गुरुवार, 18 अक्टूबर 2018

यात्रा वृतांत - जब आया बुलावा बाबा नीलकंठ महादेव का, भाग-1


नीलकंठ महादेव ऋषिकेश-पौढ़ी गढ़वाल क्षेत्र का एक सुप्रसिद्ध तीर्थ स्थल है, जो अपनी पौराणिक मान्यता, प्राकृतिक मनोरमता और धार्मिक महत्व के कारण पर्यटकों, खोजी यात्रियों, श्रद्धालुओं एवं प्रकृति प्रेमियों के बीच खासा लोकप्रिय है। 2003 में देसंविवि बायो-इंफोर्मेटिक्स ग्रुप के साथ सम्पन्न पहली यात्रा के बाद यहाँ की पिछले पंद्रह वर्षों में विद्यार्थियों, मित्रों व परिवारजनों के साथ दर्जन से अधिक आवृतियाँ पूरी हो चुकी हैं। हर बार एक नया रोमाँच, नयी ताजगी, नयी चुनौतियाँ, नए सबक व कृपावर्षण से भरे अनुभव जुड़ते जाते हैं।

आज फिर यात्रा का संयोग बन रहा था, कहीं कोई योजना नहीं थी। जिस तरह कुछ मिनटों में इसकी रुपरेखा बनीं, लगा जैसे बाबा का बुलावा आ गया। रास्ते में पता चला कि आज के ही अमावस्य के दिन ठीक 8 वर्ष पूर्व एमजेएमसी बैच 2010-12 के साथ यहाँ की यात्रा सम्पन्न हुई थी। आज पूरी टीम को शामिल न कर पाने का मलाल अवश्य रहा, लेकिन इसकी भरपाई किसी उचित अवसर पर पूरा करेंगे, इस सोच के साथ हल्के मन के साथ यात्रा पर आगे बढ़े। इस बार की यात्रा इस मायने में नयी थी कि हम पहली वार इस ट्रेक पर हरिद्वार चंड़ीपुल से होकर चीलारेंज से प्रवेश कर रहे थे, जो प्राकृतिक सौंदर्य से जड़ा हुआ एक बहुत ही सुंदर, एकांतिक एवं रोमाँचक मार्ग है। गंग नहर और राजाजी टाईगर रिजर्व से होकर घने जंगलों से गुजरता जिसका रास्ता स्वयं में बेजोड़ है।

चीला रेंज से होकर सफर – चंड़ी चौक से होकर बना चंड़ी पुल क्षेत्र का सबसे लम्बा पुल है, जहाँ से गंगाजी का विहंगम दृश्य देखने लायक रहता है। कुंभ के दौरान इसके दोनों ओर बसे बैरागी द्वीप में तंबुओं की कतार देखने लायक रहती है। इसके वाईं ओर दिव्य प्रेम सेवा मिशन का कुष्ठ आश्रम पड़ता है, जो सेवा साधना की एक अनुपम मिसाल है। 
पुल से आगे की सड़क नजीबावाद, हल्दवानी-पंतनगर, अल्मोड़ा-नैनीताल की ओर जाती है अर्थात, यह कुमाऊँ क्षेत्र में प्रवेश का द्वार है। यहाँ से बाईं ओर मुड़ते ही कुछ दूरी पर गंगाजी एवं नीलपर्वत के बीच ऐतिहासिक सिद्धपीठ दक्षिणकाली मंदिर आता है, जिसकी स्थापना बाबा कामराजजी द्वारा लगभग 800 वर्ष पूर्व की गयी थी, यह सदियों से तंत्र साधना का प्रमुख केंद्र रहा है।
यहीं से दायीं ओर पहाड़ी पर स्थापित चंड़ीदेवी माता का मंदिर है, जो लगभग 1.5 किमी ट्रेकिंग का सफर है। मान्यता है कि आदि शंकराचार्य ने आठवीं शताब्दी मेंं इसकी स्थापना की थी। पहाड़ी पर उड़नखटोला से भी पहुँचने की भी उम्दा व्यवस्था है।

रास्ता आगे घने जंगल में प्रवेश करता है, यह राजाजी टाइगर रिजर्व का क्षेत्र आता है। हरे-भरे आच्छादन के बीच बलखाती मोड़दार सड़कें इसकी विशेषता हैं। रास्ते में हरिद्वार बैराज से आता मार्ग पड़ता है, जो सिर्फ सरकारी व छोटे वाहनों के लिए खुला होता है। यहां से आगे रास्ते में नांले पड़ते हैं, जो इस मौसम में कलकल बह रही जलराशि से गुलजार थे।
प्रायः इस राह में हिरनों के झुंड़ मिलते हैं, मोर के दर्शन भी सहज ही होते हैं, जो आज संयोगवश नहीं हो पाए। कुछ ही देर में राजाजी नेशनल पार्क का गेट आता है। ऑफ सीजन होने के कारण आज यहाँ माहौल शांत था।
यहाँ सीजन में सफारी जीपें और पालतु हाथियों के झुंड रहते हैं। रिजर्व के जंगल में जीप सफारी का लगभग 33 किमी सफर बेहद रोमाँचक रहता है, जब घने जंगल से होते हुए उतार-चढ़ाव भरे नदी-नालों व घाटियों के बीच चीतल, साँभर, हाथी, मोर, यहाँ तक कि बाघ जैसे जंगली जानवरों तथा पक्षियों को नजदीक से देखने का मौका मिलता है।
कुछ ही मिनटों में हम चीलारेंज के बिजली घर से होकर गुजर रहे थे। सुरक्षाकारणों से यहाँ फोटोग्राफी मना है। यहाँ बिजलीघर से गिरती वृहद जलराशि और नहर के रास्ते इसका निकास, सब दर्शनीय रहता है। इसको नीलधारा कहते हैं, जो आगे घाट नम्बर 10 के पास सप्तसरोवर की ओर से आ रही गंगा की धारा में मिलती है, जहाँ गंगाजी हरिद्वार क्षेत्र में अपने शुद्धतम रुप में प्रकट होती हैं।

इस बिजली घर से आगे का नजारा नहर के किनारे बढ़ता है, जो स्वयं में एक मनभावन सफर रहता है। नहर के किनारे हरे-भरे वृक्ष, इनकी पृष्ठभूमि में घने जंगल, वायीं ओर गंगाजी की जलधार और उस पार घाटी का नजारा तथा शिवालिक पर्वत श्रृंखलाएं – सब मिलकर सफर का खुशनुमा अहसास दिलाते रहते हैं।
आगे रास्ते में गंगाभोगपुर तल्ला गाँव पड़ता है, बीच में खेत और लगभग वृताकार में इनको घेरे घर, एक अद्भुत नजारा पेश करते हैं। यहाँ दिव्य प्रेम सेवा मिशन द्वारा संचालित कुष्ठ आश्रम के व स्थानीय बच्चों की शिक्षा की उत्तम व्यवस्था है। गांव को एक आदर्श गाँव का रुप देने के प्रयास यहाँ देखे जा सकते हैं।

आगे पुल पारकर दायीं ओर गंगाभोगपुर मल्ला से रास्ता गुजरता है। यहाँ से सीधा रास्ता बिंध्यवासनी मंदिक तक बाहन से होकर जाता है, लेकिन आगे नीलकंठ के लिए यहाँ से पैदल ही चलना पड़ता है। लेकिन हमारा सफर पूरी तरह से जीप सफारी का था, सो हम नहर के वांएं किनारे ऋषिकेश बैराज तक नहर के किनारे आगे बढ़ते रहे। बीच में बरसाती नाला पड़ता है, जिसे हम कई वर्षों से बरसात में यातायात को ध्वस्त करते देख रहे हैं, अभी पुल नहीं बन पाया है। आज भी हम इसी के बीच बनी कच्ची सड़क से बहते पानी के बीच सड़क पार किए।
थोड़ी देर में ऋषिकेश बैराज आती है, जहाँ गंगाजल का एक हिस्सा नहर से होकर चीलारेंज की ओर बहता है तो शेष हिस्सा गंगाजी की मुख्यधारा से होकर वीरभद्र, रायावाला से होकर सप्तसरोवर के आगे घाट नम्बर10 पर नीलधारा में मिलता है। यहाँ तक नहर के किनारे का सफर सचमुच में बहुत ही अद्भुत रहता है, यथासंभव इसके मनोरम दृश्य को अपने मोबाईल में कैप्चर करते रहे।

बैराज के थोड़ी दूरी पर दाईं ओर का सीधा पगड़ंडी वाला मार्ग पहाड़ी की रीढ़ पर बसे गंगादर्शन ढावा तक जाता है, लेकिन घने जंगल, खुंखार जानवरों व बरसात में ध्वस्थ पगडंडियों के चलते यह पर्यटकों के लिए बंद रहता है। क्षेत्रीय लोग हालांकि अपने रिस्क पर अपने अनुभव के आधार पर इस मार्ग से आवागमन करते रहते हैं। 
आज से ठीक आठ वर्ष पूर्व हम अमावस्य की घुप अंधेरी रात में पूरे काफिले के साथ इसी मार्ग में लगभग दो-अढाई घंटे भटकते हुए बाहर निकले थे, जिसका वर्णन अगली पोस्ट के अंत में करेंगे।

यहाँ से आगे की सड़क घने जंगल से होकर गुजरती है। रास्ते भर कहीं नाले, तो कहीं झरने हमारा स्वागत करते रहे। हरा-भरा घना जंगल हमारी राह का सहचर रहा। वन गुर्जरों की वीरान बस्ती के दर्शन भी राह में हुए, जिनका जीवन दूर से देखने पर बहुत रोचक लगता है।
रास्ते में रामझूला से नीलकंठ के पैदल मार्ग के दर्शन हुए। लंगूरों के झुंड यहाँ इकट्ठा थे। ये शांत एवं सज्जन जंगली जीव यात्रियों के हाथों से चन्ना खाने के अभ्यस्थ हैं। ये झुंडों में रहते हैं, इनसे यदि भय न खाया जाए, तो इनकी संगत का भरपूर आनन्द उठाया जा सकता है।

लक्ष्मण झूला का नजारा – यहाँ से पार करते ही कुछ मिनटों में हम ऐसे बिंदु पर पहुँचे, जहाँ से रामझूला तो पीछे छुट चुका था लेकिन लक्ष्मण झूले का नजारा प्रत्यक्ष था। यह क्षेत्र आजकल योग एवं अध्यात्म केपिटल के रुप में प्रख्यात है, जहाँ विदेशी पर्याप्त संख्या में शांति की खोज में भारतीय अध्यात्म, चिकित्सा एवं योग का अपनाते देखे जा सकते हैं।
लक्ष्मण झुले के ईर्द-गिर्द पूरा शहर बसा है, एक के ऊपर, दूसरे कई मंजिलों ऊँचे भवनों का नजारा हतप्रत करता है, लगता है जैसे कंकरीट का जंगल खड़ा हो चुका है। इन भवनों के जमघट के बीच बढ़ती जनसंख्या का दबाव, मानवीय लोभ, बेतरतीव पर्यटन और प्रकृति के साथ खिलवाड़ की विसंगतियाँ प्रत्यक्ष दिखती हैं।
पृष्ठभूमि में कुंजा देवी की चोटी, पहाड़ों से होकर जा रही सड़कें हमें नीरझरना-कुंजापूरी के सफर की याद दिला रही थी। कुछ यादगार स्नैप्स के साथ सफर आगे बढ़ता है।

गंगा किनारे सफर का रोमाँच – लक्ष्मण झूला को पार कर हम गंगाजी के किनारे आगे बढ़ रहे थे। रास्ते में बानर सेना के दर्शन बीच-बीच में होते रहे। लगा कि यात्रियों के द्वारा दया एवं कौतुकवश इनको दिए जा रहे चारे के कारण इनकी आदतें कितना बिगड़ चुकी हैं। दिन भर जंगलों में उछल-कूद व भोजन की खोज  की बजाए, अब ये सड़क के किनारे ठलुआ बैठकर, भिखारी की तरह भोजन के इंतजार में रहते हैं।
रास्ते में दायीँ ओर की पहाडियों से आ रहे नालों व झरनों में पानी की प्रचुरता एक सुखद एहसास दिला रही थी, लगा इस वर्ष सितम्बर माह में लगातार हुई बारिश यहाँ भी फलित हुई है। क्षेत्र के जलस्रोत पूरी तरह से रिचार्ज हो चुके हैं। वायीं ओर गंगाजी की ओर दनदनाते हुए वह रहे पहाड़ी नाले रास्ते भर इसकी झलक दिखा रहे थे।

हेंवल नदी के किनारे – रास्ते में गंगाजी से हटते ही गढ़वाल हिमालय से आने वाली हेंवल नदी भी कुछ ऐसा ही संदेश दे रही थी। आज इसमें भी भरपूर जलराशि दिख रही थी। इसके नीलवर्णी जल में लोग पूरी मोजमस्ती करते दिखे। इसकी पानी इतना साफ था कि इसके तल के दर्शन तक स्पष्टतयः हो रहे थे। इसके किनारे बसे गाँव व कैंपिक साइट्स के दृश्य बहुत संदुर दिखते हैं, मन कर रहा था कि कभी फुर्सत में यहाँ की शांत वादियों में कुछ दिन विता सकते हैं, खासकर नदी के उस पार के जंगल में एक गुफा तलाशकर।

मौनी बाबा, मायादेवी के चरणों में – अब रास्ता पहाड़ियों की चढ़ाईयों को पार कर रहा था, सड़क के किनारे बनी चट्टियां चाय-नाश्ता के लिए यात्रियों का इंतजार व स्वागत कर रही थी। हम कुछ ही मिनटों में पहाडियों के चरणों में थे, जिसके शिखर पर मंदिर की पताका लहरा रही थी। पता चला कि ये महामाया का मंदिर है, जहाँ तक चढ़ने के लिए कई सौ सुंदर सीढ़ियाँ की सड़क बनीं हैं। 
इसी के पास सड़क के किनारे मौनी बाबा की कुटिया का बोर्ड मिला। यहाँ तो हम नहीं जा पाए, लेकिन रामझूला से नीलकंठ पैदल मार्ग पर चट्टान की गोद में बसे मौनी बाबा के आश्रम की याद बरबस ताजा हो गयी, जहाँ कभी तीर्थयात्रियों के लिए चाबल-कड़ी का भंडारा चौबीस घंटे चलता रहता था।
अब हम नीलकंठ क्षेत्र में प्रवेश कर चुके थे। नीलकंठ महादेव महज 5 किमी दूर थे। उस पार पहाड़ों की गोद में बसे गाँव, सीढ़ीदार खेतों में पक रही धान की फसल सफर के आनन्द में एक नया रोमाँच घोल रही थी।  
यात्रा वृतांत का अगला भाग आप इसके खण्ड-2, पर्वत की गोद में बाबा का कृपा प्रसाद में पढ़ सकते हैं। 

रविवार, 30 सितंबर 2018

मेरा गाँव, मेरा देश - मौसम का बदलता मिजाज और बारिश का कहर

प्रकृति के रौद्र रुप में निहित दैवीय वरदान


वर्ष 2018 की वरसात कई मायनों में यादगार रहेगी, अधिकाँशतः प्रकृति के लोमहर्षक कोप के लिए। अगस्त माह में भगवान के अपने घर – केरल में बारिश का करह, 80 बाँधों से एक साथ छोड़ा जा रहा पानी, जलमग्न होते लोकजीवन की विप्लवी त्रास्दी। सितम्बर माह के तीसरे सप्ताह में देवभूमि कुल्लू में तीन दिन की बारिश में प्रकृति प्रकोप का एक दूसरा विप्लवी मंजर दिखा, जिसने ऐसी तबाही की 25 साल पुरानी यादें ताजा कर दी।

     इन सब घटनाओं के पीछे कारणों की पड़ताल, इनमें मानवीय संवेदना के पहलु, यथासम्भव मदद और आगे के सबक व साबधानियां अपनी जगह हैं, लेकिन चर्चा प्रायः इनके नकारात्मक, ध्वंसात्मक पहलुओं की ही अधिक होती है। मीडिया हाईप को इममें पूरी तरह से सक्रिय देखे जा सकता है, जो इसका स्वभाव सा बन गया है। सोशल मीडिया पर अधिक हिट्स, तो टीवी में टीआरपी की दौड़। हालाँकि अखबारों में ऐसी संभावनाएं कम रहती हैं, लेकिन इनकी हेडिंग्ज में भी तबाही का ही मंजर अधिक दिखता रहा, पीछे निहित दैवीय वरदानों पर ध्यान नाममात्र का ही रहा।


     कुल्लू घाटी में 3 तीन तक बरसे लगातार पानी से क्षेत्र के नालों में पानी भर गया था, ऐसे में नदियों का फूलना स्वाभाविक था। इस पर बादल फटने की घटनाओं ने स्थिति को ओर विकराल स्वरुप दिया। मनाली, सोलांग घाटी के आगे धुंधी में बादल फटने की घटना घटी, तो दूसरी कुल्लू मनाली के बीच कटराईं के पास फोजल-ढोबी इलाके में, जिस कारण सामान्यतः शांत रहने वाली व्यास नदी ने रौद्ररुप धारण किया। रास्ते में जो भी इसकी चपेट में आता गया, सब इसकी गोद में समाता गया।

     मनाली के समीप प्राइवेट बस स्टैंड़ से वोल्बो बस के डूबने का लोमहर्षक दृश्य इस भयावह त्रास्दी का प्रतीक बना। इसके साथ नदी की धारा में बहता ट्रक ऐसी ही दूसरी घटना रही। रास्ते में कई पुल बहे, कई जगहों से सड़कें ध्वस्त हो गयी। कुल्लू से मानाली के बीच शुरुआती दौर में यातायात ठप्प रहा। कुल्लू-मनाली के बीचों-बीच राइट और लेफ्ट बैंक को जोड़ने वाले पतलीकुलह-नगर पुल का एक हिस्सा बुरी तरह से ध्वस्त हो गया। फिर ढोबी का पुल बड़े बाहनों के लायक नहीं रहा। लुग्ड़ी भट्टी-छरुहड़ू के बीच का लेफ्ट बैंक रुट का बड़ा हिस्सा पूरी तरह से गायब हो गया। इस कारण लेफ्ट बैंक से किसी तरह की यातायात की संभावनाएं सप्ताह भर बंद रहीं। हालांकि अब यह रुट कामचलाऊ रुप में शुरु हो चुका है।
इस बीच छोटे बाहनों के सहारे सेऊबाग पुल और रायसन पुल यातायात के लिए लाईफलाइन की तरह काम करते रहे। लेकिन अत्यधिक भीड़ के कारण ट्रैफिक जाम और हल्के पुलों पर अत्यधिक भार के चलते इनकी भी सीमाएं स्पष्ट होती गयी। फिर सेऊबाग पुल भी आधा क्षतिग्रस्त अवस्था में रहा। इस बीच रास्ते में कई जगहों से टुटे लिंक रोड़ के कारण जनजीवन अस्त-व्यस्त रहा।
इसी बीच कुल्लू-मनाली में जब बारिश हो रही थी, यहाँ की ऊँचाईयों में व कुल्लू-मनाली के आगे रोहतांग दर्रे के उस पार लाहौल-स्पीति क्षेत्र में बर्फवारी हो रही थी। इस बेमौसमी बर्फवारी के कारण यहाँ की दुश्वारियाँ अलग रुप लेती हैं। लेट सीजन में यहाँ तैयार होने वाली सेब की फसल को इससे भारी नुकसान पहुँचा। सेब के फलदार वृक्षों पर बर्फ लदने के कारण पेड टूटने लगे। इस बेमौसमी बर्फवारी ने मौसम परिवर्तन की वैश्विक स्थिति व इसके दुष्परिणामों को स्पष्ट किया।
कूपित प्रकृति के इन दुष्प्रभावों व नुकसान के असर, इनके कारण, संभव निराकण आदि पर भी चर्चा होती रही। कई लोग नुकसान को लेकर ही चिल्लाते रहे, मीडिया इसे हाईप देता रहा। कभी न भरने वाले जख्म दे गयी यह बरसात, जैसी हेडिंग्ज के साथ अखबार एक तरफा व्यान देते रहे। टीवी एवं सोशल मीडिया पर इसके एक तरफा हालात व्याँ करते वीडियोज व पोस्ट को देखा जा सकता है।
लेकिन इन सबके बीच प्रकृति के रौद्र रुप के पीछे निहित दैवीय वरदानों का जिक्र न के बरावर दिखा। पीड़ित लोगों के कष्ट एवं व्यथा के साथ पूरी संवेदना व्यक्त करते हुए, प्रकृति के इन वरदानों का जिक्र भी जरुरी हो जाता है, जिससे अनावश्यक पैनिक पैदा करने की जगह स्थिति की सम्यक समझ विकसित हो सके।
जो सबसे बड़ा वरदान इस बारिश का रहा, वह था पानी के सूखते प्राकृतिक जल-स्रोतों का रिचार्ज होना। गाँव की ही बात करें, तो पिछले कई वर्षों से गाँव के नाले को देखकर चिंतित था। साल भर जो नाला कभी निर्बाध रुप में नदी तक बहता था, वह पिछले कई सालों से इस दौरान सूखा दिखता। इस बार बारिश के बाद दनदनाते हुए नदी तक बह रहे नाले को देखकर सुखद आश्चर्य़ हुआ। वहीं इस पर बना झरना, जिसको देख पिछले कई सालों से मायूसी छाई थी, अपने पूरे श्बाब पर झरता दिखा।
समझ में आया कि जितने जल की मात्रा को हम लाखों पेड़ लगाकर तैयार कर पाते, उससे कई गुणा अधिक जल यह बरसात वरदान के रुप में कुछ दिनों में दे गई। सूखते जलस्रोतों का रिचार्ज होना एक कितना बड़ा उपहार है, इसको पानी पीने से लेकेर सिंचाई के लिए तरस रहे आम इंसान व किसान भली-भांति समझ सकते हैं। फिर करोड़ों-अरबों की बन संपदा को ऐसी बारिश जो प्राण सींचन करती है, उसका अपना महत्व है।
इस बीच प्रकृति का अदृश्य न्याय देखने लायक रहा। इस दौरान आधा जल बर्फ के रुप में पहाड़ों में जमता गया और आधा बारिश के रुप में। यदि सारा जल बारिश के रुप में बरसता तो शायद तबाही का मंजर और अधिक भयावह होती। दूसरा जमी बर्फ के कारण सिकुड़ते ग्लेशियर पुनः रिचार्ज हुए। इनसे निकलने वाली हिमनदियों का जल अब साल भर निर्बाध रुप में बहता रहेगा, यह एक दूरा वरदान रहा।
इस तरह इस प्राकृति त्रास्दी में हुए नुक्सान के साथ प्रकृति के इन उपहारों को भी समझने की जरुरत है। इन दूरगामी फायदों की समझ तात्कालिक हानि के गम पर मलहम का काम करती है। साथ ही प्राकृतिक त्रास्दियों के मानव निर्मित कारणों को समझने, पकड़ने व इनके निराकरण के प्रयास जरुरी हैं। प्रकृति का रौद्र रुप हमारी जिन इंसानी वेबकूफियों को उजागर करता है, उनसे सबक लेने की जरुरत है। 
प्रकृति मूलतः ईश्वरीय विधान से चलती है, उसके अनुशासन को समझने व पालने की जरुरत है, ताकि हम इससे सामंजस्य बिठाकर रह सकें व इसके कोप-दंड़ की वजाए इसके वरदानों के सुपात्र अधिकारी बन सकें।

गुरुवार, 20 सितंबर 2018

वेदमूर्ति तपोनिष्ठ युगऋषि पं. श्रीरामशर्मा आचार्य

युग के विश्वामित्र, जिसने दिया 21वीं सदी उज्जवल भविष्य का नारा
20 सितम्बर, 1911 को आंवलखेड़ा, आगरा में जन्में पं. श्रीराम शर्मा आचार्य भारतीय आध्यात्मिक-सांस्कृतिक परम्परा के एक ऐसे प्रकाश स्तम्भ एवं दिव्य विभूति हैं, जिनका जीवन, दर्शन एवं कर्तृत्व समाज-राष्ट्र ही नहीं पूरी विश्व-मानवता के लिए वरदान से कम नहीं है। 80 वर्षों के जीवन काल में आचार्यश्री 800 वर्षों का काम कर गए, जिनका मूल्याँकन अभी पूरी तरह से नहीं हो पाया है।
पेश है विहंगावलोकन करते कुछ बिंदु जिनके प्रकाश में आचार्यजी के जीवन व कर्तृत्व की एक झलक पायी जा सकती है -
  •  आदर्श शिष्य, गुरु की आज्ञा के अनुसार, जीवन के हर क्रियाक्लाप का निर्धारण। गायत्री महापुरश्चरण से लेकर हिमालय यात्रा, गृहस्थ जीवन, साहित्य सृजन व वृहद संगठन युग निर्माण आंदोलन, अखिल विश्व गायत्री परिवार का निर्माण।
  •  नैष्ठिक साधक, तप के प्रतिमान, 15 वर्ष की आयु में गुरु के आदेश पर 24 वर्ष तक24 लाख के गायत्री महापुरश्चरण की कठोर तप-साधना। मात्र जौ की रोटी और छाछ पर निर्वाह। जीवन पर्यन्त तप में लीन। विनोवाजी से तपोनिष्ठ नाम मिला।
  •  जूझारु स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, पुरश्चरण अनुष्ठान के बीच भी तीन वर्ष स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भागीदारी। श्रीराममत के रुप में क्राँतिकारी रचनाओं का सृजन व राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम में एक जुझारु कार्यकर्ता के रुप में अभूतपूर्व जीवट का परिचय।
  • पत्रकारिता को दिया नया आयाम, सैनिक अखबार में पत्रकार की भूमिका में प्राथमिक प्रशिक्षण। बाद में अखण्ड ज्योति पत्रिका के रुप में आध्यात्मिक पत्रकारिता का शुभारम्भ, जो आज भी जनमानस को आलोकित कर रही है। इसके साथ महिला जागृति अभियान, प्रज्ञा पाक्षिक जैसी पत्रिकाओं का प्रकाशन।
  • गायत्री के सिद्ध साधक, 24 लाख के 24 महापुरुश्चरण के साथ गायत्री के सिद्ध साधक का प्रादुर्भाव। गायत्री साधना से जुड़ी फलश्रृतियों के जीवंत प्रतिमान।गायत्री महाविज्ञान जैसे विश्वकोषीय ग्रंथ की रचना,गायत्री परिवार की स्थापना। गायत्री जयंती के दिन ही महाप्रयाण (2जून, 1990)।
  • गृहस्थ में अध्यात्म, ऐसे विरल संत, जिन्होंने ने केवल एक सद्गृहस्थ के रुप में अध्यात्म को जीवन में धारण किया, लोगों को गृहस्थ तपोवन की राह दिखी और इस विषय पर तमाम साहित्य का सृजन किया। गृहस्थ आश्रम को इसकी सनातन गरिमा में प्रतिष्ठित करने का अभूतपूर्व योगदान।
  • सादा जीवन, उच्च विचार, की प्रतिमूर्ति रहे। सामान्य चप्पल पहनकर, खादी का कुर्ता, सामान्य भोजन, रिक्शा में बाजार की यात्रा, ट्रेन की सामान्य श्रेणी में सफर। न्यूनतम संसाधनों के साथ निर्वाह। सादा जीवन, उच्च विचार की जीवंत प्रतिमूर्ति।
  • ज्ञानपिपासु, लेखक, नियमित रुप से स्वाध्याय और लेखन का क्रम। आश्चर्य नहीं कि जीवन काल में 3200 के लगभग पुस्तकों का सृजन। जीवन का शायद ही कोई क्षेत्र हो, जिस पर न लिखा हो। समस्त साहित्य का निचोड़ अंतिम वर्षों में क्राँतिधर्मी साहित्य के रुप में।
  • वैज्ञानिक प्रयोगधर्मी, जीवन एक वैज्ञानिक प्रयोगशाला के रुप में, निष्कर्ष आत्म कथा, मेरी वसीयत और विरासत में। नियमित अखण्ड ज्योति के पन्नों पर शेयर करते रहे। अध्यात्म के वैज्ञानिक पक्ष की शोध हेतु ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान की स्थापना।
  • प्रखर वक्ता, आज भी जिनके स्वर सुधि श्रोताओं को झकझोरते हैं, आत्म कल्याण के पथ पर अग्रसर करते करते हैं और जीवन निर्माण और लोक कल्याण के राजमार्ग पर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं।
  • संगठनकर्ता, नित्य परिजनों से मिलन, श्रेष्ठ विचारों व क्रियाक्लापों को आगे बढ़ाने का मार्गदर्शन। करोड़ों लोगों का गायत्री परिवार खड़ा, जो देश भर के 4000 से अधिक शक्तिपीठों में व बाहर 80 देशों में फैला है। गायत्री-यज्ञ प्रचार के साथ सप्तक्राँति आंदोलनों के माध्यम से सामाजिक क्षेत्र में सक्रिय।
  • समाज सुधाकर, परम्परा की तुलना में विवेक को महत्व देंगे, आचार्यश्री का प्रेरक वाक्य रहा। युगों से शापित-कीलित गायत्री साधना को सर्वसुलभ बनाया। स्त्रियों को वेदमंत्रों के उच्चारण व यज्ञ का अधिकार दिया। समाज में जड़ जमाए बैठी कुरीतियों पर प्रहार किया। जाति, लिंग, भाषा, प्रांत, धर्म आदि पर आधारित भेदभाद को तिरोहित किया।
  • समर्थ गुरु, वेदमूर्ति के रुप में ज्ञान के पर्याय, गायत्री के सिद्ध साधक के रुप में एक समर्थ गुरु की भूमिका में लाखों-करोड़ों लोगों को आध्यात्मिक पथ पर प्रेरित व अग्रसर किया। 1953 में गायत्री महापुरश्चरण की पूर्णाहुति के साथ तपोभूमि मथुरा में गायत्री मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा व गुरु दीक्षा का क्रम शुरु।
  •  जीवंत आचार्य, लोगों को खाली प्रवचन व उपदेशों के माध्यम से शिक्षण नहीं दिया, बल्कि आचरण में उताकर, जीकर उदाहरण पेश किया। एक जीवंत आचार्य के रुप में जीवन को एक खुली किताब की भांति जीया। आत्मसुधार संसार की सबसे बड़ी सेवा का मंत्र दिया।
  • करुणा से भरा प्रेमी ह्दय, जो भी उनसे मिला, उनका होकर रह गया। उनके एक आवाह्न पर परिजन सबकुछ छोड़कर इनकी वृहद योजना का हिस्सा बनते गए। आचार्यश्री का ह्दय प्यार व करुणा से इस कदर भरा रहा कि जिस सिरफिरे ने सांघातिक हमला किया, उसे भी बचने का अवसर दिया।
  • युग विचारक, दार्शनिक के रुप में, गायत्री व यज्ञ को क्रमशः सद्बुद्धि और सत्कर्म के रुप में स्थापित किया। व्यक्ति व समाज के उत्कर्ष के लिए क्रमशः वैज्ञानिक अध्यात्म व आध्यात्मिक समाजवाद का प्रतिपादन किया। व्यक्ति से परिवार-समाज  व युग निर्माण के सुत्र दिए। बौद्धिक, नैतिक व सामाजिक क्राँति का दर्शन दिया।
  • युगद्रष्टा, भविष्यद्रष्टा, 20वीं सदी के विषम पलों में जब मानवता निराशा से भरी थी, 21वीं सदी उज्जवल भविष्य का नारा दिया। और उसे कैसे चरितार्थ किया जाए, इसकी पूरी रुपरेखा शतसुत्रीय कार्यक्रम व युग निर्माण सत्संकल्प के रुप में प्रस्तुत की।
  • सच्चे संत, आचार्यश्री ने साधु वाला चोला नहीं पहना, एक सामान्य गृहस्थ की तरह रहे। लेकिन वे अपने गुण, कर्म और स्वभाव में सच्चे संत थे, जिनके जीवन के मूलमंत्र रहे – मातृवत् परदारेषु, परद्रवलोष्टवत् और आत्मवत् सर्वभूतेषु।
  • वैदिक ऋषि,सारे वैदिक ऋषि जैसे आचार्यश्री में एकाकार हो गए थे। तमाम ऋषि परम्पराओं की स्थापना व पुनर्जागरण किया और भारतीय संस्कृति को नयी संजीवनी दी। इसके विश्व संस्कृति स्वरुप से परिचित करवाया। देवसंस्कृति विश्वविद्यालय उन्हीं के दिव्य स्वप्न का मूर्त रुप है।
  • युगऋषि की भूमिका में, वैदिक ऋषि की परम्परा में आध्यात्मिक-सांस्कृतिक विरासत को सर्वसुलभ बनाया, वहीं इसके सामयिक संदर्भ में उपयोग की राह दिखायी, जो उन्हें युगऋषि की भूमिका में स्थापित करता है। उनका ऋषि चिंतन आज भी युग मनीषा को झकझोरता है, प्रेरित करता है।
  • हिमालय प्रेमी, हिमालय से विशेष लगाव था। तीन वार प्रत्यक्ष हिमालय यात्राएं की व एक वार सूक्ष्म शरीर से। जिनका दिग्दर्शन सुनसान के सहचर व आत्मकथा पुस्तक में बखूवी किया जा सकता है। शांतिकुंज में हिमालय मंदिर की स्थापना की।
  •  महायोगी की भूमिका में, युग के विश्वामित्र, आचार्यश्री ऋद्धि-सिद्धि सम्पन्न महायोगी थे। आत्म कल्याण के आगे वे लोक कल्याण, विश्व-कल्याण की भूमिका में सक्रिय थे। जो कार्य कभी विश्वामित्र ने किया था, कुछ बैसा ही कार्य आचार्य़श्री ने 1984-87 के दौरान सूक्ष्मीकरण साधना के माध्यम से किया।
  • एक आम इंसान, इतना सबकुछ होते हुए भी आचार्य़श्री किसी तरह के अहंकार, दर्प व दंभ से मुक्त थे। कोई पहली नजर में उन्हें एक आम इंसान की तरह पाता। सिद्ध महायोगी व इतने बड़े संगठन के संचालक होने के वावजूद सरलता, त्याग, ईमानदारी व विनम्रता की प्रतिमूर्ति रहे।
  • युग व्यास, आर्षबांड्मय का पुनरुद्धार। चारों वेद, षटदर्शन, स्मृतियाँ, पुराण आदि सबका नए सिरे से भाष्य-प्रतिपादन। प्रज्ञापुराण का सृजन। युगानुरुप नए साहित्य का सृजन।अकेले व्यक्ति द्वारा किया यह भगीरथी प्रयास आचार्य़श्री को युग व्यास की भूमिका में प्रतिष्ठित करता है।
  •  अवतारी सत्ता, महाकाल के अग्रदूत 80 साल में आचार्य़श्री जैसे 800 साल का काम कर गए। यह सब साधारण नहीं अतिमानवीय कार्य रहा। जिस प्रज्ञावतार की चर्चा आचार्य़श्री करते रहे, वे स्वयं उस चेतना के संवाहक थे, मूर्त रुप थे। हालाँकि उनकी विनम्रता रही, जो उन्होंने कभी खुद को अवतारी सत्ता घोषित नहीं किया। महाकाल के अग्रदूत के रुप में वे ईश्वरीय योजना को मूर्त रुप देने में सक्रिय रहे।

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प्रबुद्ध शिक्षक, जाग्रत आचार्य

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