मंगलवार, 17 अक्टूबर 2017

पर्व-त्यौहार - दशहरा कुल्लू का


सांस्कृतिक उल्लास का अनूठा देव-संगम
कुल्लू का दशहरा स्वयं में अनूठा है। हिमाचल प्रदेश का सबसे बड़ा यह उत्सव तब शुरु होता है जब देश के बाकि हिस्सों में दशहरा खत्म होता है। आश्विन नवरात्रि के बाद दशमी के दिन इसके शुभारम्भ के कारण इसे विजय दशमी कहा जाता है, जिसमें भगवान राम द्वारा रावण के संहार, माँ दुर्गा द्वारा महिषासुर के मर्दन के साथ असुरता पर देवत्व, असत्य पर सत्य और अधर्म पर धर्म की जीत का भाव रहता है। हालांकि कुल्लू के दशहरे में रावण को जलाया नहीं जाता, यहाँ का दशहरा भगवान रघुनाथ और घाटी के देवी-देवताओं के समागम के इर्द-गिर्द सिमटा हुआ है, जिसकी अपनी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि – कुल्लू में दशहरे की शुरुआत आज से लगभग साढ़े चार सौ साल पहले यहाँ के राजा जगतसिंह द्वारा 17वीं शताब्दी में (1660) हुई बतायी जाती है। राजा जगतसिंह एक ब्राह्मण के शाप के कारण कुष्ठरोग से पीडित हो गए थे। ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति के लिए उन्हें अयोध्या से रघुनाथ के विग्रह को अपने यहाँ स्थापित करने का आदेश मिलता है, जिसका पालन करते हुए वे सुलतानपुर में भगवान राम की स्थापना करते हैं। सारा राजपाट रघुनाथ के चरणों में अर्पित कर, प्रथम सेवक के रुप में राजकाज चलाते हैं। क्रमशः राजा रोगमुक्त हो जाते हैं। भगवान रघुनाथ को अपनी श्रद्धांजलि स्वरुप कुल्लू में दशहरे का चलन शुरु होता, जिसमें घाटी के लगभग 365 देवी-देवता भगवान रघुनाथ को अपना भावसुमन अर्पित करते हुए सात दिन ढालपुर मैदान के अस्थायी शिविरों में वास करते हैं। पहले दिन रथ यात्रा से अंत में मुहल्ला व लंका दहन के साथ दशहरा सम्पन्न होता है। इस रुप में कुल्लू के दशहरे को सांस्कृतिक-आध्यात्मिक उल्लास का देवसमागम कहें तो अतिश्योक्ति न होगी।
देवसमागम एवं रथ यात्रा पहला दिन – मेले की शुरुआत कुल्लू घाटी से पधारे देवताओं की भगवान रघुनाथ के दरवार में हाजिरी से होती है। लगभग 3 बजे के करीब भगवान रघुनाथ की पालकी कुल्लू नरेश के निवासस्थल सुलतानपुर से चलती है और ढालपुर मैदान के ऊपरी छोर पर रथ में इसे सजाया जाता है। इस स्थल पर घाटी भर से पधार रहे देवी-देवता रंग-बिरंगे फूलों व रेशमी चादरों से सजे रथों में देवलुओं के कंधों पर सवार होकर रघुनाथजी की सभा में शामिल होते हैं। देवताओं के समागम का उत्साह, उनकी हलचलें व देवक्रीडा का अद्भुत दृश्य दर्शकों को रोमाँचित करता है। सुलतानपुर के ऊपर पहाड़ पर विराजमान देवी भेखली माता का ईशारा पाते ही भगवानराम, सीतामाता, हनुमानजी, बिजली महादेव, माँ हिडिम्बा आदि की जयकार के साथ रथ यात्रा शुरु होती है।
राजपुरोहित और छड़ीबरदार राजा की उपस्थिति में काफिला आगे बढ़ता है। दर्शक रथ के रस्सों को हाथ लगाकर धनभाग अनुभव करते हैं तथा रथ को मैदान के दूसरे छोर तक खींचते हैं। भगवान रघुनाथ का रथ देवी-देवताओं के काफिले व दर्शकों के अपार समूह के साथ आगे बढ़ता है। राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर के मीडिया को इस अदभुत दृश्य को कैद करते देखा जा सकता है। दिव्य भावों के साथ आगे बढ़ रहा स्वअनुशासित जनसमूह अपने आप में एक अद्भुत नजारा रहता है। इसी के साथ भगवान रघुनाथ सहित सभी देवी-देवता अपने निर्धारित स्थान पर, अस्थायी शिविरों में स्थापित होकर दशहरे की शोभा बढ़ाते हैं और सात दिन तक विराजमान रहते हैं। 
प्रातः-साँय आरती, देवधुन – प्रातः-सांय देवी-देवताओं की आरती का क्रम चलता है। इनकी देवधूनों के साथ पूरे मैदान व घाटी में सकारात्माक ऊर्जा का संचार होता है, लगता है जैसे आसुरी व नकारात्मक शक्तियाँ यहाँ से तिरोहित हो रही हैं। घाटी भर से आ रहे दर्शनार्थी अपने ईष्ट देवताओं के दर्शन करते हैं और अपनी श्रद्धांजलि व भेंट अर्पित करते हैं। कुछ देवलुओं को दिन में फुर्सत के पलों में नाटी का लुत्फ उठाते देखा जा सकता है, जो उनके उल्लास की सहज अभिव्यक्ति होती है। शाम को रघुनाथ के शिविर में पारंपरिक शैली में रासलीला व अन्य देवनृत्यों का भी मंचन होता है।
ऋतु संधि का उल्लास एवं कृषि-बागवानी प्रदर्शनी – वास्तव में दशहरे का पर्व ऋतु संधि की बेला में मनाया जाता है, जब किसान व बागवान फसल, फल, सब्जी आदि के कृषि कार्यों से लगभग मुक्त हो चुके होते हैं। ऐसे में फसल के पकने का उल्लास भी इस मेले में देखा जा सकता है। घाटी भर के किसान व बागवान अपने फल-सब्जी-अनाज के श्रेष्ठ उत्पादों के साथ आते हैं। कृषि एवं उद्यान विभाग द्वारा आयोजित प्रदर्शनियों में इनकी नुमाईश होती है और बेहतरीन उत्पादों को प्रथम, द्वितीय व तृतीय पुरस्कारों से नवाजा जाता है। किसानों के बेहतरीन उत्पादों का दर्शन एक शैक्षणिक व प्रेरक अनुभव रहता है जो जिज्ञासु दर्शकों का खासा ज्ञानबर्धन करता है। इसी तरह यहाँ तमाम तरह के घरेलु उत्पादों की प्रदर्शनियां लगी होती हैं, जिन्हें वाजिब दामों में खरीदा जा सकता है।
खरीददारी, मार्केट – एक धार्मिक उत्सव के साथ दशहरे का अपना अर्थशास्त्र भी है। कुल्लू लाहौल-स्पिति जैसे उच्च हिमालयी क्षेत्र तथा पंजाब जैसे मैदानी क्षेत्र के बीच का स्थल है। सर्दी में नबम्बर के बाद जनजातीय क्षेत्र भारी बर्फ के कारण यहाँ से कट जाते हैं, इसलिए अपने जरुरत के सामानों की खरीद दशहरे में जमकर होती है। इसी तरह वे अपने यहाँ से तैयार उत्पाद इसमें बेचते हैं। 
आश्चर्य नहीं कि मेले का एक बढ़ा आकर्षण रहती है पूरे ढालपुर मैदान में आर-पार फैली मार्केट, जिसमें सर्दी के कपड़ों से लेकर, पारम्परिक परिधान, महिलाओं के साज-सज्जा के सामान, बच्चों के खिलौने व घर-परिवार व खेत-बागान में उपयोग होने बाले हर तरह के सामान उपलब्ध रहते हैं। कहने की जरुरत नहीं कि इसमें कुल्लबी शाल, टोपी, पट्टू, मफलर, ऊनी जुराबें व अन्य उत्पाद सहज रुप में उपलब्ध रहते हैं। देशभर के कौने-कौने से व्यापारी इसमें पधारते हैं। यहाँ ब्रांडेड क्लाविटी प्रोडक्ट से लेकर क्वाड़ी मार्केट, हर तरह के सामान मिलते हैं। खास बात रहती है इनका वाजिब व सस्ते दामों में उपलब्ध रहना। अनुमान रहा कि इस वर्ष (2017) लगभग 5000 व्यापारी इसमें पधारे थे।
फूड कॉर्नर और देसी जायके – हर मेले की तरह खान-पान की विशेष सुविधा यहाँ रहती है। प्रचलित मिठाइयों से लेकर लंच-डिन्नर की व्यवस्था तो रहती ही है, खान-पान के उभरते नए चलन यहाँ देखे जा सकते हैं, जिसमें देसी जायकों की भरमार खास रहती है। कुल्लू के पारम्परिक व्यंजनों में सिड्डू की लोकप्रियता सबपर भारी दिखी। सिड़्डू कॉर्नर के नाम से तमाम दुकानों के नाम दिखे। इसी तरह मंडी की कचोरी, पंजाब के मक्के दी रोटी व सरसों का साग तथा चाइनीज मोमोज भी इसमें अपना स्वाद घोलते दिखे। नॉन वेज की जगह वेज उत्पादों का बढ़ता चलन मेले की देवपरम्परा को पुष्ट करता प्रतीत हुआ।
कलाकेंद्र – घाटी की शान स्व. लालचंद प्रार्थी के नाम अर्पित कलाकेंद्र संगीत, नृत्य व कला प्रदर्शनों के साथ गुलजार रहता है। बैसे तो दिन भर ही यहाँ नाटी के साथ सांस्कृतिक कार्यक्रम चलते रहते हैं, लेकिन रात को 7 से 10 बजे के बीच कलाकेंद्र आकर्षण का केंद्र रहता है, जिसमें देश ही नहीं दुनियां के कौने से आए कलाकार इसमें अपनी प्रस्तुती देते हैं। दशहरे का अंतर्राष्ट्रीय स्वरुप इन कार्यक्रमों में भलीभांति देखा जा सकता है। सकारात्मक संदेशों के साथ सांस्कृतिक उल्लास का स्फोट यहाँ होता देखा जा सकता है।
नाटी के संग बेटी बचाओ का संदेश – नाटी जहाँ घाटी का लोकप्रिय नृत्य है, जिसके बिना मेले की चर्चा अधूरी मानी जाएगी। इस बार 12000 महिलाओं द्वारा इसका वृहद आयोजन आकर्षण का केंद्र रहा, जिसे वेटी बचाओ के सामाजिक संदेश के साथ आयोजित किया गया। पिछले ही वर्ष सामूहिक नाटी को गिनिज बुक ऑफ रिकोर्ड में स्थान मिला था।
 
खेलकूद – खेलकूद मेले का अभिन्न हिस्सा रहता है। बालीवाल, कब्ड़डी से लेकर बॉक्सिंग के मैच देखे जा सकते हैं। खेल प्रेमियों का जमाबड़ा इनमें मश्गूल देखा जा सकता है। इसे स्थानीय  स्तर पर भी आयोजित किया जाता है और अंतर्राजीय स्तर पर भी, जिसमें हर वर्ग व हर स्तर की प्रतिभा को भाग लेते देखा जा सकता है। निसंदेह रुप में नवोदित खिलाड़ियों को इसमें उभरने को मौका मिलता है।

कैटल मार्केट, मेले के निचले छोर पर किसानों के लिए आकर्षण का केंद्र रहता है। जिसमें एक से एक नस्लों की गाय-बैल, भेड़-बकरियों, घोड़े, खच्चर आदि की खरीद-फरोख्त होती है। इसमें खरीदे मनपसंद मवेशियों को साथ लेकर घर की ओर बढते किसान परिवारों की खुशी व उत्साह देखते ही बनते हैं। इनके साथ मेले में भांति-भांति के झूलों से लेकर, मौत का कुँआ व सरकस आदि मनोरंजक खेल बच्चों से लेकर युवाओं एवं बुजुर्गों का मनोरंजन करते हुए मेले में एक नया रंग घोलते देखे जा सकते हैं।  
दशहरे अंतिम दो दिन - मेले के छट्ठे दिन मुहल्ला मनाया जाता है, जिसमें देवताओं का आपसी मिलन होता है। साथ ही घाटी से आए देवता भगवान रघुनाथ को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। अंतिम दिन लंका दहन का रहता है, जिसमें राजपरिवार की कुलदेवी माता हिडिम्बा के नेतृत्व में देव काफिला व्यास नदी के किनारे बेकर(टापू) तक बढ़ता है।
वहाँ झाड़-झंखारों को जलाने व इसके बीच रावण, मेघदूत व कुंभकरण के मुखौटों को तीर से भेदने के साथ लंका दहन व लंका विजय का भाव किया जाता है। इसी के साथ बलि प्रथा का चलन भी जुड़ा हुआ है, जिसमें भैंसे से लेकर मेढ़ा, सुअर, मुर्गा व मछली की बलि दी जाती है। हालांकि 2014 में हाईकोर्ट के आदेशानुसार इस पर पाबंदी लगी थी लेकिन कुल्लू नरेश की अपील पर मामला फिर विचाराधीन है। 
हालांकि इस प्रथा की शुरुआत जिन भी परिस्थितियों में हुई हो, देवसंस्कृति के नाम पर निरीह पशुओं की बलि दशहरे जैसे सांस्कृतिक-आध्यात्मिक पर्व की मूल भावना के अनुकूल नहीं है। इसे जितना जल्द बंद किया जा सके, उचित होगा। निरीह पशुओं के प्राणों की बलि की जगह अगर दशहरे के इस कर्मकाण्ड को इंसानियत के प्राणों का हनन करने वाले दोष-दुगुर्ण रुपी आंतरिक पशुओं की बलि की ओर मोड़ा जा सके तो शायद दशहरे का पावन भाव तात्विक रुप में जीवंत-जाग्रत हो सके और इस अंतर्राष्ट्रीय पर्व के साथ असत्य पर सत्य, असुरता पर देवत्व और अधर्म पर धर्म की विजय का मूल संदेश पूरे विश्व में देवसंस्कृति की मूल भावना के अनुरुप गुंजायमान हो उठे।

मंगलवार, 5 सितंबर 2017

शिक्षक दिवस पर विशेष – शिक्षक, गुरु एवं आचार्य

आचार्य की भूमिका में तैयार हों शिक्षक

शिक्षक दिवस पर या गुरु पूर्णिमा के अवसर पर बधाईयों का तांता लग जाता है, मोबाईल से लेकर सोशल मीडिया पर। गुरु, शिक्षक एवं आचार्य जैसे शब्दों का उपयोग इतना धड़ल्ले से होता है कि कन्फ्यूजन हो जाती है। सामान्य जनों को न सही, शिक्षा क्षेत्र से जुड़े लोगों में इनकी तात्विक समझ जरुरी है, इनके शब्दों के मूल भावार्थों का स्पष्ट बोध आवश्यक है, जो कि उनके जीवन के दिशा बोध से भी जुड़ा हुआ है।

गुरु – भारतीय संदर्भ में गुरु का बहुत महत्व है, जिसे भगवान से भी बड़ा दर्जा दिया गया है। उस शब्द में जी जोड़कर अर्थात गुरुजी का उपयोग कभी भारी तो कभी हल्के अर्थों में किया जाता है। लेकिन गुरु शब्द का मानक उपयोग उन प्रकाशित आत्माओं के लिए है, जिनको आत्मबोध, ईश्वरबोध या चेतना का मर्मबोध हो गया। इस आधार पर गुरु आध्यात्मिक रुप में चैतन्य व्यक्ति हैं। आश्चर्य नहीं कि शिष्यों को आध्यात्मिक मार्ग पर दीक्षित करने वाले ऐसे गुरु कभी बिना ईश्वरीय आदेश के इस कार्य में हाथ भी नहीं डालते थे। 

इसी तरह शिष्य की अपनी विशिष्ट पात्रता होती थी, जिन कसौटी पर बिरले ही खरा उतरते थे। इसी युग में श्रीरामकृष्ण परमहंस ऐसे गुरु हुए और स्वामी विवेकानन्द से लेकर इनके दर्जनों ईश्वरकोटि गुरुभाई ऐसे शिष्य थे, जिन्होंने शरीर रहते आध्यात्मिक शिखर पा लिया था। इसी आधार पर वे गुरु कहलाने के अधिकारी थे और दीक्षा भी देते थे। ऐसे ही श्रीअरविंद, श्रीमां व उनके शिष्यों पर लागू होती है। इसी क्रम में युगऋषि पं. श्रीराम शर्मा आचार्य, उनके गुरू स्वामी सर्वेश्वरानन्दजी व शिष्यों की चर्चा की जाती है।

अर्थात, गुरु जीवन का चरम आदर्श है, पूरी तरह से प्रकाशित व्यक्तित्व। जीवन के मर्म जिसने जान लिया। गुरु आत्मविद्या, ब्रह्मविद्या या अध्यात्म विद्या का ज्ञाता होता है। उसे चेतना का मर्मज्ञ कह सकते हैं। उसमें वह अंतर्दृष्टि व तपोवल होता है कि वह पूर्णता के अभीप्सु शिष्य को अध्यात्म मार्ग पर आगे बढ़ने का मार्गदर्शन दे सके, आगे बढ़ा सके। इस आधार पर गुरु जीवन विद्या का अधिकारी विद्वान होता है। जीवन के समग्र बोध की खोज में हर इंसान का वह परम आदर्श होता है।


शिक्षक या टीचर – अपने विषय का ज्ञाता होता है। कोई फिजिक्स में है, तो कोई गणित का, कोई हिंदी का है तो कोई कम्प्यूटर का, कोई मीडिया का है तो कोई राजनीति का आदि। इस विषय ज्ञान का जीवविद्या से अधिक लेना देना नहीं है। यह रोजी रोटी से लेकर सांसारिक जीवन यापन या संचालन का साधन है। इन विषयों में अपना कैरियर बनाने वाले छात्र-छात्राओं को यह ज्ञान, विज्ञान या कौशल देने के लिए शिक्षक में उसका सैदांतिक एवं व्यवहारिक ज्ञान होना जरुरी है।
लेकिन ऐसा शिक्षक इन विषयों तक ही सीमित रहे, तो बात बनने बाली नहीं। क्योंकि विषय की खाली पैशेवर जानकारी के आधार पर वह एक स्किल्ड प्रोफेशनल तो तैयार कर देगा, लेकिन जीवन की अधूरी सोच व समझ के आधार पर अपने साथ परिवार, समाज के लिए कितना उपयोगी सिद्ध होगा, कहना मुश्किल है। 

शिक्षक के व्यक्तित्व में गुरुता का समावेश भी हो इसके लिए जरुरी है कि उसका आदर्श उच्च हो। आध्यात्मिक रुप से प्रकाशित व्यक्ति अर्थात गुरु सहज रुप में शिक्षकों के आदर्श हो सकते हैं। आदर्श जितना ऊँचा होगा व्यक्तित्व का रुपांतरण एवं चरित्र का गठन उतना ही गहरा एवं समग्र होगा। अतः जब एक विषय का जानकार शिक्षक जीवन के उच्चतम आदर्श के साथ जुड़ता है तो उसके चिंतन, चरित्र व आचरण का आत्यांतिक परिष्कार आरम्भ हो जाता है। यह प्रक्रिया कितनी ही धीमी क्यों न हो, इसकी परिणती बहुत ही सुखद एवं आश्चर्यजनक होती हैं। यहीं से आचार्य का जन्म होता है और क्रमिक रुप में वह विकसित होता है।


आचार्य – आचार्य का अर्थ उस शिक्षक से है जिसे अपने विषय के साथ जीवन की भी समझ है। जो पैशेवर ज्ञान के साथ जीवन के नियमों का भी ज्ञान रखता है और नैतिक तथा मूल्यों को अपने विवेक के आधार पर जीवन में धारण करने की भरसक चेष्टा कर रहा है, एक आत्मानुशासित जीवन जीकर अपने आचरण द्वारा जीवन विद्या का शिक्षण देने का प्रयास कर रहा है। आश्चर्य नहीं कि गुरुता के आदर्श की ओर अग्रसर शिक्षक की मानवीय दुर्बलताएं क्रमशः तिरोहित होती जाती हैं। उसके चिंतन-चरित्र एवं व्यवहार क्रमशः शुद्ध होते जाते हैं और व्यक्तित्व में उस गुरुता का समावेश होने लगता है कि वह नैतिक एवं मूल्यों का जीवंत पाठ अपने उदाहरण से पढा सके। यह एक आचार्य की भूमिका में शिक्षक की प्रतिष्ठा है।

वर्तमान विसंगति – आज जब शिक्षा एक व्यवसाय बन चुकी है, अधिकाँश शिक्षाकेंद्र व्यवसाय का अड्डा बन चुके हैं। उँच्चे दामों पर डिग्रियां देना व अधिक से अधिक धन कमाना उद्देश्य बन चुका है। क्लास के बाहर ट्यूशन पढ़ाना शिक्षकों का धंधा बन चुका है, जिस पर उनका अधिक ध्यान रहता है। जरुरत मंद विद्यार्थियों के प्रति संवेदनाशून्य ऐसे शिक्षकों एवं शिक्षातंत्र से अधिक आशा नहीं की जा सकती। जीवन निर्माण, चरित्र गठन, व्यक्तित्व परिष्कार एवं जीवन मूल्य जैसे शिक्षा के मानक इनकी प्राथमिकता में शायद ही कोई स्थान रखते हों। ऐसे शिक्षा केंद्रों से अगर एक पढ़ी-लिखी, हाईली क्वालिफाई मूल्य विहीन, नैतिक रुप से पतित, चारित्रिक रुप से भ्रष्ट और सामाजिक रुप से संवेदनशून्य पीढ़ी निकल रही हो, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं।

राजमार्ग – शिक्षा के साथ अध्यात्म का समन्वय समय की जरुरत है। शिक्षकों को आचार्य की भूमिका में युवा पीढ़ी का समग्र मार्गदर्शन करना होगा। जीवन में प्रकाशित व्यक्तित्व के धनी गुरुओं को जीवन का आदर्श बनाना होगा। इससे कम में जीवन की समग्र समझ से हीन, मूल्यों के प्रति आस्थाहीन शिक्षकों के भरोसे किन्हीं वृहतर उद्दश्यों को पूरा करने की आशा नहीं की जा सकती। इससे कम में हम जड़ों की उपेक्षा करते हुए महज टहनियों को पानी देने का कर्मकाण्ड पूरा कर रहे होंगे। शिक्षक दिवस, एक शिक्षक के रुप में अपनी भूमिका पर विचारमंथन करते हुए, स्वयं के ईमानदार मूल्याँकन का भी दिवस है।
 

रविवार, 3 सितंबर 2017

पर्व-त्यौहार – गणेश उत्सव का प्रेरणा प्रवाह



विघ्न विनाशक, बुद्धि-विवेक के दाता, ऋषि-सिद्धि के अधिष्ठाता

गणेश भारतीय पौराणिक इतिहास, कथा गाथाओं के एक अहं, रोचक एवं लोकप्रिय पात्र हैं। भारत ही नहीं विश्व के हर कौने में इनकी उपासना के प्रमाण मिलते हैं। इनके रुपाकार को देखते हुए इतिहास से अनभिज्ञ बच्चे इन्हें एलीफेंट गॉड के रुप में जानते हैं। इनके स्वरुप व विशेषताओं को प्रकट करता संक्षिप्त वर्णन यहाँ हिमवीरु की इस ब्लॉग पोस्ट में प्रस्तुत है।

शास्त्रों के अनुसार गणेश माँ पार्वती के मानस पुत्र हैं। गणेश को बुद्धि-विवेक के दाता, विघ्न विनाशक और ऋद्धि-सिद्धि के अधिष्ठाता माना जाता है। इनका पौराणिक एवं धार्मिक महत्व जो भी हो, इनकी विशेषताओं के आधार पर इनका सामयिक महत्व एवं प्रासांगिकता बहुत है, जिस पर विचार करना अभीष्ट हो जाता है। गणेश उत्सब के अवसर पर कहीं एक दिन तो महाराष्ट्र जैसे प्रांत में पूरे दस तक गणपति वप्पा मोरिया का उत्सव धूमधाम से मनाया जाता है। भादों की शुक्ल चतुर्थी से शुरु यह उत्सव अनन्त चतुर्दशी के दिन सम्पन्न होता है। अंतिम दिन गणेश की मूर्ति का विसर्जन किया जाता है। विसर्जन के साथ ही उत्सव का भाव समाप्त न हो, भगवान गणेश से जुड़ी प्रेरणाएं हमारे जीवन का एक हिस्सा बनकर साथ रहें, यह महत्वपूर्ण है। 
बुद्धि से हम सांसारिक समस्याओं का हल करते हैं, लोकजीवन चलाते हैं। लेकिन विवेक हमारे आध्यात्मिक जीवन का मार्ग प्रशस्त करता है। बुद्धि के साथ विवेक की प्रतिष्ठा जीवन के समग्र विकास के लिए आवश्यक है, जो आत्मचिंतन व मनन से होती है और इसमें स्वाध्याय-सतसंग की महत्वपूर्ण भमिका रहती है। अतः जब तक हम दैनिक जीवन में आत्मचिंतन के साथ स्वाध्याय या सतसंग का समावेश न करें, हमारा गणेश पूजन पांडाल तक ही सीमित रहेगा, इससे बुद्धि-विवेक से जुड़ी इनकी फलश्रुतियाँ से हम वंंचित ही रहेंगे।

संसार-समाज का सामान्य प्रवाह विवेक को कुंद किए रखता है। इसमें विवेक का जागरण वितराग व प्रकाशित महापुरुषों के सतसंग से होता है। यदि ऐसे सत्पुरुष उपलब्ध न हों तो इनके द्वारा रचित साहित्य का स्वाध्याय इसकी कमी कई अंशों तक पूरी करता है। फिर हर धर्म में सद्गुरुओं एवं ऋषिकल्प व्यक्तियों की आध्यात्मिक शिक्षाओं का निचोड़ समाहित रहता है। ऐसे सत्साहित्य के प्रकाश में स्वतंत्र आत्मचिंतन एवं मनन की प्रक्रिया विवेक की ज्योति जलाए रखने में बहुत सहायक होती है। दिनचर्या में कुछ समय इस हेतु निर्धारित किया जाना समझदारी वाला कदम माना जाएगा। 
 
दूसरा, गणेश ऋद्धि और सिद्धि के दायक हैं, ऋद्धि-सिद्धि को इनकी सहचरी माना जाता है। ऋद्धि आंतरिक जीवन की शांति, संतुष्टि या कहें आंतरिक जीवन की उपलब्धि है, तो सिद्धि बाह्य जीवन की योग्यता, दक्षता एवं वैभव विभूति। इन दोनों के मिलने से जीवन की समग्र सफलता प्रकट होती है और व्यक्तित्व पूर्णता का बोध पाता है। बुद्धि-विवेक से उपजी जीवन शैली निसंदेह इसका आधार बनती है और क्रमशः व्यक्ति को पूर्णता की ओर अग्रसर करती है।

बैसे ऋद्धि का आधार है व्यक्तित्व में ईमानदारी और सिद्धि का आधार है व्यक्तित्व में जिम्मेदारी का समावेश। ईमानदारी व्यक्ति के ईमान या कहें अंतर में बैठी अंतर्वाणी या देववाणी या ईश्वरीय वाणी का अनुसरण है। अंतर की वाणी बहुत स्प्ष्ट होती है, लेकिन प्रायः हम क्षणिक सुख, क्षुद्ध स्वार्थ या अहं की रौ में, या आलस-प्रमाद में इसको अनसुनी कर जाते हैं। धीरे-धीरे यह आबाज मंद पड़ने लगती है। शुरुआत में गलत राह पर जाते हुए जो अपराध बोध होता है, उसे बुद्धि अपने पक्ष में कुतर्कों के साथ पुष्ट करती जाती है। क्रमशः विवेक कुंद पड़ जाता है और जीवन गलत आदतों, व्यसनों और कुटेवों की जकड़न का शिकार हो जाता है। 

व्यक्तिगत जीवन में ईमान की दीर्घकालीन उपेक्षा एक दिन वाह्य जीवन में विस्फोटक परिस्थिति के रुप में प्रकट होती है। व्यतिगत जीवन में न्यूरोटिक और साइकोटिक मनोरोग इसके प्रत्यक्ष स्वरुप हैं तो सामाजिक जीवन में भ्रष्टाचार-घोटाले, अपराध, ब्लात्कार-गैंगरेप, विभत्स काँड जैसी दुर्घटनाएं इसकी चरम परिणतियाँ हैं। इसके मूल में अपने ईमान से समझौता, या कहें अपनी अंतर्वाणी की सतत अवज्ञा को ढूंढा-खोजा जा सकता है। महापुरुषों, सत्पुरुषों का स्वाध्याय, वितराग पुरुषों का सतसंग और सतत आत्मचिंतन की प्रक्रिया अपनाई गई होती तो विवेक की ज्योति जलती रहती और पतन की इस पराकाष्ठा तक दुर्गति नहीं होती या मनःविकारों से क्रमशः उबर गए होते।
साथ ही ईमानदारी से भरा जीवन गहरे आत्मसंतोष का भाव देता है, शांतिपूर्वक जीने का आधार बनता है। इसके विपरीत बेईमान हमेशा आशंकित-आतंकित और हैरान-परेशान रहता है, क्योंकि एक ओर समाज-संसार के दण्ड का भय रहता है, अपने बुद्धि-चातुर्य के आधार पर इससे बच भी गए तो अंतरात्मा की लताड़ लगातार पड़ती रहती है। 

हालाँकि ईमानदारी की राह तुरंत फलित नहीं होती। शॉर्ट कट्स का यहाँ अभाव रहता है। धर्म व नीति के मार्ग पर धैर्यपूर्वक चलते हुए आगे बढ़ना होता है। लेकिन जो उपलब्धि मिलती है वह गहरे आत्मसंतोष से भरी होती है और जीवन ऋद्धि सम्पन्न बनता है। मंगलमूर्ति गणेश अर्थात बुद्धि-विवेक की कृपा प्रत्यक्ष फलित दिखती है।

ईमानदारी के साथ जिम्मेदारी का भाव बाह्य जीवन में सफलता एवं दक्षता को सुनिश्चित करता है। एक विद्यार्थी के रुप में हमारी पहली जिम्मेदारी है अध्ययन करना और एक शिक्षक के रुप में हमारी पहली जिम्मेदारी है सतत ज्ञानार्जन और शिक्षण। इसी तरह हर नागरिक का अपने स्वधर्म के अनुरुप प्राथमिक जिम्मेदारी तय है। इसी के बाद दूसरी जिम्मेदारियाँ आती हैं। जिम्मेदारियों में संतुलन समझदारी या विवेक के आधार पर सुनिश्चित होता है। 

हमारी पहली जिम्मेदारी है अपने ईमान का अनुसरण करना या कहें ईमानदारी भरा जीवन जीना। एक समझदार और जिम्मेदार नागरिक के रुप में अपने कर्तव्य का पालन करना। चारों ओर जो समस्याएं मुंह वाए खड़ी हैं, उनके बीच समाधान का हिस्सा बनकर जीना। जो परिवर्तन समाज या चारों ओर देखना चाहते हैं, उसकी शुरुआत स्वयं से करना। यह सब ईमादारी के साथ शुरु होता है, जिम्मेदारी के साथ आगे बढ़ता है और समझदारी तथा बहादुरी के साथ निष्कर्ष तक पहुंचता है। उत्कृष्ट चिंतन और आध्यात्मिक जीवन शैली इसके अभिन्न घटक हैं। इतना बन पड़ा तो समझें विघ्नविनाशक भगवान गणेशजी के कृपा अजस्र रुपों में बरसेगी और फिर ऋद्धि-सिद्धि अर्थात् आंतरिक संतोष एवं बाह्य सफलता जीवन का हिस्सा बनती जाएंगी। इससे कम में मात्र चिन्ह पूजा से गणेश-उत्सव से प्रयोजन सिद्ध होने की आशा रखना नादानी होगी।

चुनींदी पोस्ट

प्रबुद्ध शिक्षक, जाग्रत आचार्य

            लोकतंत्र के सजग प्रहरी – भविष्य की आस सुनहरी    आज हम ऐसे विषम दौर से गुजर रहे हैं, जब लोकतंत्र के सभी स्तम्...