शनिवार, 14 जनवरी 2017

मेरा गाँव मेरा देश – बर्फ के संग विताए यादगार पल



प्रकृति की गर्माहट भरी गोद में बचपन की रुमानी यादें
प्रकृति की नीरवता के बीच आनन्द के पल - बर्फ के बारे में जब भी विचार करता हूँ, तो मन किसी दूसरे लोक में स्वर्गीय आनन्द की अनुभूतियों के संग विचरण करने लगता है। सहज ही याद आते हैं फुर-फुर गिरती बर्फ के अनगिन फाओं के बीच घर की खिड़की से आसमान को निहारता बचपन, बड़े-बुजुर्गों की गर्माहट भरी गोद में निर्द्न्द-निश्चिंत मासूम वालपन, उत्सव का रुप ले चुका घर-परिवार, गाँव-मुहल्ले का वातावरण, पूरे गाँव-घाटी में छाया सन्नाटा और नीरव शांति। प्रकृति जैसे कुछ पल, कुछ काल के लिए ठहर सी जाती; नीरव मौन के संग आत्मस्थ, ध्यानस्थ, समाधिस्थ। प्रकृति माँ की गोद में उसका हर प्राणी शिशुवत् मस्त, मग्न और आनन्द में डूबा हुआ प्रतीत होता। काम की सारी चिंताएं, जीवन के सारे तनाव-अवसाद, चित्त् के सकल विक्षोभ अंतर्ध्यान हो जाते। इन पलों की मस्ती का आलम शब्दों में वर्णन करना कठिन है। प्रकृति की नीरव शांति के बीच पक्षियों का कलरव इसमें नई मिठास घोलता। आज, बर्फ से दूर, प्रकृति के इस दिव्य उपहार के लिए आकूल जीवन का उत्तरार्ध, बचपन के बर्फ संग विताए पलों को याद कर संतोष कर लेता है व इसे पूर्व जन्मों के किन्हीं पुण्य कर्मों का प्रसाद मानता है।
इंतजार के पल और प्रकृति का उपहार - प्रायः बर्फवारी के पहले बारिश होती। तापमान जमाव बिंदु से नीचे गिरता। सामने की पहाड़ियों पर तो बर्फ यदा-कदा गिरती ही रहती थी। दूर पर्वत शिखरों पर व ऊँचाईयों पर बसे गाँव-घरों में बर्फ का नजारा कम दर्शनीय नहीं होता था। जब प्रातः की सुनहरी धूप बर्फीली चोटियों से होकर नीचे उतरती तो इसकी स्वर्णिम आभा पूरी घाटी को आलोकित करती। लेकिन घर के आस-पास के गाँव व निचली घाटी में कभी-कभी ही हिमपात होता। लगातार बारिश के बाद तापमान गिरने पर कभी भी बर्फ गिर सकती थी, इसका इंतजार रहता। प्रायः बर्फ रात को गिरती। सुबह बिना वताए अपने किसी आत्मीय परिजन की तरह सरप्राईज विजिट की तरह यह प्रकट हो जाती। सुबह उठते ही जब आँख खुलती, नजर खिड़की से बाहर पड़ती, तो घर-आंगन, खेत-खलियान, पेड़, छत्त व समूची घाटी बर्फ की सफेद चादर औढ़े दिखत। इसे निहारते ही एक अवर्णीय आनन्द की चैतन्यता छा जाती, पूरे तन मन व अंतरात्मा में इसकी लहर दौड़ पड़ती, जो पूरे परिवार में तरंगित हो उठती। बाल-बच्चे गर्म बिस्तर से कूद कर बाहर गिरी बर्फ के साथ खेलने दौड़ पड़ते।

बर्फ के बीच ठंड व गर्मी के पल - बड़े जहाँ बर्फ के बीच बाहर खेत में निकल पड़ते, बच्चे बर्फ के गोले बनाकर खेलने, एक दूसरे पर फैंकने और इनके तरह-तरह की आकृतियों को उकेरने में जुट जाते। यह खेल दिन भर चलता रहता। ठंड लगने पर घर में सुलग रहे तंदूर की शरण में आ जाते। मालूम हो कि ताजा बर्फ के बीच मौसम बहुत सम रहता है। आसमाँ में मंडराते बादलों के कारण व धरती को ढाँपी बर्फ इंसुलेशन का काम करते हैं। हवा का वहाव लगभग ठहर जाता है। ऐसे में सर्दी का अहसास न के बरावर रहता।
यह बात दूसरी है कि अगले दिनों मौसम साफ होने पर ठंड जमकर पड़ती है। आसमाँ का इंसूलेशन खत्म हो जाता है। तापमान जमाव बिंदु से नीचे होने के कारण चारों ओर जमीं बर्फ का नजारा पेश होता है। पानी की पाइपें जम जाती। आंगन में बने ऊखल (धान कूटने की पत्थर की पारम्परिक औखली) व नल के आसपास ठहरे पानी पर बर्फ की मोटी परत जम जाती। यहाँ तक की पेड़ की पतियों व घास एवं फसल पर औंस की परत जमीं रहती। धूप निकलने पर धीरे-धीरे इसके पिघलने का क्रम चलता।
बर्फ के बीच वन्य जीवन - जंगली पशु पक्षी भी बर्फ में अपने घोंसलों में दुबके रहते। भोजन की तलाश में इनकी आवाजाही के सुराग बर्फ पर इनके पंजों, खुरों के निशान के रुप में स्पष्ट दिखते। बालपन का शिकारी मन कोतुहल से भरकर इनका पीछा करता। मुख्यतः पेड़-पौधों के ऊपर बर्फ की मोटी परत जम जाती। ऐसे में भेड-बकरियों व गाय-बैल के लिए सूखे चारे से काम चलाना पड़ता। बर्फ कम होने पर ही शेगल, बॉन जैसे वृक्षों की हरी पत्तियों का चारा नसीब होता। पेड़ व झाडियों पर जमा बर्फ के गिरने की आबाज एक अलग नजारा पेश करती।
बंद कमरे में तंदूर की गर्माहट - जब बर्फ गिर रही होती तो दिन में आसमाँ को निहारते। ऐसे में बैठ-बैठे ही ऊपर उड़ने का अहसास होता। अंदर बंद कमरे में तंदूर (स्टील के गोलाकार या आयताकार बक्से) में आग लगातार सुलगती रहती। तंदूर के ऊपर पानी से भरा एक वर्तन लगातार जलता रहता, जिससे बीच-बीच में हॉट ड्रिंक की व्यवस्था होती रहती।
इसके साथ शकोरी (सूखे खुमानी, सेव आदि), अखरोट, गुढ़ को फाँकते रहते। गैंहूँ व मक्के को भूनकर बनी धाणा का अलग ही आनन्द रहता। बड़े-बुजुर्ग जहाँ ऊन की कताई व बुनाई में व्यस्त रहते, वाल-बच्चे बुजुर्गों को कथा सुनाने, पहेली बुझाने के लिए जोर लगाते रहते। बाहर छत में जमीँ बर्फ पिघलकर गिरती तो, इसकी टप-टप की आवाज का सुर अंतरमन में एक अलग ही आनन्द का रस घोलता।
बर्फ के साथ सेब का रिश्ता - पहाड़ी क्षेत्रों के लिए बर्फ वरदान से कम नहीं है। रवी की फसल के लिए बहुत ही उत्तम मानी जाती है। सेब के लिए तो यह निहायत जरुरत है। बागवान बेसव्री से इसका इंतजार करते हैं। इसे व्हाइट मेन्यूर तक कहा जाता है। इसके बिना सेब की वेहतरीन फसल की कल्पना नहीं की जा सकती। यह सेब के लिए आवश्यक चिलिंग आवर की जरुरत को पूरा करती है। मालूम हो कि सेब एक ऐसा पेड़ है, जिसे एक मौसम में 1200 से 1600 घंटे तक के चिलिंग आवर की जरुरत पड़ती है। इतनी हाड़ कपाँती, पानी को जमाने वाली ठंडे के बीच ही इसमें अच्छी पैदावार देने की क्षमता विकसित होती है। इससे कम में इसके फलों में वह स्वाद, रंग व गुणवत्ता नहीं आ पाती, जिसके लिए सेब जाना जाता है। स्नो फाल ही पहाड़ों में चिलिंग आवर की इस आवश्यकता को पूरा करने का माध्यम बनता है।

हालाँकि अत्यधिक बर्फ के अपने नुकसान भी हैं। बर्फीले तुफान से लेकर अवलांच (बर्फ के पहाड़ गिरना) आदि से हर साल जान-माल का भारी नुकसान होता है। जमीं बर्फ पर वाहनों का फिसना बहुत खतरनाकर होता है। लेकिन ईश्वर की कृपा से अभी तक हमारे बर्फ के साथ बचपन के अनुभव बहुत ही सुखद रहे। जब भी स्नोफाल की खबर को सुनते हैं, पढ़ते हैं व देखते हैं, तो सहज ही चित्त में जमीं गर्माहट ताजा हो जाती हैं। लगता है, काश हम भी वहाँ होते और बचपन की उन यादों को दुबारा ताजा करते।

बुधवार, 21 दिसंबर 2016

मेरा गाँव मेरा देश – यादें बचपन की

ब्यास नदी का तट और वन विहाल(विहार)-2 (समाप्न किश्त)

देवतरू वन की छाया में –

यहाँ का एक खास आकर्षण रहता गगनचुम्बी देवदारों से अटा टीला। इसके आगोश में हम खुद को जैसे विराट की गोद में पाते और अपने अकिंचन से अस्तित्व को गहराई से अनुभव करते। देवतरुओं की शीतल छाया, शुद्ध वायु. नीरव शांति में विताए पल एक दूसरे लोक में विचरण की अनुभूति देते। इसकी छाया में बने चट्टानी आसन हमारे विश्राम का स्थल होते। यहीँ पर चर कर तृप्त और थके हुए मवेशी भी विश्राम करते और हम निश्चिंत होकर कुछ पल सुकून के बिताते। यहीँ पर बैठकर साथ लाया नाश्ता करते। दोपहर के नाश्ते में प्रायः रोटी, गुढ़, मक्खन, सेब, अखरोट आदि रहते। इसी स्थल पर स्कूल की पिकनिक की यादें भी ताजा हो जाती हैं, जब पूरा स्कूल अपने शिक्षकों के साथ यहाँ पिकनिक मनाने आया था।



शमशान घाट का सन्नाटा

इसी के नीचे ब्यास नदी के तट पर खुले आसमाँ के नीचे शमशान घाट है। यहाँ का सन्नाटा हमें एक अलग ही अनुभूति देता। कल-कल बहती ब्यास नदी के किनारे स्थित इस मरघट में एक अलग ही शांति रहती। इसके किनारे नश्वर जीवन का तीखा बोध होता। हमारे कितने पूर्वजों का दैहिक अस्तित्व यहाँ राख बनकर रेतीली मिट्टी का हिस्सा बन चुका है, ऐसे ही एक दिन अपने सब प्रियजन यहाँ राख हो जाएंगे, सोचकर एक सिहरन सी होती। और अपने बजूद का भी यही अंतिम सत्य सोचकर श्मशान वैराग्य जाग जाता। जीवन की नश्वता और इस संसार की निस्सारता की गहराईयों में कुछ पल डूब जाते। बचपन में लोक किवदंतियों में सुनी भूत-प्रेत की कथाएं यहाँ से गुजरते हुए अवचेतन से उभर जातीं। हालाँकि हमें कभी किसी प्रकार के भूत यहाँ नहीं दिखे और न ही हमारे किसी साथी को। फिर भी प्रकृति की गोद में यह शमशान, वन विहार का एक ऐसा कौना था, जहाँ से विचरण हमें कुछ पल केलिए शाश्वत प्रतीत होते इस जीवन की नश्वरता का बोध अवश्य कराता।


नदी के तट पर रेत का घरौंदा

दिन में जब मवेशी चरकर थक जाते, पेट भर जाता, तो वे छायादार वृक्षों के नीचे बैठकर जुगाली करते, विश्राम करते। यही समय हमारे लिए भी नदी के किनारे खेलकूद का होता। नदी के तट पर हम रेतीले मैदान में खूब खेलते। कभी कब्बड़ी, तो कभी कुश्ती। जब थक जाते तो, बैठकर रेत का घर बनाते। गीली रेत से कई तरह की आकृतियों को उकेरते। दिन में भरी धूप में नदी के शीतल जल में डुबकी लगाते, फिर गर्म रेत पर लोट-पोटकर ठंड का उपचार करते। तैरना कभी सीख नहीं पाए, पायजामा के सिरों को गांठ बाँधकर गीलाकर, हवा भरते। इस पर छाती के बल लेटकर तैरने की कवायद करते। कुछ देर धारा के साथ बहते हुए तैरने का आनन्द लेते। हम तैराकी की इसी प्राथमिक कक्षा में बने रहे। यह बात दूसरी है कि धारा को चीरकर तैरने का सुयोग दशकों बाद गंगाजी के तट पर बनता है।



झूले के उस पार

नदी को पार करने के लिए एक झूल बना हुआ था, जो हमारे वाल मन के लिए कौतुहल का विषय रहता था। इसके आर-पार आते-जाते बढ़े लोग हमारे लिए देखने के लिए तमाशा होते। झूले के उस पार नीचे आईटीबीपी कैंप था तो ऊपर की ओर बवेली मार्केट। उस पार से कभी बन विभाग के कर्मचारी इधर आते, तो कभी मछुआरे पकड़ी मछली बेचने उसपार मार्केट तक जाते। कभी कोई पर्यटक इधऱ घूमने आते, तो कभी कुछ गाँववासी झूले से होकर घर की ओऱ शॉर्टकट मारते हुए इधर आते। शायद ही हम कभी बालपन में झूले को पार करने का दुस्साहस कर पाए हों। झूले से लोगों का आवागमन हमारे लिए मनोरंजन व कौतुहुल का ही विषय बना रहा। जिसे आज हम सोचते हैं कि थोड़ा सा हिम्मत कर आसानी से पार कर सकते थे।

भुट्टों का नाश्ता –

दिन में हमारा दोपहर का नाश्ता सामान्यतया घर से लाए सेब, रोटी, गुड़, मक्खन, आलू, अखरोट, शकोरी (सूखे सेब-खूमानी) आदि होते। लेकिन दिन के नाश्ते में नयापन लाने के लिए कभी-कभी हम खनेड़ के ऊपर भुट्टे के खेतों में घुसपैठ करते। पक रहे भुट्टों को तोड़कर लाते। लकड़ी इकट्ठा कर आग लगाते। फिर को अंगारों पर भूट्टों को भूनकर खाते। इसका एक अलग ही मजा रहता।


शाम को घर बापसी -

शाम को जैसे-जैसे सूर्यदेव सामने पहाड़ के पीछे छुपने लगते, घर बापसी की तैयारी शुरु हो जाती। सभी बिखरे हुए मवेशियों को इकट्ठा कर अतीश की छाया में ब्यास नदी के किनारे चल पड़ते। धीरे-धीरे खनेड़ की चढ़ाई को पार करते। दिन भर चरने से गाय-बैल के पेट फूले रहते। तृप्त पशु धीरे धीरे चढ़ते। शाम तक हम घर पहुँचते। वन विहार की यादें, आज बस यादें भर हैं, लेकिन जब भी घर जाते हैं, तो इस क्षेत्र का दूरदर्शन करते ही यादें ताजा हो जाती हैं। 

पता चला बीच में अतीश के जंगल लगभग समाप्त प्रायः हो गए थे। लेकिन फिर ग्रामीण वासियों के सामूहिक प्रयास से इनका संरक्षण किया गया और आज इनका सघन वन तैयार है। सिर्फ शादी-विवाह या अंतिम क्रियाकर्म के लिए इनकी लकड़ी का उपयोग होता है। हमें देखकर खुशी होती है व अपार सुकून मिलता है कि हमारे बचपन की यादें इस सघन वन में सुरक्षित-संरक्षित हैं।

यदि इसका पहला भाग पढ़ना हो तो आगे दिए लिंक पर पढ़ सकते हैं - ब्यास नदी का तट और वन विहाल (विहार), भाग-1

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