गुरुवार, 31 मई 2018

काल की बक्र चाल और ये कशमकश


डटा रह पथिक आशा का दामन थामे

ये कशमकश भी गजब है, समझने की कोशिश कर रहे,

मंजिल है उत्तर की ओर, पग दक्षिण की ओर बढ़ रहे,

करना है बुलंदियों का सफर, ढग रसातल की ओर सरक रहे।


गड़बड़ अंदर भीतर कहीं गहरी, उपचार सब बाहर के हो रहे,
अपनी खबर लेने की फुर्सत नहीं, दूसरों की खबर खूब ले रहे।

क्या यही है जिंदगी, इबादत खुदा की, बेहोशी में जिसे हम जी रहे,
जाने अनजानें में खुद से दूर, जड़ों पर ही कुठाराघात कर रहे।

फिर जड़ों को सींचने की तो बात दूर, पत्तियोँ-टहनियों के सिंचन में ही इतिश्री मान बैठे,
हो फिर कैसे आदर्शों के उत्तुंग शिखरों का आरोहण, गहरी खाई में ही जो घरोंदा बसा बैठे।

हो निजता में गुरुता का समावेश कैसे, गुरुत्व के साथ बहने में ही नियति मान बैठे,
इंसान में भगवान के दर्शन हों कैसे, जब अंदर के ईमान को ही भूला बैठे।

इस सबके बावजूद, न हार हिम्मत, उम्मीद की किरण है बाकि,
मत हो निराश पथिक, काल की बक्र चाल यह,
छंट जाएेंगे भ्रम-भटकाव के ये पल, ठहराव का यह सघन कुहासा।
 
बस डटा रह, धर धीरज अपने सत्य, स्वर्धम, ईमान पर, आशा का दामन थामे,
  सच्चाई, अच्छाई व भलाई की शक्ति को पहचाने,
पार निकलने की राह फूटेगी भीतर से, आएगा वह पल जल्द ही, यह सुनिश्चित मानें।
 

सोमवार, 30 अप्रैल 2018

लक्ष्य निर्धारण – रखें अपनी मौलिकता का ध्यान

अपनी अंतःप्रेरणा को न करें नजरंदाज

जीवन में लक्ष्य का होना बहुत महत्वपूर्ण है। बिना लक्ष्य के व्यक्ति उस पेंडुलम की भांति होता है, जो इधर-ऊधर हिलता ढुलता तो रहता है, लेकिन पहुँचता कहीं नहीं। जीवन का लक्ष्य स्पष्ट न होने पर व्यक्ति की ऊर्जा यूँ ही नष्ट-भ्रष्ट होती रहती है और हाथ कुछ लगता नहीं। फिर कहावत भी है कि खाली मन शैतान का घर। लक्ष्य विहीन जीवन खुराफातों में ही बीत जाता है, निष्कर्ष ऐसे में कुछ निकलता नहीं। पश्चाताप के साथ इसका अंत होता है और बिना किसी सार्थक परिणाम के एक त्रास्द दुर्घटना के रुप में वहुमूल्य जीवन का अवसान हो जाता है। अतः जीवन में लक्ष्य का होना बहुत महत्वपूर्ण है।

लेकिन जीवन लक्ष्य निर्धारण में प्रायः चूक हो जाती है। अधिकाँशतः बाह्य परिस्थितियाँ से प्रभावित होकर हमारे जीवन का लक्ष्य निर्धारण होता है। समाज का चलन या फिर घर में बड़े-बुजुर्गों का दबाव या बाजार का चलन या फिर किसी आदर्श का अंधानुकरण जीवन का लक्ष्य तय करते देखे जाते हैं। इसमें भी कुछ गलत नहीं है यदि इस तरह निर्धारित लक्ष्य हमारी प्रतिभा, आंतरिक चाह, क्षमता और स्वभाव से मेल खाती हो। लेकिन यदि ऐसा नहीं है तो फिर जीवन एक नीरस एवं बोझिल सफर बन जाता है। हम जीवन में आगे तो बढ़ते हैं, सफल भी होते हैं, उपलब्धियाँ भी हाथ लगती हैं, लेकिन जीवन की शांति, सुकून और आनन्द से वंचित ही रह जाते हैं। हमारी अंतर्निहित क्षमता प्रकट नहीं हो पाती, जीवन का उल्लास प्रस्फुटित नहीं हो पाता। पेशे के साथ व्यक्तित्व में जो निखार आना चाहिए वह नहीं आ पाता।

फिर, जीवन के लक्ष्य निर्धारण में अंतःप्रेरणा का कोई विकल्प नहीं। अंतःप्रेरणा सीधे ईश्वरीय वाणी होती है, जिससे हमारे जीवन की चरम संभावनाओं का द्वार खुलता है। हर इंसान ईश्वर की एक अनुपम एवं बेजोड़ कृति है, जिसे एक विशिष्ट लक्ष्य के साथ धरती पर भेजा गया है, जिसका दूसरा कोई विकल्प नहीं। अतः जीवन लक्ष्य के संदर्भ में किसी की नकल नहीं हो सकती। ऐसा करना अपनी संभावनाओं के साथ धोखा है, जिसका खामियाजा इंसान को जीवन भर भुगतना पड़ता है। यह एक विडम्बना ही है कि मन को ढर्रे पर चलना भाता है। अपनी मौलिकता के अनुरुप लीक से हटकर चलने का साहस यह सामान्यतः नहीं जुटा पाता और भेड़ चाल में उधारी सपनों का बोझ ढोना उसकी नियति बन जाती है। ऐसे में अपनी अंतःप्रेरणा किन्हीं अंधेरे कौनों में पड़ी सिसकती रहती है और मौलिक क्षमताओं का बीज बिना प्रकट हुए ही दम तोड़ देता है।

कितना अच्छा हुआ होता यदि व्यक्ति अपने सच का सामना करने का साहस कर पाता। अंतर्मन से जुड़कर अपने जीवन की मूल प्रेरणा को समझ पाता। उसके अनुरुप अपनी शक्ति-सीमाओं और अपनी खूबी-न्यूनताओं को पहचानते हुए जीवन की कार्यपद्धति का निर्धारण कर पाता तथा कुलबुला रहे प्रतिभा के बीज को प्रकट होने का अवसर देता। ऐसे में जीवन की समग्र सफलता का सुयोग घटित होता और सार्थकता के बोध के साथ नजरें संभावनाओं के शिखर को निहारते हुए, कदम शनै-शनै मंजिल की ओर आगे बढ़ रहे होते।

ऐसा न कर पाने का एक प्रमुख कारण रहता है, दूसरों से तुलना व कटाक्ष में समय व ऊर्जा की बर्वादी। अपनी मौलिकता की पहचान न होने की वजह से हम अनावश्यक रुप में दूसरों से तुलना में उलझ जाते हैं। भूल जाते हैं कि सब की अपनी-अपनी मंजिल है और अपनी अपनी राह। इस भूल में छोटी-छोटी बातों में ही हम एक दूसरे के प्रतिद्वन्दी बन बैठते हैं और अपने लक्ष्य पर केंद्रित होने की बजाए कहीं और भटक जाते हैं। ऐसे में जीवन का ध्येय दृष्टि से औझल हो जाता है और मन की अस्थिरता व चंचलता गहरे उतरने से रोकती है। एक पल किसी से आगे निकलने की खुशी में मदहोश हो जाते हैं, तो अगले ही पल दूसरे से पिछड़ने पर मायूस हो जाते हैं। ऐसे में बाहर की आपा-धापी और अंधी दौड़ में अपने मूल लक्ष्य से चूक जाते हैं।

ऐसे में जरुरत होती है, कुछ पल नित्य अपने लिए निकालने की, शांत स्थिर होकर गहन आत्म समीक्षा करने की, जिससे कि अपनी मूल प्रेरणा से जुड़कर इसके इर्द-गिर्द केंद्रित हो सकें। प्रेरक पुस्तकों का स्वाध्याय इसमें बहुत सहायक होता है, जिसके प्रकाश में आत्म समीक्षा व्यक्तित्व की गहरी परतों से गाढ़ा परिचय कराने में मदद करती है। अपने स्वभाव, आदतों एवं व्यक्तित्व का पैटर्न समझ आने लगता है। इसी के साथ अपने मौलिक स्व से परिचय होता है और जीवन का स्वधर्म कहें या वास्तविक लक्ष्य स्पष्ट होता चलता है।

खुद को जानने की इस प्रक्रिया में ज्ञानीजनों का संग-साथ बहुत उपयोगी सिद्ध होता है। उनके साथ विताए कुछ पल जीवन को गहन अंतर्दृष्टि देने में सक्षम होते हैं। जीवन की उच्चतर प्रेरणा से संपर्क सधता है, जीवन का मूल उद्देश्य स्पष्ट होता है। भीड़ की अंधी दौड़ से हटकर चलने का साहस जुट पाता है और जीवन को नयी समझ व दिशा मिल पाती है। जीवन सृजन की नई डगर पर आगे बढ़ चलता है और अपनी मूल प्रेरणा से जुड़ना जीवन की सबसे रोमाँचक घटनाओं में एक साबित होती है। इसी के साथ जीवन के मायने बदल जाते हैं और यह अंतर्निहित संभावनाओं की अभिव्यक्ति का एक रोचक अभियान बन जाता है।

जीवन यात्रा – शांति की खोज में एक पथिक, भाग-2

हिमालय की नीरव वादियों में जीवन के रुपांतरणकारी पल
लक्ष्य की ओर बढ़ता मार्ग कहीं-कहीं गहरी घाटियोँ से होकर भी गुजरा। ये घाटियाँ भी उसे जीवन का एक मर्म स्पष्ट कर गई। कहीं-कहीं लगा कि वह लक्ष्य के विपरीत जा रहा है, लेकिन बाद में पता चला कि वह तो मंजिल की ओर समीप आ गया है। इसी तरह जीवन में टेढ़े-मेढ़े, उतार-चढ़ाव भरे रास्ते आते हैं, इन्हें स्थायी विचलन विफलता मानने की भूल न की जाए। ये मंजिल के आवश्यक सोपान हो सकते हैं, बस चरण गति मंजिल की ओर उन्मुख होनी चाहिए।
हिमालय की गोद में आए नाना प्रकार के आगंतुक भी उसे कुछ संदेश दे गए। रास्ते में कई पर्यटक, घोड़ा, गाड़ी आदि से सफर कर रहे थे, जो दुर्गम हिमालय के महज स्तही परिचय से ही संतुष्ट थे। लेकिन कुछ साहसी रोमाँच प्रेमियों का दल ऐसा भी था जो इतने भर से संतुष्ट नहीं था। वह पैदल ही अपना बोझा लादे आगे हिमालय की दुर्गम वादियों की ओर बढ़ रहे थे। वे हिमालय की दुर्गम चेतना से सीधा संपर्क साध कर जीवन के उच्चस्तरीय सत्य का साक्षात्कार करना चाहते थे।
पथिक भी उन्हीं के साथ हो लेता है। दल का नेता उसके उत्साह, साहस व जीवट  को देखकर आश्वस्त था कि इसे साथ ले सकते हैं। रास्ते में संकरी पगड़ंडी के साथ गहरी घाटी एवं नीचे कल-कल करती हिमनदी के किनारे से भी उसे चलना पड़ता। यहाँ थोड़ी सी भी लापरवाही, एक भी कदम की चूक का अर्थ नीचे सैंकड़ों फीट गहरी नदी में जलसमाधि। क्या जीवन की गहरी घाटियाँ, तंग रास्ते ऐसी ही सावधानी की माँग नहीं करते हैं। रास्ते में पत्थरों पर उत्कीर्ण सदवाक्य उसे याद आ रहा था सावधानी हटी दुर्घटना घटी।
खून को जमाने वाली ठंड में भी खिले फूल विषम परिस्थितियों में भी प्रसन्न रहने का संदेश दे रहे थे। रास्ते में गर्म पानी के कुँड उसे किसी दैवीय चमत्कार से कम न लगे। तप्त कुण्ड में डुबकी लगाकर उसकी सारी थकान और ठंड छूमंतर हो गई। सहज समाधि की अवस्था में वह स्वयं को अनुभव कर रहा था। प्रकृति की उदारता और समझदारी के भाव से आह्लादित वह सोचता रहा कि इस दुर्गम हिमक्षेत्र में उसने अपनी संतानों की सुख-सुविधा के कैसे संरजाम जुटा रखे हैं।
आगे गलेशियर को पार करता हुए दल हिमशिखर की ओर आरोहण करता है। कदम दर कदम बदन को भेदती बर्फीली तेज हवा के प्रहारों को झेलता हुआ वह यहाँ तक पहुँचा है। शिखर पर पहुँचते ही नीचे अनगिन हिमश्रृंखलाएं जैसे उसके चरणों के नीचे लग रही थी। दूर-दूर तक घाटियों का विहंगम दृश्य देखते ही बनता था। ऐसे लग रहा था जैसे कि वह किसी दूसरे ही लोक में विचरण कर रहा है।
यहीं एक स्थान पर वह शिला पर आसन जमा लेता है और ध्यानस्थ हो गया। उसे लगा कि जैसे हिमालय का शिखर उसकी चेतना का शिखर है। अपने जीवन का अतीत जैसे फिल्म की तरह उसकी अंतदृष्टि के सामने से गुजरता है। इसकी जीत-हार, उतार-चढाव, सफलता-विफलता, अपने-पराए सारे उसके सामने कुछ ही क्षणों में पार हो जाते हैं और जीवन का एक समग्र बोध वह पाता है। वर्तमान जीवन का उसे सम्यक बोध हो जाता है और संग भविष्य की दृष्टि भी साफ हो जाती है। घनीभूत आत्मचेतना के संग वह हिमालय की चेतना से स्वयं को एकाकार अनुभव कर रहा था।
इस अवस्था में उसे लगा कि हिमालय की घाटियाँ, जंगल, कंदराएँ, खुंखार जानवर, नदियाँ, पर्वत, खाईयाँ, झील, झरने सब उसके अंदर ही मौजूद हैं। अनगढ़ मन घना जंगली प्रांत है, जिसमें विविध विकार रुपी पशु अचेतन मन रुपी गुफा मे छिपे रहते हैं। असावधान साधक पर ये हमला करते रहते हैं। इसी के अंदर स्वयं की खोदी हुई खाईयाँ हैं, तो दिव्य भावनाओँ एवं संभावनाओँ की हिमनदियाँ, झीलें भी। जहाँ यदा-कदा अपने रुप को निहार सकते हैं, जिसमें डुबकी लगाकर तरोताजा हो सकते हैं। ध्यान के चरम पर उसे अहसास हुआ कि समूची प्रकृति, हरियाली के माध्यम से महत्प्रकृति ही अभिव्यक्त हो रही है। प्रकृति के माध्यम से ही हम उस तक पहुँच सकते हैं। प्रकृति ही नहीं यह सारा जगत-संसार उसी परमतत्व एवं उसकी पराशक्ति का विस्तार है।
उसके अंतःकरण में हिमालय की दिव्य चेतना का प्रकाश अवतरित हो रहा था। जीवन की उल्झी गुत्थियों का समाधान मिल रहा था। एक नई जीवन दृष्टि के साथ उसका जीवन लक्ष्य भी और स्पष्ट हो गया था। एक प्रकाशपूर्ण चेतना के साथ उसका व्यक्तित्व औत-प्रोत था। हिमालय के संग प्रकृति की गोद में विचरण उसके लिए अब एक आध्यात्मिक अनुभव बन गया था।
कुछ दिनों का यह प्रवास उसके लिए एक रुपांतरकारी अनुभव रहा। जब वह घर आता है तो उसका परिवार, यार दोस्त एवं परिचित जन उसके बदले रुप, उसकी ताजगी, ऊर्जा, उत्साह व संतुलन को देख विस्मित थे कि जीवन का कायाकल्प किस जादू की छडी के साथ हुआ है। लोग पूछते तो वह मुस्कुरा देता। सच्चे जिज्ञासुओं को वह रहस्य खोलता कि कैसे प्रकृति की गोद में, हिमालय के दैवीय स्पर्श ने उसके जीवन को रुपांतरित कर दिया है।
अब तो जब भी उसे सप्ताह, माह में फुर्सत के कुछ पल मिलते वह प्रकृति की गोद में चला जाता और वर्ष में एक बार अवश्य हिमालय की दुर्गम वादियों में एक यायावर बन कर विचरण करता।

चुनींदी पोस्ट

प्रबुद्ध शिक्षक, जाग्रत आचार्य

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