसर पति व तीन प्यारी एवं सुसंस्कृत बेटियों के साथ। यहाँ थियेटर नुमा भवन में जैसे हम बाल्कोनी में थे। नीचे स्टेज पर कार्यक्रम लगभग दो घंटे चला। भाषा तो समझ में नहीं आयी (मूल फ्रेंच में लिखा गया था व पोलिश में अनुदित हो रहा था), लेकिन भावों की गहनता एवं संगीत की सुर लहरियों को अनुभव करते रहे। संगीत टीम में दर्जनों लोग शामिल थे, और थियेटर में 100 से अधिक कलाकार नाटक को अंजाम दे रहे थे। कहानी कुछ-कुछ प्रेमी, शैतान व दैवीय शक्तियों के बीच के संघर्ष को दर्शा रही थी। शैतान का प्रलोभन, पात्र के भाव की पावनता व दैवीय सहयोग आदि इसका विषय लगे। किसी प्रख्यात नाटककार के उपन्यास का यह नाटय रुपांतरण हो रहा था।
शहर के संभ्रांत परिवारों को यहाँ पधारते देखा। संडे के दिन यहाँ विशेष चहल-पहल रहती है। मेडेम काल्का की फैमिली भी यहाँ जुड़ चुकी थी, इनके प्रोफेसर पति व तीन प्यारी एवं सुसंस्कृत बेटियों के साथ। यहाँ थियेटर नुमा भवन में जैसे हम बाल्कोनी में थे। नीचे स्टेज पर कार्यक्रम लगभग दो घंटे चला। भाषा तो समझ में नहीं आयी (मूल फ्रेंच में लिखा गया था व पोलिश में अनुदित हो रहा था), लेकिन भावों की गहनता एवं संगीत की सुर लहरियों को अनुभव करते रहे। संगीत टीम में दर्जनों लोग शामिल थे, और थियेटर में 100 से अधिक कलाकार नाटक को अंजाम दे रहे थे। कहानी कुछ-कुछ प्रेमी, शैतान व दैवीय शक्तियों के बीच के संघर्ष को दर्शा रही थी। शैतान का प्रलोभन, पात्र के भाव की पावनता व दैवीय सहयोग आदि इसका विषय लगे। किसी प्रख्यात नाटककार के उपन्यास का यह नाटय रुपांतरण हो रहा था।
यहाँ उच्च घराने के लोग ही अधिकांशतः लोग पधारे
थे। उनको नाटक कितना समझ आता है, क्या भाव लेकर जाते होंगे, कह नहीं सकते। लेकिन
उनके सांस्कृतिक जीवन का हिस्सा अवश्य लगा। संगीत, संस्कृति, कला से जुड़ने का एक
प्रयास प्रतीत हुआ। इसी मिल्ज टापू में पिछले कल भी ऐसे ही कला केंद्र व म्यूजियम
हम कल देख चुके थे, जिससे लगा कि यहाँ अपनी संस्कृति, कला आदि को महत्व दिया जाता
है, जिन्हें अपनी जड़ों से जुड़े रहने के प्रयास क रुप में देखा जा सकता है।
इसी बीच अध्यात्म पर भी गहन चर्चा होती रही। लगा
धर्म का पारंपरिक रुप यहां भी दम तोड़ रहा है। मालूम हो कि पोलैंड विश्व का सबसे
बड़ा कैथोलिक चर्च आवादी वाला देश है, जो लगभग कुल आबादी के 87 फीसदी हैं। लेकिन
लगा कि विज्ञान और आधुनिकता में पली-बढ़ी पीढ़ी को प्रचलित धर्म अपने पारम्परिक
तौर-तरीकों से संतुष्ट नहीं कर पा रहा। हमारी जिज्ञासा धर्म के आध्यात्मिक स्वरुप
को समझने की अधिक थी, जिस पर गहराई से चर्चा के लिए कोई व्यक्ति भी नहीं मिला।
इतना स्पष्ट था कि धर्म का पारम्परिक स्वरुप प्रबुद्ध वर्ग पर पकड़ खो रहा है, फिर
धर्म में जैसे भारत में गढ़बढ़ झाला चल रहा है, कुछ ऐसा ही यहाँ भी दिखा। शायद यह एक
वैश्विक समस्या है, जहाँ धर्मक्षेत्रों में विकृतियों का प्रवेश एवं नाना प्रकार
की शौषण की घटनाएं इसके पावन स्वरुप को धुमिल कर रही हैं।
रास्ते में आईसक्रीम पार्लर में आइसक्रीम का लुत्फ
लिए। यहाँ सभी के बाल भूरे व सफेद होते हैं, क्या बुढ़े, क्या जवान या बच्चे। काले
बाल तो अपवाद रुप में ही किसी के होते हों। पार्लर में बुढी अम्माओं को भी बनठनकर
आइसक्रीम का आनन्द लेते देखा। यहाँ के लोकजीवन को देख जीवन के उच्च जीवन स्तर की
झलक स्पष्ट दिख रही थी। हम एक विकसित देश के आठवें सबसे बड़े शहर में थे। तेजी से
विकसित होता देश यूरोप में अपना महत्वपूर्ण स्थान गढ़ रहा है।
नदी के किनारे बने विश्राम स्थलों में लोग प्रकृति
का पूरा आनन्द ले रहे थे। पास में बह रही बर्दा नदी से निकली जलधार, ऊपर आकाश छूते
हरे-भरे पेड़, चारों और प्रकृति के सुरम्य आँचल में बसा शहर, लोक प्रकृति से
एकात्म, लयबद्ध जीवन का आनन्द ले रहे थे। पूरा नजारा चित्त को आल्हादित कर रहा था।
देश-परिवेश कोई भी हो प्रकृति तो प्रकृति ठहरी, माँ की तरह वह जैसे अपनी गोद में
आए शिशुओं को दुलार रही थी, परमेश्वर का सुमधुर संगीत सुनाकर अपने शिशुओं के जीवन
को शांति-सुकून व आनन्द से रंग घोल रही थी।
इस तरह आज की शाम रुबरु व ओपेरा नोएवा के नाम
रही, रात के 9 बज चुके थे, लेकिन यहाँ तो यह ढलती शाम का समय था। 9,30 बजे तक यहाँ
अंधेरा छाता है। वापसी में मेडेम एनिला अपनी कार में हमें हमारे विश्राम स्थल पर
छोड़ती हैं। कल यूनिवर्सिटी में मिलने के वायदे के साथ विदाई होती है, जो हमारा
कैंपस में पहला विजिट होने वाला था, जिसका हमें बेसव्री से इंतजार था। (शेष अगली
पोस्ट में....)
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पोलैंड यात्रा की पिछली पोस्ट नीचे पढ़ सकते हैं -
मेरी पोलैंड यात्रा, भाग-1, (दिल्ली से बिडगोश वाया फ्रेंक्फर्ट)
मेरी पोलैंड यात्रा, भाग-2, (बिडगोश शहर का पहला दिन, पहला परिचय)
मेरी पोलैंड यात्रा, भाग-3, (बिडगोश शहर के ह्दय क्षेत्र में पहली शाम)