शनिवार, 31 मार्च 2018

देहरादून – शैक्षणिक यात्रा, भाग-1


हेस्को - प्रकृति-पर्यावरण एवं ग्रामीण विकास की अभिवन प्रयोगशाला

देहरादून हरिद्वार से महज 55-60 किमी की दूरी पर स्थित है। राष्ट्रीय महत्व के कई प्रतिष्ठित संस्थान यहाँ पर स्थित हैं। प्रकृति-पर्यावरण, आर्गेनिक खेती एवं समावेशी विकास(सस्टेनेवल डेवेल्पमेंट) पर भी अभिनव प्रयोगों की यह ऊर्बर भूमि है, देहरादून के बाहरी छोर पर एकांत ग्रामीण एवं वन्य परिवेश में ऐसे प्रयोग दर्शनीय हैं, जिनको राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त है। डेवकॉम पाठ्यक्रम के तहत टूर की दृष्टि से ऐसे शैक्षणिक भ्रमण अपना महत्व रखते हैं। प्राकृतिक दोहन, पर्यावरण प्रदूषण एवं रसायनकि खेती के साथ विकास की सर्वनाशी पटकथा के बीच ऐसे प्रयोग आशा के दीपक की तरह हैं, जो सृजन की ओर अभिमुख युवाजेहन में कब एक प्रेरक बीज डाल  दें, सृजन की एक चिंगारी सुलगा दे, कह नहीं सकते, जो कि महत्वपूर्ण है।

हरिद्वार से देहरादून की यात्रा हमेशा ही एक सुखद अनुभव रहती है। राह में हरेभरे खेत, सुदूर पर्वतों से घिरि घाटियों के बीच प्रकृति की गोद में सफर सदा ही खुशनुमा अहसास रहता है। हाँ, पिछले तीन-चार वर्षों से कछुआ चाल से चल रहे नेशनल हाइवे के चौड़ीकरण और राह के झटके भ्रष्ट तंत्र की बेरुखी की याद दिलाते रहते हैं।
जो भी हो मोतीचूर के आगे पुल पार करते ही, रेल्वे क्रॉसिंग के आगे राजाजी नेशनल पार्क में जीप सफारी का आनन्द लिया जा सकता है। इसके आगे नेशनल हाइवे पर जंगलों के बीच यात्रा सुखद अनुभूति देती है। फोरलेन में जंगली पशुओं के आवागमन के लिए बन रहे कोरिडोर के रुप में अधूरे पड़े फलाई ओवरों को पार करते ही रायवाला मिलिट्री कैंटीन आती है, जो दारु व झटका मीट प्रेमियों की शरणस्थली है।

इसके आगे देहरादून से आ रही टौंस नदी के पार नेपाली फार्म आता है, जहाँ से सीधा रास्ता ऋषिकेश, चारधाम की ओर बढ़ता है, तो वाईं ओर देहरादून के लिए मुड़ता है। आगे का 1-2 किमी मार्ग अपने हरे-भरे खेतों, जंगल और छोटे गधेरे के कारण यात्रियों का ध्यान आकर्षित करता है। आगे फिर गाँव-कस्वे, खेतों व जंगल को पार करते हुए फन बैली से होकर कारवाँ बढ़ता है। आगे गन्ने के खेत बहुतायत में दिखते हैं।

यह घाटी बासमती चाबल के लिए भी जानी जाती है। यह सिख बहुल क्षेत्र है, जो कभी गुरु रामराय के डेरे के साथ आकर यहाँ बसे थे। रास्ते के गुरुद्वारे और घरों की छत पर बाज पक्षी के दर्शन इसकी एक झलक देते रहते हैं।
आगे भानेवाला से सड़के वाईं और डोईवाला के लिए मुडती है, जबकि दाईं और 2 किमी आगे जोलीग्रांट हवाई अड्डा व रास्ते में प्रख्यात स्वामी राम मेडिकल यूनिवर्सिटी है। डोईबाला में समोसा-चाय व जलेबी की वेहतरीन दुकान है, जहाँ समय हो तो रुककर नाश्ते का लुत्फ लिया जा सकता है।



आगे फलाईओवर के दायीं और 1.5 किमी की दूरी पर जंगले के बीच लच्छीवाला पिकनिक स्पॉट है, जहाँ जल की धारा को नहर के रुप में लाया गया है। गर्मी में विशेषरुप में लोगों को इसमें चिलऑउट करते देखा जा सकता है। फ्लाईऑवर से आगे का 3-4 किमी का सफर साल के घने जंगल से होकर गुजरता है, जो स्वयं में एक रोमाँचक अनुभव रहता है।


इसके आगे चीनी फेक्ट्री के साथ देहरादून में प्रवेश होता है। राह में पेट्रोलियम संस्थान आता है। यहीं से मसूरी के भी दूरदर्शन होने शुरु हो जाते हैं। ठंड में हिमपात होने पर नजारा विशेष रुप से दर्शनीय रहता है। 


रेल्वे क्रॉसिंग के पहले लक्ष्मण सिद्ध मंदिर आता है और कुछ आगे दायीं ओर मसूरी वाईपास, जहाँ से सहस्रधारा की ओर जाया जा सकता है। सीधे मार्ग पर कुछ ही देर में रिस्पयाना पुल आता है। इसके पार धर्मपुर से होकर बीच शहर का ह्दयक्षेत्र घंटाघर आता है। दूसरा रास्ता आईएसबीटी से होकर जाता है। दोनों मार्ग बल्लुपुर चौराहे पर मिलते हैं।


इसके आगे एफआरआई(भारतीय वन संस्थान) और इंडियन मिलिट्री अकादमी (आईएमए) को पार करते ही प्रेमनगर आता है। यहीं से दायीं ओर से सड़क मुड़ती है, जो अम्बिकापुर गाँव से होकर वीहड़ में तंग कच्ची सड़क के साथ प्रवेश करती है, जिसके छोर पर है हेस्को (हिमालयन इनवायरनमेंटल स्टडीज एंड कन्वर्जेशन ऑर्गेनाईजेशन)। बीहड़ जंगल की तली में आसन नदी के किनारे चल रहा यह अभिनव प्रयोग कई मामलों में प्रेरक मिसाल है।

इसके संस्थापक पद्मश्री डॉ. अनिल जोशी पर्यावरण एवं ग्रामीण विकास के लिए समर्पित समाजसेवी हैं। अपनी प्रोफेसरी को छोड़कर इनका जीवन अपनी प्रबुद्ध टीम के साथ पर्यावरण संरक्षण, जलसंरक्षण, ग्रमीण स्वाबलम्बन एवं गाँव बचाओ आंदोलन जैसे कार्य़क्रमों को गति दे रहा है। इस हेतु जनजागरण के उद्देश्य से डॉ. जोशी कई हजार किमी की राष्ट्रव्यापी यात्राएं भी कर चुके हैं।
संस्था में प्रवेश करते ही बन के दर्शन होते हैं, जो मानवनिर्मित हैं। इसी के बलपर क्षेत्रीय नदी आसन का पुनर्जीवन होता है, जो दस-पंद्रह साल पहले सूखने के कागार पर थी। बनों में फलदार वृक्ष लगाए गए हैं। पिट्स और ट्रेंच खुदवाए गए, जिससे की बारिश का पानी जमीं के अंदर प्रवेश होकर भूजलीय स्रोत को पुष्ट करे।


आगे प्रवेश करते ही लेंटेना घास की गुणहीन झाड़ियों से फर्नीचर बनाने की कार्यशाला है।


पहाड़ों की पारम्परिक जल-चक्की घराट से बिजली उत्पादन यहाँ होते देखा जा सकता है, जो बिजली की सामान्य जरुरतों को पूरा करती है। सस्ते व प्रभावी चुल्हों के नए-नए मॉडल यहाँ तैयार हैं। आइसोटोप टेक्नोलॉजी से वाटर रिचार्जिंग मॉडल यहाँ पर है, साथ ही भाभा एटॉमिक संस्थान द्वारा पोषित आधुनिकतम प्रयोगशाला भी। फल-सब्जी के उत्पादों के लिए महिला प्रशिक्षण की व्यवस्था यहाँ पर है, जिनके उत्पाद बाजिब दामों पर यहाँ उपलब्ध रहते हैं। इन्हीं प्रयासों का सुफल बुराँस के जूस व कोदा-जवार जैसे मोटे अनाज को लोकप्रिय बनाना रहा। यहाँ शिक्षित युवाओं के लिए इंटर्नशिप की भी व्यवस्था है।


और अंत में प्रयोगशाला के पार, नदी के किनारे यहाँ का चिंता, चिंतन, चैतन्य एवं चिता का समग्र जीवन दर्शन अनुकरणीय है। इसी के तरह हर मृत के नाम पर शमशान घाट के किनारे वृक्ष लगाने की परम्परा है। अंदर हाल में डॉ. किरण नेगी ने बहुत ही सुन्दर ढंग से हेस्को की पृष्ठभूमि, आरम्भ, विकास यात्रा को समझाया कि किस तरह गाँव वासियों को शुरु में जोड़ने में लम्बा संघर्ष करना पड़ा।


और फिर उनकी जरुरतों, समस्याओं को समझते हुए क्षेत्रीय प्रकृति पदत्त संसाधनों को साथ लेकर विकास के साथ जोड़ा गया। बाहर डॉ. विनोद खाती ने यहाँ चल रहे प्रयोगों से परिचित कराया। यहीं से कुछ उत्पाद खरीद कर, कैंटीन से चाय-नाश्ता कर हम आगे बढ़ते हैं। डॉ.जोशीजी किसी कार्यक्रम में व्यस्त होने के कारण नहीं मिल पाए, जिनसे न मिलने के मलाल के साथ हम अगले गन्तव्य की ओर कूच कर जाते हैं।


रास्ते में ही मोपेड पर डॉ. जोशी को आते देखकर सुखद आश्चर्य हुआ। आज जब तमाम एनजीओ फंडिग के बल पर आलीशान व विलासी जीवन जीते देखे जा सकते हैं, इनकी यह सादगी कहीं गहरे छू गयी, जो ऋषि-मुनियों के सनातन जीवन दर्शन को प्रकट कर रही थी व इनके प्रकृति दर्शन के साथ मुखर होती है। संक्षिप्त एवं यादगार मुलाकात में पत्रकारिता विद्यार्थियों के प्रश्न का सहर्ष जबाव देते हुए, डॉ. जोशी ने प्रकृति के घटकों यथा जल, वायु, मिट्टी के संरक्षण पर बल दिया, जो नित्यप्रति प्रदूषित हो रहे हैं, विकृत हो रहे हैं। साथ ही जोर देकर कहा कि इनका दुष्परिणाम इससे पहले कि प्राकृतिक आपदा एवं कहर बनकर बरसे, हमें सजग-सावधान रहना होगा। अगली पीढ़ी के लिए रहने लायक आवो हवा एवं परिवेश देना हमारा पावन कर्तव्य बनता है। (शेष, आगे जारी...)
 
शैक्षणिक यात्रा का अगला भाग आगे लिंक में पढ़ सकते हैं - आर्गेनिक खेती, जैव विविधता संरक्षण की प्रयोगशाला, नवधान्या विद्यापीठ


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