तैयारी पूरी हो तो सर्दी से अधिक रोमाँचक कुछ नहीं
सर्दी का मौसम आ चला। जैसे ही पहाड़ों में बारिश क्या हुई, पर्वत शिखरों ने
बर्फ की हल्की सी चादर ओढ़ ली और सर्दी ने दरबाजे पर दस्तक दे दी। जीवन के असली
आनन्द का मौसम आ गया। हालाँकि शीत लहर के चलते देश-दुनियाँ में होने वाले नुक्सान के साथ
पूरी संवेदना व्यक्त करते हुए कहना चाहूँगा कि यदि सर्दी का इंतजाम पूरा हो तो
इससे अधिक रोमाँचक और सुखद शायद ही कोई दूसरा मौसम हो। पतझड़ के साथ आते शिशिर ऋतु
के अपने ही रंग हैं, ढंग हैं, मजे हैं और अपने ही आनन्द हैं, जिनको अपने बचपन की
यादों के समृद्ध स्मृति कोश से बाहर निकालकर गुदगुदाने की अपनी ही मौज है। अपने
बचपन के घर से दूर, बहुत दूर, फुर्सत के पलों में हम इतना तो कर ही सकते हैं।
दशहरा आते ही हमारे गाँव में सर्दी की शुरुआत हो जाती थी, क्योंकि हम
ऊनी कोट पहनकर दशहरे के कलाकेंद्र में रात्रिकालीन प्रोग्राम देखने जाया करते थे।
दशहरे के ठीक 20 दिन बाद दिवाली तक ठंड़ की मार ठीक ठाक अनुभव होती थी, जिसका
स्वागत हम खेतों में तिल के सुखे गट्ठों को जलाकर किया करते थे।
सर्दी की तैयारियाँ समय से पहले ही शुरु हो जाती थी। खेतों में सूखे
पेड़ों के तने, जड़ों व ठूँठों पर कुल्हाड़ी से फाड़ कर इन्हें बटोरते। और मजबूत
लकड़ी के लिए जंगल की ओर रुक्सत करते। बोन(बाँज) की सूखी लकडियों सबसे मजबूत मानी जाती
थी, जिनसे ऊमदा किस्म का कोयला तैयार होता था। इसके साथ कोऊश (अतीश) की लकड़ी आसानी से कट
जाती थी। सुबह भौर होते ही किल्टा और कुल्हाड़ी लेकर हम परिवार के बड़े-बुजुर्गों व
भाईयों के संग जंगल जाया करते। सूर्योंदय तक घर बापिस हो जाते। इसके साथ
युवाओं की टोली बीहड़ बन की गहराईयों में सूखे चील-देवदार-कैल आदि के सीधे, सूखे
तनों को गेल(लम्बे लट्ठे) बनाकर इनको कुंदे व रस्सी में बाँधकर दरघीश (लट्ठों को घसीटने का बना मार्ग) से
होकर घसीटकर घर तक लाते। ग्रामीण युवाओं के बीच इसका एक अलग ही रोमाँच रहता।
जैसे-जैसे हम पहाड़ी में ऊपर चढ़ते, घर-गाँव की छतों पर छाया धुआँ
घरों में जल रहे चूल्हों व पक रहे भोजन की चुग्ली करता। यह धुआँ लोकजीवन का सहज
हिस्सा था, जिसका आज के दमघोंटू प्रदूषण से कोई वास्ता नहीं था। घर में सुलग रहे तंदूर
में लकड़ी के टुकडों का हवन होता। इनके सुलगते टुकड़ों की गर्मी तंदूर की चादर से विकरित
होकर कमरे के हर कौने को गर्म रखती। तंदूर पर पानी का बर्तन गर्म होता रहता, जिससे
बीच-बीच में हॉट ड्रिंक की व्यवस्था होती रहती। गैंहू, मक्का, सोयावीन की धाणा (पॉपकोर्न)
भूनना ऐसे में प्रिय शग्ल रहता। इसे गुड़ व अखरोट के साथ खाने का अपना ही मजा
रहता। ठंड ज्यादा होती तो, चाय-पकौड़ी का विशेष इंतजाम रहता।
बैसे सेब, प्लम की प्रूनिंग से कटी टहनियाँ देशी चूल्हे के लिए आदर्श
ईँधन रहतीं। इसके साथ कोहू, बोन(बाँज) जैसी हरि पत्ती वाली लकड़ियाँ भेड़-बकरियाँ
के चरने के बाद आँगन के किनारों पर सूखने के लिए ढेर लगाकर रखी जाती। खुले चूल्हे
के लिए ये बेहतरीन ईँधन साबित होती।
सर्दी का असली नजारा बर्फवारी के साथ शुरु होता। तापमान जमाब बिंदु के
आसपास आ गिरता। पहाड़ियों व सामने के ऊँचाई पर बसे गाँव तक बफ गिरने के साथ घाटी
का नजारा कुछ ओर रहता। सुबह हिमाच्छाति ध्वल शिखर से स्वर्णिम सूर्योदय सदैव दिव्य
भाव झंकृत करता। घर-गाँव में बर्फ गिरने पर तो जीवन तंदूर के ईर्द-गिर्द सिमट जाता,
क्योंकि बाहर कोई खास काम नहीं रहता। लोकजीवन इन पलों में जैसे ठहर सा जाता, कमरों
तक सीमित हो जाता। बड़े बुजुर्गों से कथा कहानी सुनना, पहेली बुझाना ऐसे में
पसंदीदा टाइमपास काम रहते। बच्चों की आपसी उछल-कूद के साथ घर में भेड़-बकरी के मेंमनों
के बाढ़े में घुसकर उनके बीच खेलना रुचिकर काम रहते। (उस बक्त कैमरा एक दुर्लभ यंत्र था, अतः किन्हीं फोटो के साथ अनुभव शेयर करना संभव नहीं)
आंगन में पत्थर के ऊखलों में पानी की मोटी परत जमी रहती, जिनके
शुभ दर्शन सुबह-सुबह होते। रास्ते में पानी के स्रोतों के पास बर्फ की मोटी परतों
को डंडे या पत्थरों से तोड़कर सीसे के आकार के टुकडों से खेलते। घास पर औंस की
जमीं बूंदें राह में स्वागत करती। पूरा खेत जैसे पाले की एक हल्की सफेद चादर ओढ़े
दिखता। ठंड के चर्म पर पानी के नल जम जाते। रात को इनसे झरती पानी की बूंदें सुई
का रुप लेकर नल से लटकती दिखती। जैसे ही सूर्योदय होता, जमी बर्फ की परत पिघलना
शुरु होती। पूरे खेत व रास्ते में कीचड-कीचड़ हो जाता।
परीक्षा के दिनों में तंदूर से हटकर बाहर बरामदे में ठंड़ में पढ़ने
का ऱोमाँच कुछ ओर ही रहता। दिन को छत पर धूप में बैठकर खेत व वादी का विहंगावलोकन
करते हुए पढ़ना एक अलग ही अनुभव था। दोपहर शाम को खेत में किसी चट्टान या मखमली
घास पर आसन जमाकर एकांत में अध्ययन का अपना ही आनन्द रहता।
धान की पुआल से माँदरी (चटाई) बनने की कबायत चलती। गाँव के हर घर में प्रायः महिलाओं को दिन की धूप में इसको बुनते व्यस्त देखा जा सकता था। घर के एक कौने में बने हथकरघे में पट्टू व ऊनी कम्बल
तैयार होते। फुर्सत के समय में महिलाएं ऊन की जुरावें, दस्ताने व स्वाटर बुनने में मश्गूल रहती। तब
घर में भेड़-बकरियाँ बहुतायत में थी, ऐसे में बुजुर्गों को इनकी ऊन को तकली से
कातते देखते, जो आज किन्हीं बिरले घरों तक सीमित हैं।
घर की छत्तों पर रंग-विरंगे कद्दू सूखने के लिए रखे होते, जो अपना ही
रंग बिखेरते - लाल, हरे, पीले व भूरे। जापानी फल के पीले पत्ते वाले पेड़ बहुत सुंदर
लगते। इसी तरह खनोर(चेस्टनेट) के बड़े-बड़े पेड़ पीले आच्छादन के साथ अपना रंग
बिखेरते।
ठंड में धूप का अलग ही आनन्द रहता। सुबह की ठंड में अकड़ी नस-नाडियाँ
जैसे बाहर आंगन में धूप सेकते ही खुल जाती, चैतन्य हो उठती। इसके साथ गाँव का नाला
व ब्यास नदी का निर्मल जल हिमालयन टच लिए रहते। ब्यास नदी के किनारे बिहाल (विहार) में अतीश
के सूखे पत्ते बटोरने का क्रम खूब चलता। सुबह व शाम को गाँव की महिलाओं व बच्चों
को किल्टों में बटोरकर इनकी पुआली को ले जाते देख सकते थे। नदी के किनारे कूल्हों(पानी की छिछली धार)
में मछली पकड़ने का खेल खूब चलता। बच के दलदल में बनमुर्गी को पकड़ने की कसरत,
अपने पसंदीदा खेलों में शुमार रहता।
पतझड़ के कारण सेब, अखरोट, खुमानी से लेकर अतीश के पेड़ अस्थि पंजर से
खड़े दिखते। इनकी विरलता के बीच गाँव, घाटी पर ब्यास नदी के उसपार आईटीबीपी कैंप
का नजारा स्पष्ट दिखता। सूखते पीले पत्ते, बगानों को पीले रंग से पोत देते। घाटी
में पीले, हरे व भूरे पैच प्रकृति के कैन्वास पर उस अदृश्य जादूगर की कारीगरी की बेमीसाल
झलक देते और जब आसमान में बादल भी रंग बिरंगे व नाना आकार के उमड़ते-घुमड़ते
दिखते, तो नजारा कुछ ओर ही रहता।
घास के टूहके सूखे मक्का की घास से लदे रहते। इसमें कौओं
द्वारा छुपाए अखरोटों का जखीरा बच्चों को खूब भाता। पेड़ में बचे अखरोट सूखकर खुद
व खुद गिरते रहते, जिनको बटोरना अपने आप में एक सुखद अहसास रहता। जो सूखे अखरोट छिलकों से झांक रहे होते, उन पर पत्थर से निशाना लगाने की होड़ बच्चों में लगी रहती। इसी के बीच फूलों
के नाम नरगिस का फूल अपनी ध्वल फूल पतियों के बीच सोने के कटोरे को समेटे हवा में
मादक सुगन्ध बिखेरने लगता। इसी के साथ शिशिर के समाप्न व बसन्त के शुभ आगमन का
संकेत मिलता। अब पूरी शीतऋतु में तपस्वियों सा वेश धारण किए, शीत निद्रा में सोए
तमाम वृक्ष एवं पेड़-पौधे कलियों में सिमटे पुष्पों के साथ वसन्त के स्वागत के लिए
तैयार होते।