बिजली महादेव का यादगार रोमाँचक सफर
बिजली महादेव, देवभूमि कुल्लू घाटी के एक प्रमुख आकर्षण हैं। स्थानीय लोगों
के लिए ये घाटी के प्रमुख देवता हैं, ईष्ट-आराध्य और आस्था केंद्र हैं। वहीं प्रकृति प्रेमी
घुमक्कड़ों के लिए ट्रैकिंग एडवेंचर का जखीरा। ब्यास और पार्वती नदी के संगम के
ठीक ऊपर शिखर पर विराजमान यह तीर्थस्थल अपने आप में अद्वितीय है। यहाँ का
प्राकृतिक सौंदर्य शब्दों में वर्णन करना कठिन है, इसे संपूर्ण रुप में वहाँ जाकर ही अनुभव
किया जा सकता है।
कुल्लू घाटी का शिखर बिंदु –
कुल्लू की विभिन्न सुन्दर वादियों के दर्शन सहज ही इस शिखर से
किए जा सकते हैं,
क्योंकि
घाटी की यह सबसे ऊँची लोकेशन है। इसके पूर्व-उत्तर में जहाँ मणीकर्ण की ओर पार्वती
घाटी के विहंगम दर्शन होते हैं, दक्षिण में भूंतर के आगे बजौरा, नगवाईं घाटी प्रत्यक्ष है। पश्चिम में
डुग्गी लग बैली और कुल्लू घाटी की झलक पा सकते हैं, तो उत्तर की ओर नग्गर व आगे मानाली घाटी
के शिखरों का अवलोकन यहाँ से कर सकते हैं। आश्चर्य नहीं कि यह स्थल जहाँ तीर्थ यात्रियों का एक लोकप्रिय स्थल है, वहीं रोमांचप्रेमी ट्रैकरों के लिए भी आकर्षण का केंद्र है। यही स्वयं में मंजिल भी है औऱ पड़ाव भी। मणीकर्ण, भूंतर व कुल्लू से होकर चलने वाले च्रंद्रखणी ट्रैकिंग ट्रैल का यह एक अहं पड़ाव है।
तीर्थ का पौराणिक महत्व –
हर वर्ष यहाँ प्राकृतिक बिजली गिरती है। 12 वर्ष के अंतराल
पर यह बिजली शिवलिंग पर गिरती है और इसके टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं। यहाँ के
पुजारी आँख में पट्टी बाँधकर इन टुकड़ों को इकट्ठा करते हैं और मक्खन के साथ
जोड़कर पुनः शिवलिंग का रुपाकार देते हैं। इसे किल्टे से ढककर रखते हैं और शिवलिंग
कुछ समय बाद अपने मूल रुप में आ जाता है।
इससे जुड़ी कई मान्यताएं, कथाएं एवं किवदंतियाँ हैं। नीचे ब्यास
और पार्वती नदी के संगम से लेकर इनके मूल स्रोत व्यास कुण्ड और मानतलाई के बीच
मौजूद दिव्य त्रिकोण का अपना विशेष महत्व है। इसे शिव-शक्ति की क्रीडा भूमि के रुप
में जाना जाता है। बिजली महादेव को इस क्षेत्र का केन्द्रीय बिंदु मान सकते हैं, जहाँ से सहज ही इस
दिव्य भूमि का विहंगावलोकन किया जा सकता है।
बिजली महादेव के विभिन्न ट्रैकिंग रूट –
यहाँ तक पहुँचने के कई रास्ते हैं, जिनमें प्रमुख
है कुल्लू से खराहल घाटी को पार करते हुए यहाँ पहुँचना, जिसमें शुरुआती 15-18
किमी वाहनों से तय करने पड़ते हैं और आगे का लगभग 3 किमी ट्रैक पैदल पूरा करना
पड़ता है। यदि कोई चाहे तो कुल्लू स्थित टापू से होते हुए 7 किमी पैदल ट्रैक कर भी
यहाँ पहुंच सकता है। बिजली महादेव की सड़क न बनने से पहले यही प्रचलित रास्ता था।
दूसरा लोकप्रिय रास्ता है जीप सफारी के
रोमाँच से भरा,
जिसे
नगर-जाणा से होते हुए लगभग 30 किमी दूरी को पार करते हुए पूरा किया जाता है।
देवदार के घने जंगलों और पर्वत की धार (रिज) पर बनी कच्ची सड़क पर यह सफर बेहद
रोमाँचक किंतु बीच-बीच में खतरनाक अनुभव लिए रहता है।
तीसरा रूट है मणीकर्ण की ओर से
पार्वती बैली से होकर। जिसमें मुख्य मार्ग पर बसे शरशैणी गाँव से पार्वती नदी को
पार कर ओलड़ गाँव की खड़ी चढ़ाई को नापते हुए यहाँ पहुँचा जाता है। यह ट्रैकरों के
स्टेमिना की अग्निपरीक्षा लेने वाला बेहद थकाऊ रास्ता है।
आम पर्यटकों के लिए कुल्लू से खराहल घाटी को पार करते हुए पहला
रुट ही सरल पड़ता है।
खराहल घाटी में प्रवेश परिचय –
इस रुट पर पहले 15-18 किमी तक हिमाचल परिवहन की लोक्ल बसें
सरवरी बस स्टैंड़,
कुल्लू
से नियमित अंतराल पर चलती रहती हैं। सुबह मानाली से आने बाली लेफ्ट बैंक की पहली
बस भी कुल्लू से होकर सीधा यहाँ जाती है। यदि अपना वाहन हो तो यात्रा का मनमाफिक
लुत्फ उठाया जा सकता है। यात्रा की शुरुआत रामशिला स्थान के पास ब्यास नदी के
किनारे बने ओवरब्रिज से मानी जा सकती है। यहाँ के मुख्य मार्ग से खराहल घाटी को
मुडती सड़क के साथ इस घाटी में प्रवेश हो जाता है और आगे खराहल घाटी की हरी भरी
सुंदर वादी के बीच सफर आगे बढ़ता है। यह घाटी सेब व नाशपती के फलों के लिए मशहूर
है। साथ ही इस सीजन में यहाँ टमाटर की खेती को भी व्यापक स्तर पर किसानों को
आजमाते देखा जा सकता है।
यात्रा
के समानान्तर विहंगम दृश्य -
सड़क हल्की चढ़ाई के साथ घाटी को पार करती हुई आगे बढ़ती है।
नीचे कुल्लू शहर के अखाड़ा बाजार, सुल्तानपुर, सरबरी बस स्टैंड, ढालपुर मैदान (कुल्लू दशहरे का प्रमुख
प्रयोजन स्थल),
आगे
गाँधी नगर आदि स्थल समानान्तर रुप में व्यास नदी के पार एक बिहंगम दृश्य पेश करते
हैं। फल-सब्जी के उत्पादन ने घाटी को समृद्धि की सोगात दी है, जिसे यहाँ के मकान, भवन व लोगों के जीवन
स्तर को देखकर अनुभव किया जा सकता है। पानी की कमी को पूरा करने के लिए व्यास नदी
से लिफ्ट इरिगेशन की व्यवस्था की गई है।
शिखर की ओऱ बढ़ता सफर –
जिगजैग रास्ते से होते हुए सफर घाटी के शिखर की ओर बढ़ता है।
हर मोड़ नीचे व दूर घाटी के मनोरम दृश्य को पेश करता है। एक और जहाँ दूर माहोल, भूंतर घाटी आती है, वहीं दूसरे छोर पर
सेउवाग-काइस घाटी के दर्शन होते हैं। सामने काईस धार और पींज घाटी के गाँव धीरे धीरे नीचे
छूटते जाते हैं। चढ़ाई के साथ यात्री किसी दूसरे लोक में पहुँचने की अनुभूति पाते
हैं। नीचे की घाटियाँ,
यहां
तक कि कूल्लू शहर, ब्यास नदी आदि शीघ्र
ही नजर से नदारद हो जाते हैं। यात्रियों का सीधा संवाद घाटी के पार खड़े पर्वत
शिखरों से होता है। सेब के बगीचों, टमाटर के खेतों और देवदार के गगनचुंबी
वृक्षों व बाँज के जंगलों के बीच सफर का अंतिम पड़ाव पूरा होता है। इसी के साथ आगे
का पैदल सफर शुरु होता है।
ट्रेकिंग का शुरुआती एडवेंचर -
टैक्सी स्टैंड से रास्ता धीरे धीरे सेब-नाशपाती के बगीचों के
बीच चढ़ाई पकड़ता है। आगे सफर कहीं खड़ी चढाई लिए रहता है तो कहीं कुछ तिरछापन लिए, तो कहीं रास्ता सीधा
सपाट हो जाता है। लेकिन रास्ते भर देवदार के घने जंगलों की शीतल छाया और बहती शीतल
ब्यार सफर को खुशनुमा बनाए रखती है। थके राहियों के लिए मखमली घास और बड़ी-बड़ी
चट्टानों से बने प्राकृतिक आसन व विश्राम स्थल भी हर पड़ाव पर नेह भरा आमंत्रण
देते रहते हैं। रास्ते में भूखे-प्यासे यात्रियों के लिए जगह-जगह पर पहाड़ी ढावों
में चाय-नाश्ते की समुचित व्यवस्था है।
पर्यावरण
संरक्षण के सराहनीय प्रयास -
इस रुट की एक खासियत यहाँ सीमा सुरक्षा बल द्वारा लगभग हर
50-100 मीटर पर लगाए गए लकड़ी व टीन के डस्टबीन हैं, जो कचरे के निस्तारण में मदद करते हैं, जिससे की किसी तरह का
कचरा रास्ते में न फेल सके। साथ ही ये डस्टवीन प्रेरक वाक्यों के साथ पर्यावरण
संरक्षण का पुख्ता संदेश भी देते रहते हैं।
कुल मिलाकर 3 किमी का सफर पता ही नहीं चलता कैसे पूरा हो जाता
है। देवदार के झीने होते आवरण के साथ लगता है कि अब मंजिल के करीब पहुँच गए। जल्द
ही देवदार के जंगल विरल हो जाते हैं। स्नो लाइन के आते ही अन्य बड़े वृक्षों के
दर्शन दुर्लभ हो जाते हैं,
बचती
हैं तो कुछ झाड़ियों व छोड़ी घास व फूलदार नन्हीं ज़डी बूटियाँ। जिनके दर्शन
अगस्त-सितम्बर माह में अपने चरम पर होते हैं।
बिजली महादेव परिसर में -
बिजली महादेव के वाहरी परिसर
में यात्रियों की भूख प्यास को शांत करने की समुचित व्यवस्था है। इसके बाद बिजली
महादेव के गेट के अंदर किसी तरह का मानवीय हस्तक्षेप नहीं है। यहाँ रास्ता सीधा
मंदिर की ओर बढता है। वाइँ और जहाँ विश्रामगृह बना है तो दाईं ओर पुजारियों के
निवास स्थल। परिसर में केंट (नाशपाती का आदिम जंगली रुप) का इकलौता वृहद वृक्ष
स्वयं में यहाँ का एक रोचक आकर्षण है। इसके आगे लकड़ी से बना मंदिर का भवन व सामने
गगमचूंबी बूर्ज। शिखर पर होने की बजह से यहाँ हर समय तेज शीतल व्यार बहती रहती है।
प्रकृति की गोद में कुछ यादगार पल -
मंदिर में दर्शन व जप ध्यान
के बाद यात्री बाहर बुग्यालों पर चलने, लेटने व विश्राम का आनन्द लेते हैं। मंदिर
के दक्षिण की ओर मखमली हरी घास से सजे बुग्याल यात्रियों को लोटने पोटने व बैठने के
लिए बर्बस आकर्षित करते हैं। यहाँ से नीचे घाटी का विहंगम दृश्य दर्शनीय है। भूंतर
हबाई अड़डे की पट्टी से लेकर व्यास नदीं की पतली सी धार और नीचे बजौरा, नगवाई और
ओट घाटी...।
यहाँ के स्वर्गोपम वातावरण
में घर परिवार संसार की चिंता सब न जाने कहाँ काफूर हो जाती हैं। यहाँ पर सही
मायनों में दूसरे लोक में विचरण की आलौकिक अनुभूति होती है। मन करता है कि यहीं प्रकृति
की गोद में ध्यान मग्न बैठे रहें, प्रकृति के अनन्त विस्तार के माध्यम से ईश्वर की
सत्ता को निहारते रहें, अपने स्व के केंद्र की ओर चेतना के शिखर का आरोहण करते
रहें। लेकिन ढलता सूरज बापिस लौटने के लिए बाध्य करता है।
शिखर के भावपूर्ण अनुभव –
इस शिखर से बापसी में चारों
ओर का विहंगम दृश्य स्वयं में बेजोड़ एवं दिव्य रहता है। एक और पार्वती घाटी,
दूसरी ओर कुल्लू व डुग्गी लग घाटी, ऊपर नगर, मानाली घाटी...सबकुछ बिजलेश्वर महादेव
के चरणों में नतमस्तक दिखते हैं। और इन घाटियों से निस्सृत पार्वती नदी और व्यास
नदी नीचे संगम पर महादेव के चरणों को पखारती प्रतीत होती हैं। आश्चर्य नहीं कि
नीचे जिया स्थान पर स्थित संगम को स्वयं में तीर्थ का दर्जा प्राप्त है, जिसमें
स्थानीय लोगों को ही नहीं बल्कि घाटी के देवी-देवताओं को पुण्य स्नान का लाभ लेते
देखा जा सकता है।
घर वापसी –
मंदिर से बापसी पर नीचे राह
में बसे ढावों में अपनी मनपसंद डिश के साथ चाय-नाश्ता एक रिचार्जिंग अनुभव रहता
है। यहाँ के बुग्यालों में घास चरती गाय, बैल व बछड़ों को सहज ही देखा जा सकता है।
सीजन में भेड़ बकरियों भी गडरियों के साथ यहाँ विचरण करती हैं। घर बापसी का रास्ता
देवदार के घने जंगलों से होकर नीचे उतरता है।
ट्रैकिंग में चढाई की जहाँ
अपनी कठिनाइयों होती हैं, वहीं उतराई की अपनी चुनौतियाँ हैं। धीमे-धीमे ही इसे तय
करना उचित रहता है। अन्यथा उतराई में पैरों को गति पकड़ते देर नहीं लगती। रास्ते
भर गगमचूम्बी देवदार के वृक्षों की छाया के बीच घने जंगल की नीरव शांति, देव बनों
की अतुलनीय सौंदर्य को नहारते हुए नीचे उतरना एक यादगार अनुभव रहता है। आधे-पौना
घंटे बाद खेत, बगान और गाँवों के दर्शन होने लगते हैं और जल्द ही ट्रैकिंग रुट का
सफर पूरा हो जाता है। आगे अपने वाहन में बापसी का सफर ढलती शाम के साथ एक नए अनुभव
को जोड़ता है।
सुखद स्मृतियों के साथ यात्रा का समापन –
क्षितिज से ढलता सूरज, शाम
का पसरता साया एक नया अनुभव देता है। घाटी के दृश्य अपने नए रुप में नए अनुभव देते
हैं। सफर की थकान धीरे धीरे हल्की होती है और स्मृति कोश में संचित तीर्थयात्रा की
सुखद यादें एक एक कर उभरने लगती हैं। इन्हीं यादों के साथ सफर पूरा होता है और याद
आती हैं मास्टर का वह कथन कि तुम तीर्थ स्थल को जाते नहीं हो, तुम्हे बुलाया गया
था। कहीं अंतर की गहराईयों से, दिल से पुकार उठी थी, उसी का प्रत्युत्तर ऐसी
यात्राओं के माध्यम से पूरा होता है। व्यवस्था बनती है, दैवीय संयोग घटित होते हैं
और यात्रा के माध्यम से किन्हीं अनसूलझे प्रश्नों के जबाव मिलते हैं। जीवन का
कारवां तमसो मा ज्योतिर्गमय पथ पर आगे बढ़ता है।