रविवार, 10 दिसंबर 2017

भारतीय प्रेस दिवस (16 नबम्वर) पर मीडिया मंथन-भाग2



भारतीय पत्रकारिता – दशा, दिशा एवं दायित्वबोध
माना चारों ओर घुप्प अंधेरा, लेकिन दिया जलाना है कब मना

पिछली पोस्ट के आगे जारी......
ऐसे में आजादी के संघर्ष के दौर की पत्रकारिता पर एक नजज़र उठाना जरुरी हो जाता है।
स्वतंत्रता संग्राम की पत्रकारिताएक मिशन
आजादी के दौर में पत्रकारिता एक मिशन थी, जिसका अपना मकसद था – देश को गुलामी से आजाद करना, जनचेतना का जागरण और अपने सांस्कृतिक गौरवभाव से परिचय। भारतेंदु हरिश्चंद्र से लेकर महावीरप्रसाद द्विवेदी, श्रीअरविंद से लेकर गणेशशंकर विद्यार्थी और माखनलाल चतुर्वेदी से लेकर विष्णु पराड़कर तक आदर्श पत्रकारों की पूरी फौज इसमें सक्रिय थी। वास्तव में देश को आजाद करने में राजनीति से अधिक पत्रकारिता की भूमिका थी। स्वयं राजनेता भी पत्रकार की भूमिका में सक्रिय थे। तिलक से लेकर लाला लाजपतराय, सुभाषचंद्र बोस से लेकर गांधीजी व डॉ. राजेंद्रप्रसाद जैसे राजनेता इसका हिस्सा थे।

आजादी के बाद क्रमशः इस मिशन के भाव का क्षय होता है। शुरुआती दोतीन दशकों तक नेहरुयुग के समाजवादी विकास मॉडल के नाम पर विकास पत्रकारिता चलती रही। लेकिन आपात के बाद प्रिंटिंग प्रेस में नई तकनीक के आगमन व उदारीकरण के साथ इसमें व्यावसायीकरण का दौर शुरु हो जाता है। मीडिया एक उद्योग का रुप अखित्यार कर लेता है, और पत्रकारिता के मानक क्रमशः ढीले पड़ने लगते हैं। पत्रकारिता से मिशन के भाव का लोप हो जाता है और पत्रकारिता के आदर्श धूमिल होते जाते हैं।

इसकी एक झलक 2001 में प्रकाशित प्रेस परिषद की रिपोर्ट से स्पष्ट हो जाती है, जिसमें तत्कालीन भारतीय पत्रकारिता के व्यापक सर्वेक्षण के आधार पर उभरती चिंतनीय प्रवृतियों को रेखांकित किया गया था, जो निम्न प्रकार से थीं -
1.     विशेष वर्ग का ध्यान, आम जनता से क्या काम
2.     जनसराकारों की उपेक्षा या दमन
3.     आर्थिक पत्रकारों को अनावश्यक महत्व
4.     गल्त एवं भ्रामक सूचना
5.     राजनेताओँ एवं व्यावसायिओं का साया
6.     अपर्याप्त विकासपरक पत्रकारिता
7.     जनता की अपेक्षा बाजार को प्रधानता
8.     नारी शक्ति का अवाँछनीय चित्रण
9.     गप्प-शप को अनावश्यक महत्व
10.                        सनसनी खबरों को प्रधानता
11.                        व्यैक्तिक जीवन में ताक-झाँक
12.                        पपराजी का बढता सरदर्द
13.                        सूचना संग्रह के वेईमान तरीके
14.                        अवाँछनीय सामग्री का बढ़ता प्रकाशन
15.                        दुर्घटना एवं दुखद घटनाओँ के प्रति अमानवीय रवैया
16.                        विज्ञापन और संपादकीय में घटता विभेद
17.                        पत्रकार की निर्धारित योग्यता के मानदण्ड का अभाव
18.                        ओपीनियन पोल की खोल
19.                        प्रकाशन या सूचना के दमन में रिश्वत का बढता चलन
20.                        मुद्दों का उथला एवं अप्रमाणिक प्रस्तुतीकरण
21.                        विज्ञापन की बढती जगह
22.                        पश्चमी संस्कृति एवं मूल्यों का अँधानुकरण
23.                        प्रलोभन के आगे घुटने टेकता पत्रकार
24.                        साम्प्रदायिकता का बढ़ता जहर
25.                        अपराध और सामाजिक बुराइयों का गौरवीकरण
26.                        अपराधी पर समयपूर्व निर्णय की अधीरता (मीडिया ट्रायल)
27.                        प्रतिपक्ष के तर्कों व दलीलों की उपेक्षा
28.                        संपादक के नाम पत्र में गंभीरता का अभाव
29.                        अनावश्यक प्रचार से वचाव
30.                        विज्ञापन के साय में आजादी खोती पत्रकारिता
31.                        संपादकीय गरिमा का ह्रास
भारतीय पत्रकारिता की उपरोक्त नकारात्मक प्रवृतियां आज लगभग 16 वर्षों के बाद और गंभीर रुप ले चुकी हैं। जिसमें पेड न्यूज जैसे घुन के साथ पत्रकारिता एक विकाऊ पेशा तक बन चुकी है। कॉर्पोरेट घरानों, राजनैतिक दलों व राष्ट्रविरोधी शक्तियों के हस्तक्षेप खुलकर काम कर रहे हैं। टेक्नोलॉजी के विकास के साथ आपसी प्रतिस्पर्धा भी अपने चरम पर है, लाभ कमाने के लिए तमाम हठकंडे अपनाए जा रहे हैं। पत्रकारिता का गिरता स्तर ऐसे में चिंता का विषय है।

कन्वर्जेंस के वर्तमान दौर में टीवी पत्रकारिता अपनी विश्वसनीयता के संकट के सबसे गंभीर दौर से गुजर रही है। सुबह ग्रह-नक्षत्र-भाग्यफल, दोपहर को फिल्मी दुनियाँ की चटपटी गपशप और शाम के प्राईम टाईम की ब्रेकिंग न्यूज और निष्कर्षहीन कानफोड़ू बहसवाजी, रात को भूतप्रेत, नाग नागिन, बिगबोस का हंगामा – यह टीवी की दुनियाँ की एक मोटी सी तस्वीर है, जिसके चलते टीवी माध्यम के प्रति गंभीर दर्शकों का मोहभंग हो चला है। आश्चर्य यह है कि इस सबके बीच भी इन कार्यक्रमों की टीआरपी बर्करार है, जो विचारणीय है। कुछ ही चैनल अपनी गंभीरता और विश्वसनीयता को बनाए हुए हैं, व्यापक स्तर पर स्थिति चिंताजनक है। कंटेंट आधारित पत्रकारिता के संदर्भ में टीवी माध्यम व्यापक स्तर पर अकाल के दौर से गुजर रहा है कहें तो अतिश्योक्ति न होगी।

वेब मीडिया अपने लोकताँत्रिक स्वरुप, इंटरएक्टिवनेस के कारण लोकप्रिय हो चुका है। लेकिन बच्चों से लेकर बुजुर्ग, किशोर से लेकर युवा एवं प्रौढ़ इसकी लत के शिकार होते जा रहे हैं। इससे एडिक्ट मनोरोगियों की संख्या बढ़ रही है। इसके साथ इंफोर्मेशन बम्बार्डमेंट के युग में ईंफोर्मेशन ऑवरलोड़ की समस्या बनी हुई है और फर्जी सूचना (फेक न्यूज) का संकट एक नई चुनौती बनकर सामने खड़ा है। इस वर्ष फेक न्यूज सबसे प्रचलित शब्द रहा है। आम उपभोक्ता के लिए इससे आ रही सूचनाओं का रचनात्मक उपयोग कठिन ही नहीं दुष्कर हो चला है।
उपरोक्त वर्णित सीमाओं के बावजूद तुलनात्मक रुप में प्रिंट मीडिया की साख बनी हुई है, लेकिन धीरे-धीरे यह माध्यम इंटरनेट में समा रहा है। हालांकि भारत में अगले 2-3 दशकों तक इसका अस्तित्व बना रहेगा, ऐसा विशेषज्ञों का मानना है। और सभी माध्यमों (रेडिया, टीवी, फिल्म, अखबार, मैगजीन) के इंटरनेट में समाने से वेब मीडिया भविष्य का माध्यम बनना तय है।

नैतिक उत्थान, राष्ट्र निर्माण एवं आधुनिक पत्रकारिता
अपनी व्यावसायिक मजबूरियों के चलते उद्योग बन चुकी मुख्यधारा की पत्रकारिता की सीमाएं समझी जा सकती हैं। हालांकि इसके बीच भी संभावनाएं शेष हैं। मीडिया में चल रहे सकारात्मक प्रयोग आशा की किरण की भांति आशान्वित करते हैं। पॉजिटिव स्टोरीज हालांकि अंदर के पन्नों में किन्हीं कौनों तक सिमटी मिलती हैं, लेकिन इनकी संख्या बढ़ रही है। दैनिक भास्कर हर सोमवार फ्रंट पेज में सिर्फ पाजिटिव न्यूज को दे रहा है, जो अनुकरणीय है। अमर उजाला में नित्य सम्पादकीय पृष्ठ पर सकारात्मक सक्सेस स्टोरीज पर आधारित मंजिलें ओर भी हैं तथा अंतर्ध्वनि जैसे स्तम्भ पाठकों को नित्य प्रेरक डोज देने वाले सराहनीय प्रयास हैं। ऐसे ही सकारात्मक प्रयास बाकि अखबारों में भी यदा कदा अंदर के पृष्ठों पर प्रकाशित हो रहे हैं।

किसानों को लेकर दूरदर्शन के किसान चैनल जैसी पहल अपनी तमाम कमियों के बावजूद सराहनीय है। प्राइवेट चैनल दिन भर की ब्रेकिंग न्यूज के बीच कुछ पल आम जनता को कवर करते हुए किसान, गरीब, पिछड़े व वेसहारा तबके की सुध-बुध ले सकते हैं। प्रेरक सक्सेस स्टोरीज से दर्शकों का उत्साहबर्धन एवं स्वस्थ मनोरंजन कर सकते हैं।
वेब मीडिया अपने अतिवादी स्वरुप के साथ तमाम खामियों के बावजूद अल्लादीन के चिराग की तरह है, जिसमें खोजने पर नाना प्रकार के सकारात्मक प्रयोग खोजे जा सकते हैं।

एक बात और गौरतलब है कि हर जन माध्यमों में आध्यात्मिक कंटेट की मात्रा बढ़ती जा रही है, जिसके साथ मीडिया में पॉजिटिव स्पेस बढ़ता जा रहा है। अखबारों में नित्य स्तम्भ छप रहे हैं, साप्ताहिक परिशिष्ट आ रहे हैं,  टीवी में आध्यात्मिक चैनलों की संख्या बढ़ी-चढ़ी है तथा इंटरनेट में ऐसी प्रेरक सामग्री की भरमार है। इनकी गुणवत्ता को लेकर सबाल उठ सकते हैं, लेकिन एक शुरुआत हो चुकी है, जो समाज के नैतिक विकास एवं राष्ट्र निर्माण के संदर्भ में महत्वपूर्ण है। 
बनें समाधान का हिस्सा, निभाएं अपनी भूमिका
व्यावसायिकरण के दौर से गुजर रही भारतीय पत्रकारिता की उपरोक्त वर्णित तमाम खामियों के वावजूद इसकी लोकतंत्र के चतुर्थ स्तम्भ के रुप में भूमिका को नजरंदाज नहीं किया जा सकता। इसकी प्रोफेशनल सीमाओं के बीच समाधान बहुत कुछ हमारे आपके हाथ में भी है। मीडिया कन्वर्जेंस की ओर बढ़ रहे जमाने में नियंत्रण हमारे हाथ में है। जो टीवी सीरियल, टीवी कार्यक्रम या चैनल ठीक नहीं है, उन्हें न देखना हमारे आपके हाथ में है, रिमोट से उन्हें बंद कर सकते हैं। मिलजुल कर यदि हम यह करते हैं, तो उसकी टीआरपी गिरते ही इनका गंदा एवं कुत्सित खेल खुद व खुद खत्म हो जाएगा। यदि ऐसा नहीं हो रहा है तो फिर हम ऐसे कार्यक्रमों को झेलने की नियति से नहीं बच सकते।
फिर, मोबाईल हमारे हाथ में है, हम क्या मेसेज भेजते हैं, क्या देखते हैं, क्या फोर्बाड करते हैं, कितनी देर मोबाईल से चिपके रहते हैं, कितना इससे दूर रहते हैं - सबकुछ हमारे हाथ में है। सोशल मीडिया के युग में हम सब इसके उपभोक्ता के साथ एक संचारक की भूमिका में भी हैं, ऐसे में हम अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकते। अब ये दारोमदार हम आप पर है कि हम सोशल मीडिया का प्रयोग मालिक की तरह करते हैं या इसके गुलाम बन कर रह जाते हैं।

यहाँ एक जिम्मेदार मीडिया संचारक के रुप में हम एक नागरिक पत्रकार की भूमिका में अपना योगदान दे सकते हैं। यदि हमें कोई समाधान सूझता हो तो उसे किसी फोटो, मैसेज, कविता, ब्लोग पोस्ट, लेख, फीचर या वीडियो आदि के माध्यम से उपयुक्त प्लेटफॉर्म पर शेयर, प्रकाशित एवं अपलोड़ कर सकते हैं। सारा दारोमदार जाग्रत नागरिकों एवं प्रबुद्ध मीडिया उपभोक्ताओं पर है। मात्र मीडिया पर दोषारोपण करने से बात बनने वाली नहीं। 

अंत में यही कहना चाहेंगे कि,
माना चारों ओऱ घुप्प अंधेरा, लेकिन दिया जलाना है कब मना। 

यदि कमरे में अंधेरा हो गया है, तो अंधेरे को कोसने और इसमें लाठी भांजने भर से कुछ होने वाला नहीं। आवश्यकता है तो बस एक दीया भर जलाने की, जिसकी शुरुआत हम स्वयं से कर सकते हैं, अपने सकारात्मक संचार एवं सार्थक संदेश के माध्यम से।

(डीएवी यूनिवर्सिटी, जालन्धर, राष्ट्रीय प्रेस डे, 16 नबम्वर, 2017 के अवसर पर दिए गए उद्बोधन का सार अंश।)

बुधवार, 29 नवंबर 2017

मेरा गाँव मेरा देश - हिमालय की गोद में बचपन की यादों को कुरेदती एक यात्रा

कुल्लू से रायसन वाया व्यासर-माछिंग

बादलों के संग कुल्लू-मानाली घाटी का मनोरम दृश्य

2011 के नवम्बर माह में सर्दी का दौर शुरु हो चुका था। कितने वसन्त विताए होंगे, सामने पश्चिम की ओर की घाटी को घर से निहारते हुए। पर्वत शिखरों पर सुबह का स्वर्णिम सूर्योदय, फिर धीरे-धीरे धूप का पहाड़ की चोटी से घाटी में नीचे उतरना, घरों में लगे सीसों से टकराकर झिलमिलाना। फिर नीचे ब्यास नदी को छूकर हमारी घाटी में प्रवेश और धीरे-धीरे खेत-खलियान, बगीचों से होते हुए सूर्योदय का आलौकिक नजारा। पूर्व की ओर से पहाड़ियों के शिखर पर आसमान को छूते देवदार के वृक्षों के पीछे से सूर्य भगवान का प्रकट होकर पूरी घाटी को अपने आगोश में लेना।

सामने पहाड़ की गोद में बसी घाटी को बचपन से निहारते आए थे, हर मौसम में इसके अलग-अलग रुप-रंग, मिजाज व स्वरुप को देख चुके थे, लेकिन सब दूर से, घाटी के इस ओर से। चाहते हुए भी संयोग नहीं बन पाया था उस पार जाने का। मन था कि कभी उस पार गाँवों को पार करते हुए उस पहाड़ी के शिखर तक जाएंगे, वहाँ से चारों ओर क्या नजारा रहता है, इस रहस्य को निहारेंगे। लेकिन यह सब खुआब ही बना रहा। तब उस पार के लिए कोई पक्की सड़क थी नहीं, जहाँ से होकर किसी वाहन से होकर आसानी से वहाँ घूमकर आया जा सके। उस पार के गाँवों (माछिंग, बवेली, बनोगी, नलहाच) से बच्चे हमारे गाँव के मिडल स्कूल में पढ़ने आते थे। वे पहाड़ों व नदियों को लाँघते हुए रोज पैदल ही यहाँ आते और बापिस घर जाते।

हिमाच्छादित घाटी से उतरता सूर्योदय

लेकिन आज लगभग तीन दशकों के बाद स्थिति पूरी तरह से पलट चुकी है। आज उस पार घाटी में पहाड़ों को आर-पार चीरते हुए सड़क बन चुकी हैं। कुल्लु से रायसन तक वाया माछिंग-व्यासर इसका मुख्य लिंक रोड़ है। आज इसी घाटी को एक्सप्लोअर करने का मन था, भाईयों के साथ। वाहन की व्यवस्था हो चुकी थी। बचपन की चिरआकाँक्षित इच्छा पूरा होने वाली थी कि उस पार की घाटी व पहाड़ों के नजदीक से अवलोकन का तथा यह जानने का कि वहाँ से हमारा गाँव व घाटी कैसी दिखती है।

घर से यात्रा शुरु होती है, पहले लुग्डीभट्टी से होकर रामशीला, कुल्लू वाइपास पहुँचते हैं। मुख्य मार्ग से भेखली मार्ग पर चल पड़ते हैं। जैसे-जैसे जलेबी सड़क पर आगे बढ़ते हैं, ऊपर चढ़ते हैं, बैसे बैसे नीचे कुल्लू-अखाड़ा बाजार का तथा उस पार खराहल घाटी का विहंगम नजारा निखरता जाता है। 

ब्यास नदी के संग खराहल घाटी कुल्लू का नजारा

कुछ ही देर में हम भेखली गाँव के नीचे से गुजरते हैं, यहाँ कन्या रुप में भगवती का रुप भेखली माता प्रतिष्ठित हैं, मालूम हो कि भेखली माता का कुल्लू के दशहरे के साथ रोचक सम्बन्ध है। भगवती की ओर से आदेश मिलने के बाद ही दशहरे का आगाज होता है। भेखली धारा से पंचम स्वरों में घोषणा होती है, ईशारा किया जाता है, जिसे पाकर फिर सुलतानपुर से रघुनाथजी की यात्रा शुरु होती है और ढालपुर मैदान में रथ यात्रा के साथ कुल्लू के दशहरे का शुभारम्भ होता है।
 
भेखली गाँव की राह में

भगवती को दूर से ही अपना भाव निवेदन करते हुए हम यहाँ से आगे बढ़ते हैं, अब यात्रा कोंगती गाँव को पार करते हुए उत्तर की ओर कुछ चढ़ाईदार सड़क के संग आगे बढ़ रही थी। रास्ते में देवदार के घने जंगल से प्रवेश होता है। रास्ते में स्कूल के बच्चे मिलते हैं, जो पैदल अपने घरों की ओर बढ़ रहे थे। इनको देखकर अपने बचपने के दिनों की याद आना स्वाभाविक थी। रास्ते में बनोगी और नलहाच गाँवों की झलक मिलना शुरु हो गई थी। इनके पास साथ ही पहाड़ियों के ऊपर जड़े टावर भी, जो हमारे गाँव के ठीक सामने पड़ते हैं। 

पहाड़ की गोद में बसे बनोगी-नलहाच गाँव की ओर

कुछ ही मिनटों में हम गाँव के बीच से गुजर रहे थे। यहाँ पारम्परिक लकड़ी के घर अधिक दिखे, साथ ही खेतों में मक्का की फसल अपने अंतिम चरणों में थी। कुछ छत्तों पर मक्की के लालिमा लिए भुट्टे सूख रहे थे। मालूम हो कि यहाँ इनको स्लेट की छत पर कई दिनों तक धूप में सुखाया जाता है और फिर सूखने पर भारी लट्ठों के सहारे इनकी मंडाई की जाती है, जिससे बीज अलग हो जाते हैं, जिन्हें फिर बोरी में एकत्र किया जाता है और पारम्परिक रुप में घराटों (पानी से चलने वाली पहाड़ी चक्की) में इनका आटा तैयार किया जाता था, जबकि आज बिजली से चलने वाली चक्कियों में आटा पीसा जाता है। 

छत पर सूखते मक्की के भुट्टे

किसी जमाने (अस्सी के दशक) में जब हम कुल्लू के स्कूल में पढने जाया करते थे, तो इस घाटी के मेहनतकश लोग प्रचूर मात्रा में उपलब्ध सूखी लकड़ी तथा घास को वहुतायत में बाजार में बेचा करते थे, आज समय के साथ फल-सब्जी उत्पादन की ओर रुझान तेजी से बढ़ रहा है, हालाँकि इस क्षेत्र में कृषि के पारम्परिक तौर तरीके अभी भी बर्करार दिख रहे थे।

लो हम एक ऐसे बिंदु पर आ गए थे, जहाँ से सामने का नजारा स्पष्ट था। गाड़ी को साइड में रोककर यहाँ से नदी के पार अपने गाँव, घाटी, पहाड़ों का अवलोकन करने के लिए बाहर निकलते हैं। 

सामने ब्यास नदी के संग हिमालयन गाँव-घाटी का विहंगम दृश्य

हमारा रोमाँचित होना स्वाभाविक था सामने के विहंगम दृश्य को देखते हुए, जिसकी गोद में हमारा बचपन और किशोरावस्था बीती थी। नजारे को जीभर कर निहारते रहे, यथासम्भव हर एंग्ल से केप्चर करते रहे। सूर्यास्त का नजारा, घाटी में पीछे की ओर चढ़ते सूरज के साथ अद्भुत लग रहा था।

इस स्थान पर हवा बहुत तेज बह रही थी। कुछ देर तसल्लीबख्श अवलोकन एवं फोटोग्राफी के बाद फिर हम गाड़ी में बैठकर आगे चल देते हैं। घाटी के नाले को पार कर जंदोउड़ गाँवों से होकर गुजरते हैं। यहाँ भी विकास की व्यार के स्पष्ट दर्शन हो रहे थे। सड़क के दोनों ओर सेब के बगीचे तैयार हो रहे थे, हालाँकि अभी ये प्रारम्भिक अवस्था में थे। गाँव तक बिजली, पानी, स्कूल व सड़कों की बुनियादी सुबिधाएं पहुँचने के साथ निश्चित रुप में लोगों के जीवन स्तर में इजाफा होता दिख रहा था। आज समय अधिक नहीं था कि किसी ढावे पर बैठकर या गाँववासियों से इस बारे में कुछ गुप्तगुह व चर्चा की जाए।

सामने शिखर की गोद में बसा व्यासर गाँव

 अब हमारा प्रवेश पहाड़ के पीछे एक नई घाटी के व्यासर गाँव में हो रहा था, जो हमारे गाँव से नहीं दिखता है, बस चर्चा में अपने बुजुर्गों से इसकी बातें सुनते रहे थे। क्योंकि पहाडों की ओट में छिपे इस गाँव में बादल पहाडियों में घिर जाते हैं और बरसकर ही बाहर निकल पाते हैं। अतः यहाँ खूब बारिश होती है, ऊँचाई भी ठीक-ठाक है। कुल्लू-नग्गर सड़क पर काईस गाँव की ओर अपने खेतों से तो इसकी हल्की सा झलक कई बार पा चुके थे, लेकिन नजदीक से इसको आज पहली बार देख रहे थे। प्रवेश करते ही सड़क के ऊपर नीचे सेब के बाग दिखे। शाम हो रही थी, अतः बहुत रुकने का समय नहीं था, लेकिन गाँव का विहंगम अवलोकन करते हुए हम पार हो जाते हैं, जहां से उस पार पीछे की ओर खराहल खाटी के सहित बिजली महादेव की झलक मिल रही थी।

कुल्लू घाटी के शिखर पर बिजली महादेव के दूरदर्शन

मालूम हो की इस घाटी एवं फाटी में सितम्बर माह में फुंगली का मेला हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है, जब लगभग हर गाँव के लोग इसमें भाग लेते हैं। इसके तहत गाँवों के पीछे शिखर पर बसे बुग्यालों का पैदल आरोहण होता है, ट्रैकिंग की जाती है। और शिखर पर स्थित भुंगली माता को भेंट व श्रद्धाँजलि दी जाती है। फुंगली चोटी का ट्रैकिंग रुट अद्भुत दृश्यावलियों से भरा हुआ है, जिसे प्रकृति प्रेमी घुमक्कड़ ट्रैक करते रहते हैं।

व्यासर गाँव के वायीं और पहाड़ में एक स्पाट चट्टान है, जो हमारे गाँव से दिखती है, माना जाता है, जिसको महाभारत कालीन पाण्डवों के अज्ञातवास से जोड़कर देखा जाता है। माना जाता है कि पाण्डव यहाँ से गुजरे थे। इसके थोड़ा आगे एक व्यू प्वाइंट पर हम फिर रुकते हैं। यहाँ पर ढलती शाम के संग घाटी के कुछ यादगार फोटो लेते हैं। अब यहाँ से सामने काईस, सोईल, राऊगी नाला आदि गाँव दर्शनीय थे और ऊपर की ओर नग्गर, कटराईं, बड़ाग्राँ तथा अप्पर बैली के पहाड़। 

 कुल्लू-मानाली, अप्पर वैली का विहंगम दृश्य

रास्ते में ही हमें हिमाचल पथ परिवहन की एक लोकल बस मिली, जो इस रुट पर अपनी सेवा दे रही थी। यह संभवतः इसकी दिन की अंतिम पारी थी।

आगे फिर घने जंगलों और सेब के बगानों के बीच हमारा सफर पूरा होता है। रास्ते में जल्लोहरा गाँव को पार करते हुए आगे, शील्ड गाँव के सामने से गुजरते हैं, जहाँ रामगढ़िया के सेब के विशाल बागान मिलते हैं। मालूम हो कि बागवानी इस क्षेत्र में आर्थिकी का एक प्रमुख आधार है, जिसे प्रगतिशील एवं पढ़े-लिखे बागवानों ने समय रहते अपनी पहल के आधार पर अपनाया। यह बगीचा इसी का एक उदाहरण है। रास्ते में हमें अंधेरा हो चुका था। इसी को चीरते हुए हम नीचे मुख्य मार्ग में रायसन पहुँचते हैं, यहाँ पुल पार कर लेफ्ट बैंक से होते हुए काईस को पार करते हुए अपने गाँव में प्रवेश करते हैं।

पूरी यात्रा के साथ हमारे मन में बचपन से जेहेन को कुरेदती कई जिज्ञासाओं तथा कौतुहलों के समाधान मिल गए थे। इस क्षेत्र का नक्शा भी काफी साफ हो चुका था। साथ ही आगे के लिए कुछ नई यात्राओं का आधार भी तैयार हो गया था। शायद यात्राओं का उद्देश्य कुछ ऐसा ही रहता है, जो हमें कुछ शिक्षित करती हैं, कुछ आनंदित करती हैं, कुछ हमारे ज्ञान के दायरे को बढ़ाती हैं तथा स्मृति कोश में कुछ सुखद अनुभवों को जोड़कर जीवन को समृद्ध करती हैं।
 
हिमालय शिखरों पर सूर्यास्त, देवभूमि कुल्लू घाटी

सोमवार, 20 नवंबर 2017

पुस्तक सार, समीक्षा - वाल्डेन


प्रकृति की गोद में जीवन का अभूतपूर्व दर्शन

वाल्डेन, अमेरिकी दार्शनिक, विचारक एवं आदर्श पुरुष हेनरी डेविड़ थोरो की कालजयी रचना है। मेसाच्यूटस नगर के समीप काँकार्ड पहाड़ियों की गोद में स्थित वाल्डेन झील के किनारे रची गयी यह कालजयी रचना अपने आप में अनुपम है, बैजोड़ है। प्रकृति की गोद में रचा गया यह सृजन देश, काल, भाषा और युग की सीमाओं के पार एक ऐसा शाश्वत संदेश  लिए है, जो आज भी उतना ही ताजा और प्रासांगिक है।
ज्ञात हो कि थोरो दार्शनिक के साथ राजनैतिक विचारक, प्रकृतिविद और गुह्यवादी समाजसुधारक भी थे। महात्मा गाँधी ने इनके सिविल डिसओविडियेंस (असहयोग आंदोलन) के सिद्धान्त को स्वतंत्रता संघर्ष का अस्त्र बनाया था। यह थोरो का विद्रोही स्वभाव और प्रकृति प्रेम ही था कि वे जीवन का अर्थ खोजते-खोजते एक कुटिया बनाकर वाल्डेन सरोवर के किनारे वस गए। 
 थोरो के शब्दों में, मैने वन-प्रवास आरम्भ किया, क्योंकि मैं विमर्शपूर्वक जीवन व्यतीत करना चाहता था, जीवन के सारभूत तथ्यों का ही सामना करना चाहता था, क्योंकि मैं देखना चाहता था कि जीवन जो कुछ सिखाता है, उसे सीख सकता हूँ या नहीं। मैं यह भी नहीं चाहता था कि जीवन की संध्या वेला में मुझे पता चले कि अरे, मैंने तो जीवन को जीया ही नहीं। मैं तो गहरे में उतरना चाहता था।
इस उद्देश्य पूर्ति हेतु थोरो मार्च 1845 के वसन्त में वाल्डेन झील के किनारे पहुँच जाते हैं, और अपनी कुटिया बनाते हैं। चीड़ के वन से ढके पहाड़ी ढाल पर अत्यन्त मनोरम स्थान पर वे काम करते, जहाँ से झील का नजारा सहज ही उन्हें तरोताजा करता। झोंपड़ी के आस-पास की दो-ढाई एकड़ जमीन में बीन्स, आलू, मक्का, मटर, शलजम आदि उगाते हैं।

इस वन प्रवास में जंगली जीव उनके साथी सहचर होते। इस निर्जन स्थल पर प्रकृति की गोद में थोरो जीवन के सर्वोत्तम क्षण महसूस करते। जब वसन्त ऋतु या पतझड़ में मेह के लम्बे दौर के कारण दोपहर से शाम तक घर में कैद रहना पड़ता, तो ये थोरो के लिए सबसे आनन्दप्रद क्षण होते। एकांत प्रिय थोरो के अनुसार, साधारणतय संग-साथ बहुत सस्ते किस्म का होता है। हम एक-दूसरे से जल्दी-जल्दी मिलते रहते हैं, इसलिए एक-दूसरे के लिए कोई नई चीज सुलभ करने का मौका ही नहीं मिलता।...कम बार मिलने पर ही हमारी सबसे महत्वपूर्ण और हार्दिक बातचीत हो सकती है।
थोरो की दिनचर्या उषाकाल में शुरु होती। प्रातःकाल की शुद्ध वायु को थोरो सब रोगों की महाऔषधि मानते। अगस्त माह में जब हवा औऱ मेंह दोनों थम जाते और मेघों वाले आकाश के नीचे तीसरे पहर की नीरवता छा जाती तथा पक्षियों का संगीत इस किनारे से उस किनारे तक गूँज उठता, उस समय सरोवर का सान्निध्य सबसे मूल्यवान लगता।

कृषि को थोरो एक पावन कर्म मानते थे। थोरो सुबह पाँच बजे उठकर कुदाली लेकर जाते, दोपहर तक खेत की निंढाई-गुढ़ाई करते और दिन का शेष भाग दूसरे काम में गुजारते। थोरो सादा जीवन, उच्च विचार के हिमायती रहे। उनका वन प्रवास इसका पर्याय था। थोरो के शब्दों में - सैंकड़ों-हजारों कामों में उलझने के बजाय दो-तीन काम हाथ में ले लीजिए। अपने जीवन को सरल बनाइए, सरल। समूचे राष्ट्र की हालत, समुचित ध्येय के बिना दुर्दशाग्रस्त है। इसका एक ही इलाज है - सुदृढ़ अर्थव्यवस्था, जीवन की कठोर सादगी और ऊँचा लक्ष्य। इसके बिना अभी तो मानव बर्बादी के रास्ते पर चल रहा है।
थोरो जंगल प्रवास में हर पल जी भरकर जीए तथा इसी का वे संदेश देते हैं। उनके अनुसार - लोग समझते हैं कि सत्य कोई बहुत दूर की, दूसरे छोर की, दूर तारे के उस पार की । जबकि ये स्थान, काल, अवसर आदि सभी यहीं पर हैं, अभी इसी क्षण हैं। स्वयं ईश्वर का महानतम रुप वर्तमान में ही प्रकट होता है।...हम अपना एक दिन प्रकृति के समान संकल्पपूर्वक बिताकर तो देखें और छोटी-मोटी बाधा से पथ-भ्रष्ट न हों। प्रातः जल्दी उठें और शांत भाव से व्रत रखें। हम यथार्थ की ठोस चट्टानी जमीन पर नींव डालकर स्थिर होकर खड़े होकर तो देखें। जीवन का अर्थ बदल जाएगा। थोरो इस तरह प्रयासपूर्वक अपने जीवन का उत्थान करने की संशयहीन क्षमता को सबसे उत्साहबर्धक चीज मानते थे।

जीवन के सचेतन विकास के लिए थोरो स्वाध्याय पर विशेष बल देते और स्वयं भी ग्रंथों के संग समूचे आध्यात्मिक जगत की यात्रा का लाभ लेते। उनके अनुसार, क्लासिक ग्रन्थ मानव की श्रेष्ठतम संग्रहित विचार पूंजी हैं, इनमें देववाणी निहित है और इनका अध्ययन एक कला है। इनसे कुछ सीखने के लिए हमें पंजों के बल खड़ा होना पड़ता है, जीवन के सबसे जागरुक और सतर्कतम क्षण अर्पित करने होते हैं। थोरो का वन प्रवास बहुत कुछ इसी का पर्याय रहा।
वे नित्य भगवद्गीता के विराट विश्वोत्पत्ति सम्बन्धी दर्शन का अवगाहन करते। उनके शब्दों में, इसके सामने हमारा आधुनिक संसार औऱ साहित्य अत्यन्त तुच्छ और महत्वहीन लगता है। इसकी विराटत्व हमारी कल्पना की अवधारणाओं से भी परे का है। इसके परायण के साथ थोरो वाल्डेन औऱ गंगा के पवित्र जल को आपस में मिलता देखते।

शाकाहर के पक्षधर - विगत सालों में मैंने अनेक बार महसूस किया है कि मैं जब भी मछली मारता हूँ, तो हर बार थोडा-सा आत्म-सम्मान घट जाता है। हर बार मछली मारने के बाद अनुभव किया है कि यदि मैंने यह न किया होता तो अच्छा होता।...मेरा विश्वास है कि जो भी अपनी श्रेष्ठतर मनोवृतियों को उत्तम अवस्था में सुरक्षित रखने का इच्छुक होता है, वह मांसाहार और किसी भी प्रकार के भोजन से बचने की ओर मुड़ता है। फिर, अधिक खाना तो कीट की लार्वावस्था ही में होता है।
सरोवर के तट पर दो वर्ष, दो माह, दो दिन के बाद थोरो यहाँ से विदा लेकर जीवन के अगले पड़ाव की ओर रुख करते हैं। सरोवर के तट पर प्रकृति की गोद में विताए अनमोल पलों को वाल्डेन के रुप में एक कालजयी रचना भावी पीढ़ी को दे जाते हैं, जिसका अवगाहन आज भी सुधि पाठकों को तरोताजा कर देता है।

चुनींदी पोस्ट

प्रबुद्ध शिक्षक, जाग्रत आचार्य

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