मंगलवार, 20 दिसंबर 2016

मेरा गाँव मेरा देश – यादें बचपन की

ब्यास नदी का तट और वन विहाल(विहार)-1

बचपन क कई यादगार पल ब्यास नदी के वाएं तट पर वसे कोश (अतीश) के वृक्षों की छाया में फैलेाईस विहाली के चरागाह से जुड़ हु हैं। छुट्टियों में जब भी घर जाते हैं, 1-2 किमी लम्बे और आधे से एक किमी चौड़ इस भूखण्ड को देखते ही बचपन की अनगिन स्मृतियों सहज ही कौंध उठती हैं। बालपन में कितने मासूम गुनाह इसके तट पर हम खेल-खेल में किए हैं, कितन सारी खटी-मीठी यादें इससे जुड़ी हैं, फुर्सत के पलों में ये मन को गुदगुदाती हैं, आल्हादित करती हैं, मीठा सा दर्द का अहसास कराकर कभी-कभी भावुक बना देती हैं।


सर्दी में पतझड़ का मौसम और कोउश (अतीश) के सूखे पत्ते
ठण्ड के मौसम माँ के साथ पीठ में किल्टा (जालीदार लकड़ी से बना लम्बा टोकरा) लेकर यहाँ जाते थे। पतझड़ में कोउश (अतीश) के पत्ते झड़ रहे होते थे। रोज वहाँ रेतीले तल पर इनकी ढेर लग जाती। गाँव की अधिकाँश महिलाएं व बच्चे इऩ्हें बटोरने के लिए शाम-सवेरे घर से निकल पड़ते। रेत के विस्तर पर गिरे इन सूखे पत्तों को बटोरकर किल्टों में भरकर या चादर में लपेटकर घर लाते। इन पत्तों को गाय-बैल, भेड़-बकरियों के लिए बिछोने के रुप में डाला जाता, जो बाद में गबर व गौमुत्र के साथ मिलकर ऊर्बर खाद बन जात
ग्वाले की भूमिका में गर्मी की छुट्टियों के यादगार पल
नदी पार वाहनों का कौतूहल -
गर्मी की छुट्टियों में हम अधिकाँशतः ग्वाले की भूमिका में होते। सुबह भोजन कर घर के गाए-बैल, भेड़-बकरियों को लेकर घर से 1-2 किमी दूर इस विहा का रुख करते। गाँव के, पड़ोसी यार-दोस्त भी अपने काफिले के साथ आगे-पीछे शामिल हो जाते। पूरा काफिला लेफ्ट बैंक की सड़क को पार कर धीरे-धीरे नीचे उतरता। मुख्य सड़क से पगडंडी की उतराई से उतरकर हम नीचे ब्यास नदी के तट पर पहुँचते। यहाँ से ब्यास नदी के दूसरी तरफ राइट बैंक की पक्की सड़क पर व्यस्ट्रेफिक हमें कुछ चौंकाता, तो बहुत कुछ लुभाता। यह वो समय था, जब मोबाईलटीवी जैसे संचार व मनोरंजन के साधन नहीं थे। हर मिनट ऊपर-नीचे सड़क पर दौड़ रहे रंग-बिरंगे वाहनों को हम कौतूक भरी दृष्टि से देखते। क्रमवार इनका आपस में बंटवारे का खेल करते।

ब्सास नदी और ट्राउट मछली -
नदी के तट पर पहुँचकर कोउश (अतीश) के छायादार पेड़ों के बीच प्रवेश करते। रेतीले तट पर कहीं घास, तो कहीं झाड़ियाँ थीं, जिन्हें चरते हुए मवेशी आगे बढ़ते। प्यास लगने पर ब्यास नदी की निर्मल धार का शीतल जल पीते। ज्ञातव्य हो कि ब्यास नदी यहाँ से महज 50-60 किमी दूर व्यास कुण्ड से एक छोटी सी धारा के रुप में प्रकट होती है और आगे हिमनदों के साथ मिलते हुए यहाँ तक काफी बड़ी हो जाती है। यहाँ की शांत धारा के तट पर जलक्रीडा करते व तैरने का अभ्यास करते और जहाँ धारा का प्रवाह शांत होता, वहाँ से इसे पैदल पार करने की कोशिश करते। नदी के बीच का टापू हमारे लिए आकर्षण का केंद्र रहता। 

मालूम हो कि पड़ाही नदियों का निर्मल जल ट्राउट मछलियों के लिए अनुकूल होता है और यहाँ ट्राउट मच्छलियां प्रचुर मात्रा में पायी जाती हैं। हम इनको पकड़ने क भरसक प्रयास करते लेकिन गहरे पानी में इनको पकड़ने की तकनीक से उतना बाकिफ नहीं थे। लेकिन हमारे कुछ साथी कभी जाल लेकर, तो कभी काँटा लगाकर इनका शिकार करते।

छोटी मछलियों का शिकार हमारा प्रिय शग्ल था। ब्यास नदी के किनारे फैली कौसे जल की पतली-छिछली धार में छोटी मच्छलियों को पकड़ने की कवायद चलती। यह जलधार खनेड़ के किनारे फूटते प्राकृतिक जल स्रोतों से प्रकट होती व आगे दलदली जमीं में उगे च के जंगल को पार करते हुए नदी की ओर बढ़ती तब हम वच को जंगली घास भर मानते थे, लेकिन बाद में पता चला कि यह तो मस्ष्तिकीय क्षमता बढ़ाने वाली एक अद्भुत औषधि है। 

राह का 1 से 2 किमी का इसका फैलाव हमारे लिए मछली पकड़ने का रोमाँचक स्थल होता। कितना समय इसके तट पर खेल में बिता, पता नहीं चलता था। यहाँ हम मछली पकड़ने की कई तकनीकें आजमाते। कभी दो धाराओं में से एक को सुखा देते। कभी कुछ खास नशीली हरी घास को कूट-पीस कर पानी में मिला देते। कभी पत्थरों के बीच हाथ डालकर छिपी मछलियों को पकड़ते। तो कभी सीधा पत्थर से पत्थर को मारकर मच्छलियों का घायल करने की कोशिश करते। इस तरह कुछ घंटों में हमारा दल कई दर्जनों नन्हीं मछलियों का शिकार करत। बचपन में खेल-खेल में सम्पन्न ये बालपन के गुनाहों को देखकर आज आश्चर्य होता है कि अनजानें में, खेल-खेल में इंसान अज्ञानतावश कितने कुकर्म कर बैठता है। आज होशो-हवास में हम ऐसा कुछ करने की सोच भी नहीं सकते।

सुम कुकडी (जलमुर्गी) पकड़ने की कवायद
कोस जलधार के स्रोत पर बच क दलदली जमीं सुम कुकडी (जलमुर्गी) का आश्रय स्थल था। इनका दल यहाँ जलीय जीवों का शिकार करता, हमें इनका पिछा करने में खूब मजा आता। गुलेल लेकर हम इनका पीछा करते। लेकिन ये काफी चौकन्नी होती। हमारे पास पहुँचने से पहले ये फुर्र हो जाती और कुछ दूर उड़कर बैठ जाती। हम फिर दबे पाँव पिछा करते हुए वहाँ पहुँच जाते। लेकिन य़े फिर उड़ जाती। यह लुकाछुपी का खेल चलता रहता, हाथ कुछ नहीं आता, लेकिन यह खेल हमारे दल को खूब भाता। शायद ही हम कभी कोई सम कुकडी पकड़ पाए हों, लेकिन खेल तो खेल ठहरा, इसका खूब आनन्द लेते।.....जारी, शेष अगली पोस्ट में - ब्यास नदी का तट और वन विहाल(विहार)-2

बुधवार, 30 नवंबर 2016

सुनसान के सहचर



युगऋषि पं. श्रीरामशर्मा आचार्य की हिमालय यात्रा के प्रेरक प्रसंग
युग निर्माण आंदोलन के प्रवर्तक पं. श्रीराम शर्मा आचार्य गायत्री के सिद्ध साधक के साथ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, पत्रकार, साहित्यकार, लोकसेवी, संगठनकर्ता, दार्शनिक एवं भविष्यद्रष्टा ऋषि भी थे। गहन तप साधना, साहित्य सृजन हेतु वे चार वार हिमालय यात्रा पर गए। 1958 में सम्पन्न दूसरी हिमालय यात्रा का सुंदर एवं प्रेरक वर्णन सुनसान के सहचर पुस्तक के रुप में संकलित है, जिन्हें शुरुआत में 1961 के दौर की अखण्ड ज्योति पत्रिका में प्रकाशित किया गया था
पुस्तक की विशेषता यह है कि आचार्यश्री का यात्रा वृताँत प्रकृति चित्रण के साथ इसमें निहित आध्यात्मिक प्रेरणा, जीवन दर्शन से ओत प्रोत है। प्रकृति के हर घटक में, राह की हर चुनौती, ऩए दृश्य व घटना में एक उच्चतर जीवन दर्शन प्रस्फुटित होता है। पाठक सहज ही आचार्यश्री के साथ हिमालय क दुर्गम, मनोरम एवं दिव्य भूमि में पहुंच जाता है और इसके प्रेरणा प्रवाह को आत्म सात करते हुए, जीवन के प्रति एक न अंतर्दृष्टि को पा जाता है। 

आचार्यश्री के अनुसार, सामान्य सड़क पर जहाँ पथिक आपस में हंसते बात करते हुए चलते रहे थे, वहीं संकरी घाटी को पार करते हुए, सब चुप हो जाते, सारा ध्यान पगड़ंडी पर पढ़ रहे अगले कदम पर रहता। नीचे गर्जन तजर्न करती भगीरथी के ऊपर दिवार का सहारा लेकर सुरक्षित पार होना पड़ता और इस बीच मन केंद्रित रहता। इसी तरह जीवन के संकरे मार्ग में कितनी सावधानी की जरुरत है। धर्म की दीवार का सहार लिए चलना पड़ता है, अन्यथा थोड़ी सी भी लापरवाही कितनी घातक हो सकती है। कर्म की एक चूक, कुकर्मों की कितनश्रृंखला को जन्म दे सकती है औऱ अन्ततः नागपाश की तरह असावधान पथिक को जकड़ लेती है।
भैंरों घाटी की तंग घाटी में भगीरथी नदी का प्रचण्ड वेग, तीस फीट ऊँची जल राशि के रुप में प्रकट होता है। जबकि अन्यत्र कई दिशाओं में बिखरी नदी की धारा सामान्य शांत रहती। आचार्य़श्री के शब्दों में इसी प्रकार कई दिशाओं में बिखरा मन कोई विशिष्ट उपलब्धि नहीं हासिल कर पाता है, जबकि सीमित क्षेत्र में ही अपनी सारी शक्तियों को केंद्रित करने पर आश्चर्यजनक, उत्साहबर्धक परिणाम उत्पन्न होते देखे जाते हैं। मनुष्य को अपने कार्यक्षेत्र को बहुत फैलाने, अधूरे काम करने की अपेक्षा अपने लिए एक विशेष कार्यक्षेत्र चुन ले तो, कितना उत्साहबर्धक रहे।
राह में चीड़, देवदारु के गगनचुम्बी वृक्ष यही संदेश दे रहे थे कि यदि शक्ति को एक ही दिशा में लगाए रखें तो ऊँच उठना स्वाभाविक है। जबकि तेवार, दादरा, पिनखु जैसे वृक्षों की टेढ़ी मेढी, इधर-उधर फैलती शाखाएं चंचल चित, अस्थिर मन की याद दिला रही थी, जो अभीष्ट ऊँचाईयों तक नहीं बढ़ पात और बीच में ही उलझ कर रह जाते हैं।
आचार्यश्री के अनुसार, यूँ तो बादलों को रोज ही आसमाँ में देखते, लेकिन आज हिमालय के संग हम दस हजार फीट की ऊँचाईयों में विचरण कर रहे थे, लगा जैसे बादल हमारे चरणों को चूम रहे हैं। कर्तव्य कर्म का हिमालय भी इतना ही ऊँचा है। अगर हम उस पर चलें तो साधारण भूमिका में विचरण करने वाले शिश्नोदर परायण जीवन की अपेक्षा बैसे ही अधिक ऊँचे उठ सकते हैं, जैसे कि निरंतर चढ़ते चढ़ते दस हजार फुट ऊँचाई पर पहुँचे।

गोमुख में गगाजी की पतली स धार आगे हरिद्वार, कानपुर, बनारस में आकर कितना वृहद रुप ले लेती है। विचार आया कि, परमार्थ के उद्देश्य से जब गंगा की शीतल धार आगे बढ़ती है तो कितने ही नाले व छोटी जल धाराएं अपना अस्तित्व मिटाकर इसमें मिलकर आगे बढ़ती हैं। अपना अलग अस्तित्व कायम रखने की व्यक्तिगत महत्वाकाँक्षा, कीर्ति स्थापित करने की लालसा का दमन कर सकें तो कितना लोक उपयोगी हो।..गंगा और नदी-नालों के सम्मिश्रण के महान् परिणाम सर्वसाधारण के नेता और अनुयायियों की समझ में आ जाएं ,लोग सामूहिकता-सामाजिकता के महत्व को ह्दयंगम कर सकें  एक ऐसी ही पवित्र पापनाशिनि,लोकतारिणी संघशक्ति का प्रादुर्भाव हो सकता है, जैसा गंगा का हुआ


तपोवन में पहुँच कर भागीरथ शिखर, सूमेरु पर्वत से घिरे स्थान पर शिवलिंग पर्वत से दर्शन, भावना की आँखों से ऐसे प्रतीत हो रहे थे जैसे भुजंगधारी शिव साक्षात खड़े हों। तपोवन के इसी क्षेत्र को हिमालय का ह्दय कहा जाता है, यहीँ वाईं ओर भगीरथ पर्वत है। कहते हैं कि यहीं पर बैठकर भगीरथ जी ने तप किया था, जिससे गंगावरतण सम्भव हुआ।...इस तपोवन को स्वर्ग कहा जाता है, उसमें पहुँचकर मैंने यही अनुभव किया, मानो सचमुच स्वर्ग में ही खड़ा हूँ।

वन के नीरव एकांत में, आचार्यश्री के लिए झींगुरों की वेसुरी ध्वनि भी प्रेरक बनती है। इकतारे पर जैसा बीतराग ज्ञानियों की मण्डली मिलजुलकर कोई निर्वाण का पद गा रही हो, वैसे ही यह झींगुर निर्विघ्न होकर गा रहे थे, किसी को सुनाने के लिए नहीं। स्वान्तः सुखाय ही उनका यह प्रयास चल रहा था। मैं भी उसी में विभोर हो गया’ ‘...मनुष्य के साथ रहने के सुख की अनूभूति से बढ़कर अन्य प्राणियों के साथ भी वैसी ही अनुभूति करने की प्रक्रिया सीख ली। अब इस निर्जन वन मे भी कही सूनापन दिखाई नहीं देता। इस सुनसान नें सभी सहचर प्रतीत हो रहे थे।

भोजपत्र के दुर्लभ वृक्षों एवं गंगनचुंबी देवदारु के बीच आचार्यश्री चारों ओर सहचर दिखाई देने लगे। विशाल वृक्ष पिता औऱ पितामह जैसे दीखने लगे। कषाय बल्कलधारी भोज पत्र के पेड़ ऐसे लगते थे, मानो गेरुआ कपड़ा पहने कोई तपस्वी महात्मा खड़े होकर तप कर रहे हों। देवदारु और चीड़ के लम्बे-लम्बे पेड़ प्रहरी की तरह सावधान खड़े थे। इस भावभूमि में हिमाच्छादित पर्वत शिखर आचार्यश्री को आत्मीय सहचर प्रतीत होते हैं। वयोवृद्ध राजपुरुषों और लोकनायकों की तरह पर्वत शिखर दूर-दूर ऐसे बैठे थे, मानो किसी गम्भीर समस्याओं को सुलझाने में दत्तचित्त होकर संलग्न हों। जिधर भी दृष्टि उठती, उधर एक विशाल कुटुम्ब अपने चारों ओर बैठा हुआ नजर आता था।


हिमालय का स्वर्णिम सूर्योदय आचार्यश्री को आत्मजागरण का दिव्यबोध दे जाता है। सुनहरी धूप ऊँचे शिखरों से उतरकर पृथ्वी पर कुछ देर के लिए आ गई थी, मानो अविद्याग्रस्त ह्दय में प्रसंगवश स्वल्प स्थाई ज्ञान उदय हो गया। ऊँचे पहाड़ों की आड़ में सूरज इधर-उधर ही छिपा रहता है, केवल मध्याह्न को ही कुछ घण्टों के लिए उनके दर्शन होते हैं। उनकी किरणें सभी सिकुड़ते हुए जीवों में चेतना की एक लहर दौड़ा देती है। सभी में गतिशीलता और प्रसन्नता उमड़ने लगती है। आत्मज्ञान का सूर्य भी प्रायः वासना औऱ त्रिष्णा की चोटियों के पीछे छिपा रहता है। पर जब कभी, जहाँ कहीं वह उदय होगा, उसकी सुनहरी रश्मियाँ एक दिव्य हलचल उत्पन्न करती हुई अवश्य दिखाई देंगी।

चुनींदी पोस्ट

प्रबुद्ध शिक्षक, जाग्रत आचार्य

            लोकतंत्र के सजग प्रहरी – भविष्य की आस सुनहरी    आज हम ऐसे विषम दौर से गुजर रहे हैं, जब लोकतंत्र के सभी स्तम्...