शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2018

यात्रा वृतांत - जब आया बुलावा बाबा नीलकंठ महादेव का, भाग-2


पर्वत की गोद में बाबा का कृपा प्रसाद
नीलकंठ घाटी में प्रवेश घुमावदार सड़कों से होते हुए कुछ ही मिनटों में हम नीलकंठ क्षेत्र में प्रवेश कर चुके थे, उस पार पहाड़ी की गोद में सीढीनुमा खेतों के दर्शन हो रहे थे, जिसके किनारे पहाड़ी गाँव बसे हैं। चावल की खेती इनमें पकती तैयार दिख रही थी।
रास्ते में ही सड़क के किनारे नए-नए मंदिर खड़े हो गए हैं, जहाँ द्वादश ज्योतिर्लिंग की स्थापना की गई है। साथ ही बड़े-बड़े होटेल रुपाकार ले रहे हैं। तमाम दुकानें सजी हैं, जहाँ एक मुखी से लेकर तमाम मुखी रुद्राक्षों की बिक्री गारंटी के साथ होने के बोर्ड लगे हैं।
धर्म का भी अपना बाजार है, रोजगार है, यहाँ इसके दर्शन किए जा सकते हैं। रास्ते में इसी की आड़ में भिखारियों को भी अपना धंधा करते देखा जा सकता है, ताजुक तो तब होता है जब हट्टे-कट्टे बाबाजी को आसन जनाकर श्रद्धालुओं की श्रद्धा एवं भय का दोहन करते देखा जाता है।
नीलकंठ महादेव, झरना, संगम – 
इन सबको नजरंदाज करते हुए हम अपने चित्त को समेटे नीलकंठ मंदिर की ओर बढ़ रहे थे। स्वागत द्वार में लटकी घंटी की गुंजार के साथ हमने तीर्थ परिसर में प्रवेश की हाजरी लगाई। 
दर्शन लाईन में लगकर बाबा के दर्शन किए, गंगाजल-बेलपत्री आदि से स्वयं-भू लिंग का अभिषेक किए, सदियों से जलरही धुनी से बाबा का भस्मप्रसाद-आशीर्वाद ग्रहण कर बाहर निकले। नीचे झरना पूरे बेग में बह रहा था। इस समय यहाँ का पानी निर्मल-स्वच्छ दिख रहा था।
ज्ञातव्य हो कि नीलकंठ तीर्थ विष्णूकूट, ब्रह्मकूट और मणिकूट पहाड़ियों की गोद में, इनसे निस्सृत हो रही पंकजा और मधुमति नदियों के संगम तट पर बसा है। गर्मी में प्रायः इनमें से एक ही धारा झरने के रुप में बहती है, दूसरी धारा नाम मात्र की रहती है, लेकिन इस समय दोनों धाराएं अपने पूरे वेग के साथ कलकल निनाद करती हुई संगम पर मिल रही थी। 
पौराणिक मान्यता के अनुसार देव व दानवों द्वारा समुद्र मंथन में निकले चौदह रत्नों में से एक कालकूट विष का विषपान भगवान शिव द्वारा किया गया तथा इसकी ज्वलंता को शांत करने के लिए वे इस संगम के समीप पंचपणी नामक वृक्ष के नीचे समाधिस्थ होकर साठ हजार वर्षों तक तप किए तथा कैलाश लौटने से पूर्व भगवान शिव द्वारा कंठ के रुप में जनकल्याणार्थ शिवलिंग स्थापित किया।
चिंता का विषय -
नदी के चारों ओर गंदगी का आलम चिंता का विषय है। हालांकि बरसात में प्रकृति इसको काफी हद तक साफ कर देती है, लेकिन वाकि समय यहाँ नाले के चारों ओर फैली गंदगी व बदबू गहरे कचोटती है। इस विषय पर समाधान चर्चा करते हुए पिछली वार यहाँ के स्वामीजी से विस्तार में चर्चा हुई थी, लेकिन समाधान की वजाए एक दूसरे पर दोषारोपण और असहयोग की बातें अधिक दिखी। लगा स्वच्छता अभियान के नाम पर एक विशिष्ट सफाई अभियान आस्थावानों के स्तर पर किए जाने की यहाँ जरुरत है। फिर, जितना चढ़ावा रोज आ रहा है, इसके एक अंश में पूरे तीर्थ क्षेत्र की स्वच्छता की व्यवस्था की जा सकती है। इसमें श्रद्धालुओं, दर्शनार्थियों, दुकानदारों, गांव वासियों, प्रशासन एवं जनप्रतिनिधियों की भी जिम्मेदारी है कि इस पावन तीर्थ स्थल को साफ-सुथरा रखने में अपने-अपने स्तर का नैष्ठिक सहयोग दें।
पहाड़ी पर माँ भुवनेश्वरी की ओर नीलकंठ महादेव के दर्शन के बाद कुछ यादगार ग्रुप फोटो के बाद हम भुवनेश्वरी मंदिर की ओर कूच किए, जो यहाँ से लगभग 2 किमी दूर पहाड़ी पर स्थित है। यहाँ पैदल चलकर पहुँचा जा सकता है। लेकिन वाहन से भी पहाड़ी की वायीं और से परिक्रमा करते हुए मुख्य मोटर रोड़ से कच्ची सड़क है। इसके अंतिम छोर से महज 400 मीटर की दूरी पर पहाड़ी की चोटी पर माता का मंदिर स्थित है। 
मान्यता है कि जब भगवान शिव कालकूट विष के शमन हेतु नीचे घाटी में समाधिस्थ थे, तो माता पार्वती यहाँ पहाड़ी पर विराजमान थी, नीचे बाऊड़ी(पहाड़ी जल स्रोत) से जल भरकर लाती थी। शीतल एवं निर्मल जल की यह बाऊड़ी खेत में पीपल के पेड़ के नीचे रास्ते में मौजूद है।

गंगा दर्शन ढाबा यहाँ से आगे कच्ची सड़क से उतरते हुए पहाड़ी खेत, बिखरे हुए मकानों से होकर कुछ उतराई लिए हुए पैदल मार्ग आगे बढ़ता है। घरों के साथ यहाँ अमरुद, गलगला(पहाड़ी नींबू),चकोतरा, केला जैसे फलदार पौधे लगे हैं। खेतों में बाजरा, काऊँणी, कोदा आदि की फसलों को पकते देखा।
हालाँकि नयी पीढ़ी इन फसलों की बुआई में कोई विशेष रुचि नहीं लेती, लेकिन वैज्ञानिकों के अनुसार, पौष्टिकता एवं पर्यावरण की दृष्टि से इनका महत्व स्पष्ट है। यहाँ इन फसलों को खेतों में पकते देखकर सुखद आश्चर्य हुआ। सरकार भी आज इनकी पारम्परिक खेती को प्रोत्साहन दे रही है, जो एक अच्छी खबर है।

रास्ते में यहाँ की साफ आवो-हवा और नीरव शांति मन को गहरे छू जाती है। लगता है कि इस शांत प्रदेश में रहने वाले कितने सौभाग्यशाली हैं। यहां के रास्ते में चट्टियों से उतरते हुए थोड़ी दूर में गंगाजी का विहंगम दृश्य़ सामने दिखता है।
यहाँ के गंगा दर्शन ढावे में चाय-नाश्ता एवं भोजन की उचित व्यवस्था है, यात्री चाहें तो यहां के हवादार कमरों में रात्रि विश्राम भी कर सकते हैं। यहाँ से नीचे ऋषिकेश से हरिद्वार पर्यन्त घाटी मैदान का विहंगम दृश्य देखने लायक रहता है। सूर्यास्त के साथ तो यह नजारा ओर भी सुंदर लग रहा था। यहाँ प्लाऊ का ऑर्डर देकर हम अगले गंतव्य झिलमिल गुफा की ओर बढ़ चले।
झिलमिल गुफा रास्ता कुछ उतराई लिए, तो आगे कुछ चढ़ाई लिए हुए और फिर समतल आगे बढ़ता है। पहाड़ी की छाया में होने के कारण रास्ते में ठंडक का ठीकठाक अहसास हो रहा था। घाटी के उस पार पीछे की ओर पहाड़ी पर भुवनेश्वरी मंदिर, दूसरी ओर उस पार पहाड़ी की चोटी पर कोई दूसरा मंदिर, सामने देवली इंटर कॉलेज और वहाँ तक का पैदल मार्ग, सब यहाँ से दिखते हैं।

इस एकांतिक मार्ग की नीरवता के बीच झींगुरों की अलमस्त तान को पूरे श्बाब पर सुना जा सकता है। रास्ते में नवनिर्मित हनुमान मंदिर पार करते ही हम झिलमिल गुफा के द्वार पर थे।
आज पहली बार यहां कुछ अलग ही नजारा दिख रहा था। दो अजनवियों ने द्वार पर ही काफिले को रोक लिया और एक ओर बैठने का ईशारा किया। अंदर देखा तो धुनी के चारों ओर यहाँ के प्रधान बाबाजी का साक्षात्कार चल रहा था। कोई हिंदी में बातकर किसी विदेशी भाषा में दूसरों को सुना रहा था। वीडियो कैमरे से शूटिंग चल रही थी। बाद में पता चला की स्पैन के नेशनल टीवी चैनल के लिए एक डॉक्यूमेंट्र्री शूट हो रही है।

गजब का संयोग रहा कि कुछ ही देर में हम भी टीम सहित साक्षात्कार का हिस्सा बन जाते हैं। यहाँ के बाबाजी हमारे परिचित हैं, जब भी आते हैं, तो उनसे चाय पर कुछ चर्चा जरुरत होती है। बाबाजी भी मस्त मौला औघड़ इंसान हैं। बाबाजी के स्नेहिल निमंत्रण पर हम टीम सहित चर्चा में शामिल हो गए। उनके कार्यक्रम को गायत्री महामंत्र एवं महामृत्यंजय मंत्र के साथ आगे बढ़ाकर पूर्णाहुति की ओर ले गए। इस रुप में लगा कि बाबा का आज का बुलावा अनायास ही नहीं था। हमारे हिस्से में तीर्थाटन के साथ मीडिया के कुछ नायाब अनुभव भी झोली में बटोरने का इंतजाम हो रखा था। जीवन में दैवीय संयोगों की सृष्टि और यात्रा के दौरान तमाम घटनाओं की परफेक्ट टाइमिंग, सब कहाँ से कैसे निर्धारित होती हैं, इन प्रश्नों का गहराई से अहसास हो रहा था।

बापसी का सफर - इसके बाद हम गुफा में गुरु गोरखनाथजी के दर्शन कर बापस आ गए। अंधेरा शुरु हो चुका था। गंगा दर्शन ढावे पर गर्मागर्म प्लाऊ तैयार था। भोजन-प्रसाद ग्रहण कर, यहाँ ये आठ साल पहले के पैदल रोमाँचक सफर को याद करते हुए हम बापस अपने वाहन तक पहुँचे और ढलती शाम के साथ ऋषिकेश होते हुए देसंविवि परिसर पहुँचे।
रास्ते में गंगाजी पुल पार करते सघन अंधेरा छा चुका था, रास्ते में घुप अंधेरे के बीच तपोवन लक्ष्मणझूला शहर की टिमटिमाती रोशनी सफर में एक नया आयाम जोड़ रही थी। 
आठ साल ठीक इसी दिन अमावस्य के दिन सम्पन्न यात्रा कई मायनों में विलक्ष्ण रही,  और इस धाम की विल्क्षण लीला का गहरा अहसास करा रही थी।
आठ साल पूर्व के कंपा देने वाले अनुभव आज के ठीक आठ वर्ष पूर्व इसी ग्रुप के सदस्यों के साथ हम गंगादर्शन ढावे से नीचे बैराज तक बापसी की पैदल यात्रा किए थे। रास्ते की दुश्वारियों से बेखवर, काफिला लगभग 4-5 बजे के बीच नीचे उतरा था। रास्ते में ही साढ़े छः बजे तक अंधेरा हो चुका था। पिछले बरसाती मौसम की मार स्पष्ट थी, जिसके चलते पैदल रास्ता बह चुका था। 
सो हम नाले के साथ नीचे उतर रहे थे। टीम के कुछ सदस्य पहाड़ी रास्ते में उतरने के अनुभवी न होने के कारण बीच-बीच में कद्दु की तरह पानी व पत्थरों पर गिरने की उक्ति चरितार्थ कर रहे थे। अंधेरे में मोबाईल और कैमरे की बैट्रियाँ एक-एक कर जबाव दे रही थी। रास्ते में हाथियों की चिंघाड़ तो कहीं पक्षियों की विचित्र आबाजें और कहीं खुंखार जानवरों की भयावह दहाड़, सब मिलकर हम सबका दिल दहला रही थीं। अनहोनी की आशंका से दिल काँप रहा था। उस पर रास्ता खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था। इस तरह लगभग दो घंटे की भटकन के बाद हम जंगल से बाहर निकले थे। आज रोंगटे खड़ा करने वाले सफर के अनुभव सफर की आठवीं वर्षगाँट में पुनः ताजा हो गए थे व रास्ते में चर्चा का विषय बने रहे।

गुरुवार, 18 अक्तूबर 2018

यात्रा वृतांत - जब आया बुलावा बाबा नीलकंठ महादेव का, भाग-1


नीलकंठ महादेव ऋषिकेश-पौढ़ी गढ़वाल क्षेत्र का एक सुप्रसिद्ध तीर्थ स्थल है, जो अपनी पौराणिक मान्यता, प्राकृतिक मनोरमता और धार्मिक महत्व के कारण पर्यटकों, खोजी यात्रियों, श्रद्धालुओं एवं प्रकृति प्रेमियों के बीच खासा लोकप्रिय है। 2003 में देसंविवि बायो-इंफोर्मेटिक्स ग्रुप के साथ सम्पन्न पहली यात्रा के बाद यहाँ की पिछले पंद्रह वर्षों में विद्यार्थियों, मित्रों व परिवारजनों के साथ दर्जन से अधिक आवृतियाँ पूरी हो चुकी हैं। हर बार एक नया रोमाँच, नयी ताजगी, नयी चुनौतियाँ, नए सबक व कृपावर्षण से भरे अनुभव जुड़ते जाते हैं।

आज फिर यात्रा का संयोग बन रहा था, कहीं कोई योजना नहीं थी। जिस तरह कुछ मिनटों में इसकी रुपरेखा बनीं, लगा जैसे बाबा का बुलावा आ गया। रास्ते में पता चला कि आज के ही अमावस्य के दिन ठीक 8 वर्ष पूर्व एमजेएमसी बैच 2010-12 के साथ यहाँ की यात्रा सम्पन्न हुई थी। आज पूरी टीम को शामिल न कर पाने का मलाल अवश्य रहा, लेकिन इसकी भरपाई किसी उचित अवसर पर पूरा करेंगे, इस सोच के साथ हल्के मन के साथ यात्रा पर आगे बढ़े। इस बार की यात्रा इस मायने में नयी थी कि हम पहली वार इस ट्रेक पर हरिद्वार चंड़ीपुल से होकर चीलारेंज से प्रवेश कर रहे थे, जो प्राकृतिक सौंदर्य से जड़ा हुआ एक बहुत ही सुंदर, एकांतिक एवं रोमाँचक मार्ग है। गंग नहर और राजाजी टाईगर रिजर्व से होकर घने जंगलों से गुजरता जिसका रास्ता स्वयं में बेजोड़ है।

चीला रेंज से होकर सफर – चंड़ी चौक से होकर बना चंड़ी पुल क्षेत्र का सबसे लम्बा पुल है, जहाँ से गंगाजी का विहंगम दृश्य देखने लायक रहता है। कुंभ के दौरान इसके दोनों ओर बसे बैरागी द्वीप में तंबुओं की कतार देखने लायक रहती है। इसके वाईं ओर दिव्य प्रेम सेवा मिशन का कुष्ठ आश्रम पड़ता है, जो सेवा साधना की एक अनुपम मिसाल है। 
पुल से आगे की सड़क नजीबावाद, हल्दवानी-पंतनगर, अल्मोड़ा-नैनीताल की ओर जाती है अर्थात, यह कुमाऊँ क्षेत्र में प्रवेश का द्वार है। यहाँ से बाईं ओर मुड़ते ही कुछ दूरी पर गंगाजी एवं नीलपर्वत के बीच ऐतिहासिक सिद्धपीठ दक्षिणकाली मंदिर आता है, जिसकी स्थापना बाबा कामराजजी द्वारा लगभग 800 वर्ष पूर्व की गयी थी, यह सदियों से तंत्र साधना का प्रमुख केंद्र रहा है।
यहीं से दायीं ओर पहाड़ी पर स्थापित चंड़ीदेवी माता का मंदिर है, जो लगभग 1.5 किमी ट्रेकिंग का सफर है। मान्यता है कि आदि शंकराचार्य ने आठवीं शताब्दी मेंं इसकी स्थापना की थी। पहाड़ी पर उड़नखटोला से भी पहुँचने की भी उम्दा व्यवस्था है।

रास्ता आगे घने जंगल में प्रवेश करता है, यह राजाजी टाइगर रिजर्व का क्षेत्र आता है। हरे-भरे आच्छादन के बीच बलखाती मोड़दार सड़कें इसकी विशेषता हैं। रास्ते में हरिद्वार बैराज से आता मार्ग पड़ता है, जो सिर्फ सरकारी व छोटे वाहनों के लिए खुला होता है। यहां से आगे रास्ते में नांले पड़ते हैं, जो इस मौसम में कलकल बह रही जलराशि से गुलजार थे।
प्रायः इस राह में हिरनों के झुंड़ मिलते हैं, मोर के दर्शन भी सहज ही होते हैं, जो आज संयोगवश नहीं हो पाए। कुछ ही देर में राजाजी नेशनल पार्क का गेट आता है। ऑफ सीजन होने के कारण आज यहाँ माहौल शांत था।
यहाँ सीजन में सफारी जीपें और पालतु हाथियों के झुंड रहते हैं। रिजर्व के जंगल में जीप सफारी का लगभग 33 किमी सफर बेहद रोमाँचक रहता है, जब घने जंगल से होते हुए उतार-चढ़ाव भरे नदी-नालों व घाटियों के बीच चीतल, साँभर, हाथी, मोर, यहाँ तक कि बाघ जैसे जंगली जानवरों तथा पक्षियों को नजदीक से देखने का मौका मिलता है।
कुछ ही मिनटों में हम चीलारेंज के बिजली घर से होकर गुजर रहे थे। सुरक्षाकारणों से यहाँ फोटोग्राफी मना है। यहाँ बिजलीघर से गिरती वृहद जलराशि और नहर के रास्ते इसका निकास, सब दर्शनीय रहता है। इसको नीलधारा कहते हैं, जो आगे घाट नम्बर 10 के पास सप्तसरोवर की ओर से आ रही गंगा की धारा में मिलती है, जहाँ गंगाजी हरिद्वार क्षेत्र में अपने शुद्धतम रुप में प्रकट होती हैं।

इस बिजली घर से आगे का नजारा नहर के किनारे बढ़ता है, जो स्वयं में एक मनभावन सफर रहता है। नहर के किनारे हरे-भरे वृक्ष, इनकी पृष्ठभूमि में घने जंगल, वायीं ओर गंगाजी की जलधार और उस पार घाटी का नजारा तथा शिवालिक पर्वत श्रृंखलाएं – सब मिलकर सफर का खुशनुमा अहसास दिलाते रहते हैं।
आगे रास्ते में गंगाभोगपुर तल्ला गाँव पड़ता है, बीच में खेत और लगभग वृताकार में इनको घेरे घर, एक अद्भुत नजारा पेश करते हैं। यहाँ दिव्य प्रेम सेवा मिशन द्वारा संचालित कुष्ठ आश्रम के व स्थानीय बच्चों की शिक्षा की उत्तम व्यवस्था है। गांव को एक आदर्श गाँव का रुप देने के प्रयास यहाँ देखे जा सकते हैं।

आगे पुल पारकर दायीं ओर गंगाभोगपुर मल्ला से रास्ता गुजरता है। यहाँ से सीधा रास्ता बिंध्यवासनी मंदिक तक बाहन से होकर जाता है, लेकिन आगे नीलकंठ के लिए यहाँ से पैदल ही चलना पड़ता है। लेकिन हमारा सफर पूरी तरह से जीप सफारी का था, सो हम नहर के वांएं किनारे ऋषिकेश बैराज तक नहर के किनारे आगे बढ़ते रहे। बीच में बरसाती नाला पड़ता है, जिसे हम कई वर्षों से बरसात में यातायात को ध्वस्त करते देख रहे हैं, अभी पुल नहीं बन पाया है। आज भी हम इसी के बीच बनी कच्ची सड़क से बहते पानी के बीच सड़क पार किए।
थोड़ी देर में ऋषिकेश बैराज आती है, जहाँ गंगाजल का एक हिस्सा नहर से होकर चीलारेंज की ओर बहता है तो शेष हिस्सा गंगाजी की मुख्यधारा से होकर वीरभद्र, रायावाला से होकर सप्तसरोवर के आगे घाट नम्बर10 पर नीलधारा में मिलता है। यहाँ तक नहर के किनारे का सफर सचमुच में बहुत ही अद्भुत रहता है, यथासंभव इसके मनोरम दृश्य को अपने मोबाईल में कैप्चर करते रहे।

बैराज के थोड़ी दूरी पर दाईं ओर का सीधा पगड़ंडी वाला मार्ग पहाड़ी की रीढ़ पर बसे गंगादर्शन ढावा तक जाता है, लेकिन घने जंगल, खुंखार जानवरों व बरसात में ध्वस्थ पगडंडियों के चलते यह पर्यटकों के लिए बंद रहता है। क्षेत्रीय लोग हालांकि अपने रिस्क पर अपने अनुभव के आधार पर इस मार्ग से आवागमन करते रहते हैं। 
आज से ठीक आठ वर्ष पूर्व हम अमावस्य की घुप अंधेरी रात में पूरे काफिले के साथ इसी मार्ग में लगभग दो-अढाई घंटे भटकते हुए बाहर निकले थे, जिसका वर्णन अगली पोस्ट के अंत में करेंगे।

यहाँ से आगे की सड़क घने जंगल से होकर गुजरती है। रास्ते भर कहीं नाले, तो कहीं झरने हमारा स्वागत करते रहे। हरा-भरा घना जंगल हमारी राह का सहचर रहा। वन गुर्जरों की वीरान बस्ती के दर्शन भी राह में हुए, जिनका जीवन दूर से देखने पर बहुत रोचक लगता है।
रास्ते में रामझूला से नीलकंठ के पैदल मार्ग के दर्शन हुए। लंगूरों के झुंड यहाँ इकट्ठा थे। ये शांत एवं सज्जन जंगली जीव यात्रियों के हाथों से चन्ना खाने के अभ्यस्थ हैं। ये झुंडों में रहते हैं, इनसे यदि भय न खाया जाए, तो इनकी संगत का भरपूर आनन्द उठाया जा सकता है।

लक्ष्मण झूला का नजारा – यहाँ से पार करते ही कुछ मिनटों में हम ऐसे बिंदु पर पहुँचे, जहाँ से रामझूला तो पीछे छुट चुका था लेकिन लक्ष्मण झूले का नजारा प्रत्यक्ष था। यह क्षेत्र आजकल योग एवं अध्यात्म केपिटल के रुप में प्रख्यात है, जहाँ विदेशी पर्याप्त संख्या में शांति की खोज में भारतीय अध्यात्म, चिकित्सा एवं योग का अपनाते देखे जा सकते हैं।
लक्ष्मण झुले के ईर्द-गिर्द पूरा शहर बसा है, एक के ऊपर, दूसरे कई मंजिलों ऊँचे भवनों का नजारा हतप्रत करता है, लगता है जैसे कंकरीट का जंगल खड़ा हो चुका है। इन भवनों के जमघट के बीच बढ़ती जनसंख्या का दबाव, मानवीय लोभ, बेतरतीव पर्यटन और प्रकृति के साथ खिलवाड़ की विसंगतियाँ प्रत्यक्ष दिखती हैं।
पृष्ठभूमि में कुंजा देवी की चोटी, पहाड़ों से होकर जा रही सड़कें हमें नीरझरना-कुंजापूरी के सफर की याद दिला रही थी। कुछ यादगार स्नैप्स के साथ सफर आगे बढ़ता है।

गंगा किनारे सफर का रोमाँच – लक्ष्मण झूला को पार कर हम गंगाजी के किनारे आगे बढ़ रहे थे। रास्ते में बानर सेना के दर्शन बीच-बीच में होते रहे। लगा कि यात्रियों के द्वारा दया एवं कौतुकवश इनको दिए जा रहे चारे के कारण इनकी आदतें कितना बिगड़ चुकी हैं। दिन भर जंगलों में उछल-कूद व भोजन की खोज  की बजाए, अब ये सड़क के किनारे ठलुआ बैठकर, भिखारी की तरह भोजन के इंतजार में रहते हैं।
रास्ते में दायीँ ओर की पहाडियों से आ रहे नालों व झरनों में पानी की प्रचुरता एक सुखद एहसास दिला रही थी, लगा इस वर्ष सितम्बर माह में लगातार हुई बारिश यहाँ भी फलित हुई है। क्षेत्र के जलस्रोत पूरी तरह से रिचार्ज हो चुके हैं। वायीं ओर गंगाजी की ओर दनदनाते हुए वह रहे पहाड़ी नाले रास्ते भर इसकी झलक दिखा रहे थे।

हेंवल नदी के किनारे – रास्ते में गंगाजी से हटते ही गढ़वाल हिमालय से आने वाली हेंवल नदी भी कुछ ऐसा ही संदेश दे रही थी। आज इसमें भी भरपूर जलराशि दिख रही थी। इसके नीलवर्णी जल में लोग पूरी मोजमस्ती करते दिखे। इसकी पानी इतना साफ था कि इसके तल के दर्शन तक स्पष्टतयः हो रहे थे। इसके किनारे बसे गाँव व कैंपिक साइट्स के दृश्य बहुत संदुर दिखते हैं, मन कर रहा था कि कभी फुर्सत में यहाँ की शांत वादियों में कुछ दिन विता सकते हैं, खासकर नदी के उस पार के जंगल में एक गुफा तलाशकर।

मौनी बाबा, मायादेवी के चरणों में – अब रास्ता पहाड़ियों की चढ़ाईयों को पार कर रहा था, सड़क के किनारे बनी चट्टियां चाय-नाश्ता के लिए यात्रियों का इंतजार व स्वागत कर रही थी। हम कुछ ही मिनटों में पहाडियों के चरणों में थे, जिसके शिखर पर मंदिर की पताका लहरा रही थी। पता चला कि ये महामाया का मंदिर है, जहाँ तक चढ़ने के लिए कई सौ सुंदर सीढ़ियाँ की सड़क बनीं हैं। 
इसी के पास सड़क के किनारे मौनी बाबा की कुटिया का बोर्ड मिला। यहाँ तो हम नहीं जा पाए, लेकिन रामझूला से नीलकंठ पैदल मार्ग पर चट्टान की गोद में बसे मौनी बाबा के आश्रम की याद बरबस ताजा हो गयी, जहाँ कभी तीर्थयात्रियों के लिए चाबल-कड़ी का भंडारा चौबीस घंटे चलता रहता था।
अब हम नीलकंठ क्षेत्र में प्रवेश कर चुके थे। नीलकंठ महादेव महज 5 किमी दूर थे। उस पार पहाड़ों की गोद में बसे गाँव, सीढ़ीदार खेतों में पक रही धान की फसल सफर के आनन्द में एक नया रोमाँच घोल रही थी।  
यात्रा वृतांत का अगला भाग आप इसके खण्ड-2, पर्वत की गोद में बाबा का कृपा प्रसाद में पढ़ सकते हैं। 

रविवार, 30 सितंबर 2018

मेरा गाँव, मेरा देश - मौसम का बदलता मिजाज और बारिश का कहर

प्रकृति के रौद्र रुप में निहित दैवीय वरदान


वर्ष 2018 की वरसात कई मायनों में यादगार रहेगी, अधिकाँशतः प्रकृति के लोमहर्षक कोप के लिए। अगस्त माह में भगवान के अपने घर – केरल में बारिश का करह, 80 बाँधों से एक साथ छोड़ा जा रहा पानी, जलमग्न होते लोकजीवन की विप्लवी त्रास्दी। सितम्बर माह के तीसरे सप्ताह में देवभूमि कुल्लू में तीन दिन की बारिश में प्रकृति प्रकोप का एक दूसरा विप्लवी मंजर दिखा, जिसने ऐसी तबाही की 25 साल पुरानी यादें ताजा कर दी।

     इन सब घटनाओं के पीछे कारणों की पड़ताल, इनमें मानवीय संवेदना के पहलु, यथासम्भव मदद और आगे के सबक व साबधानियां अपनी जगह हैं, लेकिन चर्चा प्रायः इनके नकारात्मक, ध्वंसात्मक पहलुओं की ही अधिक होती है। मीडिया हाईप को इममें पूरी तरह से सक्रिय देखे जा सकता है, जो इसका स्वभाव सा बन गया है। सोशल मीडिया पर अधिक हिट्स, तो टीवी में टीआरपी की दौड़। हालाँकि अखबारों में ऐसी संभावनाएं कम रहती हैं, लेकिन इनकी हेडिंग्ज में भी तबाही का ही मंजर अधिक दिखता रहा, पीछे निहित दैवीय वरदानों पर ध्यान नाममात्र का ही रहा।


     कुल्लू घाटी में 3 तीन तक बरसे लगातार पानी से क्षेत्र के नालों में पानी भर गया था, ऐसे में नदियों का फूलना स्वाभाविक था। इस पर बादल फटने की घटनाओं ने स्थिति को ओर विकराल स्वरुप दिया। मनाली, सोलांग घाटी के आगे धुंधी में बादल फटने की घटना घटी, तो दूसरी कुल्लू मनाली के बीच कटराईं के पास फोजल-ढोबी इलाके में, जिस कारण सामान्यतः शांत रहने वाली व्यास नदी ने रौद्ररुप धारण किया। रास्ते में जो भी इसकी चपेट में आता गया, सब इसकी गोद में समाता गया।

     मनाली के समीप प्राइवेट बस स्टैंड़ से वोल्बो बस के डूबने का लोमहर्षक दृश्य इस भयावह त्रास्दी का प्रतीक बना। इसके साथ नदी की धारा में बहता ट्रक ऐसी ही दूसरी घटना रही। रास्ते में कई पुल बहे, कई जगहों से सड़कें ध्वस्त हो गयी। कुल्लू से मानाली के बीच शुरुआती दौर में यातायात ठप्प रहा। कुल्लू-मनाली के बीचों-बीच राइट और लेफ्ट बैंक को जोड़ने वाले पतलीकुलह-नगर पुल का एक हिस्सा बुरी तरह से ध्वस्त हो गया। फिर ढोबी का पुल बड़े बाहनों के लायक नहीं रहा। लुग्ड़ी भट्टी-छरुहड़ू के बीच का लेफ्ट बैंक रुट का बड़ा हिस्सा पूरी तरह से गायब हो गया। इस कारण लेफ्ट बैंक से किसी तरह की यातायात की संभावनाएं सप्ताह भर बंद रहीं। हालांकि अब यह रुट कामचलाऊ रुप में शुरु हो चुका है।
इस बीच छोटे बाहनों के सहारे सेऊबाग पुल और रायसन पुल यातायात के लिए लाईफलाइन की तरह काम करते रहे। लेकिन अत्यधिक भीड़ के कारण ट्रैफिक जाम और हल्के पुलों पर अत्यधिक भार के चलते इनकी भी सीमाएं स्पष्ट होती गयी। फिर सेऊबाग पुल भी आधा क्षतिग्रस्त अवस्था में रहा। इस बीच रास्ते में कई जगहों से टुटे लिंक रोड़ के कारण जनजीवन अस्त-व्यस्त रहा।
इसी बीच कुल्लू-मनाली में जब बारिश हो रही थी, यहाँ की ऊँचाईयों में व कुल्लू-मनाली के आगे रोहतांग दर्रे के उस पार लाहौल-स्पीति क्षेत्र में बर्फवारी हो रही थी। इस बेमौसमी बर्फवारी के कारण यहाँ की दुश्वारियाँ अलग रुप लेती हैं। लेट सीजन में यहाँ तैयार होने वाली सेब की फसल को इससे भारी नुकसान पहुँचा। सेब के फलदार वृक्षों पर बर्फ लदने के कारण पेड टूटने लगे। इस बेमौसमी बर्फवारी ने मौसम परिवर्तन की वैश्विक स्थिति व इसके दुष्परिणामों को स्पष्ट किया।
कूपित प्रकृति के इन दुष्प्रभावों व नुकसान के असर, इनके कारण, संभव निराकण आदि पर भी चर्चा होती रही। कई लोग नुकसान को लेकर ही चिल्लाते रहे, मीडिया इसे हाईप देता रहा। कभी न भरने वाले जख्म दे गयी यह बरसात, जैसी हेडिंग्ज के साथ अखबार एक तरफा व्यान देते रहे। टीवी एवं सोशल मीडिया पर इसके एक तरफा हालात व्याँ करते वीडियोज व पोस्ट को देखा जा सकता है।
लेकिन इन सबके बीच प्रकृति के रौद्र रुप के पीछे निहित दैवीय वरदानों का जिक्र न के बरावर दिखा। पीड़ित लोगों के कष्ट एवं व्यथा के साथ पूरी संवेदना व्यक्त करते हुए, प्रकृति के इन वरदानों का जिक्र भी जरुरी हो जाता है, जिससे अनावश्यक पैनिक पैदा करने की जगह स्थिति की सम्यक समझ विकसित हो सके।
जो सबसे बड़ा वरदान इस बारिश का रहा, वह था पानी के सूखते प्राकृतिक जल-स्रोतों का रिचार्ज होना। गाँव की ही बात करें, तो पिछले कई वर्षों से गाँव के नाले को देखकर चिंतित था। साल भर जो नाला कभी निर्बाध रुप में नदी तक बहता था, वह पिछले कई सालों से इस दौरान सूखा दिखता। इस बार बारिश के बाद दनदनाते हुए नदी तक बह रहे नाले को देखकर सुखद आश्चर्य़ हुआ। वहीं इस पर बना झरना, जिसको देख पिछले कई सालों से मायूसी छाई थी, अपने पूरे श्बाब पर झरता दिखा।
समझ में आया कि जितने जल की मात्रा को हम लाखों पेड़ लगाकर तैयार कर पाते, उससे कई गुणा अधिक जल यह बरसात वरदान के रुप में कुछ दिनों में दे गई। सूखते जलस्रोतों का रिचार्ज होना एक कितना बड़ा उपहार है, इसको पानी पीने से लेकेर सिंचाई के लिए तरस रहे आम इंसान व किसान भली-भांति समझ सकते हैं। फिर करोड़ों-अरबों की बन संपदा को ऐसी बारिश जो प्राण सींचन करती है, उसका अपना महत्व है।
इस बीच प्रकृति का अदृश्य न्याय देखने लायक रहा। इस दौरान आधा जल बर्फ के रुप में पहाड़ों में जमता गया और आधा बारिश के रुप में। यदि सारा जल बारिश के रुप में बरसता तो शायद तबाही का मंजर और अधिक भयावह होती। दूसरा जमी बर्फ के कारण सिकुड़ते ग्लेशियर पुनः रिचार्ज हुए। इनसे निकलने वाली हिमनदियों का जल अब साल भर निर्बाध रुप में बहता रहेगा, यह एक दूरा वरदान रहा।
इस तरह इस प्राकृति त्रास्दी में हुए नुक्सान के साथ प्रकृति के इन उपहारों को भी समझने की जरुरत है। इन दूरगामी फायदों की समझ तात्कालिक हानि के गम पर मलहम का काम करती है। साथ ही प्राकृतिक त्रास्दियों के मानव निर्मित कारणों को समझने, पकड़ने व इनके निराकरण के प्रयास जरुरी हैं। प्रकृति का रौद्र रुप हमारी जिन इंसानी वेबकूफियों को उजागर करता है, उनसे सबक लेने की जरुरत है। 
प्रकृति मूलतः ईश्वरीय विधान से चलती है, उसके अनुशासन को समझने व पालने की जरुरत है, ताकि हम इससे सामंजस्य बिठाकर रह सकें व इसके कोप-दंड़ की वजाए इसके वरदानों के सुपात्र अधिकारी बन सकें।

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