गुरुवार, 31 मई 2018

यात्रा वृतांत – जब आया बुलावा बाबा तुंगनाथ का, भाग-2


अगस्त्यमुनि से तृतीय केदार तुंगनाथ का रोमाँचक सफर 



चोपता की ओर अगस्त्यमुनि से आगे रास्ते में सुदूर केदारनाथ साइड़ के हिमाच्छादित पर्वतों के दर्शन श्रद्धापूरित रोमाँच के भाव जगा रहे थे। रास्ते में ही पहाडों की गोद में विशेषकर ऊँचाईयों में बसे गाँवों व घर को देखकर हमेशा की तरह रोमाँच हो रहा था कि लोग इस ऊँचाई पर कैसे रहते होंगे, प्रकृति की नीरव गोद में यहाँ जीवन कितना शांत व निश्चिंत होता होगा। 
रास्ते में ही बारिश का अभिसिंचन शुरु हो चुका था। हम इसे प्रकृति के स्वागत का एक शुभ संकेत मान रहे थे। बस केदारनाथ की राह पर आगे बढ़ रही थी। बीच में रास्ता दाईं ओर ऊखीमठ की ओर मुड़ जाता है। 

पहाड़ों का असली सौंदर्य यहाँ से शुरु होता है। दूर हिमाच्छादित पर्वत श्रृंखलाएं लुका छुपी करती हुई सफर के आनन्द को बढा रही थीं। पहाड़ काटकर बनाए गए सीढ़ीनुमा खेत बहुत सुंदर लग रहे थे। इसमें उपजे शुद्ध आर्गेनिक अन्न, फल व सब्जियाँ कितने स्वादिष्ट व पौष्टिक होते होंगे, कल्पना कर रहे थे। लेकिन  इनमें खेती कितना श्रमसाध्य होती होगी, इसका भी अनुमान लगा रहे थे। 
रास्ते में कई छोटे गाँव, ढावे व कस्वों को पार करते हुए अब हमारा सफर घने जंगल में प्रवेश कर चुका था। हम बीच में ही उखीमठ को पार कर चुके थे। 
मालूम हो कि ऊखी मठ क्षेत्र का एक महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल है। लगभग 4300 फीट की ऊंचाई पर स्थित यह तीर्थ रुद्रप्रयाग से 41 किलोमीटर की दूरी पर है। सर्दियों के दौरान केदारनाथ और मध्यमहेश्वर से मूर्तियों (डोली) को उखीमठ रखा जाता है और छह माह तक उखीमठ में इनकी पूजा की जाती है। मान्यता है कि उषा (बाणासुर की बेटी) और अनिरुद्ध (भगवान कृष्ण के पौत्र) की शादी यहीं सम्पन की गयी थी। उषा के नाम से इस जगह का नाम उखीमठ पड़ा।
 अब हम उखीमठ से चोपता की ओर बढ़ रहे थे। रास्ते में लंगूरों के झुंड के दर्शन यहाँ के एकांतिक एवं सघन वन परिवेश का संदेश दे रहे थे। बाबा लोग पैदल ही यात्रा पर अलमस्त अंदाज में धीरे-धीरे बढ़ रहे थे। रास्ते में पग-पग पर जल स्रोत की प्रचुरता के दर्शन बहुत सुखद अनुभूति देते रहे, लेकिन कोई आश्चर्य नहीं हुआ, क्योंकि इतने सघन बनों नें जल के स्रोत्र फूटना स्वाभाविक है। 


सफर के साथ रास्ते में देवदार व बाँज के पेड़ हिमालयन ऊँचाइयों में प्रवेश का शीतल अहसास दिला रहे थे। लो, अब तो बढ़ती ऊँचाईयों के साथ मार्ग में लम्बी व मोटी हरि पत्तियों बाले बुराँश के पेड़ भी सड़क के दोनों ओर हमारा स्वागत कर रहे थे। ड्राइवर के साथ केविन में बैठे होने के कारण रास्ते के सौंदर्य का भरपूर आनन्द लेते रहे और मोबाइल में यथासम्भव हर सुंदर दृश्य को केप्चर करते रहे।
चोपता से ऊपरइस तरह हम अंततः चोपता पहुँच जाते हैं। मालूम हो कि इस क्षेत्र को उत्तराखण्ड का मिनी स्विटजरलैंड कहा जाता है। इस राह से गुजरा यात्री इस उपमा के अर्थ को भली भांति समझ सकता है। चोपता की राह में सड़क के किनारे कुछ समतल स्थलों पर तम्बू लगे मिले। पता चला कि यहाँ ट्रेकिंग करने वालों के लिए कैंप्स में ठहरने की व्यवस्था रहती है। यह भी मालूम हो कि चोपता ही उत्तराखण्ड का एकमात्र बुग्याल जड़ा क्षेत्र है, जहाँ मोटर मार्ग बीचों-बीच से होकर जाता है और यात्री गाडियों में बैठे-बैठे सफर का भरपूर लुत्फ उठाते हुए जंगल पार करते हैं।
चोपता में ठंड़ काफी बढ़ चुकी थी। स्वाटर, जैकेट व टोपी मफलर सब बाहर निकल चुके थे। पूरी तरह से मुस्तैद होकर काफिला चोपता में बस से उतरकर तृतीय केदार तुंगनाथ की ओर बढ़ चलता है। यहाँ से आगे लगभग 4 किमी ट्रैकिग करनी थी।
मंजिल की ओर काफिले में कई वैरायटी के यात्री थे। कुछ एक दम फिट व रफ टफ, तो कुछ औसतन व कुछ पहली बार पहाड़ में पधारे और वह भी 1000 फीट से अधिक ऊँचाई पर। सो अनुमान था कि सभी एक साथ आगे नहीं बढ़ पाएंगे व सभी तुंगनाथ पहुँच जाए, यह भी उम्मीद नहीं थी। अतः जो जहाँ तक हो आया, बहुत है, रास्ते में हिमालय के प्राकृतिक सौंदर्य़ व दिव्य स्पर्श की एक झलक तो मिल ही जाएगी, आखिर सारा क्षेत्र तो बाबा का ही है। इस भाव के साथ काफिला आगे बढ़ता है। 

तुंगनाथ का इतिहास - मालूम हो कि तुंगनाथ पंचकेदार में तीसरे नम्बर पर आता है और यह विश्व का सबसे अधिक ऊँचाई (12073 फीट) पर स्थित शिवलिंग है और ये केदारनाथ और बद्रीनाथ के ठीक बीच में स्थित है। यह मंदिर लगभग १,००० वर्ष पुराना माना जाता है। मान्यता है कि पाण्डवों द्वारा भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए बनाया गया था, जो कुरुक्षेत्र में हुए नरसंहार के कारण पाण्डवों से रुष्ट थे। मान्यता प्रसिद्ध है कि इस मंदिर में भगवान शिव की भुजा व ह्दयक्षेत्र की पूजा होती है। 


तुंगनाथ के बर्फानी दर्शन सफर के दौरान बाबा की कृपा कुछ ऐसी रही कि प्रकृति यात्रियों के सर्वथा अनुकूल रही। चार कि.मी. की कहीं ढलानदार तो कहाँ कुछ खड़ी चढाई पथिकों के उत्साह, जीवट व साहस की भरपूर परीक्षा ले रही थी। 
तुंगनाथ पहुँचने के पूर्व ही सड़क के किनारे जमी बर्फ के दर्शन के साथ ही जैसे थके यात्रियों की सारी थकान छूमंतर हो जाती है, एक नयी ऊर्जा का संचार होता है और मजेदार बात यह रही कि तुंगनाथ पहुँचने पर समूह का स्वागत अभिसिंचन बर्फ के फाहों के साथ होता है। 

मई माह में भी रास्ते के दोनों ओर जमी बर्फ और साथ में बर्फवारी के  दर्शन, सब बाबा की अजस्र कृपा व इस सीजन का एक विरल संयोग था। बर्फानी बाबा की उपस्थिति प्रत्यक्ष अनुभव हो रही थी। विधि विधान से पूजा के साथ काफिला मंदिर के बाहर प्रागण में आता है और यहाँ से हिमाच्छादित पर्वतश्रृंखलाओं के क्षितिज तक पसरे स्वर्गोपम सौंदर्य का विहंगावलोकन करता है। 
मार्ग में राज्य पक्षी मोनाल के दर्शन हुए, जो इस इलाके में प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। प्रायः इनके दर्शन तीर्थयात्रियों को होते रहते हैं, हालाँकि इनको कैमरे में केप्चर कर पाना काफी दुष्कर रहता है, क्योंकि ये स्वभाव से बहुत शर्मीले और फुर्तीले होते हैं।

प्रख्यात चंद्रशिला यहाँ से 2-3 किमी आगे है, लेकिन समय की सीमा में यहाँ का सफर सबके साथ संभव नहीं था। दो तीन टुकड़ियों में काफिला बारी-बारी बाबा के दर्शन कर यहाँ के दिव्य एवं रोमाँचक परिवेश का आनन्द लेता है।
मंदिर के कौने में अंधेरे को आलोकित करता अखण्ड दीपक तमसो मा ज्योतिर्गमय के दिव्य भाव को जगा रहा था।
मंदिर के बाहर सभी यथासंभव फोटोज व सेल्फी के साथ कुछ यादगार पलों को केप्चर करते हैं। यहाँ से सुदूर बर्फ से ढ़की चोटियाँ व नीचे घाटी के दर्शन अवर्णनीय अनुभव रहे
, जो ताऊम्र स्मरण करने पर चित्त को आल्हादित करते रहेंगे। खासकर जो पहली बार जीवन में बर्फ के दर्शन किए, उनके लिए यह अनुभव दुवारा आने के लिए प्रेरित करता रहेगा।
राह में स्वास्थ्य कारणों से आगे न बढ़ पाने वालों के साथ भी बाबा की कृपा एवं प्रकृति का उपहार अपने ढ़ंग से बरसता रहा। पीछे मुड़ने का कोई कारण नहीं था, सो रास्ते में थोड़ा-थोड़ा विश्राम करते हुए आगे सरकते रहे। मार्ग में नीचे घाटी के पार सुदूर पर्वत श्रृंखलाओं पर बरसते काले-काले बादलों का दृश्य दर्शनीय था। 
बापिस आ रहे यात्रियों से पता चला कि पास में ही एक टी-स्टाल है, सो हिम्मत कर वहाँ तक पहुँचने की कोशिश में धीरे-धीरे आगे बढ़ते रहे। मोड़ से इसकी झलक पाकर खुशी का ठिकाना न रहा कि इसके नीचे एक बड़ा बुगियाल(घास का पहाड़ी मैदान) पसरा है। सो ट्रेकिंग मार्ग से उतर कर बुगियाल के मखमली गलीचे में चहल कदमी करते हुए प्रकृति की गोद में विचरण का आनन्द लेते रहे। 
कभी घास पर लेटकर तो कभी पत्थर के आसन पर बैठकर, तो कभी चट्टानों पर खड़े होकर, तो कभी चट्टानी विस्तर पर लेटकर। रास्ते में इस सीजन में भी पीले रंग के जंगली फूलों का गलीचा बिछा मिला। हालाँकि इस क्षेत्र में हर तरह के रंग-विरंगे फूलों के दर्शन अगस्त-सितम्बर माह में अपने चरम पर होते हैं, जो यहाँ जड़ी-बूटियों के फूलने का सीजन होता है। जबकि जनवरी-फरवरी माह में यह सारा भूक्षेत्र बर्फ की मोटी चादर औढ़े शीतनिद्रा की अवस्था में होता है।

सामने प्रत्यक्ष खड़ी हिमाच्छादित चोटियां हिमालय के आंचल में विचरण का गाढ़ा अहसास करा रही थी। धीरे-धीरे ये हिमाच्छादित पर्वत बादलों से ढक गए थे और स्पष्ट रुप में वहाँ ऊँचाईयों में बर्फवारी शुरु हो चुकी थी, जिसकी फुहार जल्द ही यहाँ भी हल्की बुंदाबांदी के रुप में शुरु हो चुकी थी और वातावरण में ठंड़क बढ़ रही थी। 
ठंड़ से निजात पाने के लिए समूह सड़क के किनारे बने टी-स्टाल में शरण लेता है।
 तन में ढके हुए कपडे कम पड़ रहे थे। ठंड़क सीधे अंदर बदन में चुभ रही थी व ठंड़ के कारण कंपकपी छूट रही थी। ठंड़ से कुछ राहत पाने के लिए टी-स्टाल में जल रहे चूल्हे की शरण में जाते हैं, गर्म चाय व मैग्गी के साथ कुछ राहत महसूस करते हैं ओर आगे गए काफिले की बापसी का इंतजार करते हैं। 

खाली समय में यहाँ की अलग-अलग लोकेशन के साथ कुछ यादगार फोटोज कैप्चर करते रहे। और जब पता चलता है कि काफिला ऊपर से बापिस आ रहा है तो धीरे-धीरे बापिस चोपता की ओर चल पड़े।



मार्ग में बुराँश फूल के वृक्ष बहुतायत में लगे मिले। राह में गुजर रहे स्थानीय लोगों से पूछने के बाद भी यह प्रश्न अनुतरित रहा कि ये स्वयं ही इस तादाद में यहाँ लगे या किसी सुनियोजित रीति से इन्हें यहाँ रोपा गया। मजेदार बात यह है कि यहाँ बुराँश की सभी किस्में उपलब्ध हैं।
सबसे नीचे सुर्ख लाल रंग के बुराँश, जिनके पेड़ ऊँचाई लिए होते हैं। फिर ऊँचाईयों पर हल्के गुलाबी रंग के बुराँश, जो झाड़ियों में लगे होते हैं और सबसे अधिक ऊँचाइयों पर सफेद रंंग के बुरांश। इस सीजन में वृक्षों से फूल लगभग झड़ चुके थे। विशेषज्ञों के अनुसार, फूलों के साथ लकदक बुराँश के दर्शन के लिए अप्रैल माह सबसे सही रहता है।
आधे मार्ग में बापसी पर बाबा तुंगनाथ के प्रत्यक्ष दर्शन न हो पाने का हल्का सा मलाल अवश्य रहा, लेकिन पूरा ग्रुप यात्रा को सकुशल पूरा कर जीवन के कुछ यादगार लम्हों को समेटकर बापिस आ रहा है, यह सुकून साथ में था। फिर सबकुछ एक ही यात्रा में पूरा हो, यह भी तो जरुरी नहीं। कुछ अगली यात्रा के लिए, इस भाव के साथ हल्के मन के साथ बस में अपनी सीट ग्रहण किए।
गोचर की ओरढलती शाम तक सभी चोपता बापिस आ चुके थे। अंधेरा होने से पूर्व बस चोपता से चल पड़ती है। तुंगनाथ व राह में मिले रोमाँचक अनुभव के बीच काफिला सुखद अनुभूतियों के साथ रोमाँचित था। अगले दो-तीन घंटे में बस उसी रास्ते से रुद्रप्रयाग पहुँचती है, जिससे होकर गई थी।
अंधेरे में बाहर के दृश्यों के अवलोकन का कोई सवाल नहीं था। रात के अंधेरे में वृक्षों व पहाडों के काले साय के बीच सरपट दौड़ती बस और इसकी रोशनी ही प्रत्यक्ष थे, जिनका अवलोकन एक अलग ही अनुभव दे रहा था। थकावट के कारण अधिकाँश यात्री विश्राम व निद्रा की गोद में विचरण कर रहे थे। हम अब तक के सुरक्षित सफर के लिए बाबा की अजस्र कृपा को अंतःकरण की गहराईयों से अनुभव कर रहे थे। 
राह में नींद के झौंको के बीच पता ही नहीं चला कि कब बस रुद्रप्रयाग के बाद नागरसु से होते हुए गौचर पहुँच चुकी है, जहाँ गढ़वाल मंडल निगम के गेस्ट हाउस में रात के रुकने का ठिकाना था।
रात को भोजन के बाद कौतुहल वश एक राउंड बाहर मैदान का लगा आए, अंधेरे में पास खड़े पहाडियों में टिमटिमाते घर एक अलग ही नजारा पेश कर रहे थे। दिन के उजाले में इनके दर्शन व गोचर के नाम के रहस्य का अनावरण सुबह किया जाना था। इसी भाव के साथ राह की सुखद यादों के साथ निद्रादेवी की गोद में चले जाते हैं।
 
यात्रा का अगला भाग आप आगे दिए लिंक पर पढ़ सकते हैं - हरियाली माता के देश में
 
यदि आपने यात्रा का पिछला भाग न पढ़ा हो तो, आगे पढ़ सकते हैं - तुंगनाथ यात्रा, भाग-1

 

यात्रा वृतांत – जब आया बुलावा बाबा तुंगनाथ का, भाग-1


हरिद्वार से अगस्त्यमुनि, वाया रुद्रप्रयाग
यात्रा की तैयारियाँ – पिछले दो सेमेस्टर से टल रहा शैक्षणिक भ्रमण आखिर लगभग तय हो चुका था, लेकिन यह भ्रमण चार धाम यात्रा के बीच सम्पन्न होने जा रहा है, इसका हमें शुरु में भान नहीं था। तिथि व समय में अधिक हेर-फेर सम्भव नहीं था, सो ईश्वर की इच्छा मानकर मई माह की 9-10 तारीख को निश्चित कर वाहन व रास्ते में रुकने की व्यवस्था में जुट जाते हैं। शैक्षणिक भ्रमण का पड़ाव कोटमल्ला,रुद्रप्रयाग स्थित जगतसिंह जंगलीजी का मिश्रित वन था, साथ ही एक तीर्थ स्थल की ट्रैकिंग भी इसमें शुमार थी। अंतिम समय तक तीर्थ स्थल के चयन को लेकर उहापोह चलती रही, लेकिन अंततः तृतीय केदार तुंगनाथ की व्यवस्था हो गई। लगा जैसे बाबा का बुलावा आ गया। इसे ईश्वर की इच्छा मानकर काफिला यात्रा की तैयारियों में लग जाता है।
     विषम परिस्थितियों के बीच यात्रा का संयोग - यात्रा का यह संयोग विषम परिस्थितियों के बीच बन रहा था। चार धाम यात्रा की मारामारी के साथ मौसम का मिजाज भी इस समय काफी विकराल रुप धारण किए था। पूरे भारत में आँधी-तुफान, औलावृष्टि व अंतरिक्षीय विक्षोभ के समाचारों के साथ मीडिया ने एक भयावह माहौल बना रखा था। मीडिया के इस हाईप के बीच अविभावकों की घबराहट स्वाभाविक थी, सो कुछ विद्यार्थी इस शैक्षणिक भ्रमण का हिस्सा बनने से वंचित रह जाते हैं। चूंकि यात्रा की तैयारियां पूरी हो चुकी थीं, पीछे मुड़ने के सारे बिकल्प पीछे छूट चुके थे। बाबा बर्फानी का बुलावा मानकर 25 यात्रियों का काफिला मंजिल की ओर प्रातः भौर में ही मंत्रोचारण के साथ कूच कर जाता है।
राह के पड़ाव – एक-ढेड़ घंटे में काफिला ऋषिकेश-लक्ष्मण झूला को पार कर चुका था। इसके बाद गंगाजी के किनारे सफर आगे बढ़ता है। पहाड़ों की उछल-कूद के बाद मैदान की ओर शांत-गंभीर गति के साथ प्रवाहमान गंगाजी के दर्शन हमेशा ही आँखों को ठंड़क व मन को शांति देते हैं। रास्ते में गंगाजी के किनारे राफ्टिंग कैंप, इनके कतार में सजे तम्बू व आप-पास के एकांत-शांत गाँवों को निहारते हुए यात्रा का आनन्द लेते हुए सफर आगे बढ़ता रहा।
लगभग दो घंटे बाद ब्यासी व शिवपुरी को पार करते हुए बस कौड़ियाला स्टेशन पर जल-पान के लिए रुकती है। यहाँ गंगाजी के किनारे ढावे में सभी फ्रेश होते हैं व चाय-नाश्ता करते हैं। यहाँ की लोकेशन बहुत ही मनभावन और अद्भुत है। ढावे के नीचे ढलानदार राह पर पत्थरों से टकराकर कलकल निनाद करती गंगाजी की वेगवती धार दर्शनीय रहती है।
इसकी पृष्ठभूमि में खड़ा त्रिशंकू आकार का पर्वत ध्यानस्थ किन्हीं मौन तपस्वी सा प्रतीत होता है। यहीं अपने पुराने विद्यार्थियों व शिक्षकों के साथ कुछ यादगार क्लिप्स के साथ सफर आगे बढ़ता है।
पहाड़ की गोद में रोमाँचक सफर – यहीं से आगे पहाड़ों की चढाई शुरु होती है और सफर का रोमाँच भी। गंगाजी बीच-बीच में पहाड़ों के नीचे गहरी खाईयों में कहीं बिलुप्त हो जाती हैं, तो कहीं प्रकट। इसी लुकाछुपी के बीच पहाड़ की ऊँचाईयों में घुमावदार बलखाती सड़क के बीच सफर जारी रहता है। रास्ते में खिड़की से बाहर निहारने पर ऊपर और नीचे क्षितिज की ओर अंतहीन पर्वत श्रृंखलाओं का नजारा एक अलग ही अनुभव रहता है। पहाड़ की गोद में व चोटियों पर बसे सुदूर गाँव व घर सदा ही मन में जिज्ञासा व रोमाँच के भाव जगाते हैं। बिना किसी मोटर सड़क के किस तरह से लोग अपना सामान ले जाते होंगे। यहाँ निवास करना कितना रोचक, रोमाँचक व दुश्वारियों से भरा रहता होगा आदि।

एक ढेड़ घंटे में हम देवप्रयाग संगम से होकर गुजर रहे थे। ज्ञातव्य हो कि यहाँ पर भगीरथी और अलकनंदा नदियों का संगम है, जहाँ से गंगाजी का प्रादुर्भाव माना जाता है। ऋषिकेश से 70 किमी दूर व 1500 फीट की ऊँचाई पर स्थित यह संगम पंचप्रयागों में एक है। यहाँ द्रविड़ शैली में बना रघुनाथजी का  पुरातन मंदिर है। पौराणिक मान्यता है कि भगवान राम लंका युद्ध में रावण बध के बाद ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति के लिए लक्ष्मण एवं सीता सहित यहाँ पधारे थे व इस संगम स्थल पर प्रायश्चित तप किए थे। संगम स्थल का सौंदर्य स्वयं में अद्भुत एवं बेजोड़ है। समय निकालकर यहाँ आचमन, स्नान व ध्यान का आनन्द लिया जा सकता है।
देवप्रयाग को पार करते हुए सफर कई छोटे स्टेशनों को पार करता हुआ कीर्तिनगर से होकर गुजरता है, जहाँ के सीढ़ीनुमा खेत, इनमें लहलहाती हरी-भरी फसल, सब्जियाँ व नर्सरी की क्यारियाँ सदा ही सफर का खुशनुमा अहसास रहती हैं। 
इसके आगे कुछ ही देर में श्रीनगर शहर आता है, जो अलकनंदा नदी के किनारे लगभग 1800 फीट की ऊँचाई पर बसा है। ऋषिकेश से लगभग 100 किमी दूरी पर स्थित श्रीनगर शहर को आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित श्रीयंत्र पर बसा शहर माना जाता है।
यहीं पर उच्च शिक्षा का जाना-माना केंद्र गढ़वाल विश्वविद्यालय है। आगे बढ़ते हुए पुल के उस पार विश्वविद्यालय के चौरास कैंपस के दूरदर्शन किए जा सकते हैं। श्रीनगर को पार करते हुए लगभग दो घंटे के अंतराल में हम रुद्रप्रयाग पहुंचते हैं। रास्ते में श्रीनगर में बन रही जल-प्रयोजना के कारण बनी झील एक अलग ही नजारा पेश करती है। इसी के बीच में धारी देवी का सिद्ध मंदिर मार्ग में आता है। इसी राह को पार करते हुए अगला प्रमुख पड़ाव रुद्रप्रयाग आता है।
रुद्रप्रयाग, बद्रीनाथ और केदारनाथ से आ रही क्रमशः अलकनंदा और मंदाकिनी नदियों का पावन संगम स्थल है। लगभग 3000 फीट की ऊँचाई पर स्थित रुद्रप्रयाग के वारे में मान्यता है कि यहाँ पर नारद मुनि को भगवान शिव ने उनकी आराधना से प्रसन्न होकर रुद्र रुप में दर्शन दिए थे। रुद्रप्रयाग श्रीनगर से 34 किमी और केदारनाथ धाम से 86 किमी की दूरी पर स्थित है। 
रुद्रप्रयाग से अलकनंदा को पार कर मंदाकिनी नदी के किनारे सफर केदारनाथ मार्ग पर आगे बढ़ता है। लगभग एक घंटे बाद अगस्त्यमुनि कस्वा आता है, जो रुद्रप्रयाग से 18 किमी की दूरी पर है। मान्यता है कि 3300 मीटर ऊँचाई पर स्थित इस स्थल पर अगस्त्यमुनि ने घोर तप किया था और शहर में नागकोट नामक स्थान के पास महर्षि ने सूर्य भगवान तथा श्रीविद्या की उपासना की थी।

यहां एक स्थानीय ढावे पर दोपहर के लंच के लिए उतरते हैं। बस में बैठे-बैठे शरीर की जकड़न बाहर उतरने पर महसूस हुई। थोड़ा चहलकदमी व भोजन के बाद काफिला रिचार्ज होकर अगले पड़ाव की ओर कूच करता है, जो था तुंगनाथ का बेस कैंप चोपता, जिसे उत्तराखण्ड के मिनी स्विटजरलैंड की संज्ञा दी गयी है। रास्ते में मंदाकिनी नदी के निम्न जल स्तर को देख थोड़ा आश्चर्य अवश्य हुआ। शायद इस बार पहाड़ों में बर्फवारी कम हुई है, इसका परिणाम रहा हो। अगस्तमुनि में ही ठीक सड़क के किनारे प्राकृतिक जल का स्रोत मिला। बढ़ती गर्मी के कारण सूखते जल स्रातों के बीच इसके निर्बाध प्रवाह को देखकर सुखद आश्चर्य हुआ। (जारी...)
यात्रा का अगला भाग आप आगे दिए लिंक पर पढ़ सकते हैं - तुंगनाथ यात्रा, भाग-2

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