पर्वत की गोद में बाबा का कृपा प्रसाद
नीलकंठ घाटी में प्रवेश – घुमावदार सड़कों से
होते हुए कुछ ही मिनटों में हम नीलकंठ क्षेत्र में प्रवेश कर चुके थे, उस पार
पहाड़ी की गोद में सीढीनुमा खेतों के दर्शन हो रहे थे, जिसके किनारे पहाड़ी गाँव बसे हैं। चावल की खेती
इनमें पकती तैयार दिख रही थी।
रास्ते में ही सड़क के किनारे नए-नए मंदिर खड़े हो गए हैं, जहाँ द्वादश ज्योतिर्लिंग की स्थापना की गई है। साथ
ही बड़े-बड़े होटेल रुपाकार ले रहे हैं। तमाम दुकानें सजी हैं, जहाँ एक मुखी से लेकर तमाम मुखी रुद्राक्षों की
बिक्री गारंटी के साथ होने के बोर्ड लगे हैं।
धर्म का भी अपना बाजार है, रोजगार है, यहाँ इसके दर्शन किए
जा सकते हैं। रास्ते में इसी की आड़ में भिखारियों को भी अपना धंधा करते देखा जा
सकता है, ताजुक तो तब होता है जब हट्टे-कट्टे बाबाजी को
आसन जनाकर श्रद्धालुओं की श्रद्धा एवं भय का दोहन करते देखा जाता है।
नीलकंठ महादेव, झरना, संगम –
इन सबको नजरंदाज
करते हुए हम अपने चित्त को समेटे नीलकंठ मंदिर की ओर बढ़ रहे थे। स्वागत द्वार में
लटकी घंटी की गुंजार के साथ हमने तीर्थ परिसर में प्रवेश की हाजरी लगाई।
दर्शन
लाईन में लगकर बाबा के दर्शन किए, गंगाजल-बेलपत्री आदि
से स्वयं-भू लिंग का अभिषेक किए, सदियों से जलरही
धुनी से बाबा का भस्मप्रसाद-आशीर्वाद ग्रहण कर बाहर निकले। नीचे झरना पूरे बेग में
बह रहा था। इस समय यहाँ का पानी निर्मल-स्वच्छ दिख रहा था।
ज्ञातव्य हो कि नीलकंठ तीर्थ विष्णूकूट, ब्रह्मकूट और मणिकूट पहाड़ियों की गोद में, इनसे निस्सृत हो रही
पंकजा और मधुमति नदियों के संगम तट पर बसा है। गर्मी में प्रायः इनमें से एक ही
धारा झरने के रुप में बहती है, दूसरी धारा नाम
मात्र की रहती है, लेकिन इस समय दोनों धाराएं अपने पूरे वेग के साथ
कलकल निनाद करती हुई संगम पर मिल रही थी।
पौराणिक मान्यता के अनुसार देव व दानवों द्वारा समुद्र मंथन में निकले चौदह रत्नों में से एक कालकूट विष का विषपान भगवान शिव द्वारा किया गया तथा इसकी ज्वलंता को शांत करने के लिए वे इस संगम के समीप पंचपणी नामक वृक्ष के नीचे समाधिस्थ होकर साठ हजार वर्षों तक तप किए तथा कैलाश लौटने से पूर्व भगवान शिव द्वारा कंठ के रुप में जनकल्याणार्थ शिवलिंग स्थापित किया।
चिंता का विषय -पौराणिक मान्यता के अनुसार देव व दानवों द्वारा समुद्र मंथन में निकले चौदह रत्नों में से एक कालकूट विष का विषपान भगवान शिव द्वारा किया गया तथा इसकी ज्वलंता को शांत करने के लिए वे इस संगम के समीप पंचपणी नामक वृक्ष के नीचे समाधिस्थ होकर साठ हजार वर्षों तक तप किए तथा कैलाश लौटने से पूर्व भगवान शिव द्वारा कंठ के रुप में जनकल्याणार्थ शिवलिंग स्थापित किया।
पहाड़ी पर माँ भुवनेश्वरी की ओर – नीलकंठ महादेव के दर्शन के बाद कुछ यादगार ग्रुप
फोटो के बाद हम भुवनेश्वरी मंदिर की ओर कूच किए, जो यहाँ से लगभग 2 किमी दूर पहाड़ी पर स्थित है। यहाँ पैदल चलकर
पहुँचा जा सकता है। लेकिन वाहन से भी पहाड़ी की वायीं और से परिक्रमा करते हुए
मुख्य मोटर रोड़ से कच्ची सड़क है। इसके
अंतिम छोर से महज 400 मीटर की दूरी पर पहाड़ी की चोटी पर माता का मंदिर स्थित है।
मान्यता है कि जब भगवान शिव कालकूट विष के शमन हेतु नीचे घाटी में समाधिस्थ थे, तो माता पार्वती यहाँ पहाड़ी पर विराजमान थी, नीचे बाऊड़ी(पहाड़ी जल स्रोत) से जल भरकर लाती
थी। शीतल एवं निर्मल जल की यह बाऊड़ी खेत में पीपल के पेड़ के नीचे रास्ते में
मौजूद है।
गंगा दर्शन ढाबा – यहाँ से आगे कच्ची
सड़क से उतरते हुए पहाड़ी खेत, बिखरे हुए मकानों से
होकर कुछ उतराई लिए हुए पैदल मार्ग आगे बढ़ता है। घरों के साथ यहाँ अमरुद, गलगला(पहाड़ी नींबू),चकोतरा, केला जैसे फलदार
पौधे लगे हैं। खेतों में बाजरा, काऊँणी, कोदा आदि की फसलों को पकते देखा।
हालाँकि नयी पीढ़ी इन फसलों की बुआई में कोई विशेष
रुचि नहीं लेती, लेकिन
वैज्ञानिकों के अनुसार, पौष्टिकता
एवं पर्यावरण की दृष्टि से इनका महत्व स्पष्ट है। यहाँ इन फसलों को खेतों में पकते
देखकर सुखद आश्चर्य हुआ। सरकार भी आज इनकी पारम्परिक खेती को प्रोत्साहन दे रही है, जो
एक अच्छी खबर है।
रास्ते में यहाँ की साफ आवो-हवा और नीरव शांति मन को गहरे छू जाती है।
लगता है कि इस शांत प्रदेश में रहने वाले कितने सौभाग्यशाली हैं। यहां के रास्ते
में चट्टियों से उतरते हुए थोड़ी दूर में गंगाजी का विहंगम दृश्य़ सामने दिखता है।
यहाँ के गंगा दर्शन ढावे में चाय-नाश्ता
एवं भोजन की उचित व्यवस्था है, यात्री चाहें तो
यहां के हवादार कमरों में रात्रि विश्राम भी कर सकते हैं। यहाँ से नीचे ऋषिकेश से
हरिद्वार पर्यन्त घाटी मैदान का विहंगम दृश्य देखने लायक रहता है। सूर्यास्त के साथ तो यह नजारा ओर भी सुंदर लग रहा
था। यहाँ प्लाऊ का ऑर्डर देकर हम अगले गंतव्य झिलमिल गुफा की ओर बढ़ चले।
झिलमिल गुफा – रास्ता कुछ उतराई
लिए, तो आगे कुछ चढ़ाई लिए हुए और फिर समतल आगे बढ़ता है। पहाड़ी की छाया में होने
के कारण रास्ते में ठंडक का ठीकठाक अहसास हो रहा था। घाटी के उस पार पीछे की ओर
पहाड़ी पर भुवनेश्वरी मंदिर, दूसरी ओर उस पार
पहाड़ी की चोटी पर कोई दूसरा मंदिर, सामने देवली इंटर
कॉलेज और वहाँ तक का पैदल मार्ग, सब यहाँ से दिखते
हैं।
इस एकांतिक मार्ग की नीरवता के
बीच झींगुरों की अलमस्त तान को पूरे श्बाब पर सुना जा सकता है। रास्ते में
नवनिर्मित हनुमान मंदिर पार करते ही हम झिलमिल गुफा के द्वार पर थे।
आज पहली बार यहां कुछ अलग ही नजारा दिख रहा था। दो अजनवियों ने द्वार
पर ही काफिले को रोक लिया और एक ओर बैठने का ईशारा किया। अंदर देखा तो धुनी के
चारों ओर यहाँ के प्रधान बाबाजी का साक्षात्कार चल रहा था। कोई हिंदी में बातकर
किसी विदेशी भाषा में दूसरों को सुना रहा था। वीडियो कैमरे से शूटिंग चल रही थी।
बाद में पता चला की स्पैन के नेशनल टीवी चैनल के लिए एक डॉक्यूमेंट्र्री शूट हो
रही है।
गजब का संयोग रहा कि कुछ ही देर में हम भी टीम सहित साक्षात्कार का
हिस्सा बन जाते हैं। यहाँ के बाबाजी हमारे परिचित हैं, जब भी आते हैं, तो उनसे
चाय पर कुछ चर्चा जरुरत होती है। बाबाजी भी मस्त मौला औघड़ इंसान हैं। बाबाजी के स्नेहिल निमंत्रण पर
हम टीम सहित चर्चा में शामिल हो गए। उनके कार्यक्रम को गायत्री महामंत्र एवं
महामृत्यंजय मंत्र के साथ आगे बढ़ाकर पूर्णाहुति की ओर ले गए। इस रुप में लगा कि
बाबा का आज का बुलावा अनायास ही नहीं था। हमारे हिस्से में तीर्थाटन के साथ मीडिया
के कुछ नायाब अनुभव भी झोली में बटोरने का इंतजाम हो रखा था। जीवन में दैवीय
संयोगों की सृष्टि और यात्रा के दौरान तमाम घटनाओं की परफेक्ट टाइमिंग, सब
कहाँ से कैसे निर्धारित होती हैं, इन प्रश्नों का गहराई से अहसास हो रहा था।
बापसी का सफर - इसके बाद हम गुफा में गुरु गोरखनाथजी के दर्शन
कर बापस आ गए। अंधेरा शुरु हो चुका था। गंगा दर्शन ढावे पर गर्मागर्म प्लाऊ तैयार
था। भोजन-प्रसाद ग्रहण कर, यहाँ ये आठ साल पहले के पैदल रोमाँचक सफर को याद
करते हुए हम बापस अपने वाहन तक पहुँचे और ढलती शाम के साथ ऋषिकेश होते हुए
देसंविवि परिसर पहुँचे।
रास्ते में
गंगाजी पुल पार करते सघन अंधेरा छा चुका था, रास्ते में घुप अंधेरे के बीच तपोवन
लक्ष्मणझूला शहर की टिमटिमाती रोशनी सफर में एक नया आयाम जोड़ रही थी।
आठ साल ठीक इसी दिन अमावस्य के दिन सम्पन्न यात्रा कई मायनों में
विलक्ष्ण रही, और इस
धाम की विल्क्षण लीला का गहरा अहसास करा रही थी।
आठ साल पूर्व के कंपा देने वाले अनुभव – आज के ठीक आठ वर्ष पूर्व इसी ग्रुप के सदस्यों के साथ हम गंगादर्शन
ढावे से नीचे बैराज तक बापसी की पैदल यात्रा किए थे। रास्ते की दुश्वारियों से
बेखवर, काफिला लगभग 4-5 बजे के बीच नीचे उतरा था। रास्ते
में ही साढ़े छः बजे तक अंधेरा हो चुका था। पिछले बरसाती मौसम की मार स्पष्ट थी,
जिसके चलते पैदल रास्ता बह चुका था।
सो हम नाले के साथ नीचे उतर रहे थे। टीम के कुछ सदस्य पहाड़ी रास्ते में उतरने के
अनुभवी न होने के कारण बीच-बीच में कद्दु की तरह पानी व पत्थरों पर गिरने की उक्ति
चरितार्थ कर रहे थे। अंधेरे में मोबाईल और कैमरे की बैट्रियाँ एक-एक कर जबाव दे
रही थी। रास्ते में हाथियों की चिंघाड़ तो कहीं पक्षियों की विचित्र आबाजें और
कहीं खुंखार जानवरों की भयावह दहाड़, सब मिलकर हम सबका
दिल दहला रही थीं।
अनहोनी की आशंका से दिल काँप रहा था। उस पर
रास्ता खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था। इस तरह लगभग दो घंटे की भटकन के बाद
हम जंगल से बाहर निकले थे। आज रोंगटे खड़ा करने वाले सफर के अनुभव सफर की आठवीं
वर्षगाँट में पुनः ताजा हो गए थे व रास्ते में चर्चा का विषय बने रहे।